Saturday, October 25, 2008

क्या वो दिन भी दिन हैं

राही मासूम रज़ा

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।

हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।

इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।

हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।

2 comments:

haidabadi said...

डाक्टर फिरोज़ सहिब ने "राही" साहिब की याद में
जो शम्मा जलाई है उसकी रौशनी में बहुत कुछ
देखा और सीखा जा सकता है आपने बहुत बड़ा काम सरअंजाम
दिया है मेरे पास इल्फाज़ नही हैं लेकिन फिर भी मैं कह सकता हूँ
के मुझे और मेरे दोस्तों को फिरोज़ साहिब के इस कारनामे से बहुत खुशी हुई है
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क

डॉ.ब्रजेश शर्मा said...

vah vah.............