Friday, October 31, 2008
Thursday, October 30, 2008
सवालों के जंगल में अकेलेपन का अवसाद
नंद भारद्वाज
चर्चित उपन्यास : असन्तोष के दिन: राही मासूम रजा
'असन्तोष के दिन' हिन्दी के विख्यात कथाकार राही मासूम रजा की बहुआयामी रचनाशीलता के आखिरी दौर का ऐसा उपन्यास है, जो इस देश के राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करता है। यह उपन्यास मई 1984 के दौरान थाणे, कल्याण और मुंबई महानगर में घटित हुए साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा मार्मिक दस्तावेज है, जिसे उपन्यास के रूप में पढ़ना एक पीड़ादायक अनुभव के बीच से गुजरने का-सा अहसास कराता है। इसके चरित्र किसी कथा-कृति के लिए गढ़े हुए चरित्र नहीं, बल्कि स्वयं रचनाकार की अपनी जिन्दगी, उनके घर-परिवार, परिवेश और कार्य-क्षेत्र में काम करनेवाले ऐसे जीवंत चरित्र हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के उस जहरीले दौर में अपने प्राण गंवाकर भी इनसानियत, मानवीय सद्भाव और भाईचारे को बचाए रखने के अनथक प्रयत्न किये।
यह राही मासूम रजा का ही कमाल है कि 80 पृष्ठों की इस छोटी-सी औपन्यासिक कथा में उन्होंने 1984 के देशव्यापी दंगों के दौरान मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों और देश के बाकी नगरों में मारे गये हजारों निर्दोष लोगों - जिनमें हिन्दू थे, मुसलमान थे और सिक्ख-ईसाई भी, ऐसे तमाम लोगों की त्रासदी का न केवल प्रामाणिक ब्यौरा पेश किया है, बल्कि उन दंगों के पीछे की सियासी सांठ-गांठ और निहित स्वार्थों की संकीर्ण मानसिकता को बेनकाब करने का जो बीड़ा उठाया है, वह पाठक के रूप में आपकी चेतना को झकझोर कर रख देता है। आप उस सच्चाई से आंख बचाकर भाग नहीं सकते, जो कभी आपके आस-पास या खुद आपके साथ कहीं घटित भी हो सकती है।
सन् 1984 की घटनाओं पर आधारित इस उपन्यास का पहला संस्करण यों तो 1986 में ही प्रकाशित हो गया था और लेखक की अन्य कृतियों की तरह उस समय भी इसने पाठकों के बीच अपनी अच्छी-खासी जगह बनाई, लेकिन उस प्रकाशन के अट्ठारह बरस बाद सन् 2004 में जब इसका दूसरा संस्करण छपकर आया है, तो इसकी मांग और प्रासंगिकता और बढ़ गई लगती है।
इस उपन्यास के चरित-नायक अब्बास मूसवी को जिन्दगी भर इस बात का गहरा मलाल रहा कि जिस साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए वे सारे जहां से लड़ते रहे, अपने घर-परिवार और समाज से लड़ते रहे, परिवार के अजीज लोगों को उसमें झौंके रखा, खुद कभी हिन्दू या मुसलमान होने का फर्क नहीं महसूस किया - उनका परिवार, जो एक खुले दिमागवाला परिवार माना जाता था, जो मजहब और मुल्क के बंधनों को गैर-वाजिब मानता था - मसलन्, अब्बास की बहन सलमा ने जब एक हिन्दू युवक रेवती से प्यार किया और उससे शादी करनी चाही तो परिवार-समाज के बड़े-बूढ़ों और मजहबी लोगों के विरोध के बावजूद अब्बास और उनकी बीबी सैयदा ने उस वक्त अपनी बहन का पूरा साथ दिया। सन् '66 में सलमा और रेवती की शादी हो गई और वे लंदन जाकर बस गये, लेकिन अट्ठारह बरस बाद उसी सलमा की बेटी तसनीम जब एक नीग्रो लड़के से प्यार करने लगी, तो सलमा को वह केवल इसलिए पसंद नहीं आया कि वह 'काला' है! यह जानकर अब्बास को बेहद अफसोस हुआ कि उसकी बहन उन्हीं दकियानूसी खयालों के बीच पहुंच गई है, जिन्हें वे बरसों पहले पीछे छोड़ आये थे। इसी विडंबना की ओर इषारा करते हुए अब्बास कहते हैं - ''सन् '66 की क्रान्तिकारी सलमा '84 तक आते जब 17 बरस की तसनीम की मां बनी तो अतीत के दलदल में जा गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई।'' (पृष्ठ 13) खुद उनके बेटे माजिद ने जब एक हिन्दू लड़की संगीता को अपनाने का मन बना लिया तो उसे तहेदिल से कुबूल किया, लेकिन वही अब्बास मूसवी जब अपनी बेटी फातमा द्वारा एक हिन्दू लड़के रवि से प्यार करने के मसले पर अपनी बीबी सैयदा बेगम को रजामंद नहीं कर पाये और नौबत यहां तक आ पहुंची कि सैयदा बीबी अपने शौहर और बच्चों से रूठकर अपने मायके जा बैठी तो वे अपने परिवार से ही नहीं, खुद अपने-आप से जैसे हार गये - अपने उसूलों और आदर्शों को अपनी आंखों के सामने इस तरह बिखरते हुए देखना ऐसा हिला देनेवाला अनुभव था, जिसने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया। माजिद और फातमा ने अपने अब्बू और अम्मी को जब इस तरह मायूस और बेबस देखा तो यही फैसला किया कि वे उनके लिए अपने प्यार को कुरबान कर देंगे और उन्होंने (माजिद और रवि ने) खुद को ही कुरबान कर दिया, लेकिन अब्बास मूसवी की तकलीफ और गहरी थी और इसका हल यह तो कतई नहीं था, जो उनकी औलाद सुझाया और दिया। अब्बास की यह पीड़ा बेटी फातमा के साथ हुए इस संवाद में बखूबी महसूस की जा सकती है - ''यह इतनी सादा बात नहीं है बेटी ! ... तुम्हारी अम्मा और मुझमें लड़ाई नहीं हुई है। तुम्हारे शादी करने या न करने से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। मुझमें और तुम्हारी अम्मा में डिफरेंस ऑफ उपीनियन हो गया है।'' (पृष्ठ 86) और यह 'डिफरेंस ऑफ उपीनियन' अब्बास और सैयदा जैसे सेक्यूलर और जागरूक इनसानों के मन में पैदा हो जाना कोई मामूली बात नहीं थी।
इन अट्ठारह बरसों में अब्बास जैसे इल्मकारों की सोच बेषक आगे बढ़ी हो, उनकी बहन सलमा और बीबी सैयदा की सोच में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ। अब्बास की तकलीफ यही है कि यह सोच आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है। मुसलमान अपनी गरीबी, पिछड़ेपन और उस रूढ़िवादी जहनियत से तो लड़ ही रहे होते हैं, ऐसे हालात में साम्प्रदायिकता का उन्माद उन्हें भीतर से खोखला कर देता है, उन्हें इस तकलीफ से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। लेखक की इस पीड़ा को अब्बास और सैयदा के इस संवाद में बखूबी महसूस किया जा सकता है -''मेरे पास किसी सवाल का जवाब नहीं है सैयदा ! हम तमाम लोग सवालों के जंगल में अकेले हो गये हैं और रास्ता भूल गये हैं....!'' (पृष्ठ 65)
कथानायक अब्बास एक साहित्यिक पत्रिका 'अदब' के संपादक हैं, जो एक दैनिक अखबार 'नई आवाज' का ही प्रकाशन है। वे अखबार और पत्रिका दोनों के संपादक हैं और इसी नाते हर तरह के लोगों के बीच उठते-बैठते हैं, सभी तरह के लोगों से उनके अच्छे ताल्लुकात हैं। उनकी दोस्ती, परिचय और संवाद के दायरे में सभी मजहब और सभी सियासी सोच वाले लोग आते हैं। वे किसी से परहेज नहीं करते। अपने से भिन्न राय रखने वाले को भी वे पूरा मान-सम्मान देते हैं, लेकिन निजी या सार्वजनिक जीवन में उसके खराब आचरण की कतई अनदेखी नहीं करते, बल्कि उसका खुलकर विरोध करते हैं, लेकिन साम्प्रदायिक उन्माद के आगे वे भी बेबस हो जाते हैं। देश में जहां कहीं भी दंगे होते हैं, तो उनकी रूह कांप उठती है - उनके अपने साथी-सहकर्मी, जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी, ऐसे सैकड़ों निर्दोष लोग इन दंगों में मारे जाते हैं, यहां तक कि पुलिस और प्रशासन भी इन दंगों में इधर या उधर में बंट जाता है और इस लड़ाई में वे लगातार अकेले होते जाते हैं। उन्हें अपने अखबार का संपादकीय लिखना तक निरर्थक लगने लगता है। ऐसे ही माहौल में जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद का दुखद घटनाक्रम सामने आता है, तो सवालों के उस घने जंगल में उनके अकेलेपन का यह अवसाद और भी गहरा हो जाता है।
