Tuesday, December 28, 2010

यादों के दायरे

राही मासूम रजा





यादों के इस सफ़र में शामिल होने के लिए जब बात राही साहब से हुई तो उन्होंने कहा, मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू, क्योंकि उन लोगों को जानने से जि+न्दगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।'' आधा गांव', टोपी शुक्ला', हिम्मत जौनपुरी' ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज' और सीनः ७५' के कविमन रचनाकार डॉ० राही मासूम रजा की कलम से उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के उन्हीं भरे-भरे अरसों की खूबसूरत यादें।

हर आदमी के पास लिखने के लिए एक जीवनी होती है, पर हर आदमी वह जीवनी लिख नहीं पाता... हर आदमी लिखना चाहता भी नहीं क्योंकि कुछ यादें इतनी निजी होती हैं कि उनमें किसी को शरीक करने को जी नहीं चाहता। मेरे पास ऐसी यादें ज्यादा हैं। इसलिए मैं कभी अपनी जीवनी नहीं लिखूंगा परंतु मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू क्योंकि उन लोगों को जानने से जिंदगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।

मैं तो बंबई महानगर में जब अपने आप से ऊबने लगता हँू, उन लोगों में से किसी एक या दो को समय की गर्द झाड़ कर पास बिठा लेता हू और थोड़ी देर के बाद अपने जीवन-संघर्ष के लिए ताजा दम हो जाता हू।

दस साल से बंबई में अपनी यादों के सहारे जी रहा हू। बंबई ने आज तक मुझे कोई ऐसा क्षण नहीं दिया, एक क्षण के सिवा, जिसे यादों की दुनिया में जगह मिले। यह क्षण है मेरी बेटी, मरियम की पैदाइश का क्षण।

यहाँ कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। ड्ष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गये होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिये और उस काम की मज+दूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हू।

मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फ़ैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहां से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपये थे। तब कमलेश्वर ने सारिका', भारती ने धर्मयुग' से मुझे पैसे ऐडवांस दिलवाये और ड्डष्ण जी ने अपनी एक फ़िल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गयी। आज सोचता हू कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ०पी० तांतिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेंहदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की। क़ज उतर जाता है। एहसान नहीं उतरता और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आती पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।



जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूं किया कि मैं यह भूल गया कि फ़िलहाल मैं बेरोज+गार हूं। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हू उससे बड़ा था। इसका किराया ६०० दे रहा हू। उसका किराया केवल १५० रुपये माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिज+र्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जायें क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डांट पिलायी मैंने।

चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गये और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हमने कमरे में दो गद्दे डाल दिये और वहीं दो गद्दों वाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंगरूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों ड्डष्णचंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उनसे मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न मांग बैठूं। यह शेर उन्हीं दिनों की यादगार है-

बे-चेहरा लोगों में रह कर भूल गये आवाज+

अपनी अक्सर ख्वाहिश होती है, कुछ बात करें हम साये से

उन्हीं दिनों मुझे पहली बार डर का अनुभव हुआ और उसी डर ने मेरी आवाज में एक अजीब कड़वाहट भर दी। बस नैयर थीं और नैयर के पेट में मरियम थी और मेरी परेशानियां थीं। नैयर कभी-कभी थक जाती। उन दिनों की एक कविता सुनाता हू -

तेज+ चलने लगी गुरबत ;मुसाफ़िरतद्ध में हवा

गर्द पड़ने लगी आईने पर

जागते रहने का हासिल क्या है

आओ, सो जाओ, मेरे सीने पर

ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि बिगड़ जायेंगे

ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि हमें धूप में देखेंगे तो कतरायेंगे

ख्वाब तो दोस्त नहीं हैं कि जो बिछड़ेंगे तो याद आयेंगे

जागते रहने का हासिल क्या है

अव्वलेशब ;रात के पहले हिस्से मेंद्ध उसे देखा था यहां

चांद ठहरा है उसी ज+ीने पर

आओ सो जाओ, मेरे सीने पर।

यही कड़वाहट तो मेरी वह पूंजी है जो ÷ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज', सीनः७५' और कटरा बी आर्जू' लिखने में खर्च हुई।



उन दिनों मैं हिल रोड पर रहा करता था। लगता कि दिन भर यह सड़क मेरे फ्लैट के बीच से होकर गुजरती है। गयी रात को ज+रा शोर कम हुआ करता था और तब मैं नैयर के साथ अकेला होता था और उन्हीं के अकेले क्षणों में नैयर का प्यार मेरी आत्मा के घाव धोता और मुझे दूसरे दिन की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार करता... नैयर को मेरी शायरी पसंद नहीं। पर मुझमें जीते हुए शायर ने नैयर के लिए एक लोरी लिखीः

आओ, हम तुम चलें नींद के गांव में

कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं

इस पसीने के गहरे समुंदर के साहिल पे टूटी हुई सारी अंगड़ाइयां सो गयीं

शोर कम हो गया

कहकहे सो गये

सिसकियां सो गयीं

सारी सरगोशियां सो गयीं

रास्ते, चलते-चलते घरों में समाते गये

शहर अकेला खड़ा रह गया

क्यों न हम इस अकेले, भटकते हुए शहर को साथ लेते चलें

नींद के गांव तक

रात ढलने लगी

आंख जलने लगी

लफ्ज खुद अपनी आवाज के बोझ से दब गये

तुमने सरगोशियों को रिदा चादरद् ओढ़ ली

आओ, सरगोशियों को ही रख्ते-सफ़र सफ़र का सामान की तरह बांध लें

आओ, हम तुम चलें

नींद के गांव में

कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं



आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अंधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गयीं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गयीं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाये हुए आया। हमने उस तुहफ़े को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और ड्डष्णजी को तकलीफ़ होती और हम उन्हें तकलीफ़ देना नहीं चाहते थे।

रहीम ने ग़लत कहा था कि : रहिमन बिगड़े दूध को मथे न माखन होय।

जीवन का दूध जब बिगड़ता है तभी माखन बनता है। क्योंकि तभी मनुष्य अपने आप से उलटे-सीधे सवाल करता है। मैंने भी अपने आप से उन दिनों कई सवाल किये। पूछा कि :

क्या वह दिन भी दिन हैं जिनमें दिनभर जी घबराये

क्या वह रातें भी रातें हैं जिनमें नींद न आये?



कभी-कभी वह लमहे भी आये जब हार मान लेने को जी चाहने लगा। ऐसे में घर की याद आती-

हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं राही

आये और हमको समझा के कोई घर ले जाये।

ऐसा इसलिए था कि उन दिनों में अपनी आत्मा को लहू-लुहान पा रहा था परंतु अपने खून से कहानियां और शेर लिखने का हौसला था मुझमें। फिर भी मुझे अपना मरसिया लिखना पड़ाः

एक चुटकी नींद की मिलती नहीं

अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए

हाय हम किस शहर में मारे गये...

घंटियां बजती हैं,

जीने पर क़दम की चाप है

फिर कोई बे-चेहरा होगा,

मुंह में होगी जिसके मक्खन की जबां,

सीने में होगा जिसके एक पत्थर का दिल

मुस्करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जायेगा।

सच कहता हू, मेरी आवाज के पांव किसी दलदल में धंसे जा रहे थे और मैं बेबसी से अपने गुम होने का तमाशा देख रहा था क्योंकि कुछ कर ही नहीं सकता था।

लेकिन मैंने फिर भी हार नहीं मानी। बंबई में मैंने चार उपन्यास लिखे। आठ-दस कहानियाँ लिखीं। चालीस-पचास नज्+में लिखीं। दो-चार सौ फुटकर शेर लिखे। सौ-पचास लेख भी लिखे होंगे। पलट के देखता हूं तो लगता है कि सौदा ख़िसारे का नहीं रहा। मैं यह दस साल फिर से जीने को तैयार हू।



और कमलेश्वर कहते हैं कि वह राही मासूम रजा नहीं हैं कि जो चाहे वह उनसे अपनी अंट-शंट फ़िल्में लिखवा ले। यह बात किसी और ने कही होती तो इतनी तकलीफ़ न होती। पर कमलेश्वर...यह मानने को जी नहीं चाहता। जो कमलेश्वर मेरा दोस्त था वह कहीं गुम हो गया है। यह तो आर०के० नारायण की लिखी हुई किसी फ़िल्म का कोई पात्र है जो तलवार भांजता फिर रहा है कि कोई तो घायल होगा... मेरे दिल के जख्मों की खतौनी में एक-आध घाव कमलेश्वर के लगाये हुए भी हैं और यही मेरी गर्दिश के दिनों की सबसे ज्यादा भयानक देन है।

मैं आज कमलेश्वर की बात करना नहीं चाहता था। पर बंबई की एक याद वह भी है, तो उसका जिक्र कैसे न करता।



आजकल घर बहुत याद आ रहा है। बारह साल हो गये घर नहीं गया हूं। लोग भी याद आते हैं। पर ज्+यादा याद आती है वहां की धूल भरी गलियां, गचकी वाली सड़कें, बेतकल्लुफ़ भीड़भाड़, मेरी मातृभाषा बोलती हुई आवाजें। अभी कुछ दिन पहले एक ग़जल लिखी है। उसी के दो शेरों पर आज की बात ख्त्म करता हू।

कच्चा आंगन बिस्तर खोले, दरवाजा विश्राम करे

राही जी कुछ दिन को अपने घर हो आयें, राम करे

मेरी घायल आंखों ने तो जोड़ लिये हैं हाथ अपने

बनजारे सपनों की टोली किन आंखों में शाम करे।



मेरा खिंचाव राही की ओर नहीं, एक सच्चे, शरीफ आदमी की ओर हुआ था

- प्रेम कुमार





मुख्य द्वार पर पहुँचते ही यह इमारत अपनी भव्यता, विशालता और लम्बी उम्र का अहसास कराने लगती है। शमशाद मार्केट के चौराहे से अनूपशहर रोड पर आगे बढ़ने पर सुलेमान हॉल से जरा पहले बाईं ओर बड़ा-सा एक प्रवेश द्वार है। इसके दाहिनी ओर सफेद पत्थर पर अंग्रेजी में अंकित काले अक्षर उभरते हैं- आफ़ताब मंजिल, आफ़ताब अहमद खान, १९०४। एक शताब्दी से अधिक की उम्र जी चुकी इस इमारत के अंतस्‌ तक पहुँचाने वाली सड़क के दोनों ओर खड़े लम्बे-लम्बे घने छायादार वृक्ष, दूर तक फै+ला बेहतरीन रख-रखाव वाला बग़ीचा, जगह-जगह रखे क़िस्म-क़िस्म के रूपाकार वाले गमले, गमलों में बढ़ते-फैलते, चहकते-महकते बहुत सारे फूल पौधे। पोर्च के दायीं ओर भरपूर ऊँचाई पर मुग़लकालीन रहीसों, नवाबों, जैसी वह इमारत और बायीं ओर साधारण-सी एक इमारत की लम्बी सफेद दीवार पर लगी तामचीनी की एक नेमप्लेट। उस पर अंग्रेजी में लिखा है डॉ० राही मासूम रजा। मन में सवाल उठता है - यहाँ यह नेम प्लेट ऐसे इस जगह क्यों?

