Tuesday, April 20, 2010

मैं एक फेरीवाला के सन्दर्भ में

- डॉ० आदित्य प्रचण्डिया



कविता सम्पूर्ण चेतना की अखण्ड अभिव्यक्ति है, वह खण्डित व्यक्तित्व की बौ(कि शब्द लीला मात्र नहीं है। असम्बद्ध शब्द जाल और व्यक्ति वैचित्रयवाद की कारीगरी से पाठक को उलझाने और वास्तविक कवि कर्म में बृहद्न्तर हैं। कविधर्म कोरे फ़ैशन से भिन्न होता है। नया भावबोध या नई अभिव्यक्ति के चिल्लाने मात्र से काव्य का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। किसी काव्य की क्षमता उसमें चित्रित अनुभूति गहनता और शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता में निहित है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काव्य में हृदय के सहज उद्रेक और उसके साथ निश्छल अभिव्यक्ति का योग अनिवार्य है।१ राही का कवि-मन अपने को समझने के साथ भविष्य के प्रति आशापूर्ण है। उसकी कविता व्यापक सत्य की व्यंजना करने की चेष्टा करती है। वह सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक है। उसमें बौ(किता अनुभूतियों के रूप में आत्मसात्‌ होकर अभिव्यक्त हुई है और संवेदनशीलता एक अनिवार्य गुण के रूप में विद्यमान है। राही स्वयं कहते हैं- कविता नई या पुरानी नहीं होती। नई या पुरानी होती है कवि की चेतना। व्यक्ति और समाज तथा समाज और प्रकृति के सम्बन्धों की चेतना। इस चेतना के लिए यह ज+रूरी नहीं कि जि+न्दगी को उसके हर रूप में जीकर देखा जाये। क्योंकि यह तो हुआ अनुभव। अनुभव का एक अपना महत्त्व है, पर अनुभव चेतना का बदल नहीं है क्योंकि दूध का जला हमेशा छाछ को फूँक-फूँक कर पीना चाहता है। कभी-कभी फिर से मुँह जलाने को जी चाहने लगता है। यही अपने मुँह को बार-बार जलाने वाला कवि है। मुंह गया जहन्नुम में, पर जिन्दगी को गर्म-गर्म पीने की बात ही और है।''२

राही की कविता युग की विषण्णुता, छल-छद्म भरे वातावरण और स्वार्थपरता की समान प्रतिक्रिया है। जीवन के कठोर संघर्षों और गम्भीरतम रहस्यों का उद्घाटन करने में राही की लेखनी तत्पर रही है। उनकी कविता पौरुष और कोमल दोनों सीमान्तों को स्पष्ट करती है। बाह्यजगत्‌ और मनोजगत्‌, ग्राम-जीवन और नगर-बोध, क्रान्तिदर्शी दृष्टि और मर्मभेदी दृष्टि, स्वप्न दर्शन और यथार्थ चित्रण,उत्पीड़न के प्रति आक्रोश और शोषितों के प्रति करुणा, व्यंग्य, कटाक्ष और विनोद सभी का संश्लेषण और समंजन देखने को मिलता है। राही जीवन रस के आस्थावान कवि हैं। वह वादों से अलग रहकर, स्वतंत्र डगर पर चलने वाले स्वतंत्र चेता प्राणवान कलाकार है। जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में वह आशा का सन्देश देते हैं। उनके काव्य में सर्वत्र ऊर्जा और मार्दव, आशा -निराशा, मृत्यु-भय और जिजीविषा के धूप-छाँही रंग देखने को मिलते हैं पर अन्ततःउनकी आस्था, आत्म-विश्वास, मानव चेतना की उज्ज्वल आभा में अडिग विश्वास उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जिससे वह दैन्य, अवसाद, पीड़ा और निराशा की छाती पर पाँव टेककर खड़े हो जाते हैं, आग उगलते ज्वालामुखी को अपने हाथों से मँदने की तत्परता दिखाते हैं और अंध का पूर्ण सागर के पार नव चेतना का आलोक देखते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में राही की कविता की एक अपनी अलग स्थिति हैं। उनकी कविता आधुनिकता की प्रचलित अवधारणा अथवा उसके प्रतिमानों को चुनौती देने वाली कविता है।

