Tuesday, December 28, 2010

एक ऐक्ट हजारों मंजर

मूल लेखक - डॉ. राही मासूम रजा

लिपियान्तरण - डॉ. शगुफ्ता नियाज

राही मासूम रजा ने उर्दू में १८-२० उपन्यास लिखा था लेकिन वह उपन्यास दूसरों के नामों - ÷शाहिद अख्तर और आफ़ाक हैदर' से छपा था। जैसाकि उन्होंने अपने साक्षात्कार में स्वयं कहा था। शाहिद अख्तर के नाम से ÷कारोबारे तमन्ना' उपन्यास लिखा था उसी का एक अंश -÷एक ऐक्ट हजारों मंजर' है।



केमिकल्स एक्जामिनर के यहाँ से रिपोर्ट आ गयी कि जो चीज+ कल्लू की दुकान से बरामद हुई थी वह कोकीन थी। इस रिपोर्ट के आते ही पूरी सरकारी मशीन हरकत में आ गयी। मुकदमा शुरू हुआ और मुकदमों के साथ ही मेहनतानों नज+रानों और रिश्वतों का एक सिलसिला शुरू हो गया। पान की दुकान बोझ नहीं उठा सकती, उसे दुकान पर बैठने की फु+र्सत नहीं मिलती थी। कभी वकील के यहाँ हैं, तो कभी कोतवाली और फिर कचहरी की दौड़।

लल्लन ने इस मौके का फ़ायदा उठाया। वह पान का खोंमचा लगा कर कल्लू की दुकान के पास ही बैठने लगा। कल्लू की दुकान बन्द होती तो बन्द दुकान के कपड़े पर बैठ जाता।

ग्राहकों की कल्लू पान वाले से कोई दिलचस्पी नहीं थी, उन्हें तो आरजू की दुकान के सामने पान की एक दुकान की ज+रूरत थी। वह कल्लू हो या अवतार या लल्लन।

नुसरतुल्ला ने कल्लू और कोकीन में कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह जानता था कि कोकीन बरामद हुई नहीं, कोकीन बरामद करवा ली गई है। उसे यह भी मालूम था कि उसी कोकीन के बरामद किये जाने में गजाधर का हाथ है। उसे यह मालूम था कि यह हमला कल्लू पर नहीं उस पर है। फिर भी उसने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली.... वह भी लल्लन की दुकान से पान खाने लगा।

मजिस्ट्रेट ने डेढ़ बरस की सजा कर दी। पाँच सौ जुर्माना ऊपर से हुआ। अदायगी न करने की सूरत में छः महीने की कैद-ए-बामशक्क़त और कल्लू ने अपील की। फिर पेशियों और मेहनतानों, नज+रानों और रिश्वतों का सिलसिला शुरू हुआ। आख़िर में सज+ा बहाल रही। कोर्ट में अपील हुई तो कल्लू को नुसरतुल्ला के यहां जाना पड़ा।

÷÷सलामअलैकुम भैय्या।''

वह बैठ गया। नुसरतुल्ला दुकान के कामों में लग गया। कल्लू चुप बैठा रहा। कोई नौ बजे जब दुकान बन्द होने लगी तब वह कल्लू से मुख़ातिब हुआ।

÷÷कैसे आये थे?''

÷÷अपील किया है न।''

÷÷अच्छा।''

÷÷अब पैसा न है।''

÷÷भई आजकल बाज+ार बहुत मन्दी है।''

÷÷थोड़ा-सा कर्ज+ दे देते।''

÷÷वह तो सब ठीक है, मैं तो कहता हँू कि चुपचाप सजा काट आये होत्ये। छः महीने की सजा ही रही न। छः महीने में का रखा है। बिला वजह हज+ार दो हजार खर्च होई। हज+ार पाँच सौ और ख्+ार्च होहियै। का फ़ायदा ई रुपया रहता तो जब छूट के अइत्यो तो काम आता।''

÷÷हम ई कहते रहे भइया कि मकनवा रहिन ले लियो।''

÷÷हम रहिन न लेंगे। बेच देयो खरीद लेंगे।''

÷÷तो रहेंगे कहाँ भैय्या।''

÷÷सोच ल्यो, हम कोई ज+बरदस्ती तो करते नहीं।''

ठीक ही था। वह कोई ज+बरदस्ती तो कर नहीं रहा था। कल्लू चुपचाप घर चला आया। शेख कलूट आंगन में हुक्का पी रहे थे। नफ़ीसन उनका बदन दबा रही थी। शरीफ़न एक खटोले पर लेटी सितारों में फूल पत्तियाँ काट रही थी। वह चुपचाप लेट गया। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसे अपना मकान किसी अजनबी का मकान मालूम हो रहा था।

थोड़ी ही देर में शेख कलूट के ख्+ार्राटों की आवाज+ आने लगी। नफ़ीसन ने बदन दबाना छोड़ दिया। वह एक कटोरा पानी पी कर लेट गयी। शरीफन भी सितारों में फूल पत्तियाँ तराशते-तराशते थक गयी तो आँखें बन्द करके न मालूम क्या-क्या सोचने लगी। मगर कल्लू जागता रहा। उसे पैसों की ज+रुरत थी। नुसरतुल्ला मकान रहिन रखने पर तैयार नहीं था। तो क्या मकान बेचना ही पड़ेगा। एक-एक ईंट ने फरियाद की। हर ईंट से ख्+वाबों की सब्ज व सुर्ख परियाँ निकलीं। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें....