उनके आने की प्रतीक्षा करती मेरी आँखें उस अतिथिकक्ष की एक-एक चीज+ को जल्दी से देख - याद कर लेना चाह रही थीं। गद्देदार बेहतरीन सोफे , काँच लगी मेजें, बेहतरीन लकड़ी के स्टूल, शोकेस, उन पर रखे फूलदान-फ़ोटोज, टेबिल लैम्प, आतिशदान और दो बड़ी अल्मारियों में रखे, दीवारों पर टंगे फ्रेम जड़े अन्य छोटे-बड़े फ़ोटोज। पर्दे। छत पर धीमे-धीमे घूमता बुड्ढा-सा पंखा और ममि पीली-सी रोशनी बखेरता एक बल्ब। जी हाँ, यहाँ उनसे मेरा मतलब नैयर रजा राही से है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस शख्सियत के मासूम रजा की जिन्दगी में आने का सच और अर्थ क्या था? राही से जो जितना दूर था, उसने दोनों के जुड़ने को लेकर उतना ही ऊल-जलूल सोचा-फैलाया। क़रीबी-जानकार लोग अपने-अपने कारणों से चुप्पी-सी साधे रहे। कुछ ने जब तब कुछ कहा भी तो अपनी समझ और दृष्टि से। नतीजतन राही के जीवन और लेखन को लेकर अनेक बेसिर-पैर की, अनर्गल, अप्रामाणिक, परस्पर विरोधी बातें जन्मती, पलती, फैलती रहीं।

डॉ० फ़ीरोज से ज्ञात हुआ कि नैयर रजा अमेरिका से यहाँ आयी हुयी हैं। मन हुआ कि राही की जिन्दगी से उनके जुड़ने के सच को उन्हीं से जाना जाये।

गुलाबी कुर्ता, पीली-सी सलवार। एकदम सफेद चुन्नी। दमकता, मुस्कराता गोरा चेहरा। श्वेत केश। भरपूर चुस्ती-फुर्ती। न कोई श्रृंगार, न बनावट-सजावट। सब कुछ एकदम सादा-शालीन। सादगी भरी खूबसूरती, स्नेह भरा अपनापन। फिर भी मन में संकोच मिला एक डर मेरे साथ था - जो प्रश्न मेरे अन्दर घुमड़ रहे थे, उन्हें सुनकर वे कहीं नाराज न हो जायें। मना न कर दें। हिम्मत जुटाकर बाहर लगी राही साहब की नेमप्लेट के बारे में सवाल किया। जोर की हँसी सुनाई दी। हँसते-हँसते बताने लगीं - इसकी अपनी एक कहानी है जिस हिस्से में हम लोग बैठे हैं, इसे मेरे दादा ने बनवाया था। इस हिस्से में आठ बड़े-बड़े बैडरूम्स हैं। चारों तरफ बरामदा और बीच में बड़े दरवाजे से एक गली। इस गली में सभी बैडरूम्स के दरवाजे खुलते हैं। बीच में बड़ा-सा एक हॉल है। उसके इस तरफ मर्दाना और उस तरफ जनाना। दादी के जमाने में उस तरफ कोई जा नहीं सकता था। नीचे के दो कमरे दादा जान ने अपने लड़कों के लिए अलग से बनवाये थे कि उनके दोस्त आयें तो वे वहाँ मिलें। पर उनके वे बेटे टेंथ के बाद यहाँ से इंग्लैंड चले गये। जहाँ मासूम की नेमप्लेट लगी है - इस जुड़े हिस्से को हम लोग डिब्बा कहते हैं और नौकर लोग छोटी कोठी कहते हैं। कमरों के पीछे वाले हिस्से में तीन कॉटेज बने हैं। उन्हें मेरे ताया ने बनवाया था। वे बैरिस्टर थे और बड़ौदा स्टेट में चले गये थे। वह हिस्सा किराये पर उठा दिया था। इस सामने वाले हिस्से में उर्दू डिपार्टमेंट में चेयरमैन रहे - नसीम कुरैशी साहब रहते थे। उनकी डैथ के बाद इस वाले हिस्से को किसी के नाम अलॉट कर दिया गया। मैं दफ्+तरों में गयी, अफ़सरों से मिली। उन्होंने कहा कि आप पर तो घर है इसलिए यह आपके नाम अलॉट नहीं हो सकता। मैंने कहा कि मेरे हसबैंड के नाम पर घर नहीं है तो उन्होंने उनके नाम अलॉट तो नहीं किया पर छोड़ दिया था। नहीं, वह इसमें बिलकुल नहीं रहे... उनका ऑफिस बना दिया था और यह नेमप्लेट लगवा दी थी। नहीं, अलीगढ़ में मैं और कहीं नहीं रही, यहीं रही।

राही साहब से आपके जुड़ने और उनसे पहले की जिन्दगी के बारे में तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं। उन तमाम क़यासों-अफ़वाहों पर विराम लगाने के लिए ज+रूरी है कि आप उस सबके बारे में कुछ कहें...?

बड़े ध्यान से सुना सब। जरा देर कुछ सोचा और फिर बड़े सहज भाव से बताने लगीं - जी, मेरी पहली शादी कर्नल यूनुस खान से हुई थी। वे मेरे कजि+न थे। बुरा रिवाज+ था यह हमारे यहाँ कजिन के साथ शादी का। इनके फादर सर अब्दुल समद खाँ हरी सिंह के जमाने में कश्मीर में होम मिनिस्टर थे। वे मेरे ख़ालू थे। जब हम लोगों ने डायवोर्स करने का तय किया तो मैंने डिसाइड किया कि मैं श्रीनगर में रहू। वहाँ बच्चे वन हॉल स्कूल में पढ़ रहे थे। मैं उस समय तक राही मासूम रजा को जानती नहीं थी। मैं मासूम से अपने डायवोर्स के दो साल बाद मिली। नहीं, उससे पहले जानती भी नहीं थी। नहीं, नहीं... भागने-भगाने का सवाल ही क्या था! तब तक दिमाग़ में भी नहीं था कि कोई मिलेगा या शादी करनी है या नहीं।

राही साहब से आप पहली बार कब, कहाँ मिलीं? आप दोनों का वह मिलना शादी करने के निर्णय तक कैसे पहुँचा?

कुछ याद किया है जैसे। उतनी उस यात्रा को तय करने में ज्+यादा देर नहीं लगी थी तब - कर्नल साहब की डैथ के बाद कश्मीर में रहकर मूनिस भाई से मिलना हो गया था। मासूम रजा से तो इत्तफ़ाक़ से मिलना हुआ। तब मूनिस रजा की फ़ैमिली वली मंजि+ल में रहती थी। उस दिन मैं उनसे मिलने गयी थी वहाँ। मेरा चचाजात भाई, जिसकी डैथ हो चुकी है, मेरे साथ था। वहाँ मालूम हुआ कि मूनिस भाई तो जा चुके हैं। तो उस दिन वहाँ पहली बार मेरा मिलना मासूम से हुआ। भाई उन्हें पहले से जानता था। उसी ने बताया कि जिन्होंने दरवाजा खोला - वे पढ़ाते हैं, बड़े मशहूर शायर हैं। नहीं, तब बिलकुल अट्रेक्ट नहीं हुई। फिर मिलना-जुलना आना-जाना होता रहा। फिर धीरे-धीरे बढ़ता रहा फिर एक साल बाद हमने शादी का तय किया। मैंने उन्हें अपनी वालिदा से मिलवाया। वालिदा ने एप्रूव किया। बिलकुल, उनकी इजाज+त से हुआ सब और हमने शादी कर ली।

क्या ख़ास दिखा था आपको उनमें ऐसा कि आपने शादी करने का निर्णय लिया?

ख़ास यह था कि हमारे ख़यालात बहुत मिलते थे। हमने तय यह किया था कि मैं आपकी पहली जिन्दगी के बारे में कुछ नहीं पूछूँगी और आप मेरी जिन्दगी के बारे में भी नहीं पूछेंगे। और हमारा यह वादा आख़िर तक रहा। जी हाँ, यूनुस से मेरे तीन लड़के भी थे। मासूम ने उन तीनों को बहुत प्यार दिया - अपने बच्चों की तरह। अब भी बहुतों को मालूम नहीं है कि यह मासूम के बच्चे नहीं हैं और बच्चों ने भी उन्हें बाप की तरह बेहद इज्जत दी। जी, तीन बेटे और एक बेटी है अब।

लोग कहते हैं आपसे शादी करने के कारण ही राही साहब को अलीगढ़ छोड़ना पड़ा?

यह मैं क्या कहू... उस वक्त मासूम यहाँ लैक्चरर थे। टैम्परेरी थे। जहाँ तक मुझे ख़याल है उर्दू डिपार्टमेंट के कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ थे। यहाँ अशोक चन्द्रा नाम का एक लड़का पढ़ता था। उसके वालिद आर० चन्द्रा फ़िल्मों के मशहूर डायरेक्टर थे। उससे मासूम की दोस्ती हुई। यह सच है कि यहाँ से वे छोड़ना नहीं चाहते थे। मजबूरन गये वे अलीगढ़ से। चन्द्रा साहब ने उन्हें मुशायरा नाम की फ़िल्म लिखने को बुलाया। इत्तफ़ाक़ ऐसा हुआ कि वह बनी नहीं। बस, फिर चन्द्रा जी के ज+रिये भारत जी से, भारत जी के जरिए और फ़िल्म वालों से मिलना हुआ। फिर इस तरह फ़िल्में बनती गयीं। शुरू की कुछ तो रिलीज ही नहीं हुईं पर बाद में बनती गईं। फिर हम मार्च, १९६६ में परमानेण्टली बम्बई चले गये थे। जी, बीच में मासूम आते रहते थे यहाँ। जी, बेटी मरियम वहीं बम्बई में पैदा हुई। अब अमेरिका में है। पहले टीचिंग करती थी - अब इंश्योरेंस कम्पनी में एक बड़े पद पर है। उसके हसबैंड डॉक्टर हैं। वो मूनिस रजा साहब के बेटे हैं। नहीं, यह शादी इन बच्चों ने नहीं की, बड़ों ने मिलकर करवायी थी।

आपने शादी से पहले क्या अपने बेटों से कुछ पूछा था?आपके दूसरी शादी के निर्णय को उन्होंने कैसे लिया और वे बाद में क्या आपके पास ही रहे?

नहीं, बच्चों से नहीं पूछा था। छोटा तीन साल का था। एक आठवीं में और दूसरा नवीं में यही पढ़ रहा था। बड़ा नदीम खान नसीरुद्दीन का साथी था। वो सिनेमोटोग्राफर बन गया। मझले इरफान खान ने कैमिस्ट्री में एम०एस-सी० किया। उसकी बम्बई में कैमीकल्स की छोटी-सी एक फैक्ट्री है। छोटा हांगकांग में है। ईवेंट्स मैनेजमेंट करता है और अब वही सैटिल है। जी, बच्चे तब पढ़ रहे थे। यूनुस का श्रीनगर से बनारस ट्रांसफर हुआ और फिर वहाँ से बरेली हुआ। तो बच्चे बरेली कान्वेंट में पढ़ने चले गए। बच्चों पर यह कोई पाबंदी नहीं थी कि वे मेरे पास रहें या यूनुस के। हम लोगों में अच्छी अंडरस्टेंडिंग थी। छोटा क्योंकि छोटा था इसलिए मेरे पास रहता था। वैसे बच्चे दोनों जगह रहे।

वह क्या था जिसने आपको यूनुस साहब से अलग होने और राही साहब से जुड़ने के लिए प्रेरित किया?