मैं एक फेरीवाला' संग्रह में राही द्वारा सन्‌ १९५५ से सन्‌ १९७३ तक लिखित पचपन रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह की कविताओं में राही ने अपना काव्यादर्श प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की कविताओं के विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि राही ने अपनी काव्यभूमि पा ली है, अपनी कविता का प्रकृत मार्ग खोज लिया है। कवि समाज के सामान्य व्यक्तियों से निराला होता है। उसके जीवन-यापन के तौर-तरीके ही कुछ भिन्न होते हैं और इसी कारण उसके सोचने-समझने के रंग-ढंग साधारण व्यक्ति से भिन्न होते हैं। दरअसल युग के जीवन-दर्शन में उस युग की दृष्टि, उसका अपना मन्तव्य, बिम्ब और फिर उससे प्रभावित उसकी प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कवि असाधारण संवेदनशील होने के कारण अपने युग की इन प्रभावित प्रक्रियाओं और आयामों से बहुत दूर तक प्रभावित होता है। और फिर अपना जीवन दर्शन बनाता हैं जीवन दर्शन के अन्तर्गत जीवन-दृष्टि, जीवन-बिम्ब, जीवन-प्रक्रिया और जीवन-मूल्य सिद्धान्त माने जाते है। वास्तव में जीवन-दर्शन से व्यक्ति का जीवन बिम्ब ;जीवन जीने का लक्ष्यद्ध बनता है और फिर उससे उसकी जीवनदृष्टि जीवन जीने की दृष्टि बनती है, तद्नुसार उसके जीवन की प्रक्रिया सम्पादित होती है और फिर उसके जीवन-मूल्य ;सिद्धान्त निर्मित होते हैं।

राही के जीवन-बिम्ब युग-सापेक्ष और कुछ विरले ही थे। इसी कारण उनकी जीवनदृष्टि और उसकी प्रक्रिया बड़ी दु्रतगामी बनी रही। उनके जीवन की कला अपूर्ण ही थी। वे तो हर वक्त मगन रहना चाहते थे, किन्तु प्रारम्भ से ही उन्होंने जीवन से संघर्ष किया, अतः वह मगन रहने की प्रवृत्ति' ग्राम्भीर्य और चिन्तनशील रूप धारण करती चली गई। वास्तव में राही जिन्दगी जीने का ढंग जानते थे, जिन्दगी से भागना उन्होंने नहीं सीखा था। राही के शब्द-शब्द में विश्वसनीयता और जीवन-संघर्ष के रूप में उनका जीवन-दर्शन स्पष्ट झलकता है। इस जीवन-दर्शन से प्रभावित कवि परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्षरत रहना अधिक आवश्यक समझता है। परिवर्तन समाज-मानव का विकास है और इस परिवर्तन के लिए मरना कोई मरना नहीं होता। अपितु कवि राही तो मृत्यु'में एक नई राह देखता है -

मेरा जिस्म तो मर जाएगा/लेकिन सब्जा शबनम के पैमाने लेकर/आब्ला-पा लोगों की राहों में बैठेगा/लेकिन चाँद हर एक घर में लोरी गाएगा/ लेकिन सूरज हर-एक दरवाज+े पर जाकर दस्तक देगा/वादे-सहर खुशबू को कन्धों पर बिठलाकर दुनिया दिखलाने निकलेगी/फिर मैं कैसे मर सकता हूँ ?३

कवि की प्रबल जिजीविषा उसे पराजय स्वीकार नहीं करने देती, मृत्यु-भय उसे आतंकित नहीं करता, अपितु मुरझाए जीवन को पल्लवित करना चाहता है। वह मौत के जबड़े पकड़ जिन्दगी का अर्क पीने का अभिलाषी है।