सुबह सवेरे ही नुसरतुल्ला के यहाँ गया। नुसरतुल्ला अभी दुकान पर नहीं गया था। सलाम करके वह एक तरफ बैठ गया।

÷÷ख्+ारीद लीजिये भैय्या।''

÷÷आठ सौ से ज्+यादा नहीं दूंगा।''

÷÷आठ सौ....?''

÷÷और का लाटों, दो-चार लाख?''

÷÷नाही भैय्या, दो-चार लाख का लेंगे।'' वह यही कहकर रह गया असल में वह यह कहना चाहता था कि दो हज+ार रुपया लगाकर तो उसने एक खण्डर को ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बनाया था।

÷÷चलो रजिस्ट्री का रुपया मैं दे दूंगा।''

÷÷अच्छा भैय्या।''

÷÷खाली कब करोगे।''

÷÷जब कहोगे भैय्या।''

उसी दिन ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बिक गई। शाम को कल्लू आठ सौ रुपये में अपनी तमाम तमन्नायें, अपने अनगिनत ख्+वाब नुसरतुल्ला के हाथ बेचकर घर लौटा तो घर वालों से आँखें मिलाने की हिम्मत नहीं थी।

÷÷ई घरवा हम बेच दिया बाबा।'' यह कहकर वह लेट गया। शरीफ़न ने कुछ नहीं कहा। नफ़ीसन भी ख़ामोश रही। मगर कलूट ख़ामोश न रह सका। वह बहुत बिगड़ा। बाप दादा की चौखट बेचते शर्म नहीं आती।

कल्लू सुनता रहा आख़िर बिलबिला उठा, ÷÷तो जेल चले जायें।'' कलूट उस सवाल का जवाब हाँ मैं नहीं दे सकता था। चुप रह गयो। वह जब सिर्फ़ कलूट था। उसके पास एक बेनाम मकान था। जब वह कलूट से शेख कलूट हुआ तो कल्लू मंजि+ल में रहने लगा। और अब कल्लू मंजि+ल बिक चुकी थी।

कल्लू ने दो-चार दिन में पाँच रुपये महीने पर एक खण्डर ले लिया। उसी दिन मगरू, नफ़ीसन को ले गया। और शाम को शेख मदारन ने कलूट को मंगरू का यह संदेश दिया कि अब नफ़ीसन वहाँ नहीं जायेगी। नफ़ीसन की शादी कहीं और हो जायेगी। कलूट ने कुछ नहीं कहा। वह तो यह देख रहा था कि अब सुबह को कोई नहीं आता। हुक्का ख़मीरा से आठ सीरे पर आ गया है। ऐसे में भला वह नफ़ीसन को लाने की हिम्मत क्या करता। उसने सोचा चलो एक पेट कम हुआ।

तीन-चार दिन के बाद एक दिन तन्हाई से उकता कर कलूट शेख मदारन के यहाँ चला गया। तब दबते-दबते कलूट ने कल्लू और महताब की शादी की बात निकाली। शेख मदारन ने साफ इंकार कर दिया। वह एक कोकीन फरोश से अपनी बेटी नहीं ब्याह सकते और अब कलूट के पास है क्या कि किसी की बेटी ब्याहने का हौसला करे। महताब की शादी तो बनारस में एक जगह तय हो रही है लड़का अदालत में पेशकार है दस-बीस रुपये रोज की तो ऊपर की आमदनी है....।

कलूट लौट आया।

रहा कल्लू, तो उसे तो यह भी नहीं याद था कि उसने कब से शरीफ़न की शादी और अपनी महताब की शादी का ख्+वाब भी देखा है। वह तो मुकदमा लड़ रहा था। एक अदालत से दूसरी अदालत में तीसरी अदालत में और रास्ते में न जाने कितने ख्वाब शीशे के बर्तनों की तरह गिर-गिर कर टूट चुके थे। सिर्फ़ एक आरजू रह गई थी कि हाईकोर्ट मवाफ़िक फैसला दे दे उसके वकील ने तो पक्क़ा वादा किया था कि वह उसे छुड़ा लेगा। पाँच सौ में मुआमलात तय हुये थे।