उल्लेखनीय बात यह है कि डॉ. राही मासूम रजा की इस कृति में उनकी साम्प्रदायिकता-विरोधी सोच का एक नया आयाम भी उद्धाटित होता है। वे 'नेशनल इंटीग्रेशन का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम एकता' में सीमित करके नहीं देखते, बल्कि उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य और समग्रता में समझने पर बल देते हैं। वे इस बात पर गंभीर सवाल उठाते हैं कि 'नेशनल डिसइंटीग्रेशन की जड़ें कोई देश की आर्थिक बदहाली में क्यों नहीं ढूंढ़ता ? या इस राजनीतिक स्थिति में क्यों नहीं ढूंढ़ता कि हमारे लोकतंत्र में आज तक ऐसी सरकार नहीं बनी है, जिसे मतदाताओं के बहुमत का सहयोग प्राप्त हो और जो धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर न बनी हो।' दरअसल यही वे सवाल हैं, जिनमें इस समस्या का वह सही हल भी अन्तर्निहित है और वे चुनौतियां भी, जिनसे हमें आनेवाले सालों में मिलकर जूझना है।
'असन्तोष के दिन' हिन्दी के विख्यात कथाकार राही मासूम रजा की बहुआयामी रचनाशीलता के आखिरी दौर का ऐसा उपन्यास है, जो इस देश के राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करता है। यह उपन्यास मई 1984 के दौरान थाणे, कल्याण और मुंबई महानगर में घटित हुए साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा मार्मिक दस्तावेज है, जिसे उपन्यास के रूप में पढ़ना एक पीड़ादायक अनुभव के बीच से गुजरने का-सा अहसास कराता है। इसके चरित्र किसी कथा-कृति के लिए गढ़े हुए चरित्र नहीं, बल्कि स्वयं रचनाकार की अपनी जिन्दगी, उनके घर-परिवार, परिवेश और कार्य-क्षेत्र में काम करनेवाले ऐसे जीवंत चरित्र हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के उस जहरीले दौर में अपने प्राण गंवाकर भी इनसानियत, मानवीय सद्भाव और भाईचारे को बचाए रखने के अनथक प्रयत्न किये।
यह राही मासूम रजा का ही कमाल है कि 80 पृष्ठों की इस छोटी-सी औपन्यासिक कथा में उन्होंने 1984 के देशव्यापी दंगों के दौरान मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों और देश के बाकी नगरों में मारे गये हजारों निर्दोष लोगों - जिनमें हिन्दू थे, मुसलमान थे और सिक्ख-ईसाई भी, ऐसे तमाम लोगों की त्रासदी का न केवल प्रामाणिक ब्यौरा पेश किया है, बल्कि उन दंगों के पीछे की सियासी सांठ-गांठ और निहित स्वार्थों की संकीर्ण मानसिकता को बेनकाब करने का जो बीड़ा उठाया है, वह पाठक के रूप में आपकी चेतना को झकझोर कर रख देता है। आप उस सच्चाई से आंख बचाकर भाग नहीं सकते, जो कभी आपके आस-पास या खुद आपके साथ कहीं घटित भी हो सकती है।
सन् 1984 की घटनाओं पर आधारित इस उपन्यास का पहला संस्करण यों तो 1986 में ही प्रकाशित हो गया था और लेखक की अन्य कृतियों की तरह उस समय भी इसने पाठकों के बीच अपनी अच्छी-खासी जगह बनाई, लेकिन उस प्रकाशन के अट्ठारह बरस बाद सन् 2004 में जब इसका दूसरा संस्करण छपकर आया है, तो इसकी मांग और प्रासंगिकता और बढ़ गई लगती है।
इस उपन्यास के चरित-नायक अब्बास मूसवी को जिन्दगी भर इस बात का गहरा मलाल रहा कि जिस साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए वे सारे जहां से लड़ते रहे, अपने घर-परिवार और समाज से लड़ते रहे, परिवार के अजीज लोगों को उसमें झौंके रखा, खुद कभी हिन्दू या मुसलमान होने का फर्क नहीं महसूस किया - उनका परिवार, जो एक खुले दिमागवाला परिवार माना जाता था, जो मजहब और मुल्क के बंधनों को गैर-वाजिब मानता था - मसलन्, अब्बास की बहन सलमा ने जब एक हिन्दू युवक रेवती से प्यार किया और उससे शादी करनी चाही तो परिवार-समाज के बड़े-बूढ़ों और मजहबी लोगों के विरोध के बावजूद अब्बास और उनकी बीबी सैयदा ने उस वक्त अपनी बहन का पूरा साथ दिया। सन् '66 में सलमा और रेवती की शादी हो गई और वे लंदन जाकर बस गये, लेकिन अट्ठारह बरस बाद उसी सलमा की बेटी तसनीम जब एक नीग्रो लड़के से प्यार करने लगी, तो सलमा को वह केवल इसलिए पसंद नहीं आया कि वह 'काला' है! यह जानकर अब्बास को बेहद अफसोस हुआ कि उसकी बहन उन्हीं दकियानूसी खयालों के बीच पहुंच गई है, जिन्हें वे बरसों पहले पीछे छोड़ आये थे। इसी विडंबना की ओर इषारा करते हुए अब्बास कहते हैं - ''सन् '66 की क्रान्तिकारी सलमा '84 तक आते जब 17 बरस की तसनीम की मां बनी तो अतीत के दलदल में जा गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई।'' (पृष्ठ 13) खुद उनके बेटे माजिद ने जब एक हिन्दू लड़की संगीता को अपनाने का मन बना लिया तो उसे तहेदिल से कुबूल किया, लेकिन वही अब्बास मूसवी जब अपनी बेटी फातमा द्वारा एक हिन्दू लड़के रवि से प्यार करने के मसले पर अपनी बीबी सैयदा बेगम को रजामंद नहीं कर पाये और नौबत यहां तक आ पहुंची कि सैयदा बीबी अपने शौहर और बच्चों से रूठकर अपने मायके जा बैठी तो वे अपने परिवार से ही नहीं, खुद अपने-आप से जैसे हार गये - अपने उसूलों और आदर्शों को अपनी आंखों के सामने इस तरह बिखरते हुए देखना ऐसा हिला देनेवाला अनुभव था, जिसने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया। माजिद और फातमा ने अपने अब्बू और अम्मी को जब इस तरह मायूस और बेबस देखा तो यही फैसला किया कि वे उनके लिए अपने प्यार को कुरबान कर देंगे और उन्होंने (माजिद और रवि ने) खुद को ही कुरबान कर दिया, लेकिन अब्बास मूसवी की तकलीफ और गहरी थी और इसका हल यह तो कतई नहीं था, जो उनकी औलाद सुझाया और दिया। अब्बास की यह पीड़ा बेटी फातमा के साथ हुए इस संवाद में बखूबी महसूस की जा सकती है - ''यह इतनी सादा बात नहीं है बेटी ! ... तुम्हारी अम्मा और मुझमें लड़ाई नहीं हुई है। तुम्हारे शादी करने या न करने से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। मुझमें और तुम्हारी अम्मा में डिफरेंस ऑफ उपीनियन हो गया है।'' (पृष्ठ 86) और यह 'डिफरेंस ऑफ उपीनियन' अब्बास और सैयदा जैसे सेक्यूलर और जागरूक इनसानों के मन में पैदा हो जाना कोई मामूली बात नहीं थी।
