Tuesday, December 28, 2010

मासूम से राही मासूम रजा तक

एम० हनीफ मदार





राही मासूम रजा का नाम वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए ठीक उसी तरह गुमनाम होता जा रहा है जिस तरह प्रेमचन्द, त्रिलोचन शास्त्री, यशपाल, रांगेय राघव जैसे अनेक नामों से वर्तमान बाजार में भटकी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है जबकि इन लेखकों को कमोबेश कोर्सों में भी पढ़ाया जाता रहा है फिर भी लोग इनसे या इनके रचनाक्रम से अंजान हैं वहीं राही मासूम रजा के साथ तो यह सकारात्मक पहलू भी नहीं रहा है तब तो वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह नाम और भी अजनबी हो जाता है। राही मासूम रजा हिन्दी साहित्य का एक ऐसा नाम जो केवल साहित्य लेखन तक ही सीमित नहीं रहा। यूँ कहा जाय कि उनके लेखकीय रचना कर्म को किसी गद्य या काव्य के विशेष खाँचे में या फिर हिन्दी या उर्दू किसी एक भाषा के साथ जोड़कर समायोजित करना आसान नहीं है। जहाँ उन्होंने आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, असंतोष के दिन, कटरा बी आर्जू, नीम का पेड़ और सीन-७५ उपन्यास हिन्दी में लिखे। वहीं मुहब्बत के सिवा उर्दू में लिखा गया उपन्यास है। ÷मैं एक फेरीवाला' कविता-संग्रह हिन्दी में रचा जबकि नया साल मौजे गुल, मैजे सबा, रक्सेमय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते जैसे कविता संग्रहों की रचना उर्दू में की इतना ही नहीं उनका बहुचर्चित महाकाव्य ÷१८५७' समान रूप से हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में रचा गया।

मुम्बई जाकर फ़िल्मी लेखन की शुरुआत के साथ नीम का पेड़ एवं लोक प्रचलित महाकाव्य महाभारत का संवाद लेखन कर इतिहास बना डालने वाले राही मासूम रजा के व्यक्तित्व के विषय में जानने एवं आधा गाँव का वह दब्बू-सा मासूम अपनी कलम की धार पर चलकर कैसे राही मासूम रजा बन गया इन्हीं तमाम उत्सुकताओं को जानने पूछने के लिए हम यानी मैं और सतीश शर्मा चाँद' दोनों राही मासूम रजा की सबसे लाडली और प्यारी बहन सुरैया बेगम से मिलने इलाहाबाद पहुँचे।

ट्रेन से उतरते ही हमारा सामना तेज बारिश से हुआ हालाँकि भीषण गर्मी में बारिश ने इलाहाबाद का मौसम बड़ा रंगीन बना दिया था। हम लोग प्लास्टिक की बरसाती टंगे एक रिक्शे से एक होटल तक पहुँच सके। शहर की बरसात जैसे हमें भिगोने पर आमादा थी और उसे तभी शान्ति मिली जब हम रिक्शे में ही पूरी तरह भीग गये। कपड़े बदलते ही हम अपने गन्तव्य नादिराबाद, मकान नं० ३०३, पीपल चौराहे के पास जाने के लिए निकल लिये रिक्शे वाले ने पीपल चौराहे पर छोड़ दिया मेरी कल्पना में था कि चौराहे पर बड़ा-सा पीपल का पेड़ होगा मैंने वहाँ रिक्शे वाले से चौंककर पूछा कि भैय्या पीपल तो यहाँ कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा तो रिक्शे वाले ने भी अनभिज्ञता में खीसें निपोरीं और चला गया। हम लोग जोगीघाट के रास्ते पर चलते हुए म०नं० ३०३ में पहुँचे। घर के लॉन में खड़े अमरूद के पेड़ों पर इलाहाबादी छोटे-छोटे अमरूद हमारे स्वागत में हवा में झूमने लगे बाहर कमरे में बिना ज्+यादा इंतजार के बाद सफेद सलवार कुर्ते पर काला आधा नक़ाब डाले सुरैया बेगम नमूदार हुई। बातचीत का सिलसिला उनके परिवार के विषय में जानकारी से हुआ। बेगम से हुई राही मासूम रजा के संदर्भ में सवाल जवाब के रूप में सीधी बातचीत-