मगर वकील कल्लू को न छुड़ा सका। सुप्रीम कोर्ट न जा सका तो जेल चला गया। वह सिर्फ़ इस पर हैरान था कि उसने तो कभी कोकीन नहीं बेची। लेकिन अदालत ने उसे कोकीन फ़रोश ठहरा दिया। उसे क्या मालूम था अदालतें अपने कमरों से नहीं निकलतीं और ज+राएम उनके कमरों में नहीं होते। वह काग़ज+ों की बात मानते हैं। कागज+ झूठ नहीं बोलते। वह कल्लू की आँखों में झाँककर उनकी हैरानी नहीं देख और नहीं सोच सकती कि मुजरिम आख़िर इतना हैरान क्यों है। वह सिर्फ़ यह देख सकती कि दफ़ा ६० एक्साइज+ ऐक्ट में मुलजि+म का चालान हुआ। उसके यहाँ से गवाहों की मौजूदगी में जो सफ़ेद सफूफ बरामद हुआ था उसे केमिकल एक्ज+ामिनर ने कोकीन ठहरा दिया है। उनके लिये इतना जान लेना काफ़ी है। उन्हें इससे क्या मतलब कि मुलजिम तो कोकीन का नाम भी नहीं जानता था। उन्हें इससे क्या कि मुलजिम ने कल्लू मंजि+ल बेच डाली है। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम शरीफ़न की शादी के ख्+वाब देखा करता था। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम महताब से शादी करना चाहता था। और अब महताब का बाप उसकी निस्बत कहीं और लगा रहा है। उन्हें उससे क्या कि जेल चले जाने के बाद जवान होती हुई शरीफ़न और बूढ़े कलूट का क्या होगा। काग़ज+ों ने कहा कि कल्लू मुजरिम है। नीचे से ऊपर तक अदालतों ने मान लिया कि वह मुजरिम है.....काश इंसाफ़ इतना बेबस न होता।

कल्लू जेल चला गया। लल्लन खाँ ने इत्मीनान की सांस ली। वह दुकान के मालिक के पास गये कि उस दुकान को हासिल करें। मगर मालिक दुकान पर ले दरजे का अहमक (बहुत बड़ा बेवकूफ़) निकला।

÷÷नहीं लल्लन खाँ मैं कल्लू की मजबूरी का फ़ायदा नहीं उठाऊंगा। यह दुकान कल्लू का इन्तज+ार करेगी।''

लल्लन खाँ मायूस होकर लौट आये। अड़ोस-पड़ोस के दुकानदारों ने पूछा कि क्या हुआ तो लल्लन खां ने सारा वाकया सुना डाला।

÷÷साला शायर है न।'' एक दुकानदार ने कहा ÷÷उन सभों के पास अक्+ल नहीं होती।'' वह शायद कुछ और कहता मगर मालिके दुकान को आता देखकर चुप रह गया। ÷÷आइये शौक़ साहब पान खाइये।''

÷÷शुक्रिया'' शौक़ साहब आ गये। लल्लन खाँ पान लगाने लगे। ÷÷भई लल्लन खाँ मैंने सोचा कि जब तक कल्लू छूट के नहीं आ जाता तब तक चाहो तो दुकान को इस्तेमाल कर लो।

÷÷नहीं मियाँ, ओके बाद का करेंगे।''

÷÷तुम जानो।'' पान की इकन्नी फेंक कर शौक साहब चले गये।

शौक साहब वाकई शायर क़िस्म के आदमी थे। खाता-पीता घर था चार-पाँच दुकानों का किराया आता था। कुछ कहानियाँ-वहानियाँ लिखने से मिल जाता था। मुस्लिम स्कूल में इतिहास के टीचर थे। यार-दोस्तों में बैठकर शेर भी कह लिया करते थे।

लल्लन खाँ की दुकान से कुछ ही आगे गये थे कि ÷÷ख़ान टी हाउस'' से कुछ लोग आवाज+ें देने लगे। मास्टर साहब नाली में पीक गिरा कर चायख्+ााने में चले गये।

हम लोगों में यह बहस हो रही थी कि जो एन्टी प्रास्टीट्यूशन एक्ट बना है यह बड़ा मुबारक कदम है। एक साहब ने कहा ÷÷लेकिन इन साहब का कहना है इससे ज्+यादा ज+रूरी काम पड़े हैं।''

÷÷असल में सोचना इस पर चाहिये कि रन्डियां वजूद में कैसे और क्यों आती हैं। ऐक्ट इस बाज+ार को उजाड़ सकता है। रन्डियों को ख्+ात्म नहीं कर सकता। उस कारख़ाने को बन्द करने की कोशिश कर दिया और जहाँ रन्डियां ढलती हैं, कोकीन से मलेरिया अच्छा हो जाता है। बन्द नहीं होता।'' शौक साहब बोले।

÷÷तो आप का मतलब है, रंडियों को बाज+ार में रहने दिया जाये ताकि बाहरी मुमालिक के सैय्याह आयें और देखें कि यहाँ जिस्म की तिजारत होती है।''

शौक साहब हँस दिये। ÷÷जिस्म की तिजारत कहाँ नहीं होती?''

÷÷यह मुल्क गरीब है। यहां जिस्म नहीं बिकेंगे तो और क्या होगा?''