थोड़ी देर कुछ सोचती-सी चुप बैठी रहीं। फिर जैसे जिं+दगी के उन पुराने पृष्ठों को खोल पलट कर धीमे-धीमे मुझे सुना रही थीं वे - मालूम नहीं - पर ये है कि यूनुस के ख़यालात बिलकुल अलग थे। मेंटल एडजस्टमेंट नहीं हो पाया था। आर्मी की नौकरी - कभी कहीं, कभी कहीं। काफी अलग रहना पड़ता था। बहुत खुशगवार जिंदगी नहीं गुजरी। कोई लड़ाई नहीं हुई - पर जो दिली सुकून होता है, वह नहीं मिला। हालाँकि उनके साथ रहते उन लोगों से भी मिलना हुआ जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। वो देखिए सामने दीवार पर - मेरी तस्वीर राजेन्द्र बाबू के साथ है - और ये राजाजी हैं। वे प्रेसीडेंट के डिप्टी मिलिट्री सैक्रेट्री थे। वे राष्ट्रपति भवन में छह साल रहे और मैं चार साल। बाहर के मुल्क़ों से लोग आते, उनसे मुलाक़ात होती ऐसे-ऐसे लोग जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे। ये देख रहे हैं आप - शाह ईरान की जुड़वां बहन - प्रिंसिज+ अशरफ पहलवी। ये वहाँ आकर रहतीं तो मिलना होता।' अचानक कुछ याद आया। उठकर गईं और तुरंत एक फ्रेम्ड फ़ोटो हाथ में लिए उल्लसित-सी लौटीं - देखिए, बड़ी ऐतिहासिक फ़ोटो है - दाएँ से बाएँ - ये यूनुस, ये अशरफ पहलवी, बीच में महाराज जयपुर, ये पहलवी की छोटी बहन फ़ातिमा पहलवी, और ये बॉडीगार्ड थे - मेजर ठाकुर गोविंद सिंह...।' बड़ी लम्बी एक साँस ली है। शब्दों में का अफसोस साफ सुनाई दे रहा है - अब इनमें से एक भी जीवित नहीं है।' फ़ोटो मेज पर रखकर चुप बैठ गई हैं। मैंने अपना सवाल दोहराया है। जैसे वे कहीं और से लौट रही थीं उस क्षण वहाँ - ये बताऊँ आपको - वैसे बड़े नेक इंसान थे यूनुस। बहुत ख़याल करने वाले। मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई बचपन से मेरी परवरिश अलग ढंग से हुई। जिद्दी तबियत थी मैं। शायद उसी वजह से हुआ होगा वह सब...।

अपनी खूबसूरती के बारे में मैं क्या बताऊँ?... मुझे नहीं लगता कुछ...। आप जान लें - मेरा खिंचाव राही से नहीं हुआ। मैं जब शुरू में उनसे मिली तो मुझे उनकी बातों में सच्चाई नज+र आई। और जैसे-जैसे ताल्लुक़ात और हुए तो ये बात और भी पुख्ता हुई कि उस शख्स में बनावट नहीं थी। एज ए पर्सन-एक सच्चे आदमी। जो दिल में होता वही कहते। क्यों जुड़ी - मुझे खुद नहीं मालूम। पर मिलते-मिलते ये जानकर कि यह सच्चा, शरीफ आदमी है - शायद यही देखकर। नहीं, उन्होंने मेरी कोई तारीफ़ - वारीफ़ नहीं की। हाँ, हाँ विरोध तो इतना कि हम सुन्नी, वो शिया - पूरे माहौल का फ़र्क था। उनकी बात मैं क्या बताऊँ... मुझे लगता है शायद मेरी बोल्डनेस ने उन्हें अट्रेक्ट किया होगा। यूनुस और मासूम के ताल्लुक़ात बहुत अच्छे थे। यूनुस ब्रॉड माइंडेड थे। उनका कहना था कि हमारा एक रिश्ता ख़त्म हो गया, पर दोस्ती का रिश्ता तो क़ायम है। मैं उनके ख़ानदान से मिलती रहती हू। उनके परिवार के लोगों से मेरी अब भी बेहद करीबी है। यूनुस मरियम को बेइंतहा चाहते थे। एक दिन उन्होंने यहाँ मुझसे पूछा कि मैं मरियम को तीनों बच्चों के बराबर का हिस्सा देना चाहता हू। मैंने कहा कि मुझे कोई ऐतराज नहीं है, पर आप अगर मासूम से पूछ लें तो बेहतर होगा। रामपुर में उनकी जायदाद है। यूनुस ने मासूम को खत लिखा। उन्होंने कह दिया कि ठीक है, मुझे कोई ऐतराज नहीं है। और आप देखिए कि मरियम उस जायदाद में भाइयों के बराबर की हिस्सेदार है और भाई भी उसे बेहद चाहते हैं।'

उनके बोलने का अंदाज बता रहा था कि उन्हें अपने इन दोनों सम्बन्धों पर आज भी नाज है। मेरी आँखों में शायद उन्होंने कहीं कुछ आश्चर्य जैसा देख लिया था। उस आश्चर्य को और भी बढ़ाती हुई वे बता रही थीं - मेरा और मासूम का एक ही कहना था कि इंसानी रिश्ते टूटते नहीं हैं। ये तो दुनियावी रिश्ते हैं कि शादियाँ हुईं या डाइवोर्स हुए। लोग एक-दूसरे के बीच तलवारें, खींच लेते हैं। डायवोर्स के बाद यूनुस को यहाँ मेडीकल कॉलिज में एक बड़े पद पर नौकरी मिल गई थी। तब मेरी अम्मा और बूआ इस घर में अकेली रहती थीं। उन्होंने यूनुस को लिखा कि तुम आफ़ताब मंजिल में आकर रहो। उन्हें थोड़ा हेजीटेशन हुआ। उन्होंने मुझसे लिखकर पूछा कि तुम्हें या मासूम को तो कोई ऐतराज नहीं है। हमने लिख दिया कि नहीं। और वो यहीं रहते थे...।' उँगली उठाकर बताया - उन बराबर वाले कमरों में। जी, मैं बराबर अम्मा के पास आती रहती।... मासूम को अगर ऐतराज होता तो मैं आती ही नहीं। हमारी दिमागी एक अंडरस्टेंडिंग थी - एक-दूसरे पर भरोसा था। नहीं, यहाँ आने पर भी उनसे वो सब बातें नहीं होती थीं...।'

टुकुर-टुकुर उनके चेहरे की ओर ताकता। मैं चकित भाव से वह सब सुन रहा था। मन में आए सवाल के कुछ शब्द ही बोल पाया था तब - यूनुस यदि इतने अच्छे थे तो...? बड़ा शांत-सा स्वर सुनाई दिया था - हर वक्त उलझने-बुलझने से तो बेहतर था कि...।'

आपको राही साहब की पहली शादी की बात मालूम थी क्या? आपके या उनके मन में क्या शादी के बाद गलती या अपराध बोध जैसा भाव भी कभी आया था?

मुझे मालूम था कि मासूम की पहली शादी बहुत कम उम्री में उनके वालिद ने करा दी थी। हाँ, बचपन में उनकी टाँग में तकलीफ़ थी। पहली बीवी हमारी शादी के वक्त थी कहाँ तब? उनका तलाक़ हो चुका था बरसों पहले। खुद राही बता चुके थे। नहीं, उनसे कोई संतान नहीं है। अफसोस की बाबत मैं क्या बताऊँ। मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं। मुझे नहीं मालूम। वैसे मैंने कभी अफसोस जैसा कुछ देखा नहीं। कभी कोई ताल्लुक़ात ही नहीं थे उनके। जहाँ तक मेरी बात है - उनसे जुड़ने के बाद ग़लती का कभी अहसास नहीं हुआ। हमेशा लगा कि मेरा डिसीजन सही था...।'

किस आधार पर...?

मेंटली सेटिसफेक्शन देखकर।

राही के साथ गुजारे वक्त के बारे में आज क्या कहना चाहेंगी आप?

जो वक्त उनके साथ गुजरा, बहुत अच्छा गुजरा। उन्होंने मेरी हर ख्वाहिश पूरी की। जो मैंने चाहा-वह चाहे ग़लत था या सही - उन्होंने पूरा किया। दरअसल मेरे वालिद ने मुझे इतना बर्बाद किया कि मेरी हर जिद पूरी करते थे। मैं जिद्दी होती चली गई। मासूम ने मेरी जिदें कैसे झेलीं, ये उनका ही दिल जानता होगा। लेकिन झेलीं जरूर - किसी बात में इंकार नहीं किया। हम लोगों की जिंदगी नार्मल थी। आपस में जैसे झगड़े होते रहते हैं, वो सब नहीं। गिव एंड टेक का मामला था। गिव इन मासूम ही ज्यादा करते रहते थे। मेरा अपना ख़याल है - या तो हम लोगों की अपब्रिंगिंग अलग तरह से हुई थी इसलिए हमारी सोचें बिलकुल अलग-अलग थीं। इसके बावजूद हम लोगों में कभी विरोध जैसा कुछ नहीं रहा।

देर तक कुछ सुनाई नहीं दिया तो निगाह उठाकर उनकी ओर देखा - उनकी आँखों से एकांत में जलते दीपक जैसा प्रकाश झर रहा था। ऐसा प्रकाश जो किसी एक को सम्बोधित-निवेदित न होकर अपने सारे आस-पास को रोशनी से भर देता है। चहकती-सी उनकी आवाज सुनाई दी - ÷एक इंट्रेस्टिंग किस्सा सुनिए - मैंने पार्टीशन से पहले सन्‌ छियालीस में कान्वेंट से सीनियर कैंब्रिज किया। उस ज+माने में अंग्रेजी का जोर था। मैं पैंट्स में रहती थी। मेरे वालिद ने कहा कि तुम चार चीजें मुझसे सीख लो - अरबी, हिन्दी, चैस और हॉर्स राइडिंग। पहली तीन मैंने ख़त्म कर दीं - हॉर्स राइडिंग जरूर सीखी।' लम्बी-सी एक हँसी सुनाई दी - शादी के बाद की बात है। तब जाकिर हुसैन साहब वी०सी० थे। मैंने कहा - चचा, मुझे राइडिंग की परमीशन दे दें। उन्होंने कहा कि जा सकती हो, पर लड़कों के टाइमिंग से एक घंटा पहले। गर्ल्स कॉलिज में मुमताज आपा प्रिंसिपल थीं। मैंने उनसे कहा कि मैं तो किसी सूरत में पर्दा नहीं कर सकती। पर्दा न करने पर वहाँ एक आने रोज का फ़ाइन लगता था। मैं पूरे महीने का एक साथ जुर्माना भर देती। अम्मा के चीख़ने-चिल्लाने के बावजूद मैंने साइकिल पर जाना शुरू किया। झाँसी से सीनियर कैंब्रिज करने के बाद यहाँ ज्वाइन किया था। मैथ्‌स, साइंस नहीं मिल पाई थी सो प्राइवेट किया। १९५० में सैकिंड ईयर में शादी हो गई। मुझे राइडिंग का बहुत शौक था। मैं थोड़ी सनकी हू। एक चीज को ज्यादा दिन मैं नहीं कर सकती। शंकर वीकली से कार्टूनिस्ट का कोर्स किया, इंटीरियर डेकोरेशन और टेक्सटाइल डिजाइनिंग के डिप्लोमा कोर्स किए - लेकिन लग कर कुछ नहीं किया। मासूम से मैंने एक ही चीज पर कम्प्रोमाइज किया था। उन्होंने कहा कि मुझे ये पतलून-जींस पहनना पसंद नहीं - और मैंने मान लिया। जिन्दगी में केवल एक यही कम्प्रोमाइज किया।

राही साहब आपको अपने प्यार का अहसास कैसे कराते थे?

मुझे तो था ही अहसास। खतों से अहसास कराया। खूब कहते भी रहते थे। मैं बेकार की जि+द करती थी तो वो मान लेते थे - तो अहसास तो हो ही जाता था। - नहीं - उनको ये था कि यहाँ से मैं घर-वर- सब कुछ छोड़कर चली गई थी... हालाँकि माँ की इजाज+त थी... फिर भी उन्हें लगता था कि मैं तुम्हें वो चीज नहीं दे पा रहा हू, जैसी तुमने जिन्दगी गुजारी है। हालाँकि मैं किसी चीज की आदी नहीं थी।

शादी के बाद पहली बार उन्होंने अपनी भावना कैसे व्यक्त की?