सबसे पहले आप अपने और अपने परिवार के विषय में कुछ बताएँ।

मैं सुरैया बशीर आबदी मेरे वालिद बशीर हसन आबदी और वालिदा का नाम नफीसा बेगम अली आबदी, हम नौ भाई बहन हैं जिनमें चार भाई और पाँच बहनें हैं। मूनिस रजा सबसे बड़े भाई बड़ी बहिन उसके बाद मासूम रजा, मेंहदी रजा और सबसे छोटे भाई अहमद रजा बहनों में सबसे बड़ी, वाखरी बेगम उसके बाद सरवरी बेगम, उसके बाद अफसरी बेगम उसके बाद मेहरजहाँ और सबसे छोटी मैं खुद। हमारी वालिदा का इन्तकाल बचपन में ही हो गया था तो हमारी जो बड़ी बहिन सरवरी बाजी थीं उन्होंने हम सब भाई बहनों को बिल्कुल माँ की तरह पाला इसलिए उनके किरदार का बहुत असर हम लोगों पर आया। चूँकि मैं भाई-बहनों में सबसे छोटी थी जब वालिदा का इन्तकाल हुआ तब मैं महज दो साल की थी इसलिए सभी भाई बहिन मुझे बहुत ज्+यादा चाहते थे। उनमें मासूम भाई मुझे हद से ज्यादा प्यार करते थे और उनकी चाहत का उनके ख्यालात का बहुत असर मेरे ऊपर रहा है। मेरी बहनों में से किसी ने कोई स्कूल की तालीम हासिल नहीं की सिवाय मेरे मगर मेरी पढ़ाई-लिखाई में सबसे बड़ा हाथ मासूम भाई का था कि अगर उन्होंने और उनकी पत्नी ने मेरा नाम स्कूल में न लिखाया होता तो मैं भी यूँ ही और बहनों की तरह ही रह जाती। हालाँकि इंटर पास करने के बाद मेरी शादी हो गयी क्यूँकि वालिद हज करने जाना चाहते थे, लेकिन मासूम भाई की चाहत थी मुझे और पढ़ाने की सो शादी में यह बात भी रखी गयी कि मेरी बहिन को पढ़ाने का बड़ा शौक है तो शादी के बाद भी वह पढ़ना चाहेगी। मेरे हसबैंड जो शिक्षा विभाग में थे उन्हें भी यह बात पसन्द आई और शादी के बाद मैंने एम०ए० किया। डबल एम०ए० किया एल०टी० किया लेकिन इस एजूकेशन के दौरान बहुत बार मौनेटरी मदद मासूम भाई ने मुझे की जबकि मैंने या मेरे शौहर ने कभी नहीं कहा कि हमें खर्चा चाहिए तो उन्होंने कहा कि नहीं यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम तुम्हारी एजूकेशन पूरी करने के बाद ही तुम्हारी शादी करते।

अब जल्दी शादी हो गयी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम तुम्हारी मदद न करें। हालाँकि मेरी ससुराल यहीं इलाहाबाद में थी किन्तु मैं एल०टी० हॉस्टल में रहकर कर रही थी और हॉस्टल में इसलिए कर रही थी कि मेरा यह ख्याल था कि भाई मैं भी हॉस्टल लाइफ इंजॉय करके देखूँ तो जाहिर है कि इसके लिए हमें कुछ ज्यादा पे करना पड़ रहा था तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं अपने हसबैंड को परेशान करूँ तो हमने मासूम भाई से कहा कि भाई हमारा दिल चाहता है कि हम हॉस्टल में रहकर पढ़े तो उन्होंने कहा ठीक है हम तुम्हें हॉस्टल में पढ़ायेंगे तो इस तरह हमारी पढ़ाई का पूरा श्रेय मासूम भाई को जाता है।

राही जी की पत्नी और उनके बच्चे रज्जू और गुठली के विषम मैं कुछ बतायें।

यह हमारी जानकारी में नहीं है कि रज्जू और गुठली किसे कहते थे।

राही जी का व्यक्तित्व कैसा था और उनके लेखन की शुरुआत कैसे हुयी?