इन अट्ठारह बरसों में अब्बास जैसे इल्मकारों की सोच बेषक आगे बढ़ी हो, उनकी बहन सलमा और बीबी सैयदा की सोच में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ। अब्बास की तकलीफ यही है कि यह सोच आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है। मुसलमान अपनी गरीबी, पिछड़ेपन और उस रूढ़िवादी जहनियत से तो लड़ ही रहे होते हैं, ऐसे हालात में साम्प्रदायिकता का उन्माद उन्हें भीतर से खोखला कर देता है, उन्हें इस तकलीफ से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। लेखक की इस पीड़ा को अब्बास और सैयदा के इस संवाद में बखूबी महसूस किया जा सकता है -''मेरे पास किसी सवाल का जवाब नहीं है सैयदा ! हम तमाम लोग सवालों के जंगल में अकेले हो गये हैं और रास्ता भूल गये हैं....!'' (पृष्ठ 65)
कथानायक अब्बास एक साहित्यिक पत्रिका 'अदब' के संपादक हैं, जो एक दैनिक अखबार 'नई आवाज' का ही प्रकाशन है। वे अखबार और पत्रिका दोनों के संपादक हैं और इसी नाते हर तरह के लोगों के बीच उठते-बैठते हैं, सभी तरह के लोगों से उनके अच्छे ताल्लुकात हैं। उनकी दोस्ती, परिचय और संवाद के दायरे में सभी मजहब और सभी सियासी सोच वाले लोग आते हैं। वे किसी से परहेज नहीं करते। अपने से भिन्न राय रखने वाले को भी वे पूरा मान-सम्मान देते हैं, लेकिन निजी या सार्वजनिक जीवन में उसके खराब आचरण की कतई अनदेखी नहीं करते, बल्कि उसका खुलकर विरोध करते हैं, लेकिन साम्प्रदायिक उन्माद के आगे वे भी बेबस हो जाते हैं। देश में जहां कहीं भी दंगे होते हैं, तो उनकी रूह कांप उठती है - उनके अपने साथी-सहकर्मी, जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी, ऐसे सैकड़ों निर्दोष लोग इन दंगों में मारे जाते हैं, यहां तक कि पुलिस और प्रशासन भी इन दंगों में इधर या उधर में बंट जाता है और इस लड़ाई में वे लगातार अकेले होते जाते हैं। उन्हें अपने अखबार का संपादकीय लिखना तक निरर्थक लगने लगता है। ऐसे ही माहौल में जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद का दुखद घटनाक्रम सामने आता है, तो सवालों के उस घने जंगल में उनके अकेलेपन का यह अवसाद और भी गहरा हो जाता है।
उल्लेखनीय बात यह है कि डॉ. राही मासूम रजा की इस कृति में उनकी साम्प्रदायिकता-विरोधी सोच का एक नया आयाम भी उद्धाटित होता है। वे 'नेशनल इंटीग्रेशन का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम एकता' में सीमित करके नहीं देखते, बल्कि उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य और समग्रता में समझने पर बल देते हैं। वे इस बात पर गंभीर सवाल उठाते हैं कि 'नेशनल डिसइंटीग्रेशन की जड़ें कोई देश की आर्थिक बदहाली में क्यों नहीं ढूंढ़ता ? या इस राजनीतिक स्थिति में क्यों नहीं ढूंढ़ता कि हमारे लोकतंत्र में आज तक ऐसी सरकार नहीं बनी है, जिसे मतदाताओं के बहुमत का सहयोग प्राप्त हो और जो धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर न बनी हो।' दरअसल यही वे सवाल हैं, जिनमें इस समस्या का वह सही हल भी अन्तर्निहित है और वे चुनौतियां भी, जिनसे हमें आनेवाले सालों में मिलकर जूझना है।
तुलसी का रामचरित मानस
राही मासूम रज़ा
आलोचना कोई तीर मारने का काम नहीं है, बल्कि साहित्य को समझने की कला है । और चुँकि हम मनुष्य की आत्मा को साहित्य की मदद के बिना नहीं समझ सकते, इसलिए आलोचना का महत्व बढ़ जाता है । आलोचना टिप्पणी या ‘फूटनोट’ नहीं है । आलोचक शब्दों की आत्मा में झाँकता है, क्योंकि साहित्य में शब्दों का प्रयोग नहीं होता, बल्कि शब्द प्रतीक बन जाते हैं । इसलिए साहित्य को समझने के लिए उसकी प्रतीक-भाषा से परिचित होना ज़रूरी है ।इस भूमिका की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि मैं इस समय जिस रास्ते पर चलने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वह तलवार से ज़्यादा तेज़ और बाल से ज़्यादा बारीक़ है । बात यह है कि मैं अगर किसी ‘मीर’ या ‘ग़ालिब’, किसी ‘जायसी’ या ‘टैगोर’ की बात करनेवाला होता, तो डर न लगता परंतु मैं बात करने जा रहा हूँ मीर, अनीस और तुलसीदास की । और इनके बारे में भी यह कह रहा हूँ कि इनके काव्य का सामाजिक आधार है । मैं यह कहने जा रहा हूँ कि अनीस के मरसियों और तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ का राजनीतिक आधार भी है । और यदि ये रचनाएँ सामाजिक व राजनीतिक आधारविहीन होतीं तो इतनी बड़ी न होतीं । डर इसलिए लग रहा है कि ये दोनों ही कवि धार्मिक समझ लिए गए हैं । परंतु कविता धार्मिक या अधार्मिक नहीं होती । केवल मज़हब कभी कला का आधार नहीं हो सकता ।अनीस के हुसैन लखनऊ या भारत के प्रतीक हैं । तुलसी के राम और लक्ष्मण भी प्रतीक ही हैं, क्योंकि साहित्य प्रतीक भाषा का प्रयोग करता है । तो तुलसी के राम काहे का प्रतीक हैं ? यानी मैं यह देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि क्या ‘रामचरित मानस’ का कोई सामाजिक आधार है परंतु ‘रामचरित मानस’ की बातें करने से पहले कुछ बातों को साफ़ कर लिया जाए, तो अच्छा है ।‘रामचिरत मानस’ भक्तिकाल की एक रचना है । क्या आप मेरी इस बात से सहमत हैं कि भक्तिकाल का काव्य-साहित्य बुनियादी तौर पर विरह का साहित्य है ? ‘राम की बहुरिया’ से रसखान तक विरह का एक बियावान फैला हुआ है । कहीं सूर की गोपियाँ बिलख रही हैं और कहीं मीरा । कहीं जायसी की नागमती व्याकुल है और कहीं तुलसी की सीता । ‘पद्मावत’ का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा उसकी नायिका या उसके नायक के हाल में ही नहीं है, बल्कि नागमती के हाल में है । क्या यह केवल इत्तिफ़ाक है ? और क्या यह भी केवल इत्तिफ़ाक है कि अकबरी की जीवन-रेखा को पार करते ही भक्तिकाल ऋंगार की सीमा में प्रवेश करने लगता है ? और क्या यह भी इत्तिफ़ाक हैकि महाभारत का ‘हीरो’ कृष्ण भक्तिकाल के कवियों को नहीं भाया ? उन्हें तो कृष्ण का बालरूप पसंद आया, जब वे मक्खन चुरा रहे थे और माँ की डाँटें सुन रहे थे । इन बातों पर विचार करने की ज़रूरत है, क्योंकि साहित्य में कोई बात इत्तिफ़ाक से नहीं हो जाती ।यह भक्तिकाल की शायरी किस की तलाश में है ? कौन खो गया है, जिसके लिए यह काल बिलख रहा है ? बात शायरों की नहीं, बल्कि युगबोध की है । और फिर कौन मिल गया कि विरह की आग बुझ गई और काव्य में ऋंगार का रस आ गया ? यह खो जानेवाली चीज़ ऐसी है, जिसके लिए हिंदू सूरदास और मुसलमान कुतुबन दोनों ही रो रहे हैं । और फिर वह क्या चीज़ है कि जिसके मिलते ही सबके सब ऋंगार का रस पीकर झूमने लगे ? भक्तिकाल को समझने के लिए यह देखना पड़ेगा कि हिंदुस्तानी जीवन या हिंदुस्तानी समाज में कौन-सी नयी चीज़ शामिल हुई, या कौन-सी चीज़ निकल गई ।हम देखते यह हैं कि जब हिंदूस्तान पर ताबड़तोड़ हमले हो रहे थे और लड़ाई के मैदान में हमारी हार हो रही थी, तो हमारे कवियों ने वीरगाथाएँ सुनाईं । यह लड़ाइयों का युग है । हार-जीत का फैसला नहीं हुआ है । परंतु जब रणभूमि की कहानी समाप्त हुई, तो एकदम वीरगाथाएँ लड़खड़ाने लगीं और भक्ति का संगीत उभरा । इस्लाम और मुसलमान बादशाह – हमारे जीवन में ये दो नयी चीज़े शामिल हो गईं । मुसलमान हमलावर, मुसलमान बादशाह दो चीज़ें हैं और इन्हें गड्डमड्ड नहीं करना चाहिए । और इस्लाम एक बिलकुल तीसरी चीज़ है और इन हमलावरों और बादशाहों से बिलकुल अलग है । इन मुसलमान बादशाहों ने हिंदू बादशाहों की तरह पगड़ी के ताज पहने ! और उन्हीं दिनों यह आवाज़ सुनी गई कि राम कहो कि रहीम कहो........ यानी भक्तिकाल हिंदूस्तानी नयी आत्मा की तलाश का युग है । अकबर तक आते-आते भक्तिकाव्य अपने उत्कर्ष पर आ जाता है । उधर दीने-इलाही शुरू होनेवाला है, इधर सूर, तुलसी और जायसी की आवाज़ आ रही है । कौन यह कह सकता है कि ताज़ मीरा से घटिया कृष्ण भक्त है ? कौन यह कह सकता है कि रसखान की आवाज़ में भक्ति का जो रस है, वह हल्का है ? – यानी वह आत्मा मिल गई, जो ग्यारहवीं-बारहवीं सदी से ढूंढ़ी जा रही थी । बाहर से आनेवाली आत्मा देश की आत्मा में घुल गई । जैसे गंगा से जमुना घुल गई है । इस बात को जाहिर करने के लिए महाभारत के कृष्ण की ज़रूरत नहीं थी । यह बात तो नटखट माखनचोर के जरिये ही कही जा सकती थी । क्योंकि महाभारत के कृष्ण के साथ तो भीम आते अपनी गदा सँभाले हुए । और अर्जुन आते अपनी कमान लिये हुए और फिर रम होता परंतु देश की आत्मा तो शांति की तलाश में थी, इसलिए गोकुल में बालकृष्ण आया- बंसी बजाता हुआ, गाएँ चराता हुआ, बड़े भाई की शिकायत करता हुआ, मक्खन चुराता हुआ, गोपियों को परेशान करता हुआ- इस वातावरण से शांति की सुगंध आती है । इन गीतों में गाँव बसे हुए हैं । बच्चे खेल रहे हैं । माताएँ मक्खन बिलो रही हैं । लड़ाई-वड़ाई तो ख़त्म हो चुकी है । लड़ाई ख़त्म न हो चुकी होती तो कृष्ण ताज़ के घर में मक्खन चुराने कैसे चले जाते ? ये बाल कृष्ण प्रतीक हैं इस अभिलाषा के कि जिन बदनों पर लड़ाई के निशान हैं, वे तो शायद लड़ाई को भूल न पाएँ लेकिन जब आज के बच्चे जवान होंगे, तो उन्हें ये लड़ाइयाँ क्यों याद आएँगी ?परंतु तुलसीदास की आवाज़ भक्तिकाल के तमाम कवियों की आवाज़ से अलग है । इसलिए मैं तुलसीदास की बात भी अलग से ही करना चाहता हूं । तुलसीदास को इस नयी आत्मा की तलाश नहीं है, जिसे सारा भक्तिकाल तलाश रहा था, बल्कि उन्हें उसी पुरानी आत्मा की तलाश थी, जो मुसलमान हमलावरों से जूझ गई थी । और शायद यही वजह है कि सूरदास और जायसी से कमतर रसमय होते हुए भी, वे दोनों से ज़्यादा लोकप्रिय हुए ! तुलसीदास के लिए लड़ाई ख़त्म नहीं हुई थी । इसीलिए उन्होंने किसी आशिक़ को अपना कथानायक नहीं बनाया, बल्कि उन्होंने एक योद्धा को चुना । राम और रावण की लड़ाई सीता के परिचय से पहले ही उस तपोवन में शुरू हो गई थी, जहाँ अयोध्या के दो राजकुमार कंधे से कमाने लटकाए उसकी पवित्र शांति की हिफ़ाजत कर रहे थे । यानी यह बात हमें पहले ही बता दी जाती है कि इस कहानी का नायय एक वीर सिपाही है । यह बात भी महत्वपूर्म है कि तुलसीदास का नायक भी सूरदास के नायक की तरह बच्चा है । यानी तुलसीदास भी सूरदास की ही तरह नयी पीढ़ी से आशा बाँध रहे हैं । परंतु इन दोनों की आशाओं में बड़ा फ़र्क़ है । सूर शांति का ख़्वाब देख रहे हैं और तुलसी लड़ाई का । यानी ‘रामचरित मानस’वास्तव में भक्तिकाव्य के सिलसिले की कड़ी नहीं है, बल्कि वीरगाथा काल का एक अँग है ।महाकाव्य की परंपरा के अनुसार तुलसीदास ने राजा का कसीदा नहीं लिखा है । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि तुलसीदास किसी मुसलमान को राजा मान ही नहीं सकते थे । मुझे दरअसल इसी कसीदे की कमी ने चौंकाया था । इस कसीदे का न होना एक बुनियादी इशारा है और इसी के सहारे हम तुलसीदास की प्रतीक-भाषा को समझने की कोशिश कर सकते हैं ।मेरे ख़्याल में रावण मुसलमान बादशाह है । सीता हमारी आज़ादी, हमारी सभ्यता और हमारी आत्मा है, जिसे रावण हर ले गया है । परशुराम की कमान राम के हाथ में है । यानी ब्राह्मणों से धर्म की रक्षा नहीं हो सकती है । क्षत्रिय ? मगर सारे राजा-महाराजा तो मुगल दरबार में हैं । तुलसीदास ऊँची जाति के हिंदुओं से मायूस हैं, क्योंकि ऊँची जाति के हिंदू तो मुगल से मिले बैठं हैं । मगर वे किसी अछूत की नायक नहीं बना सकते थे । इसीलिए उन्होंने एक देवता नायक बनाया । (यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि आर्यपुत्र राम ने भीलनी के जूठे बेर खाये ।) राम की सेना में लक्ष्मण के सिवा ऊँची जाति का एक आदमी भी नहीं है । इन दोनों भाइयों के सिवा राम की सेना में केवल बंदर हैं – नीची जाति के लोग । यानी ऊँची जाति के लोगों से मायूस होकर तुलसीदास ने अछूतों या नीची जाति के हिंदुओं को धर्म की रक्षा के लिए आवाज़ दी ।लड़ाई हुई । रावण हार गया । सीता मिल गई परंतु नतीजा क्या हुआ ? तुलसी ने देखा कि यह सीता वह नहीं है । इसलिए तुलसी की बसाई हुई अयोध्या ने उस सीता को कुबूल नहीं किया – अग्निपरीक्षा के बाद बी कुबूल नहीं किया, परंतु उसी सीता के बच्चों ने यज्ञ के घोड़े की लगाम पर हाथ डाल दिया । बात फिर बच्चों ही तक आई।यों हम यह देखते हैं कि धार्मिक साहित्य भी एक सामाजिक आधार होता है ।
Wednesday, October 29, 2008
Tuesday, October 28, 2008
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
राही मासूम रजा
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
इश्क तराजू तोहै, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पडी है, पर ये दुकानें खोले कौन
काली रात के मुंह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन
हमने दिल का सागर मथ कर कथा तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन
लोग अपनों के खूं में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन
सब डरते हैं, आज हवस के इस सहरा में बोले कौन
इश्क तराजू तोहै, लेकिन, इस पे दिलों को तौले कौन
सारा नगर तो ख्वाबों की मैयत लेकर श्मशान गया
दिल की दुकानें बंद पडी है, पर ये दुकानें खोले कौन
काली रात के मुंह से टपके जाने वाली सुबह का जूनून
सच तो यही है, लेकिन यारों, यह कड़वा सच बोले कौन
हमने दिल का सागर मथ कर कथा तो कुछ अमृत
लेकिन आयी, जहर के प्यालों में यह अमृत घोले कौन
लोग अपनों के खूं में नहा कर गीता और कुरान पढ़ें
प्यार की बोली याद है किसको, प्यार की बोली बोले कौन
Monday, October 27, 2008
गंगा और महादेव
राही मासूम रजा
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके
कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया
लहू बनकर दौड़ रही है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके
कालीदास के मेघदूत से यह कहता हूँ
मेरा भी एक संदेश है।
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो-महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह जलील तुर्कों के बदन में गढा गया
लहू बनकर दौड़ रही है।
Sunday, October 26, 2008
जिनसे हम छूट गये
राही मासूम रज़ा
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।
Saturday, October 25, 2008