फ़ीलिंग तो पहले एक्सप्रेस कर ही चुके थे... वो सब मुझे याद नहीं। हाँ, शादी यहीं हुई और शादी के बाद यहीं रहे। बम्बई तो कुछ दिनों के लिए तब गए थे जब मासूम की डिपार्टमेंट में कुछ लोगों से नाखुशी की बातें हुईं। उसके बाद चंद्रा साहब ने बुला लिया तो शिफ्ट किया।

गोल-नीली-सी टोपी लगाए नाटे कद के एक चुस्त-दुरुस्त बुजुर्ग ने बड़े अदब से झुककर सलाम करते हुए वहाँ प्रवेश किया। नैयर साहिबा तुरंत उसकी ओर मुख़ातिब हुईं। बड़े आत्मीय भाव से उनकी तबीयत और कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानकारी ली और मुझसे परिचय-सा कराती हुई कहने लगीं - ÷ये जो हैं - बाबूलाल हैं। इनके दादा भी यहाँ थे और फादर भी। इनके पिता सीताराम मेरे अब्बा के साथ ग्वालियर में थे। इनके बड़े भाई गोविंद राम - उन्हें मैं लॉर्ड जी० राम कहती थी - सारा इंतजाम देखते थे। जब मैं यहाँ नहीं होती तो बाबूलाल ही इंचार्ज होते हैं। अब ये भी बूढ़े हो रहे हैं और मैं भी। इनकी बच्ची लीला मेरे ही पास है। उसे छुटपन से पाला है। उसके मियाँ की डैथ हो गई। इनके समधी की तेरहवीं है। ये भोपाल जा रहे हैं। मुझे इनकी बहुत फिकर है।

बाबूलाल गए तो मैंने फिर से उन्हें उस मनःस्थिति में पहुँचाने के इरादे से पूछ लिया - आपसे शादी के बाद राही साहब ने क्या अपने जीने के ढंग में कुछ बदलाव किया था?

जी हाँ, उन्होंने चेंज तो काफ़ी किया था। रेस्ट्रांबाजी, घूमना-फिरना सब रोक दिया था। वहाँ इतना जबर्दस्त काम था कि चौबीस घंटे में बीस घंटे वे काम में लगे रहते थे।

चौबीस घंटे में से बीस घंटे...?

जी, दिन में मिलना-जुलना और फ़िल्म वालों से, डायरेक्टर्स से डिसकशन आदि। शाम से रात के एक बजे तक फ़िल्मों को लिखना - डायलॉग...। फिर एक बजे से तीन बजे तक अपना सीरियस लिट्रेरी काम... यही आर्टीकिल्स। तब डी०लिट्० भी कर रहे थे। एक ही - लास्ट चेप्टर रह गया था। डी०लिट्० - जी, मेरा ख़याल है मीर अनीस के ऊपर थी। नहीं पोइम्स नहीं। पोइम्स तो चलते-फिरते, गाड़ी में चलते भी लिखते रहते थे। रात को तो केवल आर्टीकिल्स। और क्या लिखते थे मुझे पता नहीं। मैं सो जाती थी।'

लिखने के तुरंत बाद क्या कभी कुछ आपको भी सुनाने की जिद करते थे?

सवाल सुनकर पहले खूब हँसीं। फिर बोलीं - वो मसल है न - भैंस के आगे बीन बजाना...। जब कोई चीज मेरी समझ में ही नहीं आए तो मैं क्या करूँ? मैं नहीं पूछती थी कि क्या लिख रहे हो। घर का और बच्चों का काम करती थी। मुझे मुख्+तलिफ़ चीजें करने की सनक-सी चढ़ती है। तो मैंने एक बार मासूम से पूछा कि मैं डायरेक्शन सीख लूँ। वो बोले-शौक से सीख लो। मैंने राज खोसला साहब से कहा। वे बोले - आ जाया करो बेटे। एक-दो फ़िल्मों में थोड़ा-बहुत उनके साथ सीखा। फिर यहाँ अलीगढ़ आना-जाना पड़ता था। अम्मा की तबियत ठीक नहीं थी। वो भी छोड़ दिया। सुनाने की जिद वे करते ही नहीं थे। उन्हें मालूम था कि शायरी से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। हिन्दी की शायरी का मुझे बिलकुल शौक नहीं। समझ में नहीं आती। जब जबान ही समझ न आए तो क्या सुनती मैं। लिट्रेरी काम उनका बिलकुल पर्सनल था।

लिखने के लिए क्या उन्हें कुछ ख़ास चीजों या किन्हीं विशेष तरह की स्थितियों - मनःस्थितियों की ज+रूरत होती थी? आप उनके लिखने में कैसे और क्या मद्द करती थीं?

मैं बिलकुल मदद नहीं करती थी। लेकिन एक चीज आपको बताऊँ - उनके काम करने का ढंग ये था कि जैसे तीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट रख ली सामने। एक का लिख रहे हैं अब... फिर वहाँ से दिमाग़ का स्विच ऑफ़ किया और दूसरी स्क्रिप्ट पर काम शुरू। ऐसे लिखते थे। फ़िल्म वालों में आम चीज+ है कि हमारे लिए होटल में कमरा कर दीजिए तब लिखेंगे हम। मासूम का कहना था कि मैं सिर्फ़ घर में लिख सकता हू - जहाँ मुझे मेरी बीवी और बच्चों की आवाजें सुनाई देती रहें। वो कहीं होटल-वोटल में लिखते ही नहीं थे। घर पर हम लोग बात भी कर रहे हैं, बच्चे खेल भी रहे हैं, शोर मचा रहे हैं, म्यूजि+क बज रहा है - जब वो स्विच ऑफ़ कर लेते थे दिमाग को तो असर नहीं होता था उन पर। चाय-दिन में कम से कम पचास बार - जिसमें न शकर, न दूध। शराब - नहीं, पहले पीते होंगे - मेरे सामने नहीं पी। मैं अपना काम करती रहती थी। कहीं आना-जाना होता चली जाती। मासूम बहुत कम लोगों से मिलते थे।... मैं फ़िल्मी दुनिया से बिलकुल अलग रही। वो सिर्फ़ रोजी-रोटी का सवाल था। मासूम जाते थे सूटिंग वगैरा को - मुझे शौक नहीं था। पर हाँ, सुनीलदत्त, बी०आर० चोपड़ा साहब, राज खोसला जैसे चंद लोगों से घरेलू ताल्लुकात थे - बाक़ी ताल्लुकात तो प्रोफेशनल थे। हमारी बातें - हम लोग कोई सीरियस बात नहीं करते थे - बस, ऊटपटांग बातें करते रहते थे।'

उनकी पसंदीदा, उन्हें खुश करने वाली कुछ चीजें-बातें?

मीठा जरूर होना चाहिए खाने के बाद - कोई भी मीठा - और पान, तम्बाकू-सिगरेट कम पीते थे।... एक ये ख्वाहिश हमेशा से थी कि मैं पैंसठ का हो जाऊँगा तो ये फ़िल्मी काम छोड़कर वापस अलीगढ़ जाऊँगा और वहाँ लिट्रेरी काम करूँगा और डी०लिट्० कम्पलीट करूँगा। पर ये पूरी नहीं हो पाई।'

उनका सबसे अधिक लगाव किस बच्चे से था?

सब बच्चों से था। मरियम को बहुत प्यार करते थे।

उनका गुस्सा...?

हाँ - ओऽऽऽ - कोई बेवकूफी की बातें करता था तो बहुत गुस्सा होते थे। नहीं, मेरे ऊपर तो नहीं होते थे... प्रोड्यूसर्स पर होते थे - छोटे-बड़े भाइयों व बहनों पर भी गुस्सा होते थे। लेकिन वो गुस्सा थोड़ी देर का होता था। चीख-चिल्लाकर थोड़ी देर में ठीक हो जाता था। नहीं - मुझ पर चीखे कभी नहीं। मेरी ग़लती पर ये ज+रूर कहते थे कि ये ग़लत बात है। ग़लती-ज्यादातर बच्चों को लेकर ही ऐसी नौबत आती थी।... लिट्रेचर की जिन बातों पर डिसएग्री करते थे, उन पर जल्दी झुँझला जाते थे। वैसे शांत रहते थे। लिट्रेचर वालों से हिन्दी-उर्दू को लेकर तो हमेशा झगड़ते रहे।

आप कभी गाजीपुर गई हैं?

जी नहीं, मैं कभी गाजीपुर नहीं गई। इलाहाबाद से आगे मैं गई ही नहीं। मासूम के वालिद गर्मियों में खुद चार महीने को बम्बई आ जाते थे। बहनें भी आ जाती थीं। तो बस मिल-मिला लेते थे।

बम्बई के ग्लैमर का कितना असर रहा उन पर?

बम्बई उन्हें पसंद ही नहीं था। वो सिर्फ़ अलीगढ़-अलीगढ । अलीगढ़-और गाजीपुर को ही याद करते रहते थे।

बम्बई में क्या कोई और औरत भी उन्हें अपनी तरफ खींच पाई?

प्रश्न सुनकर पहले दाहिने हाथ का पंजा इंकार की मुद्रा में हिलाया। अब ना में गर्दन हिली। कई बार-नहीं, नहीं-और फिर कुछ देर बाद एक वाक्य - ये शिकायत तो मुझे कभी हुई ही नहीं।'

अब बातें राही साहब के स्वभाव और सोच के बारे में हो रही थीं। वे सहज, निश्छल भाव से अनरुके बोले जा रही थीं - प्रेम के बारे में-उनका असली मक़सद था कि जो भी हो इमोशंस पर-हाँ, सच्चाई पर हो। औरत-औरत की बहुत इज्जत थी उनके मन में। वो औरत को बिलकुल बराबरी का दर्जा दिए जाने की बात कहते-करते थे। लड़कियों से इतना लगाव था उन्हें कि किसी को बच्चा होने वाला होता तो उसे हमेशा यही दुआ देते कि उसके लड़की हो। नहीं-मॉर्डन जमाने से कोई ख़ास लगाव नहीं था। पुरानी विरासत को लेकर ही ज्यादा खिंचाव-लगाव था।' बोलते-बोलते रुकीं। जैसे अचानक कुछ याद आया - दो-तीन घटनाएँ याद आ रही हैं। उनसे आपको मासूम के सोच का पता चलेगा - हमारे बहुत करीब का लड़का है। उसने एक हिन्दू लड़की से शादी की। उसके शहर में हायतौबा मची। उसने मुझे बताया। कहा कि मैं बम्बई लेकर आ रहा हू लड़की को। आप हमारा निकाह करा दें। मैं ना नहीं कर पाई। मासूम से बात हुई तो फ़ौरन से पेशतर बोले - इस घर में उस हिन्दू लड़की का निकाह नहीं पढ़ाया जाएगा। उस लड़के की बात छोड़िए - अपने बेटे नदीम की शादी का किस्सा आपको सुनाऊँ - नदीम सूटिंग के सिलसिले में इंग्लैंड गए थे। फ़िल्म का नाम याद नहीं आ रहा। उसने वहाँ से मासूम को फ़ोन किया - एक लड़की है यहाँ पार्वती महाराज। वो वेस्ट इंडियन है। मैं उससे शादी करना चाहता हू। मासूम ने कहा कि मेरी तरफ से बिलकुल इजाजत है। पर एक शर्त है कि वो कनवर्ट नहीं होगी। वो जो मजहब मानती है, वो अपने मजहब पर क़ायम रहेगी।... मैं तो तब अलीगढ़ थी और मैंने कह दिया था पहले ही कि तुम जिससे चाहो शादी कर लो। दो ने कर ली है - तीसरा-छोटा करता ही नहीं। वो कहता है मैं ऐसे ही बहुत सुखी हू। जी, मरियम पर एक बेटा है बारह साल का।

नमाज तो वे पढ़ते ही होंगे?

नहीं, नमाज नहीं पढ़ते थे। मैंने कहा भी कि मेरी एक ख्+वाहिश ये है कि आप एक वक्त बस, नमाज पढ़ लो। तो बोले कि तुम अपनी ख्वाहिश अपने पास रखो और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। हम लोगों के यहाँ ईद, बकरीद, होली, दीवाली और क्रिसमस-सब होते थे। मैं भी शुरू से करती थी। उन्हें किसी में कोई ख़ास लगाव नहीं था। मैं बीस तारीख़ से क्रिसमस ट्री बना देती थी। अब क्रिसमस ट्री मरियम बनवाती है अपने यहाँ।

राही यदि आपसे न जुड़ते तो क्या इतना-ऐसा कुछ कर पाते?

मेरे ख़याल से तब भी वे ऐसे ही रहते। ये सब जरूर करते। जहाँ तक मेरा ख़याल है मेरे आने से जिन्दगी में सैटिल ज्यादा हो गए। जिन्दगी में जो एक ठहराव आना चाहिए, वो आया।'

आपको उनके लेखन की कितनी-क्या जानकारी है?