÷÷अमेरिका तो ग़रीब मुल्क नहीं है भाई! यह सवाल गरीब का नहीं है। समाजी ढाँचे का सवाल है जब यहाँ रिक्शा चलना शुरू हुआ तो मैं बरसों रिक्शे पर नहीं बैठा। अजीब लगता था। आदमी-आदमी को खींच रहा है। लेकिन अगर सारे लोग मेरी ही तरह सोचने लगे, तो रिक्शे वाले भूको मर जाते। और अब तो मैं भी बैठता हँू रिक्शे पर और एक बार भी यह ख्+याल नहीं आता कि आदमी-आदमी को खींच रहा है। और अब देखो बाज+ार में एक्का नज+र नहीं आता। कचहरी के वक्+त देहात से एक्के आ जाते हैं तो घोड़ों के घुंघरू की आवाज+ अजीब मालूम होती है।

÷÷यानी आप इसके हक़ में है कि रन्डियाँ बाज+ार में रहें।''

÷÷लाहौला वला कुव्वत, मैं कैसे कह सकता हँू। मैं ही क्यों कोई यह नहीं कह सकता। मैं सिर्फ़ यह सोचता हूँ कि यह यहाँ से उठेंगी तो कहाँ जायेंगी और फिर इन मकानों का क्या होगा। कौन रहेगा? इन मकानों में अपनी बहनों और बेटों को लेकर? इस बाज+ार का खोल टूटेगा तो यह जहर हमारी समाजी और घरेलू जि+न्दगी में सिरायत (समा) जायेगा। उनकी ओल्टी का पानी हमारे आँगने में गिरेगा। हमारी ओल्टियों का पानी उनके आँगनों में गिरेगा। और हाँफते हुये मुतवस्सित (अच्छे) तबके की लड़कियाँ उनकी ओल्टियों से गिरे हुये पानी में बह जायेगी। क्या तुम अपने पड़ोस में बसाओगे।'' शौक साहब ने तेज+ी से सवाल किया।

÷÷लाहौला वला कुव्वत।'' जवाब मिला।

शौक साहब हँस दिये ÷÷बस एक ऐक्ट के हक़ में बोलना बड़ी जिम्मेदारियों का मुतालबा करता है। मौजूदा समाज में इस ऐक्ट के हक़ में बोलने का हक़ सिर्फ़ उन्हें है जो उन्हें अपने पड़ोस में बसाने का हौसला रखता हो। और जिसमें यह भूल जाने की हिम्मत हो कि कल तक क्या थी जो उनसे और उनके रिश्ता कर सकता हो, मैं नहीं कर सकता। इसलिये मैं इस ऐक्ट के हक में नहीं हँू। क्या तुम इस ऐक्ट के हक़ में हो?'' इस सवाल के बानी ने जोश की आग ठण्डी कर दी। शौक साहब मुसकराने लगे। ÷÷और तुम और हम जैसे हज+ारों, लाखों लोग भी अगर इस ऐक्ट के हक़ में हो जायें तब भी सवाल हल नहीं होगा। कोई मुल्क लड़कियों के रन्डी बनने के तादाद और शुमार नहीं रखता। वरना तुम्हें खुद मालूम हो जाता कि ऐक्ट कितना बोदा और कितना नाकारा है। दुकाने बंद हो जायेंगी तो यह फेरी लगा लेंगे। लल्लन पान वाले की तरह जिसे मैंने दुकान नहीं दी है।''

चायख़ाने में सन्नाटा हो गया। शौक साहब चायख्+ााने से निकल आये।

मुनादी

÷÷प्यारे भाइयों, पहली अप्रैल से रन्डियों के यहां जाना कानूनन जुर्म करार दे दिया गया है। शौक साहब के होटों पर एक तल्ख़ मुस्कराहट आ गयी। उन्होंने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से आँखें उठाकर उन रन्डियों की तरफ़ देखा जो अपनी खिड़कियों से मुनादी की आवाज+ सुन रही थी।

शौक साहब एक तरफ़ चले गये। मुनादी करने वाला दूसरी तरफ़ चला गया। रन्डियां खिड़कियों पर बैठी चुप-चाप बैठी सड़क पर आने-जाने वालों को देखती रह गईं और सड़ मुनादी और एन्टी प्रास्टीट्यूशन ऐक्ट से बेख़बर अपने गड्ढ़ों के पेबन्द लगा पहने धूप खाती रही।

महीने की पहली तारीख्+ा को कलेक्टर साहब ने ÷÷इशरतगंज'' त्मक सपहीज ंतमं को करार दे दिया। उसी दिन रन्डियों की कई दुकानों पर एक बोर्ड लग गया ÷÷यहाँ सिर्फ़ गाने-बजाने का काम होता है।'' जैसे अक्सर हलवाइयों की दुकान पर बोर्ड होते हैं कि ÷÷यहाँ सिर्फ़ देसी घी की मिठाइयां बनती हैं।'' एक बजते-बजते पुलिस ने छापे मारने शुरू किये, चालीस आदमी गिरफ्+तार हुये। ÷÷शोर्फ़ाए शहर'' तो पान पत्ता खिलाकर छूट गये, ÷÷कमीने लोग हवालात में बन्द कर दिये गये।

दूसरी तारीख़ को शहर में दो सौ रन्डियों और सवा सौ साजि+न्दों ने एक जुलूस निकाला, जुलूस नारे लगा रहा था।

÷÷हम कहाँ जायें।''