कवि मनुष्य की सम्पूर्ण आत्मा को सक्रिय और गतिमान बनाता है और वह तभी ऐसा कर सकता है जब कविता केवल भावों का सहज उच्छलन न हो, वह चिन्तन, मनन और दर्शन की भूमि पर अधिष्ठित हो। ÷मैं एक फेरीवाला'संग्रह की कविताओं को देख-पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि राही भावनाओं में बिहार करने के साथ-साथ मानस-मंथन कर विचार-मणियों को उद्भासित करने वाले मनीषी भी है। उन्होंने जगत्‌ की विषमताओं, मानव -हृदय और आत्मा को व्याकुल बना देने वाली गूढ़ समस्याओं पर विचार किया है और यथाशक्ति उनका उपचार करने के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। धर्मवीर भारती कहते हैं अन्दर के गहरे सैद्धान्तिक विश्वास ;स्थाई जीवन दर्शनद्ध जब केवल वैचारिक न रहकर जिन्दगी जीने की पूरी शैली बन जाते हैं और अपने को उन तमाम संस्कारों से सम्बद्ध कर लेते हैं जो बचपन से कैशोर्य तक खानपान और आसपास के परिवेश से मिले हों-तो एक खास किस्म का तेवर व्यक्तित्व में आ जाता है, वह तेवर ओढ़ा हुआ नहीं होता। वह समूचे व्यक्ति की स्थाई अभिव्यक्ति बन जाता है-आचरण में भी लेखन में भी। उनकी कविता का पाठक अगर इस तेवर को पकड़ ले तो उनकी कविता एक अजीब कशिश पैदा कर देगी उनके मन में। उनका डिक्शन, उनके छन्द, उनकी उपमाएँ, उनके बिम्ब सब में यह तेवर जान की तरह बसा हुआ है।''४ राही का वह तेवर बहुत मुलायम, बहुत नाजुक संवेदन वाला है। यथा-

पोर पोर में मेंहदी की मीठी खुशबू के छल्ले पहने/बाल सँवारे/चंचल आँखों के पैरों में काजल की जंजीरें डाल/ जब वह दरवाजे तक आई/दरवाजे पर कोई नहीं था/धूल किसी के नक्शे-कदम से खेल रही थी।५

लगता है कोई पद्माकर या मतिराम आधुनिक मुहावरे में वाल्टर डिला मेयर के उस काव्य-स्तर को छू रहा है। जहाँ समय थम जाता है और एक क्षण की घटना समय से परे की फन्तासी बन जाती है।६

आधुनिक युग यांत्रिकता, औद्योगीकरण, भौतिक समृ, द्धि हृदय की संकीर्णता और मूल्यों के विघटन का युग है। बाह्‌य सम्पन्नता के पीछे आत्मा की दरिद्रता झांक रही है ऊपरी तड़क-भड़क के नीचे मानवता कराह रही है। विज्ञान ने जिस स्वर्णिम आभा का विश्वास दिलाया था, वह मुलम्मा सिद्ध हो रही है। लोगों के नेत्रों पर से भ्रान्ति का पर्दा उठ रहा है, इस मोहभंग की स्थिति में निराशा, कुंठा, संत्रास का वातावरण बनना स्वभाविक हैं। आधुनिक जीवन की विकृतियों, विसंगतियों और विद्रुपताओं से कवि राही का तेवर चोट खाकर, पलटकर, तनकर खड़ा हो जाता है, धधकता हुआ जब उनके मूलभूत विश्वासों पर कोई चोट करता है या उन पर वह संज्ञा लादने की कोशिश करता है जो उनके सन्दर्भ में बुनियादी तौर पर अधूरी या असंगत है। ÷गंगा और महादेव' कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बजायें जाग रही हैं।

और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूँ-

मेरा भी एक सन्देस है/मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुँह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दोः/महादेव/अब इस गंगा को वापस ले लो/यह ज+लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बन-बनकर दौड़ रही है। ७

इस रचना में एक वर्तमान सामाजिक या सियासी वैषम्य पर भरपूर चोट है वरन्‌ इसलिए कि एक अनन्त संघर्ष जो कविता के व्यापक मानवीय सत्य और बाहर के वैषम्यपूर्ण पूर्वाग्रह युक्त समाज में व्याप्त मीडियाकर यथार्थ में चलता आया है उसे जब भी किसी तेवर वाले कवि-कलाकार या चिन्तक ने पूरे आन्तरिक बल से चुनौती दी है, बेलाग बेहिचक चोट की है तब अक्सर उसको उसका अजीब मूल्य चुकाना पड़ा है। हाथी के नीचे कुचला गंग, सूली पर चढ़ा मन्सूर, देश से निर्वासित बायरन और शैली, अमरीका से बहिष्कृत चार्ली चैपलिन, रूस में कुचला हुआ पास्तरनाक। ये सिर्फ़ चन्द उदाहरण हैं। धर्मवीर भारती के शब्दों में राही कम्बख्त जब तन कर अपने आन्तरिक कवि सत्य को अपने चुल्लूभर गंगाजल-लहू को अपने आख़िरी हथियार की तरह लेकर उठ खड़ा होता है तो मुझे अपने इस प्यारे दोस्त पर जितना फ़ख्र होता है उतनी फ़िक्र भी होने लगती है।''८