नहीं, सब तो याद नहीं। पर काफ़ी कुछ तो पता है। जी, सबसे पहले वे इलाहाबाद में अपने एक दोस्त - जिनका निकहत पब्लिकेशन था - के लिए लिखा करते थे। नहीं, राही नाम से नहीं-आफ़ाक़ हैदर और शाहिद अख्तर नाम से रोमानी दुनिया लिखते थे। कोई चालीस-पैंतालीस नॉवेल लिखे। नहीं, पैसे कहाँ देते थे वे। उनका नाम याद नहीं आ रहा। केवल दोस्ती में लिखते थे उनके लिए। फ़िल्म के दिनों में भी बहुत लोग आते थे उन पर लिखवाने। वे किसी को मना कर दें, पर टेक्नीशियंस को मना नहीं करते थे। एक टेक्नीशियन थे-उफ, नाम उनका भी याद नहीं आ रहा - आए और बोले कि मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं, पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दो। आप हाँ कहें तो अभी लाता हू। मासूम बोले कि ठीक है, जब डिसकशन को आओ तो दो बीड़े ले आया करो। और उनके लिए पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दी। पैसों का तो उन्होंने कभी किसी प्रोड्यूसर से भी डिसकशन नहीं किया। जिसने जो दे दिया, ले लिया। इलाहाबाद में रहने की बात... नहीं, बीस साल लगातार सिर्फ़ शायरी की बात ग़लत है - प्रोज+ भी वे लिखते रहे। आप देखिए एक अगस्त, १९२७ की उनकी पैदाइश थी। पन्द्रह-सोलह की उम्र में बोन टी०बी० हुई थी। मेरे ख़याल से लंग्स की टी०बी० हुई थी तब - हाँ, जब वो भुवाली रहे। पैर की हड्डी में टी०बी० हुई थी तो आप्रेशन हुआ - पैर छोटा हो गया। जी, एम०ए० उर्दू में यहीं से किया-पी-एच०डी० किया। जी, पी-एच०डी० तिलिस्म होशरूबा पर.... तो वहाँ इलाहाबाद में इतना कहाँ रहे होंगे...।

आपने उनका लिखा कितना कुछ पढ़ा है?

बस, आधा गाँव पढ़ा है - और टोपी शुक्ला पढ़ा है। नहीं, हिन्दी में नहीं-इंग्लिश में आ गया है न ऑक्सफोर्ड पब्लिकेशन से। पर वो मुझे इंग्लिश वाला ठीक नहीं लगा। शीर्षक ही गलत लगा। अब दूसरे एडीशन में ठीक किया है उसका नाम। पहले लिखा था - फ्यूडिंग फैमिलीज+ ऑफ़ गंगोली - और अब आया है ÷द विलेज डिवाइडेड' नाम से। जी, उर्दू में भी आ गया है। हिन्दी का और-जी, कमलेश्वर और भारती जी को पढ़ लिया करती थी। जब हम लोग बम्बई गए थे तो जाहिर है मासूम पर ज्+यादा काम नहीं था। तो इन दोनों ने तब बहुत मदद की थी। कैसे क्या पढ़ती थी - इन दोनों का कुछ ट्रांसलेट होकर मिल जाता था तो पढ़ लेती थी - या मासूम से सुन लेती थी। हाँ, कुर्रतुल की वो किताब मैंने पढ़ी है आग का दरिया।

आधा गाँव क्या पहले फ़ारसी में लिखा गया और फिर उसका अनुवाद......?

नहीं नहीं फ़ारसी में थोड़े ही लिखा था - जो उसका अनुवाद हुआ। अब आप उर्दू को फ़ारसी लिपि कहें तो ये क्या हुआ। आधा गाँव पहले उर्दू में लिखा था। जी, मेरे पास उसकी स्क्रिप्ट है अभी। हाँ, फिर खुद ही उसे हिन्दी में किया। हाँ, हाँ, हिन्दी में उन्होंने ही किया।

महाभारत के संवाद लिखे जाने के दौर का जिक्र किया तो उनके चेहरे पर की चमक और भी बढ़ गई। पेशानी पर जरा देर को कुछ सलवटें-सी दिखीं। शायद उनके अन्दर एक भाव-यात्रा जारी थी। खूबसूरत, बड़ी-सी उनकी दीप्तिवान आँखें दृश्यों की किसी भीड़ में से जैसे चंद ख़ास दृश्य मुझे दिखाने के लिए ढूँढ़ निकाल लेना चाह रही थीं। और अब आँखों द्वारा ढूँढ-निकाल लिए गए कुछ दृश्यों को काफ़ी विश्वास व गर्वभरे उनके शब्दों के माध्यम से मैं भी साफ़-साफ़ देख पा रहा था - जी, महाभारत मैंने देखी है। महाभारत का ये हुआ कि जब चोपड़ा साहब ने मासूम को लिखने का तय किया तो ऐतराज हुए कि आप मुसलमान से महाभारत क्यों लिखवा रहे हैं। चोपड़ा साहब ने कहा कि अगर मैं करूँगा महाभारत तो मासूम करेंगे, नहीं तो आप किसी से लिखवा लीजिए। आप देखिए कि बाद में महाभारत लिखते समय दोनों तरफ से खत आते थे - कि हमारा त्रिशूल तेरे पेट भुकने को तैयार है - उधर मौहम्मद अली रोड से भी इसी तरह के खत आते थे। और फिर जब महाभारत चल गई तो - तो जो लोग त्रिशूल भोंकना चाहते थे, वे ही दर्शन करने और पैर छूने आने लगे। मुझे क्या लगता था - अच्छा लगता था। नहीं वे औरों की तरह अपनी खुशी नहीं जताते थे। बस-सेटिसफाइड दिखते थे। उनकी तरफ से तो वे लिखते ही अच्छा थे। नहीं - कोई डर नहीं लगता था तब धमकी मिलने पर हमें। जी, तीन साल लगे थे रिसर्च करने में - और लिखने में दो साल लगे। तनाव-दबाव... जिस वक्त नौ एपीसोड-गीता वाले - लिखे, उसमें थोड़ा टेंस रहते थे कि एक लफ्ज इधर से उधर न हो जाए। आपने देखी है महाभारत? वो जो कृष्ण ने विराट स्वरूप दिखाया है - तब तो बहुत टेंस थे - हाँ, जरा भी कुछ हिल-हिला न जाए - कोई लफ्ज हलका या गैर मौजूं न आ जाए। जी, जी, मैंने पूरी देखी है। ये अब वाली जो आ रही है ये नहीं - ये तो बेकार है।

जब श्रीकृष्ण का गीता वाला हिस्सा लिख रहे थे तो एक दिन चोपड़ा साहब का फ़ोन आया कि राही साहब आपको राजीव जी ने बुलाया है। उन्होंने कहा ठीक है। दूसरे दिन ये लोग दिल्ली चले आए। मुलाक़ात के दौरान राजीव गाँधी ने मासूम से पूछा कि ये जो आपने जन्म और कर्म की बात की है, तो क्या मेरे ऊपर चोट की है? मासूम ने कहा कि पूरी गीता का यही उपदेश है कि जन्म कुछ नहीं होता, असली चीज+ कर्म - और बाद में यह भी कहा कि राजीव जी, अगर आप मेरी जान का जि+म्मा लें तो मैं दूसरी गीता लिख देता हू। उन दिनों के उनके बेहद परेशान होने से जुड़ा एक वाकया आपको बताऊँ? उन दिनों बहुत लोग आते थे उनका इंटरव्यू लेने। लोगों को हैरत होती कि मुसलमान होकर कोई वो सब लिख रहा है। इत्तफाक़न एक दिन मैं मासूम के पास बैठी थी। इंटरव्यू के बीच में उस पत्रकार ने सवाल किया कि मुसलमान होकर आप ऐसा ये सब कैसे लिख पा रहे हैं।... और मैंने देखा कि सवाल सुनकर मासूम रो पड़े। और उन्होंने कहा कि आप ये सवाल मुझसे क्यों करते हैं। मैं हिन्दुस्तानी पहले हू, मुसलमान बाद में हू। और ये जो महाभारत है ये हर हिन्दुस्तानी का खजाना है। और हर हिन्दुस्तानी का - चाहे वो किसी मज+हब का हो - इस पर हक है।

क्या वे कभी आपके सामने फूट-बिफर के भी रोए? ऐसी कोई घटना जब उन्होंने आपकी आँखों के आँसू पौंछे हों?

बिफर-फूट के तो मुझे ख़याल नहीं। वो जब्त करते थे। ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया कि उन्होंने मेरे आँसू पौंछे हों। उनके रोने की एक घटना अभी मैंने बताई। हाँ, एक मर्तबा का उनका रोना और याद आया - उनके बड़े भाई मूनिस रजा उनके आइडियल थे। उनकी डेथ मासूम की डेथ के बाद हुई। एक बार अचानक वे बहुत बीमार हो गए थे। ऐसे बीमार कि बचने की उम्मीद नहीं रही थी। उनकी अचानक बीमारी की ख़बर जब मासूम ने सुनी तो उस वक्त मासूम बहुत रोए थे - और सिर्फ़ एक जुमला कहा था मुझसे कि मेरा भाई ख़त्म हो रहा है और मैं उसे बचा नहीं सकता।

दंगों, या अयोध्या से जुड़ी घटनाओं के दिनों में आपने उन पर क्या और कितना असर होते देखा? देश की किन घटनाओं के बाद उन्हें आपने विचलित होते देखा?

चूँकि उनमें पॉलिटीकल अवेयरनेस बहुत थी - तो वे कुछ भी होता था तो डिस्टर्ब तो होते थे। उन्होंने वो खत भी तो लिखा है - अल्लाह और राम के नाम। बहुत असर था इन घटनाओं का। राइट्स और ये अयोध्या में जो हुआ,उससे तब उन दिनों बेहद परेशान रहते थे। अब आप देखिए कल दिल्ली में ब्लास्ट्स हुए। तस्वीरें देखकर टी०वी० पर मन रोने को हो आता है। इन बच्चों-औरतों-इंसानों का कोई तो दोष होता। क्या हो गया है इन लोगों को आख़िर...? नहीं, परेशान होते थे, पर उन्हें डरते तो नहीं देखा।... महाभारत के बाद उन्होंने धीरज कुमार की एक फ़िल्म साइन की- ओउम्‌ नमः शिवाय और एक सती अनुसूइया-और एक और कोई माइथोलॉजी की थी। फिर लोग इनके पीछे पड़े रहे थे कि तुम शिवाजी पर लिख दो। मैं उस प्रोड्यूसर का नाम भूल रही हू। मैंने कहा कि बस, यही फ़िल्म तुम नहीं लिखोगे। पता नहीं तुम क्या लिख दो। मुझे भी यहाँ रहना है, मेरे बच्चों को भी यहाँ रहना है। यही नहीं लिखने दूँगी। सुन लिया। ज्यादा कुछ नहीं बोले। बस, इतना कहा कि बेकार की बातें करती हो। वो शायद मानते ही नहीं। वो तो ये हुआ कि प्रोड्यूसर ही पीछे हट गए थे। वो जो मिसेज गान्धी ने ट्वण्टी प्वाइंट प्रोग्राम निकाला था न - वो फ़िल्मी राइटर्स ऐसोसिएशन में आया था - सारे राइटर्स से साइन कराने के लिए। तब तकरीबन सारे राइटर्स ने साइन कर दिए थे सिवाय राही मासूम रजा और विमलदत्त के। ये लोग उठकर बाहर चले आए थे कि हम साइन नहीं करेंगे। इस पर काफ़ी हंगामा भी हुआ था और सुना गया था कि मिसेज गान्धी को बहुत बुरा लगा था।