÷÷हम क्या करें।''

शहर के लोग इन बातों की अहमियत से बेख़बर तमाशबीन (दर्शक) बने रहे। जुमले फेंकते रहे। स्कूल की खिड़कियों से लड़कियों ने इस जुलूस का तमाशा देखा। जुलूस घूमता रहा। फिर यह जुलूस कई टुकड़ों में अलग हो गया। एक टुकड़ी कलक्टर के दरवाजे+ पर धरना देकर बैठ गई। दूसरी कांग्रेस के दफ्+तर पर, तीसरी पी.ए.सी. के दफ्+तर पर और चौथी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्+तर पर। जनसंघ के दफ्+तर पर धरना नहीं दिया गया था। मगर दोपहर होते-होते चन्द रन्डियों ने जन संघ के दफ्+तर पर धरना दे दिया।

तीसरे पहर को कलेक्टर ने उन रडिन्यों को हाजिर होने का हुक्+म दिया। रन्डियों ने कहना नहीं माना तो चुन-चुन के जवान और खूबसूरत रन्डियों को तमाम रन्डियों का नुमाइन्दा करार देकर पुलिस ने गिरफ्+तार कर लिया। उन नुमाइन्दों की रातें हवालात में नहीं गुजरीं, पुलिस के क्वाटरों में गुज+रीं।

तीसरी तारीख़ को रन्डियों ने शहर से भागना शुरू किया। शहर में किसी ने यह नहीं समझा कि यह कहाँ जा रही हैं....। यह रन्डियाँ महलों में जा रही थीं और देहातों में जा रही थीं।

चन्द होशियार दलालों ने एक और तरीका निकाल लिया था। एक-एक ने दो तीन रन्डियों से शादी कर ली। अब वह ब्याहता औरते थीं। पुलिस छापा मार कर उनके यहाँ से किसी को गिरफ्+तार नहीं कर सकती थी।

आरजू ने भी एक दलाल से निकाह कर लिया। नुसरतुल्लाह ने उसे सौ रुपये माहवार पर नौकर रख लिया। वह बाज+ार से उठकर कल्लू मंजि+ल में आ गयी। ÷÷कल्लू मंजि+ल'' और उसके पड़ोसियों को यह नहीं मालूम था कि वह शहर की मशहूर तवायफ़ है। वह तो एक ठेकेदार की बीवी है।

कुछ दिनों तक तो आरजू को यह घरेलू जि+न्दगी अजीब मालूम हुई। फिर धीरे-धीरे रिश्ते के भाई, खालू, चचा और फुफ्फा वगैरह आने लगे। घरेलू जि+न्दगी की इंसानियत का तिलस्म टूट गया।

नुसरतुल्ला ग्यारह बजते-बजते आ जाता और अज+ान होते-होते चला जाता। मुँह हाथ धोता। दुकान खुलती और दुकानदारी होने लगती और दस- ग्यारह बजे तक के लिये वह आरजू और उसके आरामदेह जिस्म और शोख मुसकराहटों को भूल जाता.... वह कल्लू तो ख्+ौर उसे याद ही न आता जो खुद उसी की वजह से... कैद बामशक्क़त भुगत रहा था।

शेख कलूट ने....सीख कबाब की एक छोटी-सी दुकान खोल ली थी। मगर उससे कहीं घर चलता है। वह भी ऐसे ज+माने में जब कीमतें तेज+ दौड़ने का मश्क कर रही हों। एक दिन वह नुसरतुल्ला के यहाँ गया।

÷÷क्या है।'' नुसरतुल्ला की पेशानी पर बल पड़ गये।

÷÷आजकल बड़ी परेशानी में गुज+र हो रहा है भैय्या।''

÷÷हम का करें?''

÷÷लड़की जवान हो गई है, ओकी फ़िक्र, अलग है।''

नुसरतुल्ला ने चन्द लम्हों तक जवाब नहीं दिया। कुछ हिसाब वगैरह करने लगा कलूट मुँह लटकाये बैठा रहा।

÷÷ऐसा करो तोरे वाले मकान में हमरे एक दोस्त किरायेदार हैं। लड़कियाँ को उहाँ नौकर रखवा दो, बाल बच्चे वाले आदमी हैं।''

÷÷अच्छा भैय्या।''

÷÷ई खत लेते जाओ।''

आरजू के नाम एक पुजर्+ा लेकर कलूट उसके यहाँ से उठ आया। दस रुपये माहवार तनख्+वाह और दोनों वक्+त का खाना और त्योहार पर कपड़ा लत्ता.... ऐसा कुछ बुरा तो नहीं हुआ। कलूट एक हद तक मुतमईन था।

शरीफ़न उसी रोज+ आरजू के घर पहुँच गयी। आरजू ने पहले अपने मियाँ के नाम नुसरतुल्ला का खत पढ़ा। ख़त पढ़ने के बाद उसने शरीफ़न का ज+ायजा लिया। उमर यही कोई तेरह-चौदह साल, करना हुआ। खूबसूरत जिस्म, बड़ी-बड़ी गहरी स्याह आँखें, खड़ी नाक, भरे-भरे होंट.....वह मुसकरा दी। उसकी माँ भी मुसकरा दी।

