tag:blogger.com,1999:blog-75047970808309329502024-03-06T06:59:03.864+05:30राही मासूम रज़ा का साहित्य ( RAHI MASOOM RAZA )vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.comBlogger177125tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-5020085752390112382013-10-20T19:57:00.002+05:302013-10-20T19:57:50.496+05:30<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzDttJPenlx2GhSL4ShDF-D2ZQN-4l6QdXyU1OsbjYE-9KH9SP_h_LoiNhmfg7aU9rPVrEXUfv_6bVMCy8RBo6grWa_2g8HN99JiL_7QMF3BmCp396TyDlflhA9oZLPweS6l29pZQ4kNAa/s1600/1176381_529444377122117_1647248948_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="279" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzDttJPenlx2GhSL4ShDF-D2ZQN-4l6QdXyU1OsbjYE-9KH9SP_h_LoiNhmfg7aU9rPVrEXUfv_6bVMCy8RBo6grWa_2g8HN99JiL_7QMF3BmCp396TyDlflhA9oZLPweS6l29pZQ4kNAa/s320/1176381_529444377122117_1647248948_n.jpg" width="320" /></a></div>
rahi masoom raza ka kaymat upnayas<br />vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-85098297499807385692013-10-20T19:56:00.002+05:302013-10-20T19:56:14.838+05:30<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgONBp1tZH0-e5mXVbl3yLyUMJgwXF0jcY6ctoKM3S_qd8UY9t2f8uEfFzSfzGqS1sZm_WV0LLvbDYUbXdCiHdO6YThjE7ez0iuJn3KwtUpo22w6ttn5t9hiPgLYzwEydZYas8sFYsgZUUY/s1600/1173881_529444210455467_1333358850_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgONBp1tZH0-e5mXVbl3yLyUMJgwXF0jcY6ctoKM3S_qd8UY9t2f8uEfFzSfzGqS1sZm_WV0LLvbDYUbXdCiHdO6YThjE7ez0iuJn3KwtUpo22w6ttn5t9hiPgLYzwEydZYas8sFYsgZUUY/s320/1173881_529444210455467_1333358850_n.jpg" width="320" /></a></div>
rahi masoom raza ka naya upnayas 2013<br />vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-41818653749887059582010-12-28T19:48:00.000+05:302010-12-28T19:48:23.082+05:30यादों के दायरे<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यादों के इस सफ़र में शामिल होने के लिए जब बात राही साहब से हुई तो उन्होंने कहा, मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू, क्योंकि उन लोगों को जानने से जि+न्दगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।'' आधा गांव', टोपी शुक्ला', हिम्मत जौनपुरी' ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज' और सीनः ७५' के कविमन रचनाकार डॉ० राही मासूम रजा की कलम से उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के उन्हीं भरे-भरे अरसों की खूबसूरत यादें।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हर आदमी के पास लिखने के लिए एक जीवनी होती है, पर हर आदमी वह जीवनी लिख नहीं पाता... हर आदमी लिखना चाहता भी नहीं क्योंकि कुछ यादें इतनी निजी होती हैं कि उनमें किसी को शरीक करने को जी नहीं चाहता। मेरे पास ऐसी यादें ज्यादा हैं। इसलिए मैं कभी अपनी जीवनी नहीं लिखूंगा परंतु मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू क्योंकि उन लोगों को जानने से जिंदगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मैं तो बंबई महानगर में जब अपने आप से ऊबने लगता हँू, उन लोगों में से किसी एक या दो को समय की गर्द झाड़ कर पास बिठा लेता हू और थोड़ी देर के बाद अपने जीवन-संघर्ष के लिए ताजा दम हो जाता हू।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">दस साल से बंबई में अपनी यादों के सहारे जी रहा हू। बंबई ने आज तक मुझे कोई ऐसा क्षण नहीं दिया, एक क्षण के सिवा, जिसे यादों की दुनिया में जगह मिले। यह क्षण है मेरी बेटी, मरियम की पैदाइश का क्षण।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यहाँ कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। ड्ष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गये होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिये और उस काम की मज+दूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हू।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फ़ैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहां से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपये थे। तब कमलेश्वर ने सारिका', भारती ने धर्मयुग' से मुझे पैसे ऐडवांस दिलवाये और ड्डष्ण जी ने अपनी एक फ़िल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गयी। आज सोचता हू कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ०पी० तांतिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेंहदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की। क़ज उतर जाता है। एहसान नहीं उतरता और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आती पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूं किया कि मैं यह भूल गया कि फ़िलहाल मैं बेरोज+गार हूं। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हू उससे बड़ा था। इसका किराया ६०० दे रहा हू। उसका किराया केवल १५० रुपये माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिज+र्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जायें क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डांट पिलायी मैंने।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गये और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हमने कमरे में दो गद्दे डाल दिये और वहीं दो गद्दों वाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंगरूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों ड्डष्णचंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उनसे मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न मांग बैठूं। यह शेर उन्हीं दिनों की यादगार है-</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बे-चेहरा लोगों में रह कर भूल गये आवाज+ </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अपनी अक्सर ख्वाहिश होती है, कुछ बात करें हम साये से </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उन्हीं दिनों मुझे पहली बार डर का अनुभव हुआ और उसी डर ने मेरी आवाज में एक अजीब कड़वाहट भर दी। बस नैयर थीं और नैयर के पेट में मरियम थी और मेरी परेशानियां थीं। नैयर कभी-कभी थक जाती। उन दिनों की एक कविता सुनाता हू -</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तेज+ चलने लगी गुरबत ;मुसाफ़िरतद्ध में हवा </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">गर्द पड़ने लगी आईने पर</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जागते रहने का हासिल क्या है</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आओ, सो जाओ, मेरे सीने पर</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि बिगड़ जायेंगे</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि हमें धूप में देखेंगे तो कतरायेंगे</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ख्वाब तो दोस्त नहीं हैं कि जो बिछड़ेंगे तो याद आयेंगे</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जागते रहने का हासिल क्या है</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अव्वलेशब ;रात के पहले हिस्से मेंद्ध उसे देखा था यहां </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चांद ठहरा है उसी ज+ीने पर</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आओ सो जाओ, मेरे सीने पर।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यही कड़वाहट तो मेरी वह पूंजी है जो ÷ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज', सीनः७५' और कटरा बी आर्जू' लिखने में खर्च हुई।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उन दिनों मैं हिल रोड पर रहा करता था। लगता कि दिन भर यह सड़क मेरे फ्लैट के बीच से होकर गुजरती है। गयी रात को ज+रा शोर कम हुआ करता था और तब मैं नैयर के साथ अकेला होता था और उन्हीं के अकेले क्षणों में नैयर का प्यार मेरी आत्मा के घाव धोता और मुझे दूसरे दिन की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार करता... नैयर को मेरी शायरी पसंद नहीं। पर मुझमें जीते हुए शायर ने नैयर के लिए एक लोरी लिखीः</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आओ, हम तुम चलें नींद के गांव में </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">इस पसीने के गहरे समुंदर के साहिल पे टूटी हुई सारी अंगड़ाइयां सो गयीं</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शोर कम हो गया</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कहकहे सो गये</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सिसकियां सो गयीं</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सारी सरगोशियां सो गयीं</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">रास्ते, चलते-चलते घरों में समाते गये</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शहर अकेला खड़ा रह गया</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्यों न हम इस अकेले, भटकते हुए शहर को साथ लेते चलें</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नींद के गांव तक</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">रात ढलने लगी</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आंख जलने लगी</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लफ्ज खुद अपनी आवाज के बोझ से दब गये</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तुमने सरगोशियों को रिदा चादरद् ओढ़ ली </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आओ, सरगोशियों को ही रख्ते-सफ़र सफ़र का सामान की तरह बांध लें</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आओ, हम तुम चलें</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नींद के गांव में</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अंधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गयीं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गयीं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाये हुए आया। हमने उस तुहफ़े को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और ड्डष्णजी को तकलीफ़ होती और हम उन्हें तकलीफ़ देना नहीं चाहते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">रहीम ने ग़लत कहा था कि : रहिमन बिगड़े दूध को मथे न माखन होय।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जीवन का दूध जब बिगड़ता है तभी माखन बनता है। क्योंकि तभी मनुष्य अपने आप से उलटे-सीधे सवाल करता है। मैंने भी अपने आप से उन दिनों कई सवाल किये। पूछा कि :</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या वह दिन भी दिन हैं जिनमें दिनभर जी घबराये</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या वह रातें भी रातें हैं जिनमें नींद न आये?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कभी-कभी वह लमहे भी आये जब हार मान लेने को जी चाहने लगा। ऐसे में घर की याद आती-</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं राही </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आये और हमको समझा के कोई घर ले जाये।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ऐसा इसलिए था कि उन दिनों में अपनी आत्मा को लहू-लुहान पा रहा था परंतु अपने खून से कहानियां और शेर लिखने का हौसला था मुझमें। फिर भी मुझे अपना मरसिया लिखना पड़ाः</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">एक चुटकी नींद की मिलती नहीं</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हाय हम किस शहर में मारे गये...</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">घंटियां बजती हैं,</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जीने पर क़दम की चाप है</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फिर कोई बे-चेहरा होगा,</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुंह में होगी जिसके मक्खन की जबां,</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सीने में होगा जिसके एक पत्थर का दिल</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुस्करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जायेगा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सच कहता हू, मेरी आवाज के पांव किसी दलदल में धंसे जा रहे थे और मैं बेबसी से अपने गुम होने का तमाशा देख रहा था क्योंकि कुछ कर ही नहीं सकता था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लेकिन मैंने फिर भी हार नहीं मानी। बंबई में मैंने चार उपन्यास लिखे। आठ-दस कहानियाँ लिखीं। चालीस-पचास नज्+में लिखीं। दो-चार सौ फुटकर शेर लिखे। सौ-पचास लेख भी लिखे होंगे। पलट के देखता हूं तो लगता है कि सौदा ख़िसारे का नहीं रहा। मैं यह दस साल फिर से जीने को तैयार हू।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">और कमलेश्वर कहते हैं कि वह राही मासूम रजा नहीं हैं कि जो चाहे वह उनसे अपनी अंट-शंट फ़िल्में लिखवा ले। यह बात किसी और ने कही होती तो इतनी तकलीफ़ न होती। पर कमलेश्वर...यह मानने को जी नहीं चाहता। जो कमलेश्वर मेरा दोस्त था वह कहीं गुम हो गया है। यह तो आर०के० नारायण की लिखी हुई किसी फ़िल्म का कोई पात्र है जो तलवार भांजता फिर रहा है कि कोई तो घायल होगा... मेरे दिल के जख्मों की खतौनी में एक-आध घाव कमलेश्वर के लगाये हुए भी हैं और यही मेरी गर्दिश के दिनों की सबसे ज्यादा भयानक देन है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मैं आज कमलेश्वर की बात करना नहीं चाहता था। पर बंबई की एक याद वह भी है, तो उसका जिक्र कैसे न करता।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आजकल घर बहुत याद आ रहा है। बारह साल हो गये घर नहीं गया हूं। लोग भी याद आते हैं। पर ज्+यादा याद आती है वहां की धूल भरी गलियां, गचकी वाली सड़कें, बेतकल्लुफ़ भीड़भाड़, मेरी मातृभाषा बोलती हुई आवाजें। अभी कुछ दिन पहले एक ग़जल लिखी है। उसी के दो शेरों पर आज की बात ख्त्म करता हू।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कच्चा आंगन बिस्तर खोले, दरवाजा विश्राम करे</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी कुछ दिन को अपने घर हो आयें, राम करे</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मेरी घायल आंखों ने तो जोड़ लिये हैं हाथ अपने </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बनजारे सपनों की टोली किन आंखों में शाम करे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-81505091250769463432010-12-28T19:47:00.000+05:302010-12-28T19:47:05.274+05:30मेरा खिंचाव राही की ओर नहीं, एक सच्चे, शरीफ आदमी की ओर हुआ था<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">- प्रेम कुमार</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुख्य द्वार पर पहुँचते ही यह इमारत अपनी भव्यता, विशालता और लम्बी उम्र का अहसास कराने लगती है। शमशाद मार्केट के चौराहे से अनूपशहर रोड पर आगे बढ़ने पर सुलेमान हॉल से जरा पहले बाईं ओर बड़ा-सा एक प्रवेश द्वार है। इसके दाहिनी ओर सफेद पत्थर पर अंग्रेजी में अंकित काले अक्षर उभरते हैं- आफ़ताब मंजिल, आफ़ताब अहमद खान, १९०४। एक शताब्दी से अधिक की उम्र जी चुकी इस इमारत के अंतस् तक पहुँचाने वाली सड़क के दोनों ओर खड़े लम्बे-लम्बे घने छायादार वृक्ष, दूर तक फै+ला बेहतरीन रख-रखाव वाला बग़ीचा, जगह-जगह रखे क़िस्म-क़िस्म के रूपाकार वाले गमले, गमलों में बढ़ते-फैलते, चहकते-महकते बहुत सारे फूल पौधे। पोर्च के दायीं ओर भरपूर ऊँचाई पर मुग़लकालीन रहीसों, नवाबों, जैसी वह इमारत और बायीं ओर साधारण-सी एक इमारत की लम्बी सफेद दीवार पर लगी तामचीनी की एक नेमप्लेट। उस पर अंग्रेजी में लिखा है डॉ० राही मासूम रजा। मन में सवाल उठता है - यहाँ यह नेम प्लेट ऐसे इस जगह क्यों?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनके आने की प्रतीक्षा करती मेरी आँखें उस अतिथिकक्ष की एक-एक चीज+ को जल्दी से देख - याद कर लेना चाह रही थीं। गद्देदार बेहतरीन सोफे , काँच लगी मेजें, बेहतरीन लकड़ी के स्टूल, शोकेस, उन पर रखे फूलदान-फ़ोटोज, टेबिल लैम्प, आतिशदान और दो बड़ी अल्मारियों में रखे, दीवारों पर टंगे फ्रेम जड़े अन्य छोटे-बड़े फ़ोटोज। पर्दे। छत पर धीमे-धीमे घूमता बुड्ढा-सा पंखा और ममि पीली-सी रोशनी बखेरता एक बल्ब। जी हाँ, यहाँ उनसे मेरा मतलब नैयर रजा राही से है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस शख्सियत के मासूम रजा की जिन्दगी में आने का सच और अर्थ क्या था? राही से जो जितना दूर था, उसने दोनों के जुड़ने को लेकर उतना ही ऊल-जलूल सोचा-फैलाया। क़रीबी-जानकार लोग अपने-अपने कारणों से चुप्पी-सी साधे रहे। कुछ ने जब तब कुछ कहा भी तो अपनी समझ और दृष्टि से। नतीजतन राही के जीवन और लेखन को लेकर अनेक बेसिर-पैर की, अनर्गल, अप्रामाणिक, परस्पर विरोधी बातें जन्मती, पलती, फैलती रहीं। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">डॉ० फ़ीरोज से ज्ञात हुआ कि नैयर रजा अमेरिका से यहाँ आयी हुयी हैं। मन हुआ कि राही की जिन्दगी से उनके जुड़ने के सच को उन्हीं से जाना जाये।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">गुलाबी कुर्ता, पीली-सी सलवार। एकदम सफेद चुन्नी। दमकता, मुस्कराता गोरा चेहरा। श्वेत केश। भरपूर चुस्ती-फुर्ती। न कोई श्रृंगार, न बनावट-सजावट। सब कुछ एकदम सादा-शालीन। सादगी भरी खूबसूरती, स्नेह भरा अपनापन। फिर भी मन में संकोच मिला एक डर मेरे साथ था - जो प्रश्न मेरे अन्दर घुमड़ रहे थे, उन्हें सुनकर वे कहीं नाराज न हो जायें। मना न कर दें। हिम्मत जुटाकर बाहर लगी राही साहब की नेमप्लेट के बारे में सवाल किया। जोर की हँसी सुनाई दी। हँसते-हँसते बताने लगीं - इसकी अपनी एक कहानी है जिस हिस्से में हम लोग बैठे हैं, इसे मेरे दादा ने बनवाया था। इस हिस्से में आठ बड़े-बड़े बैडरूम्स हैं। चारों तरफ बरामदा और बीच में बड़े दरवाजे से एक गली। इस गली में सभी बैडरूम्स के दरवाजे खुलते हैं। बीच में बड़ा-सा एक हॉल है। उसके इस तरफ मर्दाना और उस तरफ जनाना। दादी के जमाने में उस तरफ कोई जा नहीं सकता था। नीचे के दो कमरे दादा जान ने अपने लड़कों के लिए अलग से बनवाये थे कि उनके दोस्त आयें तो वे वहाँ मिलें। पर उनके वे बेटे टेंथ के बाद यहाँ से इंग्लैंड चले गये। जहाँ मासूम की नेमप्लेट लगी है - इस जुड़े हिस्से को हम लोग डिब्बा कहते हैं और नौकर लोग छोटी कोठी कहते हैं। कमरों के पीछे वाले हिस्से में तीन कॉटेज बने हैं। उन्हें मेरे ताया ने बनवाया था। वे बैरिस्टर थे और बड़ौदा स्टेट में चले गये थे। वह हिस्सा किराये पर उठा दिया था। इस सामने वाले हिस्से में उर्दू डिपार्टमेंट में चेयरमैन रहे - नसीम कुरैशी साहब रहते थे। उनकी डैथ के बाद इस वाले हिस्से को किसी के नाम अलॉट कर दिया गया। मैं दफ्+तरों में गयी, अफ़सरों से मिली। उन्होंने कहा कि आप पर तो घर है इसलिए यह आपके नाम अलॉट नहीं हो सकता। मैंने कहा कि मेरे हसबैंड के नाम पर घर नहीं है तो उन्होंने उनके नाम अलॉट तो नहीं किया पर छोड़ दिया था। नहीं, वह इसमें बिलकुल नहीं रहे... उनका ऑफिस बना दिया था और यह नेमप्लेट लगवा दी थी। नहीं, अलीगढ़ में मैं और कहीं नहीं रही, यहीं रही।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही साहब से आपके जुड़ने और उनसे पहले की जिन्दगी के बारे में तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं। उन तमाम क़यासों-अफ़वाहों पर विराम लगाने के लिए ज+रूरी है कि आप उस सबके बारे में कुछ कहें...?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बड़े ध्यान से सुना सब। जरा देर कुछ सोचा और फिर बड़े सहज भाव से बताने लगीं - जी, मेरी पहली शादी कर्नल यूनुस खान से हुई थी। वे मेरे कजि+न थे। बुरा रिवाज+ था यह हमारे यहाँ कजिन के साथ शादी का। इनके फादर सर अब्दुल समद खाँ हरी सिंह के जमाने में कश्मीर में होम मिनिस्टर थे। वे मेरे ख़ालू थे। जब हम लोगों ने डायवोर्स करने का तय किया तो मैंने डिसाइड किया कि मैं श्रीनगर में रहू। वहाँ बच्चे वन हॉल स्कूल में पढ़ रहे थे। मैं उस समय तक राही मासूम रजा को जानती नहीं थी। मैं मासूम से अपने डायवोर्स के दो साल बाद मिली। नहीं, उससे पहले जानती भी नहीं थी। नहीं, नहीं... भागने-भगाने का सवाल ही क्या था! तब तक दिमाग़ में भी नहीं था कि कोई मिलेगा या शादी करनी है या नहीं। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही साहब से आप पहली बार कब, कहाँ मिलीं? आप दोनों का वह मिलना शादी करने के निर्णय तक कैसे पहुँचा? </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कुछ याद किया है जैसे। उतनी उस यात्रा को तय करने में ज्+यादा देर नहीं लगी थी तब - कर्नल साहब की डैथ के बाद कश्मीर में रहकर मूनिस भाई से मिलना हो गया था। मासूम रजा से तो इत्तफ़ाक़ से मिलना हुआ। तब मूनिस रजा की फ़ैमिली वली मंजि+ल में रहती थी। उस दिन मैं उनसे मिलने गयी थी वहाँ। मेरा चचाजात भाई, जिसकी डैथ हो चुकी है, मेरे साथ था। वहाँ मालूम हुआ कि मूनिस भाई तो जा चुके हैं। तो उस दिन वहाँ पहली बार मेरा मिलना मासूम से हुआ। भाई उन्हें पहले से जानता था। उसी ने बताया कि जिन्होंने दरवाजा खोला - वे पढ़ाते हैं, बड़े मशहूर शायर हैं। नहीं, तब बिलकुल अट्रेक्ट नहीं हुई। फिर मिलना-जुलना आना-जाना होता रहा। फिर धीरे-धीरे बढ़ता रहा फिर एक साल बाद हमने शादी का तय किया। मैंने उन्हें अपनी वालिदा से मिलवाया। वालिदा ने एप्रूव किया। बिलकुल, उनकी इजाज+त से हुआ सब और हमने शादी कर ली।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या ख़ास दिखा था आपको उनमें ऐसा कि आपने शादी करने का निर्णय लिया?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ख़ास यह था कि हमारे ख़यालात बहुत मिलते थे। हमने तय यह किया था कि मैं आपकी पहली जिन्दगी के बारे में कुछ नहीं पूछूँगी और आप मेरी जिन्दगी के बारे में भी नहीं पूछेंगे। और हमारा यह वादा आख़िर तक रहा। जी हाँ, यूनुस से मेरे तीन लड़के भी थे। मासूम ने उन तीनों को बहुत प्यार दिया - अपने बच्चों की तरह। अब भी बहुतों को मालूम नहीं है कि यह मासूम के बच्चे नहीं हैं और बच्चों ने भी उन्हें बाप की तरह बेहद इज्जत दी। जी, तीन बेटे और एक बेटी है अब।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लोग कहते हैं आपसे शादी करने के कारण ही राही साहब को अलीगढ़ छोड़ना पड़ा?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यह मैं क्या कहू... उस वक्त मासूम यहाँ लैक्चरर थे। टैम्परेरी थे। जहाँ तक मुझे ख़याल है उर्दू डिपार्टमेंट के कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ थे। यहाँ अशोक चन्द्रा नाम का एक लड़का पढ़ता था। उसके वालिद आर० चन्द्रा फ़िल्मों के मशहूर डायरेक्टर थे। उससे मासूम की दोस्ती हुई। यह सच है कि यहाँ से वे छोड़ना नहीं चाहते थे। मजबूरन गये वे अलीगढ़ से। चन्द्रा साहब ने उन्हें मुशायरा नाम की फ़िल्म लिखने को बुलाया। इत्तफ़ाक़ ऐसा हुआ कि वह बनी नहीं। बस, फिर चन्द्रा जी के ज+रिये भारत जी से, भारत जी के जरिए और फ़िल्म वालों से मिलना हुआ। फिर इस तरह फ़िल्में बनती गयीं। शुरू की कुछ तो रिलीज ही नहीं हुईं पर बाद में बनती गईं। फिर हम मार्च, १९६६ में परमानेण्टली बम्बई चले गये थे। जी, बीच में मासूम आते रहते थे यहाँ। जी, बेटी मरियम वहीं बम्बई में पैदा हुई। अब अमेरिका में है। पहले टीचिंग करती थी - अब इंश्योरेंस कम्पनी में एक बड़े पद पर है। उसके हसबैंड डॉक्टर हैं। वो मूनिस रजा साहब के बेटे हैं। नहीं, यह शादी इन बच्चों ने नहीं की, बड़ों ने मिलकर करवायी थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आपने शादी से पहले क्या अपने बेटों से कुछ पूछा था?आपके दूसरी शादी के निर्णय को उन्होंने कैसे लिया और वे बाद में क्या आपके पास ही रहे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, बच्चों से नहीं पूछा था। छोटा तीन साल का था। एक आठवीं में और दूसरा नवीं में यही पढ़ रहा था। बड़ा नदीम खान नसीरुद्दीन का साथी था। वो सिनेमोटोग्राफर बन गया। मझले इरफान खान ने कैमिस्ट्री में एम०एस-सी० किया। उसकी बम्बई में कैमीकल्स की छोटी-सी एक फैक्ट्री है। छोटा हांगकांग में है। ईवेंट्स मैनेजमेंट करता है और अब वही सैटिल है। जी, बच्चे तब पढ़ रहे थे। यूनुस का श्रीनगर से बनारस ट्रांसफर हुआ और फिर वहाँ से बरेली हुआ। तो बच्चे बरेली कान्वेंट में पढ़ने चले गए। बच्चों पर यह कोई पाबंदी नहीं थी कि वे मेरे पास रहें या यूनुस के। हम लोगों में अच्छी अंडरस्टेंडिंग थी। छोटा क्योंकि छोटा था इसलिए मेरे पास रहता था। वैसे बच्चे दोनों जगह रहे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वह क्या था जिसने आपको यूनुस साहब से अलग होने और राही साहब से जुड़ने के लिए प्रेरित किया?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">थोड़ी देर कुछ सोचती-सी चुप बैठी रहीं। फिर जैसे जिं+दगी के उन पुराने पृष्ठों को खोल पलट कर धीमे-धीमे मुझे सुना रही थीं वे - मालूम नहीं - पर ये है कि यूनुस के ख़यालात बिलकुल अलग थे। मेंटल एडजस्टमेंट नहीं हो पाया था। आर्मी की नौकरी - कभी कहीं, कभी कहीं। काफी अलग रहना पड़ता था। बहुत खुशगवार जिंदगी नहीं गुजरी। कोई लड़ाई नहीं हुई - पर जो दिली सुकून होता है, वह नहीं मिला। हालाँकि उनके साथ रहते उन लोगों से भी मिलना हुआ जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वो देखिए सामने दीवार पर - मेरी तस्वीर राजेन्द्र बाबू के साथ है - और ये राजाजी हैं। वे प्रेसीडेंट के डिप्टी मिलिट्री सैक्रेट्री थे। वे राष्ट्रपति भवन में छह साल रहे और मैं चार साल। बाहर के मुल्क़ों से लोग आते, उनसे मुलाक़ात होती ऐसे-ऐसे लोग जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे। ये देख रहे हैं आप - शाह ईरान की जुड़वां बहन - प्रिंसिज+ अशरफ पहलवी। ये वहाँ आकर रहतीं तो मिलना होता।' अचानक कुछ याद आया। उठकर गईं और तुरंत एक फ्रेम्ड फ़ोटो हाथ में लिए उल्लसित-सी लौटीं - देखिए, बड़ी ऐतिहासिक फ़ोटो है - दाएँ से बाएँ - ये यूनुस, ये अशरफ पहलवी, बीच में महाराज जयपुर, ये पहलवी की छोटी बहन फ़ातिमा पहलवी, और ये बॉडीगार्ड थे - मेजर ठाकुर गोविंद सिंह...।' बड़ी लम्बी एक साँस ली है। शब्दों में का अफसोस साफ सुनाई दे रहा है - अब इनमें से एक भी जीवित नहीं है।' फ़ोटो मेज पर रखकर चुप बैठ गई हैं। मैंने अपना सवाल दोहराया है। जैसे वे कहीं और से लौट रही थीं उस क्षण वहाँ - ये बताऊँ आपको - वैसे बड़े नेक इंसान थे यूनुस। बहुत ख़याल करने वाले। मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई बचपन से मेरी परवरिश अलग ढंग से हुई। जिद्दी तबियत थी मैं। शायद उसी वजह से हुआ होगा वह सब...।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अपनी खूबसूरती के बारे में मैं क्या बताऊँ?... मुझे नहीं लगता कुछ...। आप जान लें - मेरा खिंचाव राही से नहीं हुआ। मैं जब शुरू में उनसे मिली तो मुझे उनकी बातों में सच्चाई नज+र आई। और जैसे-जैसे ताल्लुक़ात और हुए तो ये बात और भी पुख्ता हुई कि उस शख्स में बनावट नहीं थी। एज ए पर्सन-एक सच्चे आदमी। जो दिल में होता वही कहते। क्यों जुड़ी - मुझे खुद नहीं मालूम। पर मिलते-मिलते ये जानकर कि यह सच्चा, शरीफ आदमी है - शायद यही देखकर। नहीं, उन्होंने मेरी कोई तारीफ़ - वारीफ़ नहीं की। हाँ, हाँ विरोध तो इतना कि हम सुन्नी, वो शिया - पूरे माहौल का फ़र्क था। उनकी बात मैं क्या बताऊँ... मुझे लगता है शायद मेरी बोल्डनेस ने उन्हें अट्रेक्ट किया होगा। यूनुस और मासूम के ताल्लुक़ात बहुत अच्छे थे। यूनुस ब्रॉड माइंडेड थे। उनका कहना था कि हमारा एक रिश्ता ख़त्म हो गया, पर दोस्ती का रिश्ता तो क़ायम है। मैं उनके ख़ानदान से मिलती रहती हू। उनके परिवार के लोगों से मेरी अब भी बेहद करीबी है। यूनुस मरियम को बेइंतहा चाहते थे। एक दिन उन्होंने यहाँ मुझसे पूछा कि मैं मरियम को तीनों बच्चों के बराबर का हिस्सा देना चाहता हू। मैंने कहा कि मुझे कोई ऐतराज नहीं है, पर आप अगर मासूम से पूछ लें तो बेहतर होगा। रामपुर में उनकी जायदाद है। यूनुस ने मासूम को खत लिखा। उन्होंने कह दिया कि ठीक है, मुझे कोई ऐतराज नहीं है। और आप देखिए कि मरियम उस जायदाद में भाइयों के बराबर की हिस्सेदार है और भाई भी उसे बेहद चाहते हैं।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनके बोलने का अंदाज बता रहा था कि उन्हें अपने इन दोनों सम्बन्धों पर आज भी नाज है। मेरी आँखों में शायद उन्होंने कहीं कुछ आश्चर्य जैसा देख लिया था। उस आश्चर्य को और भी बढ़ाती हुई वे बता रही थीं - मेरा और मासूम का एक ही कहना था कि इंसानी रिश्ते टूटते नहीं हैं। ये तो दुनियावी रिश्ते हैं कि शादियाँ हुईं या डाइवोर्स हुए। लोग एक-दूसरे के बीच तलवारें, खींच लेते हैं। डायवोर्स के बाद यूनुस को यहाँ मेडीकल कॉलिज में एक बड़े पद पर नौकरी मिल गई थी। तब मेरी अम्मा और बूआ इस घर में अकेली रहती थीं। उन्होंने यूनुस को लिखा कि तुम आफ़ताब मंजिल में आकर रहो। उन्हें थोड़ा हेजीटेशन हुआ। उन्होंने मुझसे लिखकर पूछा कि तुम्हें या मासूम को तो कोई ऐतराज नहीं है। हमने लिख दिया कि नहीं। और वो यहीं रहते थे...।' उँगली उठाकर बताया - उन बराबर वाले कमरों में। जी, मैं बराबर अम्मा के पास आती रहती।... मासूम को अगर ऐतराज होता तो मैं आती ही नहीं। हमारी दिमागी एक अंडरस्टेंडिंग थी - एक-दूसरे पर भरोसा था। नहीं, यहाँ आने पर भी उनसे वो सब बातें नहीं होती थीं...।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">टुकुर-टुकुर उनके चेहरे की ओर ताकता। मैं चकित भाव से वह सब सुन रहा था। मन में आए सवाल के कुछ शब्द ही बोल पाया था तब - यूनुस यदि इतने अच्छे थे तो...? बड़ा शांत-सा स्वर सुनाई दिया था - हर वक्त उलझने-बुलझने से तो बेहतर था कि...।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आपको राही साहब की पहली शादी की बात मालूम थी क्या? आपके या उनके मन में क्या शादी के बाद गलती या अपराध बोध जैसा भाव भी कभी आया था?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुझे मालूम था कि मासूम की पहली शादी बहुत कम उम्री में उनके वालिद ने करा दी थी। हाँ, बचपन में उनकी टाँग में तकलीफ़ थी। पहली बीवी हमारी शादी के वक्त थी कहाँ तब? उनका तलाक़ हो चुका था बरसों पहले। खुद राही बता चुके थे। नहीं, उनसे कोई संतान नहीं है। अफसोस की बाबत मैं क्या बताऊँ। मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं। मुझे नहीं मालूम। वैसे मैंने कभी अफसोस जैसा कुछ देखा नहीं। कभी कोई ताल्लुक़ात ही नहीं थे उनके। जहाँ तक मेरी बात है - उनसे जुड़ने के बाद ग़लती का कभी अहसास नहीं हुआ। हमेशा लगा कि मेरा डिसीजन सही था...।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">किस आधार पर...?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मेंटली सेटिसफेक्शन देखकर।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही के साथ गुजारे वक्त के बारे में आज क्या कहना चाहेंगी आप?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जो वक्त उनके साथ गुजरा, बहुत अच्छा गुजरा। उन्होंने मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। जो मैंने चाहा-वह चाहे ग़लत था या सही - उन्होंने पूरा किया। दरअसल मेरे वालिद ने मुझे इतना बर्बाद किया कि मेरी हर जिद पूरी करते थे। मैं जिद्दी होती चली गई। मासूम ने मेरी जिदें कैसे झेलीं, ये उनका ही दिल जानता होगा। लेकिन झेलीं जरूर - किसी बात में इंकार नहीं किया। हम लोगों की जिंदगी नार्मल थी। आपस में जैसे झगड़े होते रहते हैं, वो सब नहीं। गिव एंड टेक का मामला था। गिव इन मासूम ही ज्यादा करते रहते थे। मेरा अपना ख़याल है - या तो हम लोगों की अपब्रिंगिंग अलग तरह से हुई थी इसलिए हमारी सोचें बिलकुल अलग-अलग थीं। इसके बावजूद हम लोगों में कभी विरोध जैसा कुछ नहीं रहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देर तक कुछ सुनाई नहीं दिया तो निगाह उठाकर उनकी ओर देखा - उनकी आँखों से एकांत में जलते दीपक जैसा प्रकाश झर रहा था। ऐसा प्रकाश जो किसी एक को सम्बोधित-निवेदित न होकर अपने सारे आस-पास को रोशनी से भर देता है। चहकती-सी उनकी आवाज सुनाई दी - ÷एक इंट्रेस्टिंग किस्सा सुनिए - मैंने पार्टीशन से पहले सन् छियालीस में कान्वेंट से सीनियर कैंब्रिज किया। उस ज+माने में अंग्रेजी का जोर था। मैं पैंट्स में रहती थी। मेरे वालिद ने कहा कि तुम चार चीजें मुझसे सीख लो - अरबी, हिन्दी, चैस और हॉर्स राइडिंग। पहली तीन मैंने ख़त्म कर दीं - हॉर्स राइडिंग जरूर सीखी।' लम्बी-सी एक हँसी सुनाई दी - शादी के बाद की बात है। तब जाकिर हुसैन साहब वी०सी० थे। मैंने कहा - चचा, मुझे राइडिंग की परमीशन दे दें। उन्होंने कहा कि जा सकती हो, पर लड़कों के टाइमिंग से एक घंटा पहले। गर्ल्स कॉलिज में मुमताज आपा प्रिंसिपल थीं। मैंने उनसे कहा कि मैं तो किसी सूरत में पर्दा नहीं कर सकती। पर्दा न करने पर वहाँ एक आने रोज का फ़ाइन लगता था। मैं पूरे महीने का एक साथ जुर्माना भर देती। अम्मा के चीख़ने-चिल्लाने के बावजूद मैंने साइकिल पर जाना शुरू किया। झाँसी से सीनियर कैंब्रिज करने के बाद यहाँ ज्वाइन किया था। मैथ्स, साइंस नहीं मिल पाई थी सो प्राइवेट किया। १९५० में सैकिंड ईयर में शादी हो गई। मुझे राइडिंग का बहुत शौक था। मैं थोड़ी सनकी हू। एक चीज को ज्यादा दिन मैं नहीं कर सकती। शंकर वीकली से कार्टूनिस्ट का कोर्स किया, इंटीरियर डेकोरेशन और टेक्सटाइल डिजाइनिंग के डिप्लोमा कोर्स किए - लेकिन लग कर कुछ नहीं किया। मासूम से मैंने एक ही चीज पर कम्प्रोमाइज किया था। उन्होंने कहा कि मुझे ये पतलून-जींस पहनना पसंद नहीं - और मैंने मान लिया। जिन्दगी में केवल एक यही कम्प्रोमाइज किया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही साहब आपको अपने प्यार का अहसास कैसे कराते थे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुझे तो था ही अहसास। खतों से अहसास कराया। खूब कहते भी रहते थे। मैं बेकार की जि+द करती थी तो वो मान लेते थे - तो अहसास तो हो ही जाता था। - नहीं - उनको ये था कि यहाँ से मैं घर-वर- सब कुछ छोड़कर चली गई थी... हालाँकि माँ की इजाज+त थी... फिर भी उन्हें लगता था कि मैं तुम्हें वो चीज नहीं दे पा रहा हू, जैसी तुमने जिन्दगी गुजारी है। हालाँकि मैं किसी चीज की आदी नहीं थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शादी के बाद पहली बार उन्होंने अपनी भावना कैसे व्यक्त की?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फ़ीलिंग तो पहले एक्सप्रेस कर ही चुके थे... वो सब मुझे याद नहीं। हाँ, शादी यहीं हुई और शादी के बाद यहीं रहे। बम्बई तो कुछ दिनों के लिए तब गए थे जब मासूम की डिपार्टमेंट में कुछ लोगों से नाखुशी की बातें हुईं। उसके बाद चंद्रा साहब ने बुला लिया तो शिफ्ट किया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">गोल-नीली-सी टोपी लगाए नाटे कद के एक चुस्त-दुरुस्त बुजुर्ग ने बड़े अदब से झुककर सलाम करते हुए वहाँ प्रवेश किया। नैयर साहिबा तुरंत उसकी ओर मुख़ातिब हुईं। बड़े आत्मीय भाव से उनकी तबीयत और कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानकारी ली और मुझसे परिचय-सा कराती हुई कहने लगीं - ÷ये जो हैं - बाबूलाल हैं। इनके दादा भी यहाँ थे और फादर भी। इनके पिता सीताराम मेरे अब्बा के साथ ग्वालियर में थे। इनके बड़े भाई गोविंद राम - उन्हें मैं लॉर्ड जी० राम कहती थी - सारा इंतजाम देखते थे। जब मैं यहाँ नहीं होती तो बाबूलाल ही इंचार्ज होते हैं। अब ये भी बूढ़े हो रहे हैं और मैं भी। इनकी बच्ची लीला मेरे ही पास है। उसे छुटपन से पाला है। उसके मियाँ की डैथ हो गई। इनके समधी की तेरहवीं है। ये भोपाल जा रहे हैं। मुझे इनकी बहुत फिकर है। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बाबूलाल गए तो मैंने फिर से उन्हें उस मनःस्थिति में पहुँचाने के इरादे से पूछ लिया - आपसे शादी के बाद राही साहब ने क्या अपने जीने के ढंग में कुछ बदलाव किया था?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जी हाँ, उन्होंने चेंज तो काफ़ी किया था। रेस्ट्रांबाजी, घूमना-फिरना सब रोक दिया था। वहाँ इतना जबर्दस्त काम था कि चौबीस घंटे में बीस घंटे वे काम में लगे रहते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चौबीस घंटे में से बीस घंटे...?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जी, दिन में मिलना-जुलना और फ़िल्म वालों से, डायरेक्टर्स से डिसकशन आदि। शाम से रात के एक बजे तक फ़िल्मों को लिखना - डायलॉग...। फिर एक बजे से तीन बजे तक अपना सीरियस लिट्रेरी काम... यही आर्टीकिल्स। तब डी०लिट्० भी कर रहे थे। एक ही - लास्ट चेप्टर रह गया था। डी०लिट्० - जी, मेरा ख़याल है मीर अनीस के ऊपर थी। नहीं पोइम्स नहीं। पोइम्स तो चलते-फिरते, गाड़ी में चलते भी लिखते रहते थे। रात को तो केवल आर्टीकिल्स। और क्या लिखते थे मुझे पता नहीं। मैं सो जाती थी।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लिखने के तुरंत बाद क्या कभी कुछ आपको भी सुनाने की जिद करते थे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सवाल सुनकर पहले खूब हँसीं। फिर बोलीं - वो मसल है न - भैंस के आगे बीन बजाना...। जब कोई चीज मेरी समझ में ही नहीं आए तो मैं क्या करूँ? मैं नहीं पूछती थी कि क्या लिख रहे हो। घर का और बच्चों का काम करती थी। मुझे मुख्+तलिफ़ चीजें करने की सनक-सी चढ़ती है। तो मैंने एक बार मासूम से पूछा कि मैं डायरेक्शन सीख लूँ। वो बोले-शौक से सीख लो। मैंने राज खोसला साहब से कहा। वे बोले - आ जाया करो बेटे। एक-दो फ़िल्मों में थोड़ा-बहुत उनके साथ सीखा। फिर यहाँ अलीगढ़ आना-जाना पड़ता था। अम्मा की तबियत ठीक नहीं थी। वो भी छोड़ दिया। सुनाने की जिद वे करते ही नहीं थे। उन्हें मालूम था कि शायरी से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। हिन्दी की शायरी का मुझे बिलकुल शौक नहीं। समझ में नहीं आती। जब जबान ही समझ न आए तो क्या सुनती मैं। लिट्रेरी काम उनका बिलकुल पर्सनल था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लिखने के लिए क्या उन्हें कुछ ख़ास चीजों या किन्हीं विशेष तरह की स्थितियों - मनःस्थितियों की ज+रूरत होती थी? आप उनके लिखने में कैसे और क्या मद्द करती थीं?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मैं बिलकुल मदद नहीं करती थी। लेकिन एक चीज आपको बताऊँ - उनके काम करने का ढंग ये था कि जैसे तीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट रख ली सामने। एक का लिख रहे हैं अब... फिर वहाँ से दिमाग़ का स्विच ऑफ़ किया और दूसरी स्क्रिप्ट पर काम शुरू। ऐसे लिखते थे। फ़िल्म वालों में आम चीज+ है कि हमारे लिए होटल में कमरा कर दीजिए तब लिखेंगे हम। मासूम का कहना था कि मैं सिर्फ़ घर में लिख सकता हू - जहाँ मुझे मेरी बीवी और बच्चों की आवाजें सुनाई देती रहें। वो कहीं होटल-वोटल में लिखते ही नहीं थे। घर पर हम लोग बात भी कर रहे हैं, बच्चे खेल भी रहे हैं, शोर मचा रहे हैं, म्यूजि+क बज रहा है - जब वो स्विच ऑफ़ कर लेते थे दिमाग को तो असर नहीं होता था उन पर। चाय-दिन में कम से कम पचास बार - जिसमें न शकर, न दूध। शराब - नहीं, पहले पीते होंगे - मेरे सामने नहीं पी। मैं अपना काम करती रहती थी। कहीं आना-जाना होता चली जाती। मासूम बहुत कम लोगों से मिलते थे।... मैं फ़िल्मी दुनिया से बिलकुल अलग रही। वो सिर्फ़ रोजी-रोटी का सवाल था। मासूम जाते थे सूटिंग वगैरा को - मुझे शौक नहीं था। पर हाँ, सुनीलदत्त, बी०आर० चोपड़ा साहब, राज खोसला जैसे चंद लोगों से घरेलू ताल्लुकात थे - बाक़ी ताल्लुकात तो प्रोफेशनल थे। हमारी बातें - हम लोग कोई सीरियस बात नहीं करते थे - बस, ऊटपटांग बातें करते रहते थे।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनकी पसंदीदा, उन्हें खुश करने वाली कुछ चीजें-बातें?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मीठा जरूर होना चाहिए खाने के बाद - कोई भी मीठा - और पान, तम्बाकू-सिगरेट कम पीते थे।... एक ये ख्वाहिश हमेशा से थी कि मैं पैंसठ का हो जाऊँगा तो ये फ़िल्मी काम छोड़कर वापस अलीगढ़ जाऊँगा और वहाँ लिट्रेरी काम करूँगा और डी०लिट्० कम्पलीट करूँगा। पर ये पूरी नहीं हो पाई।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनका सबसे अधिक लगाव किस बच्चे से था?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सब बच्चों से था। मरियम को बहुत प्यार करते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनका गुस्सा...?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हाँ - ओऽऽऽ - कोई बेवकूफी की बातें करता था तो बहुत गुस्सा होते थे। नहीं, मेरे ऊपर तो नहीं होते थे... प्रोड्यूसर्स पर होते थे - छोटे-बड़े भाइयों व बहनों पर भी गुस्सा होते थे। लेकिन वो गुस्सा थोड़ी देर का होता था। चीख-चिल्लाकर थोड़ी देर में ठीक हो जाता था। नहीं - मुझ पर चीखे कभी नहीं। मेरी ग़लती पर ये ज+रूर कहते थे कि ये ग़लत बात है। ग़लती-ज्यादातर बच्चों को लेकर ही ऐसी नौबत आती थी।... लिट्रेचर की जिन बातों पर डिसएग्री करते थे, उन पर जल्दी झुँझला जाते थे। वैसे शांत रहते थे। लिट्रेचर वालों से हिन्दी-उर्दू को लेकर तो हमेशा झगड़ते रहे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आप कभी गाजीपुर गई हैं?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जी नहीं, मैं कभी गाजीपुर नहीं गई। इलाहाबाद से आगे मैं गई ही नहीं। मासूम के वालिद गर्मियों में खुद चार महीने को बम्बई आ जाते थे। बहनें भी आ जाती थीं। तो बस मिल-मिला लेते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बम्बई के ग्लैमर का कितना असर रहा उन पर?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बम्बई उन्हें पसंद ही नहीं था। वो सिर्फ़ अलीगढ़-अलीगढ । अलीगढ़-और गाजीपुर को ही याद करते रहते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बम्बई में क्या कोई और औरत भी उन्हें अपनी तरफ खींच पाई?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">प्रश्न सुनकर पहले दाहिने हाथ का पंजा इंकार की मुद्रा में हिलाया। अब ना में गर्दन हिली। कई बार-नहीं, नहीं-और फिर कुछ देर बाद एक वाक्य - ये शिकायत तो मुझे कभी हुई ही नहीं।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अब बातें राही साहब के स्वभाव और सोच के बारे में हो रही थीं। वे सहज, निश्छल भाव से अनरुके बोले जा रही थीं - प्रेम के बारे में-उनका असली मक़सद था कि जो भी हो इमोशंस पर-हाँ, सच्चाई पर हो। औरत-औरत की बहुत इज्जत थी उनके मन में। वो औरत को बिलकुल बराबरी का दर्जा दिए जाने की बात कहते-करते थे। लड़कियों से इतना लगाव था उन्हें कि किसी को बच्चा होने वाला होता तो उसे हमेशा यही दुआ देते कि उसके लड़की हो। नहीं-मॉर्डन जमाने से कोई ख़ास लगाव नहीं था। पुरानी विरासत को लेकर ही ज्यादा खिंचाव-लगाव था।' बोलते-बोलते रुकीं। जैसे अचानक कुछ याद आया - दो-तीन घटनाएँ याद आ रही हैं। उनसे आपको मासूम के सोच का पता चलेगा - हमारे बहुत करीब का लड़का है। उसने एक हिन्दू लड़की से शादी की। उसके शहर में हायतौबा मची। उसने मुझे बताया। कहा कि मैं बम्बई लेकर आ रहा हू लड़की को। आप हमारा निकाह करा दें। मैं ना नहीं कर पाई। मासूम से बात हुई तो फ़ौरन से पेशतर बोले - इस घर में उस हिन्दू लड़की का निकाह नहीं पढ़ाया जाएगा। उस लड़के की बात छोड़िए - अपने बेटे नदीम की शादी का किस्सा आपको सुनाऊँ - नदीम सूटिंग के सिलसिले में इंग्लैंड गए थे। फ़िल्म का नाम याद नहीं आ रहा। उसने वहाँ से मासूम को फ़ोन किया - एक लड़की है यहाँ पार्वती महाराज। वो वेस्ट इंडियन है। मैं उससे शादी करना चाहता हू। मासूम ने कहा कि मेरी तरफ से बिलकुल इजाजत है। पर एक शर्त है कि वो कनवर्ट नहीं होगी। वो जो मजहब मानती है, वो अपने मजहब पर क़ायम रहेगी।... मैं तो तब अलीगढ़ थी और मैंने कह दिया था पहले ही कि तुम जिससे चाहो शादी कर लो। दो ने कर ली है - तीसरा-छोटा करता ही नहीं। वो कहता है मैं ऐसे ही बहुत सुखी हू। जी, मरियम पर एक बेटा है बारह साल का।