Sunday, April 5, 2009

एम.एल.ए. साहब

- राही मासूम रजा


एम.एल.ए. साहब के बारे में जानने की सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह एम.एल.ए. नहीं थे। जो वह एम.एल.ए. रहे होते तो उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ही न गया होता क्योंकि आज एम.एल.ए. होने में क्या बड़ाई है। हर सातवां-आठवां आदमी या तो एम.एल.ए. है या होना चाहता है। क्योंकि कोयले की इस दलाली में मुंह तो जरूर काला होता है पर मुट्ठी गर्म रहती है तो आज मुंह की क्या हैसियत। असल चीज तो मुट्ठी है और एक आसानी यह भी है कि यह काले लोगों का तो देश ही है, फिर मुंह की कालिख दिखाई किसे देगी, इसलिए ज्+यादातर लोग एम.एल.ए. या एम.एल.ए. के रिश्तेदार बनने की फ़िक्र में दुबले या मोटे होते रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि एम.एल.ए. होने या न हो पाने में कोई नयापन नहीं रह गया है। आपको हर मुहल्ले में दो-चार एम.एल.ए. या एक्स एम.एल.ए. या एम.एल.ए. होते-होते रह जाने वाले मिल जायेंगे। तो फिर ऐसों की कहानी सुनाने में क्या मजा? और ऐसों की कहानी ही क्या इसीलिए एम.एल.ए. साहब में मेरी दिलचस्पी तब बढ़ी जब मुझे यह मालूम हुआ कि वह एम.एल.ए. हैं ही नहीं।
चुनाव के दिन थे। हर तरफ़ बड़ी चहल-पहल थी। लोग अपने-अपने कारोबार छोड़कर चंद दिनों के लिए नेता बने ठस्से से तक़रीरें करते घूम रहे थे।
कड़कड़ाते जाड़ों की रात थी। मैं सिनेमा देख कर लौट रहा था कि कान में आवाज आयी और अब मैं एम.एल.ए. साहब से दरख्वास्त करता हूं कि वह माइक पर तशरीफ लायें और अपने ख़यालात से आप लोगों को फायदा उठाने का मौक़ा दें।
सामने वाली गली में दरी का फ़र्श लगा हुआ था। सामने कुछ बच्चे रूमाल के चूहे दौड़ा रहे थे। उनके पीछे बूढ़े चुनाव लड़ने वाले की चाय पी कर उसका विरोध करने वाले की बात कर रहे थे।
कि एक आदमी, दुबला-पतला, रुवा खड़ा, सांवले रंग वाला सफ़ेद शेरवानी वाला माइक पर आया। गला साफ करने के बाद बोला - तक़रीरें तो आजकल आप लोग दिन-रात सुन रहे होंगे। मैं तो सरकार से कहने वाला हूं कि चुनाव में खार्च पर रोक-टोक करने का उसे कोई हक़ नहीं है। साहब यह बाबू द्वारका प्रसाद अपने चुनाव में सरकारी पैसा तो फूंक नहीं रहे हैं कि सरकार के पेट में दर्द हो रहा है। पर तक़रीर राशन कार्ड पर मिलनी चाहिए। जो एक वोटर को दो से ज्यादा तकरीरें चटाये, उस पर मुक़दमा चलाना चाहिए और उसकी जमानत जब्त कर लेनी चाहिए।
यह आवाज+ मेरी साइकिल का पीछा कर रही थी। मैं पलट आया।
एम.एल.ए. साहब बड़े मजे में बोल रहे थे - तो साहब मैं तक़रीर नहीं करूंगा। मैं तो तीन सौ मील का सफर करके और दो रातें आंखों में काट के आपके पास सिर्फ़ यह कहने आया हूं कि कांग्रेस को वोट देने से क्या फ़ायदा? अब तक क्या फ़ायदा हुआ जो अब कोई फायदा होगा। जनसंघ और मुस्लिम लीग और इस तरह की दूसरी पार्टियां तो न किसी गिनती में, न शुमार में, नफ़रत के इन ताजिरों से हमें या आपको क्या लेना-देना? अब आइये, लाल झंडे वालों को लीजिए। तो साहब, लाल झंडा तो सौ फ़ीसदी बिदेसी हैं... वह रुके। भीड़ को घूरा, चेहरा जरा सख्त पड़ा और फिर कड़कदार आवाज में बोले - अगर यह सच है कि हिंदुस्तान आजाद हो गया है तो आपके वोटों का हक़दार सिर्फ़ कोई आजाद उम्मीदवार ही हो सकता है और बाबू द्वारका प्रसाद से ज्यादा आजाद तो कोई दूसरा उम्मीदवार है नहीं...