कवि राही की बादल कविता मानवीकरण का मनोरम रूप है। यहाँ कवि का अन्तर्मन अपने वैयक्तिक रूप में खुलकर स्पष्ट हो पड़ता है। पानी के कुछ प्यासे कतरे बस्ती-बस्ती, सहरा-सहरा होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं। यथा-

बादल क्या हैं/पानी के कुछ प्यासे कतरे/घर से निकले/ बाल उलझे/तलवों में छाले/बस्ती-बस्ती/सहरा-सहरा/होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं।९

ऐसे निरूपण से स्पष्ट है कि यहाँ भावक की नितान्त वैयक्तिक प्रतीति को वाणी प्रदान करते हुए प्रकृति-सन्दर्भ को संजीवित किया गया है।

हृदय की व्याप्ति सीमित नहीं है परन्तु परिधि सौन्दर्य के सम्मुख वह असीमता भी सीमित हो जाती है, तब सौन्दर्य कितना असीम, कितना अनन्त और कितना विराट है। हृदय के प्रसार के साथ ही सौन्दर्य भी विस्तृत होता जाता है वह पानी की एक ऐसी बूँद है जिसकी तृष्णा नहीं मरती जो नहीं पीता वह तो प्यासा रहता ही है, पर जो पीता है उसकी प्यास का तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऐसा ही प्यासा है यह कवि राही मासूम रजा। प्यास और पानी'कविता में राही कहते हैं -

मैंने जब भी जन्म लिया है/अपने को तनहा पाया है/अपने को प्यासा पाया है/पानी/पानी/इस नन्हे से लफ्+ज+ में कितनी मौसीकी है/पानी, पानी/मैंने जब भी जन्म लिया है/इन लफ्+जों पर गौर किया है।''१०

हृदय की अतृप्त पिपासा ही इस कविता की मूल विशेषता है। हृदय क्या है ? विविध भावनाओं का रसभरा कोष ही न। इसीलिए केन्द्रीय ध्वनि ऐक्य होने पर भी आशा, आकांक्षा, असूया, उत्साह, उत्कंठा, उन्माद, त्रास, क्षोभ, दैन्य, निर्वेद, भ्रम, विश्वास, विषाद आदि भावोर्मियाँ यत्र-तत्र उभरी दिखाई देती है। हाँ, कवि के आशावादी आग्रह के कारण निराशा, भय, वितृष्णा आदि को कहीं भी स्थान नहीं मिल सका है। आत्मविश्वास की एक गम्भीर छाया समस्त कविता पर छायी है।

भय, आतंक, ऊब और अकेलापन के बोध की प्रवृत्ति राही की कविता में विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। देश के औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि और आबादी का व्यापक पैमाने पर स्थानान्तरण हुआ है। आज के प्रबुद्ध कवि और कलाकार नगरों की इस अपार भीड़ में जो अधिकतर उखड़े लोगों की भीड़ है, अपने को खोया और डूबा हुआ पाते हैं। राही को ऐसा लगता है कि वे बिल्कुल अकेले हो गए हैं उनकी परछाईयां खो गई हैं - रात के जगमगाते हुए शहर की भीड़ में/मेरी परछाइयाँ खो गई है कहीं/गैर है आस्माँ/अजनबी है जमीं/मैं पुकारूँ किसे/चल के जाऊँ कहाँ/मेरी परछाइयाँ खो गई रात के जगमगाते हुए शहर में।''११