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नमाज तो वे पढ़ते ही होंगे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, नमाज नहीं पढ़ते थे। मैंने कहा भी कि मेरी एक ख्+वाहिश ये है कि आप एक वक्त बस, नमाज पढ़ लो। तो बोले कि तुम अपनी ख्वाहिश अपने पास रखो और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। हम लोगों के यहाँ ईद, बकरीद, होली, दीवाली और क्रिसमस-सब होते थे। मैं भी शुरू से करती थी। उन्हें किसी में कोई ख़ास लगाव नहीं था। मैं बीस तारीख़ से क्रिसमस ट्री बना देती थी। अब क्रिसमस ट्री मरियम बनवाती है अपने यहाँ।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही यदि आपसे न जुड़ते तो क्या इतना-ऐसा कुछ कर पाते?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मेरे ख़याल से तब भी वे ऐसे ही रहते। ये सब जरूर करते। जहाँ तक मेरा ख़याल है मेरे आने से जिन्दगी में सैटिल ज्यादा हो गए। जिन्दगी में जो एक ठहराव आना चाहिए, वो आया।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आपको उनके लेखन की कितनी-क्या जानकारी है?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, सब तो याद नहीं। पर काफ़ी कुछ तो पता है। जी, सबसे पहले वे इलाहाबाद में अपने एक दोस्त - जिनका निकहत पब्लिकेशन था - के लिए लिखा करते थे। नहीं, राही नाम से नहीं-आफ़ाक़ हैदर और शाहिद अख्तर नाम से रोमानी दुनिया लिखते थे। कोई चालीस-पैंतालीस नॉवेल लिखे। नहीं, पैसे कहाँ देते थे वे। उनका नाम याद नहीं आ रहा। केवल दोस्ती में लिखते थे उनके लिए। फ़िल्म के दिनों में भी बहुत लोग आते थे उन पर लिखवाने। वे किसी को मना कर दें, पर टेक्नीशियंस को मना नहीं करते थे। एक टेक्नीशियन थे-उफ, नाम उनका भी याद नहीं आ रहा - आए और बोले कि मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं, पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दो। आप हाँ कहें तो अभी लाता हू। मासूम बोले कि ठीक है, जब डिसकशन को आओ तो दो बीड़े ले आया करो। और उनके लिए पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दी। पैसों का तो उन्होंने कभी किसी प्रोड्यूसर से भी डिसकशन नहीं किया। जिसने जो दे दिया, ले लिया। इलाहाबाद में रहने की बात... नहीं, बीस साल लगातार सिर्फ़ शायरी की बात ग़लत है - प्रोज+ भी वे लिखते रहे। आप देखिए एक अगस्त, १९२७ की उनकी पैदाइश थी। पन्द्रह-सोलह की उम्र में बोन टी०बी० हुई थी। मेरे ख़याल से लंग्स की टी०बी० हुई थी तब - हाँ, जब वो भुवाली रहे। पैर की हड्डी में टी०बी० हुई थी तो आप्रेशन हुआ - पैर छोटा हो गया। जी, एम०ए० उर्दू में यहीं से किया-पी-एच०डी० किया। जी, पी-एच०डी० तिलिस्म होशरूबा पर.... तो वहाँ इलाहाबाद में इतना कहाँ रहे होंगे...।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आपने उनका लिखा कितना कुछ पढ़ा है?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बस, आधा गाँव पढ़ा है - और टोपी शुक्ला पढ़ा है। नहीं, हिन्दी में नहीं-इंग्लिश में आ गया है न ऑक्सफोर्ड पब्लिकेशन से। पर वो मुझे इंग्लिश वाला ठीक नहीं लगा। शीर्षक ही गलत लगा। अब दूसरे एडीशन में ठीक किया है उसका नाम। पहले लिखा था - फ्यूडिंग फैमिलीज+ ऑफ़ गंगोली - और अब आया है ÷द विलेज डिवाइडेड' नाम से। जी, उर्दू में भी आ गया है। हिन्दी का और-जी, कमलेश्वर और भारती जी को पढ़ लिया करती थी। जब हम लोग बम्बई गए थे तो जाहिर है मासूम पर ज्+यादा काम नहीं था। तो इन दोनों ने तब बहुत मदद की थी। कैसे क्या पढ़ती थी - इन दोनों का कुछ ट्रांसलेट होकर मिल जाता था तो पढ़ लेती थी - या मासूम से सुन लेती थी। हाँ, कुर्रतुल की वो किताब मैंने पढ़ी है आग का दरिया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आधा गाँव क्या पहले फ़ारसी में लिखा गया और फिर उसका अनुवाद......?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं नहीं फ़ारसी में थोड़े ही लिखा था - जो उसका अनुवाद हुआ। अब आप उर्दू को फ़ारसी लिपि कहें तो ये क्या हुआ। आधा गाँव पहले उर्दू में लिखा था। जी, मेरे पास उसकी स्क्रिप्ट है अभी। हाँ, फिर खुद ही उसे हिन्दी में किया। हाँ, हाँ, हिन्दी में उन्होंने ही किया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">महाभारत के संवाद लिखे जाने के दौर का जिक्र किया तो उनके चेहरे पर की चमक और भी बढ़ गई। पेशानी पर जरा देर को कुछ सलवटें-सी दिखीं। शायद उनके अन्दर एक भाव-यात्रा जारी थी। खूबसूरत, बड़ी-सी उनकी दीप्तिवान आँखें दृश्यों की किसी भीड़ में से जैसे चंद ख़ास दृश्य मुझे दिखाने के लिए ढूँढ़ निकाल लेना चाह रही थीं। और अब आँखों द्वारा ढूँढ-निकाल लिए गए कुछ दृश्यों को काफ़ी विश्वास व गर्वभरे उनके शब्दों के माध्यम से मैं भी साफ़-साफ़ देख पा रहा था - जी, महाभारत मैंने देखी है। महाभारत का ये हुआ कि जब चोपड़ा साहब ने मासूम को लिखने का तय किया तो ऐतराज हुए कि आप मुसलमान से महाभारत क्यों लिखवा रहे हैं। चोपड़ा साहब ने कहा कि अगर मैं करूँगा महाभारत तो मासूम करेंगे, नहीं तो आप किसी से लिखवा लीजिए। आप देखिए कि बाद में महाभारत लिखते समय दोनों तरफ से खत आते थे - कि हमारा त्रिशूल तेरे पेट भुकने को तैयार है - उधर मौहम्मद अली रोड से भी इसी तरह के खत आते थे। और फिर जब महाभारत चल गई तो - तो जो लोग त्रिशूल भोंकना चाहते थे, वे ही दर्शन करने और पैर छूने आने लगे। मुझे क्या लगता था - अच्छा लगता था। नहीं वे औरों की तरह अपनी खुशी नहीं जताते थे। बस-सेटिसफाइड दिखते थे। उनकी तरफ से तो वे लिखते ही अच्छा थे। नहीं - कोई डर नहीं लगता था तब धमकी मिलने पर हमें। जी, तीन साल लगे थे रिसर्च करने में - और लिखने में दो साल लगे। तनाव-दबाव... जिस वक्त नौ एपीसोड-गीता वाले - लिखे, उसमें थोड़ा टेंस रहते थे कि एक लफ्ज इधर से उधर न हो जाए। आपने देखी है महाभारत? वो जो कृष्ण ने विराट स्वरूप दिखाया है - तब तो बहुत टेंस थे - हाँ, जरा भी कुछ हिल-हिला न जाए - कोई लफ्ज हलका या गैर मौजूं न आ जाए। जी, जी, मैंने पूरी देखी है। ये अब वाली जो आ रही है ये नहीं - ये तो बेकार है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जब श्रीकृष्ण का गीता वाला हिस्सा लिख रहे थे तो एक दिन चोपड़ा साहब का फ़ोन आया कि राही साहब आपको राजीव जी ने बुलाया है। उन्होंने कहा ठीक है। दूसरे दिन ये लोग दिल्ली चले आए। मुलाक़ात के दौरान राजीव गाँधी ने मासूम से पूछा कि ये जो आपने जन्म और कर्म की बात की है, तो क्या मेरे ऊपर चोट की है? मासूम ने कहा कि पूरी गीता का यही उपदेश है कि जन्म कुछ नहीं होता, असली चीज+ कर्म - और बाद में यह भी कहा कि राजीव जी, अगर आप मेरी जान का जि+म्मा लें तो मैं दूसरी गीता लिख देता हू। उन दिनों के उनके बेहद परेशान होने से जुड़ा एक वाकया आपको बताऊँ? उन दिनों बहुत लोग आते थे उनका इंटरव्यू लेने। लोगों को हैरत होती कि मुसलमान होकर कोई वो सब लिख रहा है। इत्तफाक़न एक दिन मैं मासूम के पास बैठी थी। इंटरव्यू के बीच में उस पत्रकार ने सवाल किया कि मुसलमान होकर आप ऐसा ये सब कैसे लिख पा रहे हैं।... और मैंने देखा कि सवाल सुनकर मासूम रो पड़े। और उन्होंने कहा कि आप ये सवाल मुझसे क्यों करते हैं। मैं हिन्दुस्तानी पहले हू, मुसलमान बाद में हू। और ये जो महाभारत है ये हर हिन्दुस्तानी का खजाना है। और हर हिन्दुस्तानी का - चाहे वो किसी मज+हब का हो - इस पर हक है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या वे कभी आपके सामने फूट-बिफर के भी रोए? ऐसी कोई घटना जब उन्होंने आपकी आँखों के आँसू पौंछे हों?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बिफर-फूट के तो मुझे ख़याल नहीं। वो जब्त करते थे। ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया कि उन्होंने मेरे आँसू पौंछे हों। उनके रोने की एक घटना अभी मैंने बताई। हाँ, एक मर्तबा का उनका रोना और याद आया - उनके बड़े भाई मूनिस रजा उनके आइडियल थे। उनकी डेथ मासूम की डेथ के बाद हुई। एक बार अचानक वे बहुत बीमार हो गए थे। ऐसे बीमार कि बचने की उम्मीद नहीं रही थी। उनकी अचानक बीमारी की ख़बर जब मासूम ने सुनी तो उस वक्त मासूम बहुत रोए थे - और सिर्फ़ एक जुमला कहा था मुझसे कि मेरा भाई ख़त्म हो रहा है और मैं उसे बचा नहीं सकता।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">दंगों, या अयोध्या से जुड़ी घटनाओं के दिनों में आपने उन पर क्या और कितना असर होते देखा? देश की किन घटनाओं के बाद उन्हें आपने विचलित होते देखा?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चूँकि उनमें पॉलिटीकल अवेयरनेस बहुत थी - तो वे कुछ भी होता था तो डिस्टर्ब तो होते थे। उन्होंने वो खत भी तो लिखा है - अल्लाह और राम के नाम। बहुत असर था इन घटनाओं का। राइट्स और ये अयोध्या में जो हुआ,उससे तब उन दिनों बेहद परेशान रहते थे। अब आप देखिए कल दिल्ली में ब्लास्ट्स हुए। तस्वीरें देखकर टी०वी० पर मन रोने को हो आता है। इन बच्चों-औरतों-इंसानों का कोई तो दोष होता। क्या हो गया है इन लोगों को आख़िर...? नहीं, परेशान होते थे, पर उन्हें डरते तो नहीं देखा।... महाभारत के बाद उन्होंने धीरज कुमार की एक फ़िल्म साइन की- ओउम् नमः शिवाय और एक सती अनुसूइया-और एक और कोई माइथोलॉजी की थी। फिर लोग इनके पीछे पड़े रहे थे कि तुम शिवाजी पर लिख दो। मैं उस प्रोड्यूसर का नाम भूल रही हू। मैंने कहा कि बस, यही फ़िल्म तुम नहीं लिखोगे। पता नहीं तुम क्या लिख दो। मुझे भी यहाँ रहना है, मेरे बच्चों को भी यहाँ रहना है। यही नहीं लिखने दूँगी। सुन लिया। ज्यादा कुछ नहीं बोले। बस, इतना कहा कि बेकार की बातें करती हो। वो शायद मानते ही नहीं। वो तो ये हुआ कि प्रोड्यूसर ही पीछे हट गए थे। वो जो मिसेज गान्धी ने ट्वण्टी प्वाइंट प्रोग्राम निकाला था न - वो फ़िल्मी राइटर्स ऐसोसिएशन में आया था - सारे राइटर्स से साइन कराने के लिए। तब तकरीबन सारे राइटर्स ने साइन कर दिए थे सिवाय राही मासूम रजा और विमलदत्त के। ये लोग उठकर बाहर चले आए थे कि हम साइन नहीं करेंगे। इस पर काफ़ी हंगामा भी हुआ था और सुना गया था कि मिसेज गान्धी को बहुत बुरा लगा था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">एक युवती ने पर्दे के पीछे से झाँका तो खिल-सी गईं - जी, ये किरन है बाबूलाल की बेटी। ग्वालियर से आई है। फिर जैसे मेरे वहाँ होने का उन्हें ध्यान ही नहीं रह गया था। ऐसे बातों में लगी थीं जैसे वो किरन की माँ ही हों - अरे, किरन। सामने तो आ बच्ची। अरे, तू तो सूखकर काँटा हो गई... ये क्या, बाल भी सफेद होने लगे... कौन आया है तुम्हें छोड़ने... ससुराल वाले सब कैसे हैं - हाँ, समन आई थी मुझे बम्बई से यहाँ छोड़ने... वो बम्बई पहुँच भी गई... हाँ, शेखू, कमजोर हो गया है... अरे, तूने उसका फ़ोटो देख भी लिया... ला जरा इधर ला उसका फ़ोटो... इन्हें भी दिखाऊँगी।'... आदेश के साथ ही खुद भी उठकर अंदर चली गईं। लौटीं तो उनके दोनों हाथों में फ़ोटो थे। मुझे दिखाने को बेहद उत्सुक, गद्गद! बहुत कुछ कह-बता देने को एकदम प्रस्तुत - देखो आपको एक यादगार चीज दिखाऊँ। देखिए - ये मासूम का १९४३ का फोटो है और ये हैं मरियम के बेटे जुहेब। मैं इसे शेखू कहती हू। देखिए, कितना मिलता है अपने नाना से। आपने देखा - बिल्कुल वे ही इम्प्रेशंस...।' </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अचानक वे दीवार पर टँगे अन्य फोटोज+ के बारे में बताने लगीं। पता नहीं क्या ख़याल आया कि उस कमरे में से गली की ओर बढ़ चलीं - आइए, आपको घर दिखाऊँ - ये है गली। इसी में खुलते हैं दोनों ओर के बैडरूम्स के दरवाजे।' गली के दोनों ओर की दीवारों पर अनेक फोटो लगे हैं, बीच में भी कई जगह बहुत से फोटो रखे हैं। वे गाइड की तरह सब दिखा-बता रही हैं - ये यूनुस हैं। अपनी वर्दी में... मासूम, ये मेरी एक दोस्त.........ये हॉल है.......ये परदादा, ये दादा, ये वालिद, ये सर सैयद, ये उनके पोते.....जी, यहाँ से इस तरफ ये जनाना और ये वो हिस्सा, जिसमें मैं रहती हू। हाँ, मासूम आते थे तो इसी में रहते थे। ये यूनुस का...ये मासूम का फ़ोटो।' चुप सुनते हुए मैं इस बात पर चकित था कि उनके घर के गलियारे में बाईं ओर की दीवार पर सब से पहला फ़ोटो यूनुस साहब का था। यह भी कि राही साहब को बेहद लगाव और सम्मान से याद करते हुए भी उन्होंने एक बार भी यूनुस साहब के बारे में जरा भी असम्मान या शिकायत के लहजे में बात नहीं की थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लौटते में गली के बाईं ओर के कमरों की ओर इशारा किया - इन दोनों कमरों में रहते थे यूनुस...।' हम लोग अब फिर से अपनी-अपनी जगह आ बैठे थे। मैंने अब हिचकते हुए यूनुस साहब के अंतिम दिनों से जुड़े कुछ सवाल उनसे पूछे थे। उन्हें जैसे सब कुछ आज भी बहुत अच्छी तरह याद था। कुछ भी बताने में ज+रा भी देर नहीं, टालने-बचाने की कोशिश नहीं - ÷मेरा जन्म १९३० का। शादी पचास में हुई - तो तब मेरा बीसवाँ साल था। डायवोर्स १९६३-६४ में हुआ। मैंने बताया आपको यूनुस बाद में यहीं मेडीकल कॉलिज में आ गए थे। जी, उनकी डेथ यहीं, इस घर में हुई - १९८४ में। मैं... बम्बई में थी। तीसरे-चौथे दिन आ गई थी। बच्चे पहले आ गए थे। आपने देखा होगा - वो हमारा जो फैमिली ग्रेवयार्ड है, उसी में यूनुस की मजार है।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कैसा लगा था उनकी मौत की सुनकर आपको?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जिसके साथ ऐसोसिएशन हो - तकलीफ़ तो होती है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनकी मौत का सुनकर राही साहब ने क्या कहा आपसे? वे आए थे क्या तब यहाँ?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही ने तुरंत कहा कि बच्चों को फौरन भेज दो। तुम जाना चाहो तो चली जाओ। यहाँ कोई नहीं था। मैं तीन-चार दिन बाद आ गई। राही नहीं आ पाए थे। मरियम के एक्जाम्स चल रहे थे। उनकी वजह से उन्हें रुकना पड़ा। मरियम को आज भी मलाल है तब न आ पाने का। लड़के तीनों आ गए थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तब वे जैसे मेरे सवालों को सुन नहीं, पी रही थीं। उनके उत्तर दिए हुए से न लगकर, आए हुए से लग रहे थे। मेरे प्रश्न उनके अंदर पहुँचकर उनके अन्तस् में की प्रतिध्वनियाँ बनकर वापस लौट रहे थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यूनुस साहब और राही साहब की मौत में से किसने आपको अधिक हिलाया-कँपाया?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जाहिर है - मासूम की मौत ने। मासूम की डेथ के बाद तो जिंदगी उलट ही गई न। वो बात ही नहीं रही। ठीक है, बच्चे हैं, सब अच्छा है - पर वो बात ही नहीं रही...। उनकी डेथ के बाद एक वैक्यूम है। अब भी है वो वैक्यूम। इसीलिए मैं यहाँ बम्बई से वापस चली आई। छोटी-छोटी चीजों पर ख़याल आता रहता है। रोजाना जिंदगी की बहुत छोटी-छोटी चीजों पर - कि मासूम होते तो ऐसा नहीं होता.... कि यूँ होता। वैसे मेरे चारों बच्चे मेरा बहुत ख़याल रखते हैं। चाहते हैं कि मेरी हर ख्वाहिश पूरी हो। मेरी दोनों बहुएँ भी बहुत ख़याल रखती हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही साहब की मौत वाले हिस्से को आज कैसे याद करेंगी आप?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कीमियो थैरेपी के रिएक्शन से हिन्दुजा हॉस्पीटल में डेथ हुई थी। मैं वहीं अस्पताल में थी। सालों से चिक पर एक नन्हा-सा ग्लैंड था। डॉक्टरों ने कहा कि वायप्सी करा लो। नाम याद नहीं आ रहा, पर हाँ, बहुत खतरनाक वाला कैंसर था। मैं समझती हू अगर उसे न छेड़ा जाता तो शायद कुछ और जिन्दा रहते मासूम। दस दिसम्बर, १९९१ को ये आप्रेशन हुआ था। डेथ हुई १४-१५ मार्च की रात-१९९२ को। आप्रेशन सकससफुल हुआ। घर आ गए थे। मार्च के शुरू में अस्पताल दिखाने गए तो गले के नीचे फिर से ग्लैंड बन गया। उसकी जो कीमियो थैरेपी हुई, उसके रिएक्शन से मौत हुई। जब डॉक्टरों ने मासूम के आप्रेशन की दिसम्बर में तारीख तय की तो मैंने सुनीलदत्त साहब को कॉण्टेक्ट किया। वो उस जमाने में दिल्ली थे। मैंने कहा - दत्त साहब जब तक आप नहीं आएंगे आप्रेशन नहीं होगा। दत्त साहब नौ दिसम्बर को बम्बई आ गए और उन्होंने मासूम के साथ हॉस्पीटल में बहुत वक्त गुजारा। दस की तो सुबह से आकर रात तक वहीं बैठे रहे। तब तक बैठे रहे जब तक मासूम को होश नहीं आ गया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मृत्यु से पहले क्या कुछ कहा आपसे उन्होंने?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उस वक्त उन्हें जो दवाएँ दी जाती थीं - उससे पूरी कांशसनेस नहीं थी। दवाओं के असर से हल्की-सी बेहोशी रहती थी। तब कुछ नहीं कहा। हाँ, दो दिन पहले मुझसे ये जरूर कहा था कि अगर तुम्हें पैसे की दिक्क़त हो तो चोपड़ा साहब को कांटेक्ट कर लेना। मैंने कहा कि अभी कोई दिक्क़त नहीं है, पर अगर होगी तो जाहिर है उन्हीं से कहूगी। उनको ख़याल ही नहीं था कि वो इतनी जल्दी खत्म हो जाएंगे। आप्रेशन ठीक हो गया था, कोई बात ही नहीं थी।... मुझे उनकी डेड बॉडी को दो दिन अस्पताल में रखना पड़ा था कि उनके भाई-बहन सब लोग आ जाएँ। जी, मैं घर आ गई थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनकी डेथ और दफ्न होने के बीच के दौर को आपने कैसे झेला?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">दिमागी परेशानी तो थी ही, जैसी जो हो सकती थी। लोग आते रहते थे। वैक्यूम तो आज भी है। मैं सबके सामने नहीं रो सकती। पीछे चाहे कितना ही रो लूँ। कुछ पुराने ख़यालात की लेडीज+ को बड़ा ताज्जुब था कि ये रो नहीं रही। शायद इन्हें गम नहीं है। अकेले में जाहिर है कि रोना आता था - चीजें देखकर ख़याल आता था - वे ये करते थे, वे वो करते थे। जी, उन्हें वहीं दफ्न किया गया था - जुहू में - सांताक्रूज ग्रेवयार्ड में।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उसके बाद...?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फिर हुआ ये कि मासूम की डेथ के उन्नीस दिन बाद मेरी मझली बहू के फादर का एक्सीडेंट हो गया। वो मुझसे बहुत छोटा था - जी, मिक्की। तकरीबन सत्ताईस साल एम०पी० रहा। उसकी मदर यूनुस की सगी बड़ी बहन थी - जी, राजमाता रामपुर। बहुत पहले से हम एक दूसरे को जानते थे। मिक्की को मैं बचपन से जानती थी। वो मेरे करीब भी बहुत था। ईद के दिन हुई थी उसकी मौत। जाहिर है - मेरा लड़का उसका दामाद था - तो वो जा रहा था। मैंने कहा मैं भी चलूंगी। और मैं रामपुर आ गई। फिर रामपुर से अलीगढ़ आ गई। मैं वापस फिर गई थी बम्बई पर...। मेरा मझला लड़का अलग रहता था। दिन में मैं उसके साथ रहती - रात को अपने फ्लैट पर आ जाती। रोती-रोती सो जाती। उसी दौरान अमेरिका में मरियम की तबियत ज्+यादा खराब हो गई। और मैं वहाँ चली गई। इरफान और समन से मैंने कहा कि अब बहतर ये है कि तुम मेरे फ्लैट में शिफ्ट हो जाओ। वे किराए पर रहते थे। जी, अब आज तक वहीं है। जी, मासूम का चालीसवाँ अलीगढ़ में किया था। उनके दोस्तों - सारे रिश्तेदारों को इत्तला दी थी तब...।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बाहर आते हुए मैं इस विडम्बना पर सोच रहा था कि जिनसे तलाक़ हुआ उनकी क़ब्र आफ़ताब मंजिल के ग्रेवयार्ड में है - और जिनसे दूसरी शादी हुई उन-मासूम को सांताक्रूज ग्रेवयार्ड, बम्बई में दफ्+न होना पड़ा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हम लोग बरामदे में बड़े दरवाजे के पास खड़े थे। यकायक दाईं ओर की दीवार पर लगी उस नेम प्लेट पर मेरी नज+र पड़ी - ले०कर्नल - एस०एम० यूनुस खान। हतप्रभ, ठिठका-सा मैं कभी उसे तो कभी ज+रा दूर पर लगी राही साहब की नेम प्लेट को देखे जा रहा था। उन्होंने शायद मेरे मन का आश्चर्य भाँप लिया था - जी, ये यूनुस की नेम प्लेट है - ले० कर्नल साहबजादा मौहम्मद यूनुस खान। वे इसी तरफ रहते थे। ये अभी तक लगी हुई है। इसी सबको देखकर यहाँ के लोग दुनिया भर की बातें बनाते हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वहाँ से विदा होते समय मैं रिश्तों को मानने-जीने-सम्मान देने के उस अनूठे अंदाज+, उस दुर्लभ साहस और जज्+बे पर हैरान था। और बाहर आकर लगा था कि राही को भले ही मैं बहुत पहले से पढ़ता रहा हू - पर आज नैयर राही के मन के मासूम से परिचित होना निःसंदेह अद्भुत और मूल्यवान उपलब्धि है। अंदर-अंदर किसी ने कहा - नैयर जी की इसी निश्छलता, साहस और विशाल हृदय पर ही तो रीझे होंगे राही साहब।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-7328695616175985532010-12-28T19:44:00.002+05:302010-12-28T19:44:21.131+05:30मासूम से राही मासूम रजा तक<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">एम० हनीफ मदार</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा का नाम वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए ठीक उसी तरह गुमनाम होता जा रहा है जिस तरह प्रेमचन्द, त्रिलोचन शास्त्री, यशपाल, रांगेय राघव जैसे अनेक नामों से वर्तमान बाजार में भटकी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है जबकि इन लेखकों को कमोबेश कोर्सों में भी पढ़ाया जाता रहा है फिर भी लोग इनसे या इनके रचनाक्रम से अंजान हैं वहीं राही मासूम रजा के साथ तो यह सकारात्मक पहलू भी नहीं रहा है तब तो वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह नाम और भी अजनबी हो जाता है। राही मासूम रजा हिन्दी साहित्य का एक ऐसा नाम जो केवल साहित्य लेखन तक ही सीमित नहीं रहा। यूँ कहा जाय कि उनके लेखकीय रचना कर्म को किसी गद्य या काव्य के विशेष खाँचे में या फिर हिन्दी या उर्दू किसी एक भाषा के साथ जोड़कर समायोजित करना आसान नहीं है। जहाँ उन्होंने आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, असंतोष के दिन, कटरा बी आर्जू, नीम का पेड़ और सीन-७५ उपन्यास हिन्दी में लिखे। वहीं मुहब्बत के सिवा उर्दू में लिखा गया उपन्यास है। ÷मैं एक फेरीवाला' कविता-संग्रह हिन्दी में रचा जबकि नया साल मौजे गुल, मैजे सबा, रक्सेमय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते जैसे कविता संग्रहों की रचना उर्दू में की इतना ही नहीं उनका बहुचर्चित महाकाव्य ÷१८५७' समान रूप से हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में रचा गया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुम्बई जाकर फ़िल्मी लेखन की शुरुआत के साथ नीम का पेड़ एवं लोक प्रचलित महाकाव्य महाभारत का संवाद लेखन कर इतिहास बना डालने वाले राही मासूम रजा के व्यक्तित्व के विषय में जानने एवं आधा गाँव का वह दब्बू-सा मासूम अपनी कलम की धार पर चलकर कैसे राही मासूम रजा बन गया इन्हीं तमाम उत्सुकताओं को जानने पूछने के लिए हम यानी मैं और सतीश शर्मा चाँद' दोनों राही मासूम रजा की सबसे लाडली और प्यारी बहन सुरैया बेगम से मिलने इलाहाबाद पहुँचे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ट्रेन से उतरते ही हमारा सामना तेज बारिश से हुआ हालाँकि भीषण गर्मी में बारिश ने इलाहाबाद का मौसम बड़ा रंगीन बना दिया था। हम लोग प्लास्टिक की बरसाती टंगे एक रिक्शे से एक होटल तक पहुँच सके। शहर की बरसात जैसे हमें भिगोने पर आमादा थी और उसे तभी शान्ति मिली जब हम रिक्शे में ही पूरी तरह भीग गये। कपड़े बदलते ही हम अपने गन्तव्य नादिराबाद, मकान नं० ३०३, पीपल चौराहे के पास जाने के लिए निकल लिये रिक्शे वाले ने पीपल चौराहे पर छोड़ दिया मेरी कल्पना में था कि चौराहे पर बड़ा-सा पीपल का पेड़ होगा मैंने वहाँ रिक्शे वाले से चौंककर पूछा कि भैय्या पीपल तो यहाँ कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा तो रिक्शे वाले ने भी अनभिज्ञता में खीसें निपोरीं और चला गया। हम लोग जोगीघाट के रास्ते पर चलते हुए म०नं० ३०३ में पहुँचे। घर के लॉन में खड़े अमरूद के पेड़ों पर इलाहाबादी छोटे-छोटे अमरूद हमारे स्वागत में हवा में झूमने लगे बाहर कमरे में बिना ज्+यादा इंतजार के बाद सफेद सलवार कुर्ते पर काला आधा नक़ाब डाले सुरैया बेगम नमूदार हुई। बातचीत का सिलसिला उनके परिवार के विषय में जानकारी से हुआ। बेगम से हुई राही मासूम रजा के संदर्भ में सवाल जवाब के रूप में सीधी बातचीत-</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सबसे पहले आप अपने और अपने परिवार के विषय में कुछ बताएँ।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मैं सुरैया बशीर आबदी मेरे वालिद बशीर हसन आबदी और वालिदा का नाम नफीसा बेगम अली आबदी, हम नौ भाई बहन हैं जिनमें चार भाई और पाँच बहनें हैं। मूनिस रजा सबसे बड़े भाई बड़ी बहिन उसके बाद मासूम रजा, मेंहदी रजा और सबसे छोटे भाई अहमद रजा बहनों में सबसे बड़ी, वाखरी बेगम उसके बाद सरवरी बेगम, उसके बाद अफसरी बेगम उसके बाद मेहरजहाँ और सबसे छोटी मैं खुद। हमारी वालिदा का इन्तकाल बचपन में ही हो गया था तो हमारी जो बड़ी बहिन सरवरी बाजी थीं उन्होंने हम सब भाई बहनों को बिल्कुल माँ की तरह पाला इसलिए उनके किरदार का बहुत असर हम लोगों पर आया। चूँकि मैं भाई-बहनों में सबसे छोटी थी जब वालिदा का इन्तकाल हुआ तब मैं महज दो साल की थी इसलिए सभी भाई बहिन मुझे बहुत ज्+यादा चाहते थे। उनमें मासूम भाई मुझे हद से ज्यादा प्यार करते थे और उनकी चाहत का उनके ख्यालात का बहुत असर मेरे ऊपर रहा है। मेरी बहनों में से किसी ने कोई स्कूल की तालीम हासिल नहीं की सिवाय मेरे मगर मेरी पढ़ाई-लिखाई में सबसे बड़ा हाथ मासूम भाई का था कि अगर उन्होंने और उनकी पत्नी ने मेरा नाम स्कूल में न लिखाया होता तो मैं भी यूँ ही और बहनों की तरह ही रह जाती। हालाँकि इंटर पास करने के बाद मेरी शादी हो गयी क्यूँकि वालिद हज करने जाना चाहते थे, लेकिन मासूम भाई की चाहत थी मुझे और पढ़ाने की सो शादी में यह बात भी रखी गयी कि मेरी बहिन को पढ़ाने का बड़ा शौक है तो शादी के बाद भी वह पढ़ना चाहेगी। मेरे हसबैंड जो शिक्षा विभाग में थे उन्हें भी यह बात पसन्द आई और शादी के बाद मैंने एम०ए० किया। डबल एम०ए० किया एल०टी० किया लेकिन इस एजूकेशन के दौरान बहुत बार मौनेटरी मदद मासूम भाई ने मुझे की जबकि मैंने या मेरे शौहर ने कभी नहीं कहा कि हमें खर्चा चाहिए तो उन्होंने कहा कि नहीं यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम तुम्हारी एजूकेशन पूरी करने के बाद ही तुम्हारी शादी करते।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अब जल्दी शादी हो गयी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम तुम्हारी मदद न करें। हालाँकि मेरी ससुराल यहीं इलाहाबाद में थी किन्तु मैं एल०टी० हॉस्टल में रहकर कर रही थी और हॉस्टल में इसलिए कर रही थी कि मेरा यह ख्याल था कि भाई मैं भी हॉस्टल लाइफ इंजॉय करके देखूँ तो जाहिर है कि इसके लिए हमें कुछ ज्यादा पे करना पड़ रहा था तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं अपने हसबैंड को परेशान करूँ तो हमने मासूम भाई से कहा कि भाई हमारा दिल चाहता है कि हम हॉस्टल में रहकर पढ़े तो उन्होंने कहा ठीक है हम तुम्हें हॉस्टल में पढ़ायेंगे तो इस तरह हमारी पढ़ाई का पूरा श्रेय मासूम भाई को जाता है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी की पत्नी और उनके बच्चे रज्जू और गुठली के विषम मैं कुछ बतायें।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यह हमारी जानकारी में नहीं है कि रज्जू और गुठली किसे कहते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी का व्यक्तित्व कैसा था और उनके लेखन की शुरुआत कैसे हुयी?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए उनके लेखन की शुरुआत बहुत बचपने से हो गयी थी बचपन में छोटा-छोटा लिखा करते थे। हमें याद है कि बचपन में उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी तो बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे तो कभी-कभी हमें यह लगता था कि जब वे ज्+यादा फ्रस्टेट होकर आते थे तो उन चीजों को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करके शान्त होते थे तो इस तरह उनके लेखन की शुरुआत हो गयी थी। इन्टर करने के बाद वे इलाहाबाद आ गये और इ०वि०वि० से उन्होंने बी०ए० किया उसके बाद आप अलीगढ़ चले गये तो इस तरह गाजीपुर में तो कम ही समय गुजरा लेकिन फिर भी उनके काफी दोस्त वहाँ थे और जिन्दगी के आखिरी वक्त तक उन्होंने उन लोगों को अपना दोस्त ही समझा और इन लोगों के सम्पर्क में भी रहे और वे लोग भी, इस बात पर फ़र्क करते थे कि भाई मासूम वहाँ से चले गये हैं इतने बड़े राइटर हो गये हैं लेकिन फिर भी हमें याद करते हैं वे उनसे खत से फ़ोन से ताल्लुक बनाये रखते थे तो एक अच्छे इंसान के रूप में उन्हें आज भी लोग वहाँ याद करते हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी की पकड़ कौन-कौन-सी भाषाओं पर रहीं?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए, सबसे ज्यादा तो उनकी पकड़ उर्दू पर थी। उसके अलावा इंग्लिश मगर अंग्रेजी में उन्होंने कभी लिखा नहीं था लिखा केवल उर्दू और हिन्दी में ही।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी उर्दू में लिखते-लिखते यकायक हिन्दी में क्यों लिखने लगे थे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वे यह समझते थे कि उर्दू को यदि देवनागरी में रूपान्तरित कर दिया जाय तो ज्यादा फ़ायदा हो और यही चीज लोगों को पसन्द नहीं आयी खासकर उर्दू वालों को। उर्दू वालों का आरोप रहा कि इससे उर्दू की जो स्क्रिप्ट है वह ख्त्म हो जायेगी। जबकि उनका यह सोचना था कि अगर देवनागरी में लिखा जाय तो पूरा हिन्दुस्तान आसानी से समझ पायेगा। वैसे भी उर्दू केवल उर्दू जानने वाले ही समझ सकते हैं। अगर देवनागरी में किया जाय तो उर्दू की चीजें भी आसानी से सब समझ पायेंगे। इसलिए वे सोचने लगे थे कि उर्दू की स्क्रिप्ट भी देवनागरी में चलनी चाहिए। इसके चलते कई लोग उनके खिलाफ़ भी हो गये थे। वे मानने लगे कि राही उर्दू को ख़त्म करना चाहते हैं असल में वे चाहते थे कि जैसे गालिब है उन्हें केवल उर्दू वाले ही पढ़ व समझ पाते हैं जब देवनागरी में होगा तो सब समझेंगे कि आखिर उर्दू की चीजों में क्या है। हालाँकि राही जी को उर्दू से बहुत मुहब्बत थी किन्तु उनके इसी कदम से उन्हें बहुत-सी वे चीजें नहीं मिल पाईं जिनमें वे हकदार थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सुनने में आता रहा है कि राही उर्दू में लिखते थे और उनकी रचनाएँ उनके मित्रों के नाम से छपा करती थीं, क्योंकि यह वाकया इलाहाबाद का ही है तो शायद आपको जानकारी रही हो। क्या कारण था?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">इसके बारे में हमें काफ़ी जानकारी नहीं है, क्योंकि हम उनसे बहुत छोटे हैं भई वे दूसरे नम्बर के भाई और हम नौवें नम्बर की बहिन हैं लगभग २५ साल का फासला है जो बड़ा होता है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लोगों का मानना है कि राही की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए वे अपनी शुरुआती रचनाओं को बेच दिया करते थे क्या आप भी ऐसा मानती हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं...! देखिए हम लोग बचपने में तो एक खाते पीते परिवार के थे। यानि हमारे पिता गाजीपुर के वैल प्रतिष्ठित वकीलों में थे हम लोगों का अपना मकान था और हमारे परिवार में धन के पीछे भागने की लालसा कभी नहीं रही। हमारे ददिहाल की बहुत बड़ी प्रापर्टी थी, और हमारे दादा वहाँ से पलायन करके चले आये थे अब एक समय ऐसा आ गया कि हमारे भाई लोगों को उस सम्पत्ति पर अधिकार मिलने की बात आ गयी तो हमारे भाईयों ने कह दिया कि जब हमारे बाप को उस सम्पत्ति से कोई मतलब नहीं रहा तो हमें भी नहीं चाहिए। तो इस तरह से हमारे परिवार में कभी भी धन के पीछे दौड़ने की इच्छा नहीं रही है। हम बहुत धनी नहीं थे मगर </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मध्यम वर्गीय ठीक-ठाक खाते-पीते रहे हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या आपने राही का पूरा साहित्य पढ़ा है? और अगर पढ़ा है तो उनकी कौन-सी रचना ने आपको सबसे ज्+यादा प्रभावित किया और क्यों?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हाँ करीब-करीब पूरा पढ़ा है। हमें सबसे ज्+यादा प्रभावित तो किया था उनकी १८५७ वाली जो महाकाव्य के रूप में लिखी गयी किताब ने। क्योंकि उसमें हिन्दुस्तान का जो इतिहास आया वह नये अंदाज+ में था इस तरह का अन्य कहीं नहीं था और दूसरी बात जो थी कि इस तरह की कोई कविता पूरे उर्दू में या हिन्दी में कम्पलीट १८५७ पर नहीं मिलती जिस तरह की उन्होंने लिखी थी। उसके बाद दूसरी जो उनके उपन्यासों में सबसे ज्+यादा पसन्द आयी वह कटरा बी आर्जू थी हालाँकि ज्+यादातर लोग आधा गाँव को कहते हैं चूँकि हम भी उसी तरफ के रहने वाले हैं तो हमें उसमें ज्+यादा मज+ा नहीं आता। हाँ ÷कटरा बी आर्जू' में जो एक नई चीज+ हमारे सामने आयी वह हमारे दिल को छू गयी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आप एक शिक्षिका हैं तो राही की लेखनीय क्षमता और उनके सम्पूर्ण लेखन को आप कैसे विवेचित करतीं हैं?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हमारा मानना है कि एक साहित्यकार में जो खूबियाँ होनी चाहिए कि चीजों को उसी तरह से पेश करे कि वह चीज हमारे सामने बिल्कुल मूल रूप में जीवित हो उसे हम पढ़ रहे हों मगर उसका नक्शा हमारे सामने आ जाय तो यह खास बात उनके लेखन में थी। उन्होंने चाहे कविता लिखी कहानी या उपन्यास तीनों में जिस चीज पर उन्होंने कलम उठाई जिस विषय पर लिखा वह विषय हमारे सामने जीवित तस्वीर में आ जाता था। और यही एक खूबी जो एक अच्छे कलमकार में होनी चाहिए उनमें थी। जैसे कटरा बी आर्जू में इमरजैंसी की बात थी तो पढ़ते-पढ़ते हमारी समझ में बखूबी आ जाता है कि कैसे उसका मिस यूज किया गया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">जैसा कि आधा गाँव में राही जी अपने परिवार के साथ खुद एक पात्र के रूप में नजर आते हैं जहाँ आपका भी जिक्र है तो क्या कटरा बी आर्जू में भी कुछ पात्र जीवित और आपके संज्ञान में है या केवल लेखकीय कल्पना में ही जीवित हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए किसी भी कवि या कथाकार की जो भी रचना होती है वह पूरी तरह ही काल्पनिक नहीं होती कोई न कोई जीवित सब्जैक्ट होता है तो उसी को लेकर वह लिखता और आगे बढ़ता है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ओस की बूँद में बँटवारे की पीड़ा और मानवीय द्वन्द्व खूब शिद्दत से उभरा है तो क्या राही के परिवार से भी कोई पाकिस्तान चला गया था?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हाँ हमारे परिवार से हमारे सगे चचेरे भाई लोग गये। जबकि हमारे पिता पूरी तरह खिलाफ़ थे पाकिस्तान के। इसलिए हमारे सगे भाइयों में तो कोई भी नहीं गया। मगर जो चचेरे भाई गये उनके लिए हम आज तक परेशान हैं कि यदि वे भी न गये होते तो वे भी हमारी तरह यहाँ ठीक-ठाक स्टैवलिस हो जाते जो वहाँ नहीं हो सके हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या राही जी खुद आम बोलचाल में गाली-गलौज का इस्तेमाल करते थे जैसा कि कुछ लोगों के व्यवहार में शामिल हो जाती हैं, जैसे उनके पात्र बोलते हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए, पात्रों का तो यह था कि जिसका वे चित्र उकेर रहे होते थे वो जैसा था बोलता था वही लिखते थे मगर खुद या हमारे घर में इस तरह का माहौल कभी नहीं रहा। यहाँ तक कि मासूम भाई तो खुद साले को भी गाली नहीं देते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी किस विचारधारा से प्रभावित थे खासकर राजनैतिक दृष्टिकोण क्या था उनका?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए इस विषय में हम कान्फीडैन्टली कुछ नहीं कह सकते वैसे हमारे पिता कांग्रेसी थे और हम भी हैं मगर वे कम्युनिस्ट थे या कांग्रेसी बिलकुल सटीक तो हम नहीं बता सकते।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी अपने विचारों में खासकर मुस्लिम समुदाय के प्रति कैसा सोचते और अभिव्यक्त करते थे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुस्लिम समुदाय की उस समय में जो मानसिकता थी और उनकी जैसी स्थिति थी, जैसे गरीबी, अशिक्षा या आपसी रस्सा कसी या कहें जो मुसलमानों में ही कम्युनल फ्रेक्शन थे वे इन तमाम चीजों को देखते और अभिव्यक्त करते थे। एवं बेहतरी के लिए सोचते भी थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही की धर्म के प्रति कितनी निष्ठा थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">धर्म में आस्था थी लेकिन कट्टरपन नहीं था। हमारी पूरी फैमिली धार्मिक हैं लेकिन कट्टरपन की सख्त विरोधी अगर मस्जिद के लिए सम्मान है तो मंदिर के लिए भी कम नहीं है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी खासकर महिलाओं के प्रति कैसे सोचते थे।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">स्त्रियों के लिए भी वे सकारात्मक सोच रखते थे। वे सामाजिक परिदृश्य में महिलाओं की शोषक स्थितियों पर गम्भीर चिन्तन करते थे और उसकी बेहतरी के लिए सोचते और लिखते भी थे मगर वे केवल सोच ही सकते थे या लिख ही सकते थे किन्तु लड़ना तो स्त्रियों को खुद ही था इस व्यवस्था से। जैसे आधा गाँव की औरतों का जो मुकाम है वे उससे खुश नहीं थे बल्कि ÷कटरा बी आर्जू' की जो बिल्लो है वह स्त्री राही मासूम भाई की सोच की स्त्री थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुई आपको उनकी कौन-सी फ़िल्म ज्+यादा पसन्द आयी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुयी यह बता पाना कठिन है क्योंकि वे दूसरी शादी के बाद ही बम्बई चले गये थे और चूँकि लेखन क्षमता तो थी ही तो स्थापित हुए होंगे। हाँ, उनकी सबसे पहली फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की'' जो उस समय काफ़ी चर्चित भी हुई थी मुझे ज्+यादा पसन्द आयी थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">क्या ऐसा था कि राही जी फ़िल्मों में जाने से पहले फ़िल्मों को देखने के बहुत शौकीन रहे हों और शायद इसीलिए बम्बई चले गये हों।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं...! देखते तो थे मगर ऐसी दीवानगी नहीं थी कि जिसे कहा जाय कि उसके चलते ही बम्बई गये ऐसा नहीं था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उन्होंने बहुचर्चित धारावाहिक महाभारत के संवाद लिखे अब चूँकि वे मुस्लिम परिवार से थे तो जब वे संवाद लिख रहे थे तब उनके परिवार का उनके प्रति कैसा दृष्टिकोण था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हम सबको बड़ी खुशी थी और बहुत अच्छा लगा था हालाँकि वे तो उन दिनों बम्बई में थे तो हम लोग यहाँ नॉन मुस्लिमों से ज्यादा रुचि से इस धारावाहिक को देख रहे थे। जबकि उसके पीछे एक और खास बात थी कि महाभारत के जितने भी एडीशन भारतभर में हैं जिस-जिस लाइब्रेरी में हैं सब उनके पास मौजूद थे। उस दौरान जब मैं उनसे मिलने मुम्बई गयी थी तो उनका पूरा जो कमरा था वह महाभारतमय लग रहा था। और इसीलिए उनका चैलेंज था कि अगर कोई कहीं भी मेरे काम पर एक उंगली रख दे तो ये कलम छोड़ दूँगा। मुझे याद है कि कुछ आर०एस०एस० के लोगों ने जब बी०आर० चोपड़ा से यह कहा था कि इस काम के लिए आपको कोई हिन्दू नहीं मिला यही मिले थे तो उन्होंने यही कहा था कि आप देखिए और कहीं भी ग़लती पकड़िये तो मैं इन्हें हटा दूँगा क्योंकि राही जी ने इतना अध्ययन किया था। कि उसमें उँगली रखने की कहीं गुन्जाइश ही नहीं थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">माना कि आपके परिवार का उनके प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक था किन्तु आपके पड़ोसी या रिश्तेदारों को जब यह खबर मिली होगी कि राही तमाम हिन्दू धर्म ग्रन्थों का अध्ययन कर रहे हैं तो उनकी कैसी टिप्पणी थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">किसी को ऐसा लगा ही नहीं कि वे कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो असहनीय या असहज हो तो किसी को भी आपत्ति नहीं बल्कि खुशी थी और यही मानसिकता हमारे परिवार और रिश्तेदारों की थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही जी का अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के पीछे क्या कारण थे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">देखिए इसके पीछे कुछ खास कारण नहीं है बिना वजह कभी-कभी छोटी-छोटी सी बातें यूं ही बढ़ जाती हैं। मसलन कुछ औरतें ऐसी होती हैं जो चाहती हैं कि पति पर लगभग हमारा ही कब्जा हो जाय। वह ठीक वैसे ही जिएं जैसे वे चाहती हैं और अपने भाई बहिनों को छोड़ दें।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अब चूँकि जैसा मैंने बताया था कि हमारी माँ का देहान्त हो गया था। तो जाहिर है कि हम भाई बहिन आपस में ज्यादा घुले-मिले रहे और जब मासूम भाई की शादी हुई तब सिर्फ़ हम दो बहने कुँवारी थीं। मासूम भाई हमसे प्रेम बहुत करते थे जब कि भाभी चाहती थीं कि ऐसा न हो। और इस सब में उनके माइके वालों का खूब हाथ रहा था वे सम्पन्न लोग थे। उनका भी दबाव रहता था। असल में हम मुस्लिम जरूर हैं मगर हमारा पूरा परिवार प्रगतिशील रहा वहीं भाभी के परिवार वाले संकीर्ण सोच रखते थे इसलिए बड़ी वजह थी हमारे परिवार और उनकी वैचारिक असमानता।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नैय्यर रजा के साथ राही की लव मैरिज थी या अरेन्ज? और कितने बच्चे हुए?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनकी लव मैरिज थी भाभी पढ़ी-लिखी थीं उनके पहले हसबैन्ड आर्मी से थे और हमें भी बहुत प्यार करती हैं। तीन पुत्र उनके साथ थे। एक बच्ची मासूम भाई से हुई मरियम जो अमेरिका में हैं। तीनों बेटे नदीम खान-मुम्बई, इरफान खान, मुम्बई, आफताब खान, हाँग-काँग में हैं।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-61086974012073916602010-12-28T19:42:00.002+05:302010-12-28T19:42:18.567+05:30नीरज, क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार की यादों के राही मासूम रजा<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">-प्रेमकुमार</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा का अलीगढ़ से एक अलग और बहुत खास तरह का रिश्ता रहा है। उनकी रचनाओं में, उनकी स्मृतियों में अलीगढ़ अनेक रूपों में उपस्थित रहा है। अलीगढ़ में उनके आने, रहने और यहाँ से जाने को लेकर कितनी ही तरह की बातें की जाती रही हैं। अपने मित्रों, परिचितों और निकट सम्बन्धियों के बीच इतने लम्बे समय के बाद आज भी वे किसी न किसी रूप में जीवित हैं, चर्चाओं में अक्सर आ उपस्थित होते हैं। वाङ्मय' के राही मासूम रजा पर केंद्रित विशेषांक के निकलने की बात हुई तो मन हुआ कि उनके समय के उन कुछ साहित्यकारों की यादों को टटोला जाए जिन्होंने राही के अलीगढ़ में रहने के दौर को करीब से देखा-जाना है। इस इच्छा के साथ ही सबसे पहला नाम प्रो० के०पी०सिंह का याद आया। पर चूंकि उन्होंने राही के व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन के बारे में अनेक तरह, बहुत कुछ किया- कहा है, इसलिए सोचा कि उनकी जगह उन शख्सियतों से कुछ पूछा-सुना जाए, जिन्होंने राही पर सार्वजनिक रूप से अधिक नहीं लिखा-कहा है। उन लोगों का कुछ भी कहना-बताना राही के व्यक्ति और साहित्य को जानने की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण और सहायक होगा ही, अलीगढ़ से उनके जाने को लेकर की जाने वाली विभिन्न आग्रही चर्चाओं-अफवाहों से बचकर सही तथ्यों-सत्यों तक पहुचने में भी मददगार साबित होगा। यही सोचकर सबसे पहले नीरज जी से राही साहब के साथ के उनके समय को याद करने का निवेदन किया गया। उन्होंने तुरन्त ऐसे बताना शुरू कर दिया जैसे उस दौर को याद करने के लिए उन्हें जरा-सा भी प्रयास नहीं करना पड़ा। जितना जो महत्त्वपूर्ण था, उन्हें आज भी अच्छी तरह याद था- राही मासूम रजा मेरे अच्छे मित्रों में थे। जब मैंने लय' का संपादन आरंभ किया तो के०पी० सिंह जी और राही मासूम रजा को उसमें सहयोग के लिये आमंत्रित किया था। उन दोनों ने बड़े प्रेम से सहायक संपादक ÷लय' के रूप में कार्य करना स्वीकार किया था। मैंने गीत को स्थापित करने के लिए ÷लय' शुरू की थी। परन्तु विशेषतः के०पी० सिंह उसे किसी विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा से प्रतिब( करना चाहते थे। वह मुझे स्वीकार नहीं था। इसलिये के०पी० सिंह और उनके कहने पर राही साहब ÷लय' से बिछुड़ गए।