क्या वो दिन भी दिन हैं
राही मासूम रज़ा
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
Friday, October 24, 2008
हम तो हैं परदेस में
डा.राही मासूम रज़ा
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद
जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद
रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चांद
चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद
हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद
जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद
रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चांद
चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद
Thursday, October 23, 2008
लेकिन मेरा लावारिस दिल
राही मासूम रज़ा
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख़्वाब
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू, चीख़ें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाज़े
ख़ून में लिथड़े कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
Monday, October 20, 2008
डॉ. राही मासूम रजा - जीवनवृत्त एवं कृतित्व
डॉ० फीरोज अहमद
डॉ. राही मासूम रजा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिआ परिवार में हुआ। उनके पिता गाजीपुर की जिला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा गाजीपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ भेज दिये गए जहाँ उन्होंने १९६० में एम०ए० की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध “तिलिस्म-ए-होशरुबा” में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन पर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया।
अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। कलम के इस सिपाही का निधन १५ मार्च १९९२ को हुआ।
राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है। राही ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका प्रथम उपन्यास मुहब्बत के सिवा १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा', उर्दू में सर्वप्रथम १९५४ में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे उसके बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से वीर अब्दुल हमीद की जीवनी लिखी । उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” १९६६ में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।
राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन् सत्तईस को हुआ था।
उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन् १९४७ में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।
सन् १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सन् १९७३ में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
सन् १९७७ में प्रकाशित उपन्यास “सीन ७५” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को
विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।
सन् १९७८ में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुंचाया।
राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है - मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखा था। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखा है। उनकी कविता की एक बानगी देखिये जिसे “मैं एक फेरी बाला” से साभार उद्धरित किया गया है:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। कलम के इस सिपाही का निधन १५ मार्च १९९२ को हुआ।
राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है। राही ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका प्रथम उपन्यास मुहब्बत के सिवा १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा', उर्दू में सर्वप्रथम १९५४ में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे उसके बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से वीर अब्दुल हमीद की जीवनी लिखी । उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” १९६६ में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।
राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन् सत्तईस को हुआ था।
उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन् १९४७ में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।
सन् १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सन् १९७३ में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
सन् १९७७ में प्रकाशित उपन्यास “सीन ७५” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को
विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।
सन् १९७८ में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुंचाया।
राही मासूम रजा की अन्य कृतियाँ है - मैं एक फेरी वाला, शीशे का मकां वाले, गरीबे शहर, क्रांति कथा (काव्य संग्रह), हिन्दी में सिनेमा और संस्कृति, लगता है बेकार गये हम, खुदा हाफिज कहने का मोड़ (निबन्ध संग्रह) साथ ही उनके उर्दू में सात कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। इन सबके अलावा राही ने फिल्मों के लिए लगभग तीन सौ पटकथा भी लिखा था। इन सबके अतिरिक्त राही ने दस-बारह कहानियां भी लिखी हैं। जब वो इलाहाबाद में थे तो अन्य नामों से रूमानी दुनिया के लिए पन्द्रह-बीस उपन्यास उर्दू में उन्होंने दूसरों के नाम से भी लिखा है। उनकी कविता की एक बानगी देखिये जिसे “मैं एक फेरी बाला” से साभार उद्धरित किया गया है:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही जैसे लेखक कभी भुलाये नहीं जा सकते। उनकी रचनायें हमारी उस गंगा-जमनी संस्कृति की प्रतीक हैं जो वास्तविक हिन्दुस्तान की परिचायक है।
राही जैसे लेखक कभी भुलाये नहीं जा सकते। उनकी रचनायें हमारी उस गंगा-जमनी संस्कृति की प्रतीक हैं जो वास्तविक हिन्दुस्तान की परिचायक है।
Sunday, October 19, 2008
राही मासूम रजा विशेषांक प्रकाशित
वाडमय पत्रिका
सम्पादक-फीरोज अहमद
मूल्य 75 रूपये india ,विदेशों में 600 रूपए( भारत में मनीआडर पहले भेजे,)
बी-4 लिबर्टी होम्स
अब्दुल्लाह कालेज रोड
अलीगढ 202002
09412277331
सम्पादकीय
कहानी
प्रताप दीक्षित : राही मासूम रजा की कहानियाँ: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर
राही मासूम रजा : एक जंग हुई थी कर्बला में
राही मासूम रजा : सिकहर पर दही निकाह भया सही
राही मासूम रजा : खुशकी का टुकड़ा
राही मासूम रजा : एम०एल०ए० साहब
राही मासूम रजा : चम्मच भर चीनी
राही मासूम रजा : खलीक अहमद बुआ
राही मासूम रजा : सपनों की रोटी
आलेख/लेख
राही मासूम रजा : फूलों की महक पर लाशों की गंध
राही मासूम रजा : रामायण हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है?