धर्म निरपेक्षता, देशभक्ति, भावात्मक एकता वगैरह के नाम पर खड़ी बोली की उर्दू और हिन्दी दोनों शैलियों में ढेरों ग़जलें, नज्में, कविताएं लिखी गई है। इनाम अकराम भी मिले है। मगर बहुत कम ऐसी पंक्तियाँ मिली है। उनमें जहाँ कवि या शायर ने उन्हें सतही जेहन से दुनियाबी समझ बूझ के साथ न लिखकर उबलकर अपनी समूची आत्मा के साथ लिखा हो और ना समझों के मुँह पर मार दिया हो। लोग खतरा बचाकर चलते हैं, चारों ओर की फिजां देखकर बात करते है, राही बेसाख्ता सट पड़ता है। बिना किसी चीज की परवाह किए। अपनी कविता अपने सीने पर लिखकर सीना संगीनों से अड़ा देता है।१२ राही की ग़जले पढ़ने पर एक ऐसे शख्+स की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसने अपनी जिन्दगी में बहुत गम उठाये हैं मगर जो इनके कारण पूरी तरह टूट नहीं गया है। अतिशय परहित चिन्तन, संघर्षशील व्यक्ति का आत्मलोचन और ऐसे व्यक्ति की अमरता व्यंजित हुई है जो सुनसान जंगल में मुस्कराते हुए लौ की मानिंद डगमगाते-लड़खड़ाते कदम आगे बढ़ाते हुए चल रहा है -

इस अंधेरे के सुनसान जंगल में हम डगमगाते रहे, मुसकुराते रहे/लौ की मानिन्द हम लड़खड़ाते रहे, पर कदम अपने आगे बढ़ाते रहे''१३

राही की मायूसी में फ़ानी की मुकम्मल शिकस्त का एहसास नहीं मिलता। उनकी मायूसी की तुलना मीर की मायूसी से की जा सकती है जो एक लिविंग वायर' की तरह है -जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे, रोज मरते रहे, रोज जीते रहे/जिन्दगी भी हमें अजमाती रही, और हम भी उसे अजमाते रहे।''१४

राही के दिलो-जिगर में इतनी ताकत है कि उसे किसी सहारे की जरुरत नहीं है, वह अकेला होते हुए भी जिन्दा है-आज अपने कमरे में किस कदर अकेला हूँ/सिर्फ दिल धड़कता है, हाँ मैं फिर भी जिन्दा हूँ।''१५

राही के जख्मों की आवाज है कि वह मौत के वीरानों से लौट आया है फिर अपने नए अफसानों को बनाने के लिए कोई शेर और कोई नज्म उसे पुकारती है - ऐ मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन/लौट आया हूँ मैं फिर मौत के वीरानो से/फिर कोई शेर, कोई नज्म+ पुकारे मुझको/फिर मैं अफ्साने बनाऊँ तेरे अफ्सानों से।''१६

राही की शायरी की बुनियादी लय उदासी की है। यह उदासी हमारे युग की सबसे बड़ी और जीवित वास्तविकता है। राही कहते हैं कि इन नज्मों को उदासी का दिया जलाकर पढ़िये।''१७

राही के अश्‌आर बहर और मुहावरे के ऐतबार से तसल्ली बख्श है। बहर के कम ही झोल उनके यहां मिलेंगे। राही अपनी शायरी के विषय में कहते है - मेरी शायरी हिज्र' और प्यास' और तनहाई' की शायरी है और शायद यही कारण है कि मेरी इमेजेज' उर्दू के दूसरे प्रगतिशील कवियों की इमेजेज' से अलग है।''१८

राही ने लिपि के मामले में जो रुख अपनाया कि उर्दू और हिन्दी दो अलग साहित्य नहीं हैं और देवनागरी के माध्यम से दोनों की ऐतिहासिक एकता अब स्थापित हो जानी चाहिए।१९ राही को उर्दू के तरक्की पसंद और गैर तरक्की पसंद महानुभावों के विरोध का सामना करना पड़ा। राही की ग़जलों में नए इंसानी रिश्तों का बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी चित्रण हुआ हैं। इन रिश्तों में मीर और गालिब से आगे के सामाजिक परिवेश का क्रिस्टेलाइजेशन है- कमरे की कब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए/खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा/मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी/भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था।''२०