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा से मैं बहुत प्रभावित था, क्योंकि उनका सोच हमेशा से ही लोकमंगलकारी और भिन्न-भिन्न प्रकार की मज+हबी रूढ़िवादिता से पूर्णतया मुक्त था। वे हिन्दी और उर्दू-दोनों भाषाओं में बड़ी कुशलता और सरलता के साथ रचनाकर्म में निरत थे। तभी उन्होंने मुझसे ÷अठारह सौ सत्तावन' नाम की अपनी कृति को हिन्दी में प्रकाशित कराने की पेशकश की। मैंने आत्माराम एंड संस- जो मेरे प्रकाशक थे और मुझसे बहुत प्रभावित थे-से पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में बातचीत की। उन्होंने कहा कि यदि किताब की भूमिका मैं लिखँू तो वे छाप देंगे। राही मासूम रजा से मैंने यह चर्चा की तो वो तुरन्त राजी हो गए और पुस्तक छप गई। राही मासूम रजा के मरणोपरांत हुआ यह कि के०पी० सिंह जी ने उस पुस्तक के नए संस्करण में से मेरी लिखी उस भूमिका को निकाल दिया। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा ने ÷महाभारत' के जो संवाद लिखे थे, वे इतने अच्छे थे कि वे उनके कारण केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी बहुत लोकप्रिय हो गए। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे अपने संवादों, अपनी कविताओं, अपने उपन्यासों के माध्यम से हमेशा ही विश्व में याद किए जाते रहेंगे। उनके साथ जितना समय मेरा गुजरा है, उसकी याद आज तक मेरे मन-प्राण में बसी है। वे केवल एक अच्छे लेखक ही नहीं, एक सुलझे हुए बहुत ही सजग, बहुत ही सुरुचि संपन्न एक सच्चे और ईमानदार इंसान भी थे। ऐसे इंसान अब देखने को बहुत कम मिलते हैं। बम्बई पहुँचने पर फ़िल्म के माध्यम से उन्होंने विश्वव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">प्रो० क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार साहब ए०एम०यू० के उर्दू विभाग और उस समय की तमाम तरह की हलचलों-गतिविधियों से सीधे जुड़े व उस सबके प्रत्यक्ष दृष्टा रहे हैं, जब राही साहब ने यहाँ अध्ययन किया और अध्यापक होना चाहा। दोनों की राही साहब से नज+दीकी भी रही है और उनकी नियुक्ति से जुड़े कुछ हिस्सों के साथ उनका नाम भी लिया जाता रहा है। इसीलिए इन दोनों रचनाकारों से बातचीत की शुरुआत उस दौर की ऐसी ही कुछ चर्चाओं के साथ शुरू हुई थी। दोनों ने बहुत आदर और आत्मीयता के साथ राही साहब को याद किया था। उन दिनों की कई घटनाओं पर बड़ी बेबाकी से दोनों ने खुद को व्यक्त किया था। क़ाजी साहब ने उनके विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए अपनी बात शुरू की थी-राही मासूम रजा जब अलीगढ़ आए तो वे अपने समकालीनों में जाने-बूझे शायर थे। यहाँ उन्होंने एम०ए० में दाखिला लिया- बहुत देर के बाद। बी०ए०-वे शायद बहुत पहले कर चुके थे। मेरे भी शागिर्द हुए। क्लास रूम में बहुत अदब से बैठते थे। पूरा लेक्चर सुनते थे, नोट्स लेते थे। फिर यहाँ की जो डिपार्टमेंटल पॉलिटिक्स थी, उस पर ख़लीलुर्रहमान वगैरह उनके खिलाफ़ थे। ख़लील साहब किसी शायर को अलीगढ़ में जमने नहीं देते थे- क्योंकि उनका गिरोह- बाहर का बहुत बड़ा था और राही का तरक्कीपसंदों का गिरोह भी बड़ा था। मूनिस रजा के भाई थे वे। एम०ए० फर्स्ट क्लास पास कर लिया था उन्होंने। वे लेक्चरर होना चाहते थे। उन्होंने आफ़ताब मंजिल में शादी कर ली थी। ये बात प्रो० नूरुल हसन को नागवार गुज+री। आले अहमद ÷सुरूर' साहब को तो पहले से ही उनसे नाखु+श कर दिया गया था। राही बहुत वायटल आदमी थे और अच्छे शायर थे-और महफिलों में छा जाया करते थे। फिर उन्हें अपनी शौहरत पर भी नाज था। इसलिए वो आम तालिब-ए-इल्मों की तरह बहुत दबके और अदब से नहीं रहते थे। मुझको तो वे भाई साहब कहते थे, बाकी लोगों को ख़ातिर में नहीं लाते थे। बहरहाल इंटरव्यू हुआ। उसमें ऐसे सवालात किए गए जो पहले से तय थे। मालूम था कि नहीं लेना। नहीं लिए गए। इसलिए कि प्रो० नूरुल हसन और सुरूर साहब के मामले में कोई जीत नहीं पाता। जब वो नहीं हुए तो मिठाई बाँटी गई। अंग्रेजी में एक रीडर थे रिज+वान हुसेन। वो मिठाई का डिब्बा लेकर अंग्रेजी के मशहूर रीडर सलामतुल्ला खाँ के कमरे में पहुंचे। इत्तेफ़ाक से मैं भी पहुंच गया। मैं उन दिनों उनके पास जाता था। डिब्बा रखा था। किसी ने मुझसे कहा लीजिए। मैंने कहा-क्या है ? जवाब मिला- ये राही नहीं हुए हैं, उसकी खुशी में मिठाई आई है। कुछ लोग खा चुके थे। मैंने खाने से इंकार कर दिया कि मैं ऐसी मिठाई नहीं खाता। सलामत साहब ने भी मिठाई नहीं खाई। ये बात राही को बहुत बाद में मालूम हुई। इसलिए कि मैं चुगलखोरी करने का आदी नहीं हूँ।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही ने अपने रिजेक्शन की लाइन ये ली कि चँूकि मैं शिया हूँ इसलिए सुरूर साहब ने मुझे नहीं लिया। राही बहुत चलत-फिरत और मिलने-जुलने वालों में थे। वी०सी० तब तय्यब जी थे। वे टेनिस खेलने आते थे। राही ने वहाँ पाबंदी से जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे जब वो वी०सी० के करीब आ गए तो उन्होंने उन्हें बताया कि हमें इसलिए नहीं लिया गया वी०सी० को नागवार गुजरा। सुरूर साहब कर्नल बशीर हसन जैदी के जमाने में वी०सी० की नाक के बाल थे। और वे उसी तरह बिहेव करते थे। लेकिन तय्यब जी के यहाँ उनकी गुजर नहीं थी। जब सुरूर साहब को मालूम हुआ कि उन पर शिया-सुन्नी का चार्ज लगाया गया है तो उन्होंने यूनीवर्सिटी स्कूल के एक टीचर मंजर अब्बास नक़वी और डॉ० कौकब कदर को भर्ती कर लिया ताकि शिया-सुन्नी के झगड़े से उनको निजात मिल जाए। राही ने सुरूर साहब पर मुकदमा कायम कर दिया। वो अदालत के चपरासी को रुपए देकर सुरूर के नाम की आवाज लगवाते थे-हाजिर हो ...। और बहुत एंज्वाय करते थे। खैर मुकदमा तो वे हार गए राही- हारना ही था। अब वो बम्बई गए। बम्बई में एक मुशायरा हुआ। उसमें मीना कुमारी ने एक ग़जल पढ़ी। राही ने खड़े होकर कहा कि मीना कुमारी की ग़जल अच्छी है और हमारे उस्ताद-ए-मौहतरम प्रो० आले अहमद सुरूर की ग़जलों की टक्कर की है। उस पर बड़ा हंगामा मचा। बहुत कहकहे लगे और राही को ये तसल्ली मिली कि उन्होंने इंतकाम ले लिया। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उनको ग़लत तौर पर यह पढ़ा दिया गया कि काजी अब्दुस्सत्तार भी नहीं चाहते थे कि आप लेक्चरर हों। वो हमसे भी ख़फा हो गए और ÷धर्मयुग' में कई महीने हमारे खिलाफ़ लिखते रहे और हमारी तरफ से लोग जवाब देते रहे। राही समझते थे कि मैं लिखवा रहा हूँ और मेरे फ़रिश्तों को भी इल्म नहीं कि कौन लिख रहा है। खैर- वो एक बार बम्बई से आए तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि भाई साहब आप दूसरों से क्यों लिखवा रहे हैं। आप खुद क्यों नहीं लिखते ? मैंने कहा कि मैं किसी से लिखवाना अपनी शान के खिलाफ़ समझता हूँ और खुद इसलिए नहीं लिखता कि आप हर महीने मेरी पब्लिसिटी मुफ्+त में करते हैं। तो मैं फिर उसे लिखकर बंद क्यों करूँ ? बहुत ख़फ़ा हुए। बोले-आप बिल्कुल नहीं लिखवाते किसी पर ... ? मैंने कहा- हलफ़ उठा सकता हू। जानता तक नहीं कि कौन साहब हैं। कॉफी पीते रहे और फिर चले गए।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फिर बम्बई से एक पोस्टकार्ड आया मेरे नाम राही मासूम रजा का कि हरमेश मल्होत्रा शब गजीदा' पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं। तो आप अपने किसी दोस्त का नाम लिख दीजिए ताकि ये मामला तय हो जाय। मैंने फौरन पोस्टकार्ड मँगवाया- जो मैं कभी नहीं लिखता। लेकिन उनको पोस्टकार्ड पर ही जवाब दिया। और लिखा कि बम्बई में मेरे एक दोस्त रहते हैं, उनका नाम है राही मासूम रजा। मैंने शब गजीदा' के सारे राइट्स उन्हें दे दिए हैं। जिस तरह उनका जी चाहे इस्तेमाल करें। अब राही का बहुत लम्बा ख़त आया माफ़ी-तलाफ़ी का। और ये भी कि आप फलां तारीख को बम्बई आ जाएँ। पाँच हजार रुपया भी आया। मैं गया। स्टेशन पर हरमेश मल्होत्रा-दो चार आदमियों के साथ मौजूद थे-और राही भी थे। हरमेश ने मुझे ताजमहल होटल में ठहराने का इंतजाम किया था। जब मैं उनकी गाड़ी में बैठने लगा तो राही मेरे पास आए और कहा- भाई साहब मेरे घर में आपको वो आराम तो नहीं मिलेगा जो ताजमहल होटल में मिलेगा। लेकिन मेरी आरजू है कि आप मेरे साथ ठहरें। मैं हरमेश की गाड़ी से उतरा और राही के साथ उनके घर चला गया और हम फिर एक दूसरे के दोस्त हो गए। शराब की महफ़िल में वो मुझसे आँखें नहीं मिला रहे थे तो मैंने कहा- राही, मुझे मालूम था कि एक दिन ये झूठी अफ़वाहें, जिनकी बिना पर तुम मुझसे खफ़ा हो, हवा हो जाएंगी और तुमको सारी सच्चाई मालूम हो जाएगी। इसीलिए मैंने तुम्हारे किसी ऐतराज का जवाब नहीं दिया। आज तुम मुझसे शर्मिंदा हो, आँखें नहीं मिला रहे हो और मैं तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर बातें कर रहा हूँ। राही लिपट गए-वो रोए। इसके बाद कभी हमारा इख्तलाफ़-लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही बहुत अहम् शायर थे और उनमें बहुत सलाहियतें थीं। इसका इज+हार उस समय हुआ जब उन्होंने ÷महाभारत' के लिए लिखा। उसका एक-एक एपीसोड मैंने बहुत गौर से देखा है और उसकी तारीफ़ की है ये अच्छा हुआ कि राही अलीगढ़ से चले गए, वरना उनको महाभारत में लिखने का ऐजाज हासिल नहीं होता। आज भी वो मुझको बहुत याद आते हैं। जब वो अपनी बेटी की शादी करने के लिए अलीगढ़ आए तो उनके भाई प्रो. मेंहदी हसन ने मुझे बताया कि राही भाई से मिलने बड़े-बड़े लोग आते थे, लेकिन वो किसी के लिए खड़े नहीं होते थे। मगर आपका रिक्शा देखकर ही खड़े हो जाते थे। और जितनी पजी राई आपकी करते थे, मैंने किसी की नहीं देखी।'</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शहरयार साहब से जब राही साहब से जुड़ी उनकी यादों को याद करने के लिए कहा गया तो उन्होंने पहले उनसे हुई अपनी पहली मुलाकात को याद किया- और फिर धीरे-धीरे कई घटनाएँ उन्हें याद आती गइर्ं- उनसे मेरी पहली मुलाकात सन् पचपन में हुई। मैं खलील साहब के साथ रहता था और वे उन्हें बहुत मानते थे। वे खलील साहब को मौलाना कहते थे। राही जब भी अलीगढ़ आते, उनके यहाँ जरूर आते। राही कुछ ही छोटे थे उनसे- लगभग बराबर। १९५६ में वे केवल इंग्लिश में इंटरमीडिए करने यहाँ आए। जामिया से जो अदीब माहिर, अदीब कामिल करके आता था, उसे केवल इंग्लिश में इंटर करना होता था। हाईस्कूल के बाद उन्हें टी०बी० हो गई थी। वे कश्मीर सेनीटोरियम में रहे थे वहाँ। फिर उनको शिक्षा कम्पलीट करने का ख़याल आया। उन्होंने १९५८ में बी०ए० का इम्तहान मेरे साथ दिया। ५८ में हम कश्मीर गए। वे भी कश्मीर में थे। मुलाकातें होतीं। वे खुशमिजाज आदमी-और खुशशक्ल भी थे। देखने में भी अच्छे लगते थे। पहले वे सिर्फ+ कुर्ता, पायजामा और बास्कट पहना करते थे। बी०ए० करने के बाद उन्होंने ५८ में एम०ए० उर्दू में दाखिला लिया। मैंने एम०ए० साइकोलॉजी में दाखिला लिया। उर्दू का मेरा ख़याल भी नहीं था। कुछ इस वजह से भी उन्हें ख़याल हुआ कि मेरा इसका कोई मुकाबला नहीं है। इसलिये मुझसे बहुत मोहब्बत से मिलते थे। मुझे दिसम्बर में यकीन हो गया था कि मैंने साइकोलॉजी में दाख़िला लेने का फ़ैसला ग़लत लिया है। वहाँ से नाम कटवा लिया और सिर्फ़ शायरी करता रहा। एम०ए० में राही साहब डिपार्टमेंट की सोसायटी के सेक्रेटरी हो गए। यह सोसायटी-अंजुमन उर्दू-ए-मुअल्ला, हसरत मोहानी साहब ने कायम की थी। उनके रिसाले का नाम ÷उर्दू-ए-मुअल्ला' था। राही साहब काफ़ी मशहूर आदमी थे। यहाँ उनके बड़े भाई मूनिस रजा थे। यहाँ के तरक्की पसंद ग्रुप में नूरुल हसन साहब, अलीम साहब, मूनिस रजा साहब खास आदमी थे। मूनिस साहब की वजह से प्रोगे्रेसिव हल्के में राही को काफ़ी अहमियत दी जाने लगी। प्रोगेसिव लोग जाकिर साहब के जमाने में यूनीवर्सिटी के काफ़ी अहम् ओहदों पर रहे। राही ने सोसायटी की तरफ से एक उर्दू हफ्ता मनाया - जिसमें सेमिनार, क्विज, कल्चरल प्रोग्राम हुए- तो उसमें काफ़ी लोग मौजूद हुआ करते थे। एक साल बाद जब मैंने एम०ए० उर्दू में दाख़िला लिया तो उस अंजुमन का सेक्रेटरी मुझे बनाया गया। डिपार्टमेंट के कुछ लोगों ने कहा कि ये राही की तरह नहीं कर पाएंगे। लेकिन सुरूर साहब ने कहा कि नहीं, ये कर लेंगे। मेरे जमाने में बहुत अहम् जलसे हुए। उनमें फ़िराक साहब आए, अख्+तरुल ईमान आए, कुर्रतुल ऐन हैदर आईं। अंदर-अंदर राही साहब को एक यह ख्+याल पैदा होने लगा कि शहरयार से उनका मुकाबला होगा। जबकि मैं बिल्कुल ये नहीं सोचता था। राही साहब मैग्जीन के एडीटर नहीं बनाए गए। क्यों- इसके बारे में मैं कोई राय नहीं देना चाहता। लेकिन मैं एम०ए० फाइनल में मैग्जीन का एडीटर बनाया गया। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">एम०ए० करते ही- बल्कि एम०ए० के रिजल्ट आने से पहले, अंजुमन तरक्की में मुझे लिट्रेरी असिस्टेंट की जगह मिल गई। फैकल्टी की फैलोशिप मिलने के बाद मैंने वो नौकरी छोड़ दी। राही साहब उस जमाने में काफ़ी मक़बूल थे। और शायद उनकी मक़बूलियत की वजह से कुछ लोग उनसे खौफ़जदा थे। एक आम ख़याल ये हो गया था कि मैं सुरूर साहब के ज्यादा करीब हूँ। इत्तेफ़ाक से डिपार्टमेंट में एक उस्ताद ने तीन महीने की छुट्टी ली। उस पर सुरूर साहब ने लखनऊ के अपने शार्गिद-काजी साहब के दोस्त-मसूद आलम का अप्वाइंटमेंट कर दिया। वो लखनऊ यूनीवर्सिटी से सेकिंड क्लास एम.ए. थे। शाहजहाँपुर में लेक्चरर थे और छुट्टी लेकर रिसर्च करने अलीगढ़ आए थे। लेकिन उनको कोई वजीफ़ा नहीं मिला था। राही साहब एक दिन मुझे मिले, कहने लगे कि ये बहुत ग़लत हुआ है। मेरे या तुम्हारे में से किसी एक का होना चाहिए था। मैंने कहा कि मुझे कोई शिकायत नहीं है। उसी जमाने में मेरे बड़े भाई को हार्ट-अटैक हो गया और मैं तकरीबन दो महीने डिपार्टमेंट नहीं गया। उनकी देखभाल में लगा रहा। यह जमाना तय्यब जी की वाइस चांसलरशिप का था। चीन का हमला हो चुका था। राही साहब ने एक प्ले लिखा-पर्वत वो सबसे ऊँचा। जब वह स्टेज हुआ तो उसको तय्यब जी ने भी देखा। तय्यब जी टेनिस खेलते थे। राही साहब पाबंदी के साथ टेनिस लाउंज पर जाते थे और किसी न किसी बहाने से उनकी तारीफ़ करते थे। तय्यब जी से इस अप्वाइंटमेंट के बारे में खुद या किसी के जरिये उन्होंने इजहारे नाराजगी किया कि यह ग़लत एप्वाइंटमेंट हुआ है। और तय्यब जी ने चेयरमैन के टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट करने के अधिकार छीन लिए और ये कानून पास कर दिया कि हर टेम्परेरी सलेक्शन के लिए लोकल सलेक्शन कमेटी होगी। उस कमेटी में वी.सी., प्रो. वी.सी., डीन और चेयरमैन बैठेंगे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में लोकल सलेक्शन कमेटी से पहला अप्वाइंटमेंट राही मासूम रजा का हुआ। ये तब हुआ था जब दूसरी बार मौहम्मद हसन छुट्टी लेकर गए थे। राही साहब का यह टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट हो गया और मुझको बड़ी खुशी हुई। अगरचे मैं भी उम्मीदवार था। मैंने उसी जमाने में एक ग़ज+ल लिखी- जिसमें एक शेर था- ÷वो नहीं उदू सही, खुशी ये है कि दहर में। कोई तो सुर्खरू हुआ, कोई तो सर बलंद है।' और ये शेर मैंने उन्हें सुनाया भी। और उन्होंने बहुत पसंद किया। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हम रोज+ शाम लाइब्रेरी कैंटीन में मिलते। वे बड़ी मोहब्बत से पेश आते थे। वहाँ काफ़ी देर हम बैठते । नए शेर उन्हें सुनाते थे वो भी सुनाते अपनी चीजें। लय नाम से एक रिसाला निकलता था। उसमें उन्होंने मुझ पर एक मज+मून भी लिखा। काफ़ी तारीफ़ भी की थी उसमें। लेकिन मैं कभी उनके इनर सर्किल का हिस्सा नहीं बन सका। मेरे और उनके बीच मिजाज में जमीन-आसमान का फ़र्क था। वो मुकामी शौहरत और हर दिल अजीजी के लिए बहुत से ऐसे काम करते जिनकों मैंने कभी पसंद नहीं किया। बहरहाल जितना वो अपने को मज+बूत करने की कोशिश करते रहे, कुछ लोग अंदर ही अंदर ऐसे काम करते रहे कि वे यहाँ न टिक सकें। उनके इश्क ने इसके लिए सारे मौके फ़रहाम करा दिए। और जब वह जगह परमानेंट हुई तो अली यावर जंग के इशारे पर उन्हें नहीं लिया गया। मैं इस जगह के लिए पहले उम्मीदवार था, लेकिन बाद में ऐलान कर दिया कि मैं इस सलेक्शन कमेटी में नहीं आऊंगा। मैं ईवनिंग क्लासेज में टैम्परेरी लेक्चरर हो चुका था। शाम को पढ़ाता था और दिन में ऑनरेरी तौर पर हमारी जुबान' का संपादन करता था।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सलेक्शन कमेटी के दिन दो बजे डिपार्टमेंट के क्लर्क ने मुझे फ़ोन पर इत्तला दी कि आपको सलेक्शन कमेटी में आना है। ये इत्तला उसने फैकल्टी के रूम नम्बर वन से दी, जो उस वक्त ओरियंटल कांफ्रेंस का इंक्वायरी ऑफिस था। इसके इंचार्ज थे कुँवरपाल सिंह। कुँवरपाल सिंह ने क्लर्क की वो बात सुनी और राही साहब को पहुँचा दी। सुरूर साहब के सलेक्शन कमेटी में मेरे उस बुलाने को राही साहब ने ये समझा कि उस जगह मेरा अप्वाइंटमेंट होगा। मैं जब सलेक्शन कमेटी में पहुँचा तो राही साहब ने मुझसे कहा भी कि तुम तो नहीं आने वाले थे। तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। राही साहब ने यह सोचकर कि उन्हें नहीं लिया जाने वाला है, सलेक्शन कमेटी के लोगों से कॉफी झगड़ते हुए से जवाब दिए। और ये न होता तो भी शायद उनका अप्वाइंटमेंट नहीं होता। नवाब अली यावर जंग उनके काफ़ी खिलाफ़ थे। नूरुल हसन साहब, जो उस वकत डीन थे, उन्होंने बाकायदा छुट्टी ले ली और शब्बीर खाँ साहब डीन की हैसियत से बैठे। मैंने सलेक्शन कमेटी के बाद सुरूर साहब से पूछा कि मैंने तो कहा था कि मैं उम्मीदवार नहीं हूँ, फिर आपने क्यों बुलाया। तो उन्होंने बताया कि प्रो० नूरूल हसन ने मुझसे कहा था कि इसी सलेक्शन कमेटी से शहरयार के अप्वाइंटमेंट को रेगुलराइज करा लीजिए। उससे उस वक्त पी.वी.सी. ने इत्तेफ़ाक नहीं किया। उन्होंने कहा कि बिना एडवरटिज+मेंट के कोई अप्वाइंटमेंट नहीं होगा। दिल्ली के एक साहब का अप्वाइंटमेंट उसमें हो गया। राही साहब ने सुरूर साहब पर कई मुकदमे- वुकदमे कायम करा दिए। और फिर उनके लिए यहाँ के हालात बिल्कुल उनके हक़ में नहीं रहे। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मैं बम्बई और अलीगढ़ में बराबर उनसे मिलता रहा। जब भी मैं बम्बई गया, उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। हर तरह की दावत दी। बड़ी मोहब्बत से मुझसे मिलते थे। उर्दू से जो राही साहब दूर हुए उसके कारण ये थे कि - उनमें एक तो ये था कि वो जमाना-तब मॉडर्न शायरी का जमाना शुरू हो गया था और खुली-डली डायरेक्ट शायरी का रिवाज साहित्य से ख़त्म हो गया था। बल्कि उसके खिलाफ़ लहर चल रही थी। वैसे राही साहब अदबी शौहरत के सिलसिले में कुछ सीरियस भी नहीं थे। वो अवामी पॉपुलरिटी को ज्यादा अहमियत देते थे। मुख्तलिफ़ नामों से रूमानी नॉविल लिखते थे। अब्दुल हमीद पर किताब लिखी- छोटे आदमी की बड़ी कहानी। अठारह सौ सत्तावन पर नज्म लिखी। उसके पीछे यही था। उसमें संपूर्णानंद से उन्होंने लिखवाया था। लेकिन उसका कोई खास असर नहीं हुआ। आधा गाँव उन्होंने उर्दू में ही लिखा था। कुँवरपाल सिंह ने देवनागरी में करा दिया था और फिर वो हिन्दी का अहम् उपन्यास बन गया। बम्बई में वो सारिका और धर्मयुग में अपनी माली जरूरतों की वजह से टिपीकल चीजों पर लिखा करते थे। ऐसी चीजें-जो जल्दी लोगों को पसंद आएँ-और खासतौर से हिन्दी के पढ़ने वालों को। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">बहरहाल बम्बई में उन्होंने बहुत स्ट्रगल किया। असली कामाबी नहीं कि वो खराब ही होगा। वैसे आम इंसान के लिए बहुत ज्यादा लिखना मुमकिन भी नहीं हैं वो बहुत ही कंट्राडिक्टरी बातें करते थे। मसलन वो कहते थे कि मैं उपन्यासकर तो हिन्दी का हूँ, मगर शायर उर्दू का हूँ। वैसे ख्यालात के ऐतबार सेक्युलर आदमी थे- लिबरल आदमी थे। उनकी सोच बड़ी हद तक सही थी। अलबत्ता उस सोच को वे हमेशा शौकीन अंदाज से पहुंचाते थे। मुझे वे बहैसियत आदमी के बहुत पसंद थे। फ़िल्म अंजुमन के डायलॉग राही साहब ने लिखे थे और उसके गाने मैंने लिखे थे। उन गानों में स्त्रीलिंग वर्ब्स का इस्तेमाल उनको पसंद नहीं आया था, जिसका इजहार उन्होंने एक पार्टी में किया। लेकिन मैं भी उस पर अड़ गया कि जब करेक्टर फीमेल है तो स्त्रीलिंग का इस्तेमाल करेगा। करता हूँ नहीं, करती हूँ ही तो कहेगा। पुराने जमाने में ये होता था कि औरतें भी जनरल इस्तेमाल करती थीं। लेकिन वो नए जमाने का करेक्टर था- वो लड़की है- वो मैस्कुलिन वर्ब्स क्यों इस्तेमाल करेगी ? उनका कहना था कि करती हूँ की जगह करता हूँ करे। वो जनरल हो। वो मालूम न हो कि औरत है या मर्द है। इस पर थोड़ी तल्खी भी हुई। पर वो जब भी आते थे, मुझसे जरूर मिलते थे और मैं जब भी बम्बई जाता, उनसे जरूर मुलाकात होती। सेंस ऑफ़ ह्यूमर उनमें था। उनसे बातें करने, उनकी बातें सुनने में मजा आता था। अब भी उनकी बेटी अैर दामाद से अमेरिका में जब भी मुलाकात होती है तो वो यद आते हैं। मैं अक्सर टेलीफ़ोन से उनकी बेटी अैर दामाद-जो उनका भतीजा है-की खैरियत मालूम करता रहता हू। बेटी को ऐसी बीमारी है कि जिसे बर्दाश्त करना बडा मुश्किल काम है। लेकिन वो बड़ी हिम्मत वाली लड़की है। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, वो जो रेगुलर करने की बात थी, वह ईवनिंग क्लास वाली टेम्परेरी पोस्ट की ही बात थी। हाँ वो जो दिल्ली वाले साहब का अप्वाइंटमेंट हुआ था, दूसरी एडवर्टाइज्ड पोस्ट पर ही हुआ था। नहीं- मैं उनसे मुकाबला करना नहीं चाहता था इसलिए सलेक्शन कमेटी में न आने की बात कही थी। मैं टेम्परेरी लेक्चरर हो गया था। मैंने एक तरह से खुद को उनसे कमतर मान लिया था। मैं सोचता था कि उन्हें पहले मौका मिलना चाहिए। वे सीनियर थे, जहीन थे। मैं कभी ऐसी चीज को पाने की कोशिश नहीं करता कि जिससे कुछ लोग नाराज-दुखी हों और मुझे लगे कि मैंने हक़ मारा है। इसलिए मैंने जहनी तौर पर तैयार कर लिया था खुद को। उनका फिजीकल ऐसा मामला था कि जो एक बार मिल लेता, भूलता नहीं। काफ़ी अच्छा तरन्नुम था। अच्छा पढ़ते थे। पर्फोमेंस उनकी बहुत बढ़िया होती थी। मजाज पर एक नज्+म लिखी थी उन्होंने। वो काफ़ी पॉपुलर हुई थी। जो उन्होंने चाहा फिर भी वो नहीं मिला। गाने लिखे फ़िेल्म को-वो नहीं चल पाया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, मैंने उनके ज्यादा उपन्यास नहीं पढ़े। शायरी अच्छी करते थे। ग़जलें खासतौर से अच्छी होती थीं। वो अपने को बेसीकली नज्म का शायर कहते थे। मेरे एक दोस्त राही साहब और मुझमें कम्पेरीजन करते हैं कि तुमको एडीटिंग आती है, राही साहब एडिट नहीं करते। तुम बात कम तो करते हो, ज्यादा कभी नहीं कहते। राही साहब एक ही बात को कई-कई तरह से कहेंगे। वे फैलाने में रुचि लेते हैं- ओरेटरी की जो खूबियाँ होती हैं न ...!</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नहीं, उर्दू में कोई खास अहमियत नहीं। कुछ तरक्कीपसंद नक्क़ाद पहले कभी-कभी जिक्र करते थे- अब वो भी नहीं। सही वक्त पर उनकी किताबें नहीं छपीं। छपीं तो लोगों के पास गईं नहीं। रिसालों में उन्होंने लिखा नहीं। वो बेसीकली आज पर ध्यान देते थे। आने वाले कल की बहुत फ़िक्र उनको नहीं थी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-61370825979803006202010-12-28T19:29:00.003+05:302010-12-28T19:31:27.548+05:30एक ऐक्ट हजारों मंजर<div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मूल लेखक - डॉ. राही मासूम रजा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लिपियान्तरण - डॉ. शगुफ्ता नियाज </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा ने उर्दू में १८-२० उपन्यास लिखा था लेकिन वह उपन्यास दूसरों के नामों - ÷शाहिद अख्तर और आफ़ाक हैदर' से छपा था। जैसाकि उन्होंने अपने साक्षात्कार में स्वयं कहा था। शाहिद अख्तर के नाम से ÷कारोबारे तमन्ना' उपन्यास लिखा था उसी का एक अंश -÷एक ऐक्ट हजारों मंजर' है। </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">केमिकल्स एक्जामिनर के यहाँ से रिपोर्ट आ गयी कि जो चीज+ कल्लू की दुकान से बरामद हुई थी वह कोकीन थी। इस रिपोर्ट के आते ही पूरी सरकारी मशीन हरकत में आ गयी। मुकदमा शुरू हुआ और मुकदमों के साथ ही मेहनतानों नज+रानों और रिश्वतों का एक सिलसिला शुरू हो गया। पान की दुकान बोझ नहीं उठा सकती, उसे दुकान पर बैठने की फु+र्सत नहीं मिलती थी। कभी वकील के यहाँ हैं, तो कभी कोतवाली और फिर कचहरी की दौड़।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लल्लन ने इस मौके का फ़ायदा उठाया। वह पान का खोंमचा लगा कर कल्लू की दुकान के पास ही बैठने लगा। कल्लू की दुकान बन्द होती तो बन्द दुकान के कपड़े पर बैठ जाता।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ग्राहकों की कल्लू पान वाले से कोई दिलचस्पी नहीं थी, उन्हें तो आरजू की दुकान के सामने पान की एक दुकान की ज+रूरत थी। वह कल्लू हो या अवतार या लल्लन।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नुसरतुल्ला ने कल्लू और कोकीन में कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह जानता था कि कोकीन बरामद हुई नहीं, कोकीन बरामद करवा ली गई है। उसे यह भी मालूम था कि उसी कोकीन के बरामद किये जाने में गजाधर का हाथ है। उसे यह मालूम था कि यह हमला कल्लू पर नहीं उस पर है। फिर भी उसने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली.... वह भी लल्लन की दुकान से पान खाने लगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मजिस्ट्रेट ने डेढ़ बरस की सजा कर दी। पाँच सौ जुर्माना ऊपर से हुआ। अदायगी न करने की सूरत में छः महीने की कैद-ए-बामशक्क़त और कल्लू ने अपील की। फिर पेशियों और मेहनतानों, नज+रानों और रिश्वतों का सिलसिला शुरू हुआ। आख़िर में सज+ा बहाल रही। कोर्ट में अपील हुई तो कल्लू को नुसरतुल्ला के यहां जाना पड़ा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷सलामअलैकुम भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वह बैठ गया। नुसरतुल्ला दुकान के कामों में लग गया। कल्लू चुप बैठा रहा। कोई नौ बजे जब दुकान बन्द होने लगी तब वह कल्लू से मुख़ातिब हुआ।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷कैसे आये थे?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अपील किया है न।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अब पैसा न है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷भई आजकल बाज+ार बहुत मन्दी है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷थोड़ा-सा कर्ज+ दे देते।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷वह तो सब ठीक है, मैं तो कहता हँू कि चुपचाप सजा काट आये होत्ये। छः महीने की सजा ही रही न। छः महीने में का रखा है। बिला वजह हज+ार दो हजार खर्च होई। हज+ार पाँच सौ और ख्+ार्च होहियै। का फ़ायदा ई रुपया रहता तो जब छूट के अइत्यो तो काम आता।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हम ई कहते रहे भइया कि मकनवा रहिन ले लियो।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हम रहिन न लेंगे। बेच देयो खरीद लेंगे।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तो रहेंगे कहाँ भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷सोच ल्यो, हम कोई ज+बरदस्ती तो करते नहीं।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ठीक ही था। वह कोई ज+बरदस्ती तो कर नहीं रहा था। कल्लू चुपचाप घर चला आया। शेख कलूट आंगन में हुक्का पी रहे थे। नफ़ीसन उनका बदन दबा रही थी। शरीफ़न एक खटोले पर लेटी सितारों में फूल पत्तियाँ काट रही थी। वह चुपचाप लेट गया। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसे अपना मकान किसी अजनबी का मकान मालूम हो रहा था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">थोड़ी ही देर में शेख कलूट के ख्+ार्राटों की आवाज+ आने लगी। नफ़ीसन ने बदन दबाना छोड़ दिया। वह एक कटोरा पानी पी कर लेट गयी। शरीफन भी सितारों में फूल पत्तियाँ तराशते-तराशते थक गयी तो आँखें बन्द करके न मालूम क्या-क्या सोचने लगी। मगर कल्लू जागता रहा। उसे पैसों की ज+रुरत थी। नुसरतुल्ला मकान रहिन रखने पर तैयार नहीं था। तो क्या मकान बेचना ही पड़ेगा। एक-एक ईंट ने फरियाद की। हर ईंट से ख्+वाबों की सब्ज व सुर्ख परियाँ निकलीं। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें....</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सुबह सवेरे ही नुसरतुल्ला के यहाँ गया। नुसरतुल्ला अभी दुकान पर नहीं गया था। सलाम करके वह एक तरफ बैठ गया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ख्+ारीद लीजिये भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷आठ सौ से ज्+यादा नहीं दूंगा।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷आठ सौ....?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷और का लाटों, दो-चार लाख?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नाही भैय्या, दो-चार लाख का लेंगे।'' वह यही कहकर रह गया असल में वह यह कहना चाहता था कि दो हज+ार रुपया लगाकर तो उसने एक खण्डर को ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बनाया था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷चलो रजिस्ट्री का रुपया मैं दे दूंगा।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷खाली कब करोगे।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷जब कहोगे भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उसी दिन ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बिक गई। शाम को कल्लू आठ सौ रुपये में अपनी तमाम तमन्नायें, अपने अनगिनत ख्+वाब नुसरतुल्ला के हाथ बेचकर घर लौटा तो घर वालों से आँखें मिलाने की हिम्मत नहीं थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ई घरवा हम बेच दिया बाबा।'' यह कहकर वह लेट गया। शरीफ़न ने कुछ नहीं कहा। नफ़ीसन भी ख़ामोश रही। मगर कलूट ख़ामोश न रह सका। वह बहुत बिगड़ा। बाप दादा की चौखट बेचते शर्म नहीं आती।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कल्लू सुनता रहा आख़िर बिलबिला उठा, ÷÷तो जेल चले जायें।'' कलूट उस सवाल का जवाब हाँ मैं नहीं दे सकता था। चुप रह गयो। वह जब सिर्फ़ कलूट था। उसके पास एक बेनाम मकान था। जब वह कलूट से शेख कलूट हुआ तो कल्लू मंजि+ल में रहने लगा। और अब कल्लू मंजि+ल बिक चुकी थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कल्लू ने दो-चार दिन में पाँच रुपये महीने पर एक खण्डर ले लिया। उसी दिन मगरू, नफ़ीसन को ले गया। और शाम को शेख मदारन ने कलूट को मंगरू का यह संदेश दिया कि अब नफ़ीसन वहाँ नहीं जायेगी। नफ़ीसन की शादी कहीं और हो जायेगी। कलूट ने कुछ नहीं कहा। वह तो यह देख रहा था कि अब सुबह को कोई नहीं आता। हुक्का ख़मीरा से आठ सीरे पर आ गया है। ऐसे में भला वह नफ़ीसन को लाने की हिम्मत क्या करता। उसने सोचा चलो एक पेट कम हुआ।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तीन-चार दिन के बाद एक दिन तन्हाई से उकता कर कलूट शेख मदारन के यहाँ चला गया। तब दबते-दबते कलूट ने कल्लू और महताब की शादी की बात निकाली। शेख मदारन ने साफ इंकार कर दिया। वह एक कोकीन फरोश से अपनी बेटी नहीं ब्याह सकते और अब कलूट के पास है क्या कि किसी की बेटी ब्याहने का हौसला करे। महताब की शादी तो बनारस में एक जगह तय हो रही है लड़का अदालत में पेशकार है दस-बीस रुपये रोज की तो ऊपर की आमदनी है....।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कलूट लौट आया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">रहा कल्लू, तो उसे तो यह भी नहीं याद था कि उसने कब से शरीफ़न की शादी और अपनी महताब की शादी का ख्+वाब भी देखा है। वह तो मुकदमा लड़ रहा था। एक अदालत से दूसरी अदालत में तीसरी अदालत में और रास्ते में न जाने कितने ख्वाब शीशे के बर्तनों की तरह गिर-गिर कर टूट चुके थे। सिर्फ़ एक आरजू रह गई थी कि हाईकोर्ट मवाफ़िक फैसला दे दे उसके वकील ने तो पक्क़ा वादा किया था कि वह उसे छुड़ा लेगा। पाँच सौ में मुआमलात तय हुये थे।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मगर वकील कल्लू को न छुड़ा सका। सुप्रीम कोर्ट न जा सका तो जेल चला गया। वह सिर्फ़ इस पर हैरान था कि उसने तो कभी कोकीन नहीं बेची। लेकिन अदालत ने उसे कोकीन फ़रोश ठहरा दिया। उसे क्या मालूम था अदालतें अपने कमरों से नहीं निकलतीं और ज+राएम उनके कमरों में नहीं होते। वह काग़ज+ों की बात मानते हैं। कागज+ झूठ नहीं बोलते। वह कल्लू की आँखों में झाँककर उनकी हैरानी नहीं देख और नहीं सोच सकती कि मुजरिम आख़िर इतना हैरान क्यों है। वह सिर्फ़ यह देख सकती कि दफ़ा ६० एक्साइज+ ऐक्ट में मुलजि+म का चालान हुआ। उसके यहाँ से गवाहों की मौजूदगी में जो सफ़ेद सफूफ बरामद हुआ था उसे केमिकल एक्ज+ामिनर ने कोकीन ठहरा दिया है। उनके लिये इतना जान लेना काफ़ी है। उन्हें इससे क्या मतलब कि मुलजिम तो कोकीन का नाम भी नहीं जानता था। उन्हें इससे क्या कि मुलजिम ने कल्लू मंजि+ल बेच डाली है। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम शरीफ़न की शादी के ख्+वाब देखा करता था। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम महताब से शादी करना चाहता था। और अब महताब का बाप उसकी निस्बत कहीं और लगा रहा है। उन्हें उससे क्या कि जेल चले जाने के बाद जवान होती हुई शरीफ़न और बूढ़े कलूट का क्या होगा। काग़ज+ों ने कहा कि कल्लू मुजरिम है। नीचे से ऊपर तक अदालतों ने मान लिया कि वह मुजरिम है.....काश इंसाफ़ इतना बेबस न होता।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कल्लू जेल चला गया। लल्लन खाँ ने इत्मीनान की सांस ली। वह दुकान के मालिक के पास गये कि उस दुकान को हासिल करें। मगर मालिक दुकान पर ले दरजे का अहमक (बहुत बड़ा बेवकूफ़) निकला।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नहीं लल्लन खाँ मैं कल्लू की मजबूरी का फ़ायदा नहीं उठाऊंगा। यह दुकान कल्लू का इन्तज+ार करेगी।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लल्लन खाँ मायूस होकर लौट आये। अड़ोस-पड़ोस के दुकानदारों ने पूछा कि क्या हुआ तो लल्लन खां ने सारा वाकया सुना डाला।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷साला शायर है न।'' एक दुकानदार ने कहा ÷÷उन सभों के पास अक्+ल नहीं होती।'' वह शायद कुछ और कहता मगर मालिके दुकान को आता देखकर चुप रह गया। ÷÷आइये शौक़ साहब पान खाइये।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷शुक्रिया'' शौक़ साहब आ गये। लल्लन खाँ पान लगाने लगे। ÷÷भई लल्लन खाँ मैंने सोचा कि जब तक कल्लू छूट के नहीं आ जाता तब तक चाहो तो दुकान को इस्तेमाल कर लो।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नहीं मियाँ, ओके बाद का करेंगे।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम जानो।'' पान की इकन्नी फेंक कर शौक साहब चले गये।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शौक साहब वाकई शायर क़िस्म के आदमी थे। खाता-पीता घर था चार-पाँच दुकानों का किराया आता था। कुछ कहानियाँ-वहानियाँ लिखने से मिल जाता था। मुस्लिम स्कूल में इतिहास के टीचर थे। यार-दोस्तों में बैठकर शेर भी कह लिया करते थे।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लल्लन खाँ की दुकान से कुछ ही आगे गये थे कि ÷÷ख़ान टी हाउस'' से कुछ लोग आवाज+ें देने लगे। मास्टर साहब नाली में पीक गिरा कर चायख्+ााने में चले गये।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">हम लोगों में यह बहस हो रही थी कि जो एन्टी प्रास्टीट्यूशन एक्ट बना है यह बड़ा मुबारक कदम है। एक साहब ने कहा ÷÷लेकिन इन साहब का कहना है इससे ज्+यादा ज+रूरी काम पड़े हैं।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷असल में सोचना इस पर चाहिये कि रन्डियां वजूद में कैसे और क्यों आती हैं। ऐक्ट इस बाज+ार को उजाड़ सकता है। रन्डियों को ख्+ात्म नहीं कर सकता। उस कारख़ाने को बन्द करने की कोशिश कर दिया और जहाँ रन्डियां ढलती हैं, कोकीन से मलेरिया अच्छा हो जाता है। बन्द नहीं होता।'' शौक साहब बोले।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तो आप का मतलब है, रंडियों को बाज+ार में रहने दिया जाये ताकि बाहरी मुमालिक के सैय्याह आयें और देखें कि यहाँ जिस्म की तिजारत होती है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शौक साहब हँस दिये। ÷÷जिस्म की तिजारत कहाँ नहीं होती?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷यह मुल्क गरीब है। यहां जिस्म नहीं बिकेंगे तो और क्या होगा?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अमेरिका तो ग़रीब मुल्क नहीं है भाई! यह सवाल गरीब का नहीं है। समाजी ढाँचे का सवाल है जब यहाँ रिक्शा चलना शुरू हुआ तो मैं बरसों रिक्शे पर नहीं बैठा। अजीब लगता था। आदमी-आदमी को खींच रहा है। लेकिन अगर सारे लोग मेरी ही तरह सोचने लगे, तो रिक्शे वाले भूको मर जाते। और अब तो मैं भी बैठता हँू रिक्शे पर और एक बार भी यह ख्+याल नहीं आता कि आदमी-आदमी को खींच रहा है। और अब देखो बाज+ार में एक्का नज+र नहीं आता। कचहरी के वक्+त देहात से एक्के आ जाते हैं तो घोड़ों के घुंघरू की आवाज+ अजीब मालूम होती है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷यानी आप इसके हक़ में है कि रन्डियाँ बाज+ार में रहें।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷लाहौला वला कुव्वत, मैं कैसे कह सकता हँू। मैं ही क्यों कोई यह नहीं कह सकता। मैं सिर्फ़ यह सोचता हूँ कि यह यहाँ से उठेंगी तो कहाँ जायेंगी और फिर इन मकानों का क्या होगा। कौन रहेगा? इन मकानों में अपनी बहनों और बेटों को लेकर? इस बाज+ार का खोल टूटेगा तो यह जहर हमारी समाजी और घरेलू जि+न्दगी में सिरायत (समा) जायेगा। उनकी ओल्टी का पानी हमारे आँगने में गिरेगा। हमारी ओल्टियों का पानी उनके आँगनों में गिरेगा। और हाँफते हुये मुतवस्सित (अच्छे) तबके की लड़कियाँ उनकी ओल्टियों से गिरे हुये पानी में बह जायेगी। क्या तुम अपने पड़ोस में बसाओगे।'' शौक साहब ने तेज+ी से सवाल किया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷लाहौला वला कुव्वत।'' जवाब मिला।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शौक साहब हँस दिये ÷÷बस एक ऐक्ट के हक़ में बोलना बड़ी जिम्मेदारियों का मुतालबा करता है। मौजूदा समाज में इस ऐक्ट के हक़ में बोलने का हक़ सिर्फ़ उन्हें है जो उन्हें अपने पड़ोस में बसाने का हौसला रखता हो। और जिसमें यह भूल जाने की हिम्मत हो कि कल तक क्या थी जो उनसे और उनके रिश्ता कर सकता हो, मैं नहीं कर सकता। इसलिये मैं इस ऐक्ट के हक में नहीं हँू। क्या तुम इस ऐक्ट के हक़ में हो?'' इस सवाल के बानी ने जोश की आग ठण्डी कर दी। शौक साहब मुसकराने लगे। ÷÷और तुम और हम जैसे हज+ारों, लाखों लोग भी अगर इस ऐक्ट के हक़ में हो जायें तब भी सवाल हल नहीं होगा। कोई मुल्क लड़कियों के रन्डी बनने के तादाद और शुमार नहीं रखता। वरना तुम्हें खुद मालूम हो जाता कि ऐक्ट कितना बोदा और कितना नाकारा है। दुकाने बंद हो जायेंगी तो यह फेरी लगा लेंगे। लल्लन पान वाले की तरह जिसे मैंने दुकान नहीं दी है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चायख़ाने में सन्नाटा हो गया। शौक साहब चायख्+ााने से निकल आये। </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुनादी</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷प्यारे भाइयों, पहली अप्रैल से रन्डियों के यहां जाना कानूनन जुर्म करार दे दिया गया है। शौक साहब के होटों पर एक तल्ख़ मुस्कराहट आ गयी। उन्होंने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से आँखें उठाकर उन रन्डियों की तरफ़ देखा जो अपनी खिड़कियों से मुनादी की आवाज+ सुन रही थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शौक साहब एक तरफ़ चले गये। मुनादी करने वाला दूसरी तरफ़ चला गया। रन्डियां खिड़कियों पर बैठी चुप-चाप बैठी सड़क पर आने-जाने वालों को देखती रह गईं और सड़ मुनादी और एन्टी प्रास्टीट्यूशन ऐक्ट से बेख़बर अपने गड्ढ़ों के पेबन्द लगा पहने धूप खाती रही।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">महीने की पहली तारीख्+ा को कलेक्टर साहब ने ÷÷इशरतगंज'' त्मक सपहीज ंतमं को करार दे दिया। उसी दिन रन्डियों की कई दुकानों पर एक बोर्ड लग गया ÷÷यहाँ सिर्फ़ गाने-बजाने का काम होता है।'' जैसे अक्सर हलवाइयों की दुकान पर बोर्ड होते हैं कि ÷÷यहाँ सिर्फ़ देसी घी की मिठाइयां बनती हैं।'' एक बजते-बजते पुलिस ने छापे मारने शुरू किये, चालीस आदमी गिरफ्+तार हुये। ÷÷शोर्फ़ाए शहर'' तो पान पत्ता खिलाकर छूट गये, ÷÷कमीने लोग हवालात में बन्द कर दिये गये।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">दूसरी तारीख़ को शहर में दो सौ रन्डियों और सवा सौ साजि+न्दों ने एक जुलूस निकाला, जुलूस नारे लगा रहा था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हम कहाँ जायें।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हम क्या करें।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शहर के लोग इन बातों की अहमियत से बेख़बर तमाशबीन (दर्शक) बने रहे। जुमले फेंकते रहे। स्कूल की खिड़कियों से लड़कियों ने इस जुलूस का तमाशा देखा। जुलूस घूमता रहा। फिर यह जुलूस कई टुकड़ों में अलग हो गया। एक टुकड़ी कलक्टर के दरवाजे+ पर धरना देकर बैठ गई। दूसरी कांग्रेस के दफ्+तर पर, तीसरी पी.ए.सी. के दफ्+तर पर और चौथी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्+तर पर। जनसंघ के दफ्+तर पर धरना नहीं दिया गया था। मगर दोपहर होते-होते चन्द रन्डियों ने जन संघ के दफ्+तर पर धरना दे दिया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तीसरे पहर को कलेक्टर ने उन रडिन्यों को हाजिर होने का हुक्+म दिया। रन्डियों ने कहना नहीं माना तो चुन-चुन के जवान और खूबसूरत रन्डियों को तमाम रन्डियों का नुमाइन्दा करार देकर पुलिस ने गिरफ्+तार कर लिया। उन नुमाइन्दों की रातें हवालात में नहीं गुजरीं, पुलिस के क्वाटरों में गुज+रीं।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तीसरी तारीख़ को रन्डियों ने शहर से भागना शुरू किया। शहर में किसी ने यह नहीं समझा कि यह कहाँ जा रही हैं....। यह रन्डियाँ महलों में जा रही थीं और देहातों में जा रही थीं।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">चन्द होशियार दलालों ने एक और तरीका निकाल लिया था। एक-एक ने दो तीन रन्डियों से शादी कर ली। अब वह ब्याहता औरते थीं। पुलिस छापा मार कर उनके यहाँ से किसी को गिरफ्+तार नहीं कर सकती थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आरजू ने भी एक दलाल से निकाह कर लिया। नुसरतुल्लाह ने उसे सौ रुपये माहवार पर नौकर रख लिया। वह बाज+ार से उठकर कल्लू मंजि+ल में आ गयी। ÷÷कल्लू मंजि+ल'' और उसके पड़ोसियों को यह नहीं मालूम था कि वह शहर की मशहूर तवायफ़ है। वह तो एक ठेकेदार की बीवी है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कुछ दिनों तक तो आरजू को यह घरेलू जि+न्दगी अजीब मालूम हुई। फिर धीरे-धीरे रिश्ते के भाई, खालू, चचा और फुफ्फा वगैरह आने लगे। घरेलू जि+न्दगी की इंसानियत का तिलस्म टूट गया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नुसरतुल्ला ग्यारह बजते-बजते आ जाता और अज+ान होते-होते चला जाता। मुँह हाथ धोता। दुकान खुलती और दुकानदारी होने लगती और दस- ग्यारह बजे तक के लिये वह आरजू और उसके आरामदेह जिस्म और शोख मुसकराहटों को भूल जाता.... वह कल्लू तो ख्+ौर उसे याद ही न आता जो खुद उसी की वजह से... कैद बामशक्क़त भुगत रहा था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शेख कलूट ने....सीख कबाब की एक छोटी-सी दुकान खोल ली थी। मगर उससे कहीं घर चलता है। वह भी ऐसे ज+माने में जब कीमतें तेज+ दौड़ने का मश्क कर रही हों। एक दिन वह नुसरतुल्ला के यहाँ गया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्या है।'' नुसरतुल्ला की पेशानी पर बल पड़ गये।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷आजकल बड़ी परेशानी में गुज+र हो रहा है भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हम का करें?