बाबूजी के लोगों ने तालियां बजायीं।
एम.एल.ए. साहब मुसकराये बोले - तो मैं यह अर्ज कर रहा था कि मैं कोई तक़रीर नहीं करूंगा। हां, आप लोगों में से कोई साहब कोई सवाल करना चाहें, तो मैं हाजिर हूं।
कोई साहब नहीं बोले।
एम.एल.ए. साहब ने कहा - कोई बात नहीं। मैं खुद ही आपकी तरफ़ से सवाल भी करूंगा और जवाब भी दूंगा। आप कह सकते हैं कि बाबूजी को वोट देने से क्या फ़ायदा, वह कर ही क्या सकते हैं? बिलकुल सही सवाल है... आपका, और मैं इस सवाल का सीधा जवाब देता हूं। बाबू जी एम.एल.ए. हो जाने के बाद आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। पर जब मैं पूछता हूं कि अब से पहले आप जिन लोगों को यहां से एम.एल.ए. बना चुके, उन लोगों ने आपके लिए क्या किया? कितने तीर मारे? कितने मैदान जीते? तो फिर आप बाबूजी ही से यह सवाल क्यों करें? अब तक तो आप लोगों को इसका आदी हो जाना चाहिए था कि जिसे वोट दिया जाता है, वह आपके लिए कुछ करता-वरता नहीं। पर बाबूजी और दूसरों में एक फ़र्क जरूर है। यह दूसरों की तरह आपसे झूठे वादे नहीं कर रहे हैं। यह एलेक्शन मेनिफेस्टो तो नहीं बंटवाते और सबसे बड़ी बात यह है कि इनका पेट कई पुश्तों से भरा हुआ है। आप अगर फ़िर किसी भुक्खड़ को बावरचीख़ाने का दारोग़ा बनाना चाहें तो आपकी मरजी। मगर पांच बरस फिर फ़ाक़े ही करने पड़ें तो यह मत कहियेगा कि भैया बात तो एम.एल.ए. साहब सोलह आने पाव रत्ती खरी कह गये थे।
वह रुक गये क्योंकि एक नौजवान की गांधी टोपी बीच में खड़ी हो गयी थी।
एम.एल.ए. साहब मुस्कराकर बोले - कहिए मियां? टोपी ने कहा - सरकार ने हमारे लिए बहुत कुछ किया है साहब...
एम.एल.ए. साहब ने टोक दिया - बहुत कुछ किया है। गेहूं तीन सेर से ढाई सेर का कर दिया गया है ताकि लोगों को भूखे मरने में आसानी हो। क्या बात करते हो साहबजादे। अरे इस सरकार ने तो मरने तक पर टैक्स लगा दिया है। कहां रहते हो तुम, क्या किया है सरकार ने। कभी सेर भर चावल उधार दिया है उसने आपको? टैक्स में कभी मोल-तोल किया है आपने। सरकार है कि बाटा की दुकान? एक रेट बांध दिया है। जिंदगी नक़ली मिलेगी पर दाम ऐसी जिंदगी का वसूलेगी जैसे यह जिंदगी आर्डर भेज कर ख़ास आप लोगों के लिए ऊपर से मंगवायी गयी है। क्या किया है सरकार ने जरा मैं भी तो सुनूं?
बिचारी कमसिन टोपी घबरा गयी। भरे मजमें में चोरों की तरह खड़ी रह गयी। थूक घोंटकर बोली - सरकार ने क्या पन-बिजली द्वारा...