राही मासूम रजा : नेहरू एक प्रतिमा
राही मासूम रजा : शाम से पहले डूब न जाये सूरज
शिव कुमार मिश्र : राही मासूम रजा
कुरबान अली : हिन्दोस्तानियत का सिपाही
हसन जमाल : राही कभी मेरी राह में न थे
सग़ीर अशरफ़ : राष्ट्रीय एकता के सम्वाहकः राही
बाकर जैदी : राही और १८५७
मेराज अहमद : राही का रचनात्मक व्यक्तित्व
मूलचन्द सोनकर : रही मासूम रजा की अश्लीलता?
जोहरा अफ़जल : राही मासूम रजा और आधा गाँव
आदित्य प्रचण्डिया : मैं एक फेरी वाला
सन्दीप कुमार : आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला में साम्प्रदायिकता
कनुप्रिया प्रचण्डिया : राही और आधा गाँव
साक्षात्कार/यादें
राही मासूम रजा से सुदीप की अंतरंग बातचीत
राही मासूम रजा के साथ विश्वनाथ की लम्बी बातचीत
नीरज, क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार की यादों के राहीः प्रेम कुमार
मासूम से राही मासूम रजा तक : एम० हनीफ़ मदार
नैयर रजा से प्रेमकुमार की बातचीत
यादों के दायरे
सिनेमा
राही मासूम रजा : यथार्थ लेकिन सेंसर?
राही मासूम रजा : दिलीप कुमारः एक वह हैं जिन्हें तस्वीर बना आती है
राही मासूम रजा : फ़िल्मकार में सामाजिक चेतना नहीं है
राही मासूम रजा : फ़िल्म की भाषा
यूनुस ख्नान : जिन्दगी को संवारना होगाः राही का फ़िल्मी सफर
सिदेश्वर सिंह : आधा गाँव के लेखक का फ़िल्मी सफर
फ़ीरोज ख़ान : राही की कुछ महत्त्वपूर्ण फ़िल्में
सम्पादक-फीरोज अहमद
मूल्य 75 रूपये india ,विदेशों में 600 रूपए( भारत में मनीआडर पहले भेजे,)
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अब्दुल्लाह कालेज रोड
अलीगढ 202002
09412277331
सम्पादकीय
कहानी
प्रताप दीक्षित : राही मासूम रजा की कहानियाँ: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर
राही मासूम रजा : एक जंग हुई थी कर्बला में
राही मासूम रजा : सिकहर पर दही निकाह भया सही
राही मासूम रजा : खुशकी का टुकड़ा
राही मासूम रजा : एम०एल०ए० साहब
राही मासूम रजा : चम्मच भर चीनी
राही मासूम रजा : खलीक अहमद बुआ
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राही मासूम रजा : रामायण हिन्दुस्तान के हिन्दुओं की धरोहर है?
राही मासूम रजा : नेहरू एक प्रतिमा
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शिव कुमार मिश्र : राही मासूम रजा
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मेराज अहमद : राही का रचनात्मक व्यक्तित्व
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सन्दीप कुमार : आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला में साम्प्रदायिकता
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यूनुस ख्नान : जिन्दगी को संवारना होगाः राही का फ़िल्मी सफर
सिदेश्वर सिंह : आधा गाँव के लेखक का फ़िल्मी सफर
फ़ीरोज ख़ान : राही की कुछ महत्त्वपूर्ण फ़िल्में
उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा
राही मासूम रज़ा
यह ग्यारवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरू ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे हिंदवी का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिंदवी देहलवी, हिंदी, उर्दू-ए-मु्अल्ला और उर्दू कहीं गई । अब लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि यह तो वह ज़माना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में । लिपि का झगड़ा तो अँग्रेज़ी की देन है । मैं चूँकि लिपि को भाषा का अंग नहीं मानता हूँ, इसलिए की ऐसी बातें, जो आले अहमद सुरूर और उन्हीं की तरह के दूसरे पेशेवर उर्दूवालों को बुरी लगती हैं, मुझे बिल्कुल बुरी नहीं लगतीं। भाषा का नाम तो हिंदी ही है, जाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे हिन्दी साहित्य को पढ़कर कोई राय कायम करे। अगर मुसहफी उर्दू के तमाम कवियों को हिंदी का कवि कहते हैं (उनकी किताब का नाम तजकरए-हिंदी का कवि कहते हुए शरमाएँ मैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँ, परंतु मैं हिन्दी कवि हूँ। और यदि मैं हिंदी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूर, तुलसी, जायसी के काव्य की आत्मा से अलग कैसे हो सकती है यह वह जगह है, जहाँ न मेर साथ उर्दूकाले हैं और न शायद हिंदीवाले। और इसीलिए मैं अपने बहुत अकेला-अकेला पाता हूँ ? परंतु क्या मैं केवल इस डर से अपने दिल की बात न कहूँ कि मैं अकेला हूँ । ऐसे ही मौक़ों पर मज़रूह सुलतानपुरी का एक शेर याद आता है :मैं अकेला ही चला था जानिवे-मंज़िल मगर।लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया ।।और इसीलिए मैं हिम्मत नहीं हारता ! और इसीलिए बीच बज़ार में खड़ा आवाज़ दे रहा हूँ कि मेरे पुरखों ग़ालिब और मीर के साथ सूर, तुलसी और कबीर के नाम भी आते हैं। लिपि के झगड़े में मैं अपनी विरासत और अपनी आत्मा को कैसे भूल जाऊँ न मैं एक लिपि की तलवार से अपने पुरखों का गला काटने को तैयार हूँ और न मैं किसी को य हक देता हूँ कि वह दूसरी लिपि की तलवार से मीर, ग़ालिब और अनीस के गर्दन काटे । आप खुद ही देख सकते हैं कि दोनों तलवारों के नीचे गले हैं मेरे ही बुजुर्गों के। हमारे देश का आलम तो यह है किकनिष्ट की शेरवानी को मुसलमानों के सर मार के हम हिंदू और मुसलमान पहनावों की बातें करने लगते हैं घाघरे में कलियाँ लग जाती हैं तो हम घाघरों को पहचानने से इंकार कर देते हैं और मुगलों-वुगलों की बातें करने लगते हैं, परंतु कलमी आम खाते वक़्त हम कुछ नहीं सोचते ऐसे वातावरण में दिल की बात कहने से जी अवश्य डरता है, परंतु किसी-न-किसी को तो ये बातें कहनी ही पड़ेगी। बात यह है कि हम लोग हर चीज़ को मज़हब की ऐनक लगाकर देखते हैं। किसी प्रयोगशाला का उद्घाटन करना होता है, तब भी हम या मिलाद करते हैं या नारियल फोड़ते हैं तो भाषा इस ठप्पे से कैसे बचती और साहित्य पर यह रंग चढ़ाने की कोशिश क्यों न की जाती चुनांचे उन्नीसवीं सदी के आखिर में या बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदी, हिंदू हिंदुस्तान का नारा लगाया गया। इस नारे में जिन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे तीनों ही फ़ारसी के हैं हिंदी कहते हैं, हिंदुस्तानी को, हिंदू काले को। और हिंदुस्तान हिंदुओ के देश को। यानी हिंदू शब्द किसी धर्म से ताल्लुक नहीं रखता। ईरान और अरब के लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी हिंदू कहते हैं यानी हिंदू नाम है हिंदुस्तानी क्रीम का। मैंने अपने थीसिस में यही बात लीखी थी तो उर्दू के एक मशहूँर विद्वान् ने यह बात काट दी थई। परंतु मैं भी यह बात फिर कहाना चाता हूँ कि हिंदुस्तान के तमाम लोग धार्मिक मतभेद के बावजूद हिंदू है। हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है। हमारे क़ौम का नाम हिंदू और इसलिए हमारी भाषा का नाम हिन्दी । हिंदुस्तान की सीमा हिन्दी की सीमा है। यानी मैं भी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाता हूँ, परंतु मैं यह नारा उस तरह नहीं लगाता, जिस तरह वह लगाया जा रहा है। मैं एक मुसलमान हिंदू हूँ । कोई विक्टर ईसाई हिंदू होगा और मातादीन वैष्णव या आर्यसमाजी हिंदू ! इस देश में कई धर्म समा सकते हैं, परंतु एक देश में कई क़ौमें नहीं समा करतीं ! परंतु यह सीधी-सी बात भी अब तक बहुत से हिंदुओं (हिंदुस्तानियों) की समझ में नहीं आ सकी है। हमें धर्म की यह ऐनक उतारनी पड़ेगी। इस ऐनक का नंबर गलत हो गया है् और अपना देश हमें धुँधला-धुँधला दिखाई दे रहा है।हम हर चीज़ को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ग़ालिब गुलोहुलुल का प्रयोग करता है और कोयल की कूक नहीं सूनता, इसलिए वह ईरान या पाकिस्तान का जासूस है ? हम आत्मा को नहीं देखते । वस्त्र में उलझकर रह जाते हैं। वे तमाम शब्द जो हमारी जबानों पर चढ़े हुए हैं, हमारे हैं। हमारे हैं। एक मिसाल लीजिए। ‘डाक’ अँग्रेज़ी का शब्द है। ‘खाना’ फारसी का। परंतु हम ‘डाकखाना’ बोलते हैं। यह ‘डाकखाना’ हिंदी का शब्द है। इस ‘डाकघर’ या कुछ और कहने की क्या ज़रूरत ? अरब की लैला काली थी। परंतु उर्दू गज़ल की लैला का रंग अच्छा-खासा साफ़ है। तो इस गोरी लैला को हम अरबी क्यों मानें ? लैला और मजनूँ या शीरीं और फरहाद का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है उस कहानी का, जो इन प्रतीकों के जरिए हमें सुनाई जा रही है। परंतु हम तो शब्दों में उलझ कर रह गए हैं। हमने कहानियों पर विचार करने का कष्ट ही नहीं उठाया है। मैं आपकों वही कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ ।मैं आपको और मौलाना नदवी आले अहमद सुरूर और डॉक्टर फ़रीदी को यह दिखालाना चाहता हूँ कि मीर, सौदा, ग़ालिब और अनीस, सुर, तुलसी और कबीर ही के सिलसिले की कड़ियाँ हैं। फ़ारसी के उन शब्दों को कैसे देश निकाल दे दिया जाय, जिनका प्रयोग मीरा, तुलसी और सूर ने किया है ? ये शब्द हमारे साहित्य में छपे हुए हैं। एक ईंट सरकाई गई, तो साहित्य की पूरी इमारत गिर पड़ेगी।मैं शब्दों की बात नहीं कर रहा हूँ। साहित्य की बात कर रहा हूँ। यह देखने का कष्ट उठाइए कि कबीर ने जब मीर बनकर जन्म लिया तो वे क्या बोल और जब तुलसी ने अनीस के रूप मे जन्म लिया तो उस रूप में उन्होंने कैसा रामचरित लिखा।