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷लड़की जवान हो गई है, ओकी फ़िक्र, अलग है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नुसरतुल्ला ने चन्द लम्हों तक जवाब नहीं दिया। कुछ हिसाब वगैरह करने लगा कलूट मुँह लटकाये बैठा रहा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ऐसा करो तोरे वाले मकान में हमरे एक दोस्त किरायेदार हैं। लड़कियाँ को उहाँ नौकर रखवा दो, बाल बच्चे वाले आदमी हैं।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा भैय्या।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ई खत लेते जाओ।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आरजू के नाम एक पुजर्+ा लेकर कलूट उसके यहाँ से उठ आया। दस रुपये माहवार तनख्+वाह और दोनों वक्+त का खाना और त्योहार पर कपड़ा लत्ता.... ऐसा कुछ बुरा तो नहीं हुआ। कलूट एक हद तक मुतमईन था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शरीफ़न उसी रोज+ आरजू के घर पहुँच गयी। आरजू ने पहले अपने मियाँ के नाम नुसरतुल्ला का खत पढ़ा। ख़त पढ़ने के बाद उसने शरीफ़न का ज+ायजा लिया। उमर यही कोई तेरह-चौदह साल, करना हुआ। खूबसूरत जिस्म, बड़ी-बड़ी गहरी स्याह आँखें, खड़ी नाक, भरे-भरे होंट.....वह मुसकरा दी। उसकी माँ भी मुसकरा दी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷खाना पका लेती हो।'' आरजू ने पूछा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷पुलाव कोरमा पकाने आता है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आवाज+ अच्छी है। आरजू की माँ ने सोचा, काश यह लड़की चार-पाँच साल पहले मिल गई होती..... एक ठण्डी सांस लेकर वह माज+ी के बारे में सोचने लगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा बावर्चीख्+ााने में जाओ। अम्माँ तुम्हें ख़ाना पकाना सिखा देगी।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">अब शरीफन को यह बताने की ज+रूरत थी नहीं कि बावर्चीख़ाना कहां है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">रात को जब नुसरतुल्ला आया और आरजू उसके सर में तेल डालने लगी तो उसने छूटते ही शरीफ़न के बारे में सवाल किया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷कैसी है''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मैं मान गयी आपकी निगाहों को।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷वाकई?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क़यामत है मगर बेहद मासूम लड़की है।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उस रात से नुसरतुल्ला उस बेहद मासूम लड़की के बारे में सोचने लगा। जो कुछ होना है कल्लू के आने से पहले हो जाये। मगर दिक्क़त यह थी कि शरीफ़न उसके आने से पहले जा चुकी थी। आरजू ने उसे बारहा रोकने की कोशिश की, मगर वह नहीं मानी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नाहीं बाजी, बाबा अकेले हैं ना।'' वह यह जवाब देती, ख़ाना बांधती और चली जाती और फिर घर जाकर अपने बाबा से अपनी बाजी की तारीफ़ करती कि बाजी ऐसी है और वैसी है और यह है वह है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शरीफ़न से मिलने के लिये मुहल्ले की लड़कियाँ आ जातीं। महताब तो बीड़ी की पत्तियाँ और कैंची लेकर अक्सर आ जाती। बैठकर पत्ती काटती रहती और शरीफ़न से गप लड़ाती और कभी-कभी आरजू भी उन गप्पों में शामिल हो जाती। कभी आरजू का कोई देवर आया हुआ होता तो वह महताब और शरीफ़न से मज+ाक करता और यह दोनों भी ....मज+ाक करतीं। कभी-कभी देवर साहब ज्+यादा मज+ाक के मूड में आ जाते तो महताब दौड़ कर कमरे में छुप जाती। दरवाज+ा बन्द कर लेती, सीना धक-धक करने लगता। शरीफ़न घर के लोगों से परदा नहीं कर सकती थी इसलिये बैठी रहती। कोई देवर उसे गुदगुदा जाता। कोई उसकी चोटी खींच लेता, कोई नन्दोई उसे आँख मारकर मुसकरा देता....और वह कभी सोचने लगती कि बाजी के कितने सारे देवर और नन्दोई हैं? ऊंह होंगे। हमें का! वह फिर काम में लग जाती। महताब चली जाती। कभी-कभी बाजी के देवरों और नन्दोइयों की ली हुई चुटकियों का वारदात के सन्नाटे में और तेज+ हो जाता और वह एक सिसकी लेकर तकिया में मुँह छुपा लेती और ख्+वामख्+वाह मुसकराने लगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷भई आज हमारे साथ सिनेमा चलो'' आरजू ने एक रोज महताब से कहा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷कोई हो।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷बाबा से पूछ ले।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शेख मदारन को क्या ऐतराज+ हो सकता था। आरजू के एक देवर के साथ सेकेन्ड शो का प्रोग्राम बन गया। आरजू की माँ की तबियत इत्तेफाक़ से कुछ ख़राब हो गयी। अब सवाल यह था कि माँ को अकेला कैसे छोड़ा जाये।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अरे जाओ, मैं मर नहीं जाऊंगी।'' माँ ने कहा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नहीं अम्माँ।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷शरीफ़न रह जायेगी'' अम्माँ बोलीं ÷÷क्यों बेटी?''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷बाबा से न कहा है न''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷कहलवा देती हँू।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आरजू का ÷÷देवर'' शेख कलूट से कह आया कि अगर उन्हें कोई ऐतराज+ न हो तो शरीफ़न आज वहीं रह जाये क्योंकि अम्माँ की तबियत ज+रा ख़राब है। शेख कलूट को भला क्या ऐतराज+ हो सकता था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शरीफन घर रह गई। महताब आरजू और आरजू के देवर, तीनों सिनेमा देखने चले गये। सिनेमा से वापसी पर देवर नहीं आया। सिर्फ़ रोती हुई महताब आरजू के साथ वापस आई। आरजू उसे समझा रही थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷इत्ती ज+रा-सी बात पर रोया नहीं करते पगली, यह तो।'' आरजू ने महताब के हाथ में दो रुपये का एक नोट थमा दिया। ÷÷अब घर जाकर सो जाओ, घबराने की कोई बात नहीं, कल फिर आना।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वह महताब को उसके घर पहूँचा कर ÷÷कल्लू मन्जि+ल'' में आई तो वहाँ सन्नाटा था। अम्माँ सो रही थीं। नुसरतुल्ला भी सो रहा था और थकी हुई शरीफ़न भी सो रही थी और उसके तकिये के नीचे एक अठन्नी जाग रही थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आरजू कपड़े बदल करके लेट गई। वह भी कुछ थकन महसूस कर रही थी। एक वीराने में तीन घंटे चुपचाप गुज+ारना आसान काम नहीं था। यह दूसरी बात है कि वीराने में चुप-चाप बैठने के उसे चालीस रुपये मिले थे। पाँच तो महताब ले गई। बच्चे बीस, अब सुबह को माँ हिसाब लेगी। पच्चीस कह दूंगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सुबह को वह उठी तो शरीफ़न गर्दन झुकाये चुप-चाप बावर्चीख्+ााने में काम कर रही थी। वह बहुत थकी हुई मालूम हो रही थी। इतवार का दिन था। इसलिये नुसरतुल्ला भी गया नहीं था। शरीफ़न चाय बना लाई। नुसरतुल्ला उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया। वह गुनगुना उठी। आरजू यूं बैठी रही जैसे उसे ख़बर ही न हो कि कौन सा तूफ़ान किस रास्ते से गुज+र गया है और क्या क़यामतें ढा गया है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">दोपहर हो गई और महताब नहीं आई। शरीफ़न बहुत हैरान हुई। फिर उसने सोचा कि शायद उसे कोई काम हो। कोई काम नहीं था। वह बावर्चीख़ाने के बगल वाली कोठरी में एक खटोला डालकर लेट गई।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नुसरतुल्ला दबे पाँव कोठरी में दाख़िल हुआ। शरीफ़न की आँखें बन्द थीं वह उसके सिरहाने बैठ गया। शरीफ़न ने आंखें खोल दीं। सहमी हुई हिरनी की तरह ग़ज+ाली (हिरन) आँखें इधर- उधर देखने लगीं।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷देख शरीफ़नी, मैं तोसे शादी कर लूंगा। फिर तुझे अपने घर ले चलूंगा....'' शरीफन रोने लगी। बस साल-सवा साल की तो बात तो है। कल्लू के आते ही मैं तुझसे शादी कर लूंगा, तेरे बगैर मैं जि+न्दा नहीं रह सकता, तू मुझे अपना मियाँ समझ।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यह मियाँ वाली बात शरीफ़न की समझ, उसकी बड़ी-बड़ी स्याह आँखें उठीं और नुसरतुल्ला के चेहरे पर एक लख्+त के लिये रुक कर फिर झुक गईं। उसे वह तमाम बातें याद आ गयीं जो नफ़ीसन ने उसे बताई थीं। वह शरमा गई....</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">नुसरतुल्ला आता रहा। शरीफ़न उसकी बीवी थी। शरीफ़न ने यह भी नहीं सोचा कि नुसरतुल्ला और आरजू में क्या तआल्लुक है। इतवार की रात में वह उसके साथ थोड़ी देर रहकर आरजू के पास क्यों चला जाता है.... कभी यह ख्+याल आया भी तो उसकी मासूमियत ने उसे धुड़क दिया अरे तोसे क्या, ऊ कहीं रहें, उनकी बीवी तो तू ही है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">मुहल्ला की कई लड़कियाँ आरजू के साथ सिनेमा देखने और फिर लौटकर आरजू के यहाँ नहीं आई। शरीफ़न ने इस सवाल पर भी कभी नहीं सोचा कि यह लड़कियाँ सिनेमा के बाद आख्+ािर यहाँ आना ही क्यों छोड़ देती है....।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कई अजनबी लड़कियां भी आरजू के यहां आईं। जिस दिन कोई अजनबी लड़की और उस देवर या नन्दोई में मज+ाक होता। वह भागकर कमरे में चली जाती। फिर वह देवर या नन्दोई भी चला जाता और शरीफ़न घर के काम में लग जाती।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">पहले तो वह अजनबी लड़कियों के बारे में काम करते वक्+त सोचा भी करती थी। यह लड़कियाँ उसके मुहल्ले की लड़कियों की तरह नहीं होती थीं। उनके कपड़े अच्छे होते थे। यह खड़ी-खड़ी बोली में बातचीत करती थीं। उनके दुपट्टे सिरों पर नहीं होते थे, गले में पड़े होते थे। यह पान नहीं खाती थी, लिपिस्टिक लगाती थीं। बस घर में आये, नकाब उतार कर फेंक देतीं। आरजू के देवर या नन्दोई से मज+ाक करती, भागकर कमरा में जा छुपी और फिर नकाब पहन कर चली जाती।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">उन अजनबी लड़कियों में से कोई न होता तो यह, देवर आरजू और शरीफ़न से गन्दे-गन्दे मज+ाक करते। अब तो शरीफन ने इन ग़न्दे मज+ाकों पर शर्माना छोड़ दिया था। पहले तो आरजू के तुर्की ब तुर्की जवाब पर शरीफ़न सन्नाटे में आ जाती थी। फिर उसने सन्नाटे में आ जाना तर्क कर दिया और फिर खुद भी तुर्की ब तुर्की जवाब देने लगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">ये देवर अक्सर शरीफ़न को अठन्नी-चवन्नी देते रहते थे। फिर एक रोज+ जब आरजू अस्पताल गई हुई थी तो देवर ने उसे पाँच रुपये दिये और फिर उसे हैरान होने का मौका भी नहीं मिला....... और फिर यह सिलसिला चल पड़ा। उसे रुपये मिलते पहले तो वह घण्टों रोया करती थी। फिर उसने रोना छोड़ दिया। वह आरजू के देवरों को छेड़ने लगी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">तनख्+वाह के रुपये तो वह कलूट को दे देती। मगर यह ऊपरी आमदनी वह अपने बक्स में रखती जाती थी।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शरीफ़न को यह बात नहीं मालूम थी कि कल्लू दुकान से घर आते वक्+त किस चाव से उसकी शादी के बारे में सोचा करता था। किस एहतेमाम से जहेज+ खरीदा जाता किस एहतेमाम से शादी होती.... और अगर उसे यह बातें मालूम भी थीं तो वह उन बातों को भुला चुकी थी। कल्लू उसे ज+रुर याद आता था। उसे अपने भाई का इन्तेज+ार था।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">शरीफ़न की परेशानी उस वक्+त बढ़ी जब उसे ख्+वामख्+वाह मतली होने लगी। हर चीज+ की महक ख्+ाराब मालूम होती। बस कोरे बरतनों को देखकर तबियत न मालूम कैसी-कैसी होने लगी और फिर जब तक वह उसे दाँतों से पीस न डालती तस्कीन न होती।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">कलूट को तो इन बातों की ख़बर नहीं हुई। मगर आरजू की माँ ने भांप लिया। कलूट के यहां कहलवा दिया गया कि आरजू की माँ की तबियत बहुत खराब है। इसलिये शरीफन दो-चार रोज+ यहीं रहेगी। कलूट के लिये इस पैगाम में कोई ख़ास बात नहीं थी। ऐसे पैग़ाम तो अक्सर आते रहते थे।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">एक दाई आई। उल्टी सीधी मालिश होने लगी। तरह-तरह की दवायें खिलाई जाने लगीं। फिर हर तरफ, फिर हर तरफ जैसे अन्धेरा छा गया.... मालूम मालिश से छुटकारा मिल गया। कोरे बर्तनों को देखकर तबियत ने ललचाना तर्क कर दिया। मगर वह जिस्म बिलकुल गल गया। जिसके कसाव पर चन्द महीने आरजू हैरान रह गई थी। और वह बड़ी-बड़ी स्याह आँखें हलकों में धँस गयीं और चेहरा का गेहूंँ जलकर स्याह पड़ गया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">फिर भी शरीफ़न झेल गई। महताब न झेल सकी। उसके घर में एक माँ थी। वह पहचान गई ÷÷ई का किये कलमँुही?'' माँ ने माथा ठोंका, शेख मदारन तो सन्नाटे में आ गये। ÷÷के का है ई?'' मां ने सवाल किया। महताब ने कोई जवाब नहीं दिया। वह रोती रही ÷÷डूब मर बेशर्म।''</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">महताब ने माँ को मश्विरा कबूल कर लिया। रात को चुपके से दरवाज+ा खोल कर वह बाहर आ गई। हर तरफ़ अंधेरा था। दूर व नज+दीक से कुत्तों की आवाज+ आ रही थी। सामने ही खारे पानी का कुंआ था। वह कुएँ की पक्की जगत पर बैठकर अंधेरे में अपने घर की तरफ देखने लगी। जिस का दरवाज+ा खुला हुआ था और जिसकी कोठरी में टीन के एक बक्स में चाँदी के दो तीन जेवर उसकी बारात के मुन्तजर थे।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">वह चन्द लम्हों तक बैठी रही। मरना आसान काम नहीं होता। खुदकशी बुजदिली है। मगर एक ऐसी बुजदिली जो एक मखसूस क़िस्म की जुर्रात का मुतालबा करती है.... फिर कुएँ की जगत ख़ाली हो गयी?</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">सुबह को मुर्ग की बांग के साथ जब महताब की माँ की आँख खुली तो महताब की खाट ख़ाली पाकर उसका माथा ठनका। उसने जल्दी से शेख मदारन को जगा दिया।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">महताब की तलाश शुरू हुई। मगर महताब कहाँ थी। मुहल्ले में बात फैल गयी कि शेख मदारन की लड़की बाप को गुल देकर किसी के साथ निकल गई! कई लोगों ने कहा कि उसके लक्षण ही ऐसे थे।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">इत्तेफ़ाक से उसी रोज एक घबराई हुई बिल्ली कुएँ में गिर गयी मुहल्ले के लोगों ने कुएँ को साफ़ करना शुरू किया। मस्जिद का कुआँ था डोल पर डोल पानी निकलने लगा।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-75373878898349890802010-12-28T19:26:00.000+05:302010-12-28T19:26:11.590+05:30हीरोइन<div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">राही मासूम रजा</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मुझे पानी चाहिए।'' लड़के कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मुझे पेड़ पर से उतारो।'' लड़की ने कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷जब तुम्हें उतरना नहीं आता तो तुम चढ़ी क्यों थीं।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷एक फ़िल्म में देखा था।'' लड़की ने जवाब दिया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मगर मैं किसी फ़िल्म का हीरो नहीं हूँ।'' लड़के ने कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तो तुम्हारी कार ठीक पेड़ के नीचे क्यों रुकी?'' लड़की ने सवाल किया। ÷÷वैसे मैं भी किसी फिल्म की हीरोइन नहीं हूँ।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हाँ। लड़की बोली। ÷÷मैं बी.ए. में पढ़ती हूँ।'' ÷÷छुट्टियाँ गुज+ारने बाबा के घर आयी हूँ।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा।'' लड़के ने यूं कहा जैसे उसकी समझ में यह बात आ गई हो कि लड़की पेड़ पर चढ़ी क्यों बैठी है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम्हारे कालिज में पेड़ पर चढ़ना सिखाया जाता है क्या?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम पागल हो।'' लड़की ने कहा। ÷÷कहा न कि कई फ़िल्मों में यह देखा है कि जब तक हीरोइन पेड़ पर नहीं चढ़ती हीरो नहीं आता।'' </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तो तुम हीरो की राह देख रही हो?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम्हें गाना आता है?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷न''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तब तुम हीरो नहीं हो सकते।'' लड़की बोली। वह उदास हो गयी। उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखों में धूल उड़ने लगी। वह पेड़ के नीचे आ गयी। ÷÷तुम्हारी गाड़ी भी पुरानी है। तुमने मेरे पेड़ के नीचे गाड़ी क्यों रोकी? ऐसी फटीचर गाड़ी लेकर हीरो बनने का शौक चराया है?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷गाड़ी खुद से रुक गई है।'' लड़के ने इधर कुछ कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुमने सैकेण्ड हैंड खरीदी थी?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷फोर्थ हैड''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्यों?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्योंकि मैं नयी गाड़ी नहीं खरीद सकता।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्यों नहीं खरीद सकते?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मेरे अब्बू एक मिनिस्टर से साझे में बिजिनेस कर रहे थे। वह मिनिस्टर हार गया। वह तो अब गवरनरी कर रहा है। और मेरे अब्बू जेल में हैं।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अच्छा'' लड़की फिर पेड़ की तरफ बढ़ी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷पानी।'' लड़के ने कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम कोई हीरो हो कि मैं तुम्हारी कार के लिए पानी लाऊं?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लड़की बिगड़ गयी। ÷÷गाड़ी यहाँ से हटा लो। हीरो आयेगा तो गाड़ी कहां रोकेगा?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हीरो नहीं आयेगा।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्यों नहीं आयेगा!'' लड़की ने एक शाख पकड़ते हुए कहा। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷वह आजकल बेरोजगार है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लड़की हँस पड़ी। ÷÷तुम बिल्कुल पागल हो। हीरो सदा बेरोजगार होता है।'' यह कहकर लड़की गाने लगी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">यहाँ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लड़का जमीन पर उकडू बैठ गया...</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ओ मेरे हीरो रे हीरो रे हीरो।'' लड़की ने मुँह के दाहिनी तरफ दाहिने हाथ की दीवार बनाकर आवाज+ लगायी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ज्+यादा चीखोगी तो आवाज+ फंस जायेगी।'' लड़के ने कहा। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हीरो को पुकारने से आवाज+ नहीं फंसती।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मगर तुमने ही तो कहा था कि तुम हीरोइन नहीं हो बल्कि छुट्टियां गुजारने नान के यहां आयी हो।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हां'' </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷इसलिए तुम्हारी आवाज फंस सकती है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मैंने यह नहीं सोचा था।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷वैसे तुम्हारे नाना क्या करते हैं?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मेरे नाना को कुछ करने की क्या ज+रूरत है । ÷÷लड़की फिर बिगड़ी।'' ÷÷मेरे नाना बहुत बड़े जमींदार है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷जमींदार?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷तुम तो ऐसा चौंके जैसे जमींदार होना नामुकिन हैं?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷दस-बारह बरस पहले सुना था कि जमींदारी खत्म हो गयी।'' </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हट झूठे।'' लड़की ने बड़े प्यार से कहा। जैसे वह कोई बच्चा हो। ÷÷खत्म तो बस कहानी होती है। आये भी वह गये भी वह खत्म फसाना हो गया.... लड़की ने फिर गाना शुरू कर दिया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अजीब पागल लड़की है।'' लड़का बड़बड़ाया।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मेरा नाम उम्मे सलमा है।'' लड़की ने कहा।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷बड़ा फटीचर नाम है। बिलकुल नहीं चलेगा।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मेरे नाना ने रक्खा था।'' लड़की ने बुरा माने बगैर कहा। ÷÷मेरे नाना से मिलोगे?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हाँ'' लड़का बोला।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लड़की फिर पेड़ से उतर आयी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷नाना ने पूछा कि तुम कौन हो तो क्या बताओगे?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷कह दूंगा कि मैं मैं हूँ।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷लड़की खिलखिला कर हँस पड़ी।'' मैं तुम्हारा नाम मैं है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷वह फिर हंसने लगी।'' उसकी आँखों से पानी बहने लगा यह तो इसके आगे पीछे क्या है?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">आगे पीछे?</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷हाँ, तुम मैं हुसैन हो या मैं नाय!''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷ओह!'' लड़का भी हँस पड़ा। मेरा नाम मैं नहीं है।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हारा नाम मैं है।'' लड़की बुरा मानकर फिर पेड़ पर चढ़ गयी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मेरा नाम मनमोहन है। माँ-बाप पंजाब के थे। मैं यू.पी. का हूँ। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मुझे पंजाब से नफ़रत है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷क्यों?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷लोग कहते हैं कि उन्होंने पंजाब में दूसरी शादी कर ली है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷पगली'' एक लड़के ने दूर से आवाज+ लगायी।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷खड़ा तो रह हरामजादे।'' लड़की पेड़ से कूद कर उस बच्चे के तरफ लपकी।'' अभी नाना से कहती हूँ कि वह तेरे बाप को भी पंजाब भेज दें।</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷यह लड़की कौन है।'' लड़के ने एक गाँव वाले से पूछा। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷पगली है।'' गाँव वाले ने कहा। ÷÷इसके मियाँ ने पाकिस्तान में दूसरी शादी कर ली है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷और यह बच्चा कौन था?''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷इसी का बेटा था।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷मगर .......''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">÷÷इसी गाँव का कोई आदमी इसका बाप है।''</span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">लड़का उस आदमी का मुँह देखता रह गया। वह पानी मांगना भी भूल गया। उम्मे सलमा अब भी उस बच्चे के पीछे भाग रहीं थी। और वह उसे पगली कह-कह कर चिढ़ा रहा था। और हँस रहा था। </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;">(साभार- सारिका पत्रिाका) </span></div><span style="font-size: large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"></span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-2275148222971170052010-12-02T20:15:00.000+05:302010-12-02T20:15:19.689+05:30rahi masoom raza<div class="separator" style="border-bottom: medium none; border-left: medium none; border-right: medium none; border-top: medium none; clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieyjQs7dbkHlmSeYfANUsbtcnYsycWvSZWqzqAIWkM9WwcN2NOsQmbe_ojYsE7KUqCDveWmc3pkeXlIh2Oo8homAGtpX33unCvijwYE70BIYbPPhORGw7SWEv9izrYBVCc8OPpH5lyhkT6/s1600/scan0008.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" ox="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieyjQs7dbkHlmSeYfANUsbtcnYsycWvSZWqzqAIWkM9WwcN2NOsQmbe_ojYsE7KUqCDveWmc3pkeXlIh2Oo8homAGtpX33unCvijwYE70BIYbPPhORGw7SWEv9izrYBVCc8OPpH5lyhkT6/s320/scan0008.jpg" width="228" /></a></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-35106914566940763742010-10-30T10:18:00.003+05:302010-10-30T10:20:12.195+05:30डा. राही मासूम रजा के कथा साहित्य में विवाह के प्रति बदलते दृष्टिकोण<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><br />
<div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">सलीम आय. मुजावर</span></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><br />
<div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्राता है, वह सब कुछ है, जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होती है, नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धी है, रिद्धि है और वह सब कुछ है, जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, संकटों का निवारण करती है, यदि नारी को श्रद्धा की भावना अर्पित कि जाए तो वह विश्व के कण-कण को स्वर्गीय भावनाओं से ओत-प्रोत कर सकती है। नारी एक संतान शक्ति वह आदिकाल से सामाजिक दायित्व को अपने कंदे पर उठाये आ रही है। जिन्हें केवल पुरुषों के कंधे पर डाल दिया जाता, तो वह कब का लड़खड़ा गया होता, भौतिक जीवन की लालसाओं को उसकी पवित्राता ने रोका और सीमाबद्ध करके उसे प्यार की दिशा दी। नारी के विषय में पुराणों में यह श्लोक अंकित है-</span></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;">विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रिायां समस्ता सकला जगत्सु।</span><br />
<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;">त्वथैकया पूरितामन्वयेतत का तैं स्तुति स्तव्यपरा परोकिता।।</span><br />
<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;">अर्थात्- हे देवी! संसार की समस्त विधाएं तुमसे निकली है और सब स्पृहाएं ही स्वरूप है, समस्त विश्व एक तुम्हीं से पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए? जहां तक नारी शब्द का प्रश्न है वह नर की ही तरह नृ धातु से बना है, इसका अर्थ क्रियाशील रहने वाला नर है और क्रियाशील रहने वाली नारी भी है ऋग्वेद के दशम मण्डल के 159 में सुक्त में शची का गौरव वर्णित है, शची का कथन है-</span><br />
<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;">अहम् कुतूरहम मूर्धाऽमुग्रा विवाचिनी ममेदनु क्रंतु पतिः सोहानाया उपाचरेत।।</span><br />
<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;">अर्थात् मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूँ, मैं स्त्रिायों में मूर्धन्य हूँ, मैं उच्चकोटि की वक्ता हूँ मुझ विपयणी की इच्छानुसार मेरा पति आचरण करता है।</span><br />
<div style="text-align: justify;"></div><span style="font-size: x-large;"></span><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;">शेष भाग पत्रिका में..............</span></div><span style="font-size: x-large;"></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><span style="font-size: x-large;"><div style="text-align: justify;"><br />
</div></span><br />
<div style="text-align: justify;"><span style="font-size: x-large;"></span></div><br />
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</div><br />
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</div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-12650690034348202722010-08-29T21:51:00.004+05:302010-08-29T22:02:06.166+05:30राही मासूम रजा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrY5c-F-0aku7F4sMXcDMdFMos-NKzd9jeIGdKb1DR2-g_NMR5ngk4S26J701VVzi80phP6sVlTi6zh8sz-tM-YDf6oUOSReE8CyorvePNah9p-stlZTqpXs6-qhOs-gWUSeJ_Tp1nnVUz/s1600/firoz2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <br />
<span style="font-size: x-large;">राही मासूम रजा book प्रकाशित</span><img border="0" ox="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrY5c-F-0aku7F4sMXcDMdFMos-NKzd9jeIGdKb1DR2-g_NMR5ngk4S26J701VVzi80phP6sVlTi6zh8sz-tM-YDf6oUOSReE8CyorvePNah9p-stlZTqpXs6-qhOs-gWUSeJ_Tp1nnVUz/s320/firoz2.jpg" /><br />
</a>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-90515443357934801152010-04-20T16:58:00.000+05:302010-04-20T16:58:15.804+05:30मैं एक फेरीवाला के सन्दर्भ में<div align="justify">- डॉ० आदित्य प्रचण्डिया</div><div align="justify"></div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">कविता सम्पूर्ण चेतना की अखण्ड अभिव्यक्ति है, वह खण्डित व्यक्तित्व की बौ(कि शब्द लीला मात्र नहीं है। असम्बद्ध शब्द जाल और व्यक्ति वैचित्रयवाद की कारीगरी से पाठक को उलझाने और वास्तविक कवि कर्म में बृहद्न्तर हैं। कविधर्म कोरे फ़ैशन से भिन्न होता है। नया भावबोध या नई अभिव्यक्ति के चिल्लाने मात्र से काव्य का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। किसी काव्य की क्षमता उसमें चित्रित अनुभूति गहनता और शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता में निहित है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काव्य में हृदय के सहज उद्रेक और उसके साथ निश्छल अभिव्यक्ति का योग अनिवार्य है।१ राही का कवि-मन अपने को समझने के साथ भविष्य के प्रति आशापूर्ण है। उसकी कविता व्यापक सत्य की व्यंजना करने की चेष्टा करती है। वह सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक है। उसमें बौ(किता अनुभूतियों के रूप में आत्मसात् होकर अभिव्यक्त हुई है और संवेदनशीलता एक अनिवार्य गुण के रूप में विद्यमान है। राही स्वयं कहते हैं- कविता नई या पुरानी नहीं होती। नई या पुरानी होती है कवि की चेतना। व्यक्ति और समाज तथा समाज और प्रकृति के सम्बन्धों की चेतना। इस चेतना के लिए यह ज+रूरी नहीं कि जि+न्दगी को उसके हर रूप में जीकर देखा जाये। क्योंकि यह तो हुआ अनुभव। अनुभव का एक अपना महत्त्व है, पर अनुभव चेतना का बदल नहीं है क्योंकि दूध का जला हमेशा छाछ को फूँक-फूँक कर पीना चाहता है। कभी-कभी फिर से मुँह जलाने को जी चाहने लगता है। यही अपने मुँह को बार-बार जलाने वाला कवि है। मुंह गया जहन्नुम में, पर जिन्दगी को गर्म-गर्म पीने की बात ही और है।''२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही की कविता युग की विषण्णुता, छल-छद्म भरे वातावरण और स्वार्थपरता की समान प्रतिक्रिया है। जीवन के कठोर संघर्षों और गम्भीरतम रहस्यों का उद्घाटन करने में राही की लेखनी तत्पर रही है। उनकी कविता पौरुष और कोमल दोनों सीमान्तों को स्पष्ट करती है। बाह्यजगत् और मनोजगत्, ग्राम-जीवन और नगर-बोध, क्रान्तिदर्शी दृष्टि और मर्मभेदी दृष्टि, स्वप्न दर्शन और यथार्थ चित्रण,उत्पीड़न के प्रति आक्रोश और शोषितों के प्रति करुणा, व्यंग्य, कटाक्ष और विनोद सभी का संश्लेषण और समंजन देखने को मिलता है। राही जीवन रस के आस्थावान कवि हैं। वह वादों से अलग रहकर, स्वतंत्र डगर पर चलने वाले स्वतंत्र चेता प्राणवान कलाकार है। जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में वह आशा का सन्देश देते हैं। उनके काव्य में सर्वत्र ऊर्जा और मार्दव, आशा -निराशा, मृत्यु-भय और जिजीविषा के धूप-छाँही रंग देखने को मिलते हैं पर अन्ततःउनकी आस्था, आत्म-विश्वास, मानव चेतना की उज्ज्वल आभा में अडिग विश्वास उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जिससे वह दैन्य, अवसाद, पीड़ा और निराशा की छाती पर पाँव टेककर खड़े हो जाते हैं, आग उगलते ज्वालामुखी को अपने हाथों से मँदने की तत्परता दिखाते हैं और अंध का पूर्ण सागर के पार नव चेतना का आलोक देखते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में राही की कविता की एक अपनी अलग स्थिति हैं। उनकी कविता आधुनिकता की प्रचलित अवधारणा अथवा उसके प्रतिमानों को चुनौती देने वाली कविता है। </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">मैं एक फेरीवाला' संग्रह में राही द्वारा सन् १९५५ से सन् १९७३ तक लिखित पचपन रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह की कविताओं में राही ने अपना काव्यादर्श प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की कविताओं के विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि राही ने अपनी काव्यभूमि पा ली है, अपनी कविता का प्रकृत मार्ग खोज लिया है। कवि समाज के सामान्य व्यक्तियों से निराला होता है। उसके जीवन-यापन के तौर-तरीके ही कुछ भिन्न होते हैं और इसी कारण उसके सोचने-समझने के रंग-ढंग साधारण व्यक्ति से भिन्न होते हैं। दरअसल युग के जीवन-दर्शन में उस युग की दृष्टि, उसका अपना मन्तव्य, बिम्ब और फिर उससे प्रभावित उसकी प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कवि असाधारण संवेदनशील होने के कारण अपने युग की इन प्रभावित प्रक्रियाओं और आयामों से बहुत दूर तक प्रभावित होता है। और फिर अपना जीवन दर्शन बनाता हैं जीवन दर्शन के अन्तर्गत जीवन-दृष्टि, जीवन-बिम्ब, जीवन-प्रक्रिया और जीवन-मूल्य सिद्धान्त माने जाते है। वास्तव में जीवन-दर्शन से व्यक्ति का जीवन बिम्ब ;जीवन जीने का लक्ष्यद्ध बनता है और फिर उससे उसकी जीवनदृष्टि जीवन जीने की दृष्टि बनती है, तद्नुसार उसके जीवन की प्रक्रिया सम्पादित होती है और फिर उसके जीवन-मूल्य ;सिद्धान्त निर्मित होते हैं। </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही के जीवन-बिम्ब युग-सापेक्ष और कुछ विरले ही थे। इसी कारण उनकी जीवनदृष्टि और उसकी प्रक्रिया बड़ी दु्रतगामी बनी रही। उनके जीवन की कला अपूर्ण ही थी। वे तो हर वक्त मगन रहना चाहते थे, किन्तु प्रारम्भ से ही उन्होंने जीवन से संघर्ष किया, अतः वह मगन रहने की प्रवृत्ति' ग्राम्भीर्य और चिन्तनशील रूप धारण करती चली गई। वास्तव में राही जिन्दगी जीने का ढंग जानते थे, जिन्दगी से भागना उन्होंने नहीं सीखा था। राही के शब्द-शब्द में विश्वसनीयता और जीवन-संघर्ष के रूप में उनका जीवन-दर्शन स्पष्ट झलकता है। इस जीवन-दर्शन से प्रभावित कवि परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्षरत रहना अधिक आवश्यक समझता है। परिवर्तन समाज-मानव का विकास है और इस परिवर्तन के लिए मरना कोई मरना नहीं होता। अपितु कवि राही तो मृत्यु'में एक नई राह देखता है -</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">मेरा जिस्म तो मर जाएगा/लेकिन सब्जा शबनम के पैमाने लेकर/आब्ला-पा लोगों की राहों में बैठेगा/लेकिन चाँद हर एक घर में लोरी गाएगा/ लेकिन सूरज हर-एक दरवाज+े पर जाकर दस्तक देगा/वादे-सहर खुशबू को कन्धों पर बिठलाकर दुनिया दिखलाने निकलेगी/फिर मैं कैसे मर सकता हूँ ?३</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">कवि की प्रबल जिजीविषा उसे पराजय स्वीकार नहीं करने देती, मृत्यु-भय उसे आतंकित नहीं करता, अपितु मुरझाए जीवन को पल्लवित करना चाहता है। वह मौत के जबड़े पकड़ जिन्दगी का अर्क पीने का अभिलाषी है।</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">कवि मनुष्य की सम्पूर्ण आत्मा को सक्रिय और गतिमान बनाता है और वह तभी ऐसा कर सकता है जब कविता केवल भावों का सहज उच्छलन न हो, वह चिन्तन, मनन और दर्शन की भूमि पर अधिष्ठित हो। ÷मैं एक फेरीवाला'संग्रह की कविताओं को देख-पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि राही भावनाओं में बिहार करने के साथ-साथ मानस-मंथन कर विचार-मणियों को उद्भासित करने वाले मनीषी भी है। उन्होंने जगत् की विषमताओं, मानव -हृदय और आत्मा को व्याकुल बना देने वाली गूढ़ समस्याओं पर विचार किया है और यथाशक्ति उनका उपचार करने के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। धर्मवीर भारती कहते हैं अन्दर के गहरे सैद्धान्तिक विश्वास ;स्थाई जीवन दर्शनद्ध जब केवल वैचारिक न रहकर जिन्दगी जीने की पूरी शैली बन जाते हैं और अपने को उन तमाम संस्कारों से सम्बद्ध कर लेते हैं जो बचपन से कैशोर्य तक खानपान और आसपास के परिवेश से मिले हों-तो एक खास किस्म का तेवर व्यक्तित्व में आ जाता है, वह तेवर ओढ़ा हुआ नहीं होता। वह समूचे व्यक्ति की स्थाई अभिव्यक्ति बन जाता है-आचरण में भी लेखन में भी। उनकी कविता का पाठक अगर इस तेवर को पकड़ ले तो उनकी कविता एक अजीब कशिश पैदा कर देगी उनके मन में। उनका डिक्शन, उनके छन्द, उनकी उपमाएँ, उनके बिम्ब सब में यह तेवर जान की तरह बसा हुआ है।''४ राही का वह तेवर बहुत मुलायम, बहुत नाजुक संवेदन वाला है। यथा-</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">पोर पोर में मेंहदी की मीठी खुशबू के छल्ले पहने/बाल सँवारे/चंचल आँखों के पैरों में काजल की जंजीरें डाल/ जब वह दरवाजे तक आई/दरवाजे पर कोई नहीं था/धूल किसी के नक्शे-कदम से खेल रही थी।५</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">लगता है कोई पद्माकर या मतिराम आधुनिक मुहावरे में वाल्टर डिला मेयर के उस काव्य-स्तर को छू रहा है। जहाँ समय थम जाता है और एक क्षण की घटना समय से परे की फन्तासी बन जाती है।६</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">आधुनिक युग यांत्रिकता, औद्योगीकरण, भौतिक समृ, द्धि हृदय की संकीर्णता और मूल्यों के विघटन का युग है। बाह्य सम्पन्नता के पीछे आत्मा की दरिद्रता झांक रही है ऊपरी तड़क-भड़क के नीचे मानवता कराह रही है। विज्ञान ने जिस स्वर्णिम आभा का विश्वास दिलाया था, वह मुलम्मा सिद्ध हो रही है। लोगों के नेत्रों पर से भ्रान्ति का पर्दा उठ रहा है, इस मोहभंग की स्थिति में निराशा, कुंठा, संत्रास का वातावरण बनना स्वभाविक हैं। आधुनिक जीवन की विकृतियों, विसंगतियों और विद्रुपताओं से कवि राही का तेवर चोट खाकर, पलटकर, तनकर खड़ा हो जाता है, धधकता हुआ जब उनके मूलभूत विश्वासों पर कोई चोट करता है या उन पर वह संज्ञा लादने की कोशिश करता है जो उनके सन्दर्भ में बुनियादी तौर पर अधूरी या असंगत है। ÷गंगा और महादेव' कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बजायें जाग रही हैं।</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूँ-</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">मेरा भी एक सन्देस है/मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुँह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दोः/महादेव/अब इस गंगा को वापस ले लो/यह ज+लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बन-बनकर दौड़ रही है। ७ </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">इस रचना में एक वर्तमान सामाजिक या सियासी वैषम्य पर भरपूर चोट है वरन् इसलिए कि एक अनन्त संघर्ष जो कविता के व्यापक मानवीय सत्य और बाहर के वैषम्यपूर्ण पूर्वाग्रह युक्त समाज में व्याप्त मीडियाकर यथार्थ में चलता आया है उसे जब भी किसी तेवर वाले कवि-कलाकार या चिन्तक ने पूरे आन्तरिक बल से चुनौती दी है, बेलाग बेहिचक चोट की है तब अक्सर उसको उसका अजीब मूल्य चुकाना पड़ा है। हाथी के नीचे कुचला गंग, सूली पर चढ़ा मन्सूर, देश से निर्वासित बायरन और शैली, अमरीका से बहिष्कृत चार्ली चैपलिन, रूस में कुचला हुआ पास्तरनाक। ये सिर्फ़ चन्द उदाहरण हैं। धर्मवीर भारती के शब्दों में राही कम्बख्त जब तन कर अपने आन्तरिक कवि सत्य को अपने चुल्लूभर गंगाजल-लहू को अपने आख़िरी हथियार की तरह लेकर उठ खड़ा होता है तो मुझे अपने इस प्यारे दोस्त पर जितना फ़ख्र होता है उतनी फ़िक्र भी होने लगती है।''८</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">कवि राही की बादल कविता मानवीकरण का मनोरम रूप है। यहाँ कवि का अन्तर्मन अपने वैयक्तिक रूप में खुलकर स्पष्ट हो पड़ता है। पानी के कुछ प्यासे कतरे बस्ती-बस्ती, सहरा-सहरा होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं। यथा-</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">बादल क्या हैं/पानी के कुछ प्यासे कतरे/घर से निकले/ बाल उलझे/तलवों में छाले/बस्ती-बस्ती/सहरा-सहरा/होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं।९</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">ऐसे निरूपण से स्पष्ट है कि यहाँ भावक की नितान्त वैयक्तिक प्रतीति को वाणी प्रदान करते हुए प्रकृति-सन्दर्भ को संजीवित किया गया है। </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">हृदय की व्याप्ति सीमित नहीं है परन्तु परिधि सौन्दर्य के सम्मुख वह असीमता भी सीमित हो जाती है, तब सौन्दर्य कितना असीम, कितना अनन्त और कितना विराट है। हृदय के प्रसार के साथ ही सौन्दर्य भी विस्तृत होता जाता है वह पानी की एक ऐसी बूँद है जिसकी तृष्णा नहीं मरती जो नहीं पीता वह तो प्यासा रहता ही है, पर जो पीता है उसकी प्यास का तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऐसा ही प्यासा है यह कवि राही मासूम रजा। प्यास और पानी'कविता में राही कहते हैं -</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">मैंने जब भी जन्म लिया है/अपने को तनहा पाया है/अपने को प्यासा पाया है/पानी/पानी/इस नन्हे से लफ्+ज+ में कितनी मौसीकी है/पानी, पानी/मैंने जब भी जन्म लिया है/इन लफ्+जों पर गौर किया है।''१०</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">हृदय की अतृप्त पिपासा ही इस कविता की मूल विशेषता है। हृदय क्या है ? विविध भावनाओं का रसभरा कोष ही न। इसीलिए केन्द्रीय ध्वनि ऐक्य होने पर भी आशा, आकांक्षा, असूया, उत्साह, उत्कंठा, उन्माद, त्रास, क्षोभ, दैन्य, निर्वेद, भ्रम, विश्वास, विषाद आदि भावोर्मियाँ यत्र-तत्र उभरी दिखाई देती है। हाँ, कवि के आशावादी आग्रह के कारण निराशा, भय, वितृष्णा आदि को कहीं भी स्थान नहीं मिल सका है। आत्मविश्वास की एक गम्भीर छाया समस्त कविता पर छायी है। </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">भय, आतंक, ऊब और अकेलापन के बोध की प्रवृत्ति राही की कविता में विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। देश के औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि और आबादी का व्यापक पैमाने पर स्थानान्तरण हुआ है। आज के प्रबुद्ध कवि और कलाकार नगरों की इस अपार भीड़ में जो अधिकतर उखड़े लोगों की भीड़ है, अपने को खोया और डूबा हुआ पाते हैं। राही को ऐसा लगता है कि वे बिल्कुल अकेले हो गए हैं उनकी परछाईयां खो गई हैं - रात के जगमगाते हुए शहर की भीड़ में/मेरी परछाइयाँ खो गई है कहीं/गैर है आस्माँ/अजनबी है जमीं/मैं पुकारूँ किसे/चल के जाऊँ कहाँ/मेरी परछाइयाँ खो गई रात के जगमगाते हुए शहर में।''११</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">धर्म निरपेक्षता, देशभक्ति, भावात्मक एकता वगैरह के नाम पर खड़ी बोली की उर्दू और हिन्दी दोनों शैलियों में ढेरों ग़जलें, नज्में, कविताएं लिखी गई है। इनाम अकराम भी मिले है। मगर बहुत कम ऐसी पंक्तियाँ मिली है। उनमें जहाँ कवि या शायर ने उन्हें सतही जेहन से दुनियाबी समझ बूझ के साथ न लिखकर उबलकर अपनी समूची आत्मा के साथ लिखा हो और ना समझों के मुँह पर मार दिया हो। लोग खतरा बचाकर चलते हैं, चारों ओर की फिजां देखकर बात करते है, राही बेसाख्ता सट पड़ता है। बिना किसी चीज की परवाह किए। अपनी कविता अपने सीने पर लिखकर सीना संगीनों से अड़ा देता है।