टोपी टोक दी गयी - एक मिनट मियां। आपने अच्छा याद दिलाया। पन-बिजली की बात तो मैं भूल ही गया था। सरकार ने पानी से बिजली तो जरूर निकाली है मियां पर दोस्तो, इसे कहते हैं चोरी और उस पर सीनाजोरी। असली घी अब दवा के लिए नहीं मिलता। असली मक्खन किसी को लगाने तक के लिए नहीं मिलता और यह श्रीड्डष्ण का देश कहा जाता है। चावल में इतना कंकर होता है कि कभी-कभी यह ख्याल होता है कि चावल में कंकर नहीं बल्कि कंकर में चावल मिला हुआ है। एक पानी बचा था जिसे पीकर लोग जीते थे तो सरकार ने उस पानी की बिजली निकाल ली। अरे बिजली ही निकल गयी तो पानी में रहा क्या? यह हिजड़ा पानी पीकर नयी नस्ल का क्या हाल होगा साहब? और सितम जरीफ़ी यह कि पानी की बिजली निकाल ली और वाटर टैक्स बढ़ा दिया। आप पूछते हैं कि बाबूजी एम.एल.ए. होने के बाद क्या करेंगे? बाबूजी कोशिश करेंगे कि पानी की निकली हुई बिजली पानी में वापस मिला दी जाये...
इस बार बाबूजी के आदमियों को ताली नहीं बजानी पड़ी। सामने बैठे हुए बच्चे तो कब के सो चुके थे, पर यह बात बड़े बूढ़ों की समझ में आ गयी।
बिचारी कमसिन गांधी टोपी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।
दूसरे दिन शहर के राजनीतिक वातावरण में हलचल मच गयी। किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि बेपढ़े लोगों को कैसे समझाया जाये कि पानी हिजड़ा नहीं हुआ। और दूसरे ही दिन एम.एल.ए. साहब के इशारे पर बाबूजी ने तुरुप का एक्का चल दिया। लाउडस्पीकर पर एलान किया गया कि बाबूजी खास अपने खर्च पर शहर में एक सौ पचास कुएं खुदवायेंगे और दो सौ कुओं की सफाई करवायेंगे।
सारी राजनीति धरी रह गयी। एलेक्शन मेनिफ़ेस्टो रद्दी बाजार में आ गये। अखिल भारतीय नेताओं ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया पर पानी का हिजड़ापन न गया और बाबू द्वारका प्रसाद चुनाव जीत गये।
मैं तो उसी रात वाली मीटिंग में एम.एल.ए. साहब का क़ायल हो गया था। पर फिर बात आयी गयी हो गयी। हां, जब चुनाव के दिन आते तो मुझे एम.एल.ए. साहब की याद जरूर आती और मैं सोचने लगता कि आजकल वह किसका चुनाव लड़ा रहे होंगे। बात कभी इससे आगे नहीं बढ़ी कि एक दिन फिर उनकी भनक मिली।
चुनाव ही के दिन थे। कम्युनिस्ट पार्टी के एक दोस्त ने अपनी तरफ़ से एक लतीफा सुनाया।
बोला-एम.एल.ए. साहब ने तो नाक में दम कर दिया है, यार। क्या-क्या तरकीबें सूझती हैं उन्हें अब वह कांगरेसी हो गये हैं। एक बीहड़ इलाक़े में कैन्वेसिंग करने गये। उस कांस्टिटुएंसी में हम लोग चार साल से काम कर रहे हैं और यकीन था कि इस चुनाव में हम ही जीतेंगे कि बिटिया रानी ने एम.एल.ए. साहब बुक कर दिया और साहब उस आदमी ने एक घंटे में हमारी चार साल की मेहनत पर पानी फेर दिया।
मैं हंस पड़ा - हुआ क्या?
वह बोला - हुआ वह जो कोई सोच भी नहीं सकता था। हम लोगों ने सारा जोर इस पर लगाया था कि उस क्षेत्र में एम.एल.ए. ने ट्यूबवेल लगवाने का वादा किया था। जाहिर है कि वादा पूरा नहीं हुआ तो हम लोगों ने तय किया कि चुनाव की हर मीटिंग में यही एक सवाल उठाया जाये। पर एम.एल.ए. साहब ने पैदली मात दे दी और अब इस चुनाव में तो हम लोग वहां से जीत नहीं सकते। क्या सूझती है कमबख्त को!