Saturday, October 18, 2008
जुदा राह का राही डा. राही मासूम रजा
जाहिद खान
अपनी नज्म-शायरी और उपन्यास लेखन से साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्तों पर तंज वार करने वाले गाजीपुर के गंगोली गांव में जन्मे राही मासूम रजा को मुकद्दस दरिया गंगा और हिंदुस्तानी तहजीब से बेपनाह मोहब्बत करने का सबक उस आबो-हवा में मिला जिसमें वे पले बढे। फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुलन्दियों को छू लेने के बावजूद गंगा और गंगोली गांव से उनका यह जज्बाती लगाव आखिर तक कायम रहा। गंगोली से उन्हें बेहद प्यार था। हालांकि 1967 में जो वे एक बार मुंबई पहुंचे तो दोबारा गंगोली नहीं लौटे इसकी वजह बचपन में बीते हुए गंगोली का पहले वाला अक्स था जो उनकी आंखों में बसा था और वे उस अक्स को मिटाना नहीं चाहते थे।
राही के अदबी सफर का आगाज शायरी से हुआ और 1966 तक आते-आते उनके साथ गजल नज्म संग्रह शाया हो चुके थे। नया साल, मौजे गुल मौजे सबा, रक्से मय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते आदि उनके खास संग्रहों में शुमार किए जाते हैं। 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर 1957 में लिखा गया उनका महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन उर्दू और हिंदी दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित हो बहुत चर्चित हुआ। उनकी आवाज में जादू था और तिस पर तरन्नुम भी लाजवाब। जब मुशायरे में नज्म पढते तो एक समां सा बंध जाता।
बचपन में तिलस्में-होशरूबा के किस्सों से प्रभावित राही के लेखन का सिलसिला अलीगढ से जो प्रारंभ हुआ तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया इसका सबूत उनका आखिरी काव्य संग्रह गरीबे शहर था जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद 1993 में प्रकाशित हुआ। पढाई के दौरान अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल वे गद्य लेखन में करने लगे। उस समय इलाहाबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में निकहत, जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया जैसी पत्रिकाएं निकालते थे जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थीं। राही, शाहिद अख्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन पत्रिकाओं में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबंदी से लिखने की आदत पडी। पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय में फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक अखबारों में नियमित कॉलम और नज्म, गजल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे।
हिन्दी साहित्य जगत में उनका प्रवेश 1966 में उपन्यास आधा गांव के जरिए हुआ। आधा गांव की ख्याति और चर्चा हिंदी-उर्दू दोनों में ही एक साथ हुई। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनके उपन्यास आधा गांव और टोपी शुक्ला दोनों ही फारसी लिपि में लिखे गए थे जिसका कि बाद में हिंदी लिप्यांतरण किया गया।
1972 में डॉ. नामवर सिंह की अनुशंसा पर जोधपुर विश्वविद्यालय में आधा गांव को लगाने के फैसले की नैतिकतावादियों, ने एक सुर में डा. राही मासूम रजा और आधा गांव की आलोचना की। उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप लगा। मगर इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नहीं डिगे। अखबारों में लिखे गये उनके कॉलम तीखे और सख्त होते थे जिसमें न ही वे किसी की परवाह करते थे और न ही किसी को बख्शते थे। मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और बटवारे की आग में हिंदुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिजरत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे। उनके रंजा-गम में वे खुद शामिल रहे थे इसलिए सांप्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ थे।
राही का कहना था धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा। उन्होंने उपन्यास आधा गांव में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। बहरहाल भाषाई आधार पर 1971 में पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बना। उनकी बात जस की तस साबित हुई।
टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज, सीन 75, कटरा बी आर्जू, असंतोष के दिन राही मासूम रजा के अन्य उपन्यास हैं। जिनमें टोपी शुक्ला और कटरा बी आर्जू अपने विषय, कथावस्तु, भाषाशैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं। 1969 में लिखे टोपी शुक्ला में जहां राही यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली राजनीति की पडताल करते हैं तो वहीं आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास कटरा बी आर्जू आपातकाल की भयावहता पर आधारित है।
राही 1967 तक अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे। मगर पारिवारिक व्यक्तिगत कारणों से तंग आकर उन्हें अलीगढ छोडना पडा। अलीगढ छोडकर वे मुंबई पहुंचे जहां आर.चन्द्रा और भारत भूषण ने उनकी मदद की। उनके दोस्त कृष्णचन्दर, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र सिंह बेदी और कैफी आजमी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी। बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रुख किया तो फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। आने वाले साल उनकी सफलता की दास्तान थे। फिल्में उनकी रोजी-रोटी का जरिया थीं तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली खुशी मिलती थी। यह देखना दिलचस्प है कि आधा गांव के अलावा उनके सारे उपन्यास मुम्बई में ही लिखे गए। संघर्षकाल में उनकी मदद करने वालों में धर्मवीर भारती भी थे। धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका धर्मयुग के लिए राही ने निरंतर स्तंभ लेखन का कार्य किया।
राही ने तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा संवाद लिखे। दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत में लिखे गये उनके संवादों ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया। महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था। इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने अनगिनत स्त्रोतों को खंगाला था।
हिंदी-उर्दू दोनों ही जबानों में अधिकार के साथ लिखने वाले राही उर्दू जबान के शायर थे तो हिन्दी के उपन्यासकार। उर्दू जबान को लोकप्रिय करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की मगर उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड दिया जाए वे इसके खिलाफ थे। आधा गांव को देखें तो उसमें अवधी मिश्रित हिंदी-उर्दू का जमकर प्रयोग हुआ है। इस बात से यह एहसास होता है कि वे किसी भाषा की बिना पर क्षेत्रीय बोली, भाषा की कुर्बानी के हामी नहीं थे।