१२ राही की ग़जले पढ़ने पर एक ऐसे शख्+स की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसने अपनी जिन्दगी में बहुत गम उठाये हैं मगर जो इनके कारण पूरी तरह टूट नहीं गया है। अतिशय परहित चिन्तन, संघर्षशील व्यक्ति का आत्मलोचन और ऐसे व्यक्ति की अमरता व्यंजित हुई है जो सुनसान जंगल में मुस्कराते हुए लौ की मानिंद डगमगाते-लड़खड़ाते कदम आगे बढ़ाते हुए चल रहा है -</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">इस अंधेरे के सुनसान जंगल में हम डगमगाते रहे, मुसकुराते रहे/लौ की मानिन्द हम लड़खड़ाते रहे, पर कदम अपने आगे बढ़ाते रहे''१३</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही की मायूसी में फ़ानी की मुकम्मल शिकस्त का एहसास नहीं मिलता। उनकी मायूसी की तुलना मीर की मायूसी से की जा सकती है जो एक लिविंग वायर' की तरह है -जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे, रोज मरते रहे, रोज जीते रहे/जिन्दगी भी हमें अजमाती रही, और हम भी उसे अजमाते रहे।''१४</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही के दिलो-जिगर में इतनी ताकत है कि उसे किसी सहारे की जरुरत नहीं है, वह अकेला होते हुए भी जिन्दा है-आज अपने कमरे में किस कदर अकेला हूँ/सिर्फ दिल धड़कता है, हाँ मैं फिर भी जिन्दा हूँ।''१५</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही के जख्मों की आवाज है कि वह मौत के वीरानों से लौट आया है फिर अपने नए अफसानों को बनाने के लिए कोई शेर और कोई नज्म उसे पुकारती है - ऐ मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन/लौट आया हूँ मैं फिर मौत के वीरानो से/फिर कोई शेर, कोई नज्म+ पुकारे मुझको/फिर मैं अफ्साने बनाऊँ तेरे अफ्सानों से।''१६</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही की शायरी की बुनियादी लय उदासी की है। यह उदासी हमारे युग की सबसे बड़ी और जीवित वास्तविकता है। राही कहते हैं कि इन नज्मों को उदासी का दिया जलाकर पढ़िये।''१७</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही के अश्आर बहर और मुहावरे के ऐतबार से तसल्ली बख्श है। बहर के कम ही झोल उनके यहां मिलेंगे। राही अपनी शायरी के विषय में कहते है - मेरी शायरी हिज्र' और प्यास' और तनहाई' की शायरी है और शायद यही कारण है कि मेरी इमेजेज' उर्दू के दूसरे प्रगतिशील कवियों की इमेजेज' से अलग है।''१८</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही ने लिपि के मामले में जो रुख अपनाया कि उर्दू और हिन्दी दो अलग साहित्य नहीं हैं और देवनागरी के माध्यम से दोनों की ऐतिहासिक एकता अब स्थापित हो जानी चाहिए।१९ राही को उर्दू के तरक्की पसंद और गैर तरक्की पसंद महानुभावों के विरोध का सामना करना पड़ा। राही की ग़जलों में नए इंसानी रिश्तों का बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी चित्रण हुआ हैं। इन रिश्तों में मीर और गालिब से आगे के सामाजिक परिवेश का क्रिस्टेलाइजेशन है- कमरे की कब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए/खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा/मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी/भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था।''२०</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">हिन्दी खड़ी बोली काव्य बहुत धीमे-धीमे विकसित हुआ था, लेकिन द्विवेदी युग से निकलकर माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन' के रहस्योन्मुख राष्ट्रीय काव्य के द्वार से होते हुए छायावाद को पार कर नई कविता के दौर में आकर अनेक दिशाओं में अनेक आयामों में विकास करता गया। उर्दू ने फ़ारसी का आधार स्वीकार कर लिया था। दरबार के मंजे हुए डिक्शन को उसने अपना लिया था। उसे किसी ब्रज या अवधी से वैसा विरोध नहीं सहना पड़ रहा था। अतः भाषा शैली और अभिव्यंजना का मँजाव उसमें हिन्दी के खड़ी बोली काव्य से बहुत पहले आ गया। लेकिन दरबार और अभिजात्य वर्ग की जेहनियत और डिक्शन से बहुत अधिक बँधे होने के कारण खास मोड़ पर आकर लगने लगा कि विषयवस्तु और शैली-रूप दोनों में एक खास ढाँचे में उर्दू कविता बँध गई है। राही की कविता की एक खास स्थिति है इन दोनों के बीच, और वह स्थिति ऐसी है कि उसे समझ लेने पर ही हिन्दी कविता से उनके इस काव्य संकलन को उचित स्थान पर सही ढंग से जोड़ा जा सकेगा। जहाँ उर्दू की कविता का बँधाव बाँझपन के बिन्दु पर पहुंच गया था, वहाँ से राही ने एक नया रास्ता तलाश करने की कोशिश की।२१</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही स्वतंत्रता के पहले प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन से जुड़कर साहित्य में आए। बाद में वामपंथी आन्दोलन निष्फल हुए। भास्वर स्वर में दहाड़ने वाले कविगण चुप हो गए। जिस प्रकार कमरे में बहुत से लोग खूब जोर से वक्तव्यबाजी कर रहे हों और अकस्मात् मौन हो जाएँ तब जो सन्नाटा कमरे में छा जाता है, वह अजीब भयावना-सा सन्नाटा होता है और उसके बाद जो व्यक्ति पहली बार घबरा कर वह सन्नाटा तोड़ता है वह बहुत आहिस्ते से दबे स्वर में आसपास वालों से बोलता है। उस दहशत भरे सन्नाटे में जिन लोगों ने धीमे स्वर में आहिस्ते से बोलना शुरू किया उनमें से एक थे राही मासूम रजा। राही को यह धीमे बोलना सीखना पड़ा। क्योंकि कविता अब तकरीर से बातचीत बन गई थी। पहले उनपर मीर अनीस का डिक्शन सवार था ;उसी पर उन्होंने शोध की थीद्ध पर बाद में उन्होंने अपने लिए नया डिक्शन खोजा। काव्य के नए उपकरण खोजे और उसमें एक नए संकट के समक्ष उन्होंने अपने को पाया। राही की एक गहरी स्थापना है कि मजहब और संस्कृति दो अलग चीजें हैं। दोनों एक दूसरे को प्रभावित कर सकती है, पर संस्कृति का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है और मजहब के दायरे में उसे बांधना नहीं चाहिए। राही की मान्यता है कि भारत में रहने वाला हर आदमी, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, उसकी जड़े भारतीय ही है। ऐसे वातावरण में राही एक ओर उर्दू की सारी कट्टर धर्मान्धता को खुलेआम चुनौती देने का साहस जुटाते हैं तो दूसरी ओर जब संकीर्ण धर्मान्ध हिन्दू उन्हें मुसलमान कहकर निर्वासित करना चाहते हैं, विच्छिन्न करना चाहते है तो वह डरते नहीं, दबते नहीं, ललकार कर कहते हैं कि तुम उस गंगाजल का क्या करोगे जो मेरी नसों में लहू बनकर बह रहा है, जो गंगा के रूप में महादेव की जटाओं से ही निकला है।२२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही ने उर्दू को अस्वाभाविक बनाने वाले इस्लामिक प्रतीकों का मोह छोड़ा। उन्होंने महापुरुष हुसैन को न लेकर हिमालय की ऊँचाइयों में अकेले भटकने वाले योगीशंकर को अपने आदर्श नायक का प्रतीक-पुरुष चुना। उनकी प्रेम-कविताओं की आलम्बन बनी राधा- शाम भी राधा के ख्+वाबों की तरह खामोश है बेजबां है। और उनके अकेलेपन में उन्हें याद आता है राम का वनवास, हम भी है वनवास में लेकिन राम नहीं। हर राही आये। अब हम को समझाकर कोई घर ले जाये।'' और वह अपना देश और अपने संस्कृति का अपना बेटा होने का यह अहसास उनमें कितना तीखा है, वसीयत'कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- मुझे लें जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना/वो मेरी माँ है/वह मेरे बदन का जहर लेगी/मगर शायद वतन से दूर मौत आये/तो मेरी यह वसीयत है/अगर उस शहर में छोटी-सी एक नदी भी बहती हो/तो मुझको उसकी गोदी में सुलाकर उससे यह कह दो कि यह गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है/वो नदी भी मेरी माँ, मेरी गंगा की तरह मेरे बदन का जहर पी लेगी।''२३</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">इस प्रकार राही वाद' से नहीं बँधे हैं वे अपने अनुभव और आवेग के प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं उनकी सम्पूर्ण दृष्टि समाज केन्द्रित है। वह जब जिस धारा को या जिस रेखा को लोकमंगल के लिए श्रेयस्कर मानते हैं, स्वीकारते हैं। उनका मानवतावाद किसी वाद का पूरी तरह अनुसरण स्वीकार नहीं करता वह ÷चयन' करता है, समन्वय करता हैं भावुकता और बौद्धकिता दोनों में समन्वय करते हुए जीवन और स्थिति को भोगकर अनुभवगम्य होकर राही ने रचनाएँ रची है। वे अतीत के प्रति आसक्त तो है पर वर्तमान के अनुभव जगत् को कहीं नहीं भूलें हैं। फलतःएक तनाव-बिन्दु बराबर बना रहा है जो राही को नया अथवा समसामयिक बनाए रख सका है। राही की कविता प्रयत्न-साध्य नहीं, भाव-प्रेरित है, उसमें प्रतिभा है, कला की परख है, कल्पना का वैभव है और सबसे बड़ी बात उसमें मानव के प्रति एक व्यापक सहानुभूति और कर्मण्यता की अदम्य लालसा है। जीवन और जगत् से गृहीत-विधि चित्रों को राही ने भावों की अनूठी लेखनी से मनभावन रंगों में रंग डाला है, और ये ही रंग उनके जीवन दर्शन को भी अभिव्यक्त करते है। इसकी केवल राही के काव्य से गुज+रकर अनुभूति ही की जा सकती है। </div><div align="justify"><br />
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</div><div align="justify">सन्दर्भ-सूची</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१. डॉ० शिवकुमार शर्मा, हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ ५८१-५८२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">२. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, कवि की ओर से, पृष्ठ १७</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">३. वही, मैं एक फेरीवाला,कविता संग्रह में संकलित कविता-जिन्दगी पृ. २९ </div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">४. वही, मैं एक फेरीवाला, भूमिका, पृष्ठ ७-८</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">५. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-एक पल, एक सदी, पृष्ठ ५७</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">६. वही, भूमिका, पृष्ठ ८</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">७. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-गंगा और महादेव, पृष्ठ ६०</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">८. वही, भूमिका, पृष्ठ ९</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">९. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-बादल,पृष्ठ ३०</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१०. प्यास और पानी, मैं एक फेरीवाला, पृष्ठ ४२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">११. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-दीपावली, पृष्ठ ८२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१२. वही, पृष्ठ ९</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१३. वही,कविता संग्रह में संकलित-ग़ज+ल पृष्ठ २५</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१४. वही, पृष्ठ २५</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१५. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-तनहाई, पृष्ठ २२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१६. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज, पृष्ठ २३</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१७. वही, पृष्ठ १९</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१८. वही, कवि की ओर से, पृष्ठ १७</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">१९. वही, भूमिका, पृष्ठ १०</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">२०. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज,पृष्ठ २३</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">२१. वही, भूमिका, पृष्ठ ११-१२</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">२२. वही, पृष्ठ १३-१५</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">२३. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-वसीयत, पृष्ठ ४७</div><div align="justify"><br />
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</div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-22070650275890952522009-11-22T19:24:00.003+05:302009-11-22T19:24:05.793+05:30राही मासूम रजा और आधा गाँव<div align="justify"><br />
</div><div align="justify">- प्रो० जोहरा अफ़जल<br />
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</div><div align="justify">राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत् में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने निश्चित रूप से भारतीय जीवन का एक और पहलू उजागर किया है। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही अपने गाँव गंगौली से, वहाँ के लोगों से वहाँ के कण-कण से प्यार करते हैं। उपन्यास को पढ़ने पर पता चलता है कि राही गंगौली की मिट्टी की गन्ध में, कीचड़ और गोबर में, गाय और बैलों में, प्राकृतिक शोभा में उतने ही रमते हैं जितने गंगौली के लोगों में। राही भारत की परम्परागत साझा संस्कृति और विरासत के प्रबल समर्थक थे। वे धर्म की राजनीति करने वालों के सदैव विरोधी रहे। उन्होंने आधा गाँव में यह साफ़ कर दिया कि धर्म किसी राष्ट्र की स्थापना का आधार नहीं हो सकता। धर्म और राजनीति का रिश्ता तेल और पानी जैसा है। यदि भारत में <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">धर्म को राजनीति से जोड़कर सत्ता प्राप्त करने की चेष्टा की गई तो इसके भयानक परिणाम होंगे। राही ने धर्म और जाति की राजनीति करने वालों की कड़ी आलोचना की है। वह हर तरह की संकीर्णता और कट्टरता के सख्त विरोधी रहे, जीवन भर एक सही भारतीयता हिन्दुस्तानियत की खोज करते रहे। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">आधा गाँव की कथा गंगौली गाँव के शिया मुसलमानों के परिवारों की है जहाँ अन्य जाति और धर्म के लोग भी रहते हैं। राही ने इसे आंधे गांव की कहानी कहा है पर यदि इसकी गहराई में जाकर देखें तो यह आधे की नहीं, सारे गांव की कहानी है बल्कि यदि पूरे भारत की कहानी कहा जाय तो अनुचित न होगा। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही ने अपने लगभग सभी उपन्यासों में आने वाले नये समाज की प्रवृत्तियों को पहचाना और अपने लेखन का विषय बनाया तथा उन तमाम समस्याओं का भी चित्रण किया हैं। लेखक आधा गाँव में सपरिवार स्वयं मौजूद रहता है और कहानी का आरंभ भी उसने अपने बचपन से ही किया है। बाल्यावस्था में न समझ आने वाली बातें जिन्हें आज वह खूब समझाता है उनका चित्रण करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आधा गाँव में मध्यवर्गीय जीवन और उस समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों एवं समस्याओं को उकेरा गया है। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">आधा गाँव एक आँचलिक उपन्यास है पर इसमें कोई एक कथा नहीं है। राही विभिन्न पात्रों के साथ उनकी अलग-अलग कथा लेकर चलते हैं किन्तु विभिन्न पात्रों तथा इन पात्रों की कहानियों में विभिन्नता होते हुए भी ये एक सुर में बँधे हुए हैं तथा कथानक में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। जिस समय में इस उपन्यास की रचना हुई और जिस समय की यह कथा है, उस समय शिक्षा की दृष्टि से देश पिछड़ा हुआ था। नवयुवकों को रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़ना पड़ता था। राही ने आधा गाँव के माध्यम से अनेक प्रश्न पाठक के सम्मुख रखे हैं, ऐसा करने के लिए उन्होंने काल्पनिक पात्रों एवं कथाओं का आश्रय लिया है। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">पाकिस्तान के निर्माण के प्रश्न को गंगौली गाँव के हर व्यक्ति की मानसिकता से जोड़ कर सोचने और उस पर विचार करने पर राही ने विवश किया है। गाँव में किसी को भी पाकिस्तान से सहानुभूति नहीं है। गंगौली के मुसलमानों के स्वतन्त्रता से पूर्व खुशहाल जीवन और स्वतन्त्रता के पश्चात् की दयनीय स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, राही ने। उन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को नहीं स्वीकारा, भारत-पाक के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया, पर इसका जो सामाजिक प्रभाव पड़ा उसका अत्यन्त सजीव चित्र प्रस्तुत किया। ÷मुस्लिम लीग' की राजनीति पर जितना सशक्त प्रहार राही ने किया उतना अन्य किसी लेखक की रचना में दिखाई नहीं देता। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">भारत और पाकिस्तान का बटवारा राजनीतिक ही नहीं सामाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी भी है। गंगौली जैसे गाँव के मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देने के बाद भी पाकिस्तान नहीं गये। मिगदाद तो पाकिस्तान जाने से साफ़ इन्कार कर देती है-हम ना जाए वाले हैं कहीं ! जायें ऊ लोग जिन्हें हल-बैल से शरम आती है। हम त किसान है, तन्नू भाई। जहाँ हमरा खेत, हमरी जमीन -वहाँ हम...... 1 तन्नू पाकिस्तान का विरोध करते हुए कहता है - नफ़रत और खैफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज+ मुबारक नहीं हो सकती ...२<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">आधा गाँव में समाज के दो रूपों के यथार्थ को राही ने बड़ी बेबाकी से दर्शाया है -एक भारत विभाजन से पूर्व का समाज और फ़िर विभाजन के बाद का। पाकिस्तान बनने की मांग से पूर्व गंगौली गाँव के हिन्दू तथा मुसलमान आपस में सौहार्द पूर्वक रहते थे, भले ही वे दूसरे के यहां खाने-पीने से परहेज करते थे पर मन में कोई नफ़रत या मन मुटाव न था। मुसलमान दशहरा के लिए चन्दा देने में पीछे न रहते। जहीर मियाँ ने मठ के बाबा को पाँच बीघे जमीन माफ़ कर दी, फुन्नन मियाँ ने भी मन्दिर बनवाने के लिए ज+मीन दी थी। ऐसे मुसलमान परेशान थे, सोचने में असमर्थ कि अचानक मुसलमानों के लिए अलग देश की आवश्यकता क्यों पड़ गई। उनके सम्मुख एक बहुत बड़ा प्रश्न देश के बटवारे को लेकर उठ खड़ा हुआ। राही धर्म के नाम पर देश को या देशवासियों को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में मैंने दंगों पर रोना बन्द कर दिये है क्योंकि मुझे लाशों को धर्मों के आधार पर बाँटने की कला नहीं आती। मैं केवल यह देखता हूँ कि नागरिक मरा पड़ा है। एक बाप, एक भाई, एक पति, एक माँ, एक बहन, एक बेटी, एक परिवार भरा पड़ा है। घर, हिन्दू या मुसलमान या सिख, हरिजन, या ब्राह्मण नहीं होते। घर तो घर होते हैं।''३<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">उनकी यहीं भावना आधा गाँव में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। राही साम्प्रदायिकता के विरु( एक आदर्शवादी उपन्यासकार की भाँति अपनी भूमिका निभाना नहीं भूले। उन्हें विश्वास है कि भारत में हिन्दूओं का राज हो जाने पर मुसलमानों पर कोई आपत्ति नहीं आयेगी। यही बात वह आधा गाँव' के पात्र फुन्नन मियाँ के मुख से कहलाते हैं- हां-हां, त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दु कहि रहियों जैसे हिन्दु सब भुकाऊ है कि काटलीयन। अरे ठाकुर कुंवरपाल सिंह त हिन्दू रहे। झगुरियों हिन्दु है। ऐ भाई, ओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे, काहे को कि ऊ शिया लोग और तबर्रा पढ़त हएं, त परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उट्ठी और ऊं ताबूत उट्ठा। तेरे जिन्ना साहब हमरो ताबूत उठाये न आये।'यह बात राही ने एक साधारण व्यक्ति के मुख से कहलाकर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिक दंगे-फ़साद तो पढ़े-लिखे, शिक्षित राजनेताओं का काम है साधारण जन को इसमें कोई रुचि नहीं। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">जिस प्रकार मेरी गंज आंचल के उपेक्षित जीवन को उसकी समस्त कुरूपता को मानवीय स्तर पर फणीश्र्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में चित्रित किया है उसी प्रकार राही मासूम रजा ने पहली बार अपने ही गाँव गंगैली के शिया मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का बड़ा ही मार्मिक चित्र आधा गाँव' में प्रस्तुत किया हैं जितना यथार्थ चित्र राही ने मुसलमानों का किया है उतना इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में कहीं देखने को नहीं मिलता। <br />
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</div><div align="justify">आधा गाँव में स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद के गंगौली गाँव का चित्रण है जो उस समय का जीता जागता प्रमाण है - जहाँ स्वार्थी अैर पद्लोलुप नेताओं का अत्यन्त घिनौना रूप दिखाया गया है। उस समय सम्पूर्ण भारत ऐसी ही विसंगतियों का शिकार था। राही ने बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास किया है। जातिवाद का आधार लेकर जो राजनीति की जाती है उससे समाज का हित कभी नहीं हो सकता। वह एक प्रगतिशील यथार्थवादी साहित्यकार थे, इसीलिए उनके उपन्यास आधा गाँव में सामाजिक यथार्थ का रंग चटख है। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">आधा गाँव में जो कुछ भी घटित होता दिखाया गया है वे घटनाएं केवल गंगौली गाँव की नहीं थी बल्कि पूरे भारत में ऐसी ही स्थिति थी। राही का आधा गाँव उपन्यास बहु आयामी उपन्यास है। कोई भी विषय ऐसा नहीं जो इनकी दृष्टि से अछूता रह गया हो। पाकिस्तान का निर्माण देश का विभाजन इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु नहीं है फिर भी वह केन्द्रीय वस्तु से इतनी जुड़ी हुई है कि उससे अलगाने में कठिनाई होती है। इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु है समय की गति। समय ही आधा गाँव का नायक है। राही के अनुसार - यह कहानी न कुछ लोगों की है, न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के भले बुरे पात्र अपने को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे है। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय की ही। यह गंगौली में गुजरने वाले समय की कहानी है। कई बूढ़े मर गये, कई जवान कई बच्चे जवान हो गये .... यह कहानी है उन खण्डहरों की जहाँ कभी मकान थे और यह कहानी उन मकानों की जो खण्डहरो पर बनाये गये हैं।४<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">यह उपन्यास जहाँ एक ओर अभिजात्य मुस्लिम समाज का चित्र प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर आजादी के बाद भारत में तेजी से होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित करता है। राही मासूम रजा एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बड़ी निर्भीकता से राजनीति पर कड़ा प्रहार किया है। इन्होंने बिना किसी झिझक और भय के यथार्थ को अपने साहित्य में दर्शाया है। उनकी इसी निर्भीकता, निडरता और सच्चाई को देखकर धर्मवीर भारती यह कहने पर विवश हुए- अगर मैं ईश्वर पर विश्वास करता होता तो ऐसे क्षण में यही प्रार्थना करता कि प्रभु इस दुस्साहसी की सेवा करना। क्योंकि इसकी सच्ची आवाज में तुम ही बसते हो। मगर किससे प्रार्थना करूँ, अगर ईश्र्वर है तो ये समाज में व्याप्त मिथ्या के खतरनाक व्यूह भी तो उसी की वजह से होगें।५<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">राही ने अपने सभी उपन्यासों - आधा गाँव, टोपी शुक्ला', ओस की बूँद', हिम्मत जौनपुरी', असन्तोष के दिन, कटरा बी आरजू एवं दिल एक सादा कागज में समाज में व्याप्त समस्त जटिल समस्याओं का चित्रण किया है। जिनमें सबसे बड़ी समस्या है व्यक्ति और समाज की असमानता। वे मानते हैं कि सारी समस्याओं के पीछे व्यक्ति का अपना स्वार्थ होता है। उनके अनुसार जब तक मनुष्य के भीतर ये स्वार्थ रहेंगे तब तक इन समस्याओं से पीछा नहीं छूट सकता। ÷आधा गाँव' में व्यक्ति की इसी समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है राही ने। <br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में भी कई प्रकार के सामाजिक भेद हैं। हड्डी की शुद्धता, रक्त की शुद्धता पर भी बहुत जोर दिया जाता है। आर्थिक रूप से चाहे व्यक्ति कितना भी सम्पन्न हो पर यदि उसकी हड्डी में दाग़ है तो उसे समाज में वह स्थान कभी नहीं मिल सकता जो शुद्ध हड्डी वाले निर्धन व्यक्ति को मिलता है। अशरफुल्ला खाँ को अपने पठान होने पर गर्व है -हम ठहरे पठान लोग। हमारे यहाँ तो दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई और पैमाना ही नहीं होता। दोगली हरकतें करना शेखों और नीच जात वालों का काम है।''६ सैफुनिया से विवाह करने के पश्चात् मिगदाद अपने पिता की खरी हड्डी का चैलेंज करते हुए कहता है बाकी हम्में त इहो मालूम है कि हमहूं सैय्यद ना है। बाकी जना रहा कि अब्बा ई बतिया बिल्कुल ही भूल गये हैं। ऊ त इकद्म्मे से सैय्यद हो गये हैं। और अब त जब से लड़के अब्बा की शेरवानी पा गये हैं तब से अउरो मारे इतराए लगे हैं।७ युवा पीढ़ी में अपने बड़ों के प्रति आदर की भावना कम होती दिखाई दे रही है। गंगौली गाँव में आये दिन पिता-पुत्र, सास-बहू के झगड़े होते रहते हैं। हर परिवार की यही कहानी है। <br />
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</div><div align="justify">गंगौली में शिया मुसलमानों के अतिरिक्त राकी मुसलमानों और जुलाहों के घर भी हैं पर उनके साथ शिया लोगों का मेलजोल नहीं है। इस उपन्यास में ऐसे भी चित्र है जिनमें शिया पुरुष हिन्दुओं-भंगी या चमार जाति की स्थितियों से सम्बन्ध रखते है, परन्तु शुद्धता का ऐसा आड्म्बर है कि हिन्दू मरीज की नब्ज देखने के बाद हकीम साहब स्नान करते दिखते हैं। राही ने अपने आधा गाँव में सामाजिक जीवन के जिस पक्ष को अधिक उभारा है वह यही, पुरुषों का नीच जाति की स्थितियों के साथ अनैतिक यौन सम्बन्ध है। मोहर्रम के चाँद के दिखते ही शिया लोगों की शोक सभाएं शुरू हो जाती हैं। इसी प्रकार की एक सभा में सितारा और अब्बास एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं। अब्बास अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय का छात्र है अल्हड़ सितारा के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर उसे भूल जाता है। प्रेम का परिणाम केवल सितारा को ही भुगतना पड़ता है। नारी की स्थिति का अत्यंत सजीव चित्र राही ने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। स्त्री-पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों को भी आधा गाँव में खुलकर दिखाया गया है। सभी पात्र शरीर के भूखे हैं। उन्हें बस शरीर मिलना चाहिए चाहे वह शरीर रिश्ते की बहन का हो, नौकरानी का हो या फिर किसी भी नीच जात का। राही ने परिवारों की, समाज की इन्हीं छोटी-छोटी समस्याओं को एक बड़ी समस्या बनाकर प्रस्तुत किया है। इन्होंने साम्प्रदायिक विभीषिका का चित्रण जितने साहस पूर्ण ढंग से किया है, शायद ही कोई अन्य इतने साहस का प्रदर्शन कर सकें। <br />
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</div><div align="justify">इसमें सन्देह नहीं कि साठोत्तरी उपन्यासकारों में राही एक निराला व्यक्तित्व रखते है, जिनमें विद्रोह कूट-कूट कर भरा है। उनके उपन्यासों में नए पुराने द्वन्द्व की नई भंगिमाएं दृष्टिगोचर होती है। आजादी के बाद एक नया नेतृत्व वर्ग विकसित हुआ। इस नये वर्ग के उदय के पीछे कोई परम्परा नहीं, शिक्षा नहीं, सम्पन्नता नहीं। यदि कुछ है तो वह है वोटों का जोड़-तोड़। वोटों का यह जोड़-तोड़ समाज के एक साधारण व्यक्ति को समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्य बना देता है। वह व्यक्ति खुद ही सरकार होता है और सरकार और जनता के बीच सेठ भी। आधा गाँव में एक स्वर जो लगातार सुनाई देता हैं, वह है मुसलमानों का देश प्रेम। वे भी इसी देश का, राष्ट्र का एक हिसा हैं। वे भी अपने घर, अपने गाँव और देश की मिट्टी से उतना ही प्रेम करते हैं जितना अन्य जाति के लोग या देशभक्त को हो सकता है। राही ने भारतीय मुसलमानों की व्यथा और कथा को बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।<br />
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</div><div align="justify">राही मासूम रजा ने अपने उपन्यास आधा गाँव में व्यक्त समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया है। वह चाहते थे कि पाठक स्वयं उचित और अनुचित का निर्णय करे। उन्होंने तो केवल अपने उपन्यास द्वारा मानव मन की कोमल एवं पवित्र भावनाओं को उजागर करके सत्य एवं सद्वृत्तियों को जाग्रत करने का प्रयास किया है। वे एक साहित्यकार थे जिन्होंने कथा साहित्य के क्षेत्र में एक नये क्षितिज की खोज की और हमें एक ऐसे संसार में परिचित कराया जिसे हम गहराई से नहीं जानते थे। उनके तेवरों को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता। <br />
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</div><div align="justify">सन्दर्भ-सूची <br />
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</div><div align="justify">१. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० २२६<br />
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</div><div align="justify">२. वही, पृ० २६३<br />
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</div><div align="justify">३. राही मासूम रजा, लगता है बेकार गये हम, पृ० २२६<br />
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</div><div align="justify">४. आधा गाँव, पृ० ११-१२<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">५. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, भूमिका से, पृ० ९<br />
</div><div align="justify"><br />
</div><div align="justify">६. आधा गांव, पृ० १०३<br />
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</div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-67430058324138186502009-04-14T15:28:00.000+05:302009-04-14T15:47:19.882+05:30हिन्दी के मुस्लिम कथाकार<span style="font-size:130%;">पुस्तक उपलब्ध<br /><br />मूल्य 200 (25प्रतिशत छूट के साथ)<br />भूमिका<br />डॉ० मेराज अहमद:सम्पूर्ण समाज की अभिव्यक्ति मुस्लिम कथाकार और उनकी हिन्दी कहानियाँ कहानियाँ<br />हसन जमाल : चलते हैं तो कोर्ट चलिए<br />मुशर्रफ आलम जौक़ी : सब साजिन्दे</span><br /><span style="font-size:130%;">एखलाक अहमद जई : इब्लीस की प्रार्थना सभा<br />हबीब कैफी : खाये-पीये लोग<br />तारिक असलम तस्नीम : बूढ़ा बरगद<br />अब्दुल बिस्मिल्लाह : जीना तो पड़ेगा<br />असगर वजाहत : सारी तालीमात<br />मेहरून्निसा परवेज : पासंग<br />नासिरा शर्मा : कुंइयांजान<br />मेराज अहमद : वाजिद साँई<br />अनवर सुहैल : दहशतगर्द<br />आशिक बालौत : मौत-दर-मौत<br />शकील : सुकून<br />मौ० आरिफ : एक दोयम दर्जे का पत्र<br />एम.हनीफ मदार : बंद कमरे की रोशनी </span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-63478085273644088662009-04-08T03:57:00.001+05:302009-04-08T03:57:00.591+05:30खुश्की का टुकड़ा<div align="justify"><span style="font-size:130%;">- राही मासूम रजा<br /><br /><br /> आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।<br /> वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।<br /> अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।<br /> दस-ग्यारह बरस या दस-ग्यारह हजार वर्ष पहले उसने एक शेर लिखा थाः<br />छूटकर तुझसे अपने पास रहे,<br />कुछ दिनों हम बहुत उदास रहे।<br /> यह उदासी आधुनिक है हमारे पुरखों की उदासी से बिल्कुल अलग है इसने हमारे साथ जन्म लिया है और शायद यह हमारे ही साथ मर भी जायेगी। क्योंकि हर पीढ़ी के साथ उसकी अपनी उदासी जन्म लेती है।<br /> हमारे युग की उदासी को उदासी कहना, ठीक नहीं है, वास्तव में यह बोरियत है, यह बोर होने वालों की पीढ़ी है, किसी चीज का मजाक उड़ाना भी नहीं चाहता पहले के लोग कैसा मजे में जिया करते थे। पतंग उड़ाते थे- चीजें उड़ाते थे। बाते उड़ाते थे। मजाक उड़ाते थे। आज का आदमी अपने चेहरे के रंग के सिवा उड़ाता ही नहीं ...<br /> और उसके बारे में एक बात मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि वह यदि आदमी था तो आज ही का आदमी था। और आज के आदमी को वह डंलपिलो जैसी गदीली तनहाई नसीब नहीं होती कि वह आराम से लेट कर अपनी यादों को छाँटें। सड़ी-गली यादों को अलग कर फटी-पुरानी यादों की मरम्मत करे और अच्छी यादों को धूप दिखला दे।<br /> वह बहुत दिनों से फ़ुरसत के ऐसे मौक़े की तलाश में था परन्तु आज तो मरने की फ़ुरसत नहीं मिलती, जीने की तो बात अलग रही। पहले लोग आराम से बरसों बीमार पडे+ रहा करते थे। सेवा करवा-करवा के सेवा करने का अरमान निकलवाते थे। दूर पास के सारे रिश्तेदारों को इसका मौका देते थे कि वह उनकी पाटी के पास बैठ कर उसकी तारीफ़ करें ... और जब लगभग लोगों को यक़ीन हो जाये कि यह मरने वाले नहीं, तब कहीं जाकर लोग मरा करते है पर अब वक्+त की कमी के कारण हार्ट फेल होने लगे है आधुनिक जिंदगी की भागदौड़ में मरने का चार्म भी बिल्कुल ख़त्म हो गया हैं।<br /> वह हार्ट फ़ेल होने के खिलाफ़ नहीं था। परन्तु हार्ट फेल होने में एक बड़ी खाराबी है। हार्ट फेल होने पर कोई शेर नहीं कहा जा सकता है। इतना समय ही नहीं मिलता कि कोई यह कहे।<br />उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़ ,<br />वह समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है।<br /> इसीलिए वह चाहता था कि अपनी यादों को क्लासिफाई कर ले। जो वह कवि होता, तो बहुत परेशानी की बात न होती पर शायरी से उसका पुराना बैर था। वह कहा करता था कि शायरी बड़ी असाइंटिफिक चीज होती है। शायरी में मुर्दे बोलते हैं ... कागा सब तन खाइया ... से लेकर कुरेदते हो जो अब आग जुस्तुजू क्या है .... तक मुर्दे टायें-टायें बोल रहे हैं। दिल जो ख़ून पंप करने की एक मशीन है, उसे शायरों ने इतना सर चढ़ाया है कि क्या कहा जाये। प्रेमिका को चंद्रमुखी कहने वाले यह भी नहीं जानते कि चांद पर कैसी-कैसी खाइयां है!<br /> परन्तु जब वह अकेला हुआ तब उसे पता चला कि तनहाई खुद बहुत साइंटिफिक़ नहीं होती। भरीपुरी दुनिया में कोई अकेला कैसे हो सकता है। परन्तु वह अकेला था और वह इस हक़ीक़त को झूठला नहीं सकता था और इसीलिए लगातार अपनी यादों की राख कुरेद रहा था।<br /> कई रातों तक लगातार यादों के जंगल में भटकने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा था कि आदमी अपनी यादों के बारे में डींगता ज्+यादा है, मेरे पास इतनी यादें हैं और ऐसी ऐसी यादें है। सब झूठ है। बस-दस-बीस यादें होती हैं। जिंदगी का बजट बहुत चौकस होता है। सारी जिंदगी जीने के बाद बचत के ख़ाने में दस-बीस बुरी भली यादों के सिवा कुछ नहीं होता।<br /> पता नहीं लोग जीवनियां कैसे लिखते हैं। उसे तनहाई की चंद रातें गुजार लेने के बाद यकीन हो गया था कि जीवनियां झूठी होती है। लेखक अपने जीवन की कहानी नहीं लिखता। एक कहानी लिखता है। अपने वर्तमान के लिए अतीत का पुश्ता बांधता है। वह अपनी तसवीर को बहुत री-टच करता है। इससे भी काम नहीं चलता तो शायद अपनी गर्दन पर एक नया चेहरा जड़ देता है।<br /> परन्तु वह तो बिलकुल अकेला था। आदमी चाहे दुनिया से झूठ बोल ले पर वह अपनी तनहाई से झूठ नहीं बोल सकता। वह अपने आपसे यह कैसे कहता कि जिन लैलाओं ने उसे धोखा दिया है वह वास्तव में बड़ी वफ़ादार थीं। वह तो अपने आपसे यह भी नहीं कह सकता था कि खुद वह बड़ा वफ़ादार है। उसे कभी अपने आप पर तरस नहीं आया।<br /> उदास होना दूसरी बात है। उदासी तो इस युग के मनुष्य की तक़दीर है। उदासी और झल्लाहट। यही दो शब्द है जो बहरुपियों की तरह रूप बदल-बदल कर आते रहते है। यदि पहचान लिये जायें तो फिर बहरूप ही क्या हुआ!<br /> उसे वह फैंसी ड्रैस शो याद था जिसमें वह अपने वेष में चला गया था। किसी ने नहीं पहचाना। बाद में उसे बताया गया कि एक आदमी ने ग़जब का बहरूप भरा था।<br /> उसी दिन से जब कभी वह यह चाहता कि कोई उसे न पहचाने तो वह अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाये बिना निकल जाता... और फिर उसे आदत-सी पड़ गयीं। उसने अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाना बिलकुल छोड़ दिया। नतीजा यह निकला कि अब उसे कोई पहचानता ही नहीं। एक दिन उसने वह नक़ली मुसकराहट बाक्स से निकाल कर देखी जिसे वह होंठों पर चिपका कर निकला करता था तो यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो एक बड़ी बेहूदा चीज थी। बेजान। बेमतलब। बेमजा। वह यह सोच कर हँस दिया कि इस मेक-अप में वह कैसा हवन्नाक दिखाई देता रहा होगा। उसने उस मुसकराहट को फिर बक्स में डाल दिया और यह सोचने लगा कि उसकी पत्नी ने इस चीज को संभाल क्यों रखा है! उसे तो सफा+ई का बड़ा शौक़ हैं।<br /> उसकी पत्नी मसर्रत बड़ी सुघड़ और प्यारी लड़की थी। इश्क़ करते-करते थक-हार कर उसने मसर्रत से ब्याह कर लिया था। मसर्रत से उसे न ब्याह के पहले इश्क़ था और न ब्याह के बाद इश्क़ हुआ। और शायद इसीलिए वह उसे सही पर्सपेक्टिव में देख सकता था। इसीलिए वह बरसों इस फ़िक्र+ में रहा कि इस चांद का दाग़ कहां है। गहरी छानबीन के बाद उसे पता चला कि मसर्रत को पुरानी चीजें जमा करने का शौक़ है। उसका बस चले तो नयी साड़ियां बेच कर कबाड़ियें की दुकान से पुरानी साड़ियाँ ख़रीद लाये यह पता उसे खासा-पुराना पति हो जाने के बाद चला। फिर भी पलभर के लिये वह कांप गया कि किसी दिन बोर हो कर वह उसे औने-पौने निकाल कर किसी कबाड़ख़ाने से कोई ऐंटीक पति न ख़रीद लाये।<br /> उसने जब यह बात मसर्रत को बतायी तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी। उसने चोरों की तरह इधर-उधर देखा। बड़ा बेटा ख़ादिम हुसैन सामने ही रेडियोग्राम के पास क़ालीन पर लेटा गुन-गुना रहा था-:<br /> रिमझिम बरसता सावन होगा,<br /> झिलमिल सितारों का आंगन होगा।<br /> छोटी बेटी ख़ातून जो अपनी छोटी गुड़िया के फ्लू से सख्त परेशान थी, बड़ी गुड़िया को डांट रही थी कि वह छोटी को लेकर इस ठंड में घर से निकली ही क्यों ...<br /> ख़ादिम के गाने से बोर होकर वह बोली-भाई मियां, जब सावन रिमझिम बरस रहा है तो यह सितारे कहां से आ गये ?<br /> खादिम सटपटा गया। पर वह छोटी बहन से हार भी नहीं मान सकता था। बड़े गंभीर लहजे में बोला-यह फिल्मी आंगन है।<br /> बेटा-बेटी दोनों मशगूल थे। मसर्रत ने जल्दी से उसकी उस नाक का प्यार ले लिया। जिसका वह बहुत मजाक उड़ाया करती थी और बोली-ईडियट, तुम्हें यही ख़बर नहीं कि हर सुबह को मैं तुम्हें कबाड़ के कमरे में फेंककर दिल में हाथ डालकर एक नया यानी तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ!<br /> उसे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मसर्रत की बात पर हंसना चाहिए या नहीं, पर वह हंस पड़ा।<br /> ख़ातून का हाथ हंसी की आवाज+ से हिल गया। गुड़िया की दवा ख़ादिम के उजले कुरते पर गिर गयी। ख़ादिम ने उसे एक चांटा मार दिया। उसने ख़ादिम को किचकिचा कर दांत काट लिया। खून छलक आया...<br /> मसर्रत बीच-बचाव करने लपकी। पर भाई-बहन लड़ने के मूड़ में थे दोनों उछल-कूद रहे थे। इस पर मसर्रत को हंसी आ गयी ...<br /> इस मसर्रत के साथ जिंदगी कभी पुरानी नहीं हो सकती। जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी। बस उस नक़ली मुसकान का ख्याल उसे परेशान किया करता था। एक दिन चुपके से वह उसे एक कबाड़िये के हाथ बेच आया। बात आयी-गयी हो गयी। वह उस मुसकराहट को भूल भी गया। उसके दिल से यह डर जा चुका था कि उसके मरने के बाद यदि उस पर रिसर्च करने वाले को यह मुसकराहट मिल जायेगी तो क्या होगा। यह डर मिट जाने के कारण वह ज्यादा खुल कर हंसने लगा था। दो-एक दिन के बाद मसर्रत ने कहा-बिल्डिंग के लोगों को यह ख्बर करने की क्या जरूरत है कि तुम हंस रहे हो।<br /> वह बोला-अरे तो क्या बिल्डिंग वालों के डर से मैं हंसना बंद कर दूं!<br /> बात बढ़ गयी सोलह बरस के बाद पहली बार बात बढ़ी थी ...<br /> तीन-चार दिन तक दोनों में बातचीत बंद रही। ख़ादिम और ख़ातून ने भी भांप लिया था कि दाल में कुछ काला जरूर है। मसर्रत इस बीच में कई बार उन दोनों से इतनी दबी आवाज में, कि दूसरे कमरे में बैठा हुआ वह यह सुन सके, पूछ चुकी थी कि यदि वह दरभंगा चली जाय तो वह क्या करेंगे ... दरभंगा के नाम सुनकर वह कांप जाया करता था। बात यह थी कि अपनी मां से वह बहुत डरा करता था। वह सौतेली माँ रही होती तो वह सोच कर दिल को समझा लेता कि सौतेली मां से और क्या उम्मीद हो सकती है। परन्तु वह तो उसकी सगी मां थी और वह इकलौते बेटे से ज्यादा इकलौती बहू को चाहती थी।<br /> कई दिन इस उधेड़बुन में गुज+र गये। एक दिन वह घर में सहमा-सहमा आया तो उसने देखा कि मर्सरत की आंखों में एक अजीब-सी चमक है। उसकी तरफ़ मसर्रत ने कनखियों से देखा। खादिम निहायत नया, चुनी हुई आसतीनों वाला कुरता पहने दरवाजे में खड़ा मुसकरा रहा था। ख़ातून गरारा पहने एक हाथ से पायचे और दूसरे से दुपट्टा संभालने में लगी हुई थी।<br /> वह चकरा गया। चकराने का आसान इलाज यह था कि वह सीधा अपने कमरे में चला जाये वह अपने कमरे में चला गया।<br /> पीछे-पीछे मसर्रत भी आयी। उसने कमरे के दरवाजे को अंदर से बंद किया। उसका दिल उछलकर हलक में आ गया। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मसर्रत चाहती क्या है।<br /> -सुनते हो ? मसर्रत ने कहा। क्या बेहूदा सवाल है, इन हिन्दुस्तानी बीवियों को आखिर कब बात करना आयेगा ?<br /> -क्या सुनूं ? उसने बड़ी भलमनसाहट से पूछा।<br /> -नहीं सुनते तो मत सुनो, मसर्रत चमक गयी। मेरी जूती को क्या गरज पड़ी है। मैं ही पागल हूं कि दो दिन से मारी-मारी फिर रही थी।<br /> -क्यों<br /> -तुम्हारी सालगिरह के लिए और क्यों।<br /> -मगर मेरी सालगिरह के लिए मारे-मारे फिरने की क्या जरूरत है। सालगिरह तो राशंड है, साल में एक ही बार मिलती है। चोर बाजार से एक आध सालगिरहें ख़रीद लायीं क्या !<br /> उसका ख्याल था कि यह सुन कर मसर्रत जमीन-आसमान एक कर देगी। पर वह तो हंसने लगी। हंसते-हंसते बेहाल हो गयी।<br /> हाल में आयी तो बोली- भई मुझे ख्फ़ा रहना नहीं आता।<br /> -तो मान जाओ। <br /> -मान गयी। मगर तुम तो बड़े वह।<br /> -वह क्या!<br /> -मेरा सिर। आज तुम्हारी सालगिरह है।<br /> - सार्टिफिके+ट वाली कि असली वाली।<br /> -मैं तुम्हारे लिए बड़े ग़जब की चीज लायी हूँ।<br /> -तुम हमेशा ग़जब की चीज लाती हो।<br /> -देखोगे तो फड़क जाओगे।<br /> -अच्छा!<br /> -हां।<br /> वह मुसकरा दिया।<br /> -तुम्हारी मुसकराहट बड़ी फटीचर है।<br /> -आदत पड़ गयी है।<br /> -छोड़ दो। जैसे सिगरेट छोड़ दी।<br /> -ग़लत। मैंने सिगरेट को नहीं छोड़ा है। सिगरेट ने मुझे छोड़ दिया है। तंबाकू पर टैक्स इतना बढ़ गया है कि सिगरेट का ख़र्च और मकान का किराया बराबर हो गया है। पर अभी तक हंसना फ्री हैं। तो मैं अडल्ट्रेटेड या इंफ़ीरियर मुसकराहट क्यों इस्तेमाल करूं ? आगे न कह सका क्योंकि मसर्रत की हथेली पर उसकी वह पुरानी मुसकराहट चमक रही थी जो एक दिन चुपचाप कबाड़िये की दुकान पर बेच आया था।<br /> उसकी आंखें हैरत से फैल गयीं।<br /> -चकरा गये ना, वह लहक कर बोली। मैं खुद इसे देख कर फेंक गयी थी। बिलकुल तुम्हारे होंठ के नाप की है। उस गंवार कबाड़िये ने इस पर वार्निश जरा ज्यादा कर दी है। मगर चलेगी तुम्हारे रंग से भी मैच खाती हैं। मैं उससे कह आयी थी कि कलर होंठ में फिट नहीं होगा तो लौटा दूंगी ...<br /> जहिर है कि अपनी वर्षगांठ के दिन वह उस मुसकराहट को स्वीकार नहीं कर सकता था।<br /> वह मुसकराहट अब भी ड्रेसिंग टेबिल पर पड़ी हुई थी। उसी के पास मसर्रत की एक तस्वीर थी। वह ख़ातून को गोद में लिये हंस रही थी। वह ड्रेसिंग टेबिल की तरफ़ बढ़ा देर तक वह वार्निश की हुई उस मुसकराहट की तरफ़ देखता रहा। मसर्रत के बग़ैर अकेला रहना नामुमकिन था। उसने वह मुसकराहट अपने होंठो पर चिपका ली। सोचा कि फ़ौरन मसर्रत को एक ख़त लिखना चाहिए क़ाग़ज मिल गया। कलम नहीं मिल रही थी। कलम के केस में ख़ातून की गुड़िया का जहेज+ रखा था ... वह ढूंढते वह थक गया। आख़िर उसने मसर्रत के डे्रसिंग टेबिल की दराजें खखोड़ी। आखिरी दराज में उसे एक अजीब चीज मिली- मसर्रत जल्दी में अपने कहकहों का पूरा सेट भूल गयी थी। वह खिलखिला कर हंस पड़ा।<br /> थोड़ी देर के बाद पड़ौस के लोग जाग गये। उन्होंने दरवाजा पीटना शुरू किया। परन्तु वह हंसता रहा। वह चाहता था कि अपनी हंसी रोक ले। पर जैसे टेढ़ी सुराही से पानी गिरना बंद नहीं होता उसी तरह उसके मुंह से क़हक़हा बह रहा था।