÷÷खाना पका लेती हो।'' आरजू ने पूछा

÷÷पुलाव कोरमा पकाने आता है।''

आवाज+ अच्छी है। आरजू की माँ ने सोचा, काश यह लड़की चार-पाँच साल पहले मिल गई होती..... एक ठण्डी सांस लेकर वह माज+ी के बारे में सोचने लगी।

÷÷अच्छा बावर्चीख्+ााने में जाओ। अम्माँ तुम्हें ख़ाना पकाना सिखा देगी।''

अब शरीफन को यह बताने की ज+रूरत थी नहीं कि बावर्चीख़ाना कहां है।

रात को जब नुसरतुल्ला आया और आरजू उसके सर में तेल डालने लगी तो उसने छूटते ही शरीफ़न के बारे में सवाल किया।

÷÷कैसी है''

÷÷मैं मान गयी आपकी निगाहों को।''

÷÷वाकई?''

÷÷क़यामत है मगर बेहद मासूम लड़की है।''

उस रात से नुसरतुल्ला उस बेहद मासूम लड़की के बारे में सोचने लगा। जो कुछ होना है कल्लू के आने से पहले हो जाये। मगर दिक्क़त यह थी कि शरीफ़न उसके आने से पहले जा चुकी थी। आरजू ने उसे बारहा रोकने की कोशिश की, मगर वह नहीं मानी।

÷÷नाहीं बाजी, बाबा अकेले हैं ना।'' वह यह जवाब देती, ख़ाना बांधती और चली जाती और फिर घर जाकर अपने बाबा से अपनी बाजी की तारीफ़ करती कि बाजी ऐसी है और वैसी है और यह है वह है।

शरीफ़न से मिलने के लिये मुहल्ले की लड़कियाँ आ जातीं। महताब तो बीड़ी की पत्तियाँ और कैंची लेकर अक्सर आ जाती। बैठकर पत्ती काटती रहती और शरीफ़न से गप लड़ाती और कभी-कभी आरजू भी उन गप्पों में शामिल हो जाती। कभी आरजू का कोई देवर आया हुआ होता तो वह महताब और शरीफ़न से मज+ाक करता और यह दोनों भी ....मज+ाक करतीं। कभी-कभी देवर साहब ज्+यादा मज+ाक के मूड में आ जाते तो महताब दौड़ कर कमरे में छुप जाती। दरवाज+ा बन्द कर लेती, सीना धक-धक करने लगता। शरीफ़न घर के लोगों से परदा नहीं कर सकती थी इसलिये बैठी रहती। कोई देवर उसे गुदगुदा जाता। कोई उसकी चोटी खींच लेता, कोई नन्दोई उसे आँख मारकर मुसकरा देता....और वह कभी सोचने लगती कि बाजी के कितने सारे देवर और नन्दोई हैं? ऊंह होंगे। हमें का! वह फिर काम में लग जाती। महताब चली जाती। कभी-कभी बाजी के देवरों और नन्दोइयों की ली हुई चुटकियों का वारदात के सन्नाटे में और तेज+ हो जाता और वह एक सिसकी लेकर तकिया में मुँह छुपा लेती और ख्+वामख्+वाह मुसकराने लगी।

÷÷भई आज हमारे साथ सिनेमा चलो'' आरजू ने एक रोज महताब से कहा।

÷÷कोई हो।''

÷÷बाबा से पूछ ले।''

शेख मदारन को क्या ऐतराज+ हो सकता था। आरजू के एक देवर के साथ सेकेन्ड शो का प्रोग्राम बन गया। आरजू की माँ की तबियत इत्तेफाक़ से कुछ ख़राब हो गयी। अब सवाल यह था कि माँ को अकेला कैसे छोड़ा जाये।

÷÷अरे जाओ, मैं मर नहीं जाऊंगी।'' माँ ने कहा।

÷÷नहीं अम्माँ।''

÷÷शरीफ़न रह जायेगी'' अम्माँ बोलीं ÷÷क्यों बेटी?''

÷÷बाबा से न कहा है न''

÷÷कहलवा देती हँू।''

आरजू का ÷÷देवर'' शेख कलूट से कह आया कि अगर उन्हें कोई ऐतराज+ न हो तो शरीफ़न आज वहीं रह जाये क्योंकि अम्माँ की तबियत ज+रा ख़राब है। शेख कलूट को भला क्या ऐतराज+ हो सकता था।

शरीफन घर रह गई। महताब आरजू और आरजू के देवर, तीनों सिनेमा देखने चले गये। सिनेमा से वापसी पर देवर नहीं आया। सिर्फ़ रोती हुई महताब आरजू के साथ वापस आई। आरजू उसे समझा रही थी।

÷÷इत्ती ज+रा-सी बात पर रोया नहीं करते पगली, यह तो।'' आरजू ने महताब के हाथ में दो रुपये का एक नोट थमा दिया। ÷÷अब घर जाकर सो जाओ, घबराने की कोई बात नहीं, कल फिर आना।''