कहते हैं कि खड़ी दोपहर में किसानों के एक परिवार ने देखा कि एम.एल.ए. साहब साइकिल चलाते चले आ रहे हैं। साइकिल के कैरियर पर मज+बूत रस्सी से एक बक्स बंधा हुआ है।
बूढ़ा किसान बोला - लगि रहा कि ओट की फसिल आय गयी तनी पानी खींच लिया रे।
छह-सात साल का एक लड़का रस्सी-डोल ले कर कच्चे कुएं की तरफ़ लपक गया। इतने में साइकिल पास आ गयी। किसान खड़े हो गये।
बूढ़े किसान ने सलाम किया-सलाम एमएल्ले साब।
वह साइकिल से उतरते हुए बोले-सलाम भाई, सलाम। क्या हाल चाल हैं?
नौजवान किसान बोला - अहाल चाल कैयसा साब खाये को केत मिलत ना बा। हाल चाल कहां से होई...
एम.एल.ए. साहब इस बात को साफ टाल गये। वह तीन-साल के उस बच्चे के सर पर प्यार से हाथ फेरने लगे, जो उनकी तरफ़ ग़ौर से देख रहा था। बोले-अरे, यह तो जरा नहीं बढ़ा।
नौजवान किसान खड़ी बोली में बोला - इ वह लड़का नहीं है जेको आप पांच बरस पहिले देख गये रहे। वह तो आप ख़ातिर कुंए से पानी खींच रहा है। चुनाव में एही तो लंबरी खराबी है कि पांच बरिस के बाद होता है। भेंट-मुलाकात का चानस नहीं भिड़ता।
अधेड़ उम्र वाला बोला - भैया त आपको देखते ही ताड़ गये रहे कि होय न होय चुनाव का जमाना आगइल बाय नहीं त भला आपका दरसन होत इ खड़ी दुपहरिया मां!
एम.एल.ए. साहब मुसकराते रहे। उनकी मुसकराहट में एक शिकन तक नहीं पड़ी। बोले - कह लो भई, कह लो। तुम लोग नहीं कहोगे तो क्या कहने वाले किराये पर बुलाये जायेंगे रूस या चीन से तुम लोग यह सोचते हों ना कि एम.एल.ए. साहब पांच बरस के बाद आते हैं और वह भी वोट मांगने पर भई राम अवतार, हम तो हैं खल्क के ख़ादिम - क्या कहते हैं, हां, जनता के सेवक और जनता खाली इस गांव के आस पास तो रहती नहीं। सारे सूबे, मतलब पर देश का चक्कर लगाना पड़ता है। जब तक इधर का नंबर आये-आये पांच बरस बीत जाते हैं। रुपये की तरह बरस की कीमत भी बहुत लटक गयी है। दन से ख़तम हो जाता है।
लड़का पानी ले कर आ गया और एम.एल.ए. साहब कुल्ली करने और हाथ-मुंह धोने में लग गये। पर बोलते भी जा रहे थे कि जो वह न बोलते तो इसका ख़तरा था कि नौजवान किसान फिर कोई टेढ़ी बात शुरू कर देगा - अब साइकिल नहीं चलायी जाती। थक जाता हूं। पर क्या करूं, न आऊं तो तुम लोग ताना दोगे।
बूढ़ा किसान बोला - एक ठो मोटर कौन लिजिए। सब झंझटे खतम हो जायी।
एम.एल.ए. साहब आख़िरी कुल्ली करने के बाद बोले - क्या बात करते हो? अरे हम वह नहीं हैं जो मोटर पर चढ़ के इंकिलाब की ख्बर सुनाते फ़िरते हैं। और क़ौम के गम में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ। जनता तो धूप में जले और जनता का ख़ादिम मोटरों पर दनदनाता फिरे, तो लानत है उस आदमी पर।
बूढ़ा किसान लाजवाब-सा हो गया। बोला - बाकी...