उपन्यासों में राही का नेरेशन अद्भुत है। जिसमें नेरेशन की तथा चरित्रों की भाषा अलग-अलग होती थी। जहां तक भाषाई-शुद्धता का सवाल है राही भाषाई-शुद्धता पर एक जगह लिखते हैं जमीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते।
समाजवादी विचारधारा के समर्थक राही मासूम रजा का सपना हिंदुस्तान को एक समाजवादी मुल्क में साकार होता देखना था। लेकिन समाजवाद का मॉडल कैसा हो, उसमें कितने कारक काम करेंगे और किस तरह से अपने कामों को सरअंजाम देंगे। उनके मुताबिक यह सारी की सारी प्रक्रिया पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए नहीं तो भटकाव-टूटन होना स्वाभाविक है। उपन्यास कटरा बी आर्जू में अपने किरदार के मार्फत कहलवाया गया उनका यह संवाद हिंदुस्तान की मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पडता है-सोश्ल-इज्म के आये में बहुत देरी हो रही है। सोशल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती। कपडे की तरह बदन की नाप की काटे को पडती है।
राही के अदबी सफर का आगाज शायरी से हुआ और 1966 तक आते-आते उनके साथ गजल नज्म संग्रह शाया हो चुके थे। नया साल, मौजे गुल मौजे सबा, रक्से मय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते आदि उनके खास संग्रहों में शुमार किए जाते हैं। 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर 1957 में लिखा गया उनका महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन उर्दू और हिंदी दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित हो बहुत चर्चित हुआ। उनकी आवाज में जादू था और तिस पर तरन्नुम भी लाजवाब। जब मुशायरे में नज्म पढते तो एक समां सा बंध जाता।
बचपन में तिलस्में-होशरूबा के किस्सों से प्रभावित राही के लेखन का सिलसिला अलीगढ से जो प्रारंभ हुआ तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया इसका सबूत उनका आखिरी काव्य संग्रह गरीबे शहर था जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद 1993 में प्रकाशित हुआ। पढाई के दौरान अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल वे गद्य लेखन में करने लगे। उस समय इलाहाबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में निकहत, जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया जैसी पत्रिकाएं निकालते थे जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थीं। राही, शाहिद अख्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन पत्रिकाओं में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबंदी से लिखने की आदत पडी। पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय में फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक अखबारों में नियमित कॉलम और नज्म, गजल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे।
हिन्दी साहित्य जगत में उनका प्रवेश 1966 में उपन्यास आधा गांव के जरिए हुआ। आधा गांव की ख्याति और चर्चा हिंदी-उर्दू दोनों में ही एक साथ हुई। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनके उपन्यास आधा गांव और टोपी शुक्ला दोनों ही फारसी लिपि में लिखे गए थे जिसका कि बाद में हिंदी लिप्यांतरण किया गया।
1972 में डॉ. नामवर सिंह की अनुशंसा पर जोधपुर विश्वविद्यालय में आधा गांव को लगाने के फैसले की नैतिकतावादियों, ने एक सुर में डा. राही मासूम रजा और आधा गांव की आलोचना की। उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप लगा। मगर इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नहीं डिगे। अखबारों में लिखे गये उनके कॉलम तीखे और सख्त होते थे जिसमें न ही वे किसी की परवाह करते थे और न ही किसी को बख्शते थे। मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और बटवारे की आग में हिंदुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिजरत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे। उनके रंजा-गम में वे खुद शामिल रहे थे इसलिए सांप्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ थे।
राही का कहना था धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा। उन्होंने उपन्यास आधा गांव में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। बहरहाल भाषाई आधार पर 1971 में पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बना। उनकी बात जस की तस साबित हुई।
टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज, सीन 75, कटरा बी आर्जू, असंतोष के दिन राही मासूम रजा के अन्य उपन्यास हैं। जिनमें टोपी शुक्ला और कटरा बी आर्जू अपने विषय, कथावस्तु, भाषाशैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं। 1969 में लिखे टोपी शुक्ला में जहां राही यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली राजनीति की पडताल करते हैं तो वहीं आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास कटरा बी आर्जू आपातकाल की भयावहता पर आधारित है।
राही 1967 तक अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे। मगर पारिवारिक व्यक्तिगत कारणों से तंग आकर उन्हें अलीगढ छोडना पडा। अलीगढ छोडकर वे मुंबई पहुंचे जहां आर.चन्द्रा और भारत भूषण ने उनकी मदद की। उनके दोस्त कृष्णचन्दर, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र सिंह बेदी और कैफी आजमी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी। बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रुख किया तो फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। आने वाले साल उनकी सफलता की दास्तान थे। फिल्में उनकी रोजी-रोटी का जरिया थीं तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली खुशी मिलती थी। यह देखना दिलचस्प है कि आधा गांव के अलावा उनके सारे उपन्यास मुम्बई में ही लिखे गए। संघर्षकाल में उनकी मदद करने वालों में धर्मवीर भारती भी थे। धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका धर्मयुग के लिए राही ने निरंतर स्तंभ लेखन का कार्य किया।
राही ने तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा संवाद लिखे। दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत में लिखे गये उनके संवादों ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया। महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था। इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने अनगिनत स्त्रोतों को खंगाला था।
हिंदी-उर्दू दोनों ही जबानों में अधिकार के साथ लिखने वाले राही उर्दू जबान के शायर थे तो हिन्दी के उपन्यासकार। उर्दू जबान को लोकप्रिय करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की मगर उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड दिया जाए वे इसके खिलाफ थे। आधा गांव को देखें तो उसमें अवधी मिश्रित हिंदी-उर्दू का जमकर प्रयोग हुआ है। इस बात से यह एहसास होता है कि वे किसी भाषा की बिना पर क्षेत्रीय बोली, भाषा की कुर्बानी के हामी नहीं थे।
उपन्यासों में राही का नेरेशन अद्भुत है। जिसमें नेरेशन की तथा चरित्रों की भाषा अलग-अलग होती थी। जहां तक भाषाई-शुद्धता का सवाल है राही भाषाई-शुद्धता पर एक जगह लिखते हैं जमीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते।
समाजवादी विचारधारा के समर्थक राही मासूम रजा का सपना हिंदुस्तान को एक समाजवादी मुल्क में साकार होता देखना था। लेकिन समाजवाद का मॉडल कैसा हो, उसमें कितने कारक काम करेंगे और किस तरह से अपने कामों को सरअंजाम देंगे। उनके मुताबिक यह सारी की सारी प्रक्रिया पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए नहीं तो भटकाव-टूटन होना स्वाभाविक है। उपन्यास कटरा बी आर्जू में अपने किरदार के मार्फत कहलवाया गया उनका यह संवाद हिंदुस्तान की मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पडता है-सोश्ल-इज्म के आये में बहुत देरी हो रही है। सोशल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती। कपडे की तरह बदन की नाप की काटे को पडती है।
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