देखिए उनके लेखन की शुरुआत बहुत बचपने से हो गयी थी बचपन में छोटा-छोटा लिखा करते थे। हमें याद है कि बचपन में उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी तो बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे तो कभी-कभी हमें यह लगता था कि जब वे ज्+यादा फ्रस्टेट होकर आते थे तो उन चीजों को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करके शान्त होते थे तो इस तरह उनके लेखन की शुरुआत हो गयी थी। इन्टर करने के बाद वे इलाहाबाद आ गये और इ०वि०वि० से उन्होंने बी०ए० किया उसके बाद आप अलीगढ़ चले गये तो इस तरह गाजीपुर में तो कम ही समय गुजरा लेकिन फिर भी उनके काफी दोस्त वहाँ थे और जिन्दगी के आखिरी वक्त तक उन्होंने उन लोगों को अपना दोस्त ही समझा और इन लोगों के सम्पर्क में भी रहे और वे लोग भी, इस बात पर फ़र्क करते थे कि भाई मासूम वहाँ से चले गये हैं इतने बड़े राइटर हो गये हैं लेकिन फिर भी हमें याद करते हैं वे उनसे खत से फ़ोन से ताल्लुक बनाये रखते थे तो एक अच्छे इंसान के रूप में उन्हें आज भी लोग वहाँ याद करते हैं।

राही जी की पकड़ कौन-कौन-सी भाषाओं पर रहीं?

देखिए, सबसे ज्यादा तो उनकी पकड़ उर्दू पर थी। उसके अलावा इंग्लिश मगर अंग्रेजी में उन्होंने कभी लिखा नहीं था लिखा केवल उर्दू और हिन्दी में ही।

राही जी उर्दू में लिखते-लिखते यकायक हिन्दी में क्यों लिखने लगे थे?

वे यह समझते थे कि उर्दू को यदि देवनागरी में रूपान्तरित कर दिया जाय तो ज्यादा फ़ायदा हो और यही चीज लोगों को पसन्द नहीं आयी खासकर उर्दू वालों को। उर्दू वालों का आरोप रहा कि इससे उर्दू की जो स्क्रिप्ट है वह ख्त्म हो जायेगी। जबकि उनका यह सोचना था कि अगर देवनागरी में लिखा जाय तो पूरा हिन्दुस्तान आसानी से समझ पायेगा। वैसे भी उर्दू केवल उर्दू जानने वाले ही समझ सकते हैं। अगर देवनागरी में किया जाय तो उर्दू की चीजें भी आसानी से सब समझ पायेंगे। इसलिए वे सोचने लगे थे कि उर्दू की स्क्रिप्ट भी देवनागरी में चलनी चाहिए। इसके चलते कई लोग उनके खिलाफ़ भी हो गये थे। वे मानने लगे कि राही उर्दू को ख़त्म करना चाहते हैं असल में वे चाहते थे कि जैसे गालिब है उन्हें केवल उर्दू वाले ही पढ़ व समझ पाते हैं जब देवनागरी में होगा तो सब समझेंगे कि आखिर उर्दू की चीजों में क्या है। हालाँकि राही जी को उर्दू से बहुत मुहब्बत थी किन्तु उनके इसी कदम से उन्हें बहुत-सी वे चीजें नहीं मिल पाईं जिनमें वे हकदार थे।

सुनने में आता रहा है कि राही उर्दू में लिखते थे और उनकी रचनाएँ उनके मित्रों के नाम से छपा करती थीं, क्योंकि यह वाकया इलाहाबाद का ही है तो शायद आपको जानकारी रही हो। क्या कारण था?