पर एम.एल.ए. साहब भला उसे कहां बोलने देते। बात काट के बोले-न बाक़ी न जमा। इंदिरा गांधी एक दिन हम से खुद बोलीं कि एम.एल.ए. भाई, हमको भाई कहती है। रक्षा बंधन पर जो मैं दिल्ली न जाऊं, तो फूल जाती है, हां तो क्या कह रहा था मैं कि वह एक दिन खुद बोलीं कि एम.एल.ए. भाई, कहिए तो आपको एक आधा मोटर खरिदवा दूं। मैंने कहा, बिटिया मुझे तो माफ़ ही रक्खो। हमको हवाई जहाज पर चढ़ के जनता के दुःख-दर्द का तमाशा देखने का कोई शौक नहीं है। भरी सभा में जो मैंने तड़ाक से यह कहा तो बिटिया का मुंह इत्ता-सा हो गया - वह रुक गये और शेरवानी की जेब से पानों की डिबिया निकाल कर पान खाने में लग गये।
किसान परिवार मुंह खोले इस इंतिजार में कि आगे क्या होगा।
एम.एल.ए. साहब ने पान खाने और डिबिया को जेब में रखने के बाद फिर बात का सिरा थामा - तो बिटिया खिसिया के हंसने लगीं। अरे भई, हम क्यों दबें किसी से। हम सियासत, मतलब राजनीति का काला व्योपार तो करते नहीं। खरे आदमी हैं और खरी बोलते हैं।
नौजवान किसान तक पर रोब पड़ गया। पूछने लगा - आप परधान मंतरी से ई बोल दिया?
वह बोले - क्यों न बोलता। भाई दीनदयाल शर्मा की तरफ़ मुड़ के बोलीं - हम इस साल एम.एल.ए. भाई को टिकट देना चाहते हैं। शर्मा जी पूछने लगे, कितने टिकट दे दूं। मैने पूछा, सनीमा ओनीमा के टिकट की बात हो रही है क्या? इस पर शर्मा जी झेंप गये और बिटिया खिलखिला के हंसने लगीं। जब हंसी ख्तम हुई तब हमने बिटिया से कहा कि हम तो गांधी जी के नाम लेवा हैं। चुनाव हरगिज नहीं लड़ेंगे। पर जो हमको ख़ुश करना चाहती ही हो तो सेठ धरमदास को टिकट दे दो। अब मेरी बात तो वह टाल नहीं सकती थीं। जगजीवन राम, दीनदयाल शर्मा, ए साहब चावन साब ने एड़ी चोटी का ज+ोर लगा दिया कि धरमदास को किसी तरह टिकट न मिलने पाये। पर बिटिया ठन गयी कि एम.एल.ए. भाई ने जिंदगी में पहली मरतबा तो कुछ मांगा है। टिकट तो उसी को मिलेगा, जिसे भाई टिकट दिलवाना चाहेंगे। तो सेठ साहब को टिकट मिल गया और चुनाव का सारा भार मेरे सर आया। अब घूम रहे हैं गांव-गांव वोट मांगते
नौजवान बोला - ए साहब आप का कहा सिर आंख पर। पर हम काहे को वोट दें आपके कहे से? बदले में हम्में का मिलेगा? पिछले चुनाव से पहिले आप बचन दे गये रहे कि चुनाव के बाद हिया ट्युबबेल लग जायेगा। कहां है ऊ ट्युबबेल?
एम.एल.ए. साहब को ताव आ गया। बोले - क्या कही, नहीं लगा वह ट्युबबेल? अभी ख्बर लेता हूं बिटिया की। ज+रा वह बक्सा उतरवाना -
साइकिल के कैरियर से बक्सा उतर कर उनके सामने आया उन्होंने उसे खोला। उसमें एक ड्राई बैट्री सेट था। लकड़ी का एक चौकोर तख्+ाता था जिसमें दो बल्ब लगे हुए थे। दो प्वाइंट्स थे। टेलिफोन का एक चोंगा था। एम.एल.ए. साहब ने चोंगे का प्लग लगाया। तख्+ते को बैट्री से जोड़ा दोनों बल्ब जलने-बुझने लगे किसानों का मुंह खुले का खुला रह गया। पर एम.एल.ए. साहब उनकी तरफ देख ही नहीं रहे थे। वह तो गुस्से में नंबर डायल कर रहे थे। नंबर मिल गया। यह धाड़े - हलो कौन? जगजीवन राम? अरे भई आपसे कौन बात कर रहा है। मैं एम.एल.ए. बोल रहा हूं। नमस्ते नमस्ते। ज+रा प्रियदर्शनी को फ़ोन दीजिए। अब आप प्रियदर्शनी को नहीं जानते? अरे साहब प्रइम मिनिस्टर। वजीरे-आजम। परधान मंत्री। अब समझे कि अरबी फ़ारसी में भी बोलूं? क्या लोग हैं - क्या कहा? सो रही हैं। अरे तो जगा दीजिए साहब। आप क्या मक्खी झल रहे हैं -
