Monday, November 24, 2008

पहली किरण

राही मासूम रज़ा

अब परेड का मैदां
किस कदर अकेला है
सर पे आ गया सूरज
फिर भी क्या अंधेरा है

कुड़ रहा है हर ज़र्रा
और रास्ता क्या है
सोचते कक्श-ए-पा
जीस्त में मज़ा क्या है

हर किरन में सूरज की
जिल्लतों की बरछी है
ज़र्रे ज़र्रे के दिल में
बार बार उतरती है

हर हवा के झोंके में
सिसकियों की आवाज़ें
घिर गई जल्मत में
रोशनी की उम्मीदें

इस जगह से थोड़ी दूर
एक कैदख़ाना है
जिसमें बेड़ियां पहने
इक नया जमाना है

लोहे की सलाखों के
उस तरफ़ हैं चंद
आंखें छू रही हैं लोहे
चंद आहनी बांहें

3 comments:

  1. हर किरन में सूरज की
    जिल्लतों की बरछी है
    ज़र्रे ज़र्रे के दिल में
    बार बार उतरती है
    सुन्दर रचना.

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  2. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

    इस जगह से थोड़ी दूर
    एक कैदख़ाना है
    जिसमें बेड़ियां पहने
    इक नया जमाना है

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  3. kya baat kahi raahi saheb ne, unko mera salaam.


    इस जगह से थोड़ी दूर
    एक कैदख़ाना है
    जिसमें बेड़ियां पहने
    इक नया जमाना है

    लोहे की सलाखों के
    उस तरफ़ हैं चंद
    आंखें छू रही हैं लोहे
    चंद आहनी बांहें

    ek baat ki shuruwaat hai aur ek baat ka anth .. wah

    ise kahte hai good poetry .

    well done Firoz saheb ..

    vijay

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