<br /> मसर्रत के क़हक़हों का सेट उसके हाथ में था। हंसते-हंसते वह खिड़की तक आ गया। बहुत नीचे सड़क रोशनी की एक लकीर की तरह पड़ी हुई थी। मसर्रत के क़हक़हों का सेट हाथों से फिसल कर खिड़की के बाहर जा पड़ा। उन्हें बचाने के लिये उसने हाथ बढ़ाया। वह हाथ नहीं आये, वह उन्हें बचाने के लिए झुकता ही चला गया।<br /> सड़क एक दम से उछली और उससे टकरा कर टूट गयी।<br /><br /><br /><br /> </span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-57923699003542063972009-04-07T03:54:00.000+05:302009-04-07T03:54:00.932+05:30सिकहर पर दही निकाह भया सही<div align="justify"><span style="font-size:130%;">- राही मासूम रजा<br /><br /><br /> मीर जामिन अली बड़े ठाठ के जमींदार थे। जमींदारी बहुत बड़ी नहीं थी। परन्तु रोब बहुत था। क्योंकि दख्ल और बेदख्ली का जादू चलाने में उन का जवाब नहीं था।<br /> मीर साहब ने उस्ताद लायक अली से गाने के सबक लिये थे और ईमान की बात यह है कि खूब गाते थे। संगीत उनके गले में उतरा हुआ था। बड़ी-बड़ी मशहूर गानेवालियां महफिल में उन्हें देख लेतीं तो कान छूकर । गाना शुरू करतीं। बड़ी बांदी जैसी गानेवाली का शिकार ही उन्होंने रसीली आवाज से किया था, वरना कहां खलिसपुर के ठाकुर साहब कहां मीर जामिन अली। बड़ी बांदी उनकी आवाज पर मर मिटी थी । परन्तु जब वह असमियों को गाली देते तो उनकी आवाज का रूप बदल जाता। जेठ की गर्म हवा की तरह उनकी दी हुई गालियां जिसके पास से गुजर जाती, उसको झुलस देती। और चूंकि वह कोई छोटा काम करना पसंद नहीं करते थे। इसलिए छोटी गालियां भी नहीं देते थे। गाँववालों को उनकी गालियों से बहुत-सी ऐसी बातें मालूम हुई थी, जो औरों को शरीर-विज्ञान के बड़े-बड़े पोथे पढ़कर भी मालूम नहीं हो सकती। अफसोस कि उनके जीवन में किसी को यह ख्+ायाल न आया और उनकी गालियां उन्हीं के साथ मर गयी।<br /> ये मीर जामिन अली बड़े रख रखाव के आदमी थे। जिंदगी भर नमाज+ पढ़ते रहे गालियां बकते रहे और गुनगुनाते रहे और चूंकि वे खुद परम्पराओं का ख़याल रखते थे इसलिए उनका ख्याल था कि जीवन भी परम्पराओं का ख़याल रखेगा। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वे परिवर्तन के विरोधी थे इसीलिए उनका कहना यह था कि कांग्रेस वाले भपकी दे रहे हैं। जमींदारी भला कैसे ख़त्म हो सकती है! चुनांचे वे गालियां बकते रहे, मुश्कें कसवाते रहे, बेगार लेते और अल्लाह का शुक्र अदा करते रहे... परंन्तु एक रात को मिट्टी के तेल की तरह जमींदारी ख़त्म हो गयी। लालटेन भबक के बुझ गयी और घर में अंधेरा हो गया।<br /> यह घर बहुत बड़ा था। इस घर में छह शताब्दियां रहती थीं। छह शताब्दियों में बकी जानेवाली गालियां रहती थीं। छह शताब्दियों के किसानों की सिसकियां रहती थीं। इसीलिए जब अंधेरा हुआ तो मीर जामिन अली डर गये। वे अंधेरे से नहीं डरे। वे डरे छह शताब्दियों की अनगिनत परछाइयों से, जो एकदम से जी उठी थी, जो मीर साहब अकेले रहे होते तो शायद इन परछाइयों से डर कर मर गये होते। परन्तु वे अकेले नहीं थे, एक बीवी थी। दो बेटियाँ थीं। एक पुश्तैनी नौकरानी थी। एक उस का बेटा था...<br /> परन्तु इस रात में उन्हें कोई शक नहीं था कि अब वे अपने गांव में नहीं रह सकते थे। चुनांचे वे शहर उठ गये। जाहिर है कि शहर में उन्हें उतना बड़ा मकान मिल नहीं सकता था। जितने बड़े मकान में रहने के वे आदी थे। उनका घर इस शहर से पुराना था इसलिए मीर साहब की आत्मा शहर में समा नहीं रही थी।<br /> किराये के जिस घर में वे सब आबाद हुए वह एक छोटा-सा दोमंजिला मकान था। एक छोटा-सा आंगन था। मीर साहब जब गर्मी की पहली रात गुजारने के लिए उस आंगन में लेटे तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे चारों तरफ खड़ी ऊँची हुई दीवारें गर्दन झुका-झुका कर उन्हें देख रही हैं और आपस में इशारे कर के मुस्करा रही है।<br /> मीर साहब घबरा कर उठ बैठे। उन्हें प्यास लग रही थी। वे घड़ौंची की तरफ चले। रास्ते में एक पलंग पर उन्हें बड़ी बेटी रुकय्या की नींद मिली, जो उसकी जवानी का बेचुना दुपट्टा ओढ़े करवटें बदल रही थीं फिर उन्हें दूसरी बेटी रजिया का बचपन मिला। दस-बारह साल की रजिया नींद में बड़बड़ा रही थी कि उसे यह घर बिल्कुल पसंद नहीं...तीसरे पलंग पर उनकी पत्नी आमेना थी, वह जाग रही थी। फिर घड़ौंची थी और घड़ौंची के उधर एक बंसखट पर मत्तो लेटी नींद में बांस का चर्खीदार पंखा झल रहीं थी। और आख़िर में, बिल्कुल दीवार के पास मत्तो का बेटा शौकत सो रहा था।<br /> मीर साहब ने ठंडे झज्जर को छुआ। झज्जर की ठंडक उनके बदन में समा गयी। थोड़ी देर तक वे झज्जर पर हाथ रखे खड़े रहे। फिर चांदी के नक्शीन कटोरे में पानी उड़ेल कर उन्होंने एक ही सांस में कटोरा खाली कर दिया।<br /> वे आमेना के पलंग के पास रुक गये। उन्हें मालूम था कि वह जाग रही है। आमेना सांस रोके पड़ी रही। मीर साहब पट्टी पर बैठ गये। पट्टियाँ बोल उठीं- आमेना घबरा कर उठ बैठी।<br /> ''अरे, क्या करते हो। बगल में जवान बेटी सो रही है, जाग पड़ी तो क्या सोचेगी दिल में।''<br /> लेकिन मीर जामिन अली को इसमें कही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बातों ने परेशान कर रखा था...दुनिया क्या सोचेगी यदि जल्द रुकय्या का ब्याह न हो गया। उन्हें याद था कि उनकी बहनों की शादियाँ नवें बरस हो गयी थीं। इस हिसाब से तो अब तक रजिया की शादी को दो बरस पुरानी बात हो जाना चाहिए था। परन्तु बेटी की उम्र बड़ी बेहया और बेदर्द होनी है। मुंह पर चढ़ी आती है।<br /> मीर साहब शहर आने से पहले वहां गाँव में भी रुकय्या की शादी की फिक्र के चटियल मैदान में रातों की नींद को हापता देख चुके थे। लड़का मिलता। तो खानदान न मिलता खानदान मिलता तो लड़का न मिलता। और फिर तो ऐसा हुआ कि ऐसी तेज हवा चली कि लड़कों को सीमा पार उठा ले गयी। मांग यहाँ रह गयी, सिंदूर लगानेवाली उंगलियाँ उधर चली गयी। जिन घरों में कल तक लड़के रहा करते थे, उनमें कस्टोडियन का प्रेत बस गया था। अब वे किसी धुने जुलाहे से तो अपनी बेटी ब्याह नहीं सकते थे। और कुछ दिनों के बाद रजिया की जवानी भी सब को दिखायी देने लगेगी, इसी डर से उन्होंने रजिया को गांधी मेमोरियल मुस्लिम गर्ल्स हायर सेकेंड्री स्कूल में दाखिला करवा दिया था। अब कम से कम वे कह सकते थे कि बच्ची अभी पढ़ रही हैं। परन्तु रुकय्या के कुंवारेपन के लिये तो उनके पास कोई बहाना भी नहीं था।<br /> ''रुकय्या के लिए म्यां शम्सुल का रिश्ता मान लेने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया है।'' मीर साहब ने आमेना की बात अनसुनी करते हुए कहा। आमेना घबरा कर उठ बैठी।<br /> ''सठिया गये हो क्या?'' उसने तकिये के नीचे से दुपट्टा निकाल कर ओढ़ते ओढ़ते पूछा, ''तुम खुद कहते हो कि शम्सुल मियां तुम से तीन-चार साल बड़े है।''<br /> ''क्वांरी रह जाने से अच्छा है कि लड़की बेवा हो जाये,'' मीर साहब ने कहा।<br /> उस छोटे से आंगन में सन्नाटा हो गया। पट्टी की चरचराहट सुनकर जाग उठनेवाली रुकय्या के दिल में भी सन्नाटा हो गया। आंगन में सन्नाटा इतना गहरा था कि कोई गिरता तो डूब जाता।<br /> पलंग की पट्टी फिर चरचरायी। रुकय्या ने आंखें बंद कर लीं। वह मीर साहब की चाप सुन सकती थी। चाप उसके पलंग के पास आकर रुक गयी रुकय्या का गला सूख गया था। वह थूक घूटना चाहती थी। परन्तु इस डर से थूक नहीं घूंट रही थी कि कहीं बाबा देख न लें।<br /> पल भर के बाद चाप दूर चली गयी।<br /> <br /> दूसरे दिन रजिया ने स्कूल में अपनी सहेलियों को यह बात बतायी कि उसकी आपा की शादी होनेवाली है किसी शम्सुल मियां के साथ।<br /> ''क्या वे कोई बहुत बड़े आदमी है?'' किसी साथी ने पूछा।<br /> ''बहुत बड़े आदमी है जनाब,''रजिया ने गर्दन अकड़ा कर कहा, ''बाबा से भी चार साल बड़े हैं।''<br /> रजिया बहुत खुश थी कि उसकी आपा का ब्याह होनेवाला है। अपनी खुशी में उसने इस बात को कोई महत्त्व नहीं दिया कि रुकय्या को चुप लग गयी है या यह कि जब देखीं तब अम्मां की आँख में कुछ न कुछ पड़ जाता है या यह कि बाबा ने डांटना बिल्कुल बंद कर दिया है। वह तो स्कूल से आती और मत्तो के पास बैठ कर आपा की शादी की बातें करने लगती। वह यह सोच -सोच कर खुश हुआ करती कि दूल्हा भाई को वह कैसे-कैसे छकायेगी।<br /> पास ही चटाई पर बैठा बीड़ी बनाता हुआ शौकत ये बातें सुनता रहता और कहीं-कहीं बोल पड़ता।<br /> <br /> शौकत को खड़े नाक नक्शेवाली यह सांवली-सी रजिया बहुत अच्छी लगती थी। रजिया उसे हमेशा से पसंद थी। वह कोई छह -सात साल का था। और मत्तो नहलाने-धुलाने के बाद उसे ईद का जोड़ा पहना रही थी। तब उसकी बड़ी बहन जीनत फेकू मियां के लड़के के साथ पाकिस्तान नहीं भागी थी। उसने कहा था, ''तैं त अइसा सजा रही सौकतवा के कि जना रहा कि ई अभई जय्यहे और पंचफुल्ला रानी को बिआह लिअय्यहे!'' यह सुन कर उसने अपनी बहन की तरफ बड़ी हिकारत से देखकर कहा था। ''हम पंचफुल्ला रानी ओनी से बिआह ना करे वाले है। हम न भय्या रजिया बहिनी से बिआह करेंगे।'' यह सुन कर कंघी करता हुआ मत्तो का हाथ रुक गया था। उसने एक तमाचा मारा था। आठ साल बाद भी रजिया को देखकर वहां अब भी हल्का-हल्का दर्द होने लगता था। जहां मत्तो का तमाचा पड़ा था।<br /> शौकत ने कनखियों से रजिया की तरफ देखा वह अपनी ओढ़नी का साफा बांधे रुकय्या का दूल्हा बनी बैटी थी। फिर वह खुद ही मौलवी बन कर निकाह पढ़ने लगी। सिकहर पर दही निकाह भया सही...<br /> जाहिर है कि सिकहर पर दही कहने से निकाह नहीं हो जाता। रुकय्या का निकाह तो बाकायदा दो मौलवियों ने अरबी में पढ़वाया।<br /> शम्सू मियां बड़े ठाठ की बरात लाये। चढ़ावा देख कर मुहल्लेवालों की आँख खुल गयी। पांच मन मेवा। इक्कीस मन चीनी इक्यावन जोड़े। एक जोड़ा मुरस्सा। जड़ाऊ नथ।<br /> रजिया का जी चाहा कि वह खुद शम्सू मियां से ब्याह कर ले। छोटा-सा घर उसकी सहेलियों से भरा हुआ था। मिरासनें गालियों गा रही थीः<br /> सुन रे वन्नो तेरी बहिना को आख़िर,<br /> ले भागा थानेदार।<br /> डुग्गी बाजे।<br /> गालियों के भीड़-भड़क्के में रजिया लोगों की आँखें बचा-बचा कर खूब पान खा रही थी।<br /> सड़क पर रायसाहब के हाते में बरात शार्मियाने के नीचे खिलौनों की किसी दुकान की तरह सजी हुई थी। शम्सू मियां भारी सेहरे में मुँह छिपाये जापानी बबुए की तरह मौलाना की बात सुन कर सिर हिलाने लगे। शौकत उस जापानी बबूए की तरफ टकटकी बांधे देख रहा था। उसे दूल्हा मियां बिल्कुल पसंद न आये। वह बड़ी बहिनी को बहुत चाहता था। और जब मौलाना रुकय्या से शम्सू मियां का निकाह पढ़ रहे थे, वह यह सोच रहा था कि कहीं मीर साहब छोटीओं बहिनी को कोई बुड्ढे से न बियाह दें... परन्तु शादी के हंगामों में यह कौन सोचता है कि एक पुश्तैनी नौकरानी का छोकड़ा शौकत क्या सोच रहा है। और शौकत के सोचने या न सोचने से फ़र्क ही क्या पड़ सकता है। शौकत का घबराना पिछली तीन शताब्दियों से मीर साहब के घराने में नौकरी करता चला आ रहा था। मीर जामिन अली के घराने का कोई न कोई आदमी काम कर रहा था। सच्ची बात यह है कि अब इन लोगों की है हैसियत केवल नौकरी की नहीं थी। ये बराबर बैठ नहीं सकते थे परन्तु घरवालों में गिने जाते थे। इन लोगों को तनखाह भी नहीं मिलती थी। इन्हें जेब खर्च मिलता था। और साल में दो बार जब घरवालों के कपड़े-लत्ते बनते थे, तो इनके लिए भी जोड़े तैयार होते। यही कारण है कि मीर साहब के घराने की औरतें शौकत के घराने के मर्दों से पर्दा भी नहीं करती थी। और इसीलिए शौकत को यह हक था कि रुकय्या और शम्सू मियां की शादी पर दिल बुरा करे। और इसीलिए जब बरात चली गयी और घर में सन्नाटा हो गया, तो शौकत ने मीर साहब से दिल की बात कह दी। ''ए मियां, बड़की बहिनी के वास्ते ए से अच्छा दुलहा ना मिल सकता रहा का?''<br /> मीर जामिन अली का रात का खाना खाने के बाद हुक्का पीने की तैयारी कर रहे थे। हुक्के की नय की तरफ बढ़ता हुआ उनका हाथ रुक गया। उन्होंने शौकत की तरफ देखा। शौकत झुका हुआ गट्टा दबा रहा था। परन्तु उनकी आँखों का रंग देख कर मत्तो का दिल धक से हो गया।<br /> ''उसे क्या घूर रहे हो?'' आमेना आड़े आ गयी, ''सारी दुनिया यही कह रही है। शम्सू मियां का छोटा बेटा अपनी रुकय्या से चार साल बड़ा है। इस ब्याह से अच्छा तो यह होता कि हम उसे चुपके कुछ खिला कर सुला देते।''<br /> रजिया जरा दूर थी। उसने केवल यह सुना कि रुकय्या को कुछ चुपके से खिलाने की बात हो रही है तो वह जहां थी वहीं से चिल्लायी, ''हम भी खायेंगे।''<br /> ''मैंने तो खैर रुकय्या की शादी कर दी है। तुम चाहो तो रजिया को कुछ खिला दो।'' यह कहते हुए उन्होंने हुक्के की नय सीधी कर दी और बेटी की तरफ देखे बिना उठ कर बाहर चले गये।<br /> और यूं मर्दाने में ज्यादा समय बिताने के दिन शुरू हो गये। अब जो मीर साहब ज्यादातर बाहर रहने लगे तो घर में रजिया और अकेली हो गयी। उसकी समझ में नहीं आता था कि इस छोटे से एक्के मकान में वह सुबह को शाम और रात को दिन में कैसे बनाये।<br /> नीचे तो उसे वह रत होती थी। इसलिए वह ज्यादातर ऊपरवाले कमर में रहती। आमेना डाँटती रहती परन्तु वह जब भी मौका मिलता आँखें बचा कर ऊपर सरक जाती।<br /> ऊपरवाला कमरा उसी की तरह छोटा था और छोटी-छोटी दो खिड़कियों की आँखों से हर वक्त सड़क को देखता रहता था। यही दोनों खिड़कियां रजिया की आत्मा में खुल गई। कभी-कभी तो उसे ऐसा लगता जैसे सड़क उसके दिल के बीचोंबीच से गुजर रही है। वह बहुत से लोगों की आवाजें पहचानने लगी थी। इन आवाजों पर वह रिऐक्ट भी करती थी क्योंकि इन आवाजों से उनका एक तरफ का नाता हो गया था। कई आवाजों का तो उसे इंतजार-सा रहता था। एक तो वह बुड्ढ़ा था। जिसके गले में बदलगम की गिरह पड़ती थी। वह खिड़की के नीचे आने से जरा एक पहले गला साफ़ करता था। उसकी खांसी की आवाज सुनकर रजिया का जी गंगना जाया करता था। फिर व ऐन खिड़की से नीचे, सड़क के उस पार रुक जाया करता था। दोपहर का समय होता। सड़क वीरान होती। पहले व दाहिने-बायें देखता और निगाह को दाहिने से बायें ले जाने में वह चुपके से यह भी देख लेता कि वह खिड़की पर है या नहीं। पूरा इत्मीनान करके व आँखे झुकाये-झुकाये हुए खिड़की की तरफ मुँह किये हुए कमरबन्द खोलने लगता। उसके हाथों की जुंबिश के साथ-साथ रजिया का मुँह लाल होने लगता। फिर उसे ऐसा लगता। जैसे उसके कान की लवें फट जायेंगी और वह अपने खून से लथ-पथ हो जायेगी। परन्तु वह उस खांसते हुए बूढ़े से अपनी निगाह न हटाती। फिर भी एक पल ऐसा आता जब उसकी निगाह झुक जाती वह बूढ़ा मुंह फेर कर नाली के किनारे उकड़ू बैठ जाता। रजिया चुपचाप वही बैठी रहती और उस बढ़े की पीट की तरफ देखती रहती। कोई मिनट डेढ़ मिनट के बाद वह उठता। यदि कोई आता जाता दिखाई देता तो वह जल्दी चल देता और जो सड़क पर सुनसान रहती तो वह काफी देर लगाता और दाहिने-बायें देखता रहता और दाहिने से बायें जाने में उसकी चिपचिपाती हुई निगाहें रजिया के चेहरे पर अपनी निगाहों का लस छोड़ जाती। वह चला जाता और रजिया के गाल देर तक चिपचिपाते रहते। सड़क फिर वीरान हो जाती और वह रीगल टाकीज के इश्तहारवाले रिक्शे की राह देखने लगती। लाउडस्पीकर पर गूंजती हुई आवाज+ उसके खून की रफ़तार बढ़ा देती।<br /> आज देखिए महबूब प्रोड्क्शन की आन दिलीप कुमार, निम्मी, नादिरा, नौशाद का म्यूजिक जो आपके दिल में बरसों गूजता रहेगा... रोजाना तीन शो फ्री पास बिल्कुल बंद...''<br /> पहले आवाज दूर से पास आती। फिर बिल्कुल खिड़की के नीचे-नीचे आ जाती और फिर दूर जाते-जाते बिल्कुल गायब हो जाती। और वह यह सोचती रह जाती कि आख़िर यह दिलीप कुमार कौन है। निम्नी क्या चीज है... स्कूल में किसी से पूछने की हिम्मत। दिलीप कुमार, राजकपूर देवानन्द... कैसे अजीब नाम है। जैसे कोई दूर से नाम ले कर पुकार रहा हो...इन नामों के बारे में सोचते-सोचते न जाने कितना समय बीत जाता। वह उस लड़के की आवाज+ सुन कर चौंकती, जो रोज खिड़की के नीचे आकर रुक जाया करता था और उसकी तरफ देख कर कहा करता था...जो कुछ वह कहा करता था उसे याद कर के भी वह पसीने-पसीने हो जाया करती थी। इसलिए उसकी आवाज सुनते ही वह एक बार तो उनकी तरफ देखती और फिर बगटुर नीचे भागती...<br /> रात को वह अजीब-अजीब ख़वाब देखती और लाउडस्पीकर की आवाज आती रहतीं। उसने कभी लाउड स्पीकार को ख़वाब में नहीं देखा।<br /><br /> उसकी आँख खुल जाती। हलक में कांटें पड़ चुके होते। जबान सूख कर ऐंठी हुई मिलती। वह पानी पीने के लिए उठती। पलंग चरचराता। वह डर कर फिर बैठ जाती। फिर बहुत धीरे-धीरे उठती और घड़ौंची के पास जा कर खड़ी हो जाती और खबर सोये हुए शौकत की तरफ देखने लगती...<br /> दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद तो पता नहीं कौन थे। और कैसे थे। परन्तु शौकत तो शौकत ही था। सामने पड़ा बेखबर सो रहा था। गहरा सांवला रंग। बड़ी-बड़ी बंद आँखें, गोल नाक। अच्छे खासे मोटे होंठ। ऊपरी होंठ पर नर्म सुर्मइ रोयें की एक लकीर। मैला बनियान। चारखानेदार बैंगनी लुंगी...<br /> रजिया को पता भी न चला कि जागती हुई आवाजें सुनते-सुनते और सोये हुए शौकत को देखते-देखते वह कब जवान हो गई। वह यह तो जानती थी कि उसमें कोई परिवर्तन हो रहा है। परन्तु उसे यह मालूम नहीं था कि इस परिवर्तन का नाम क्या है।<br /> इसीलिए यह कहना ठीक नहीं कि रजिया को शौकत से प्यार हो गया था। रजिया तो यह सोच भी न सकती थी कि वह अपनी मत्तो बुआ के लड़के शौकत से प्यार कर सकती है। परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं कि वह शौकत से बेख़बर थी। वह उसे दिन को तो नौकर दिखाई देता, परन्तु रात को जब वह घड़ौंची के उधर सोता दिखाई देता तो उसमे कुछ और ही बात पैदा हो जाया करती थी। वह दिलीप कुमार, राजकपूर और देवआनन्द हो जाया करता था। और वह देर तक भरा हुआ कटोरा हाथ में संभाले उसकी तरफ देखती रहा करती थी। भरा हुआ कटोरा संभाले इसलिए कि जो कोई जाग पड़े तो यह देख सके कि वह पानी पीने उठी है।<br /> जाड़े की रातें अलबत्ता बहुत परेशान करती थीं। क्योंकि उन रातों में वह सोता तो उसी दालान में था जिसमें घड़ौंची हुआ करती थी,परन्तु जाड़े की रातों में हर रात प्यास जो नहीं लग सकती। फिर भी गयी रात को उसकी आँख जरूर खुलती। वह बाहर निकलती। लोटा उठाती और गुसलखाने की तरफ चली जाती। वहाँ पानी बहा कर फिर लौट आती। परन्तु शौकत में एक बुरी आदत यह थी कि वह मुँह छिपा कर सोया करता था। तो जी कड़ा करके वह लोटा उठाने और फिर लोटा रखने में खास शोर करती, कि शायद शौकत की आंख खुल जाये और वह सिर से लिहाफ सरका के देखे। परन्तु वह तो जैसे हाथी घोड़े बेच कर सोया करता था। वह लाख कोशिश करती परन्तु शौकत की आँख न खुलती तो उसे मजबूरन कमरे में जाकर लेट जाना पड़ता। वह जाकर लेट जाती। परन्तु देर तक जागती रहती और लाउडस्पीकर गूंजनेवाली आवाज सुनती रहती।<br /> रजिया में होनेवाली इस परिवर्तन की खबर घर में किसी को नहीं थीं। रुकय्या होती तो शायद उसके बदन में मचलती हुई अंगड़ाईयों की आहट सुन लेती। परन्तु वह तो शम्सू मियां के साथ पाकिस्तान जा चुकी थीं। जहाँ शम्सू मियां का बड़ा बेटा किसी बड़ी नौकरी पर था। शम्सू मियां मांगे का चढ़ावा लाये थे। पाँच हजार का कर्ज छोड़ कर एक रात चुपचाप चले गये थे।<br /> तो रजिया किसे बताती कि एक अजीब प्यास लगती है और वह प्यास उसे गयी रात को जगा देती हैं। वह घर में अकेली थी। उसके दिल की भाषा समझने वाला कोई नहीं था। और शायद उसकी जिदंगी इसी बेजबानी में कट गई होती। परन्तु एक दिन एक बड़ी साधारण-सी बात ने सुबह की नर्म हवा की तरह उसे छू दिया और उसका सारा बदन जवान बन गया।<br /> हुआ यह कि मत्तो बावर्चीखाने के दर पर बैठी मसाला पीस रही थी आमेना शाम की नमाज पढ़ रही थी। रजिया दालान में एक खुरें पलंग पर लेटी कुछ गुनगुना रही थी कि शौकत आया उसके हाथ में कई चीजें थीं।<br /> ''छोटी बहिनी तनी इ पान ले ल्यो'' शौकत ने यह कह कर वह हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, जिसमें पान था, वह कोई खास बात न थी। कई बार यह हो चुका था कि जब मत्तो किसी काम में फसी होती वह बाजार से लाई हुई चीजें रजिया को दे देता। परन्तु शाम को खास बात यह हुई कि पान लेते वक्त रजिया का हाथ शौकत के हाथ से छू गया। पलभर से भी कम की बात थी। शौकत मुड़कर बावर्चीखाने की तरफ चला गया। परन्तु रजिया जहां की तहां खड़ी रह गयी। उसका सारा बदन झनझना रहा था। और व पान के हरे-हरे पत्तों की तरफ यूँ देख रही थी। जैसे उन्होंने कोई शरमा देने वाली बात कह दी हो।<br /> उस शाम के बाद से ऐसा होने लगा कि व शौकत के बाज+ार से आने की राह देखने लगी। शौकत को आता देख कर वह चीजें लेने के लिए झटपटाती। इस बात पर न तो मत्तो ने ध्यान दिया और न आमेना ने। इसलिए शौकत चीजें लेकर आता रहा। रजिया वह चीजें लेती रही। हाथ से हाथ टकराहट रहा। बदन झनझनाता रहा और तब वह एक दिन वह यह जान कर शरमा गई कि शौकत अब चीजें लेकर ऐसे समय पर लेकर आता है, जब मत्तो मसाला पीस रही होती और आमेना नमाज+ पढ़ रही होती है। वह जो शरमाई तो शौकत ने उसकी उगंलियां जरा-सी दबा दी। और पहली बार उसने रजिया की तरफ देखा। ठीक उसी वक्त रजिया ने उसी तरफ देखा। वह मुस्करा दिया।<br /> अभी तक इन दोनों को वह यह मालूम था कि वह एक दूसरे से प्यार करने लगे हैं। रजिया को तो खैर यह मालूम ही नहीं था कि प्यार होता क्या है। मगर शौकत हिन्दी फ़िल्में देखता रहता है। तो उसे उन फ़िल्मों पर बड़ा भरोसा होता था। वह अक्सर रजिया को कामिनी कमसिन और मधुबाला और नर्गिंस के सपनें देखता और खुद दिलीप कुमार, विनोद कपूर बनता। इसलिए उसे यकीन था कि उसे रजिया से प्यार नहीं हुआ है, क्योंकि उसने तो रूपहरे पर्दे पर प्यार से लबरेज सीन देखे थे। जो हाथ छूने में इतने दिन लगने लगें तो हो चुकी मुहब्बत परन्तु इसमें शक नहीं कि उसे रजिया का हाथ छूने में बड़ा मजा आता था। वह उस एक पल की उम्मीद में सारा दिन गुजारा करता था। इसीलिए किसी दिन जो उसका हिसाब जरा ग़लत हो जाता और मत्तो साली मिलती तो उसका मुँह उतर जाता और शायद दिलो की बात आगे न बढ़ती यहां से, क्योंकि यह दोनों ही इस बात से बेख़बर थे कि उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया है। परन्तु गर्मी की एक शरीर दोपहर ने दोनों को जो धक्का दिया तो दोनों टकरा गये।<br /> हुआ यह कि मीर जामिन अली खाना खाकर लेट गये थे। आमेना भी पंखा झेलने के लिए पास ही लेट गयी थी। मत्तो कोठरी में थी। आंगन में लू चल रही थी।<br /> रजिया चुपके से अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर आ गयी। वह दबे पांव बावर्चीखाने की तरफ चली, जहां एक छीके पर हरी-हरी अमियां रखी थी। रजिया के मुँह में पानी आ गया। दो अमियें उतार कर उसने जल्दी-जल्दी कुचला बनाया। और फिर वहीं बैठ कर चटखारे ले-लेकर खाने लगी।<br /> सच्ची बात यह है कि उस समय उसके दिमाग़ में शौकत नहीं था। परन्तु शौकत आ गया। और यह भी सच्ची बात है कि उस समय उसके दिमाग़ में भी रजिया नहीं थी। परन्तु एक छोटे-से घर में एक दूसरे को न देख लेना संभव नहीं हैं। दोनों ने एक दूसरे को देखा-दोनों के हलक एकदम से सूख गये। वह बावर्चीखाने की चौखट पर रुक गया। उसने बोलना चाहा परन्तु आवाज गोंद की तरह सूख गयी थी। तो उसने कुचले के लिए हाथ बढ़ा दिया। रजिया ने उसी उंगली पर थोडा-सा कुचला उठाया जिससे वह खुद अब तक चाट रही थी। कुचले समेत उसने वह उंगली शौकत की खुली हुई हथेली पर रख दी।<br /> ''छोटी बहिनी।'' उसके हलक़ से एक अजीब-सी आवाज+ निकली।<br /> ''का है।'' रजिया के लिए भी अपनी आवाज को पहचान लेना मुश्किल हो गया।<br /> तो शौकत ने उसकी वह उंगली पकड़ ली। फिर वह उस उंगली को अपने होंठों की तरफ ले चला। अब बात उसकी समझ में आने वाली लगी थी। यह तो फ़िल्मी पर्दे जैसी बात है। उसने वह उंगली चाट ली बैक ग्राउंड म्यूजिक शुरू हो गया। रजिया बावर्चीखाने से दालान की तरफ भागी। मुहम्मद रफी ने गाना शुरू कर दिया। अपने कमरे का दरवाजा बंद करने से पहले रजिया पल भर के लिए ठिठकी। शौकत अब भी वहीं खड़ा था। रजिया मुस्करा दी और शौकत तक लता मंगेशकर की आवाज आने लगी-उसे यकीन हो गया कि वह रजिया से प्यार करने लगा है। यह यकीन दिल हिलानेवाला था। पता नहीं इस फ़िल्म का अंजाम क्या होगा। अभी तो के०एन०सिंह आयेगा। फिर मीर जामिन अली हीरोइन के बापों की तरह मरने की धमकी देंगे। फिर जैसे फ़िल्मों में आता है, समाज आयेगा। शौकत बेचारे ने बहुत सिर मारा परन्तु उसकी समझ में यह न आया कि आख़िर यह समाज क्या होता है।<br /><br /> उस रात शौकत बहुत देर तक जागता रहा और सोचता रहा। फिर वह उठा और सोचता रहा। फिर वह उठा और बाहर की ड्योढ़ी में चला गया और लालटैन की सहमी हुई रोशनी में दिलीप कुमार को खत लिखने लगा। वह कोई पढ़ा लिखा आदमी नहीं था। बड़ी बहिनी ने उसे उल्टा-सीधा पढ़ना और टेढ़ा-सीधा लिखना सिखा दिया था। उसने दिलीप कुमार को एक छोटा-सा खत लिखने में लगभग सारी रात लगा दी। उसने लिखाः<br /> मेरे भाई दिलीप कुमार को बाद अस्सलामालेकुम के मालूम हो कि मैं खैरियत से हूँ और खैरियत उनकी खुदावंदे करीम से नेक चाहता हूँ।<br /> यहाँ तक लिख कर रुक गया। क्योंकि यहां तक की बात उसे जबानी याद थी। यह तो हर खत में लिखा जाता है। परन्तु बात आगे कैसे बढ़े उसने फिर शुरू कियाः<br /> गुजारिश अहवाल यह है कि मुझे छोटी बहिनी से प्यार हो गया। आप छोटी बहिनी को नहीं जानते। मगर खुदा की कसम यह आपकी हीरोइन से कहीं ज्यादा खूबसूरत हैं आप हिन्दू है तो क्या हुआ। बाकी आपके सीने में भी दिल होगा। आप एक प्यार करने वाले की मदद कीजिए। खुदा आपको इसका बदला देगा और आपको के०एन०सिंह के हाथ से बचायेगा। कसम अल्लापाक की जब वह आपको मारता है तो मेरा मगर फिर जाता है और जी चाहता है कि मैं उसकी बोटियां नोच कर चील कौवों की खिला दूं। आप ई मत सोचिए कि मैं मुस्लमान हूँ तो पाकिस्तान चला गया हूंगा और आप कोई पाकिस्तानी की मदद काहे को करें। हम पाकिस्तान ना गये हैं। हम तो बस अपने गांव से निकलकर शहर में आ गये है। और हम यहां बीड़ी बनाते हैं। और साढ़े चार रुपया रोज कमा ले रहें। हमारे लायक कोई काम हो तो जरुर लिखिए। बाक़ी आप बड़े भाई हैं और हर फ़िल्म में कोई न कोई से प्यार जरुर करते हैं। एह मारे ई जरुर बताइए कि अब हम को क्या करना चाहिए। थोड़े लिखे को बहुत जानिए और खत को तार जान कर जवाब दीजिए। एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि के०एन०सिंह वगैरह से तो हम समझ ले। बाकी ई समाज का होता है? आज तक कोई फिलिम में एकी शकल ना देखाई दी हैं। काई समाज बहुत तगड़ा होता है।<br /> आपका नाचीज खादिम <br /> शौकत अली<br /><br /> यह बात लिखकर वह थक गया। उसे लगा कि दो हजार बीड़ी बनाना एक खत लिखने के मुकाबले में बहुत आसान काम होता है।<br /> खत को लिफ़ाफे में रखने के बाद वह पता लिखने लगा।<br /> दर शहर बंबई पहुंच कर<br /> आली जनाब भाई दिलीप कुमार, मशहूर हीरो को मिले।<br /> फिर वह थक कर सो गया। दूसरे दिन उसने पहला काम यह किया कि इस खत को लेटर बक्स में डाल आया। उसे पक्का यक़ीन था कि दिलीप कुमार खत का जवाब अवश्य देगा।<br /> अब यह तो नहीं मालूम कि दिलीप कुमार को यह खत मिला या नहीं और यदि मिला तो उन्होंने उसे समाज की क्या परिभाषा दी। परन्तु यह मुझे अवश्य मालूम है कि शौकत-रजिया-पे्रम की कहानी हिन्दी फिल्मों के ढ़र्रों पर नहीं चली। क्योंकि हिन्दी फिल्मों में यह अवश्य दिखला दिया जाता है कि विजय समाज की हुई या नायक की। परन्तु इस कहानी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी परेशानी यह है कि हमारे देश में हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल फिल्में बनाते हैं जैसे कि देश हिन्दू और मुस्लमान समाजों में बंटा हुआ हो और यदि सोसाइटी एक ही है तो कोई मुझे बतलाये कि यह हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल क्या होता है? मजे की दूसरी बात यह है कि हिन्दू सोशल' फिल्में देखिए तो पता चलेगा कि भारत में केवल हिन्दू रहते है और 'मुस्लिम सोशल' देखिए तो पता चले कि इस देश में मुस्लमानों के सिवा कोई रहता ही नहीं। मुस्लिम सोशल फिल्मों की एक खसूसियत और होती है कि उसका हीरो यदि नवाब नहीं होता तो कवि अवश्य होता है। और अपना शौकत न नवाब था और न कवि। वह नमाज+ पढ़ता था। रोजे रखता था। परन्तु मुस्लिम सोशल फ़िल्मों के गज ;या मीटरद्ध से नापा जाये तो वह मुस्लमान ही नहीं था। इन बातों से अलग रह कर भी देखा जाये तो शौकत किसी कोने से हीरो नहीं दिखाई देता था। बीड़ी बनाने वाला एक बीड़ी मजदूर भला हीरो कैसे हो सकता है। उसे तो जब पता चला कि उसे रजिया से प्रेम हो गया है, तो उसका कलेजा धक से हो गया। उसे यकीन ही नहीं आ रहा था। छोटी बहिनी और शौकत! यह तो कोई बात ही नहीं हुई। परन्तु हुआ यह कि रजिया की माँ आमेना और अपनी माँ मत्तो की आँखें बचा-बचा कर रजिया की तरफ देखने लगा और वह जब भी रजिया की तरफ देखता उसके सारे बदन में जैसे हजारों-हजार दिल धड़कने लगते और इन हजारों हजार दिलों में लाखों लाख चिराग जल जाते और उसकी रग-रग में उजाला हो जाता और छोटे-छोटे अनगिनत ख़वाब हंसते हुए रंगों की गलियों में दौड़ने लगते और वह शोर होता कि कान पड़ी आवाज न सुनायी देती। <br /> कई बार ऐसा हुआ कि उसने अपनी माँ की आवाज न सुनी। माँ का दिल थक से हो गया। इकलौते बेटे यूँ भी बड़े कीमती होते है और जब से पाकिस्तान बना है तब से इकलौते मुस्लमान बेटों का दाम इतना बढ़ गया है कि कभी-कभी ममता दिल में मसोस कर रह जाती है, क्योंकि सौदा नहीं पटता, इसीलिए मत्तो हील खाने लगी। एक दिन वह चुपके से मस्जिद के मुल्ला के पास गई। उसने कहा कि शौकत पर एक परी का साया हो गया है। मुल्ला को मालूम था कि मत्तो मीर जामिन अली की नौकरानी है, और मुल्ला को यह भी मालूम था कि जमींदारी ख़त्म हो चुकी है। इसलिए उसने केवल आधे तोले सोने,एक काले मुर्ग और एक तोले जाफरान की मांग की, यदि वह मत्तो के हाथों में सोने की चार चूड़ियाँ न देख लेता तो शायद सोने की मांग न करता। परन्तु चूड़ियां उसके सामने थी। मत्तो ने एक चूड़ी उसके हवाले की। मुर्ग और केसर का दाम दिया। एक शुक्रवार को मुल्ला ने उसे दो ताबीज दिये। एक ताबीज शौकत के पलंग के पाये के नीचे दबाने के वास्ते और दूसरा घोल कर पिलाने के लिए। मत्तो उस दिन मस्जिद से बहुत खुश लौटी। एक ताबीज उसने पलंग के पाये के नीचे दबा दिया और दूसरा ताबीज उसने शौकत की दाल में घोल दिया। ताबीजों के साथ-साथ उसने हाथ उठा-उठा कर उस परी को खूब कोसने भी दिये जिसने उसके इकलौते बेटे पर अपना साया डाल दिया था।<br /><br /> जाहिर है कि शौकत को ये बातें नहीं मालूम थी। वह तो रजिया के ख़याल में मगन था। पहले वह बाहर की ड्योढ़ी में बैठकर बीड़ी बनाया करता था। अब उसने दालान में अपनी चटाई डाल ली थी।<br /> छोटे दालान से सदर दालान साफ दिखाई देता था। वह बोड़ी बनाता रहता और चुपके-चुपके कोई ग़जल गुनगुनाता रहता।<br /> घर में इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि अब रजिया ने ऊपरवाले कमरे में समय बिताना छोड़ दिया है।<br /> रजिया जब स्कूल में न होती तो सदर दालान में होती और एक पलंग पर लेटी पांव के अंगूठे हिलाती रहती और इस्मत चुगताई या मंटो या कृष्ण चंदर की कहानियां पढ़ती रहती और कनखियों से बीड़ी बनाते हुए शौकत को देखती रहती। कभी-कभार दोनों की आँखें मिल जाती तो दोनों मुस्करा देते। इस मुस्कराहट की ओस से दोनों के बदन नम हो जाते।<br /> एक दिन मत्तो ने शौकत की मुस्कराहट पकड़ ली। उसने बावर्चीखाने में मसाला पीसते-पीसते उस मुस्कान का पीछा किया। वह मुस्कान रजिया की आँखों से उसके दिल में उतर गयी। मत्तो को अपनी आँखों पर यकीन न आया। यह एक अनहोनी बात थी। यह और वह है कि वह खुद दिल में मीर जामिन अली को पूज चुका थी। परन्तु वह नौकर नहीं थी, नौकरानी थी। नौकरी का पूरा इतिहास नौकरानियों और मालिकों के बदन के टकराव की कहानियों से भरा हुआ था। परन्तु आज तक किसी नौकर से मालिक की लकड़ी की तरफ देखकर मुस्कराने का हौसला नहीं किया था। अनारकली हो तो दीवार में चुनवा दी जाती है। परन्तु अनारकली की जगह कोई शौकत हो तो क्या अंजाम होता है। वह कांप गयी।<br /> उस रात जब घर में सोता पड़ गया तो वह शौकत के सिर में तेल डालने बैठ गयी। वह इस उघेड़-बुन में थी कि बात शुरू कैसे करे कि खुद शौकत ने बात शुरू कर दी।<br /> ''अब तू बूढ़ी हो गयी है अम्मा जाओ आराम करो।''<br /> स्त्र्''हां, बेटा बूढ़ी त ज+रूर हो गयी हौं। बाकी तौरे सिर में तेलो पड़ना त जरूरी है ना। ए ही मारे सोच रहें कि तोरा बिआह कर के चांद अय्यसी दुल्हिन लिआये।''<br /> ''हम त छोटी बहिनी से बिआह करेंगे।'' शौकत ने कहा। यह बात उसने दस-बारह साल बाद कहीं थी। और अब मत्तो उसे चांटा भी नहीं मार सकती थी। उसे कोसने भी नहीं दे सकती थी।<br /> ''अय्यसी बात ना करे को बेटा!''<br /> वह उठ कर बैठ गया।<br /> ''काहे न करें अय्यसी बात।''<br /> ऊ मालिक है।''<br /> ''का तनखाह देते हैं तो को?''<br /> ''तनखाह से का होता है!''<br /> ''...हम बदमाशी करें की बात ना कर रहें। बिआह करे की बात कर रहे।''<br /> ''बरब्बर की बात ना है ना बेटा। एह मारे बिआहो की बात बदमाशीय की बात है।'' <br /> ''का हम शम्सूओं मियां से गये गुजरे हैं, तू हम्में इ बता द्यो कि हमरे में का खराबी है?''<br /> उसमें कोर्ई खराबी होती तब भी मत्तो को दिखाई न देती क्योंकि मत्तो माँ थी। तो वह शौकत के इस सवाल का क्या जवाब देती। वह चुपचाप सिर में तेल मलने लगी। परन्तु बैठे हुए शौकत का सिर उसे बहुत ऊँचा लगा।<br /> ''अच्छा तनी लेट के जट से तेल त लगवा ले।'' मत्तो की आवाज+ जैसे उसके कान से चिपक गयी। उसकी आवाज इस इश्क की आंच से पिघल गयी थी। वह लेट गया। सन्नाटा छा गया।<br /> ''अच्छा जो मैं इ मानों ल्यों कि मियां छोटी बहिनी से तोरा बिआह करे पर राजी हो जय्यहें त तैं हम्में ई बता कि मैं छोटी बहिनी से अपना पांव दबवय्यहो?''<br /> ''काहें ना दबावय्यहों?''<br /> हमरें बाप दादा जेके बाप दादा का नमक खाइन हैं हम ओसे अपना पांव ना दबवा सकते।'' मत्तो की आवाज में फैसले की खनक थी।<br /> ''अच्छा मत दबवय्यहो बस। हम दबावेंगे तोरा पांव। और अब हम्में सोये द्यो। अब हम्में नींद आ रही।'' उसने करवट ले ली।<br /> थोड़ी देर तक मत्तो उसका सिर सहलाती रही। पर जब शौकत आँखें बंद किये पड़ा ही रहा तो वह उठ कर अपने बिस्तर पर चली गयी।<br /><br /> गर्मी की रात थी। बांस का पंखा झलती हुई मत्तो तारों भरे आसमान की तरफ देखती रही। खटोलना घर की छत पर था। उसकी आँखें उसी खटोलने पर जम गयीं और वह शौकत के बारे में सोचने लगी। का मैं ओको बित्ते भर से एक लाठी का एह मा किये हौं कि ऊ छोटी बहनी के वास्ते मोरी बात टाल दें?<br /> परन्तु यह बात ऐसी थी कि वह मुंह से निकाल भी नहीं सकती थी। कई दिन तक वह यही सोचती रही और बावर्चीखाने के दर पर बैठी अपने शौकत की मुस्कान को छोटी बीबी की आँखों से दिल में उतरते देखती रही और हौल खाती रही कि छोटी बीबी का क्या है। बरस-दो बरस में कोई बाजे-गाजे के साथ आकर उसे बिदा करवा ले जायेगा। परन्तु शौकत का क्या होगा?<br /> मत्तो सोच रही थी।<br /> शौकत मुस्करा रहा था।<br /> रजिया इस्मत की टेढ़ी लकीर पढ़ रही थी।<br /> समय रेंग रहा था।<br /> दोपहर का वक्त था। आंगन में लू दौड़ रही थी। रजिया एक टीकोरा खा रही थी कि शौकत आया। रजिया को देखकर वह बावर्चीखाने में चला गया।<br /> ''हमहूं को चखा दीजिए जरा-सा सा।''<br /> रजिया मुस्करा दी। उसने अपना जूठा टिकोरा उसकी तरफ बढ़ा दिया। यही मौका था। शौकत ने हजार बार दिलीप कुमार को कामिनी कौशल, नलिनी जयवंत या मधुबाला का हाथ पकड़ते देखा था। उसने रजिया का हाथ पकड़ लिया।<br /> कोई देख लीहों रजिया की आवाज प्यार के बोझ से लचक गयी।<br /> ''दुपहरिया में कौन खड़ा है दखें वाला।''<br /> शौकत ने छोटी बहिनी को अपनी बांहो में कस लिया। और ठीक उसी वक्त नाइन कहीं से हिस्सा लेकर आ गयी। रजिया तड़प कर अलग हो गयी। शौकत मटके से पानी निकालने लगा। नाइन सिर से सेनी उतार कर वहीं बावर्ची खाने में बैठ गयी।<br /> ''सेख जी इ आम भे जिन हैं। पहिली फसिल आयी है।'' नाइन ने १२ आम निकाल कर बावर्चीखाने के फ़र्श पर रख दिये। रजिया ने सेनी में कोई आध सेर आटा सिर भारी का डाल दिया। नाइन ने सेनी पर रख ली।<br /> ''बड़ी गर्मी है।'' नाइन ने रजिया से कहा।<br /> रजिया ने सिर हिला दिया। नाइन चली गयी।<br /> ''अ जो ऊ देख लिहिस होय तब का होगा'' उसने सवाल किया।<br /> ''हमरे ख़याल में त ना देखिस है।'' शौकत ने कहा। डर तो उसे भी यही था कि नाइन ने देख लिया होगा तो क्या होगा। परन्तु वह छोटी बहिनी को परेशान करना नहीं चाहता था।<br /> दोनों को शाम होते-होते इस प्रश्न का जवाब मिल गया।<br /> नाइन मीर जामिन अली के घर से उठकर समीउल्ला खां के घर गयी। हिस्सा देकर जमीन पर पलंग की पट्टी से लग कर बैठ कर पान का इंतजार करने लगी। खां साहब की बीवी पान लगा रही थी।<br /> यह बोली।<br /> ''बाप रे बाप। का जमाना आ गया है!''<br /> ''का भया?''<br /> ''अब मैं का बताओं बीबी कलजुग है। जो न हो जाये ऊ थोड़ा है।''<br /> ''तनी एक देखे कोई।'' पठानी झल्ला गयी। ''टरटराये जा रही और मुंह से ई ना फूटती कि आख़िर भया का।''<br /> ''बाइस्कोप भया। बीबी और का भया!'' नाइन सिनेमा की शौकीन थी। पठानी भी कभी कभार सिनेमा देख आया करती थी। सुन कर उनका माथा ठनका। वह संभल कर बैठ गयीं।<br /> ''मैं निखौंदी चली गयी दनदनाती मीर साहब के घर हिस्सा देवे। बाकी अब हुआ पुकार के जाय को चाहिए बीबी।''<br /> नाइन ने यह कहानी सुनाते-सुनाते तीन पान खाये। पठानी इस कहानी को अमृत की चाट गयीं। एक-एक शब्द को उन्होंने खूब-खूब निचोड़ा कि कोई बूंद रह न जाये। नाइन तो कहानी सुना कर चली गयी। परन्तु पठानी के लिए घर में बैठना-मुश्किल हो गया और दिन था कि ढ़लने का नाम नहीं लेता था। वह इस कदर जल्दी में थी कि अस्र की नमाज उन्होंने समय से पढ़ डाली।<br /> पठानी के साथ यह कहानी सारे मुहल्ले में फैल गयीं। बीबियों ने दांतों में उंगलियों दबा ली। पठानी सारे मुहल्ले का चक्कर लगा कर आख़िर में मीर जामिन अली के घर पहुंची। आमेना को तो कुछ मालूम नहीं था। उसने पठानी को हाथों-हाथ लिया। परन्तु पठानी बैठती ही बड़े राजदाराना लहजे में बोली कि मुहल्ले में क्या बातें हो रहीं...<br /> ''अब मैं बेचारी केहका केहका मुँह बंद करौ?''<br /> आमेना सन्नााटा में आ गयी। पठानी आमेना को सन्नााटे में छोड़ कर चली गयी। उनके जाने के बाद आमेना ने बावर्चीखाने की तरफ देखा। मत्तो दाल बघार रही थी। फिर उन्होंने छोटे दालान की तरफ देखा। शौकत बैठा लालटैन की रोशनी में बीड़ी बना रहा था। फिर उन्होंने सदर दालान की तरफ देखा। सड़ी हुई गर्मी में रजिया एक पलंग पर लेटी न जाने क्या पढ़ रही थी और पैर के अंगूठे नचा रही थी। आमेना के तन बदन में आग लग गयी। वह उठी सदर दालान में जाकर उन्होंने रजिया को एक दोथप्पड़ मारा और फिर वह उसे कोसने लगी।<br /> उनके कोसने इतने साफ थे कि बात मत्तो, शौकत और रजिया की समझ में आ गयी। आमेना रोती जा रही थी और बेटी के मरने की दुआएं मांगती जा रही थी और नमक हरामों को शाप देती जा रही थी।<br /> पोर-पोर गल के गिर जाये नमक हरामन की। मरते वक्त कोई मुँह में पानी चुआवेवाला ना जुड़े। या अल्लाह माटी मिला वे निशान उठ जावे। कबुर पर दिया बत्ती करनेवाला ना रह जाये...''<br /> अपनी झल्लाहट में वह यह भी भूल गयी कि यह मीर साहब के खाने का वक्त हैं। मीर साहब यह कोसने सुन कर सन्नाटे में आ गये।<br /> ''क्या हो गया भई।''<br /> '' अरे इ पुछिए कि का ना हो गया। बता अपने बाप को ही कलमूंही।''<br /> कलमूंही! यह शब्द एक पत्थर की तरह मीर साहब के माथे पर लगा। उनकी आत्मा लहू लहान हो गयी। वह किसी छतनार बूढ़े पेड़ की तरह इस आंधी में टूट गयी...<br /> ''इस मत्तो हलामजादी से कहो कि अपने नमक हराम बेटे को ले कर इसी वक्त जाये मेरे घर से।''<br /> आमेना आंसू पोंछती हुई पांयती बैठ गयी। रजिया वहीं दालान में थी और रो नहीं रही थी। शौकत अपने दालान में था। परन्तु उसने बीड़ी का सूप नीचे रख दिया था। मत्तो बावर्चीखाने में थी। वह मीर साहब के लिए खाना निकाल रही थी। मीर साहब का हुक्म सुनते ही वह कफगीर को पतीली में छोड़ कर शौकत के पास गयी। अपनी जूती उतार कर उसने शौकत को मारना शुरू किया। शौकत चुपचाप मार खाता रहा। उसने बचने की भी कोई कोशिश न की।<br /> ''बाकी जो एह सभन को निकाल दिया गया त महल्लेवाले ई जरूर कहिएं कि जो कउनो बात ना होती त आप एह तरे से इन सभन को कभई ना निकालते।''<br /> आमेना ने कहा।<br /> यह बात भी ठीक थी।<br /> मीर साहब ने अपना फैसला बदल दिया परन्तु यह हुक्म हो गया कि अब शौकत अंदर नहीं आयेगा। शौकत बीड़ी का सूप उठाये, सिर झुकाये बाहर ड्योढ़ी में चला गया।<br /> दूसरे ही दिन में मुहल्ले में खुसुर-फुसुर होने लगी।<br /> ''अरे साहब निकाल कैसे दें। चार साढ़े चार रुपया रोज कमा रहा है। लड़का।''<br /> ''और हर्ज ही क्या है। इस्लाम ऊंच-नीच तो मानता नही।''<br /> ''मैं तो कह रह्मूं भाउज कि इ तो बैगतीं की हद हो गयी। ऊ साफ फंसी है। ओसे!''<br /> शौकत सांप के मुंह की छछूंदर बन गया था। न उगला जा रहा था न निगला जा रहा था। मीर साहब ने बाहर निकालना छोड़ दिया। क्योंकि वह बाहर निकलते तो लोग गला साफ करने लगते।<br /> और घर के अंदर एक गंभीर सन्नाटा था। आमेना बुत बनी एक पलंग पर बैठी रहती। रजिया उसी पलंग पर लेटी कोई किताब पढ़ती रहती। मत्तो खाना पकाती रहती, झाड़-पोंछ करती रहती और रोती रहती। शौकत ड्योढ़ी में बैठा बीड़ी बनाता रहता। मीर साहब हुक्का पीते रहते और अपनी छोटी-छोटी मूंछो को दांतो से चबाते रहते। कोई किसी से नहीं बोलता था। ऐसा लगता था कि घर खाली हो गया है और घर को खाली देख कर कुछ परछाइयां आ बसी हैं।<br /> जमींदारी के खात्मे ने मीर साहब को परेशान किया था। किया था परन्तु बूढ़ा नहीं किया था। मगर रजिया के इश्क़ की गर्म हवा ने उन्हें बिल्कुल झुलस दिया था। वह आत्महत्या भी नहीं कर सकते थे क्योंकि इसका मतलब भी यही निकलता कि उनकी छोटी बेटी उनकी नौकरानी के लड़के से फंसी हुई है। चारा केवल एक था कि जल्द से जल्द रजिया का ब्याह कर दिया जाये-परन्तु अब प्रश्न यह था कि लड़की वाले खुद अपनी बेटी के लिए कहीं पैगाम कैसे दें। मीर साहब ने यह काम करने से नकार कर दिया।<br /> ''मार गैरते देखाये को है त ऊहे माटी मिले शौकतवे से दू बोल पढ़वा दिजिए। लड़की वाले बने का मुंहो रह गया है हम लोगन का!''<br /> मीर साहब बल खा कर रह गये। परन्तु बात आमेना ठीक कह रही थी। तो रिश्ते के किसी भाई भतीजे को लिखा गया कि फलां साहब के लड़के से रजिया की बात चलाओ। चक्कर चल गया।<br /> अब ऐसा तो है नहीं कि सारे ही मुस्लमान लड़के पाकिस्तान चल गये हों, कई जगह से खतों का चक्कर चला। एक जगह बात पक्की हो गयी। लड़का पी०डब्ल्यू०डी० में ओवरसियर था। तनखाह तो कुछ ज्यादा न थी। परन्तु ऊपर की आमदनी अल्लाह के करम से काफी थी। लड़के के खानदान में कहीं-कहीं इक्का दुक्का पैबंद लगे हुए थे। परन्तु पाकिस्तान बनवाने की इतनी कीमत तो देनी ही पड़ेगी कि खानदानी लड़कियां खोटे खानदानों में ब्याही जायें। तो साहब मरता क्या न करता। बड़ी ऊंची नाकवाले मीर जामिन अली ने यह रिश्ता मान लिया। बड़े धूम-धड़क्के से तैयारियां शुरू हुई। परन्तु बरात आने के दिन से कोई दो महीने पहले ओवरसियर के बाप का खत आया कि लड़की में खोट है। यह बात इशारे में कहीं गयी थी। साफ साफ यह लिखा गया था कि लड़का ठना हुआ है कि जो दहेज में एक हिंदुस्तान गाड़ी न मिली तो ब्याह करने से फायदा ही क्या। फायदा-यह शब्द भी किन-किन दीवारों पर ठुंका दिखाई देता हैं।<br /> मीर साहब कोई पागल नहीं थे कि इस खत का मतलब न समझ लेते। मतलब साफ था कि लड़की शौकत से फंसी हुई है। उसका ब्याह करना हो तो एक मोटर दो! इसीलिए यह खत पढ़ कर मीर साहब की आंखों में खून उतर आया और आमेना हाथ उठा-उठा कर मुहल्ले वालों को कोसने लगी। ''हे पाक परवर दिगार। जय्यसा इ लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...''<br /> परन्तु कोसनों से क्या होता हैं। रिश्ता टूट गया क्योंकि मीर साहब में कार देने की सकत न थी। उधर सारे मुहल्लेवालों को मालूम था कि बात पक्की हो गयी है और तारीख पड़ गयी है। और यदि उसी तारीख पर बरात न आयी तो मर जाने के सिवा कोई चारा न रह जायेगा।<br /> लड़के के लिए फिर जाल डाला जाने लगा। जो लड़का मिला वह बासठ साल का एक टांठा बुड़ढा था। रिटायर्ड थानेदार था। रंडुवा था। पांच बेटियों और चार बेटों को ब्याह चुका था। परन्तु पांचों दामाद और चारों बेटे पाकिस्तान में थे। इसलिए वह अपनी बूढ़ी तनहाई दूर करने के लिए एक नौजवान लड़की से ब्याह करने को तैयार हो गया।