एक युवती ने पर्दे के पीछे से झाँका तो खिल-सी गईं - जी, ये किरन है बाबूलाल की बेटी। ग्वालियर से आई है। फिर जैसे मेरे वहाँ होने का उन्हें ध्यान ही नहीं रह गया था। ऐसे बातों में लगी थीं जैसे वो किरन की माँ ही हों - अरे, किरन। सामने तो आ बच्ची। अरे, तू तो सूखकर काँटा हो गई... ये क्या, बाल भी सफेद होने लगे... कौन आया है तुम्हें छोड़ने... ससुराल वाले सब कैसे हैं - हाँ, समन आई थी मुझे बम्बई से यहाँ छोड़ने... वो बम्बई पहुँच भी गई... हाँ, शेखू, कमजोर हो गया है... अरे, तूने उसका फ़ोटो देख भी लिया... ला जरा इधर ला उसका फ़ोटो... इन्हें भी दिखाऊँगी।'... आदेश के साथ ही खुद भी उठकर अंदर चली गईं। लौटीं तो उनके दोनों हाथों में फ़ोटो थे। मुझे दिखाने को बेहद उत्सुक, गद्गद! बहुत कुछ कह-बता देने को एकदम प्रस्तुत - देखो आपको एक यादगार चीज दिखाऊँ। देखिए - ये मासूम का १९४३ का फोटो है और ये हैं मरियम के बेटे जुहेब। मैं इसे शेखू कहती हू। देखिए, कितना मिलता है अपने नाना से। आपने देखा - बिल्कुल वे ही इम्प्रेशंस...।'

अचानक वे दीवार पर टँगे अन्य फोटोज+ के बारे में बताने लगीं। पता नहीं क्या ख़याल आया कि उस कमरे में से गली की ओर बढ़ चलीं - आइए, आपको घर दिखाऊँ - ये है गली। इसी में खुलते हैं दोनों ओर के बैडरूम्स के दरवाजे।' गली के दोनों ओर की दीवारों पर अनेक फोटो लगे हैं, बीच में भी कई जगह बहुत से फोटो रखे हैं। वे गाइड की तरह सब दिखा-बता रही हैं - ये यूनुस हैं। अपनी वर्दी में... मासूम, ये मेरी एक दोस्त.........ये हॉल है.......ये परदादा, ये दादा, ये वालिद, ये सर सैयद, ये उनके पोते.....जी, यहाँ से इस तरफ ये जनाना और ये वो हिस्सा, जिसमें मैं रहती हू। हाँ, मासूम आते थे तो इसी में रहते थे। ये यूनुस का...ये मासूम का फ़ोटो।' चुप सुनते हुए मैं इस बात पर चकित था कि उनके घर के गलियारे में बाईं ओर की दीवार पर सब से पहला फ़ोटो यूनुस साहब का था। यह भी कि राही साहब को बेहद लगाव और सम्मान से याद करते हुए भी उन्होंने एक बार भी यूनुस साहब के बारे में जरा भी असम्मान या शिकायत के लहजे में बात नहीं की थी।

लौटते में गली के बाईं ओर के कमरों की ओर इशारा किया - इन दोनों कमरों में रहते थे यूनुस...।' हम लोग अब फिर से अपनी-अपनी जगह आ बैठे थे। मैंने अब हिचकते हुए यूनुस साहब के अंतिम दिनों से जुड़े कुछ सवाल उनसे पूछे थे। उन्हें जैसे सब कुछ आज भी बहुत अच्छी तरह याद था। कुछ भी बताने में ज+रा भी देर नहीं, टालने-बचाने की कोशिश नहीं - ÷मेरा जन्म १९३० का। शादी पचास में हुई - तो तब मेरा बीसवाँ साल था। डायवोर्स १९६३-६४ में हुआ। मैंने बताया आपको यूनुस बाद में यहीं मेडीकल कॉलिज में आ गए थे। जी, उनकी डेथ यहीं, इस घर में हुई - १९८४ में। मैं... बम्बई में थी। तीसरे-चौथे दिन आ गई थी। बच्चे पहले आ गए थे। आपने देखा होगा - वो हमारा जो फैमिली ग्रेवयार्ड है, उसी में यूनुस की मजार है।'

कैसा लगा था उनकी मौत की सुनकर आपको?

जिसके साथ ऐसोसिएशन हो - तकलीफ़ तो होती है।

उनकी मौत का सुनकर राही साहब ने क्या कहा आपसे? वे आए थे क्या तब यहाँ?

राही ने तुरंत कहा कि बच्चों को फौरन भेज दो। तुम जाना चाहो तो चली जाओ। यहाँ कोई नहीं था। मैं तीन-चार दिन बाद आ गई। राही नहीं आ पाए थे। मरियम के एक्जाम्स चल रहे थे। उनकी वजह से उन्हें रुकना पड़ा। मरियम को आज भी मलाल है तब न आ पाने का। लड़के तीनों आ गए थे।

तब वे जैसे मेरे सवालों को सुन नहीं, पी रही थीं। उनके उत्तर दिए हुए से न लगकर, आए हुए से लग रहे थे। मेरे प्रश्न उनके अंदर पहुँचकर उनके अन्तस्‌ में की प्रतिध्वनियाँ बनकर वापस लौट रहे थे।

यूनुस साहब और राही साहब की मौत में से किसने आपको अधिक हिलाया-कँपाया?

जाहिर है - मासूम की मौत ने। मासूम की डेथ के बाद तो जिंदगी उलट ही गई न। वो बात ही नहीं रही। ठीक है, बच्चे हैं, सब अच्छा है - पर वो बात ही नहीं रही...। उनकी डेथ के बाद एक वैक्यूम है। अब भी है वो वैक्यूम। इसीलिए मैं यहाँ बम्बई से वापस चली आई। छोटी-छोटी चीजों पर ख़याल आता रहता है। रोजाना जिंदगी की बहुत छोटी-छोटी चीजों पर - कि मासूम होते तो ऐसा नहीं होता.... कि यूँ होता। वैसे मेरे चारों बच्चे मेरा बहुत ख़याल रखते हैं। चाहते हैं कि मेरी हर ख्वाहिश पूरी हो। मेरी दोनों बहुएँ भी बहुत ख़याल रखती हैं।

राही साहब की मौत वाले हिस्से को आज कैसे याद करेंगी आप?

कीमियो थैरेपी के रिएक्शन से हिन्दुजा हॉस्पीटल में डेथ हुई थी। मैं वहीं अस्पताल में थी। सालों से चिक पर एक नन्हा-सा ग्लैंड था। डॉक्टरों ने कहा कि वायप्सी करा लो। नाम याद नहीं आ रहा, पर हाँ, बहुत खतरनाक वाला कैंसर था। मैं समझती हू अगर उसे न छेड़ा जाता तो शायद कुछ और जिन्दा रहते मासूम। दस दिसम्बर, १९९१ को ये आप्रेशन हुआ था। डेथ हुई १४-१५ मार्च की रात-१९९२ को। आप्रेशन सकससफुल हुआ। घर आ गए थे। मार्च के शुरू में अस्पताल दिखाने गए तो गले के नीचे फिर से ग्लैंड बन गया। उसकी जो कीमियो थैरेपी हुई, उसके रिएक्शन से मौत हुई। जब डॉक्टरों ने मासूम के आप्रेशन की दिसम्बर में तारीख तय की तो मैंने सुनीलदत्त साहब को कॉण्टेक्ट किया। वो उस जमाने में दिल्ली थे। मैंने कहा - दत्त साहब जब तक आप नहीं आएंगे आप्रेशन नहीं होगा। दत्त साहब नौ दिसम्बर को बम्बई आ गए और उन्होंने मासूम के साथ हॉस्पीटल में बहुत वक्त गुजारा। दस की तो सुबह से आकर रात तक वहीं बैठे रहे। तब तक बैठे रहे जब तक मासूम को होश नहीं आ गया।

मृत्यु से पहले क्या कुछ कहा आपसे उन्होंने?

उस वक्त उन्हें जो दवाएँ दी जाती थीं - उससे पूरी कांशसनेस नहीं थी। दवाओं के असर से हल्की-सी बेहोशी रहती थी। तब कुछ नहीं कहा। हाँ, दो दिन पहले मुझसे ये जरूर कहा था कि अगर तुम्हें पैसे की दिक्क़त हो तो चोपड़ा साहब को कांटेक्ट कर लेना। मैंने कहा कि अभी कोई दिक्क़त नहीं है, पर अगर होगी तो जाहिर है उन्हीं से कहूगी। उनको ख़याल ही नहीं था कि वो इतनी जल्दी खत्म हो जाएंगे। आप्रेशन ठीक हो गया था, कोई बात ही नहीं थी।... मुझे उनकी डेड बॉडी को दो दिन अस्पताल में रखना पड़ा था कि उनके भाई-बहन सब लोग आ जाएँ। जी, मैं घर आ गई थी।

उनकी डेथ और दफ्न होने के बीच के दौर को आपने कैसे झेला?

दिमागी परेशानी तो थी ही, जैसी जो हो सकती थी। लोग आते रहते थे। वैक्यूम तो आज भी है। मैं सबके सामने नहीं रो सकती। पीछे चाहे कितना ही रो लूँ। कुछ पुराने ख़यालात की लेडीज+ को बड़ा ताज्जुब था कि ये रो नहीं रही। शायद इन्हें गम नहीं है। अकेले में जाहिर है कि रोना आता था - चीजें देखकर ख़याल आता था - वे ये करते थे, वे वो करते थे। जी, उन्हें वहीं दफ्न किया गया था - जुहू में - सांताक्रूज ग्रेवयार्ड में।

उसके बाद...?

फिर हुआ ये कि मासूम की डेथ के उन्नीस दिन बाद मेरी मझली बहू के फादर का एक्सीडेंट हो गया। वो मुझसे बहुत छोटा था - जी, मिक्की। तकरीबन सत्ताईस साल एम०पी० रहा। उसकी मदर यूनुस की सगी बड़ी बहन थी - जी, राजमाता रामपुर। बहुत पहले से हम एक दूसरे को जानते थे। मिक्की को मैं बचपन से जानती थी। वो मेरे करीब भी बहुत था। ईद के दिन हुई थी उसकी मौत। जाहिर है - मेरा लड़का उसका दामाद था - तो वो जा रहा था। मैंने कहा मैं भी चलूंगी। और मैं रामपुर आ गई। फिर रामपुर से अलीगढ़ आ गई। मैं वापस फिर गई थी बम्बई पर...। मेरा मझला लड़का अलग रहता था। दिन में मैं उसके साथ रहती - रात को अपने फ्लैट पर आ जाती। रोती-रोती सो जाती। उसी दौरान अमेरिका में मरियम की तबियत ज्+यादा खराब हो गई। और मैं वहाँ चली गई। इरफान और समन से मैंने कहा कि अब बहतर ये है कि तुम मेरे फ्लैट में शिफ्ट हो जाओ। वे किराए पर रहते थे। जी, अब आज तक वहीं है। जी, मासूम का चालीसवाँ अलीगढ़ में किया था। उनके दोस्तों - सारे रिश्तेदारों को इत्तला दी थी तब...।

बाहर आते हुए मैं इस विडम्बना पर सोच रहा था कि जिनसे तलाक़ हुआ उनकी क़ब्र आफ़ताब मंजिल के ग्रेवयार्ड में है - और जिनसे दूसरी शादी हुई उन-मासूम को सांताक्रूज ग्रेवयार्ड, बम्बई में दफ्+न होना पड़ा।

हम लोग बरामदे में बड़े दरवाजे के पास खड़े थे। यकायक दाईं ओर की दीवार पर लगी उस नेम प्लेट पर मेरी नज+र पड़ी - ले०कर्नल - एस०एम० यूनुस खान। हतप्रभ, ठिठका-सा मैं कभी उसे तो कभी ज+रा दूर पर लगी राही साहब की नेम प्लेट को देखे जा रहा था। उन्होंने शायद मेरे मन का आश्चर्य भाँप लिया था - जी, ये यूनुस की नेम प्लेट है - ले० कर्नल साहबजादा मौहम्मद यूनुस खान। वे इसी तरफ रहते थे। ये अभी तक लगी हुई है। इसी सबको देखकर यहाँ के लोग दुनिया भर की बातें बनाते हैं।