उन्होंने किसानों की तरफ देखा जो उनके रोब के बोझ से दबे जा रहे थे। बूढ़ा किसान तो डरा-डरा-सा लग रहा था कि कहीं पता चल गया कि जगजीवन राम पर उसके पास से झाड़ पड़ी है और पुलिस ने पूछ गछ शुरू की तो वह क्या जवाब देगा। बोला - अरे रहे देई, भुला गइल हो इहें, ट्युबबेल कहां भागल जात बा लग जाई।
एम.एल.ए. साहब कहां रुकने वाले थे। बोले-रहने कैसे दूं जी, झूठा तो मैं बना ना - हलो, बिटिया? यह सब क्या आफ़त मचा रक्खी भई तुमने? ऐं? एक ट्युबबेल नहीं लगवा सकती तो परधान मंतरी बनी क्या बैठी हो? इस्तेफ़ा देके छुट्टी करो - नहीं नहीं नहीं, इस बहानेबाजी से काम नहीं चलेगा - अरे अमरीका से ट्युबबेल नहीं आया तो हम क्या करें। तुम तो वहां दिल्ली में बैठी हो, जनता को सामना तो मुझे करना पड़ता है - क्या कहा? मार्च तक ज+रूर लग जायेगा। ठीक है। मार्च में अब कितने दिन रह गये हैं। पर कान खोल के सुन लो कि जो मार्च तक ट्युबबेल न लग गया तो मैं फ्लोर क्रास करके अपोजिशन में मिल जाऊंगा और जो मैं अपोजि+शन में चला गया तो समझ लो कि न तुम्हारी पार्टी की ख़ैर है न तुम्हारी सरकार की - हाँ, हाँ, ठीक है। अब बंद करो फोन, तुम्हें तो कोई काम-धाम है नहीं, बस फोन ले कर बैठ गयीं।
एम.एल.ए. साहब ने फ़ोन रख दिया और डरे हुए किसानों की तरफ़ देखकर उदासी से मुसकराते हुए बोले - तुम लोगों की वजह से झाड़ पड़ गयी बिचारी पर। मगर अब मार्च नहीं तो अपरैल तक ट्युबबेल ज+रूर लग जायेगा।
उन्होंने बक्सा बंद किया। उसे नौजवान किसान की तरफ सरकाते हुए बोले - ज+रा इसे साइकिल पर चढ़ा दो। नौजवान किसान का सारा विरोध ख़त्म हो चुका था। जो आदमी प्रधान मंत्री को डांट पिला दे उससे डरना चाहिए।
तो एम.एल.ए. साहब अपने टेलिफोन समेत साइकिल पर चले गये और कम्युनिस्ट पार्टी यह सोचती रह गयी कि लोगों को यह कैसे बतायें कि फोन यूं नहीं किये जाते। सुनेगा कौन, क्योंकि यह तो आंखों देखी बात थी। जब तक पार्टी वालों को पता चले यह बात जंगल की आग की तरह फैल गयी कि प्रधान मंत्री पर एम.एल.ए. साहब की डांट पड़ गयी और उन्होंने खुद वादा किया है कि मार्च में ट्युबबेल लग जायेगा।
चुनाव का नतीजा क्या निकला यह मुझे नहीं मालूम। पर मैं सोच में पड़ गया। यह एम.एल.ए. साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी हैं। यानी यह आदमी तो कहीं रुकने वाला ही नहीं, धूल में रस्सी बटने की कहावत भी साफ़ समझ में आ गयी और जी चाहने लगा कि एम.एल.ए. साहब से मिला जाये। पर जिंदगी के अपने चक्कर होते हैं। आदमी जिससे मिलना चाहता है उसी से नहीं मिल पाता और जिनसे नहीं मिलना चाहता उनसे बार-बार मिलना पड़ता है और हर बार यह साबित करना पड़ता है कि उनसे मिल कर बड़ी खुशी हुई।