इसके बारे में हमें काफ़ी जानकारी नहीं है, क्योंकि हम उनसे बहुत छोटे हैं भई वे दूसरे नम्बर के भाई और हम नौवें नम्बर की बहिन हैं लगभग २५ साल का फासला है जो बड़ा होता है।

लोगों का मानना है कि राही की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए वे अपनी शुरुआती रचनाओं को बेच दिया करते थे क्या आप भी ऐसा मानती हैं।

नहीं...! देखिए हम लोग बचपने में तो एक खाते पीते परिवार के थे। यानि हमारे पिता गाजीपुर के वैल प्रतिष्ठित वकीलों में थे हम लोगों का अपना मकान था और हमारे परिवार में धन के पीछे भागने की लालसा कभी नहीं रही। हमारे ददिहाल की बहुत बड़ी प्रापर्टी थी, और हमारे दादा वहाँ से पलायन करके चले आये थे अब एक समय ऐसा आ गया कि हमारे भाई लोगों को उस सम्पत्ति पर अधिकार मिलने की बात आ गयी तो हमारे भाईयों ने कह दिया कि जब हमारे बाप को उस सम्पत्ति से कोई मतलब नहीं रहा तो हमें भी नहीं चाहिए। तो इस तरह से हमारे परिवार में कभी भी धन के पीछे दौड़ने की इच्छा नहीं रही है। हम बहुत धनी नहीं थे मगर

मध्यम वर्गीय ठीक-ठाक खाते-पीते रहे हैं।

क्या आपने राही का पूरा साहित्य पढ़ा है? और अगर पढ़ा है तो उनकी कौन-सी रचना ने आपको सबसे ज्+यादा प्रभावित किया और क्यों?

हाँ करीब-करीब पूरा पढ़ा है। हमें सबसे ज्+यादा प्रभावित तो किया था उनकी १८५७ वाली जो महाकाव्य के रूप में लिखी गयी किताब ने। क्योंकि उसमें हिन्दुस्तान का जो इतिहास आया वह नये अंदाज+ में था इस तरह का अन्य कहीं नहीं था और दूसरी बात जो थी कि इस तरह की कोई कविता पूरे उर्दू में या हिन्दी में कम्पलीट १८५७ पर नहीं मिलती जिस तरह की उन्होंने लिखी थी। उसके बाद दूसरी जो उनके उपन्यासों में सबसे ज्+यादा पसन्द आयी वह कटरा बी आर्जू थी हालाँकि ज्+यादातर लोग आधा गाँव को कहते हैं चूँकि हम भी उसी तरफ के रहने वाले हैं तो हमें उसमें ज्+यादा मज+ा नहीं आता। हाँ ÷कटरा बी आर्जू' में जो एक नई चीज+ हमारे सामने आयी वह हमारे दिल को छू गयी।

आप एक शिक्षिका हैं तो राही की लेखनीय क्षमता और उनके सम्पूर्ण लेखन को आप कैसे विवेचित करतीं हैं?

हमारा मानना है कि एक साहित्यकार में जो खूबियाँ होनी चाहिए कि चीजों को उसी तरह से पेश करे कि वह चीज हमारे सामने बिल्कुल मूल रूप में जीवित हो उसे हम पढ़ रहे हों मगर उसका नक्शा हमारे सामने आ जाय तो यह खास बात उनके लेखन में थी। उन्होंने चाहे कविता लिखी कहानी या उपन्यास तीनों में जिस चीज पर उन्होंने कलम उठाई जिस विषय पर लिखा वह विषय हमारे सामने जीवित तस्वीर में आ जाता था। और यही एक खूबी जो एक अच्छे कलमकार में होनी चाहिए उनमें थी। जैसे कटरा बी आर्जू में इमरजैंसी की बात थी तो पढ़ते-पढ़ते हमारी समझ में बखूबी आ जाता है कि कैसे उसका मिस यूज किया गया।

जैसा कि आधा गाँव में राही जी अपने परिवार के साथ खुद एक पात्र के रूप में नजर आते हैं जहाँ आपका भी जिक्र है तो क्या कटरा बी आर्जू में भी कुछ पात्र जीवित और आपके संज्ञान में है या केवल लेखकीय कल्पना में ही जीवित हैं।

देखिए किसी भी कवि या कथाकार की जो भी रचना होती है वह पूरी तरह ही काल्पनिक नहीं होती कोई न कोई जीवित सब्जैक्ट होता है तो उसी को लेकर वह लिखता और आगे बढ़ता है।

ओस की बूँद में बँटवारे की पीड़ा और मानवीय द्वन्द्व खूब शिद्दत से उभरा है तो क्या राही के परिवार से भी कोई पाकिस्तान चला गया था?

हाँ हमारे परिवार से हमारे सगे चचेरे भाई लोग गये। जबकि हमारे पिता पूरी तरह खिलाफ़ थे पाकिस्तान के। इसलिए हमारे सगे भाइयों में तो कोई भी नहीं गया। मगर जो चचेरे भाई गये उनके लिए हम आज तक परेशान हैं कि यदि वे भी न गये होते तो वे भी हमारी तरह यहाँ ठीक-ठाक स्टैवलिस हो जाते जो वहाँ नहीं हो सके हैं।

क्या राही जी खुद आम बोलचाल में गाली-गलौज का इस्तेमाल करते थे जैसा कि कुछ लोगों के व्यवहार में शामिल हो जाती हैं, जैसे उनके पात्र बोलते हैं।

देखिए, पात्रों का तो यह था कि जिसका वे चित्र उकेर रहे होते थे वो जैसा था बोलता था वही लिखते थे मगर खुद या हमारे घर में इस तरह का माहौल कभी नहीं रहा। यहाँ तक कि मासूम भाई तो खुद साले को भी गाली नहीं देते थे।

राही जी किस विचारधारा से प्रभावित थे खासकर राजनैतिक दृष्टिकोण क्या था उनका?

देखिए इस विषय में हम कान्फीडैन्टली कुछ नहीं कह सकते वैसे हमारे पिता कांग्रेसी थे और हम भी हैं मगर वे कम्युनिस्ट थे या कांग्रेसी बिलकुल सटीक तो हम नहीं बता सकते।

राही जी अपने विचारों में खासकर मुस्लिम समुदाय के प्रति कैसा सोचते और अभिव्यक्त करते थे?

मुस्लिम समुदाय की उस समय में जो मानसिकता थी और उनकी जैसी स्थिति थी, जैसे गरीबी, अशिक्षा या आपसी रस्सा कसी या कहें जो मुसलमानों में ही कम्युनल फ्रेक्शन थे वे इन तमाम चीजों को देखते और अभिव्यक्त करते थे। एवं बेहतरी के लिए सोचते भी थे।

राही की धर्म के प्रति कितनी निष्ठा थी।

धर्म में आस्था थी लेकिन कट्टरपन नहीं था। हमारी पूरी फैमिली धार्मिक हैं लेकिन कट्टरपन की सख्त विरोधी अगर मस्जिद के लिए सम्मान है तो मंदिर के लिए भी कम नहीं है।

राही जी खासकर महिलाओं के प्रति कैसे सोचते थे।

स्त्रियों के लिए भी वे सकारात्मक सोच रखते थे। वे सामाजिक परिदृश्य में महिलाओं की शोषक स्थितियों पर गम्भीर चिन्तन करते थे और उसकी बेहतरी के लिए सोचते और लिखते भी थे मगर वे केवल सोच ही सकते थे या लिख ही सकते थे किन्तु लड़ना तो स्त्रियों को खुद ही था इस व्यवस्था से। जैसे आधा गाँव की औरतों का जो मुकाम है वे उससे खुश नहीं थे बल्कि ÷कटरा बी आर्जू' की जो बिल्लो है वह स्त्री राही मासूम भाई की सोच की स्त्री थी।

उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुई आपको उनकी कौन-सी फ़िल्म ज्+यादा पसन्द आयी।

फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुयी यह बता पाना कठिन है क्योंकि वे दूसरी शादी के बाद ही बम्बई चले गये थे और चूँकि लेखन क्षमता तो थी ही तो स्थापित हुए होंगे। हाँ, उनकी सबसे पहली फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की'' जो उस समय काफ़ी चर्चित भी हुई थी मुझे ज्+यादा पसन्द आयी थी।

क्या ऐसा था कि राही जी फ़िल्मों में जाने से पहले फ़िल्मों को देखने के बहुत शौकीन रहे हों और शायद इसीलिए बम्बई चले गये हों।

नहीं...! देखते तो थे मगर ऐसी दीवानगी नहीं थी कि जिसे कहा जाय कि उसके चलते ही बम्बई गये ऐसा नहीं था।

उन्होंने बहुचर्चित धारावाहिक महाभारत के संवाद लिखे अब चूँकि वे मुस्लिम परिवार से थे तो जब वे संवाद लिख रहे थे तब उनके परिवार का उनके प्रति कैसा दृष्टिकोण था।

हम सबको बड़ी खुशी थी और बहुत अच्छा लगा था हालाँकि वे तो उन दिनों बम्बई में थे तो हम लोग यहाँ नॉन मुस्लिमों से ज्यादा रुचि से इस धारावाहिक को देख रहे थे। जबकि उसके पीछे एक और खास बात थी कि महाभारत के जितने भी एडीशन भारतभर में हैं जिस-जिस लाइब्रेरी में हैं सब उनके पास मौजूद थे। उस दौरान जब मैं उनसे मिलने मुम्बई गयी थी तो उनका पूरा जो कमरा था वह महाभारतमय लग रहा था। और इसीलिए उनका चैलेंज था कि अगर कोई कहीं भी मेरे काम पर एक उंगली रख दे तो ये कलम छोड़ दूँगा। मुझे याद है कि कुछ आर०एस०एस० के लोगों ने जब बी०आर० चोपड़ा से यह कहा था कि इस काम के लिए आपको कोई हिन्दू नहीं मिला यही मिले थे तो उन्होंने यही कहा था कि आप देखिए और कहीं भी ग़लती पकड़िये तो मैं इन्हें हटा दूँगा क्योंकि राही जी ने इतना अध्ययन किया था। कि उसमें उँगली रखने की कहीं गुन्जाइश ही नहीं थी।

माना कि आपके परिवार का उनके प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक था किन्तु आपके पड़ोसी या रिश्तेदारों को जब यह खबर मिली होगी कि राही तमाम हिन्दू धर्म ग्रन्थों का अध्ययन कर रहे हैं तो उनकी कैसी टिप्पणी थी।

किसी को ऐसा लगा ही नहीं कि वे कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो असहनीय या असहज हो तो किसी को भी आपत्ति नहीं बल्कि खुशी थी और यही मानसिकता हमारे परिवार और रिश्तेदारों की थी।

राही जी का अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के पीछे क्या कारण थे?

देखिए इसके पीछे कुछ खास कारण नहीं है बिना वजह कभी-कभी छोटी-छोटी सी बातें यूं ही बढ़ जाती हैं। मसलन कुछ औरतें ऐसी होती हैं जो चाहती हैं कि पति पर लगभग हमारा ही कब्जा हो जाय। वह ठीक वैसे ही जिएं जैसे वे चाहती हैं और अपने भाई बहिनों को छोड़ दें।

अब चूँकि जैसा मैंने बताया था कि हमारी माँ का देहान्त हो गया था। तो जाहिर है कि हम भाई बहिन आपस में ज्यादा घुले-मिले रहे और जब मासूम भाई की शादी हुई तब सिर्फ़ हम दो बहने कुँवारी थीं। मासूम भाई हमसे प्रेम बहुत करते थे जब कि भाभी चाहती थीं कि ऐसा न हो। और इस सब में उनके माइके वालों का खूब हाथ रहा था वे सम्पन्न लोग थे। उनका भी दबाव रहता था। असल में हम मुस्लिम जरूर हैं मगर हमारा पूरा परिवार प्रगतिशील रहा वहीं भाभी के परिवार वाले संकीर्ण सोच रखते थे इसलिए बड़ी वजह थी हमारे परिवार और उनकी वैचारिक असमानता।

नैय्यर रजा के साथ राही की लव मैरिज थी या अरेन्ज? और कितने बच्चे हुए?

उनकी लव मैरिज थी भाभी पढ़ी-लिखी थीं उनके पहले हसबैन्ड आर्मी से थे और हमें भी बहुत प्यार करती हैं। तीन पुत्र उनके साथ थे। एक बच्ची मासूम भाई से हुई मरियम जो अमेरिका में हैं। तीनों बेटे नदीम खान-मुम्बई, इरफान खान, मुम्बई, आफताब खान, हाँग-काँग में हैं।

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