वहाँ से विदा होते समय मैं रिश्तों को मानने-जीने-सम्मान देने के उस अनूठे अंदाज+, उस दुर्लभ साहस और जज्+बे पर हैरान था। और बाहर आकर लगा था कि राही को भले ही मैं बहुत पहले से पढ़ता रहा हू - पर आज नैयर राही के मन के मासूम से परिचित होना निःसंदेह अद्भुत और मूल्यवान उपलब्धि है। अंदर-अंदर किसी ने कहा - नैयर जी की इसी निश्छलता, साहस और विशाल हृदय पर ही तो रीझे होंगे राही साहब।

मासूम से राही मासूम रजा तक

एम० हनीफ मदार





राही मासूम रजा का नाम वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए ठीक उसी तरह गुमनाम होता जा रहा है जिस तरह प्रेमचन्द, त्रिलोचन शास्त्री, यशपाल, रांगेय राघव जैसे अनेक नामों से वर्तमान बाजार में भटकी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है जबकि इन लेखकों को कमोबेश कोर्सों में भी पढ़ाया जाता रहा है फिर भी लोग इनसे या इनके रचनाक्रम से अंजान हैं वहीं राही मासूम रजा के साथ तो यह सकारात्मक पहलू भी नहीं रहा है तब तो वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह नाम और भी अजनबी हो जाता है। राही मासूम रजा हिन्दी साहित्य का एक ऐसा नाम जो केवल साहित्य लेखन तक ही सीमित नहीं रहा। यूँ कहा जाय कि उनके लेखकीय रचना कर्म को किसी गद्य या काव्य के विशेष खाँचे में या फिर हिन्दी या उर्दू किसी एक भाषा के साथ जोड़कर समायोजित करना आसान नहीं है। जहाँ उन्होंने आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, असंतोष के दिन, कटरा बी आर्जू, नीम का पेड़ और सीन-७५ उपन्यास हिन्दी में लिखे। वहीं मुहब्बत के सिवा उर्दू में लिखा गया उपन्यास है। ÷मैं एक फेरीवाला' कविता-संग्रह हिन्दी में रचा जबकि नया साल मौजे गुल, मैजे सबा, रक्सेमय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते जैसे कविता संग्रहों की रचना उर्दू में की इतना ही नहीं उनका बहुचर्चित महाकाव्य ÷१८५७' समान रूप से हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में रचा गया।

मुम्बई जाकर फ़िल्मी लेखन की शुरुआत के साथ नीम का पेड़ एवं लोक प्रचलित महाकाव्य महाभारत का संवाद लेखन कर इतिहास बना डालने वाले राही मासूम रजा के व्यक्तित्व के विषय में जानने एवं आधा गाँव का वह दब्बू-सा मासूम अपनी कलम की धार पर चलकर कैसे राही मासूम रजा बन गया इन्हीं तमाम उत्सुकताओं को जानने पूछने के लिए हम यानी मैं और सतीश शर्मा चाँद' दोनों राही मासूम रजा की सबसे लाडली और प्यारी बहन सुरैया बेगम से मिलने इलाहाबाद पहुँचे।

ट्रेन से उतरते ही हमारा सामना तेज बारिश से हुआ हालाँकि भीषण गर्मी में बारिश ने इलाहाबाद का मौसम बड़ा रंगीन बना दिया था। हम लोग प्लास्टिक की बरसाती टंगे एक रिक्शे से एक होटल तक पहुँच सके। शहर की बरसात जैसे हमें भिगोने पर आमादा थी और उसे तभी शान्ति मिली जब हम रिक्शे में ही पूरी तरह भीग गये। कपड़े बदलते ही हम अपने गन्तव्य नादिराबाद, मकान नं० ३०३, पीपल चौराहे के पास जाने के लिए निकल लिये रिक्शे वाले ने पीपल चौराहे पर छोड़ दिया मेरी कल्पना में था कि चौराहे पर बड़ा-सा पीपल का पेड़ होगा मैंने वहाँ रिक्शे वाले से चौंककर पूछा कि भैय्या पीपल तो यहाँ कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा तो रिक्शे वाले ने भी अनभिज्ञता में खीसें निपोरीं और चला गया। हम लोग जोगीघाट के रास्ते पर चलते हुए म०नं० ३०३ में पहुँचे। घर के लॉन में खड़े अमरूद के पेड़ों पर इलाहाबादी छोटे-छोटे अमरूद हमारे स्वागत में हवा में झूमने लगे बाहर कमरे में बिना ज्+यादा इंतजार के बाद सफेद सलवार कुर्ते पर काला आधा नक़ाब डाले सुरैया बेगम नमूदार हुई। बातचीत का सिलसिला उनके परिवार के विषय में जानकारी से हुआ। बेगम से हुई राही मासूम रजा के संदर्भ में सवाल जवाब के रूप में सीधी बातचीत-

सबसे पहले आप अपने और अपने परिवार के विषय में कुछ बताएँ।

मैं सुरैया बशीर आबदी मेरे वालिद बशीर हसन आबदी और वालिदा का नाम नफीसा बेगम अली आबदी, हम नौ भाई बहन हैं जिनमें चार भाई और पाँच बहनें हैं। मूनिस रजा सबसे बड़े भाई बड़ी बहिन उसके बाद मासूम रजा, मेंहदी रजा और सबसे छोटे भाई अहमद रजा बहनों में सबसे बड़ी, वाखरी बेगम उसके बाद सरवरी बेगम, उसके बाद अफसरी बेगम उसके बाद मेहरजहाँ और सबसे छोटी मैं खुद। हमारी वालिदा का इन्तकाल बचपन में ही हो गया था तो हमारी जो बड़ी बहिन सरवरी बाजी थीं उन्होंने हम सब भाई बहनों को बिल्कुल माँ की तरह पाला इसलिए उनके किरदार का बहुत असर हम लोगों पर आया। चूँकि मैं भाई-बहनों में सबसे छोटी थी जब वालिदा का इन्तकाल हुआ तब मैं महज दो साल की थी इसलिए सभी भाई बहिन मुझे बहुत ज्+यादा चाहते थे। उनमें मासूम भाई मुझे हद से ज्यादा प्यार करते थे और उनकी चाहत का उनके ख्यालात का बहुत असर मेरे ऊपर रहा है। मेरी बहनों में से किसी ने कोई स्कूल की तालीम हासिल नहीं की सिवाय मेरे मगर मेरी पढ़ाई-लिखाई में सबसे बड़ा हाथ मासूम भाई का था कि अगर उन्होंने और उनकी पत्नी ने मेरा नाम स्कूल में न लिखाया होता तो मैं भी यूँ ही और बहनों की तरह ही रह जाती। हालाँकि इंटर पास करने के बाद मेरी शादी हो गयी क्यूँकि वालिद हज करने जाना चाहते थे, लेकिन मासूम भाई की चाहत थी मुझे और पढ़ाने की सो शादी में यह बात भी रखी गयी कि मेरी बहिन को पढ़ाने का बड़ा शौक है तो शादी के बाद भी वह पढ़ना चाहेगी। मेरे हसबैंड जो शिक्षा विभाग में थे उन्हें भी यह बात पसन्द आई और शादी के बाद मैंने एम०ए० किया। डबल एम०ए० किया एल०टी० किया लेकिन इस एजूकेशन के दौरान बहुत बार मौनेटरी मदद मासूम भाई ने मुझे की जबकि मैंने या मेरे शौहर ने कभी नहीं कहा कि हमें खर्चा चाहिए तो उन्होंने कहा कि नहीं यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम तुम्हारी एजूकेशन पूरी करने के बाद ही तुम्हारी शादी करते।

अब जल्दी शादी हो गयी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम तुम्हारी मदद न करें। हालाँकि मेरी ससुराल यहीं इलाहाबाद में थी किन्तु मैं एल०टी० हॉस्टल में रहकर कर रही थी और हॉस्टल में इसलिए कर रही थी कि मेरा यह ख्याल था कि भाई मैं भी हॉस्टल लाइफ इंजॉय करके देखूँ तो जाहिर है कि इसके लिए हमें कुछ ज्यादा पे करना पड़ रहा था तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं अपने हसबैंड को परेशान करूँ तो हमने मासूम भाई से कहा कि भाई हमारा दिल चाहता है कि हम हॉस्टल में रहकर पढ़े तो उन्होंने कहा ठीक है हम तुम्हें हॉस्टल में पढ़ायेंगे तो इस तरह हमारी पढ़ाई का पूरा श्रेय मासूम भाई को जाता है।

राही जी की पत्नी और उनके बच्चे रज्जू और गुठली के विषम मैं कुछ बतायें।

यह हमारी जानकारी में नहीं है कि रज्जू और गुठली किसे कहते थे।

राही जी का व्यक्तित्व कैसा था और उनके लेखन की शुरुआत कैसे हुयी?

देखिए उनके लेखन की शुरुआत बहुत बचपने से हो गयी थी बचपन में छोटा-छोटा लिखा करते थे। हमें याद है कि बचपन में उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी तो बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे तो कभी-कभी हमें यह लगता था कि जब वे ज्+यादा फ्रस्टेट होकर आते थे तो उन चीजों को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करके शान्त होते थे तो इस तरह उनके लेखन की शुरुआत हो गयी थी। इन्टर करने के बाद वे इलाहाबाद आ गये और इ०वि०वि० से उन्होंने बी०ए० किया उसके बाद आप अलीगढ़ चले गये तो इस तरह गाजीपुर में तो कम ही समय गुजरा लेकिन फिर भी उनके काफी दोस्त वहाँ थे और जिन्दगी के आखिरी वक्त तक उन्होंने उन लोगों को अपना दोस्त ही समझा और इन लोगों के सम्पर्क में भी रहे और वे लोग भी, इस बात पर फ़र्क करते थे कि भाई मासूम वहाँ से चले गये हैं इतने बड़े राइटर हो गये हैं लेकिन फिर भी हमें याद करते हैं वे उनसे खत से फ़ोन से ताल्लुक बनाये रखते थे तो एक अच्छे इंसान के रूप में उन्हें आज भी लोग वहाँ याद करते हैं।

राही जी की पकड़ कौन-कौन-सी भाषाओं पर रहीं?

देखिए, सबसे ज्यादा तो उनकी पकड़ उर्दू पर थी। उसके अलावा इंग्लिश मगर अंग्रेजी में उन्होंने कभी लिखा नहीं था लिखा केवल उर्दू और हिन्दी में ही।

राही जी उर्दू में लिखते-लिखते यकायक हिन्दी में क्यों लिखने लगे थे?

वे यह समझते थे कि उर्दू को यदि देवनागरी में रूपान्तरित कर दिया जाय तो ज्यादा फ़ायदा हो और यही चीज लोगों को पसन्द नहीं आयी खासकर उर्दू वालों को। उर्दू वालों का आरोप रहा कि इससे उर्दू की जो स्क्रिप्ट है वह ख्त्म हो जायेगी। जबकि उनका यह सोचना था कि अगर देवनागरी में लिखा जाय तो पूरा हिन्दुस्तान आसानी से समझ पायेगा। वैसे भी उर्दू केवल उर्दू जानने वाले ही समझ सकते हैं। अगर देवनागरी में किया जाय तो उर्दू की चीजें भी आसानी से सब समझ पायेंगे। इसलिए वे सोचने लगे थे कि उर्दू की स्क्रिप्ट भी देवनागरी में चलनी चाहिए। इसके चलते कई लोग उनके खिलाफ़ भी हो गये थे। वे मानने लगे कि राही उर्दू को ख़त्म करना चाहते हैं असल में वे चाहते थे कि जैसे गालिब है उन्हें केवल उर्दू वाले ही पढ़ व समझ पाते हैं जब देवनागरी में होगा तो सब समझेंगे कि आखिर उर्दू की चीजों में क्या है। हालाँकि राही जी को उर्दू से बहुत मुहब्बत थी किन्तु उनके इसी कदम से उन्हें बहुत-सी वे चीजें नहीं मिल पाईं जिनमें वे हकदार थे।

सुनने में आता रहा है कि राही उर्दू में लिखते थे और उनकी रचनाएँ उनके मित्रों के नाम से छपा करती थीं, क्योंकि यह वाकया इलाहाबाद का ही है तो शायद आपको जानकारी रही हो। क्या कारण था?