<br /> इस बार मुहल्लेवालों को कानों-कान खबर न होने दी गयी। मत्तो मस्जिद के मुल्ला के पास गयी कि वह कोई ऐसी तरकीब करें कि यह ब्याह हो जाये। मत्तो की समस्या यह थी कि वह यह नहीं भूल सकती थी कि उसकी रगों में दौड़नेवाला लहू वास्तव में रजिया के बाप दादा का नमक है। वह रजिया से पांव दबाने के लिए नहीं कह सकती थी। मुल्ला से भी वह यही रोयी-गायी, क्योंकि दाई से पेट और मुल्ला से बात नहीं छिपायी जाती। सोने की दो चूड़ियों पर बात पक्की हो गयी। मुल्ला ने एक जलाली तावीज लिख दिया और एक जलाली चिल्ला खींचने का वादा किया और वह मत्तो को यह यकीन दिलाने में सफल हो गया कि मीर निजाकत हुसैन बरात ले कर अवश्य आयेंगे। मीर निजाकत हुसैन उस लड़के का नाम था जिससे रजिया की निस्बत लगी थी।<br /> मीर साहब के घर में तो शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थी। इसलिए उन मियां बीबी का तो केवल यह काम रह गया था कि हर नमाज में यह दुआ मांगें कि ब्याह साथ खैरियत के हो जाये। समधियाने से कोई खत आता तो घड़कते हुए दिल के साथ पढ़ा जाता। और मत्तो आमेना के चेहरे पर इतमिनान की चमक देखकर मुतमइन हो जाती। हर बार मत्तो खुदा का शुक्र अदा करती पर एक दिन जब वह फिर दाल की बघार रही थी। उसने आमेना के कोसनों की आवाज सुनी। हे पाक परवरदिगार। जय्यसा ई लोग हमरी बेटी के वास्ते कर रहें इनहूं लोगन के सामने आवे...<br /> मत्तो के हाथ से बघार का कर्छुल गिर गया। मीर निजाकत हुसैन ने बरात लाने से इनकार नहीं किया था। परन्तु उन्हें चूंकि रजिया और शौकत की कहानी मालूम हो चुकी थी। इसलिए वह रजिया की एक तस्वीर मांग रहे थे।<br /> मीर जामिन अली गुस्से में कांपने लगे। मीर निजाकत हुसैन ने यह नहीं लिखा था कि वह रजिया और शौकत को कहानी सुन चुके परन्तु यूं ऐन वक्+त पर तस्वीर मांगने का और मतलब हो क्या ही सकता है? मीर जामिन अली ने निजाकत हुसैन साहब रिटायर्ड थानेदार को लिखा दिया कि आखिर वह भी पांच बेटियां ब्याह चुके हैं। क्या उन्होंने समधियाने वालों की बेटी की तस्वीरें सप्लाई की थी? इस खत के जवाब में मीर निजाकत हुसैन रिटायर्ड थानेदार ने एक बड़ा सादा-सा खत लिखा। उस खत में सलाम दुआ के बाद लिखा थाः<br /> ...खादिम ने अपने समधियानेवालों को बेटियों की तस्वीरें इसलिए नहीं भेजी थी कि उनमें से किसी ने घर के किसी पालक से फंसने की ग़ल्ती नहीं की थी। आपको इत्तला के लिए कुछ खत रवाना कर रहा हूं...<br /> इस खत के साथ चार खत और थे। उनमें से हर खत में रजिया और शौकत की कहानी लिखी थी। वह चारों खत रजिया की तहरीर में थे।<br /> मीर जामिन अली पहली बार यह भूल गये कि हर एक शरीफ आदमी हैं। पहली बार उन्होंने रजिया पर हाथ उठाया। वह उसे केवल मार रहे थे। चूंकि उन्होंने रजिया से बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह उसे डांट रहे थे। रजिया ने भी चूंकि उनसे बोलना छोड़ रक्खा था इसलिए वह यह भी बताना नहीं चाहती थी कि उसे चोट लग रही है! मीर साहब मारते-मारते थक गये। और तब उन्होंने बेटी की तस्वीर खिंचवाने की बेगैरती करने का फैसला किया।<br /> परन्तु बेटी की तस्वीर खिंचवाना कोई आसान काम नहीं है। वह रजिया को लेकर फ़ोटोग्राफर की दूकान तक जा नहीं सकते थे। घर में फोटोग्र्राफर को बुलाते तब भी वही बात होती। इसलिए एक रिश्तेदार की बीमारी की खबर उड़ा कर मीर साहब बीबी और बेटी को ले कर बनारस चले गये। वहां तस्वीर खिंची और वहीं से मीर निजाकत हुसैन के पास भेज दी गयी। मीर निजाकत हुसैन रजिया पर लहलोट हो गये। वह चार दिन पहले बरात लाने पर तैयार थे। उनका यह जवाब पाकर मीर जामिन अली ने इतमिनान का सांस लिया। मत्तो लपकी लपकी मस्जिद गयी और सवा रुपया मुल्ला को भेंट कर आयी।<br /> मीरासनें ढोल ठोकने लगी।<br /> जिन दिन ढोल ठोंका गया उस रात को सब के सो जाने के बाद रजिया पलंग से उठी। चुपके-चुपके चोरों की तरह वह बाहरी ड्योढ़ी तक चली गयी।<br /> शौकत जाग रहा था।<br /> ''अब तोरा का इरादा है शौकत?''<br /> ''तूं जो कहो छोटी बहिनी।''<br /> छोटी बहिनी ने कुछ नहीं कहा। सदर दरवाजा खोल कर छोटी बहिनी सड़क पर निकल गयी। अंधेरी रात ने उसे गले लगा लिया। ड्योढ़ी में शौकत के चेहरे पर लालटैन की रोशनी पड़ रही थी। उसने पहले उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया ड्योढ़ी में आयी थी। फिर उसने उस दरवाजे की तरफ देखा जिसे खोल कर रजिया सड़क पर निकल गयी थी। और फिर उसने उस परछाई की तरफ देखा जो सड़क पर खड़ी उसकी राह देख रही थी।<br /> वह भी परछाई बन गया।<br /><br /><br /><br /><br /> </span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-15962672992736976202009-04-06T03:52:00.000+05:302009-04-06T03:52:01.988+05:30एक जंग हुई थी कर्बला में<span style="font-size:130%;">- राही मासूम रजा<br /><br /><br /> जैनब की आँखों में रास्ते की धूल थी, उसने अंगुलियों से आँखें मलीं ... हां, सामने मदीना ही था। नाना मुहम्मद का मदीना। जैनब की आँखें भर आयीं, लेकिन रोना किसलिए ?<br /> बग़ल वाले महमिल का पर्दा उठाये कुलसूम का मर्सिया झांक रहा था :<br /> ऐ नाना के मदीने,<br /> हमें स्वीकार न कर<br /> हमें स्वीकार न कर क्योंकि हम गये थे तो गोदें भरी थीं<br /> और लौटे हैं तो गोदें वीरान हैं ......<br /> एक तरफ़ से मदीना आ रहा था। दूसरी तरफ़ से जैनब का कारवां बढ़ रहा था ... और यादों का दर्द बढ़ता जा रहा था। वह कुछ कैसे बता पायेगी ? उसकी आँखों में आँसुओं की न जाने कितनी नदियां सूख चुकी थीं, उसे ऐसा लगा, जैसे सामने मदीना नहीं है, बल्कि माँ खड़ी है - बाहें, फैलाये। आँसू जैनब के गले में उतर आये- माँ, हम हुसैन को खो आये!<br /> हुसैन। इस नाम में न जाने क्या था कि ज+बान पर आते ही घुल गया और अमृत बन कर रंगों में दौड़ने लगा और बाहों पर पड़े रस्सियों के निशान मिट गये और जैनब को ऐसा लगा, जैसे सब साथ है जैसे अब्बास और अली अकबर अब सवारियों के उतारने का बंदोबस्त करने आने ही वाले हैं। जैसे वह हुसैन की आवाज सुनने ही वाली है-बहन, उतरो, मदीना आ गया।<br /> जैनब को वह रात अच्छी तरह याद थी जब मदीना के गवर्नर वलीद इब्ने-अकबा ने हुसैन को अपने घर बुलाया था, हुसैन तैयार हुए तो फातमी जवान भी तलवारें ले कर उठ खड़े हुए क्योंकि सब जानते थे कि वलीद ने हुसैन को क्यों बुलवाया है। वलीद के पास दमिश्क से यह फरमान आया हुआ था कि हुसैन से कहो कि सिर छुका दें और अगर वह सिर न झुकायें तो सिर काट लिया जाये। वलीद को मालूम था कि जिसे फ़ातिमा ने चक्की पीस-पीस कर पाला है और यहूदियों के बाग़ में पानी चलाकर जिसे अली ने सिर बुलंद करने का सबक़ दिया है, वह सिर नहीं झुकायेगा। यही हुआ। हुसैन उससे यह कह कर चले आये कि हुसैन कोई काम रात के अंधेरे में चुपचाप नहीं करता। सुबह को जवाब दिया जायेगा। परन्तु सुबह होने से पहले हुसैन ने मदीना छोड़ दिया।<br /> जैनब अपने दो बेटों को लेकर भाई के साथ चली, बड़ा बेटा औन ११ साल का था और छोटा बेटा मुहम्मद १० साल का। अब्दुल्ला ने दोनों बेटों को जैनब के हवाले करके कहा था- जैनब, मैं बीमार न होता तो खुद चलता। कोई बुरा समय आ जाये तो मेरी ओर से इन लड़कों को हुसैन पर न्यौछावर कर देना।<br /> यात्रा शुरू हुई। नीचे रेत थी, ऊपर आसमान और वहीं चमचमाता हुआ सूरज बच्चे पानी मांग रहे थे। हुसैन का घोड़ा पानी माँग रहा था और अरब के मशहूर सूरमा हुर की सेना कूफे के गवर्नर इब्ने ज्याद के हुक्म से हुसैन को घेरने के लिए आ पहुंची थी वह सेना परछाई की तरह कर्बला तक हुसैन के साथ आयी।<br /> फुरात का पानी देख कर हुसैन ने घोड़े की लगाम खींच ली, जवानों ने अंगों के बाँध खोल दिये, बच्चे किलकारियां भर कर उछल पडे.... नहर चल रही थी। कारवां रुक गया था।<br /> फिर ताबड़तोड़ फ़ौजें आने लगीं : सेनाध्यक्ष अमर इब्ने साद ने हुक्म दिया कि नहर के किनारे शाही सेना का पड़ाव पड़ेगा। हुसैन ने सौतेले भाई अब्बास से कहा- मैं चाहता हूं कि शाही इतिहासकार को हमारी मौत से जोड़ने के लिए कोई बात न मिले। मैं यह चाहता हूं कि वह केवल यह लिख पाये कि शाही फ़ौजों ने मुहम्मद की औलाद को क़त्ल कर दिया। अब्बास चुप हो गया। ख़ेमें उखाड़े गये और उन्हें ठंडे पानी से बहुत दूर दहकती हुई रेत में गाड़ दिया गया। हुसैन ने यही कहा था- मैं पानी के लिए लड़ना नहीं चाहता। मैंने सर झुकाने से इनकार किया। सिर न झुकाना मनुष्य का अधिकार है। मैं केवल इस अधिकार के लिए लड़ना चाहता हूँ।<br /> हर तरफ एक ही आवाज थी- पानी! पानी! और हुसैन के कंधे जिम्मेदारी के बोझ से दुखने लगे थे।<br /> रात को फैसला कर लिया गया कि सुबह ही लड़ाई होगी।<br /> सबेरा हुआ। जैनब ने औन और मुहम्मद की कमर से तलवारें बांध दीं और कहा-मामू के साथ सुबह की नमाज पढ़ो। हुसैन ने नमाज पढ़वायी।<br /> सामने यजीद की सेना थी। पीछे खेमों में औरतें और बच्चे थे। डेढ़ सौ सिपाही दस हजार सिपाहियों के सामने सीना ताने खड़े थे। डेढ़ सौ सिपाहियों में सबसे छोटा सिपाही १० वर्ष का मुहम्मद था और सबसे बड़ा अड़सठ वर्ष का हुसैन।<br /> यकायक शाही फ़ौज में एक शोर हुआ। जैनब जो द्वार पर खड़ी भाई की तरफ़ देख रही थी, चौंक उठी सामने से चार सवार चले आ रहे थे। जैनब ने हुर को पहचान लिया।<br /> और फिर जो कुछ हुआ उसे जैनब भूल जाना चाहती थी। उसने औन और मुहम्मद को घायल हो कर गिरते देखा, उसने अली अकबर को बरछी खाते देखा। उसने अब्बास की बांहे कटते देखीं। उसने १० वर्ष के क़ासिम की लाश को घोड़ों के सुमों में आते देखा। उसने देखा कि हबीब अपनी भवों को ऊपर उठाकर रूमाल से बांध रहे हैं। उसने मुस्लिम इब्ने औसजा को तीरों से छलनी होते देखा। उसने आसमान की तरफ देखा। आसमान में सूरज अकेला था और कर्बला में हुसैन।<br /> हुसैन कभी दिखायी देते, कभी डूब जाते। जैनब चाहती थी कि सब कुछ अपनी आँखों से देखें। सामने एक टीला था। वह टीले पर जा चढ़ी ... तीसरे पहर की नमाज का समय आ गया था, हुसैन घोड़े से उतर पड़े। जैनब ने उनका सिर सिजदे में झुकते देखा। फिर भीड़ इतनी बढ़ गयी कि टीला नीचा हो गया। जैनब कुछ न देख सकी और फिर भीड़ में एक नेजा उठा। उस पर हुसैन का सिर ... कितना ऊंचा!<br /> ... कुलसूम अपना मरसिया गुनगुना रही थी :<br /> - नाना के मदीने<br /> - हमे स्वीकार न कर ....<br /><br /> </span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-68385481907891012922009-04-05T16:03:00.000+05:302009-04-05T16:07:30.324+05:30एम.एल.ए. साहब<div align="justify"><span style="font-size:130%;">- राही मासूम रजा<br /><br /><br /> एम.एल.ए. साहब के बारे में जानने की सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह एम.एल.ए. नहीं थे। जो वह एम.एल.ए. रहे होते तो उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ही न गया होता क्योंकि आज एम.एल.ए. होने में क्या बड़ाई है। हर सातवां-आठवां आदमी या तो एम.एल.ए. है या होना चाहता है। क्योंकि कोयले की इस दलाली में मुंह तो जरूर काला होता है पर मुट्ठी गर्म रहती है तो आज मुंह की क्या हैसियत। असल चीज तो मुट्ठी है और एक आसानी यह भी है कि यह काले लोगों का तो देश ही है, फिर मुंह की कालिख दिखाई किसे देगी, इसलिए ज्+यादातर लोग एम.एल.ए. या एम.एल.ए. के रिश्तेदार बनने की फ़िक्र में दुबले या मोटे होते रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि एम.एल.ए. होने या न हो पाने में कोई नयापन नहीं रह गया है। आपको हर मुहल्ले में दो-चार एम.एल.ए. या एक्स एम.एल.ए. या एम.एल.ए. होते-होते रह जाने वाले मिल जायेंगे। तो फिर ऐसों की कहानी सुनाने में क्या मजा? और ऐसों की कहानी ही क्या इसीलिए एम.एल.ए. साहब में मेरी दिलचस्पी तब बढ़ी जब मुझे यह मालूम हुआ कि वह एम.एल.ए. हैं ही नहीं।<br /> चुनाव के दिन थे। हर तरफ़ बड़ी चहल-पहल थी। लोग अपने-अपने कारोबार छोड़कर चंद दिनों के लिए नेता बने ठस्से से तक़रीरें करते घूम रहे थे।<br /> कड़कड़ाते जाड़ों की रात थी। मैं सिनेमा देख कर लौट रहा था कि कान में आवाज आयी और अब मैं एम.एल.ए. साहब से दरख्वास्त करता हूं कि वह माइक पर तशरीफ लायें और अपने ख़यालात से आप लोगों को फायदा उठाने का मौक़ा दें।<br /> सामने वाली गली में दरी का फ़र्श लगा हुआ था। सामने कुछ बच्चे रूमाल के चूहे दौड़ा रहे थे। उनके पीछे बूढ़े चुनाव लड़ने वाले की चाय पी कर उसका विरोध करने वाले की बात कर रहे थे।<br /> कि एक आदमी, दुबला-पतला, रुवा खड़ा, सांवले रंग वाला सफ़ेद शेरवानी वाला माइक पर आया। गला साफ करने के बाद बोला - तक़रीरें तो आजकल आप लोग दिन-रात सुन रहे होंगे। मैं तो सरकार से कहने वाला हूं कि चुनाव में खार्च पर रोक-टोक करने का उसे कोई हक़ नहीं है। साहब यह बाबू द्वारका प्रसाद अपने चुनाव में सरकारी पैसा तो फूंक नहीं रहे हैं कि सरकार के पेट में दर्द हो रहा है। पर तक़रीर राशन कार्ड पर मिलनी चाहिए। जो एक वोटर को दो से ज्यादा तकरीरें चटाये, उस पर मुक़दमा चलाना चाहिए और उसकी जमानत जब्त कर लेनी चाहिए।<br /> यह आवाज+ मेरी साइकिल का पीछा कर रही थी। मैं पलट आया।<br /> एम.एल.ए. साहब बड़े मजे में बोल रहे थे - तो साहब मैं तक़रीर नहीं करूंगा। मैं तो तीन सौ मील का सफर करके और दो रातें आंखों में काट के आपके पास सिर्फ़ यह कहने आया हूं कि कांग्रेस को वोट देने से क्या फ़ायदा? अब तक क्या फ़ायदा हुआ जो अब कोई फायदा होगा। जनसंघ और मुस्लिम लीग और इस तरह की दूसरी पार्टियां तो न किसी गिनती में, न शुमार में, नफ़रत के इन ताजिरों से हमें या आपको क्या लेना-देना? अब आइये, लाल झंडे वालों को लीजिए। तो साहब, लाल झंडा तो सौ फ़ीसदी बिदेसी हैं... वह रुके। भीड़ को घूरा, चेहरा जरा सख्त पड़ा और फिर कड़कदार आवाज में बोले - अगर यह सच है कि हिंदुस्तान आजाद हो गया है तो आपके वोटों का हक़दार सिर्फ़ कोई आजाद उम्मीदवार ही हो सकता है और बाबू द्वारका प्रसाद से ज्यादा आजाद तो कोई दूसरा उम्मीदवार है नहीं...<br /> बाबूजी के लोगों ने तालियां बजायीं।<br /> एम.एल.ए. साहब मुसकराये बोले - तो मैं यह अर्ज कर रहा था कि मैं कोई तक़रीर नहीं करूंगा। हां, आप लोगों में से कोई साहब कोई सवाल करना चाहें, तो मैं हाजिर हूं।<br /> कोई साहब नहीं बोले।<br /> एम.एल.ए. साहब ने कहा - कोई बात नहीं। मैं खुद ही आपकी तरफ़ से सवाल भी करूंगा और जवाब भी दूंगा। आप कह सकते हैं कि बाबूजी को वोट देने से क्या फ़ायदा, वह कर ही क्या सकते हैं? बिलकुल सही सवाल है... आपका, और मैं इस सवाल का सीधा जवाब देता हूं। बाबू जी एम.एल.ए. हो जाने के बाद आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। पर जब मैं पूछता हूं कि अब से पहले आप जिन लोगों को यहां से एम.एल.ए. बना चुके, उन लोगों ने आपके लिए क्या किया? कितने तीर मारे? कितने मैदान जीते? तो फिर आप बाबूजी ही से यह सवाल क्यों करें? अब तक तो आप लोगों को इसका आदी हो जाना चाहिए था कि जिसे वोट दिया जाता है, वह आपके लिए कुछ करता-वरता नहीं। पर बाबूजी और दूसरों में एक फ़र्क जरूर है। यह दूसरों की तरह आपसे झूठे वादे नहीं कर रहे हैं। यह एलेक्शन मेनिफेस्टो तो नहीं बंटवाते और सबसे बड़ी बात यह है कि इनका पेट कई पुश्तों से भरा हुआ है। आप अगर फ़िर किसी भुक्खड़ को बावरचीख़ाने का दारोग़ा बनाना चाहें तो आपकी मरजी। मगर पांच बरस फिर फ़ाक़े ही करने पड़ें तो यह मत कहियेगा कि भैया बात तो एम.एल.ए. साहब सोलह आने पाव रत्ती खरी कह गये थे।<br /> वह रुक गये क्योंकि एक नौजवान की गांधी टोपी बीच में खड़ी हो गयी थी।<br /> एम.एल.ए. साहब मुस्कराकर बोले - कहिए मियां? टोपी ने कहा - सरकार ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है साहब...<br /> एम.एल.ए. साहब ने टोक दिया - बहुत कुछ किया है। गेहूं तीन सेर से ढाई सेर का कर दिया गया है ताकि लोगों को भूखे मरने में आसानी हो। क्या बात करते हो साहबजादे। अरे इस सरकार ने तो मरने तक पर टैक्स लगा दिया है। कहां रहते हो तुम, क्या किया है सरकार ने। कभी सेर भर चावल उधार दिया है उसने आपको? टैक्स में कभी मोल-तोल किया है आपने। सरकार है कि बाटा की दुकान? एक रेट बांध दिया है। जिंदगी नक़ली मिलेगी पर दाम ऐसी जिंदगी का वसूलेगी जैसे यह जिंदगी आर्डर भेज कर ख़ास आप लोगों के लिए ऊपर से मंगवायी गयी है। क्या किया है सरकार ने जरा मैं भी तो सुनूं?<br /> बिचारी कमसिन टोपी घबरा गयी। भरे मजमें में चोरों की तरह खड़ी रह गयी। थूक घोंटकर बोली - सरकार ने क्या पन-बिजली द्वारा...<br /> टोपी टोक दी गयी - एक मिनट मियां। आपने अच्छा याद दिलाया। पन-बिजली की बात तो मैं भूल ही गया था। सरकार ने पानी से बिजली तो जरूर निकाली है मियां पर दोस्तो, इसे कहते हैं चोरी और उस पर सीनाजोरी। असली घी अब दवा के लिए नहीं मिलता। असली मक्खन किसी को लगाने तक के लिए नहीं मिलता और यह श्रीड्डष्ण का देश कहा जाता है। चावल में इतना कंकर होता है कि कभी-कभी यह ख्याल होता है कि चावल में कंकर नहीं बल्कि कंकर में चावल मिला हुआ है। एक पानी बचा था जिसे पीकर लोग जीते थे तो सरकार ने उस पानी की बिजली निकाल ली। अरे बिजली ही निकल गयी तो पानी में रहा क्या? यह हिजड़ा पानी पीकर नयी नस्ल का क्या हाल होगा साहब? और सितम जरीफ़ी यह कि पानी की बिजली निकाल ली और वाटर टैक्स बढ़ा दिया। आप पूछते हैं कि बाबूजी एम.एल.ए. होने के बाद क्या करेंगे? बाबूजी कोशिश करेंगे कि पानी की निकली हुई बिजली पानी में वापस मिला दी जाये...<br /> इस बार बाबूजी के आदमियों को ताली नहीं बजानी पड़ी। सामने बैठे हुए बच्चे तो कब के सो चुके थे, पर यह बात बड़े बूढ़ों की समझ में आ गयी।<br /> बिचारी कमसिन गांधी टोपी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।<br /> दूसरे दिन शहर के राजनीतिक वातावरण में हलचल मच गयी। किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि बेपढ़े लोगों को कैसे समझाया जाये कि पानी हिजड़ा नहीं हुआ। और दूसरे ही दिन एम.एल.ए. साहब के इशारे पर बाबूजी ने तुरुप का एक्का चल दिया। लाउडस्पीकर पर एलान किया गया कि बाबूजी खास अपने खर्च पर शहर में एक सौ पचास कुएं खुदवायेंगे और दो सौ कुओं की सफाई करवायेंगे।<br /> सारी राजनीति धरी रह गयी। एलेक्शन मेनिफ़ेस्टो रद्दी बाजार में आ गये। अखिल भारतीय नेताओं ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया पर पानी का हिजड़ापन न गया और बाबू द्वारका प्रसाद चुनाव जीत गये।<br /> मैं तो उसी रात वाली मीटिंग में एम.एल.ए. साहब का क़ायल हो गया था। पर फिर बात आयी गयी हो गयी। हां, जब चुनाव के दिन आते तो मुझे एम.एल.ए. साहब की याद जरूर आती और मैं सोचने लगता कि आजकल वह किसका चुनाव लड़ा रहे होंगे। बात कभी इससे आगे नहीं बढ़ी कि एक दिन फिर उनकी भनक मिली।<br /> चुनाव ही के दिन थे। कम्युनिस्ट पार्टी के एक दोस्त ने अपनी तरफ़ से एक लतीफा सुनाया।<br /> बोला-एम.एल.ए. साहब ने तो नाक में दम कर दिया है, यार। क्या-क्या तरकीबें सूझती हैं उन्हें अब वह कांगरेसी हो गये हैं। एक बीहड़ इलाक़े में कैन्वेसिंग करने गये। उस कांस्टिटुएंसी में हम लोग चार साल से काम कर रहे हैं और यकीन था कि इस चुनाव में हम ही जीतेंगे कि बिटिया रानी ने एम.एल.ए. साहब बुक कर दिया और साहब उस आदमी ने एक घंटे में हमारी चार साल की मेहनत पर पानी फेर दिया।<br /> मैं हंस पड़ा - हुआ क्या?<br /> वह बोला - हुआ वह जो कोई सोच भी नहीं सकता था। हम लोगों ने सारा जोर इस पर लगाया था कि उस क्षेत्र में एम.एल.ए. ने ट्यूबवेल लगवाने का वादा किया था। जाहिर है कि वादा पूरा नहीं हुआ तो हम लोगों ने तय किया कि चुनाव की हर मीटिंग में यही एक सवाल उठाया जाये। पर एम.एल.ए. साहब ने पैदली मात दे दी और अब इस चुनाव में तो हम लोग वहां से जीत नहीं सकते। क्या सूझती है कमबख्त को!<br /> कहते हैं कि खड़ी दोपहर में किसानों के एक परिवार ने देखा कि एम.एल.ए. साहब साइकिल चलाते चले आ रहे हैं। साइकिल के कैरियर पर मज+बूत रस्सी से एक बक्स बंधा हुआ है।<br /> बूढ़ा किसान बोला - लगि रहा कि ओट की फसिल आय गयी तनी पानी खींच लिया रे।<br /> छह-सात साल का एक लड़का रस्सी-डोल ले कर कच्चे कुएं की तरफ़ लपक गया। इतने में साइकिल पास आ गयी। किसान खड़े हो गये।<br /> बूढ़े किसान ने सलाम किया-सलाम एमएल्ले साब।<br /> वह साइकिल से उतरते हुए बोले-सलाम भाई, सलाम। क्या हाल चाल हैं?<br /> नौजवान किसान बोला - अहाल चाल कैयसा साब खाये को केत मिलत ना बा। हाल चाल कहां से होई...<br /> एम.एल.ए. साहब इस बात को साफ टाल गये। वह तीन-साल के उस बच्चे के सर पर प्यार से हाथ फेरने लगे, जो उनकी तरफ़ ग़ौर से देख रहा था। बोले-अरे, यह तो जरा नहीं बढ़ा।<br /> नौजवान किसान खड़ी बोली में बोला - इ वह लड़का नहीं है जेको आप पांच बरस पहिले देख गये रहे। वह तो आप ख़ातिर कुंए से पानी खींच रहा है। चुनाव में एही तो लंबरी खराबी है कि पांच बरिस के बाद होता है। भेंट-मुलाकात का चानस नहीं भिड़ता।<br /> अधेड़ उम्र वाला बोला - भैया त आपको देखते ही ताड़ गये रहे कि होय न होय चुनाव का जमाना आगइल बाय नहीं त भला आपका दरसन होत इ खड़ी दुपहरिया मां!<br /> एम.एल.ए. साहब मुसकराते रहे। उनकी मुसकराहट में एक शिकन तक नहीं पड़ी। बोले - कह लो भई, कह लो। तुम लोग नहीं कहोगे तो क्या कहने वाले किराये पर बुलाये जायेंगे रूस या चीन से तुम लोग यह सोचते हों ना कि एम.एल.ए. साहब पांच बरस के बाद आते हैं और वह भी वोट मांगने पर भई राम अवतार, हम तो हैं खल्क के ख़ादिम - क्या कहते हैं, हां, जनता के सेवक और जनता खाली इस गांव के आस पास तो रहती नहीं। सारे सूबे, मतलब पर देश का चक्कर लगाना पड़ता है। जब तक इधर का नंबर आये-आये पांच बरस बीत जाते हैं। रुपये की तरह बरस की कीमत भी बहुत लटक गयी है। दन से ख़तम हो जाता है।<br /> लड़का पानी ले कर आ गया और एम.एल.ए. साहब कुल्ली करने और हाथ-मुंह धोने में लग गये। पर बोलते भी जा रहे थे कि जो वह न बोलते तो इसका ख़तरा था कि नौजवान किसान फिर कोई टेढ़ी बात शुरू कर देगा - अब साइकिल नहीं चलायी जाती। थक जाता हूं। पर क्या करूं, न आऊं तो तुम लोग ताना दोगे।<br /> बूढ़ा किसान बोला - एक ठो मोटर कौन लिजिए। सब झंझटे खतम हो जायी।<br /> एम.एल.ए. साहब आख़िरी कुल्ली करने के बाद बोले - क्या बात करते हो? अरे हम वह नहीं हैं जो मोटर पर चढ़ के इंकिलाब की ख्बर सुनाते फ़िरते हैं। और क़ौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ। जनता तो धूप में जले और जनता का ख़ादिम मोटरों पर दनदनाता फिरे, तो लानत है उस आदमी पर।<br /> बूढ़ा किसान लाजवाब-सा हो गया। बोला - बाकी...<br /> पर एम.एल.ए. साहब भला उसे कहां बोलने देते। बात काट के बोले-न बाक़ी न जमा। इंदिरा गांधी एक दिन हम से खुद बोलीं कि एम.एल.ए. भाई, हमको भाई कहती है। रक्षा बंधन पर जो मैं दिल्ली न जाऊं, तो फूल जाती है, हां तो क्या कह रहा था मैं कि वह एक दिन खुद बोलीं कि एम.एल.ए. भाई, कहिए तो आपको एक आधा मोटर खरिदवा दूं। मैंने कहा, बिटिया मुझे तो माफ़ ही रक्खो। हमको हवाई जहाज पर चढ़ के जनता के दुःख-दर्द का तमाशा देखने का कोई शौक नहीं है। भरी सभा में जो मैंने तड़ाक से यह कहा तो बिटिया का मुंह इत्ता-सा हो गया - वह रुक गये और शेरवानी की जेब से पानों की डिबिया निकाल कर पान खाने में लग गये।<br /> किसान परिवार मुंह खोले इस इंतिजार में कि आगे क्या होगा।<br /> एम.एल.ए. साहब ने पान खाने और डिबिया को जेब में रखने के बाद फिर बात का सिरा थामा - तो बिटिया खिसिया के हंसने लगीं। अरे भई, हम क्यों दबें किसी से। हम सियासत, मतलब राजनीति का काला व्योपार तो करते नहीं। खरे आदमी हैं और खरी बोलते हैं।<br /> नौजवान किसान तक पर रोब पड़ गया। पूछने लगा - आप परधान मंतरी से ई बोल दिया?<br /> वह बोले - क्यों न बोलता। भाई दीनदयाल शर्मा की तरफ़ मुड़ के बोलीं - हम इस साल एम.एल.ए. भाई को टिकट देना चाहते हैं। शर्मा जी पूछने लगे, कितने टिकट दे दूं। मैने पूछा, सनीमा ओनीमा के टिकट की बात हो रही है क्या? इस पर शर्मा जी झेंप गये और बिटिया खिलखिला के हंसने लगीं। जब हंसी ख्तम हुई तब हमने बिटिया से कहा कि हम तो गांधी जी के नाम लेवा हैं। चुनाव हरगिज नहीं लड़ेंगे। पर जो हमको ख़ुश करना चाहती ही हो तो सेठ धरमदास को टिकट दे दो। अब मेरी बात तो वह टाल नहीं सकती थीं। जगजीवन राम, दीनदयाल शर्मा, ए साहब चावन साब ने एड़ी चोटी का ज+ोर लगा दिया कि धरमदास को किसी तरह टिकट न मिलने पाये। पर बिटिया ठन गयी कि एम.एल.ए. भाई ने जिंदगी में पहली मरतबा तो कुछ मांगा है। टिकट तो उसी को मिलेगा, जिसे भाई टिकट दिलवाना चाहेंगे। तो सेठ साहब को टिकट मिल गया और चुनाव का सारा भार मेरे सर आया। अब घूम रहे हैं गांव-गांव वोट मांगते<br /> नौजवान बोला - ए साहब आप का कहा सिर आंख पर। पर हम काहे को वोट दें आपके कहे से? बदले में हम्में का मिलेगा? पिछले चुनाव से पहिले आप बचन दे गये रहे कि चुनाव के बाद हिया ट्युबबेल लग जायेगा। कहां है ऊ ट्युबबेल?<br /> एम.एल.ए. साहब को ताव आ गया। बोले - क्या कही, नहीं लगा वह ट्युबबेल? अभी ख्बर लेता हूं बिटिया की। ज+रा वह बक्सा उतरवाना -<br /> साइकिल के कैरियर से बक्सा उतर कर उनके सामने आया उन्होंने उसे खोला। उसमें एक ड्राई बैट्री सेट था। लकड़ी का एक चौकोर तख्+ाता था जिसमें दो बल्ब लगे हुए थे। दो प्वाइंट्स थे। टेलिफोन का एक चोंगा था। एम.एल.ए. साहब ने चोंगे का प्लग लगाया। तख्+ते को बैट्री से जोड़ा दोनों बल्ब जलने-बुझने लगे किसानों का मुंह खुले का खुला रह गया। पर एम.एल.ए. साहब उनकी तरफ देख ही नहीं रहे थे। वह तो गुस्से में नंबर डायल कर रहे थे। नंबर मिल गया। यह धाड़े - हलो कौन? जगजीवन राम? अरे भई आपसे कौन बात कर रहा है। मैं एम.एल.ए. बोल रहा हूं। नमस्ते नमस्ते। ज+रा प्रियदर्शनी को फ़ोन दीजिए। अब आप प्रियदर्शनी को नहीं जानते? अरे साहब प्रइम मिनिस्टर। वजीरे-आजम। परधान मंत्री। अब समझे कि अरबी फ़ारसी में भी बोलूं? क्या लोग हैं - क्या कहा? सो रही हैं। अरे तो जगा दीजिए साहब। आप क्या मक्खी झल रहे हैं -<br /> उन्होंने किसानों की तरफ देखा जो उनके रोब के बोझ से दबे जा रहे थे। बूढ़ा किसान तो डरा-डरा-सा लग रहा था कि कहीं पता चल गया कि जगजीवन राम पर उसके पास से झाड़ पड़ी है और पुलिस ने पूछ गछ शुरू की तो वह क्या जवाब देगा। बोला - अरे रहे देई, भुला गइल हो इहें, ट्युबबेल कहां भागल जात बा लग जाई।<br /> एम.एल.ए. साहब कहां रुकने वाले थे। बोले-रहने कैसे दूं जी, झूठा तो मैं बना ना - हलो, बिटिया? यह सब क्या आफ़त मचा रक्खी भई तुमने? ऐं? एक ट्युबबेल नहीं लगवा सकती तो परधान मंतरी बनी क्या बैठी हो? इस्तेफ़ा देके छुट्टी करो - नहीं नहीं नहीं, इस बहानेबाजी से काम नहीं चलेगा - अरे अमरीका से ट्युबबेल नहीं आया तो हम क्या करें। तुम तो वहां दिल्ली में बैठी हो, जनता को सामना तो मुझे करना पड़ता है - क्या कहा? मार्च तक ज+रूर लग जायेगा। ठीक है। मार्च में अब कितने दिन रह गये हैं। पर कान खोल के सुन लो कि जो मार्च तक ट्युबबेल न लग गया तो मैं फ्लोर क्रास करके अपोजिशन में मिल जाऊंगा और जो मैं अपोजि+शन में चला गया तो समझ लो कि न तुम्हारी पार्टी की ख़ैर है न तुम्हारी सरकार की - हाँ, हाँ, ठीक है। अब बंद करो फोन, तुम्हें तो कोई काम-धाम है नहीं, बस फोन ले कर बैठ गयीं।<br /> एम.एल.ए. साहब ने फ़ोन रख दिया और डरे हुए किसानों की तरफ़ देखकर उदासी से मुसकराते हुए बोले - तुम लोगों की वजह से झाड़ पड़ गयी बिचारी पर। मगर अब मार्च नहीं तो अपरैल तक ट्युबबेल ज+रूर लग जायेगा।<br /> उन्होंने बक्सा बंद किया। उसे नौजवान किसान की तरफ सरकाते हुए बोले - ज+रा इसे साइकिल पर चढ़ा दो। नौजवान किसान का सारा विरोध ख़त्म हो चुका था। जो आदमी प्रधान मंत्री को डांट पिला दे उससे डरना चाहिए।<br /> तो एम.एल.ए. साहब अपने टेलिफोन समेत साइकिल पर चले गये और कम्युनिस्ट पार्टी यह सोचती रह गयी कि लोगों को यह कैसे बतायें कि फोन यूं नहीं किये जाते। सुनेगा कौन, क्योंकि यह तो आंखों देखी बात थी। जब तक पार्टी वालों को पता चले यह बात जंगल की आग की तरह फैल गयी कि प्रधान मंत्री पर एम.एल.ए. साहब की डांट पड़ गयी और उन्होंने खुद वादा किया है कि मार्च में ट्युबबेल लग जायेगा।<br /> चुनाव का नतीजा क्या निकला यह मुझे नहीं मालूम। पर मैं सोच में पड़ गया। यह एम.एल.ए. साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी हैं। यानी यह आदमी तो कहीं रुकने वाला ही नहीं, धूल में रस्सी बटने की कहावत भी साफ़ समझ में आ गयी और जी चाहने लगा कि एम.एल.ए. साहब से मिला जाये। पर जिंदगी के अपने चक्कर होते हैं। आदमी जिससे मिलना चाहता है उसी से नहीं मिल पाता और जिनसे नहीं मिलना चाहता उनसे बार-बार मिलना पड़ता है और हर बार यह साबित करना पड़ता है कि उनसे मिल कर बड़ी खुशी हुई।<br /> जिंदगी की तमाम भाग-दौड़ के बावजूद एम.एल.ए. साहब मेरे दिमाग़ के एक कोने में पड़े रहे और मैं उनके बारे में सोचता रहा। पर उनसे मिलने की कोई शक्ल न निकली क्योंकि हम दोनों के क्षेत्र अलग-अलग थे। वह राजनीति के ट्रेव्लिंग एजेंट थे। उठल्लू चूल्हे। आज यहां और कल वहां और चूंकि राजनीति उनका आदर्श नहीं थी बल्कि केवल पेशा थी इसलिए उनका कोई एक मंच भी नहीं था। जैसे रंडियां मुजरे का बीड़ा लेती हैं। वह चुनाव का बीड़ा लिया करते थे। उन्हें इससे मतलब नहीं था कि चुनाव लड़ कौन रहा है। जनसंघ से लेकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तक वह सबका चुनाव लड़ाने को तैयार रहते थे और चुनाव लड़ाते तो ऐसा कभी नहीं लगता कि वह किराये पर लाये गये हैं। लगता कि जो कुछ कह रहे हैं वही उनके दिल में है। उनके जानने वाले उनके रेल-टिकट को देख कर भांप लिया करते थे कि चुनाव कहीं होने वाला है? फ़र्स्ट क्लास में सफर करते तो बताये बिना लोग जान लेते कि चुनाव कम-से-कम असंबली का है। सेकेंड में दिखाई देते तो इसका मतलब यह निकलता कि चुनाव म्युनिसिपैलिटी या टाउन एरिया का है। थर्ड में होते तो मतलब यह कि अपने किसी काम से मजबूरन यात्रा कर रहे हैं।<br /> कवि कवि सम्मेलन मारते हैं मां-बाप चांटा मारते हैं। पहलवान दंगल मारते हैं। छैले आंख मारते हैं। अमरीका वाले बम मारते हैं। एम.एल.ए. साहब चुनाव मारा करते थे।<br /> चुनाव के दिन आते तो महीनों पहले से उनकी आव भगत शुरू हो जाती। भांत-भांत के लोग उनके घर पर दिखाई देने लगते मोल-तोल शुरू होता। चाय चल रही है। पुराने चुनावों के हथकंडे सुनाये जा रहे हैं और साथ ही साथ एम.एल.ए. साहब यह भांपने में लगे हैं कि असामी कितने में कटेगा - एक आध बार तो ऐसा भी हुआ कि एम.एल.ए. साहब को पता चलता कि उन्होंने एक ही कास्टिटुएंसी के दो उम्मीदवारों से पैसे ले लिये हैं। अब वह धर्म-संकट में पड़ जाते। पर वह आदमी नमक हराम नहीं थे। थे? देखिए यह बताना तो भूल ही गया कि एम.एल.ए. साहब का देहांत हो चुका है और यह लेख नहीं श्रदांजली है। उन्हें थे लिखना बड़ा अजीब लग रहा है। हो सकता है कि ऊपर भी कोई चुनाव हो रहा हो और एम.एल.ए. साहब ने यहां का बीड़ा ले लिया हो। क्योंकि जो आदमी इतना जीवित हो वह मर कैसे सकता है।<br /> उनके मर जाने से भारतीय डिमाक्रेसी का इतना बड़ा नुक़सान होगा कि मैं कह नहीं सकता। क्योंकि उनके सिवा भारत में मुझे कोई पक्का राजनीतिक दिखाई ही नहीं देता। चुनाव उनका पेशा भी था और जिंदगी भी। चुनाव हारने या जीतने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी और यही उनका सबसे बड़ा गुण था।<br /> क्योंकि घपले तो चुनाव हारने या जीतने के बाद ही शुरू होते हैं। जो जीत जाते हैं वह घूस खाना शुरू कर देते हैं और जो हार जाते हैं वह डिमाक्रेसी बचाओ आन्दोलन चलाने में लग जाते हैं और उस वक्त तक यह आंदोलन चलाते रहते हैं जब तक कि खुद चुनाव न जीत लें, चुनाव जीत कर वह घूस खाने में लग जाते हैं और डिमाक्रेसी बचाओ आन्दोलन उनके हाथ में आ जाता है जो अब चुनाव हारे हैं।<br /> यही कारण है कि एम.एल.ए. साहब कभी भारतीय प्रजातंत्र के भविष्य से मायूस नहीं हुए। उनका कहना था कि कोई-न-कोई तो चुनाव हारेगा वह अगले पांच बरसों तक प्रजातंत्र बचाओ आंदोलन अवश्य चलायेगा क्योंकि यदि इस बीच में प्रजातंत्र का देहांत हो गया तो फिर उन्हें चुनाव जीतने का अवसर ही नहीं मिलेगा।<br /> उनका थीसिस यह था कि भारत में प्रजातंत्र चुनाव हारने वालों की अथक कोशिशों की वजह से बचा हुआ है और साहब आप बुरा मानें या भला, इस मामले में मैं एम.एल.ए. साहब से सहमत हूं।<br /> सुना है कि मरने से कुछ ही दिनों पहले वह एक आल इंडिया चुनाव हारन कमेटी के नाम से एक अखिल भारतीय पार्टी बनाने की सोच रहे थे और इस सिलसिले में बहुत से सुप्रसिद्ध चुनाव हारने वालों से उनकी बातचीत चल रही थी। यदि यह पार्टी बन गयी हो तो यह अपनी तरह की पहली पार्टी होती और विश्व राजनीति के इतिहास में उनका नाम सोने के अक्षरों से लिखा जाता, पर उनका नाम था क्या? उनके पिता के सिवा उनका नाम किसी को याद नहीं, क्योंकि तमाम लोग उन्हें एम.एल.ए. साहब ही के नाम से जाना करते थे। उनकी पत्नी तक उन्हें एम.एल.ए. साहब ही कहा करती थीं। मैंने वोटरों की लिस्ट देखी तो पता चला कि उसमें उनका नाम ही नहीं है, वह वोटर बने ही नहीं। उनका कहना था कि जो वह वोटर बने तो किसी-न-किसी उल्लू के पट्ठे को वोट देना ही पड़ेगा और वह किसी को इस लायक़ ही नहीं समझते थे कि उसे वोट दिया जाये।<br /> बहुत छानबीन के बाद पता चला कि उनका नाम लतीफ़ अहमद था। नास्तिक थे इसलिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मौलाना कहे गये। जल्दी में पुकारना हो तो मौलाना लतीफ अहमद पुकारने में देर लगती थी और जब तक नाम पूरा हो, यह एक-आध फर्लांग निकल जाया करते थे, क्योंकि इन्हें तेज चलने का खब्त था। ख़ाली मौलाना पुकारो तो डिपार्टमेंट ऑफ थियालोजी का कोई विद्यार्थी मुड़ पड़ता। उन दिनों यूनिवर्सिटी में १० या ११ लतीफ़ अहमद थे। तो मौलाना लतीफ़ अहमद को जल्दी में पुकारने लाय+क बनाने के लिए एम.एल.ए. कर दिया गया।<br /> पहली जनवरी १९२२ को सवेरे चार बजे पैदा हुए।<br /> इकत्तीस दिसंबर १९७४ को मरे।<br /> होश संभालने से लेकर होश गवाने तक केवल चुनाव लड़ाते रहे।<br /> उन्होंने अपने पीछे एक बाप, दो माएं और एक पत्नी छोड़ीं।<br /> एक आदमी की पूरी जि+ंदगी इन तीन जुमलों में आ गयी। तीन जुमले भी मरने के बाद मिलते हैं। जिं+दगी तो एक जुमले में आ जाती है। जन्मदिन - जो शायद इसलिए महत्त्वपूर्ण होता है कि उसके सहारे मरने के दिन गिनने में आसानी होती है।<br /> पर एम.एल.ए. साहब चुनाव हारने वालों को सदा याद आते रहेंगे। उनके मर जाने से चुनाव का मजा आधे से कम रह गया। भारतीय प्रजातंत्र को उतना नुकसान श्रीमती गांधी या श्री जयप्रकाश नारायण मिल-मिला कर भी नहीं पहुंचा सकते, उसे उतना नुकसान मौत के फ़रिश्ते ने पहुंचा दिया। मैं मांग करता हूं कि उनकी मौत की छानबीन की जाये। मुझे तो इसमें साफ़ सी०आई०ए० का हाथ दिखाई देता है और यदि ऐसा नहीं तो फिर यह काम - जाने दीजिए। नाम लेने से क्या फ़ायदा। पाकिस्तान के स्वर्गवासी डॉक्टर तासीर का एक शेर याद आया -<br /> दावरे-हश्र मेरा नामये-आमाल न देख।<br /> इसमें कुछ पर्दानशीनों के भी नाम आते हैं॥</span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-11817896903407711882009-04-05T15:48:00.000+05:302009-04-05T15:52:10.559+05:30राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर<div align="justify"><span style="font-size:130%;"> - प्रताप दीक्षित<br /><br /><br /> राही मासूम रजा के निधन के १६ वर्षों बाद उनकी याद और उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के ६० साल बाद भी वे दारूण स्थितियां, जिनके विरुद्ध राही ने कलम उठाई थी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। आजादी का वास्तविक स्वरूप और मूल्य स्थापित नहीं हो सके। मनुष्य के विरोध में उभरने वाली शक्तियां और प्रखर हुई हैं। सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार विघटित हुए हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की स्थितियां बद से बदतर होती गई। प्रगति, आर्थिक विकास और धर्म के नाम पर किया जाने वाला शोषण और आम मनुष्य की उपेक्षा युग सत्य बन गए। ऐसी स्थिति में राही मासूम रजा का साहित्य इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इन स्थितियों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी देश और समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर विभाजित करने वाले राजनीतिकों, तथाकथित समाजसेवियों और छद्म बुद्धि जीवियों का सतत् विरोध करते रहे। अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के कट्टरपांथियों के विद्वेश का शिकार होना पड़ा। साहित्य के इतिहास में, संभवतः कबीर के बाद, राही पहले साहित्यकार है जिन्हें ऐसी हालातों से गुजरना पड़ा। उनके संघर्ष के अनेक प्रसंग हैं। अपने विचारों के चलते मुस्लिम विश्वविद्यालय की नौकरी उन्हें छोड़नी पड़ती है। मुफलिसी के दिनों में पत्नी प्रसव हेतु अस्पताल में थी। लेखक मित्रों कमलेश्वर, भारती, कृष्णचन्दर की मदद से अस्पताल का बिल भरा गया। बम्बई में किसी तरह काम मिलने का सिलसिला शुरू होता है लेकिन न तो राही की बेबाकी कम होती है न ही संघर्ष। यहाँ तक कि हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक द्वारा संचालित प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित उनके उपन्यास आधा गाँव की पूरी रायल्टी भी नहीं दी जाती। जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके उपन्यास ''आधा गाँव'' को तत्कालीन विभागाध्यक्ष नामवर सिंह के समर्थन के बाद भी बिना नामवर सिंह की सहमति के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाता है। राही बदनीयती से कभी समझौता नहीं कर पाए। कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य होते हुए भी जब केरल में साम्यवादी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए मुस्लिम लींग से गठबंधन किया गया तब पार्टी मेंबर होते हुए भी उन्होंने इस गठबंधन का कड़ा विरोध किया। जनसंघ और मुस्लिम लींग दोनों ही उनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक हैं। उनकी साफगोई दूसरों के लिए ही नहीं वरन् स्वयं के संबन्ध में भी है। एक साक्षात्कार में वह अपने फ़िल्मी लेखन के संबन्ध में स्वीकार करते हैं...मैं जानता हूँ कि फ़िल्मों में घटिया लेखन कर रहा हूँ। सब-स्टैर्ण्ड काम करता हूँ ताकि जी सकूं। जियूंगा तभी तो कुछ लिख सकूंगा। मुझे इसकी कोई शर्म नहीं। परन्तु फ़िल्मों में जो लिखना चाहता हूँ वह तो अभी लिख ही नहीं सका।<br /> राही मासूम रजा के साहित्य के विवेचन के परिप्रेक्ष्य में इन स्थितियों और संघर्षों का आकलन इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि किसी साहित्यकार का संपूर्ण लेखन उसके विचारों, जीवन-दर्शन और संघर्षों का ही आइना होता है।<br /> राही मासमू रजा मूलतः उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। यह अल्पज्ञात तथ्य है कि वह एक संवेनशील कवि और सशक्त कहानीकार भी थे। उनकी कविताओं का प्रभाव उनके उपन्यासों, उनके पात्रों और कहानियों पर परिलक्षित होता है। अपने उपन्यासों के प्रकाशन के पूर्व वह कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।<br /> राही का कोई कहानी संग्रह संभवतः प्रकाशित नहीं हुआ है। राही साहित्य के अध्येताओं और शोध करने वालों ने भी उनकी कहानियों के संबंध में कोई चर्चा नहीं की है। राही की कहानियां तत्कालीन पत्रिकाओं सारिका, धर्मयुग, रविवार आदि में बिखरी हुई हैं। राही की पहली कहानी तन्नू भाई शीर्षक से है जो उन्होंने १७ वर्ष की आयु में १९४४ में लिखी थी। पाठकों को ज्ञात होगा कि तन्नू भाई उनके उपन्यास आधा गाँव का एक पात्र है। साहित्य के अध्येता जानते हैं कि प्रत्येक कहानी में एक उपन्यास की संभावना और हर उपन्यास के प्रत्येक पात्र की अपनी कहानी होती है।<br /> कहानी और उपन्यास के बीच अन्तर के सैद्धन्तिक प्रश्न को यदि विद्वजनों के लिए छोड़ दिया जाए और विषय को केवल लेखक की कहानियों तक सीमित करें तब भी यह तो तय है कि समय के संग्रहलय में किसी रचनाकार की एक रचना भी बची रह जाती है तो साहित्य के इतिहास में लेखक का नाम अक्षुण्ण हो जाता हैं। <br /> समीक्षकों ने राही मासूम रजा के साहित्य को साम्प्रदायिकता के विरूद्ध एक जेहाद के रूप में परिभाषित किया है। इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। परन्तु राही की कहानियों से लेखक की संवेदना के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। मनुष्य के स्वप्न, अभाव, शोषण, रिश्तों की संवेदनहीनता, मनुष्यता की अवमानना तज्जनित उसके अकेलेपन का चित्रण उनकी कहानियों में मिलता हैं। यहाँ तक कि आज की सर्वग्रासी विभीषिका बाजारवाद का भी उन्होंने पूर्वालोकन कर लिया था।<br /> दरअसल किसी साहित्यकार के रचनात्मक संघटन में इतिहास, परिवेश और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है। परन्तु सभी के लिए अपने समय के दौर की रचनात्मकता के साथ आसान नहीं होता। कारण इतर हैं। जरूरत होती है। संघर्षगामिता, प्रखर दृष्टि और ईमानदारी की। राही नई-नई मिली आजादी या कहा जाए सत्तापरिवर्तन के समय युवा हुए थे। वह देश के बटवारे को कभी स्वीकार नहीं कर सके। आजादी के बाद के हालातों साम्प्रदायिकता, विषमता, शोषण, भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी के लिए जलालत के अतिरिक्त कुछ बचा था तो उसकी आँखों में अधखिले सपने और एक विशाल जनसमूह उन सपनों की भी असामयिक मृत्यु के लिए अभिशप्त हो गया। राही की कहानियां इन सबके लिए जिम्मेदार शक्तियों को कटघरे में खड़े करने की कोशिश हैं।<br /> राही मासूम रजा की कहानियों के परिपे्रक्ष्य में उनका साहित्य दो ध्रुवों पर स्थित दिखाई देता हैं। एक छोर पर उनकी कहानियाँ साम्प्रदायिकता, सामाजिक-राजनीतिक असमानताओं, पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों के खिलाफ एक अनवरत युद्ध है जो सपनों को सच करने के लिए लड़ा जा रहा है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था स्वतंत्रता, न्याय, समता आदि की व्याख्या अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने ढंग से करती है। लेखक की नियति उससे टकराना है।<br /> दूसरी ओर उनकी कहानियों में जगह-जगह पर ख्वाबों, परछाइयों,धुंध और सन्नाटे हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से वह मिथक, इतिहास और संस्कृति में मानवीय अस्मिता की तलाश करते नजर आते हैं। चम्मचभर चीनी में पौराणिक प्रसंग को लेखक वर्तमान संदर्भों से जोड़ता है। देवताओं ने समंदर को मथा/जहर भी अमृत भी मिला/ मथे मेरी तरह/एक कतरे को जरा/किसने अपने को मथा/मेरे सिवा/मेरे ही जैसे दीवानों की तरह।<br /> दिल एक सादा काग़ज-खोए हुए सपनों और परछाइयों की तलाश का प्रयास है। जैदी विला एक ऐसा प्रतीक है जिसके माध्यम से लेखक अपनी आत्मा, जमीन, इसांनियत खोज रहा है।<br /> राही की कहानियों में आत्मा पर चढ़ी धूल है, खुशबू में बसा अंधेरा है, यादे हैं, चाँदनी आँखों की अफ्सुरदा है, बिछुड़ गई परछाइयाँ है, सहमी खामोशी है, सिकुड़ गए सपने हैं, चुटकी भर नींद है। परन्तु मंजिल दूर है। अब तो कृष्ण भी परदेश गया है। राही को ही अपने खूने दिल से राहों पर फूल खिलाने हैं।<br /> प्रेमचन्दोत्तर कहानी ने कई पड़ाव पार किए। उस समय समाज जिस ध्रुवहीनता में धूम रहा था, कहानी उसी में रास्ता तलाश रही थी। कहानी की अन्तर्वस्तु और स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आए। तमाम कथा आन्दोलनों से परे कहानियों के संबंध में राही की अपनी मान्यताएं हैं उनका मानना है कि कथाकार के लिए जरूरी है कि वह उन लोगों को अच्छी तरह जानता हो जिनकी वह कहानी सुना रहा है। वह यह भी मानते हैं कि साहित्य में मूल प्रश्न वास्तविकता का नहीं बल्कि वास्तविकता की तरफ़ लेखक के दृष्टिकोण का होता है। राही के कथा साहित्य के विश्लेषण से मालूम होता है कि उन्हें इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ है। उनकी रचनाओं में मूल्यों की स्थापना का कथात्मक प्रयास है। उनकी कहानियों में जीवन की गहरी और व्यापक समझ पाई जाती है।<br /> उनकी कहानियों की रचना प्रक्रिया के संबंध में राही की पहले प्लाट सोच कर कहानी लिखना नहीं पसंद करते। दृष्टव्य है कि फ्रांसिस विवियन ने भी दृढ़ता से प्लाट का विरोध किया था। उनकी कहानियों के केन्द्र में कोई व्यक्ति या चरित्र होता है। लेखक की श्रद्धा मानवीय संवेदना में है जिसका केन्द्र मनुष्य होता है। विचार भी इसी माध्यम से आते हैं। राही के अनुसार जीवन के विषय में एक दृष्टिकोण के बिना अच्छी कहानी नहीं लिखी जा सकती। वह कहते हैं कि यदि कहानी युग की सीमाओं को नहीं पार कर पाती तो समाप्त हो जाती है।