ऐ जुल्फ-ए-परेशान-ए-हयात अब तो सँवर जा
गैरों की बनी जाती है बात अब तो सँवर जा
आइने से अब आँख मिलाई नहीं जाती
कट जाये पर गर्दन तो झुकाई नहीं जाती
जिस दर ने तुम्हें इज्जत-ओ-तौकीर (प्रतिष्ठा) अता की (प्रदान की)
जिए दर ने तुम्हें खिअत-ओ-जागीर अता की
जिस दर ने तुम्हें इक नई तकदीर अता की
जिस दर ने तुम्हें अजमत-ए-तामीर (स्थापत्य) अता की
क्या तुम यह दोरंगी-ए-जहाँ देख सकोगे
उस दर पे फिरंगी का निशाँ देख सकोगे
saari gazal lajvab hai bdhaai
ReplyDeleteबेहतरीन गजल . बधाई
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