हिन्दी खड़ी बोली काव्य बहुत धीमे-धीमे विकसित हुआ था, लेकिन द्विवेदी युग से निकलकर माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन' के रहस्योन्मुख राष्ट्रीय काव्य के द्वार से होते हुए छायावाद को पार कर नई कविता के दौर में आकर अनेक दिशाओं में अनेक आयामों में विकास करता गया। उर्दू ने फ़ारसी का आधार स्वीकार कर लिया था। दरबार के मंजे हुए डिक्शन को उसने अपना लिया था। उसे किसी ब्रज या अवधी से वैसा विरोध नहीं सहना पड़ रहा था। अतः भाषा शैली और अभिव्यंजना का मँजाव उसमें हिन्दी के खड़ी बोली काव्य से बहुत पहले आ गया। लेकिन दरबार और अभिजात्य वर्ग की जेहनियत और डिक्शन से बहुत अधिक बँधे होने के कारण खास मोड़ पर आकर लगने लगा कि विषयवस्तु और शैली-रूप दोनों में एक खास ढाँचे में उर्दू कविता बँध गई है। राही की कविता की एक खास स्थिति है इन दोनों के बीच, और वह स्थिति ऐसी है कि उसे समझ लेने पर ही हिन्दी कविता से उनके इस काव्य संकलन को उचित स्थान पर सही ढंग से जोड़ा जा सकेगा। जहाँ उर्दू की कविता का बँधाव बाँझपन के बिन्दु पर पहुंच गया था, वहाँ से राही ने एक नया रास्ता तलाश करने की कोशिश की।२१

राही स्वतंत्रता के पहले प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन से जुड़कर साहित्य में आए। बाद में वामपंथी आन्दोलन निष्फल हुए। भास्वर स्वर में दहाड़ने वाले कविगण चुप हो गए। जिस प्रकार कमरे में बहुत से लोग खूब जोर से वक्तव्यबाजी कर रहे हों और अकस्मात्‌ मौन हो जाएँ तब जो सन्नाटा कमरे में छा जाता है, वह अजीब भयावना-सा सन्नाटा होता है और उसके बाद जो व्यक्ति पहली बार घबरा कर वह सन्नाटा तोड़ता है वह बहुत आहिस्ते से दबे स्वर में आसपास वालों से बोलता है। उस दहशत भरे सन्नाटे में जिन लोगों ने धीमे स्वर में आहिस्ते से बोलना शुरू किया उनमें से एक थे राही मासूम रजा। राही को यह धीमे बोलना सीखना पड़ा। क्योंकि कविता अब तकरीर से बातचीत बन गई थी। पहले उनपर मीर अनीस का डिक्शन सवार था ;उसी पर उन्होंने शोध की थीद्ध पर बाद में उन्होंने अपने लिए नया डिक्शन खोजा। काव्य के नए उपकरण खोजे और उसमें एक नए संकट के समक्ष उन्होंने अपने को पाया। राही की एक गहरी स्थापना है कि मजहब और संस्कृति दो अलग चीजें हैं। दोनों एक दूसरे को प्रभावित कर सकती है, पर संस्कृति का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है और मजहब के दायरे में उसे बांधना नहीं चाहिए। राही की मान्यता है कि भारत में रहने वाला हर आदमी, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, उसकी जड़े भारतीय ही है। ऐसे वातावरण में राही एक ओर उर्दू की सारी कट्टर धर्मान्धता को खुलेआम चुनौती देने का साहस जुटाते हैं तो दूसरी ओर जब संकीर्ण धर्मान्ध हिन्दू उन्हें मुसलमान कहकर निर्वासित करना चाहते हैं, विच्छिन्न करना चाहते है तो वह डरते नहीं, दबते नहीं, ललकार कर कहते हैं कि तुम उस गंगाजल का क्या करोगे जो मेरी नसों में लहू बनकर बह रहा है, जो गंगा के रूप में महादेव की जटाओं से ही निकला है।२२