वह महताब को उसके घर पहूँचा कर ÷÷कल्लू मन्जि+ल'' में आई तो वहाँ सन्नाटा था। अम्माँ सो रही थीं। नुसरतुल्ला भी सो रहा था और थकी हुई शरीफ़न भी सो रही थी और उसके तकिये के नीचे एक अठन्नी जाग रही थी।

आरजू कपड़े बदल करके लेट गई। वह भी कुछ थकन महसूस कर रही थी। एक वीराने में तीन घंटे चुपचाप गुज+ारना आसान काम नहीं था। यह दूसरी बात है कि वीराने में चुप-चाप बैठने के उसे चालीस रुपये मिले थे। पाँच तो महताब ले गई। बच्चे बीस, अब सुबह को माँ हिसाब लेगी। पच्चीस कह दूंगी।

सुबह को वह उठी तो शरीफ़न गर्दन झुकाये चुप-चाप बावर्चीख्+ााने में काम कर रही थी। वह बहुत थकी हुई मालूम हो रही थी। इतवार का दिन था। इसलिये नुसरतुल्ला भी गया नहीं था। शरीफ़न चाय बना लाई। नुसरतुल्ला उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया। वह गुनगुना उठी। आरजू यूं बैठी रही जैसे उसे ख़बर ही न हो कि कौन सा तूफ़ान किस रास्ते से गुज+र गया है और क्या क़यामतें ढा गया है।

दोपहर हो गई और महताब नहीं आई। शरीफ़न बहुत हैरान हुई। फिर उसने सोचा कि शायद उसे कोई काम हो। कोई काम नहीं था। वह बावर्चीख़ाने के बगल वाली कोठरी में एक खटोला डालकर लेट गई।

नुसरतुल्ला दबे पाँव कोठरी में दाख़िल हुआ। शरीफ़न की आँखें बन्द थीं वह उसके सिरहाने बैठ गया। शरीफ़न ने आंखें खोल दीं। सहमी हुई हिरनी की तरह ग़ज+ाली (हिरन) आँखें इधर- उधर देखने लगीं।

÷÷देख शरीफ़नी, मैं तोसे शादी कर लूंगा। फिर तुझे अपने घर ले चलूंगा....'' शरीफन रोने लगी। बस साल-सवा साल की तो बात तो है। कल्लू के आते ही मैं तुझसे शादी कर लूंगा, तेरे बगैर मैं जि+न्दा नहीं रह सकता, तू मुझे अपना मियाँ समझ।

यह मियाँ वाली बात शरीफ़न की समझ, उसकी बड़ी-बड़ी स्याह आँखें उठीं और नुसरतुल्ला के चेहरे पर एक लख्+त के लिये रुक कर फिर झुक गईं। उसे वह तमाम बातें याद आ गयीं जो नफ़ीसन ने उसे बताई थीं। वह शरमा गई....

नुसरतुल्ला आता रहा। शरीफ़न उसकी बीवी थी। शरीफ़न ने यह भी नहीं सोचा कि नुसरतुल्ला और आरजू में क्या तआल्लुक है। इतवार की रात में वह उसके साथ थोड़ी देर रहकर आरजू के पास क्यों चला जाता है.... कभी यह ख्+याल आया भी तो उसकी मासूमियत ने उसे धुड़क दिया अरे तोसे क्या, ऊ कहीं रहें, उनकी बीवी तो तू ही है।

मुहल्ला की कई लड़कियाँ आरजू के साथ सिनेमा देखने और फिर लौटकर आरजू के यहाँ नहीं आई। शरीफ़न ने इस सवाल पर भी कभी नहीं सोचा कि यह लड़कियाँ सिनेमा के बाद आख्+ािर यहाँ आना ही क्यों छोड़ देती है....।

कई अजनबी लड़कियां भी आरजू के यहां आईं। जिस दिन कोई अजनबी लड़की और उस देवर या नन्दोई में मज+ाक होता। वह भागकर कमरे में चली जाती। फिर वह देवर या नन्दोई भी चला जाता और शरीफ़न घर के काम में लग जाती।

पहले तो वह अजनबी लड़कियों के बारे में काम करते वक्+त सोचा भी करती थी। यह लड़कियाँ उसके मुहल्ले की लड़कियों की तरह नहीं होती थीं। उनके कपड़े अच्छे होते थे। यह खड़ी-खड़ी बोली में बातचीत करती थीं। उनके दुपट्टे सिरों पर नहीं होते थे, गले में पड़े होते थे। यह पान नहीं खाती थी, लिपिस्टिक लगाती थीं। बस घर में आये, नकाब उतार कर फेंक देतीं। आरजू के देवर या नन्दोई से मज+ाक करती, भागकर कमरा में जा छुपी और फिर नकाब पहन कर चली जाती।

उन अजनबी लड़कियों में से कोई न होता तो यह, देवर आरजू और शरीफ़न से गन्दे-गन्दे मज+ाक करते। अब तो शरीफन ने इन ग़न्दे मज+ाकों पर शर्माना छोड़ दिया था। पहले तो आरजू के तुर्की ब तुर्की जवाब पर शरीफ़न सन्नाटे में आ जाती थी। फिर उसने सन्नाटे में आ जाना तर्क कर दिया और फिर खुद भी तुर्की ब तुर्की जवाब देने लगी।