जिंदगी की तमाम भाग-दौड़ के बावजूद एम.एल.ए. साहब मेरे दिमाग़ के एक कोने में पड़े रहे और मैं उनके बारे में सोचता रहा। पर उनसे मिलने की कोई शक्ल न निकली क्योंकि हम दोनों के क्षेत्र अलग-अलग थे। वह राजनीति के ट्रेव्लिंग एजेंट थे। उठल्लू चूल्हे। आज यहां और कल वहां और चूंकि राजनीति उनका आदर्श नहीं थी बल्कि केवल पेशा थी इसलिए उनका कोई एक मंच भी नहीं था। जैसे रंडियां मुजरे का बीड़ा लेती हैं। वह चुनाव का बीड़ा लिया करते थे। उन्हें इससे मतलब नहीं था कि चुनाव लड़ कौन रहा है। जनसंघ से लेकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तक वह सबका चुनाव लड़ाने को तैयार रहते थे और चुनाव लड़ाते तो ऐसा कभी नहीं लगता कि वह किराये पर लाये गये हैं। लगता कि जो कुछ कह रहे हैं वही उनके दिल में है। उनके जानने वाले उनके रेल-टिकट को देख कर भांप लिया करते थे कि चुनाव कहीं होने वाला है? फ़र्स्ट क्लास में सफर करते तो बताये बिना लोग जान लेते कि चुनाव कम-से-कम असंबली का है। सेकेंड में दिखाई देते तो इसका मतलब यह निकलता कि चुनाव म्युनिसिपैलिटी या टाउन एरिया का है। थर्ड में होते तो मतलब यह कि अपने किसी काम से मजबूरन यात्रा कर रहे हैं।
कवि कवि सम्मेलन मारते हैं मां-बाप चांटा मारते हैं। पहलवान दंगल मारते हैं। छैले आंख मारते हैं। अमरीका वाले बम मारते हैं। एम.एल.ए. साहब चुनाव मारा करते थे।
चुनाव के दिन आते तो महीनों पहले से उनकी आव भगत शुरू हो जाती। भांत-भांत के लोग उनके घर पर दिखाई देने लगते मोल-तोल शुरू होता। चाय चल रही है। पुराने चुनावों के हथकंडे सुनाये जा रहे हैं और साथ ही साथ एम.एल.ए. साहब यह भांपने में लगे हैं कि असामी कितने में कटेगा - एक आध बार तो ऐसा भी हुआ कि एम.एल.ए. साहब को पता चलता कि उन्होंने एक ही कास्टिटुएंसी के दो उम्मीदवारों से पैसे ले लिये हैं। अब वह धर्म-संकट में पड़ जाते। पर वह आदमी नमक हराम नहीं थे। थे? देखिए यह बताना तो भूल ही गया कि एम.एल.ए. साहब का देहांत हो चुका है और यह लेख नहीं श्रदांजली है। उन्हें थे लिखना बड़ा अजीब लग रहा है। हो सकता है कि ऊपर भी कोई चुनाव हो रहा हो और एम.एल.ए. साहब ने यहां का बीड़ा ले लिया हो। क्योंकि जो आदमी इतना जीवित हो वह मर कैसे सकता है।
उनके मर जाने से भारतीय डिमाक्रेसी का इतना बड़ा नुक़सान होगा कि मैं कह नहीं सकता। क्योंकि उनके सिवा भारत में मुझे कोई पक्का राजनीतिक दिखाई ही नहीं देता। चुनाव उनका पेशा भी था और जिंदगी भी। चुनाव हारने या जीतने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी और यही उनका सबसे बड़ा गुण था।
क्योंकि घपले तो चुनाव हारने या जीतने के बाद ही शुरू होते हैं। जो जीत जाते हैं वह घूस खाना शुरू कर देते हैं और जो हार जाते हैं वह डिमाक्रेसी बचाओ आन्दोलन चलाने में लग जाते हैं और उस वक्त तक यह आंदोलन चलाते रहते हैं जब तक कि खुद चुनाव न जीत लें, चुनाव जीत कर वह घूस खाने में लग जाते हैं और डिमाक्रेसी बचाओ आन्दोलन उनके हाथ में आ जाता है जो अब चुनाव हारे हैं।