<br /> राही मासूम रजा की जो भी कहानियां उपलब्ध हो सकी हैं ये उनके कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व तो नहीं करती परन्तु इनके आधार पर उनके सपनों, संघर्ष और विचारों की बानगी अवश्य मिलती है।<br /> चम्मचभर चीनी राही मासूम रजा की १९७६ में प्रकाशित कहानी है। फंतासीनुमा इस कहानी में जीवन की कड़वाहटें, टूटते सपने और अभाव हैं। एक ओर यह मनुष्य के मोहभंग की कहानी है तो दूसरी ओर अटूट जिजीविषा की।<br /> कथ्य की दृष्टि से यह लेखक और उसके मित्र की कहानी है। मित्र जीवन की विसंगतियों और अभावों को स्वीकार नहीं कर पाता। कड़वाहट मिटाने के लिए चम्मचभर चीनी की ही दरकार है, जो है वह चाय के प्याले में मिठास भरने के लिए पर्याप्त नहीं है। लगता है कि यह मित्र लेखक का अपना ही अक्स है। अन्त में लेखक आजिज आकर आइने पर दावात फेंककर मारता है। आइना टूटने से वह राहत महसूस करता है। सन्नाटा चम्मचभर चीनी बन जाता है और चाय मीठी हो जाती है।<br /> चम्मचभर चीनी जीवन के अभावों, कड़वाहटों और मनुष्य के टूटते सपनों को बचाने की कोशिशों का प्रतीक है। बंद आँखों से देखे गए ख्+वाबों की कहानी। क्योंकि खुली आँखों के सामने जो यथार्थ आता है उसमें जीना मुश्किल हो गया है। समय या तो स्थगित हो गया है या अतीत की ओर चलने लगा है। भविष्य की ओर जाने वाले सभी रास्ते बंद हो चुके हैं। आम आदमी विवश हो गया है ख्वाबों और कविता के अन्दर जीने के लिए। इनके बाहर जो यथार्थ है उसका सामना वह नहीं कर सकता। कविता के बाहर की जि+न्दगी उसके लिए नहीं है।<br /> मंहगाई के बीच सस्ता सिर्फ़ मनुष्य हुआ है। एक चम्मच में बोरी की बोरियां चीनी समा जाती है लेकिन चम्मच नहीं भरती। इस बाजार में हाथ की कीमत एक चम्मच चीनी है। जो कभी भरती नहीं। यह एक चम्मच चीनी मनुष्य की अस्मिता, आत्मा और सपने हैं जिसकी कीमत किसी बाजार में नहीं लगाई जा सकती। जिसका खालीपन कोई बाजार व्यवस्था नहीं भर सकती। बाजारवाद के विरुद्ध, लिखी गई, संभवतः पहली कहानी है।<br /> लेखक बायां हाथ खरीदना चाहता है। क्योंकि उसका बायां हाथ बरसों हुए सुन्न हो चुका है। दाहिना तो पहले ही सलाम करते करते थक चुका है। उससे तो उम्मीद की नहीं जा सकती। लेखक का यह व्यंग्य उन छद्म वामपंथियों पर प्रतीत होता है जो स्वयं जमाने से इस बाजार संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। लेखक पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों पर प्रश्न खड़े करता है।<br /> अंत में मिठास आती है, हाथ में जान भी। परन्तु आइना टूटने के बाद। आइना ही तो आत्म साक्षांत्कार है। आइने में व्यक्ति अपनी ही शक्ल देखता है। आत्ममोह व्यक्तिवाद की ओर ले आता है। बाजार का दबाव भी यही करता है। मनुष्य को खण्डों में विभाजित करता है। आत्ममोह के आइने को तोड़ कर ही बूंद और अपने को मथा जा सकता है। जीवन में मिठास भरने के लिए अपने से बाहर आना ही होगा।<br /> यह छोटी-सी कहानी गहरी विचार दृष्टि और महाकाव्यों की गइराई अपने में संजोए हुए है।<br /> <br /><br /><br />सपनों की रोटी व्यवस्था के शव विच्छेदन की कहानी हैं । समाज, राजनीति और व्यवस्था के अन्तविरोधों पर व्यंग्य कथा लगती यह कहानी राही की अन्य रचनाओं की भाँति मनुष्यता की तलाश कहानी है। अथवा कहा जाए कि एक प्रकार से मनुष्य के सपनों की अथवा स्वयं की खोज की कहानी है।<br /> कहानी का कथानक छोटा लेकिन इसका फलक बड़ा है। कहानी का मुख्य पात्र एक लेखक है जिसकी एक जेब में पी-एच०डी० की डिग्री और दूसरी में उसके लिखे नए उपन्यास के कुछ पन्ने हैं। वह स्वयं कहीं गुम हो गया है। तलाश उसी को करनी है। लेखक इस खोज के माध्यम से राजनीति, मंहगाई, सरकारी तन्त्र, भ्रष्टाचार, सरकारी नौकरियों की स्थिति और यथार्थ, लोगों की सोच का यथार्थ विश्लेषण करता नजर आता है। अपने को कहीं न पाकर अन्त में वह सोचता है कि शायद वह मर चुका है जिसकी उसे ख़बर नहीं हुई हैं। वह निराश लौट कर पलंग पर अपने को सोए हुए पाता है। उसे इत्मीनान होता है कि यदि वह सो रहा है तो वह सपने भी देख रहा होगा। ग़नीमत है कि उसके सपने तो सुरक्षित हैं।<br /> लेखक इस कहानी में व्यवस्था पर निरन्तर कटाक्ष करता है-अगर मुसलमान अपना घर जलवाने, अपने आपको कत्ल करवाने के लिए दंगा शुरू कर सकते हैं तो, सरकारी नौकरी क्यों नहीं कर सकते।''<br /> ज्ञातव्य है कि मुसलमानों पर इस तरह के आरोप केवल साम्प्रदायिक पार्टियों द्वारा ही नहीं वरन् प्रशासन द्वारा भी लगाए जाते रहे हैं। (संदर्भ-विभूति नारायण राय द्वारा इस विषय पर लिखा गया शोध प्रबंध )<br /> इसी प्रकार जातिवाद पर व्यंग्य है-जातिवाद तो साहब हजारों बरस पुराना है। पुरानी शराब है, छूटती नहीं है मुंह से काफी लगी हुई। लेखक बीसवीं सदी में वैज्ञानिक सोच की जगह धर्म की विडम्बना पर व्यंग्य करता है, नौकरी तो उन्हें मिलेगी तो ब्लैड बोर्ड पर श्री, ऊँ० या बिस्मिल्लाह लिख कर फिजिक्स पढ़ाना शुरू करें।<br /> त्रासदी तो यह है कि आम आदमी ने यह दंद फंद सीखे नहीं हैं। सपने देखने के सिवा। लेकिन अब तो सपनों का बाजार भी मंदा पड़ रहा है। जिंदगी बाजार का उतार चढ़ाव होकर रह गई है। यह विडम्बना ही तो है कि मनुष्य की पहचान के लिए जाति और धर्म ही सबसे बड़े गुण बन गए हैं। उसका सिर्फ़ मनुष्य रहना महत्त्वहीन है। जरूरी है कुछ और होना।<br /> सपने, ख्वाबों की तासीर, आत्मा, चीनी मिठास के लिए आदि राही के प्रिय प्रतीक हैं। अपने अंदर गहरे अर्थ और संदर्भ संजोए हुए ऊपर से साधारण से दिखते शब्द मात्र। चीनी की मिठास आत्मीयता की तलाश है। वह रोटी से ज्+यादा सपनों को मनुष्य के लिए आवश्यक मानते हैं। रोटी के बिना मनुष्य कुछ दिन जिंदा रह सकता है। न मिलने पर वह, अधिक से अधिक मर जाएगा। परन्तु यह मृत्यु मनुष्य की होगी। परन्तु सपनों के बिना मनुष्यता ही मर जाएगी। तभी मनुष्य के लिए सपने ज्यादा जरूरी हैं। सपनों के जिन्दा रहने पर बदलाव की संभावना तो रहेगी।<br /> राही की कहानियों में मानवीय जिजीविषा बरकरार रहती है। कहानी के अंत में कहीं चीनी मीठी हो जाती है, कहीं विषम से विषम स्थिति में वह सपनों में खो जाता है।<br /> कथायात्रा के इस क्रम में लेखक की अगली कहानी जो इसी भावभूमि की है वह है-खुश्की का टुकड़ा। यह कहानी मनुष्य के अकेलेपन, उसकी खो गई हँसी, आत्मा की तनहाई के साथ-साथ पूरी उदास पीढ़ी की कहानी है।<br /> कहानी का कथ्य कुछ यूं है-यह उस अकेले और उदास नायक की कहानी है जिसकी आत्मा की तनहाई उसकी पीढ़ी की तकदीर है। इस अकेलेपन से बचने का एक ही उपाय है-यादों में जो खो जाना। अकेलेपन से उदासी और झुंझलाहट रूप बदल-बदल कर आते हैं। रूप बदलना और चेहरे पर चेहरे लगा लेना तो मनुष्य की नियति हो गई है। वह इतना कृत्रिम हो गया है कि बिना मुखोटों के वास्तविक रूप में तो उसे कोई पहचानता भी नहीं। सबके चेहरे, मुस्कानें, हंसी सब नकली हैं। उस आम आदमी की आत्मा को शायद यह नकलीपन गवारा नहीं। वह अपनी नकली मुस्कान एक कबाड़ी को बेच देता है। फिर एक दिन बेइन्तिहा-सा हंसना शुरू कर देता है। शायद यही उसकी असली हंसी है। एक दिन उसकी पत्नी उसकी वही नकली हंसी कबाड़ी से वापस ले आती है। परन्तु कथानायक को वह नकली, एडेल्ट्रेड, इन्फीरियर हंसी नहीं पसंद है। पत्नी रूठ कर मायके चली जाती है। नायक रूठी पत्नी को मनाने के लिए पत्र लिखने के लिए काग़ज ढूढ़ रहा है तभी उसके हाथ पत्नी के कहकहों का सेट'' लग जाता हैं, जो वह भूल गई है। कहकहों का सेट उसके हाथ से फिसल जाता है और हंसी रोशनी की लकीर की तरह निर्बाध बहती रहती है। वह बचाने के लिए हाथ बढ़ाता है परन्तु हंसी का सेट हाथ नहीं आता परन्तु सड़क उससे टकरा कर टूट जाती है।<br /> लेखक की इस कल्पना ,फैंटेसी में कई आयाम हैं। एक ओर यह आदमी के मौलिक अकेलेपन की गाथा है। परन्तु इसमें नई कहानी आन्दोलन के बाद की कहानियों की तरह अकेलेपन को ग्लोरीफाई नहीं किया गया है। यह परिस्थितियों के कारण उस पीढ़ी की नियति बन गई है। हर पीढ़ी के साथ उसकी उदासी जन्म लेती है। इससे निजात तो यादों में ही मिलेगी। लेखक आज की दुनिया में जिस विडम्बना की ओर इंगित करता है कि उसे उसके वास्वतिक स्वरूप में नहीं पहचाना जाता। लेखक बिटविन दी लाइन्स मानो कहना चाहता है कि जाति,धर्म पद, प्रतिष्ठा आदि उसकी पहचान बन गए हैं। लोग एक दूसरे को चेहरे पर चढ़ाए चेहरों से पहचानते हैं। चेहरे ही नहीं लोगों की हंसी, मुस्कान भी नकली हैं।<br /> इस अकेले और अजनबी व्यक्ति के पास है अपना कहने को तो उसकी यादें और अपना एकांत सुख, अपनी हंसी। अगर वह भी खो जाए तो वह क्या करें। हर एक तो नकली चेहरे और नकली मुस्कान के साथ जिंदा नहीं रह सकता। परन्तु उसकी असली हंसी कहीं न कहीं सुरक्षित तो रहती है। यही लेखक का मंतव्य है। कहानी में रिश्तों की कोमलता बरकरार रखने और उसमें ताजगी के लिए कथानायक की पत्नी का कथन न केवल मौजू है बल्कि दिशा भी देता है-दिल में हाथ डाल कर नया पति तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ। शायद पे्रम में ही तासीर है कि जैसे-जैसे पुराना होता है वैसे गहरा होता है। यही कारण है कि हंसी न केवल पति पत्नी के बीच वरन् इस दुनिया में भी रोशनी की लकीर की मानिन्द होती है। इसीलिए उसको तो इस दुनिया में बचाना ही होगा। कहकहों के सेट के लिए चाहे जिस हद तक झुकना पड़े। मनुष्य की हंसी से टकरा कर परिवेश-सड़क-इसमें बाधक ही टूटेगें। मनुष्य की हंसी नहीं। अपने समस्त अकेलेपन, कृत्रिमता, अभावों के बाद भी नायक, उपेक्षित-द्विविधाग्रस्त सही, अपनी मानवीय हंसी के कारण अपराजेय है। कबीर भी कब मरा है। हम न मरिब, मरिहै संसारा<br /> एक जंग हुई थी कर्बला में- प्रकाशन सारिका-जून, १९७० इतिहास का वह कारुणिक प्रसंग जो काल के प्रवाह में पौराणिक आख्यान एवं मनुष्य की श्रद्धा और आस्था का संबल बन चुका है। उसको लेखक ने एक संवेदनशील कथा माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह छोटी-सी रचना संसार के तमाम महाकाव्यों की गइराई समेटे हुए है जिनमें शिखर पर आसीन ज्योतिपुंजों के जीवन को इतनी निकट से देखकर रचा गया है।<br /> कहानी का मदीना संसार के कोटि-कोटि जनों की आस्था का केन्द्र जैनब के नाना मुहम्मद का मदीना है। यह मदीना नहीं जैसे बाहें फैलाए खड़ी माँ है। जैनब की आँखें भर आती हैं। पर रोना किस लिए? आँसुओं की नदियों तो सूख चुकी हैं। ऐसी माएँ ही बहादुर संतानो को जन्म देती है। सिर न झुकाने वाले हुसैन, जिनका नाम ही अमृत बन कर रगों में दौड़ने लगा है, वह कभी मर कैसे सकता है? ऐसे ही शहीदों की शहादत मृत्यु से अमृत की ओर गमन करती है। इसमें उस माँ फातिमा की यश गाथा है जिसने बेटे को चक्की पीस-पीस कर पाला है और सिर बुलंद करने का सबक सिखाया है। उस बहन जैनब का त्याग औेर हिम्मत की जिसने अपने पुत्रों का बलिदान कर दिया और चाहती थी यह सब अपनी आँखों से देखें।<br /> इस छोटी-सी रचना में मनुष्यता, उसके संघर्ष, जिजीविषा और अपराजेयता का इतिहास संजोया गया है। रचना का आप्त वचन है-सिर न झुकाना मनुष्य का अधिकार है। मैं केवल इस अधिकार के लिए लड़ना चाहता हूँ।<br /> यह एक ऐसा युग सत्य है जो सदा सदा सृष्टि के अस्तित्व तक मनुष्य को प्रेरणा देता रहेगा। मृत्यु पर विजय का घोषणापत्र बना रहेगा। इसके साथ ही एक करूण त्रासदी भी है कि न्यायपथ पर चलने वाले को अकेला रह जाना पड़ता है। खुद जल कर दूसरों को रोशनी देनी होती है। चाहे वह आसमान में सूरज हो या कर्बला में हुसैन। अन्याय के सामने सिर न झुकाने वाले हुसैन का सिजदे में झुका सिर कटने के बाद भी नीचा नहीं होता। सूरज के मानिंद आसमान पर बुलन्दियों पर दिखाई देता है।<br /> सहज संवेदनशील कहानी न केवल इतिहास पर नए दृष्टिकोण से प्रकाश डालती है वरन् अपराजेयता का संदेश भी देती है।<br /> राही मासूम रजा ने कहा है कि उनकी कहानियों का आधार व्यक्ति होता है। व्यक्ति केन्द्रित कहानियों में लेखक कहानी के पात्र अथवा चरित्र की पहचान उसके परिवेश, जीवन दशाओं और उसके विचारों में आए परिवर्तनों का समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके करता है। इस प्रकार की कहानियों में कहानी और रेखाचित्र का अंतर बनाए रखना, रचनाकारों के लिए मुश्किल होता है। कहानी जब पात्र के माध्यम से व्यापक संदभोर्ं से जुड़ती है तब वह कहानी का अस्तित्व लेती है। राही मासूम रजा की खलीक़ अहमद बूआ और एम०एल०ए० साहब ऐसी ही कहानियाँ है।<br /> खलीक़ अहमद बूआ-लीक से हट कर अनोखी -प्रेमकथा कही जा सकती है। लौकिक से इहलौकिक पे्रम तक की पे्रम गाथाओं से विश्व साहित्य भरा हुआ है। परन्तु यह अपने ढंग की अलग कहानी है। समाज के लिखित अलिखित विधानों के अनुसार एक अप्राकृतिक संबंधों की प्रेमकथा। समाज में निषिद्ध होने पर भी ऐसे संबंध कमोबेश हर समाज और युग में रहे हैं। कहानी में मूल प्रश्न नैतिकता का नहीं बल्कि निष्ठा, विश्वास, समर्पण और संबंधों की नैतिकता का है।<br /> कहानी का मुख्य पात्र खलीक़ अहमद एक हिजड़ा है जो एक नवजवान रुस्तम को कहीं से भगा कर लाए हैं। पति-पत्नी संबंधों में खलीक़ एक समर्पित पतिव्रता की तरह संबंध निर्वाह कर रहे हैं। वह पाँचों वक्त की नमाज पढ़ने के साथ ही अपने सुहाग रुस्तम के लिए चौथ का व्रत भी रहते हैं। उनको दो ही भय हैं। एक मौत का, दूसरा रुस्तम की बेवफाई की आशंका। बच्चों द्वारा चिढ़ाए जाने, खलीक़ अहमद बूआ मर गई पर वह बच्चों को कोसते, गाली देते हैं। परन्तु उन्हीं बच्चों का चुप रहना, उनका न चिढ़ाना भी नहीं भाता। रुस्तम के संबंध एक वेश्या से हो जाते हैं। खलीक़ अहमद निराश हो शहर छोड़ने की तैयारी में है। तभी एक दिन वह रुस्तम को पीछे के दरवाजे से वेश्या पुखराज के कोठे पर जाते देखते हैं। वह कोठे पर जाते हैं, रुस्तम की हत्या कर देते हैं। वह पकड़े जाते हैं और उन्हे फाँसी हो जाती है। थोड़े दिन बाद लोग उन्हें भूल जाते हैं।<br /> कहावत है कि प्रेम और जंग में सब कुछ जायज है। ऐसी स्थिति में पे्रम के चरम अथवा नफ़रत में मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दोनों के पीछे एक ही भावना होती है। खलीक़ द्वारा रुस्तम को मार दिया जाना अनहोनी नहीं लगता क्योंकि प्रेम विकल्पों के द्वन्द्व में नहीं उलझता।<br /> लेखक ने पात्र का भरपूर मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया है। चिढ़ाए जाने पर ख़लीक़ बच्चों को कोसते, बिगड़ते दिखाई देते हैं। परन्तु यह उनका ऊपरी दिखावा है। वीरान सड़क पर किसी की आवाज न सुनाई देने पर वही ख़लीक़ बड़बड़ाते नजर आते हैं,आज कौनों हरामजादे की आवाज नहीं आ रही। मर बिला गए सब। सन्नाटा उन्हें डराता है। क्योंकि वह मौत से जितना नहीं डरते, उतना सन्नाटे, तनहाई से डरते हैं। वास्तव में मौत का डर भी तो उसी तनहाई के कारण ही होता है। सच तो यह है कि बेपनाह मोहब्बत करने वाले खलीक़ के बच्चे अजीज हैं। उन पर उनका गुस्सा एक दिखावा है। रुस्तम की बेवफाई से दुःखी खलीक़ से पूरे शहर को हमदर्दी हैं। खलीक़ ने रुस्तम का पुखराज के कोठे पर जाना सुना है। रुस्तम ने उनके पास आना भी छोड़ दिया है। यह शहर छोड़ने की तैयारी भी कर रहे हैं। परन्तु वह उस वक्त रुस्तम को मारते हैं जब वह स्वयं उसे अपनी आँखों से पुखराज के कोठे पर जाते देखते हैं। पे्रम में शायद ऐसा ही होता है। बात बेपर्दा न होने तक मन के किसी कोने में संदेह बना रहता है। दिल बेवफाई का यक़ीन नहीं करता।<br /> भाषा की खूबसूरती, रवानगी, अप्रतिम प्रयोग यथा सड़क जाग जाती है। धूप मुंह फेर हंसने लगती है। नीम और पीपल के पेड़ मुंह फेर मुस्कराने लगते, मुंडेर पर बैठी वुजू करती मस्जिद आँखें उठा देखने लगती। लेखक परिवेश का मानवीकरण कर देता है। बिंबों को जीवंत कर चित्र उपस्थित कर देता है।<br /> कहानी के अंत में लेखक समय की इस कटु लेकिन अनिवार्य सच्चाई की ओर इंगित करना नहीं भूलता, फिर वह भी खलीक़ अहमद बूआ को भूल गए।<br /> मार्मिक से मार्मिक चरित्र के लिए लोगों द्वारा भूला दिया जाना समय की नियति है। एक लेखक ही है कि पूरे अमृत या विष को पीकर विभिन्न रूपों में इन्हें सृजित करता है।<br /> इसी क्रम की एक और महत्त्वपूर्ण कहानी है-एम०एल०ए० साहब। कहानी राजनीतिक विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य है। मतदाताओं को बेवकूफ़ बनाने का सिलसिला चुनावों का अहम् हिस्सा है।<br /> कहानी का मुख्य पात्र एम०एल०ए० साहब कहीं के विधायक नहीं बल्कि मौलाना लतीफ अहमद है, जिन्हें संक्षेप में एम०एल०ए० साहब कहा जाता है। परन्तु इस बात को कोई नहीं जानता। एम०एल०ए० साहब का काम चुनावों में अपने तरीके से प्रचार और तकरीरें करना है। उनके लिए पार्टी महत्त्वपूर्ण नहीं। उम्मीदवार चाहे किसी पार्टी से हो या आजाद, जो उन्हें पैसा/पारिश्रमिक देगा उसके लिए वह हाजिर हैं। भोले मतदाताओं को समझाने और उनके प्रचार करने के तरीके ऐसे अनोखे हैं कि माहिर राजनीतिक भी मात खा जाते हैं। राजनीति का इतिहास ऐसे चरित्रों से भरा हुआ है। यह लेखक की खूबी है कि इस चरित्र के परिपे्रक्ष्य में वह राजनीतिक विसंगतियों को ही नहीं उजागर करता बल्कि ऐसे चरित्र को उसकी विवशता, अभावों और करुणा के साथ प्रस्तुत करता है।<br /> कहानी के अनुसार राजनीतिकों की ओर से आम आदमी का मोहभंग तभी हो गया था, आज एम०एल०ए० होने में क्या बड़ाई है। हर सातवां, आठवां आदमी या तो एम०एल०ए० है या होना चाहता है। इसमें कोई नयापन नहीं रह गया है। लेखक इस राजनीति का कोयले की दलाली मानता है। इसमें मुंह तो ज+रुर काला होता है, लेकिन मुट्ठी गरम रहती है।<br /> विडम्बना तो यह है कि मुंह जो मनुष्य के सम्मान, नैतिकता और मूल्यों का प्रतीक है उसकी क्या सिफत! महत्त्वपूर्ण तो मुट्ठी है। अर्थात् धन के आगे मनुष्य का सम्मान, इंसानियत, मूल्य सब व्यर्थ हैं। इस हम्माम में सभी नंगे हैं। काले लोगों के देश में मुंह की कालिख किसे दिखाई देगी। शायद लेखक का मंतव्य है कि जब लिप्सा और अनैतिकता को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है तब मानवीय मूल्य अपना अस्तित्व खो देते हैं।<br /> जनसंघ और मुस्लिम लीग के प्रति लेखक की नापसंदगी एम०एल०ए०साहब की तकरीर में प्रकट होती है नफ़रत के इन ताजिरों से हमें या आपको क्या लेना देना।लेखक इन दोनों ही को साम्प्रदायिक मानता है। मतदाताओं को बरगलाने के सिलसिले में, पानी की बिजली निकाल लिए जाने'' जैसे विनोदात्मक प्रसंग इस बात का प्रतीक हैं। प्रसंग बदल जाते हैं। अभावों, वायदों से मुकरने के निदान के लिए नए-नए बहाने बनाए जाते हैं। एम०एल०ए० साहब की प्रधानमंत्री से वाकी टाकी पर बात, फ्लोर क्रास करने की बात, चुनाव के टिकट को अस्वीकार करने की गप्प आज के परिदृष्ट में सिफारिस के लिए झूठे फोन, पार्टी बदलने की गीदड़ भभकियां, हाईकमाण्ड पर रोब की कहानियां का पूर्वाभास है। लेखक भारतीय प्रजातंत्र की विडम्बनाओं को कहानी के माध्यम के प्रकट करता हैं। कैसी विडम्बना है जो चुनाव जीतते है धूस खाना शुरू कर देते है और हारने वाले प्रजातंत्र बचाओ आंदोलन चलाने में। जब तक वह खुद न जीत लें और घूस खाने में लग जाएं। भारत में प्रजातंत्र हारने वाले की कोशिशों से ही बचा हुआ है।<br /> राजनीतिक विसंगतियों, भ्रष्टाचार, विद्रूपताओं को कथा प्रसंगों, मुहावरों और भाषा संदर्भों के प्रयोग से उद्घाटित किया गया है-धूल में रस्सी बटना, रंडियों के मुजरे की तरह चुनाव का बीड़ा लेना, एक ही चुनाव क्षेत्र में दो-दो उम्मीदवारों से पैसा ले लेना आदि।<br /> कहानी का मुख्यपात्र एम०एल०ए० साहब आम आदमी की तरह इस भ्रष्ट राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा बनने के लिए अभिशप्त हैं। वह सभी की असलियत जानता है इसीलिए किसी उम्मीदवार को वोट देने लायक नहीं मानता। कहानी में एक जीवन दर्शन है। आदमी जिससे मिलना चाहता है उसी से नहीं मिल पाता और जिससे नहीं मिलना चाहता उससे बार-बार मिलना पड़ता है। अथवा जन्मदिन शायद इसीलिए महत्त्वपूर्ण होता है कि उसके सहारे मरने के लिए दिन गिनने में आसानी होती है।<br /> लेखक कहानी के माध्यम से राजनीति की पुनःव्याख्या कर उसकी पर्त दर पर्त उधाड़ता है, जिसकी देश-काल-वातावरण के अनुसार आज जरूरत है। राजनीति के साथ-साथ उन चरित्रों के रेश-रेशे को उधाड़ती यह कहानी आम आदमी के मोहभंग की कथा है। आजादी के बाद में राजनीतिक का जिस तरह स्वरूप विकृत हुआ उसकी यह पुनःव्याख्या करती है।<br /> राही मासूम रजा की एक लंबी कहानी, उनकी श्रेष्ठ कहानियों में एक, सिकहर पर दही निकाह भया सही है। यह सत्तर के दशक के प्रारंभ में धर्मयुग में धारावाहिक रूप ही प्रकाशित हुई और चर्चित रही है।<br /> राही का साहित्य समाज का आइना है। इनके पात्र समाज के हर वर्ग से उठाए गए हैं। प्रत्येक पात्र अपनी आकांक्षाओं, सपनों, कुण्ठाओं, अभीप्साओं के साथ अपने समय का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है। यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि यह पात्र अपने-अपने निजी इतिहास से जुड़े रहने को अभिशप्त हैं। भले ही प्रगति अवरुद्ध होती हो, परम्पराओं, सड़ी गली रूढ़ियों से चिपके रहना इनकी नियति है। अतीत से मुक्ति इन्हें असुरक्षा के गहरे अंधेरे में ढ़केल देती है। ऐसे लोगों, स्थितियों और एहसासों की कहानी है-सिकहर पर दही निकाह भया सही।<br /> कहानी की कथावस्तु आजादी के तत्काल बाद की है। एक जमाने में मीर जामिन अली के निराले ठाठबाट थे। जमींदारी बड़ी न होने पर भी सभी सामंती विशेषताएं-संगीतकार, आसामियों की बेदखली, मुश्कें कसवाना, बेगार, गालियां आदि। उन्हें यकीन नहीं था लेकिन जमींदारी चली गई। वह अतीत की परछाईओं के डर से गाँव छोड़ कर शहर में एक छोटा मकान किराए पर लेकर रहने आ गए। साथ थी उनकी पत्नी अमीना, पुत्रियां रुकैय्या और रजिया। पुश्तैनी नौकरानी मत्तों और उसका पुत्र शौकत। उन दिनों के हिसाब से ग्यारह वर्ष की उम्र में ही जवान होती बड़ी बेटी रुकैय्या की शादी की चिंता से उन्हें नींद न आती। ऊंचे खानदान के लड़के बटवारे में पाकिस्तान चले गए हैं। छोटे खानदान में वह बेटी का विवाह करेंगे नहीं। अन्ततः अपने से केवल तीन-चार बरस बड़े शम्सू मियां से रुकैय्या का निकाह हो जाता है। समय काटने के लिए रजिया को स्कूल में पढ़ाया जा रहा है। शौकत को रजिया बचपन से ही अच्छी लगती है। रजिया का बचपना, अकेलापन और चारों ओर होने वाले परिवर्तन उसे बेचैन करते गए। ऊपर कमरे की खिड़कियों से लाउडस्पीकर पर सिनेमा के एलान सुनती, रात में पानी पीने के बहाने उठकर बेखबर सोए शौकत को देखती। अनजाने ही रजिया और शौकत में प्यार हो जाता है। परन्तु बात खुलने और फैलने पर मत्तों की अपने मालिक के प्रति नमक हलाली और मीर जामिन अली की खानदानी हैसियत की वजह से शादी उनके बीच हो नहीं सकती थी। रजिया की शादी बासठ साल के रंडुए लड़के से तय होती है। जो रजिया की फोटो देख कर शौकत और रजिया के संबंध में, चार-चार खतों के पहुंचने पर भी लट्टू है। खतों की लिखावट की तहरीर रजिया के हाथों की हैः परन्तु निकाह के पहले ही एक रात रजिया और शौकत परछाई बन कर कहीं चले जाते है। जिसमें पहल रजिया की तरफ से होती है।<br /> कहानी समय के परिवर्तनों को आत्मसात् करने की द्विविधा, बदलते मूल्यों और मान्यताओं एवं रूढ़िग्रस्त मानसिकता के अन्तर्द्वन्द्व को व्यक्त करती है। दरअस्ल परिवर्तन में ध्वंस व टूटने और निर्माण दोनों की प्रक्रियाएं साथ-साथ काम करती हैं। इसके साथ चलने से जो लोग छूट जाते हैं। वे निरन्तर पीछे पड़ते जाते हैं। इस अनिवार्य और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया में परम्पराओं और सड़ी गली रूढ़ियों में देश-काल-गत बहुत सूक्ष्म अन्तर होता है। जो व्यक्तिपरक आधार पर तय होतां हैं। पूर्वोग्रहो के कारण समायोजन न करने वाले लोग, पीढ़ियों, संस्थाएं कालातीत होने को विवश हो जाती हैं।<br /> राही समय से सीधा साक्षात्कार करते हैं। आजादी के आस-पास का समाज आन्तरिक और वाह्य दोनों तरह से एक जटिल समाज था। इसमें बदलाव के दौर में अकेले छूट गए लोग निर्वासन भोगने को विवश थे।<br /> परन्तु यह कहानी अकेले, निर्वासित, टूटे हुए लोगों की ही नहीं हैं। इसमें नई रोशनी के नायकों की कहानी भी है। वे क्रान्ति नायक जो मुखर और सक्रिय नहीं होते बल्कि परछाई बन कर अपनी असहमति और प्रतिरोध व्यक्त करते है। कहानी का शिल्प, भाषा और प्रस्तुतिकारण उसकी रवानगी, मार्मिकता और खूबसूरती का एहसास हर पल कराता रहता हैं। राही अपनी भाषा से कहानी का दृष्टिकरण उपस्थित करते हैं। राही नए मुहावरे गढ़ते हैं। घर में छह शताब्दियां रहती थी।...गलियां रहती थीं...किसानों की सिसकियां रहती थीं।<br /> दीवारें गर्दन झुका-झुका कर उन्हें देख रही है। और आपस में इशारे कर के मुस्करा रही है।/ बेटी की उम्र बड़ी बेहया और बेदर्द होती है।<br /> वह सुबह को शाम और रात को दिन कैसे बनाए सारे बदन में जैसे हजारों हजार दिल धड़कने लगते और इन हजार दिलों में लाखों लाख चिराग जल जाते और उनकी रग-रग में उजाला हो जाता/ छतनार बूढ़े पेड़ की तरह आंधी में टूट गए/ जैसे भाषिक संदर्भ कहानी की वेधकता कर्ई गुना बढ़ा देते हैं। राही की रचनाओं में प्रतीक आरोपित नहीं होते। बल्कि रचना के अंतर से निकलते हैं।<br /> सदा की भांति राही कहानी में व्यंग्य के प्रसंग आने पर नहीं चूकते।-जामिन अली रख रखाव वाले आदमी थे। जिंदगी भर नमाज पढ़ते रहे, गालियां बकते रहे और गुनगुनाते रहे।/हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल क्या होता है।/ हीरो यदि नवाब नहीं होता तो कवि अवश्य होता है।<br /> कहानी अपने समय, स्थितियों, मानसिकता, और तत्कालीन विवरणों तक सीमित नहीं रहती बल्कि जीवन, उसकी जटिलताओं, मनुष्य की नियति और बदलती मान्यताओं को दस्तावेज बनने में सफल है।<br /> इन कहानियों के विवेचन से विदित होता है कि राही की कहानियों में उनके अंदर का कवि मुखर होता हैं। न केवल कथ्य के अन्दर बहते भाव, पात्रों की मनः स्थिति के निरूपण में वरन् भाषिक अभिव्यक्ति में भी। यद्यपि लेखक का स्वयं कहना है कि कविता की जबान नकली होती है। इसी में इसका हुस्न हैं। जीवन जटिल होता जा रहा है और कविता के माध्यम से इस जीवन को संपूर्णता से व्यक्त नहीं किया जा सकता। कथा भाषा यदि नकली हो जाए तो कहानी मारी जाती है।''<br /> राही के साहित्य के गहन अध्ययन से मालूम होता है कि राही अपने संपूर्ण संघर्ष,असहमति, स्थितियों पर कटाक्ष, समस्त विरोध और युयुत्स भाव के बावजूद अंदर से स्वप्नदर्शी, कोमल सहज और तमाम प्रतिकूलताओं के बीच मानवीय मूल्यों के प्रति आस्थावान नज+र आते है।<br /> कविता की एक विशिष्टता-मानवीय अस्मिता पर अगाध आस्था-ही उसे साहित्य की अन्य विधाओं से अलग पहचान देती है। यही कारण है कि राही के साहित्य पर, आने अनजाने ही, काव्यगत प्रभाव लक्षित होता है।<br /> कथाकार का सरोकार भाषा से भी होता है। हर कथाकार अपनी कथा भाषा अथवा कहा जाय कि हर रचना अपनी भाषा प्रवृत्ति लेकर आती है। राही भाषा को अपनी जमीन की सोच से जोड़ने का काम करते हैं।<br /> राही बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भाषा और धर्म का रिश्ता जोड़ना ही ग़लत है। क्योंकि कुछ लोगों में भाषाओं को धर्म से जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति है। वह उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखने के समर्थक थे। उर्दू साहित्य की भाषा अपने आलेख में वह स्पष्ट करते हैं-मैं भविष्य में इतनी दूर तो देख ही सकता हूँ कि यह कह सकूँ कि उर्दू लिपि थोड़े दिनों की मेहनत है।<br /> वह अपने संबंध में कहते हैं-मैं भी उर्दू वातावरण में पला बढ़ा हूँ। मैं उर्दू में ही ख्+वाब देखता हूँ। परन्तु मैं इस लिपि को भाषा नहीं मानता। मेरी भाषा वही है जो कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, यशपाल, ड्डष्णचन्दर की है।<br /> राही मासूम रजा की भाषा पाठको को न केवल बाधे रहती है बल्कि वह अपनी सादगीपूर्ण, सहज, गुदगुदाने वाली व्यंग्यात्मक और शब्दों के पारदर्शी स्वरूप जो जीवन के अनुभवों को कलात्मक ढंग से व्यक्त करते हैं, भाषा से पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ने में सफल होते हैं।<br /> राही मासूम रजा की कहानियां जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य जीवन के प्रति आस्था को बनाए रखती हैं। यह कहानियां जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ऐसे कोण से प्रकाश डालती है कि वह एक बड़े परिदृश्य का हिस्सा लगती हैं। वह अपनी कहानियों से आज के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करते हैं। यह उन्हीं की हिम्मत थी कि साम्प्रदायिक शक्तियों, उनके नेताओं को नाम लेकर जिम्मेदारों ठहराते रहे। उनका मानना था इन सभी साम्प्रदायिक शक्तियों का मूल चरित्र और उद्देश्य एक है।<br /> राही न केवल साहित्यकार बल्कि एक चिंतक के रूप में सामने आते हैं। राष्ट्रीय, सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक और मानव व्यवहार के विषय में उनका चिंतन वस्तुपरक, निरपेक्ष और संतुलित और निर्भीक दिखाई देता है। साम्प्रदायिकता पर उनके विचार क्रांतिकारी हैं।</span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-8662385078266963442009-03-28T18:38:00.000+05:302009-03-28T18:41:21.057+05:30लोगों के बीच में राही मासूम रजा आज भी जिन्दा हैं<div align="justify"><span style="font-size:130%;">राही मासूम रजा की १७वीं पुण्यतिथि के अवसर पर वाङ्मय पत्रिका, लिबर्टी होम्स में संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता डॉ० प्रेमकुमार ने की। इस संगोष्ठी में राही मासूम रजा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला गया। मुख्य वक्ता डॉ० प्रेमकुमार ने कहा कि इस पुण्यतिथि पर राही मासूम पर चर्चा ही बता रहा है कि उनका काम कितना महत्त्वपूर्ण है। प्रेमकुमार ने उनके साहित्य में व्यक्त इंसानियत को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि आज का युग बौनों का युग है जब लोगों को साम्प्रदायिकता व विद्वेष से लड़ने का समय है। उस समय उनसे ही समझौता कर लिया जबकि राही का व्यक्तित्व उन समझौतावादी बौने लोगों का विरोध करता है। राही के एक संस्मरण की चर्चा करते हुए बताया कि अपने बेटे की शादी हिन्दू लड़की से इस शर्त पर की, कि वह अपना धर्म परिवर्तन नहीं करेगी। इस प्रकार के विचार आज के बड़े-बड़े हिन्दू व मुस्लिम सेकुलर कहे जाने वाले लोगों के यहाँ नहीं मिलेगी। उन्होंने बताया कि राही का जुड़ाव जमीन की गहराई से रहा है। राही ने साहित्य में किसी सम्प्रदाय विशेष की, क्षेत्र विशेष की या भाषा विशेष को मुख्य आधार नहीं बनाया है, बल्कि उन्होंने साहित्य में पूरी तरह से भारतीयता की बात की। जहाँ एक भारत व उसके सेकुलर गंगा-जमुना तहजीब मुख्य है। डॉ० प्रेमकुमार ने उनके साहित्य लेखन के अतिरिक्त फ़िल्मों एवं सीरियल में किये गये कामों का भी उल्लेख किया। एक उल्लेखनीय तथ्य की ओर संकेत करते हुए बताया कि जो काम तुलसीदास ने रामकथा को स्थापित व पुनर्जीवित करने में किया है, ठीक वही काम राही ने महाभारत की पटकथा को लिखकर किया है।<br />इस संगोष्ठी में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के कई छात्र उपस्थित थे। जिनमें जावेद आलम ने राही पर बोलते हुए कहा कि - राही का जुड़ाव अपने जमीन से बहुत गहरा रहा है। उन्होंने अपने को गंगा का बेटा कहा है। आधा गाँव' एवं ओस की बूद' की भी चर्चा की। भारतीय विभाजन की त्रासदी का भी उन्होंने उल्लेख किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सन्दर्भ में १८५७ नामक कविता का जि+क्र किया। साम्प्रदायिकता का विरोध एवं मानवता की बात राही में विशेष रूप से मिलती है।<br />शोध-छात्र शहबाज अली खान ने राही के साहित्य में समय को महत्त्वपूर्ण आधार बताया। उन्होंने बताया कि साहित्यकार मूल रूप से इंसानियत, प्रेम, सौहार्द की बात करता है। साहित्यकार वही होगा जिसके यहाँ इंसानियत होगी। उन्होंने बताया कि विभाजन का दर्द प्रत्येक भारतीय मुसलमान को है। इसके बावजूद मुसलमानों को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र देना पड़ता है, परन्तु राही के साहित्य में हमें पूरे हिन्दुस्तानी होने का भाव अकुण्ठ रूप से मिलता है। खान ने बताया कि राही ने अपने समय के बुद्जीवियों के उपनिवेशवादी नजरिये को पहचान लिया था। उनका पूरा साहित्य उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों के विरोध का साहित्य है। उन्होंने राही के भाषाई विशेषता की ओर भी संकेत किया।<br />संगोष्ठी में बोलते हुए सरताज आलम ने बताया कि राही के साहित्य में भारत की एकता और अखण्डता को बचाने का काम किया है। उन्होंने बताया कि उनकी कविताओं में उनका दर्द देखा जा सकता है।<br />डॉ० हस्सान ने अपने वक्तव्य में बताया कि - यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि एक उर्दू का आदमी महाभारत के संवाद को लिखता है। यह उसकी सेकुलर छवि को ज्ञापित करती है। राही ने हिन्दी-उर्दू की बात न करके इंसानियत पर अधिक बल दिया है और अवाम को पुकारा है। हिन्दू-मुसलमान को नहीं।<br />डॉ० खुर्शीद ने उर्दू साहित्य में उनके बिखरे हुए रचनाओं व उन पर चर्चा करने की बात कही और इस बात की ओर संकेत किया कि उनकी रचनाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कार्य जल्द से जल्द होना चाहिए।<br />डॉ० जुल्फ़िकार ने इस संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि राही मासूम रजा की सर्व धर्म समभाव की आवश्यकता पर बल देते हैं। उन्होंने बताया कि हम उनकी कोई भी रचना पढ़ते हैं तो हमें भारत की तस्वीर दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय सरोकार हमें दिखाई देता है। उनके सामाजिक धरातल से जुड़ाव को रेखांकित किया और इस प्रकार की संगोष्ठी करने के प्रयासों को उत्साहवर्धक बताया।<br />शोध-छात्र विनीत कुमार ने बताया कि राही से उनका परिचय उनकी रचनाओं से हुआ। राही अपने लिए तीन माँओं का जि+क्र करते हैं। एक वह माँ जो जननी है। दूसरी माँ ग़ाजीपुर जिसने उन्हें पाला-पोसा। तीसरी माँ अलीगढ़ को बताया। इस प्रकार राही की उनके ज+मीनी जुड़ाव की चर्चा उन्होंने की।<br />कु० भानु ने राही के धर्मनिर्पेक्षता को आधार बनाकर बोलते हुए कहा कि धर्मनिर्पेक्षता का रूप उनके लिए एकपक्षीय नहीं है, बल्कि समन्वित रूप में आता है। शोध-छात्र वाजिद, अफ़जाल, अशरफ अली खाँ व मु० आसिफ़ ख़ान ने भी अपने विचार संगोष्ठी में रखे।<br />कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मेराज अहमद ने किया। उन्होंने राही के साहित्य पर विशेष चर्चा संचालन के बीच में ही की। राही पर प्रस्तुत गोष्ठी वाङ्मय परिवार की ओर से आहूत की गई थी। वाङ्मय पत्रिका के सम्पादक डॉ० एम० फीरोज अहमद ने उनकी कहानियों की विशेष चर्चा करने की बात कही और उसके साथ ही साथ उनके फ़िल्मी योगदान के विषय में भी उन्होंने चर्चा की। इस कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन वीमेंस कालेज की प्रवक्ता डॉ० शगुफ्ता नियाज ने किया। और गोष्ठी की सफलता के लिए वक्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।<br />इस संगोष्ठी में अहमद अली, मुशीरा ख़ातून आदि लोग भी उपस्थित थे। </span></div>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-28056351484809865382009-03-23T00:55:00.000+05:302009-03-23T00:55:06.511+05:30क्रांति कथा<span style="font-size:130%;"><br /><br /><br />क्रांति कथा<br /><br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br />कान खोलकर सुना कथा है क्रांति के पहले सावन की<br /><br />सबने चलाया, धीरे-धीरे फौज पे अपना जादू<br />आजादी की नई कली चटकी तो फैली खुशबू<br />हिन्दी फौज में नफरत की एक आँधी आई हरसू (चारों ओर)<br />जिसको पानी समझ रहे थे वह तो निकला बालू<br />बाँध लो सबने एक कमल से डोरी अपने जीवन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />उत्तर भारत में पूरब से पश्छिम तक तय्यारी<br />डग,डग,डग,डग बजी डुगडुगी क्या कहता है मदारी<br />नट आए तो कूद-फाँद में इनकी मारामारी<br />कठपुतली का नाच देखने आयेंगे नरनारी<br />कठपुतली के नाच की गत पर क्रान्ति की गरम हवा सनकी<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />छावनी में पटना की आते थे अक्सर एक मुल्ला<br />उजली दाढ़ी, उजला कुरता और उजला पाएजामा<br />मुद्दत तक गोरे नहीं समझे क्या मक़सद था उनका<br />रखके किताबों में लाए थे शहर से वह संदेसा<br />आजादी के दीवाने को फिक्र नहीं थी तन मन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />एक दिन चुपके से मुख्बिर (गुप्तचर) ने उनकी खबर पहुँचाई<br />अंग्रेजी शैतानों की यह सुनते ही बन आई<br />मुल्ला जी बेचारे ने तब शायद फांसी पाई<br />गोरे तो समझे थे मुल्ला जी को सिर्फ एक राई<br />लेकिन कोह हिमाला निकली ऊँचाई उस गर्दन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />पटना के सब मुल्ला यूं तो कहने को थे वहाबी<br />लेकिन सर से पांवों तलक थे सारे मुल्ला हिन्दी<br />उन सबने जब चार तरफ यह घोर निराशा देखी<br />तब कुरान के जुजदानों (बस्ता) में एक कटार-सी चमकी<br />उन सबने तब पाल बनाई पैगम्बर के दामन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />मुल्ला काम में अपने मगन थे, पंडित अपनी धुन में<br />धीरे-धीरे आजादी का रस आया जामून में<br />तलवारों की धारें-सी चमकीं एक-एक नाखून में<br />रुत बदली तो ऐसी बदली जेठ लगा फागुन में<br /><br />तपते जेठ ने बात सुनाई आकर भीगे सावन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />पटना के बाज+ार पे हैं तारीख की अब भी निगाहें<br />दिल्ली के दरबार की जानिब (दिल्ली दरबार की ओर से) से वाटें तनख्वाहों<br />दिल्ली की जानिब फैली थीं दानापुर की बांहें<br />चाँदी की झाड़ से झाड़ें आजादी की राहें देश की<br />दुश्मन नहीं बनी थी तब तक गाँठ महाजन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />मोतीधर ने गद्दारी की और अंग्रेज ने जाना<br />ऐसे गद्दारों का भैया कहो कहां हैं ठिकाना<br />देश बेचकर पाया होगा चन्द टकों का बयाना<br />गद्दारी करने से तो अच्छा ही था मर जाना<br />मर जाता तो धूल दवा बन जाती उसके दामन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सत्तावन की<br /><br />देश के दुश्मन के मुख्बिर पर इस धरती की लानत<br />अपने देश की नर्म हवा पानी मिट्टी को लानत<br />इस मिट्टी से बनने वाले नर-नारी की लानत<br />लानत उस पर भाई-बहन की लानत रक्षाबन्धन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />दो गद्दार जमादारों के साथ चले कुछ फौजी<br />बोध गया की राह में इक इक्के की पायल खनकी<br /><br />इक्कावान ने उनके पास पहुँचकर रोकी घोड़ी<br />इक्का पर दो मियाँ जी बैठे रक्खी थी इक थैली<br />इन फौजों गद्दारों ने कुछ हँू हाँ की कुछ कदगन (अस्वीकृति) की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सत्तावन की<br /><br />इक्का वालों में से इक ने उनको दिया रुपैया<br />और कहा यह इनसे दिल्ली से आयेगा पहिया<br />उन दोनों का हश्र हुआ क्या यह न किसी ने जाना<br />उसके बाद न फिर उन दोनों को दुनिया ने देखा<br />जाने कब तक राह तका की राह उन्हें मतवालन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />पटना के अत्राफ (पटना की दिशा में) में फैला छुट पुट यों जो उजाला<br />दिल ही दिल में घबराया तब अंग्रेजों का अंधेरा<br />अंग्रेजों ने सर जोड़े और जोड़ के सर यह सोचा<br />जासूसों को चार तरफ जल्दी जल्दी दौड़ाया<br />यह है धरती राम की लेकिन कौन कमी है रावन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />जासूसों के गोल चले ले लेकर उजले दामन<br />राम की चीख सुनी तो फौरन धोखा खा गये लछमन<br />दिल के द्वार से निकली बाहर-सीता देखकर बाह्मन<br />आजादी की सीता को झटपट हर ले गया रावन<br />राम की हालत क्या कहिए क्या कहिए हालत लछमन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />जासूसों ने ढूंढा और इक दस्तावेज निकाली<br />जिसके हर हर लफ्ज से छलकी खून की गहरी लाली<br />खून की सुर्खी देख के काँपी रात भयानक काली<br />आजादी को सींच रहे थे अपने खून से माली<br />वह कागज था एक कहानी कितने दिलों के धड़कन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />वह कागज जन्नार (माला) की दोड़ी और तस्बीह (माला) का दाना<br />हिन्दू मुस्लिम ऐके का था एक अमिट अफसाना<br />एक सतर काबा थी उसकी एक सतर बुतखाना<br />दो सतरों के बीच में था आजादी का पैमाना<br />एक जुबाँ है हिन्दू मुस्लिम दोनों दिलों की धड़कन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />यह सब देख के अंग्रेजों के पाँव की धरती सरकी<br />सोन किनारे ऐसे ही में झूमके आई दोरी (यह मेला अब भी लगता है)<br />मेंढे गायें बरघों की जोड़ी (बैलों की जोड़ी) और घोड़ा हाथी<br />बच्चे कच्चे बूढ़े वाले मर्द के साथ लुगाई (पति-पत्नी)<br />धूम धड़क्का भीड़ भड़क्का गीत पे ढोलक भी ठनकी<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की<br /><br />इस मजमें में एक तरफ से ख्वाजा हसन भी आये<br />अपने खेमे में बैठे चारों पर्दे सरकाये<br />रात गये तक लोग आते थे अपने पैर दबाये<br />आजादी के दीवानों ने अपने पैर जमाये<br />ऐ दोरी! क्या याद नहीं आती अब तुझको उस सन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुना सत्तावन की<br /><br />भारत वाले देख रहे थे महायुद्ध के सपने<br />जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह समझे<br />ऐसी हवा थी युद्ध का खेल ही खेल रहे थे बच्चे<br />उन्तीस मार्च को बैरकपूर में लड़ गये मंगल पांडे<br />अब तक याद है फाँसी के फन्दे में ऐंठन गर्दन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की</span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-60793320173567424242009-03-22T00:54:00.000+05:302009-03-22T00:54:04.581+05:30GAZAL<span style="font-size:130%;">भारत वाले देख रहे थे महायुद्ध के सपने<br />जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह समझे<br />ऐसी हवा थी युद्ध का खेल ही खेल रहे थे बच्चे<br />उन्तीस मार्च को बैरकपूर में लड़ गये मंगल पांडे<br />अब तक याद है फाँसी के फन्दे में ऐंठन गर्दन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की</span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-70758071495927485922009-03-21T00:53:00.000+05:302009-03-21T01:06:57.748+05:30GAZAL<span style="font-size:130%;">इस मजमें में एक तरफ से ख्वाजा हसन भी आये<br />अपने खेमे में बैठे चारों पर्दे सरकाये<br />रात गये तक लोग आते थे अपने पैर दबाये<br />आजादी के दीवानों ने अपने पैर जमाये<br />ऐ दोरी! क्या याद नहीं आती अब तुझको उस सन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुना सत्तावन की</span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-20171870654445072362009-03-19T00:49:00.000+05:302009-03-19T00:53:12.708+05:30GAZAL<span style="font-size:130%;">यह सब देख के अंग्रेजों के पाँव की धरती सरकी<br />सोन किनारे ऐसे ही में झूमके आई दोरी (यह मेला अब भी लगता है)<br />मेंढे गायें बरघों की जोड़ी (बैलों की जोड़ी) और घोड़ा हाथी<br />बच्चे कच्चे बूढ़े वाले मर्द के साथ लुगाई (पति-पत्नी)<br />धूम धड़क्का भीड़ भड़क्का गीत पे ढोलक भी ठनकी<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की</span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7504797080830932950.post-83281807602004593792009-03-13T13:28:00.000+05:302009-03-13T13:28:00.589+05:30सुनो भाइयो, सुनो भाइयो<span style="font-size:130%;">जासूसों ने ढूंढा और इक दस्तावेज निकाली<br />जिसके हर हर लफ्ज से छलकी खून की गहरी लाली<br />खून की सुर्खी देख के काँपी रात भयानक काली<br />आजादी को सींच रहे थे अपने खून से माली<br />वह कागज था एक कहानी कितने दिलों के धड़कन की<br />सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की </span>vangmyapatrikahttp://www.blogger.com/profile/05065900084189339880noreply@blogger.com0