ये देवर अक्सर शरीफ़न को अठन्नी-चवन्नी देते रहते थे। फिर एक रोज+ जब आरजू अस्पताल गई हुई थी तो देवर ने उसे पाँच रुपये दिये और फिर उसे हैरान होने का मौका भी नहीं मिला....... और फिर यह सिलसिला चल पड़ा। उसे रुपये मिलते पहले तो वह घण्टों रोया करती थी। फिर उसने रोना छोड़ दिया। वह आरजू के देवरों को छेड़ने लगी।

तनख्+वाह के रुपये तो वह कलूट को दे देती। मगर यह ऊपरी आमदनी वह अपने बक्स में रखती जाती थी।

शरीफ़न को यह बात नहीं मालूम थी कि कल्लू दुकान से घर आते वक्+त किस चाव से उसकी शादी के बारे में सोचा करता था। किस एहतेमाम से जहेज+ खरीदा जाता किस एहतेमाम से शादी होती.... और अगर उसे यह बातें मालूम भी थीं तो वह उन बातों को भुला चुकी थी। कल्लू उसे ज+रुर याद आता था। उसे अपने भाई का इन्तेज+ार था।

शरीफ़न की परेशानी उस वक्+त बढ़ी जब उसे ख्+वामख्+वाह मतली होने लगी। हर चीज+ की महक ख्+ाराब मालूम होती। बस कोरे बरतनों को देखकर तबियत न मालूम कैसी-कैसी होने लगी और फिर जब तक वह उसे दाँतों से पीस न डालती तस्कीन न होती।

कलूट को तो इन बातों की ख़बर नहीं हुई। मगर आरजू की माँ ने भांप लिया। कलूट के यहां कहलवा दिया गया कि आरजू की माँ की तबियत बहुत खराब है। इसलिये शरीफन दो-चार रोज+ यहीं रहेगी। कलूट के लिये इस पैगाम में कोई ख़ास बात नहीं थी। ऐसे पैग़ाम तो अक्सर आते रहते थे।

एक दाई आई। उल्टी सीधी मालिश होने लगी। तरह-तरह की दवायें खिलाई जाने लगीं। फिर हर तरफ, फिर हर तरफ जैसे अन्धेरा छा गया.... मालूम मालिश से छुटकारा मिल गया। कोरे बर्तनों को देखकर तबियत ने ललचाना तर्क कर दिया। मगर वह जिस्म बिलकुल गल गया। जिसके कसाव पर चन्द महीने आरजू हैरान रह गई थी। और वह बड़ी-बड़ी स्याह आँखें हलकों में धँस गयीं और चेहरा का गेहूंँ जलकर स्याह पड़ गया।

फिर भी शरीफ़न झेल गई। महताब न झेल सकी। उसके घर में एक माँ थी। वह पहचान गई ÷÷ई का किये कलमँुही?'' माँ ने माथा ठोंका, शेख मदारन तो सन्नाटे में आ गये। ÷÷के का है ई?'' मां ने सवाल किया। महताब ने कोई जवाब नहीं दिया। वह रोती रही ÷÷डूब मर बेशर्म।''

महताब ने माँ को मश्विरा कबूल कर लिया। रात को चुपके से दरवाज+ा खोल कर वह बाहर आ गई। हर तरफ़ अंधेरा था। दूर व नज+दीक से कुत्तों की आवाज+ आ रही थी। सामने ही खारे पानी का कुंआ था। वह कुएँ की पक्की जगत पर बैठकर अंधेरे में अपने घर की तरफ देखने लगी। जिस का दरवाज+ा खुला हुआ था और जिसकी कोठरी में टीन के एक बक्स में चाँदी के दो तीन जेवर उसकी बारात के मुन्तजर थे।

वह चन्द लम्हों तक बैठी रही। मरना आसान काम नहीं होता। खुदकशी बुजदिली है। मगर एक ऐसी बुजदिली जो एक मखसूस क़िस्म की जुर्रात का मुतालबा करती है.... फिर कुएँ की जगत ख़ाली हो गयी?

सुबह को मुर्ग की बांग के साथ जब महताब की माँ की आँख खुली तो महताब की खाट ख़ाली पाकर उसका माथा ठनका। उसने जल्दी से शेख मदारन को जगा दिया।

महताब की तलाश शुरू हुई। मगर महताब कहाँ थी। मुहल्ले में बात फैल गयी कि शेख मदारन की लड़की बाप को गुल देकर किसी के साथ निकल गई! कई लोगों ने कहा कि उसके लक्षण ही ऐसे थे।

इत्तेफ़ाक से उसी रोज एक घबराई हुई बिल्ली कुएँ में गिर गयी मुहल्ले के लोगों ने कुएँ को साफ़ करना शुरू किया। मस्जिद का कुआँ था डोल पर डोल पानी निकलने लगा।





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