राही ने उर्दू को अस्वाभाविक बनाने वाले इस्लामिक प्रतीकों का मोह छोड़ा। उन्होंने महापुरुष हुसैन को न लेकर हिमालय की ऊँचाइयों में अकेले भटकने वाले योगीशंकर को अपने आदर्श नायक का प्रतीक-पुरुष चुना। उनकी प्रेम-कविताओं की आलम्बन बनी राधा- शाम भी राधा के ख्+वाबों की तरह खामोश है बेजबां है। और उनके अकेलेपन में उन्हें याद आता है राम का वनवास, हम भी है वनवास में लेकिन राम नहीं। हर राही आये। अब हम को समझाकर कोई घर ले जाये।'' और वह अपना देश और अपने संस्कृति का अपना बेटा होने का यह अहसास उनमें कितना तीखा है, वसीयत'कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- मुझे लें जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना/वो मेरी माँ है/वह मेरे बदन का जहर लेगी/मगर शायद वतन से दूर मौत आये/तो मेरी यह वसीयत है/अगर उस शहर में छोटी-सी एक नदी भी बहती हो/तो मुझको उसकी गोदी में सुलाकर उससे यह कह दो कि यह गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है/वो नदी भी मेरी माँ, मेरी गंगा की तरह मेरे बदन का जहर पी लेगी।''२३

इस प्रकार राही वाद' से नहीं बँधे हैं वे अपने अनुभव और आवेग के प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं उनकी सम्पूर्ण दृष्टि समाज केन्द्रित है। वह जब जिस धारा को या जिस रेखा को लोकमंगल के लिए श्रेयस्कर मानते हैं, स्वीकारते हैं। उनका मानवतावाद किसी वाद का पूरी तरह अनुसरण स्वीकार नहीं करता वह ÷चयन' करता है, समन्वय करता हैं भावुकता और बौद्धकिता दोनों में समन्वय करते हुए जीवन और स्थिति को भोगकर अनुभवगम्य होकर राही ने रचनाएँ रची है। वे अतीत के प्रति आसक्त तो है पर वर्तमान के अनुभव जगत्‌ को कहीं नहीं भूलें हैं। फलतःएक तनाव-बिन्दु बराबर बना रहा है जो राही को नया अथवा समसामयिक बनाए रख सका है। राही की कविता प्रयत्न-साध्य नहीं, भाव-प्रेरित है, उसमें प्रतिभा है, कला की परख है, कल्पना का वैभव है और सबसे बड़ी बात उसमें मानव के प्रति एक व्यापक सहानुभूति और कर्मण्यता की अदम्य लालसा है। जीवन और जगत्‌ से गृहीत-विधि चित्रों को राही ने भावों की अनूठी लेखनी से मनभावन रंगों में रंग डाला है, और ये ही रंग उनके जीवन दर्शन को भी अभिव्यक्त करते है। इसकी केवल राही के काव्य से गुज+रकर अनुभूति ही की जा सकती है।



सन्दर्भ-सूची

१. डॉ० शिवकुमार शर्मा, हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ ५८१-५८२

२. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, कवि की ओर से, पृष्ठ १७

३. वही, मैं एक फेरीवाला,कविता संग्रह में संकलित कविता-जिन्दगी पृ. २९

४. वही, मैं एक फेरीवाला, भूमिका, पृष्ठ ७-८

५. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-एक पल, एक सदी, पृष्ठ ५७

६. वही, भूमिका, पृष्ठ ८

७. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-गंगा और महादेव, पृष्ठ ६०

८. वही, भूमिका, पृष्ठ ९

९. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-बादल,पृष्ठ ३०

१०. प्यास और पानी, मैं एक फेरीवाला, पृष्ठ ४२

११. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-दीपावली, पृष्ठ ८२

१२. वही, पृष्ठ ९

१३. वही,कविता संग्रह में संकलित-ग़ज+ल पृष्ठ २५

१४. वही, पृष्ठ २५

१५. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-तनहाई, पृष्ठ २२

१६. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज, पृष्ठ २३

१७. वही, पृष्ठ १९

१८. वही, कवि की ओर से, पृष्ठ १७

१९. वही, भूमिका, पृष्ठ १०

२०. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज,पृष्ठ २३

२१. वही, भूमिका, पृष्ठ ११-१२

२२. वही, पृष्ठ १३-१५

२३. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-वसीयत, पृष्ठ ४७





No comments: