- प्रेम कुमार
मुख्य द्वार पर पहुँचते ही यह इमारत अपनी भव्यता, विशालता और लम्बी उम्र का अहसास कराने लगती है। शमशाद मार्केट के चौराहे से अनूपशहर रोड पर आगे बढ़ने पर सुलेमान हॉल से जरा पहले बाईं ओर बड़ा-सा एक प्रवेश द्वार है। इसके दाहिनी ओर सफेद पत्थर पर अंग्रेजी में अंकित काले अक्षर उभरते हैं- आफ़ताब मंजिल, आफ़ताब अहमद खान, १९०४। एक शताब्दी से अधिक की उम्र जी चुकी इस इमारत के अंतस् तक पहुँचाने वाली सड़क के दोनों ओर खड़े लम्बे-लम्बे घने छायादार वृक्ष, दूर तक फै+ला बेहतरीन रख-रखाव वाला बग़ीचा, जगह-जगह रखे क़िस्म-क़िस्म के रूपाकार वाले गमले, गमलों में बढ़ते-फैलते, चहकते-महकते बहुत सारे फूल पौधे। पोर्च के दायीं ओर भरपूर ऊँचाई पर मुग़लकालीन रहीसों, नवाबों, जैसी वह इमारत और बायीं ओर साधारण-सी एक इमारत की लम्बी सफेद दीवार पर लगी तामचीनी की एक नेमप्लेट। उस पर अंग्रेजी में लिखा है डॉ० राही मासूम रजा। मन में सवाल उठता है - यहाँ यह नेम प्लेट ऐसे इस जगह क्यों?
उनके आने की प्रतीक्षा करती मेरी आँखें उस अतिथिकक्ष की एक-एक चीज+ को जल्दी से देख - याद कर लेना चाह रही थीं। गद्देदार बेहतरीन सोफे , काँच लगी मेजें, बेहतरीन लकड़ी के स्टूल, शोकेस, उन पर रखे फूलदान-फ़ोटोज, टेबिल लैम्प, आतिशदान और दो बड़ी अल्मारियों में रखे, दीवारों पर टंगे फ्रेम जड़े अन्य छोटे-बड़े फ़ोटोज। पर्दे। छत पर धीमे-धीमे घूमता बुड्ढा-सा पंखा और ममि पीली-सी रोशनी बखेरता एक बल्ब। जी हाँ, यहाँ उनसे मेरा मतलब नैयर रजा राही से है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस शख्सियत के मासूम रजा की जिन्दगी में आने का सच और अर्थ क्या था? राही से जो जितना दूर था, उसने दोनों के जुड़ने को लेकर उतना ही ऊल-जलूल सोचा-फैलाया। क़रीबी-जानकार लोग अपने-अपने कारणों से चुप्पी-सी साधे रहे। कुछ ने जब तब कुछ कहा भी तो अपनी समझ और दृष्टि से। नतीजतन राही के जीवन और लेखन को लेकर अनेक बेसिर-पैर की, अनर्गल, अप्रामाणिक, परस्पर विरोधी बातें जन्मती, पलती, फैलती रहीं।
डॉ० फ़ीरोज से ज्ञात हुआ कि नैयर रजा अमेरिका से यहाँ आयी हुयी हैं। मन हुआ कि राही की जिन्दगी से उनके जुड़ने के सच को उन्हीं से जाना जाये।
गुलाबी कुर्ता, पीली-सी सलवार। एकदम सफेद चुन्नी। दमकता, मुस्कराता गोरा चेहरा। श्वेत केश। भरपूर चुस्ती-फुर्ती। न कोई श्रृंगार, न बनावट-सजावट। सब कुछ एकदम सादा-शालीन। सादगी भरी खूबसूरती, स्नेह भरा अपनापन। फिर भी मन में संकोच मिला एक डर मेरे साथ था - जो प्रश्न मेरे अन्दर घुमड़ रहे थे, उन्हें सुनकर वे कहीं नाराज न हो जायें। मना न कर दें। हिम्मत जुटाकर बाहर लगी राही साहब की नेमप्लेट के बारे में सवाल किया। जोर की हँसी सुनाई दी। हँसते-हँसते बताने लगीं - इसकी अपनी एक कहानी है जिस हिस्से में हम लोग बैठे हैं, इसे मेरे दादा ने बनवाया था। इस हिस्से में आठ बड़े-बड़े बैडरूम्स हैं। चारों तरफ बरामदा और बीच में बड़े दरवाजे से एक गली। इस गली में सभी बैडरूम्स के दरवाजे खुलते हैं। बीच में बड़ा-सा एक हॉल है। उसके इस तरफ मर्दाना और उस तरफ जनाना। दादी के जमाने में उस तरफ कोई जा नहीं सकता था। नीचे के दो कमरे दादा जान ने अपने लड़कों के लिए अलग से बनवाये थे कि उनके दोस्त आयें तो वे वहाँ मिलें। पर उनके वे बेटे टेंथ के बाद यहाँ से इंग्लैंड चले गये। जहाँ मासूम की नेमप्लेट लगी है - इस जुड़े हिस्से को हम लोग डिब्बा कहते हैं और नौकर लोग छोटी कोठी कहते हैं। कमरों के पीछे वाले हिस्से में तीन कॉटेज बने हैं। उन्हें मेरे ताया ने बनवाया था। वे बैरिस्टर थे और बड़ौदा स्टेट में चले गये थे। वह हिस्सा किराये पर उठा दिया था। इस सामने वाले हिस्से में उर्दू डिपार्टमेंट में चेयरमैन रहे - नसीम कुरैशी साहब रहते थे। उनकी डैथ के बाद इस वाले हिस्से को किसी के नाम अलॉट कर दिया गया। मैं दफ्+तरों में गयी, अफ़सरों से मिली। उन्होंने कहा कि आप पर तो घर है इसलिए यह आपके नाम अलॉट नहीं हो सकता। मैंने कहा कि मेरे हसबैंड के नाम पर घर नहीं है तो उन्होंने उनके नाम अलॉट तो नहीं किया पर छोड़ दिया था। नहीं, वह इसमें बिलकुल नहीं रहे... उनका ऑफिस बना दिया था और यह नेमप्लेट लगवा दी थी। नहीं, अलीगढ़ में मैं और कहीं नहीं रही, यहीं रही।
राही साहब से आपके जुड़ने और उनसे पहले की जिन्दगी के बारे में तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं। उन तमाम क़यासों-अफ़वाहों पर विराम लगाने के लिए ज+रूरी है कि आप उस सबके बारे में कुछ कहें...?
बड़े ध्यान से सुना सब। जरा देर कुछ सोचा और फिर बड़े सहज भाव से बताने लगीं - जी, मेरी पहली शादी कर्नल यूनुस खान से हुई थी। वे मेरे कजि+न थे। बुरा रिवाज+ था यह हमारे यहाँ कजिन के साथ शादी का। इनके फादर सर अब्दुल समद खाँ हरी सिंह के जमाने में कश्मीर में होम मिनिस्टर थे। वे मेरे ख़ालू थे। जब हम लोगों ने डायवोर्स करने का तय किया तो मैंने डिसाइड किया कि मैं श्रीनगर में रहू। वहाँ बच्चे वन हॉल स्कूल में पढ़ रहे थे। मैं उस समय तक राही मासूम रजा को जानती नहीं थी। मैं मासूम से अपने डायवोर्स के दो साल बाद मिली। नहीं, उससे पहले जानती भी नहीं थी। नहीं, नहीं... भागने-भगाने का सवाल ही क्या था! तब तक दिमाग़ में भी नहीं था कि कोई मिलेगा या शादी करनी है या नहीं।
राही साहब से आप पहली बार कब, कहाँ मिलीं? आप दोनों का वह मिलना शादी करने के निर्णय तक कैसे पहुँचा?
कुछ याद किया है जैसे। उतनी उस यात्रा को तय करने में ज्+यादा देर नहीं लगी थी तब - कर्नल साहब की डैथ के बाद कश्मीर में रहकर मूनिस भाई से मिलना हो गया था। मासूम रजा से तो इत्तफ़ाक़ से मिलना हुआ। तब मूनिस रजा की फ़ैमिली वली मंजि+ल में रहती थी। उस दिन मैं उनसे मिलने गयी थी वहाँ। मेरा चचाजात भाई, जिसकी डैथ हो चुकी है, मेरे साथ था। वहाँ मालूम हुआ कि मूनिस भाई तो जा चुके हैं। तो उस दिन वहाँ पहली बार मेरा मिलना मासूम से हुआ। भाई उन्हें पहले से जानता था। उसी ने बताया कि जिन्होंने दरवाजा खोला - वे पढ़ाते हैं, बड़े मशहूर शायर हैं। नहीं, तब बिलकुल अट्रेक्ट नहीं हुई। फिर मिलना-जुलना आना-जाना होता रहा। फिर धीरे-धीरे बढ़ता रहा फिर एक साल बाद हमने शादी का तय किया। मैंने उन्हें अपनी वालिदा से मिलवाया। वालिदा ने एप्रूव किया। बिलकुल, उनकी इजाज+त से हुआ सब और हमने शादी कर ली।
क्या ख़ास दिखा था आपको उनमें ऐसा कि आपने शादी करने का निर्णय लिया?
ख़ास यह था कि हमारे ख़यालात बहुत मिलते थे। हमने तय यह किया था कि मैं आपकी पहली जिन्दगी के बारे में कुछ नहीं पूछूँगी और आप मेरी जिन्दगी के बारे में भी नहीं पूछेंगे। और हमारा यह वादा आख़िर तक रहा। जी हाँ, यूनुस से मेरे तीन लड़के भी थे। मासूम ने उन तीनों को बहुत प्यार दिया - अपने बच्चों की तरह। अब भी बहुतों को मालूम नहीं है कि यह मासूम के बच्चे नहीं हैं और बच्चों ने भी उन्हें बाप की तरह बेहद इज्जत दी। जी, तीन बेटे और एक बेटी है अब।
लोग कहते हैं आपसे शादी करने के कारण ही राही साहब को अलीगढ़ छोड़ना पड़ा?
यह मैं क्या कहू... उस वक्त मासूम यहाँ लैक्चरर थे। टैम्परेरी थे। जहाँ तक मुझे ख़याल है उर्दू डिपार्टमेंट के कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ थे। यहाँ अशोक चन्द्रा नाम का एक लड़का पढ़ता था। उसके वालिद आर० चन्द्रा फ़िल्मों के मशहूर डायरेक्टर थे। उससे मासूम की दोस्ती हुई। यह सच है कि यहाँ से वे छोड़ना नहीं चाहते थे। मजबूरन गये वे अलीगढ़ से। चन्द्रा साहब ने उन्हें मुशायरा नाम की फ़िल्म लिखने को बुलाया। इत्तफ़ाक़ ऐसा हुआ कि वह बनी नहीं। बस, फिर चन्द्रा जी के ज+रिये भारत जी से, भारत जी के जरिए और फ़िल्म वालों से मिलना हुआ। फिर इस तरह फ़िल्में बनती गयीं। शुरू की कुछ तो रिलीज ही नहीं हुईं पर बाद में बनती गईं। फिर हम मार्च, १९६६ में परमानेण्टली बम्बई चले गये थे। जी, बीच में मासूम आते रहते थे यहाँ। जी, बेटी मरियम वहीं बम्बई में पैदा हुई। अब अमेरिका में है। पहले टीचिंग करती थी - अब इंश्योरेंस कम्पनी में एक बड़े पद पर है। उसके हसबैंड डॉक्टर हैं। वो मूनिस रजा साहब के बेटे हैं। नहीं, यह शादी इन बच्चों ने नहीं की, बड़ों ने मिलकर करवायी थी।
आपने शादी से पहले क्या अपने बेटों से कुछ पूछा था?आपके दूसरी शादी के निर्णय को उन्होंने कैसे लिया और वे बाद में क्या आपके पास ही रहे?
नहीं, बच्चों से नहीं पूछा था। छोटा तीन साल का था। एक आठवीं में और दूसरा नवीं में यही पढ़ रहा था। बड़ा नदीम खान नसीरुद्दीन का साथी था। वो सिनेमोटोग्राफर बन गया। मझले इरफान खान ने कैमिस्ट्री में एम०एस-सी० किया। उसकी बम्बई में कैमीकल्स की छोटी-सी एक फैक्ट्री है। छोटा हांगकांग में है। ईवेंट्स मैनेजमेंट करता है और अब वही सैटिल है। जी, बच्चे तब पढ़ रहे थे। यूनुस का श्रीनगर से बनारस ट्रांसफर हुआ और फिर वहाँ से बरेली हुआ। तो बच्चे बरेली कान्वेंट में पढ़ने चले गए। बच्चों पर यह कोई पाबंदी नहीं थी कि वे मेरे पास रहें या यूनुस के। हम लोगों में अच्छी अंडरस्टेंडिंग थी। छोटा क्योंकि छोटा था इसलिए मेरे पास रहता था। वैसे बच्चे दोनों जगह रहे।
वह क्या था जिसने आपको यूनुस साहब से अलग होने और राही साहब से जुड़ने के लिए प्रेरित किया?
थोड़ी देर कुछ सोचती-सी चुप बैठी रहीं। फिर जैसे जिं+दगी के उन पुराने पृष्ठों को खोल पलट कर धीमे-धीमे मुझे सुना रही थीं वे - मालूम नहीं - पर ये है कि यूनुस के ख़यालात बिलकुल अलग थे। मेंटल एडजस्टमेंट नहीं हो पाया था। आर्मी की नौकरी - कभी कहीं, कभी कहीं। काफी अलग रहना पड़ता था। बहुत खुशगवार जिंदगी नहीं गुजरी। कोई लड़ाई नहीं हुई - पर जो दिली सुकून होता है, वह नहीं मिला। हालाँकि उनके साथ रहते उन लोगों से भी मिलना हुआ जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वो देखिए सामने दीवार पर - मेरी तस्वीर राजेन्द्र बाबू के साथ है - और ये राजाजी हैं। वे प्रेसीडेंट के डिप्टी मिलिट्री सैक्रेट्री थे। वे राष्ट्रपति भवन में छह साल रहे और मैं चार साल। बाहर के मुल्क़ों से लोग आते, उनसे मुलाक़ात होती ऐसे-ऐसे लोग जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे। ये देख रहे हैं आप - शाह ईरान की जुड़वां बहन - प्रिंसिज+ अशरफ पहलवी। ये वहाँ आकर रहतीं तो मिलना होता।' अचानक कुछ याद आया। उठकर गईं और तुरंत एक फ्रेम्ड फ़ोटो हाथ में लिए उल्लसित-सी लौटीं - देखिए, बड़ी ऐतिहासिक फ़ोटो है - दाएँ से बाएँ - ये यूनुस, ये अशरफ पहलवी, बीच में महाराज जयपुर, ये पहलवी की छोटी बहन फ़ातिमा पहलवी, और ये बॉडीगार्ड थे - मेजर ठाकुर गोविंद सिंह...।' बड़ी लम्बी एक साँस ली है। शब्दों में का अफसोस साफ सुनाई दे रहा है - अब इनमें से एक भी जीवित नहीं है।' फ़ोटो मेज पर रखकर चुप बैठ गई हैं। मैंने अपना सवाल दोहराया है। जैसे वे कहीं और से लौट रही थीं उस क्षण वहाँ - ये बताऊँ आपको - वैसे बड़े नेक इंसान थे यूनुस। बहुत ख़याल करने वाले। मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई बचपन से मेरी परवरिश अलग ढंग से हुई। जिद्दी तबियत थी मैं। शायद उसी वजह से हुआ होगा वह सब...।
अपनी खूबसूरती के बारे में मैं क्या बताऊँ?... मुझे नहीं लगता कुछ...। आप जान लें - मेरा खिंचाव राही से नहीं हुआ। मैं जब शुरू में उनसे मिली तो मुझे उनकी बातों में सच्चाई नज+र आई। और जैसे-जैसे ताल्लुक़ात और हुए तो ये बात और भी पुख्ता हुई कि उस शख्स में बनावट नहीं थी। एज ए पर्सन-एक सच्चे आदमी। जो दिल में होता वही कहते। क्यों जुड़ी - मुझे खुद नहीं मालूम। पर मिलते-मिलते ये जानकर कि यह सच्चा, शरीफ आदमी है - शायद यही देखकर। नहीं, उन्होंने मेरी कोई तारीफ़ - वारीफ़ नहीं की। हाँ, हाँ विरोध तो इतना कि हम सुन्नी, वो शिया - पूरे माहौल का फ़र्क था। उनकी बात मैं क्या बताऊँ... मुझे लगता है शायद मेरी बोल्डनेस ने उन्हें अट्रेक्ट किया होगा। यूनुस और मासूम के ताल्लुक़ात बहुत अच्छे थे। यूनुस ब्रॉड माइंडेड थे। उनका कहना था कि हमारा एक रिश्ता ख़त्म हो गया, पर दोस्ती का रिश्ता तो क़ायम है। मैं उनके ख़ानदान से मिलती रहती हू। उनके परिवार के लोगों से मेरी अब भी बेहद करीबी है। यूनुस मरियम को बेइंतहा चाहते थे। एक दिन उन्होंने यहाँ मुझसे पूछा कि मैं मरियम को तीनों बच्चों के बराबर का हिस्सा देना चाहता हू। मैंने कहा कि मुझे कोई ऐतराज नहीं है, पर आप अगर मासूम से पूछ लें तो बेहतर होगा। रामपुर में उनकी जायदाद है। यूनुस ने मासूम को खत लिखा। उन्होंने कह दिया कि ठीक है, मुझे कोई ऐतराज नहीं है। और आप देखिए कि मरियम उस जायदाद में भाइयों के बराबर की हिस्सेदार है और भाई भी उसे बेहद चाहते हैं।'
उनके बोलने का अंदाज बता रहा था कि उन्हें अपने इन दोनों सम्बन्धों पर आज भी नाज है। मेरी आँखों में शायद उन्होंने कहीं कुछ आश्चर्य जैसा देख लिया था। उस आश्चर्य को और भी बढ़ाती हुई वे बता रही थीं - मेरा और मासूम का एक ही कहना था कि इंसानी रिश्ते टूटते नहीं हैं। ये तो दुनियावी रिश्ते हैं कि शादियाँ हुईं या डाइवोर्स हुए। लोग एक-दूसरे के बीच तलवारें, खींच लेते हैं। डायवोर्स के बाद यूनुस को यहाँ मेडीकल कॉलिज में एक बड़े पद पर नौकरी मिल गई थी। तब मेरी अम्मा और बूआ इस घर में अकेली रहती थीं। उन्होंने यूनुस को लिखा कि तुम आफ़ताब मंजिल में आकर रहो। उन्हें थोड़ा हेजीटेशन हुआ। उन्होंने मुझसे लिखकर पूछा कि तुम्हें या मासूम को तो कोई ऐतराज नहीं है। हमने लिख दिया कि नहीं। और वो यहीं रहते थे...।' उँगली उठाकर बताया - उन बराबर वाले कमरों में। जी, मैं बराबर अम्मा के पास आती रहती।... मासूम को अगर ऐतराज होता तो मैं आती ही नहीं। हमारी दिमागी एक अंडरस्टेंडिंग थी - एक-दूसरे पर भरोसा था। नहीं, यहाँ आने पर भी उनसे वो सब बातें नहीं होती थीं...।'
टुकुर-टुकुर उनके चेहरे की ओर ताकता। मैं चकित भाव से वह सब सुन रहा था। मन में आए सवाल के कुछ शब्द ही बोल पाया था तब - यूनुस यदि इतने अच्छे थे तो...? बड़ा शांत-सा स्वर सुनाई दिया था - हर वक्त उलझने-बुलझने से तो बेहतर था कि...।'
आपको राही साहब की पहली शादी की बात मालूम थी क्या? आपके या उनके मन में क्या शादी के बाद गलती या अपराध बोध जैसा भाव भी कभी आया था?
मुझे मालूम था कि मासूम की पहली शादी बहुत कम उम्री में उनके वालिद ने करा दी थी। हाँ, बचपन में उनकी टाँग में तकलीफ़ थी। पहली बीवी हमारी शादी के वक्त थी कहाँ तब? उनका तलाक़ हो चुका था बरसों पहले। खुद राही बता चुके थे। नहीं, उनसे कोई संतान नहीं है। अफसोस की बाबत मैं क्या बताऊँ। मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं। मुझे नहीं मालूम। वैसे मैंने कभी अफसोस जैसा कुछ देखा नहीं। कभी कोई ताल्लुक़ात ही नहीं थे उनके। जहाँ तक मेरी बात है - उनसे जुड़ने के बाद ग़लती का कभी अहसास नहीं हुआ। हमेशा लगा कि मेरा डिसीजन सही था...।'
किस आधार पर...?
मेंटली सेटिसफेक्शन देखकर।
राही के साथ गुजारे वक्त के बारे में आज क्या कहना चाहेंगी आप?
जो वक्त उनके साथ गुजरा, बहुत अच्छा गुजरा। उन्होंने मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। जो मैंने चाहा-वह चाहे ग़लत था या सही - उन्होंने पूरा किया। दरअसल मेरे वालिद ने मुझे इतना बर्बाद किया कि मेरी हर जिद पूरी करते थे। मैं जिद्दी होती चली गई। मासूम ने मेरी जिदें कैसे झेलीं, ये उनका ही दिल जानता होगा। लेकिन झेलीं जरूर - किसी बात में इंकार नहीं किया। हम लोगों की जिंदगी नार्मल थी। आपस में जैसे झगड़े होते रहते हैं, वो सब नहीं। गिव एंड टेक का मामला था। गिव इन मासूम ही ज्यादा करते रहते थे। मेरा अपना ख़याल है - या तो हम लोगों की अपब्रिंगिंग अलग तरह से हुई थी इसलिए हमारी सोचें बिलकुल अलग-अलग थीं। इसके बावजूद हम लोगों में कभी विरोध जैसा कुछ नहीं रहा।
देर तक कुछ सुनाई नहीं दिया तो निगाह उठाकर उनकी ओर देखा - उनकी आँखों से एकांत में जलते दीपक जैसा प्रकाश झर रहा था। ऐसा प्रकाश जो किसी एक को सम्बोधित-निवेदित न होकर अपने सारे आस-पास को रोशनी से भर देता है। चहकती-सी उनकी आवाज सुनाई दी - ÷एक इंट्रेस्टिंग किस्सा सुनिए - मैंने पार्टीशन से पहले सन् छियालीस में कान्वेंट से सीनियर कैंब्रिज किया। उस ज+माने में अंग्रेजी का जोर था। मैं पैंट्स में रहती थी। मेरे वालिद ने कहा कि तुम चार चीजें मुझसे सीख लो - अरबी, हिन्दी, चैस और हॉर्स राइडिंग। पहली तीन मैंने ख़त्म कर दीं - हॉर्स राइडिंग जरूर सीखी।' लम्बी-सी एक हँसी सुनाई दी - शादी के बाद की बात है। तब जाकिर हुसैन साहब वी०सी० थे। मैंने कहा - चचा, मुझे राइडिंग की परमीशन दे दें। उन्होंने कहा कि जा सकती हो, पर लड़कों के टाइमिंग से एक घंटा पहले। गर्ल्स कॉलिज में मुमताज आपा प्रिंसिपल थीं। मैंने उनसे कहा कि मैं तो किसी सूरत में पर्दा नहीं कर सकती। पर्दा न करने पर वहाँ एक आने रोज का फ़ाइन लगता था। मैं पूरे महीने का एक साथ जुर्माना भर देती। अम्मा के चीख़ने-चिल्लाने के बावजूद मैंने साइकिल पर जाना शुरू किया। झाँसी से सीनियर कैंब्रिज करने के बाद यहाँ ज्वाइन किया था। मैथ्स, साइंस नहीं मिल पाई थी सो प्राइवेट किया। १९५० में सैकिंड ईयर में शादी हो गई। मुझे राइडिंग का बहुत शौक था। मैं थोड़ी सनकी हू। एक चीज को ज्यादा दिन मैं नहीं कर सकती। शंकर वीकली से कार्टूनिस्ट का कोर्स किया, इंटीरियर डेकोरेशन और टेक्सटाइल डिजाइनिंग के डिप्लोमा कोर्स किए - लेकिन लग कर कुछ नहीं किया। मासूम से मैंने एक ही चीज पर कम्प्रोमाइज किया था। उन्होंने कहा कि मुझे ये पतलून-जींस पहनना पसंद नहीं - और मैंने मान लिया। जिन्दगी में केवल एक यही कम्प्रोमाइज किया।
राही साहब आपको अपने प्यार का अहसास कैसे कराते थे?
मुझे तो था ही अहसास। खतों से अहसास कराया। खूब कहते भी रहते थे। मैं बेकार की जि+द करती थी तो वो मान लेते थे - तो अहसास तो हो ही जाता था। - नहीं - उनको ये था कि यहाँ से मैं घर-वर- सब कुछ छोड़कर चली गई थी... हालाँकि माँ की इजाज+त थी... फिर भी उन्हें लगता था कि मैं तुम्हें वो चीज नहीं दे पा रहा हू, जैसी तुमने जिन्दगी गुजारी है। हालाँकि मैं किसी चीज की आदी नहीं थी।
शादी के बाद पहली बार उन्होंने अपनी भावना कैसे व्यक्त की?
फ़ीलिंग तो पहले एक्सप्रेस कर ही चुके थे... वो सब मुझे याद नहीं। हाँ, शादी यहीं हुई और शादी के बाद यहीं रहे। बम्बई तो कुछ दिनों के लिए तब गए थे जब मासूम की डिपार्टमेंट में कुछ लोगों से नाखुशी की बातें हुईं। उसके बाद चंद्रा साहब ने बुला लिया तो शिफ्ट किया।
गोल-नीली-सी टोपी लगाए नाटे कद के एक चुस्त-दुरुस्त बुजुर्ग ने बड़े अदब से झुककर सलाम करते हुए वहाँ प्रवेश किया। नैयर साहिबा तुरंत उसकी ओर मुख़ातिब हुईं। बड़े आत्मीय भाव से उनकी तबीयत और कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानकारी ली और मुझसे परिचय-सा कराती हुई कहने लगीं - ÷ये जो हैं - बाबूलाल हैं। इनके दादा भी यहाँ थे और फादर भी। इनके पिता सीताराम मेरे अब्बा के साथ ग्वालियर में थे। इनके बड़े भाई गोविंद राम - उन्हें मैं लॉर्ड जी० राम कहती थी - सारा इंतजाम देखते थे। जब मैं यहाँ नहीं होती तो बाबूलाल ही इंचार्ज होते हैं। अब ये भी बूढ़े हो रहे हैं और मैं भी। इनकी बच्ची लीला मेरे ही पास है। उसे छुटपन से पाला है। उसके मियाँ की डैथ हो गई। इनके समधी की तेरहवीं है। ये भोपाल जा रहे हैं। मुझे इनकी बहुत फिकर है।
बाबूलाल गए तो मैंने फिर से उन्हें उस मनःस्थिति में पहुँचाने के इरादे से पूछ लिया - आपसे शादी के बाद राही साहब ने क्या अपने जीने के ढंग में कुछ बदलाव किया था?
जी हाँ, उन्होंने चेंज तो काफ़ी किया था। रेस्ट्रांबाजी, घूमना-फिरना सब रोक दिया था। वहाँ इतना जबर्दस्त काम था कि चौबीस घंटे में बीस घंटे वे काम में लगे रहते थे।
चौबीस घंटे में से बीस घंटे...?
जी, दिन में मिलना-जुलना और फ़िल्म वालों से, डायरेक्टर्स से डिसकशन आदि। शाम से रात के एक बजे तक फ़िल्मों को लिखना - डायलॉग...। फिर एक बजे से तीन बजे तक अपना सीरियस लिट्रेरी काम... यही आर्टीकिल्स। तब डी०लिट्० भी कर रहे थे। एक ही - लास्ट चेप्टर रह गया था। डी०लिट्० - जी, मेरा ख़याल है मीर अनीस के ऊपर थी। नहीं पोइम्स नहीं। पोइम्स तो चलते-फिरते, गाड़ी में चलते भी लिखते रहते थे। रात को तो केवल आर्टीकिल्स। और क्या लिखते थे मुझे पता नहीं। मैं सो जाती थी।'
लिखने के तुरंत बाद क्या कभी कुछ आपको भी सुनाने की जिद करते थे?
सवाल सुनकर पहले खूब हँसीं। फिर बोलीं - वो मसल है न - भैंस के आगे बीन बजाना...। जब कोई चीज मेरी समझ में ही नहीं आए तो मैं क्या करूँ? मैं नहीं पूछती थी कि क्या लिख रहे हो। घर का और बच्चों का काम करती थी। मुझे मुख्+तलिफ़ चीजें करने की सनक-सी चढ़ती है। तो मैंने एक बार मासूम से पूछा कि मैं डायरेक्शन सीख लूँ। वो बोले-शौक से सीख लो। मैंने राज खोसला साहब से कहा। वे बोले - आ जाया करो बेटे। एक-दो फ़िल्मों में थोड़ा-बहुत उनके साथ सीखा। फिर यहाँ अलीगढ़ आना-जाना पड़ता था। अम्मा की तबियत ठीक नहीं थी। वो भी छोड़ दिया। सुनाने की जिद वे करते ही नहीं थे। उन्हें मालूम था कि शायरी से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। हिन्दी की शायरी का मुझे बिलकुल शौक नहीं। समझ में नहीं आती। जब जबान ही समझ न आए तो क्या सुनती मैं। लिट्रेरी काम उनका बिलकुल पर्सनल था।
लिखने के लिए क्या उन्हें कुछ ख़ास चीजों या किन्हीं विशेष तरह की स्थितियों - मनःस्थितियों की ज+रूरत होती थी? आप उनके लिखने में कैसे और क्या मद्द करती थीं?
मैं बिलकुल मदद नहीं करती थी। लेकिन एक चीज आपको बताऊँ - उनके काम करने का ढंग ये था कि जैसे तीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट रख ली सामने। एक का लिख रहे हैं अब... फिर वहाँ से दिमाग़ का स्विच ऑफ़ किया और दूसरी स्क्रिप्ट पर काम शुरू। ऐसे लिखते थे। फ़िल्म वालों में आम चीज+ है कि हमारे लिए होटल में कमरा कर दीजिए तब लिखेंगे हम। मासूम का कहना था कि मैं सिर्फ़ घर में लिख सकता हू - जहाँ मुझे मेरी बीवी और बच्चों की आवाजें सुनाई देती रहें। वो कहीं होटल-वोटल में लिखते ही नहीं थे। घर पर हम लोग बात भी कर रहे हैं, बच्चे खेल भी रहे हैं, शोर मचा रहे हैं, म्यूजि+क बज रहा है - जब वो स्विच ऑफ़ कर लेते थे दिमाग को तो असर नहीं होता था उन पर। चाय-दिन में कम से कम पचास बार - जिसमें न शकर, न दूध। शराब - नहीं, पहले पीते होंगे - मेरे सामने नहीं पी। मैं अपना काम करती रहती थी। कहीं आना-जाना होता चली जाती। मासूम बहुत कम लोगों से मिलते थे।... मैं फ़िल्मी दुनिया से बिलकुल अलग रही। वो सिर्फ़ रोजी-रोटी का सवाल था। मासूम जाते थे सूटिंग वगैरा को - मुझे शौक नहीं था। पर हाँ, सुनीलदत्त, बी०आर० चोपड़ा साहब, राज खोसला जैसे चंद लोगों से घरेलू ताल्लुकात थे - बाक़ी ताल्लुकात तो प्रोफेशनल थे। हमारी बातें - हम लोग कोई सीरियस बात नहीं करते थे - बस, ऊटपटांग बातें करते रहते थे।'
उनकी पसंदीदा, उन्हें खुश करने वाली कुछ चीजें-बातें?
मीठा जरूर होना चाहिए खाने के बाद - कोई भी मीठा - और पान, तम्बाकू-सिगरेट कम पीते थे।... एक ये ख्वाहिश हमेशा से थी कि मैं पैंसठ का हो जाऊँगा तो ये फ़िल्मी काम छोड़कर वापस अलीगढ़ जाऊँगा और वहाँ लिट्रेरी काम करूँगा और डी०लिट्० कम्पलीट करूँगा। पर ये पूरी नहीं हो पाई।'
उनका सबसे अधिक लगाव किस बच्चे से था?
सब बच्चों से था। मरियम को बहुत प्यार करते थे।
उनका गुस्सा...?
हाँ - ओऽऽऽ - कोई बेवकूफी की बातें करता था तो बहुत गुस्सा होते थे। नहीं, मेरे ऊपर तो नहीं होते थे... प्रोड्यूसर्स पर होते थे - छोटे-बड़े भाइयों व बहनों पर भी गुस्सा होते थे। लेकिन वो गुस्सा थोड़ी देर का होता था। चीख-चिल्लाकर थोड़ी देर में ठीक हो जाता था। नहीं - मुझ पर चीखे कभी नहीं। मेरी ग़लती पर ये ज+रूर कहते थे कि ये ग़लत बात है। ग़लती-ज्यादातर बच्चों को लेकर ही ऐसी नौबत आती थी।... लिट्रेचर की जिन बातों पर डिसएग्री करते थे, उन पर जल्दी झुँझला जाते थे। वैसे शांत रहते थे। लिट्रेचर वालों से हिन्दी-उर्दू को लेकर तो हमेशा झगड़ते रहे।
आप कभी गाजीपुर गई हैं?
जी नहीं, मैं कभी गाजीपुर नहीं गई। इलाहाबाद से आगे मैं गई ही नहीं। मासूम के वालिद गर्मियों में खुद चार महीने को बम्बई आ जाते थे। बहनें भी आ जाती थीं। तो बस मिल-मिला लेते थे।
बम्बई के ग्लैमर का कितना असर रहा उन पर?
बम्बई उन्हें पसंद ही नहीं था। वो सिर्फ़ अलीगढ़-अलीगढ । अलीगढ़-और गाजीपुर को ही याद करते रहते थे।
बम्बई में क्या कोई और औरत भी उन्हें अपनी तरफ खींच पाई?
प्रश्न सुनकर पहले दाहिने हाथ का पंजा इंकार की मुद्रा में हिलाया। अब ना में गर्दन हिली। कई बार-नहीं, नहीं-और फिर कुछ देर बाद एक वाक्य - ये शिकायत तो मुझे कभी हुई ही नहीं।'
अब बातें राही साहब के स्वभाव और सोच के बारे में हो रही थीं। वे सहज, निश्छल भाव से अनरुके बोले जा रही थीं - प्रेम के बारे में-उनका असली मक़सद था कि जो भी हो इमोशंस पर-हाँ, सच्चाई पर हो। औरत-औरत की बहुत इज्जत थी उनके मन में। वो औरत को बिलकुल बराबरी का दर्जा दिए जाने की बात कहते-करते थे। लड़कियों से इतना लगाव था उन्हें कि किसी को बच्चा होने वाला होता तो उसे हमेशा यही दुआ देते कि उसके लड़की हो। नहीं-मॉर्डन जमाने से कोई ख़ास लगाव नहीं था। पुरानी विरासत को लेकर ही ज्यादा खिंचाव-लगाव था।' बोलते-बोलते रुकीं। जैसे अचानक कुछ याद आया - दो-तीन घटनाएँ याद आ रही हैं। उनसे आपको मासूम के सोच का पता चलेगा - हमारे बहुत करीब का लड़का है। उसने एक हिन्दू लड़की से शादी की। उसके शहर में हायतौबा मची। उसने मुझे बताया। कहा कि मैं बम्बई लेकर आ रहा हू लड़की को। आप हमारा निकाह करा दें। मैं ना नहीं कर पाई। मासूम से बात हुई तो फ़ौरन से पेशतर बोले - इस घर में उस हिन्दू लड़की का निकाह नहीं पढ़ाया जाएगा। उस लड़के की बात छोड़िए - अपने बेटे नदीम की शादी का किस्सा आपको सुनाऊँ - नदीम सूटिंग के सिलसिले में इंग्लैंड गए थे। फ़िल्म का नाम याद नहीं आ रहा। उसने वहाँ से मासूम को फ़ोन किया - एक लड़की है यहाँ पार्वती महाराज। वो वेस्ट इंडियन है। मैं उससे शादी करना चाहता हू। मासूम ने कहा कि मेरी तरफ से बिलकुल इजाजत है। पर एक शर्त है कि वो कनवर्ट नहीं होगी। वो जो मजहब मानती है, वो अपने मजहब पर क़ायम रहेगी।... मैं तो तब अलीगढ़ थी और मैंने कह दिया था पहले ही कि तुम जिससे चाहो शादी कर लो। दो ने कर ली है - तीसरा-छोटा करता ही नहीं। वो कहता है मैं ऐसे ही बहुत सुखी हू। जी, मरियम पर एक बेटा है बारह साल का।
नमाज तो वे पढ़ते ही होंगे?
नहीं, नमाज नहीं पढ़ते थे। मैंने कहा भी कि मेरी एक ख्+वाहिश ये है कि आप एक वक्त बस, नमाज पढ़ लो। तो बोले कि तुम अपनी ख्वाहिश अपने पास रखो और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। हम लोगों के यहाँ ईद, बकरीद, होली, दीवाली और क्रिसमस-सब होते थे। मैं भी शुरू से करती थी। उन्हें किसी में कोई ख़ास लगाव नहीं था। मैं बीस तारीख़ से क्रिसमस ट्री बना देती थी। अब क्रिसमस ट्री मरियम बनवाती है अपने यहाँ।
राही यदि आपसे न जुड़ते तो क्या इतना-ऐसा कुछ कर पाते?
मेरे ख़याल से तब भी वे ऐसे ही रहते। ये सब जरूर करते। जहाँ तक मेरा ख़याल है मेरे आने से जिन्दगी में सैटिल ज्यादा हो गए। जिन्दगी में जो एक ठहराव आना चाहिए, वो आया।'
आपको उनके लेखन की कितनी-क्या जानकारी है?
नहीं, सब तो याद नहीं। पर काफ़ी कुछ तो पता है। जी, सबसे पहले वे इलाहाबाद में अपने एक दोस्त - जिनका निकहत पब्लिकेशन था - के लिए लिखा करते थे। नहीं, राही नाम से नहीं-आफ़ाक़ हैदर और शाहिद अख्तर नाम से रोमानी दुनिया लिखते थे। कोई चालीस-पैंतालीस नॉवेल लिखे। नहीं, पैसे कहाँ देते थे वे। उनका नाम याद नहीं आ रहा। केवल दोस्ती में लिखते थे उनके लिए। फ़िल्म के दिनों में भी बहुत लोग आते थे उन पर लिखवाने। वे किसी को मना कर दें, पर टेक्नीशियंस को मना नहीं करते थे। एक टेक्नीशियन थे-उफ, नाम उनका भी याद नहीं आ रहा - आए और बोले कि मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं, पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दो। आप हाँ कहें तो अभी लाता हू। मासूम बोले कि ठीक है, जब डिसकशन को आओ तो दो बीड़े ले आया करो। और उनके लिए पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दी। पैसों का तो उन्होंने कभी किसी प्रोड्यूसर से भी डिसकशन नहीं किया। जिसने जो दे दिया, ले लिया। इलाहाबाद में रहने की बात... नहीं, बीस साल लगातार सिर्फ़ शायरी की बात ग़लत है - प्रोज+ भी वे लिखते रहे। आप देखिए एक अगस्त, १९२७ की उनकी पैदाइश थी। पन्द्रह-सोलह की उम्र में बोन टी०बी० हुई थी। मेरे ख़याल से लंग्स की टी०बी० हुई थी तब - हाँ, जब वो भुवाली रहे। पैर की हड्डी में टी०बी० हुई थी तो आप्रेशन हुआ - पैर छोटा हो गया। जी, एम०ए० उर्दू में यहीं से किया-पी-एच०डी० किया। जी, पी-एच०डी० तिलिस्म होशरूबा पर.... तो वहाँ इलाहाबाद में इतना कहाँ रहे होंगे...।
आपने उनका लिखा कितना कुछ पढ़ा है?
बस, आधा गाँव पढ़ा है - और टोपी शुक्ला पढ़ा है। नहीं, हिन्दी में नहीं-इंग्लिश में आ गया है न ऑक्सफोर्ड पब्लिकेशन से। पर वो मुझे इंग्लिश वाला ठीक नहीं लगा। शीर्षक ही गलत लगा। अब दूसरे एडीशन में ठीक किया है उसका नाम। पहले लिखा था - फ्यूडिंग फैमिलीज+ ऑफ़ गंगोली - और अब आया है ÷द विलेज डिवाइडेड' नाम से। जी, उर्दू में भी आ गया है। हिन्दी का और-जी, कमलेश्वर और भारती जी को पढ़ लिया करती थी। जब हम लोग बम्बई गए थे तो जाहिर है मासूम पर ज्+यादा काम नहीं था। तो इन दोनों ने तब बहुत मदद की थी। कैसे क्या पढ़ती थी - इन दोनों का कुछ ट्रांसलेट होकर मिल जाता था तो पढ़ लेती थी - या मासूम से सुन लेती थी। हाँ, कुर्रतुल की वो किताब मैंने पढ़ी है आग का दरिया।
आधा गाँव क्या पहले फ़ारसी में लिखा गया और फिर उसका अनुवाद......?
नहीं नहीं फ़ारसी में थोड़े ही लिखा था - जो उसका अनुवाद हुआ। अब आप उर्दू को फ़ारसी लिपि कहें तो ये क्या हुआ। आधा गाँव पहले उर्दू में लिखा था। जी, मेरे पास उसकी स्क्रिप्ट है अभी। हाँ, फिर खुद ही उसे हिन्दी में किया। हाँ, हाँ, हिन्दी में उन्होंने ही किया।
महाभारत के संवाद लिखे जाने के दौर का जिक्र किया तो उनके चेहरे पर की चमक और भी बढ़ गई। पेशानी पर जरा देर को कुछ सलवटें-सी दिखीं। शायद उनके अन्दर एक भाव-यात्रा जारी थी। खूबसूरत, बड़ी-सी उनकी दीप्तिवान आँखें दृश्यों की किसी भीड़ में से जैसे चंद ख़ास दृश्य मुझे दिखाने के लिए ढूँढ़ निकाल लेना चाह रही थीं। और अब आँखों द्वारा ढूँढ-निकाल लिए गए कुछ दृश्यों को काफ़ी विश्वास व गर्वभरे उनके शब्दों के माध्यम से मैं भी साफ़-साफ़ देख पा रहा था - जी, महाभारत मैंने देखी है। महाभारत का ये हुआ कि जब चोपड़ा साहब ने मासूम को लिखने का तय किया तो ऐतराज हुए कि आप मुसलमान से महाभारत क्यों लिखवा रहे हैं। चोपड़ा साहब ने कहा कि अगर मैं करूँगा महाभारत तो मासूम करेंगे, नहीं तो आप किसी से लिखवा लीजिए। आप देखिए कि बाद में महाभारत लिखते समय दोनों तरफ से खत आते थे - कि हमारा त्रिशूल तेरे पेट भुकने को तैयार है - उधर मौहम्मद अली रोड से भी इसी तरह के खत आते थे। और फिर जब महाभारत चल गई तो - तो जो लोग त्रिशूल भोंकना चाहते थे, वे ही दर्शन करने और पैर छूने आने लगे। मुझे क्या लगता था - अच्छा लगता था। नहीं वे औरों की तरह अपनी खुशी नहीं जताते थे। बस-सेटिसफाइड दिखते थे। उनकी तरफ से तो वे लिखते ही अच्छा थे। नहीं - कोई डर नहीं लगता था तब धमकी मिलने पर हमें। जी, तीन साल लगे थे रिसर्च करने में - और लिखने में दो साल लगे। तनाव-दबाव... जिस वक्त नौ एपीसोड-गीता वाले - लिखे, उसमें थोड़ा टेंस रहते थे कि एक लफ्ज इधर से उधर न हो जाए। आपने देखी है महाभारत? वो जो कृष्ण ने विराट स्वरूप दिखाया है - तब तो बहुत टेंस थे - हाँ, जरा भी कुछ हिल-हिला न जाए - कोई लफ्ज हलका या गैर मौजूं न आ जाए। जी, जी, मैंने पूरी देखी है। ये अब वाली जो आ रही है ये नहीं - ये तो बेकार है।
जब श्रीकृष्ण का गीता वाला हिस्सा लिख रहे थे तो एक दिन चोपड़ा साहब का फ़ोन आया कि राही साहब आपको राजीव जी ने बुलाया है। उन्होंने कहा ठीक है। दूसरे दिन ये लोग दिल्ली चले आए। मुलाक़ात के दौरान राजीव गाँधी ने मासूम से पूछा कि ये जो आपने जन्म और कर्म की बात की है, तो क्या मेरे ऊपर चोट की है? मासूम ने कहा कि पूरी गीता का यही उपदेश है कि जन्म कुछ नहीं होता, असली चीज+ कर्म - और बाद में यह भी कहा कि राजीव जी, अगर आप मेरी जान का जि+म्मा लें तो मैं दूसरी गीता लिख देता हू। उन दिनों के उनके बेहद परेशान होने से जुड़ा एक वाकया आपको बताऊँ? उन दिनों बहुत लोग आते थे उनका इंटरव्यू लेने। लोगों को हैरत होती कि मुसलमान होकर कोई वो सब लिख रहा है। इत्तफाक़न एक दिन मैं मासूम के पास बैठी थी। इंटरव्यू के बीच में उस पत्रकार ने सवाल किया कि मुसलमान होकर आप ऐसा ये सब कैसे लिख पा रहे हैं।... और मैंने देखा कि सवाल सुनकर मासूम रो पड़े। और उन्होंने कहा कि आप ये सवाल मुझसे क्यों करते हैं। मैं हिन्दुस्तानी पहले हू, मुसलमान बाद में हू। और ये जो महाभारत है ये हर हिन्दुस्तानी का खजाना है। और हर हिन्दुस्तानी का - चाहे वो किसी मज+हब का हो - इस पर हक है।
क्या वे कभी आपके सामने फूट-बिफर के भी रोए? ऐसी कोई घटना जब उन्होंने आपकी आँखों के आँसू पौंछे हों?
बिफर-फूट के तो मुझे ख़याल नहीं। वो जब्त करते थे। ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया कि उन्होंने मेरे आँसू पौंछे हों। उनके रोने की एक घटना अभी मैंने बताई। हाँ, एक मर्तबा का उनका रोना और याद आया - उनके बड़े भाई मूनिस रजा उनके आइडियल थे। उनकी डेथ मासूम की डेथ के बाद हुई। एक बार अचानक वे बहुत बीमार हो गए थे। ऐसे बीमार कि बचने की उम्मीद नहीं रही थी। उनकी अचानक बीमारी की ख़बर जब मासूम ने सुनी तो उस वक्त मासूम बहुत रोए थे - और सिर्फ़ एक जुमला कहा था मुझसे कि मेरा भाई ख़त्म हो रहा है और मैं उसे बचा नहीं सकता।
दंगों, या अयोध्या से जुड़ी घटनाओं के दिनों में आपने उन पर क्या और कितना असर होते देखा? देश की किन घटनाओं के बाद उन्हें आपने विचलित होते देखा?
चूँकि उनमें पॉलिटीकल अवेयरनेस बहुत थी - तो वे कुछ भी होता था तो डिस्टर्ब तो होते थे। उन्होंने वो खत भी तो लिखा है - अल्लाह और राम के नाम। बहुत असर था इन घटनाओं का। राइट्स और ये अयोध्या में जो हुआ,उससे तब उन दिनों बेहद परेशान रहते थे। अब आप देखिए कल दिल्ली में ब्लास्ट्स हुए। तस्वीरें देखकर टी०वी० पर मन रोने को हो आता है। इन बच्चों-औरतों-इंसानों का कोई तो दोष होता। क्या हो गया है इन लोगों को आख़िर...? नहीं, परेशान होते थे, पर उन्हें डरते तो नहीं देखा।... महाभारत के बाद उन्होंने धीरज कुमार की एक फ़िल्म साइन की- ओउम् नमः शिवाय और एक सती अनुसूइया-और एक और कोई माइथोलॉजी की थी। फिर लोग इनके पीछे पड़े रहे थे कि तुम शिवाजी पर लिख दो। मैं उस प्रोड्यूसर का नाम भूल रही हू। मैंने कहा कि बस, यही फ़िल्म तुम नहीं लिखोगे। पता नहीं तुम क्या लिख दो। मुझे भी यहाँ रहना है, मेरे बच्चों को भी यहाँ रहना है। यही नहीं लिखने दूँगी। सुन लिया। ज्यादा कुछ नहीं बोले। बस, इतना कहा कि बेकार की बातें करती हो। वो शायद मानते ही नहीं। वो तो ये हुआ कि प्रोड्यूसर ही पीछे हट गए थे। वो जो मिसेज गान्धी ने ट्वण्टी प्वाइंट प्रोग्राम निकाला था न - वो फ़िल्मी राइटर्स ऐसोसिएशन में आया था - सारे राइटर्स से साइन कराने के लिए। तब तकरीबन सारे राइटर्स ने साइन कर दिए थे सिवाय राही मासूम रजा और विमलदत्त के। ये लोग उठकर बाहर चले आए थे कि हम साइन नहीं करेंगे। इस पर काफ़ी हंगामा भी हुआ था और सुना गया था कि मिसेज गान्धी को बहुत बुरा लगा था।
एक युवती ने पर्दे के पीछे से झाँका तो खिल-सी गईं - जी, ये किरन है बाबूलाल की बेटी। ग्वालियर से आई है। फिर जैसे मेरे वहाँ होने का उन्हें ध्यान ही नहीं रह गया था। ऐसे बातों में लगी थीं जैसे वो किरन की माँ ही हों - अरे, किरन। सामने तो आ बच्ची। अरे, तू तो सूखकर काँटा हो गई... ये क्या, बाल भी सफेद होने लगे... कौन आया है तुम्हें छोड़ने... ससुराल वाले सब कैसे हैं - हाँ, समन आई थी मुझे बम्बई से यहाँ छोड़ने... वो बम्बई पहुँच भी गई... हाँ, शेखू, कमजोर हो गया है... अरे, तूने उसका फ़ोटो देख भी लिया... ला जरा इधर ला उसका फ़ोटो... इन्हें भी दिखाऊँगी।'... आदेश के साथ ही खुद भी उठकर अंदर चली गईं। लौटीं तो उनके दोनों हाथों में फ़ोटो थे। मुझे दिखाने को बेहद उत्सुक, गद्गद! बहुत कुछ कह-बता देने को एकदम प्रस्तुत - देखो आपको एक यादगार चीज दिखाऊँ। देखिए - ये मासूम का १९४३ का फोटो है और ये हैं मरियम के बेटे जुहेब। मैं इसे शेखू कहती हू। देखिए, कितना मिलता है अपने नाना से। आपने देखा - बिल्कुल वे ही इम्प्रेशंस...।'
अचानक वे दीवार पर टँगे अन्य फोटोज+ के बारे में बताने लगीं। पता नहीं क्या ख़याल आया कि उस कमरे में से गली की ओर बढ़ चलीं - आइए, आपको घर दिखाऊँ - ये है गली। इसी में खुलते हैं दोनों ओर के बैडरूम्स के दरवाजे।' गली के दोनों ओर की दीवारों पर अनेक फोटो लगे हैं, बीच में भी कई जगह बहुत से फोटो रखे हैं। वे गाइड की तरह सब दिखा-बता रही हैं - ये यूनुस हैं। अपनी वर्दी में... मासूम, ये मेरी एक दोस्त.........ये हॉल है.......ये परदादा, ये दादा, ये वालिद, ये सर सैयद, ये उनके पोते.....जी, यहाँ से इस तरफ ये जनाना और ये वो हिस्सा, जिसमें मैं रहती हू। हाँ, मासूम आते थे तो इसी में रहते थे। ये यूनुस का...ये मासूम का फ़ोटो।' चुप सुनते हुए मैं इस बात पर चकित था कि उनके घर के गलियारे में बाईं ओर की दीवार पर सब से पहला फ़ोटो यूनुस साहब का था। यह भी कि राही साहब को बेहद लगाव और सम्मान से याद करते हुए भी उन्होंने एक बार भी यूनुस साहब के बारे में जरा भी असम्मान या शिकायत के लहजे में बात नहीं की थी।
लौटते में गली के बाईं ओर के कमरों की ओर इशारा किया - इन दोनों कमरों में रहते थे यूनुस...।' हम लोग अब फिर से अपनी-अपनी जगह आ बैठे थे। मैंने अब हिचकते हुए यूनुस साहब के अंतिम दिनों से जुड़े कुछ सवाल उनसे पूछे थे। उन्हें जैसे सब कुछ आज भी बहुत अच्छी तरह याद था। कुछ भी बताने में ज+रा भी देर नहीं, टालने-बचाने की कोशिश नहीं - ÷मेरा जन्म १९३० का। शादी पचास में हुई - तो तब मेरा बीसवाँ साल था। डायवोर्स १९६३-६४ में हुआ। मैंने बताया आपको यूनुस बाद में यहीं मेडीकल कॉलिज में आ गए थे। जी, उनकी डेथ यहीं, इस घर में हुई - १९८४ में। मैं... बम्बई में थी। तीसरे-चौथे दिन आ गई थी। बच्चे पहले आ गए थे। आपने देखा होगा - वो हमारा जो फैमिली ग्रेवयार्ड है, उसी में यूनुस की मजार है।'
कैसा लगा था उनकी मौत की सुनकर आपको?
जिसके साथ ऐसोसिएशन हो - तकलीफ़ तो होती है।
उनकी मौत का सुनकर राही साहब ने क्या कहा आपसे? वे आए थे क्या तब यहाँ?
राही ने तुरंत कहा कि बच्चों को फौरन भेज दो। तुम जाना चाहो तो चली जाओ। यहाँ कोई नहीं था। मैं तीन-चार दिन बाद आ गई। राही नहीं आ पाए थे। मरियम के एक्जाम्स चल रहे थे। उनकी वजह से उन्हें रुकना पड़ा। मरियम को आज भी मलाल है तब न आ पाने का। लड़के तीनों आ गए थे।
तब वे जैसे मेरे सवालों को सुन नहीं, पी रही थीं। उनके उत्तर दिए हुए से न लगकर, आए हुए से लग रहे थे। मेरे प्रश्न उनके अंदर पहुँचकर उनके अन्तस् में की प्रतिध्वनियाँ बनकर वापस लौट रहे थे।
यूनुस साहब और राही साहब की मौत में से किसने आपको अधिक हिलाया-कँपाया?
जाहिर है - मासूम की मौत ने। मासूम की डेथ के बाद तो जिंदगी उलट ही गई न। वो बात ही नहीं रही। ठीक है, बच्चे हैं, सब अच्छा है - पर वो बात ही नहीं रही...। उनकी डेथ के बाद एक वैक्यूम है। अब भी है वो वैक्यूम। इसीलिए मैं यहाँ बम्बई से वापस चली आई। छोटी-छोटी चीजों पर ख़याल आता रहता है। रोजाना जिंदगी की बहुत छोटी-छोटी चीजों पर - कि मासूम होते तो ऐसा नहीं होता.... कि यूँ होता। वैसे मेरे चारों बच्चे मेरा बहुत ख़याल रखते हैं। चाहते हैं कि मेरी हर ख्वाहिश पूरी हो। मेरी दोनों बहुएँ भी बहुत ख़याल रखती हैं।
राही साहब की मौत वाले हिस्से को आज कैसे याद करेंगी आप?
कीमियो थैरेपी के रिएक्शन से हिन्दुजा हॉस्पीटल में डेथ हुई थी। मैं वहीं अस्पताल में थी। सालों से चिक पर एक नन्हा-सा ग्लैंड था। डॉक्टरों ने कहा कि वायप्सी करा लो। नाम याद नहीं आ रहा, पर हाँ, बहुत खतरनाक वाला कैंसर था। मैं समझती हू अगर उसे न छेड़ा जाता तो शायद कुछ और जिन्दा रहते मासूम। दस दिसम्बर, १९९१ को ये आप्रेशन हुआ था। डेथ हुई १४-१५ मार्च की रात-१९९२ को। आप्रेशन सकससफुल हुआ। घर आ गए थे। मार्च के शुरू में अस्पताल दिखाने गए तो गले के नीचे फिर से ग्लैंड बन गया। उसकी जो कीमियो थैरेपी हुई, उसके रिएक्शन से मौत हुई। जब डॉक्टरों ने मासूम के आप्रेशन की दिसम्बर में तारीख तय की तो मैंने सुनीलदत्त साहब को कॉण्टेक्ट किया। वो उस जमाने में दिल्ली थे। मैंने कहा - दत्त साहब जब तक आप नहीं आएंगे आप्रेशन नहीं होगा। दत्त साहब नौ दिसम्बर को बम्बई आ गए और उन्होंने मासूम के साथ हॉस्पीटल में बहुत वक्त गुजारा। दस की तो सुबह से आकर रात तक वहीं बैठे रहे। तब तक बैठे रहे जब तक मासूम को होश नहीं आ गया।
मृत्यु से पहले क्या कुछ कहा आपसे उन्होंने?
उस वक्त उन्हें जो दवाएँ दी जाती थीं - उससे पूरी कांशसनेस नहीं थी। दवाओं के असर से हल्की-सी बेहोशी रहती थी। तब कुछ नहीं कहा। हाँ, दो दिन पहले मुझसे ये जरूर कहा था कि अगर तुम्हें पैसे की दिक्क़त हो तो चोपड़ा साहब को कांटेक्ट कर लेना। मैंने कहा कि अभी कोई दिक्क़त नहीं है, पर अगर होगी तो जाहिर है उन्हीं से कहूगी। उनको ख़याल ही नहीं था कि वो इतनी जल्दी खत्म हो जाएंगे। आप्रेशन ठीक हो गया था, कोई बात ही नहीं थी।... मुझे उनकी डेड बॉडी को दो दिन अस्पताल में रखना पड़ा था कि उनके भाई-बहन सब लोग आ जाएँ। जी, मैं घर आ गई थी।
उनकी डेथ और दफ्न होने के बीच के दौर को आपने कैसे झेला?
दिमागी परेशानी तो थी ही, जैसी जो हो सकती थी। लोग आते रहते थे। वैक्यूम तो आज भी है। मैं सबके सामने नहीं रो सकती। पीछे चाहे कितना ही रो लूँ। कुछ पुराने ख़यालात की लेडीज+ को बड़ा ताज्जुब था कि ये रो नहीं रही। शायद इन्हें गम नहीं है। अकेले में जाहिर है कि रोना आता था - चीजें देखकर ख़याल आता था - वे ये करते थे, वे वो करते थे। जी, उन्हें वहीं दफ्न किया गया था - जुहू में - सांताक्रूज ग्रेवयार्ड में।
उसके बाद...?
फिर हुआ ये कि मासूम की डेथ के उन्नीस दिन बाद मेरी मझली बहू के फादर का एक्सीडेंट हो गया। वो मुझसे बहुत छोटा था - जी, मिक्की। तकरीबन सत्ताईस साल एम०पी० रहा। उसकी मदर यूनुस की सगी बड़ी बहन थी - जी, राजमाता रामपुर। बहुत पहले से हम एक दूसरे को जानते थे। मिक्की को मैं बचपन से जानती थी। वो मेरे करीब भी बहुत था। ईद के दिन हुई थी उसकी मौत। जाहिर है - मेरा लड़का उसका दामाद था - तो वो जा रहा था। मैंने कहा मैं भी चलूंगी। और मैं रामपुर आ गई। फिर रामपुर से अलीगढ़ आ गई। मैं वापस फिर गई थी बम्बई पर...। मेरा मझला लड़का अलग रहता था। दिन में मैं उसके साथ रहती - रात को अपने फ्लैट पर आ जाती। रोती-रोती सो जाती। उसी दौरान अमेरिका में मरियम की तबियत ज्+यादा खराब हो गई। और मैं वहाँ चली गई। इरफान और समन से मैंने कहा कि अब बहतर ये है कि तुम मेरे फ्लैट में शिफ्ट हो जाओ। वे किराए पर रहते थे। जी, अब आज तक वहीं है। जी, मासूम का चालीसवाँ अलीगढ़ में किया था। उनके दोस्तों - सारे रिश्तेदारों को इत्तला दी थी तब...।
बाहर आते हुए मैं इस विडम्बना पर सोच रहा था कि जिनसे तलाक़ हुआ उनकी क़ब्र आफ़ताब मंजिल के ग्रेवयार्ड में है - और जिनसे दूसरी शादी हुई उन-मासूम को सांताक्रूज ग्रेवयार्ड, बम्बई में दफ्+न होना पड़ा।
हम लोग बरामदे में बड़े दरवाजे के पास खड़े थे। यकायक दाईं ओर की दीवार पर लगी उस नेम प्लेट पर मेरी नज+र पड़ी - ले०कर्नल - एस०एम० यूनुस खान। हतप्रभ, ठिठका-सा मैं कभी उसे तो कभी ज+रा दूर पर लगी राही साहब की नेम प्लेट को देखे जा रहा था। उन्होंने शायद मेरे मन का आश्चर्य भाँप लिया था - जी, ये यूनुस की नेम प्लेट है - ले० कर्नल साहबजादा मौहम्मद यूनुस खान। वे इसी तरफ रहते थे। ये अभी तक लगी हुई है। इसी सबको देखकर यहाँ के लोग दुनिया भर की बातें बनाते हैं।
वहाँ से विदा होते समय मैं रिश्तों को मानने-जीने-सम्मान देने के उस अनूठे अंदाज+, उस दुर्लभ साहस और जज्+बे पर हैरान था। और बाहर आकर लगा था कि राही को भले ही मैं बहुत पहले से पढ़ता रहा हू - पर आज नैयर राही के मन के मासूम से परिचित होना निःसंदेह अद्भुत और मूल्यवान उपलब्धि है। अंदर-अंदर किसी ने कहा - नैयर जी की इसी निश्छलता, साहस और विशाल हृदय पर ही तो रीझे होंगे राही साहब।