यही कारण है कि एम.एल.ए. साहब कभी भारतीय प्रजातंत्र के भविष्य से मायूस नहीं हुए। उनका कहना था कि कोई-न-कोई तो चुनाव हारेगा वह अगले पांच बरसों तक प्रजातंत्र बचाओ आंदोलन अवश्य चलायेगा क्योंकि यदि इस बीच में प्रजातंत्र का देहांत हो गया तो फिर उन्हें चुनाव जीतने का अवसर ही नहीं मिलेगा।
उनका थीसिस यह था कि भारत में प्रजातंत्र चुनाव हारने वालों की अथक कोशिशों की वजह से बचा हुआ है और साहब आप बुरा मानें या भला, इस मामले में मैं एम.एल.ए. साहब से सहमत हूं।
सुना है कि मरने से कुछ ही दिनों पहले वह एक आल इंडिया चुनाव हारन कमेटी के नाम से एक अखिल भारतीय पार्टी बनाने की सोच रहे थे और इस सिलसिले में बहुत से सुप्रसिद्ध चुनाव हारने वालों से उनकी बातचीत चल रही थी। यदि यह पार्टी बन गयी हो तो यह अपनी तरह की पहली पार्टी होती और विश्व राजनीति के इतिहास में उनका नाम सोने के अक्षरों से लिखा जाता, पर उनका नाम था क्या? उनके पिता के सिवा उनका नाम किसी को याद नहीं, क्योंकि तमाम लोग उन्हें एम.एल.ए. साहब ही के नाम से जाना करते थे। उनकी पत्नी तक उन्हें एम.एल.ए. साहब ही कहा करती थीं। मैंने वोटरों की लिस्ट देखी तो पता चला कि उसमें उनका नाम ही नहीं है, वह वोटर बने ही नहीं। उनका कहना था कि जो वह वोटर बने तो किसी-न-किसी उल्लू के पट्ठे को वोट देना ही पड़ेगा और वह किसी को इस लायक़ ही नहीं समझते थे कि उसे वोट दिया जाये।
बहुत छानबीन के बाद पता चला कि उनका नाम लतीफ़ अहमद था। नास्तिक थे इसलिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मौलाना कहे गये। जल्दी में पुकारना हो तो मौलाना लतीफ अहमद पुकारने में देर लगती थी और जब तक नाम पूरा हो, यह एक-आध फर्लांग निकल जाया करते थे, क्योंकि इन्हें तेज चलने का खब्त था। ख़ाली मौलाना पुकारो तो डिपार्टमेंट ऑफ थियालोजी का कोई विद्यार्थी मुड़ पड़ता। उन दिनों यूनिवर्सिटी में १० या ११ लतीफ़ अहमद थे। तो मौलाना लतीफ़ अहमद को जल्दी में पुकारने लाय+क बनाने के लिए एम.एल.ए. कर दिया गया।
पहली जनवरी १९२२ को सवेरे चार बजे पैदा हुए।
इकत्तीस दिसंबर १९७४ को मरे।
होश संभालने से लेकर होश गवाने तक केवल चुनाव लड़ाते रहे।
उन्होंने अपने पीछे एक बाप, दो माएं और एक पत्नी छोड़ीं।
एक आदमी की पूरी जि+ंदगी इन तीन जुमलों में आ गयी। तीन जुमले भी मरने के बाद मिलते हैं। जिं+दगी तो एक जुमले में आ जाती है। जन्मदिन - जो शायद इसलिए महत्त्वपूर्ण होता है कि उसके सहारे मरने के दिन गिनने में आसानी होती है।
पर एम.एल.ए. साहब चुनाव हारने वालों को सदा याद आते रहेंगे। उनके मर जाने से चुनाव का मजा आधे से कम रह गया। भारतीय प्रजातंत्र को उतना नुकसान श्रीमती गांधी या श्री जयप्रकाश नारायण मिल-मिला कर भी नहीं पहुंचा सकते, उसे उतना नुकसान मौत के फ़रिश्ते ने पहुंचा दिया। मैं मांग करता हूं कि उनकी मौत की छानबीन की जाये। मुझे तो इसमें साफ़ सी०आई०ए० का हाथ दिखाई देता है और यदि ऐसा नहीं तो फिर यह काम - जाने दीजिए। नाम लेने से क्या फ़ायदा। पाकिस्तान के स्वर्गवासी डॉक्टर तासीर का एक शेर याद आया -
दावरे-हश्र मेरा नामये-आमाल न देख।
इसमें कुछ पर्दानशीनों के भी नाम आते हैं॥

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