इसके बारे में हमें काफ़ी जानकारी नहीं है, क्योंकि हम उनसे बहुत छोटे हैं भई वे दूसरे नम्बर के भाई और हम नौवें नम्बर की बहिन हैं लगभग २५ साल का फासला है जो बड़ा होता है।

लोगों का मानना है कि राही की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए वे अपनी शुरुआती रचनाओं को बेच दिया करते थे क्या आप भी ऐसा मानती हैं।

नहीं...! देखिए हम लोग बचपने में तो एक खाते पीते परिवार के थे। यानि हमारे पिता गाजीपुर के वैल प्रतिष्ठित वकीलों में थे हम लोगों का अपना मकान था और हमारे परिवार में धन के पीछे भागने की लालसा कभी नहीं रही। हमारे ददिहाल की बहुत बड़ी प्रापर्टी थी, और हमारे दादा वहाँ से पलायन करके चले आये थे अब एक समय ऐसा आ गया कि हमारे भाई लोगों को उस सम्पत्ति पर अधिकार मिलने की बात आ गयी तो हमारे भाईयों ने कह दिया कि जब हमारे बाप को उस सम्पत्ति से कोई मतलब नहीं रहा तो हमें भी नहीं चाहिए। तो इस तरह से हमारे परिवार में कभी भी धन के पीछे दौड़ने की इच्छा नहीं रही है। हम बहुत धनी नहीं थे मगर

मध्यम वर्गीय ठीक-ठाक खाते-पीते रहे हैं।

क्या आपने राही का पूरा साहित्य पढ़ा है? और अगर पढ़ा है तो उनकी कौन-सी रचना ने आपको सबसे ज्+यादा प्रभावित किया और क्यों?

हाँ करीब-करीब पूरा पढ़ा है। हमें सबसे ज्+यादा प्रभावित तो किया था उनकी १८५७ वाली जो महाकाव्य के रूप में लिखी गयी किताब ने। क्योंकि उसमें हिन्दुस्तान का जो इतिहास आया वह नये अंदाज+ में था इस तरह का अन्य कहीं नहीं था और दूसरी बात जो थी कि इस तरह की कोई कविता पूरे उर्दू में या हिन्दी में कम्पलीट १८५७ पर नहीं मिलती जिस तरह की उन्होंने लिखी थी। उसके बाद दूसरी जो उनके उपन्यासों में सबसे ज्+यादा पसन्द आयी वह कटरा बी आर्जू थी हालाँकि ज्+यादातर लोग आधा गाँव को कहते हैं चूँकि हम भी उसी तरफ के रहने वाले हैं तो हमें उसमें ज्+यादा मज+ा नहीं आता। हाँ ÷कटरा बी आर्जू' में जो एक नई चीज+ हमारे सामने आयी वह हमारे दिल को छू गयी।

आप एक शिक्षिका हैं तो राही की लेखनीय क्षमता और उनके सम्पूर्ण लेखन को आप कैसे विवेचित करतीं हैं?

हमारा मानना है कि एक साहित्यकार में जो खूबियाँ होनी चाहिए कि चीजों को उसी तरह से पेश करे कि वह चीज हमारे सामने बिल्कुल मूल रूप में जीवित हो उसे हम पढ़ रहे हों मगर उसका नक्शा हमारे सामने आ जाय तो यह खास बात उनके लेखन में थी। उन्होंने चाहे कविता लिखी कहानी या उपन्यास तीनों में जिस चीज पर उन्होंने कलम उठाई जिस विषय पर लिखा वह विषय हमारे सामने जीवित तस्वीर में आ जाता था। और यही एक खूबी जो एक अच्छे कलमकार में होनी चाहिए उनमें थी। जैसे कटरा बी आर्जू में इमरजैंसी की बात थी तो पढ़ते-पढ़ते हमारी समझ में बखूबी आ जाता है कि कैसे उसका मिस यूज किया गया।

जैसा कि आधा गाँव में राही जी अपने परिवार के साथ खुद एक पात्र के रूप में नजर आते हैं जहाँ आपका भी जिक्र है तो क्या कटरा बी आर्जू में भी कुछ पात्र जीवित और आपके संज्ञान में है या केवल लेखकीय कल्पना में ही जीवित हैं।

देखिए किसी भी कवि या कथाकार की जो भी रचना होती है वह पूरी तरह ही काल्पनिक नहीं होती कोई न कोई जीवित सब्जैक्ट होता है तो उसी को लेकर वह लिखता और आगे बढ़ता है।

ओस की बूँद में बँटवारे की पीड़ा और मानवीय द्वन्द्व खूब शिद्दत से उभरा है तो क्या राही के परिवार से भी कोई पाकिस्तान चला गया था?

हाँ हमारे परिवार से हमारे सगे चचेरे भाई लोग गये। जबकि हमारे पिता पूरी तरह खिलाफ़ थे पाकिस्तान के। इसलिए हमारे सगे भाइयों में तो कोई भी नहीं गया। मगर जो चचेरे भाई गये उनके लिए हम आज तक परेशान हैं कि यदि वे भी न गये होते तो वे भी हमारी तरह यहाँ ठीक-ठाक स्टैवलिस हो जाते जो वहाँ नहीं हो सके हैं।

क्या राही जी खुद आम बोलचाल में गाली-गलौज का इस्तेमाल करते थे जैसा कि कुछ लोगों के व्यवहार में शामिल हो जाती हैं, जैसे उनके पात्र बोलते हैं।

देखिए, पात्रों का तो यह था कि जिसका वे चित्र उकेर रहे होते थे वो जैसा था बोलता था वही लिखते थे मगर खुद या हमारे घर में इस तरह का माहौल कभी नहीं रहा। यहाँ तक कि मासूम भाई तो खुद साले को भी गाली नहीं देते थे।

राही जी किस विचारधारा से प्रभावित थे खासकर राजनैतिक दृष्टिकोण क्या था उनका?

देखिए इस विषय में हम कान्फीडैन्टली कुछ नहीं कह सकते वैसे हमारे पिता कांग्रेसी थे और हम भी हैं मगर वे कम्युनिस्ट थे या कांग्रेसी बिलकुल सटीक तो हम नहीं बता सकते।

राही जी अपने विचारों में खासकर मुस्लिम समुदाय के प्रति कैसा सोचते और अभिव्यक्त करते थे?

मुस्लिम समुदाय की उस समय में जो मानसिकता थी और उनकी जैसी स्थिति थी, जैसे गरीबी, अशिक्षा या आपसी रस्सा कसी या कहें जो मुसलमानों में ही कम्युनल फ्रेक्शन थे वे इन तमाम चीजों को देखते और अभिव्यक्त करते थे। एवं बेहतरी के लिए सोचते भी थे।

राही की धर्म के प्रति कितनी निष्ठा थी।

धर्म में आस्था थी लेकिन कट्टरपन नहीं था। हमारी पूरी फैमिली धार्मिक हैं लेकिन कट्टरपन की सख्त विरोधी अगर मस्जिद के लिए सम्मान है तो मंदिर के लिए भी कम नहीं है।

राही जी खासकर महिलाओं के प्रति कैसे सोचते थे।

स्त्रियों के लिए भी वे सकारात्मक सोच रखते थे। वे सामाजिक परिदृश्य में महिलाओं की शोषक स्थितियों पर गम्भीर चिन्तन करते थे और उसकी बेहतरी के लिए सोचते और लिखते भी थे मगर वे केवल सोच ही सकते थे या लिख ही सकते थे किन्तु लड़ना तो स्त्रियों को खुद ही था इस व्यवस्था से। जैसे आधा गाँव की औरतों का जो मुकाम है वे उससे खुश नहीं थे बल्कि ÷कटरा बी आर्जू' की जो बिल्लो है वह स्त्री राही मासूम भाई की सोच की स्त्री थी।

उनके फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुई आपको उनकी कौन-सी फ़िल्म ज्+यादा पसन्द आयी।

फ़िल्मी जीवन की शुरुआत कैसे हुयी यह बता पाना कठिन है क्योंकि वे दूसरी शादी के बाद ही बम्बई चले गये थे और चूँकि लेखन क्षमता तो थी ही तो स्थापित हुए होंगे। हाँ, उनकी सबसे पहली फ़िल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की'' जो उस समय काफ़ी चर्चित भी हुई थी मुझे ज्+यादा पसन्द आयी थी।

क्या ऐसा था कि राही जी फ़िल्मों में जाने से पहले फ़िल्मों को देखने के बहुत शौकीन रहे हों और शायद इसीलिए बम्बई चले गये हों।

नहीं...! देखते तो थे मगर ऐसी दीवानगी नहीं थी कि जिसे कहा जाय कि उसके चलते ही बम्बई गये ऐसा नहीं था।

उन्होंने बहुचर्चित धारावाहिक महाभारत के संवाद लिखे अब चूँकि वे मुस्लिम परिवार से थे तो जब वे संवाद लिख रहे थे तब उनके परिवार का उनके प्रति कैसा दृष्टिकोण था।

हम सबको बड़ी खुशी थी और बहुत अच्छा लगा था हालाँकि वे तो उन दिनों बम्बई में थे तो हम लोग यहाँ नॉन मुस्लिमों से ज्यादा रुचि से इस धारावाहिक को देख रहे थे। जबकि उसके पीछे एक और खास बात थी कि महाभारत के जितने भी एडीशन भारतभर में हैं जिस-जिस लाइब्रेरी में हैं सब उनके पास मौजूद थे। उस दौरान जब मैं उनसे मिलने मुम्बई गयी थी तो उनका पूरा जो कमरा था वह महाभारतमय लग रहा था। और इसीलिए उनका चैलेंज था कि अगर कोई कहीं भी मेरे काम पर एक उंगली रख दे तो ये कलम छोड़ दूँगा। मुझे याद है कि कुछ आर०एस०एस० के लोगों ने जब बी०आर० चोपड़ा से यह कहा था कि इस काम के लिए आपको कोई हिन्दू नहीं मिला यही मिले थे तो उन्होंने यही कहा था कि आप देखिए और कहीं भी ग़लती पकड़िये तो मैं इन्हें हटा दूँगा क्योंकि राही जी ने इतना अध्ययन किया था। कि उसमें उँगली रखने की कहीं गुन्जाइश ही नहीं थी।

माना कि आपके परिवार का उनके प्रति दृष्टिकोण सकारात्मक था किन्तु आपके पड़ोसी या रिश्तेदारों को जब यह खबर मिली होगी कि राही तमाम हिन्दू धर्म ग्रन्थों का अध्ययन कर रहे हैं तो उनकी कैसी टिप्पणी थी।

किसी को ऐसा लगा ही नहीं कि वे कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो असहनीय या असहज हो तो किसी को भी आपत्ति नहीं बल्कि खुशी थी और यही मानसिकता हमारे परिवार और रिश्तेदारों की थी।

राही जी का अपनी पहली पत्नी को छोड़ने के पीछे क्या कारण थे?

देखिए इसके पीछे कुछ खास कारण नहीं है बिना वजह कभी-कभी छोटी-छोटी सी बातें यूं ही बढ़ जाती हैं। मसलन कुछ औरतें ऐसी होती हैं जो चाहती हैं कि पति पर लगभग हमारा ही कब्जा हो जाय। वह ठीक वैसे ही जिएं जैसे वे चाहती हैं और अपने भाई बहिनों को छोड़ दें।

अब चूँकि जैसा मैंने बताया था कि हमारी माँ का देहान्त हो गया था। तो जाहिर है कि हम भाई बहिन आपस में ज्यादा घुले-मिले रहे और जब मासूम भाई की शादी हुई तब सिर्फ़ हम दो बहने कुँवारी थीं। मासूम भाई हमसे प्रेम बहुत करते थे जब कि भाभी चाहती थीं कि ऐसा न हो। और इस सब में उनके माइके वालों का खूब हाथ रहा था वे सम्पन्न लोग थे। उनका भी दबाव रहता था। असल में हम मुस्लिम जरूर हैं मगर हमारा पूरा परिवार प्रगतिशील रहा वहीं भाभी के परिवार वाले संकीर्ण सोच रखते थे इसलिए बड़ी वजह थी हमारे परिवार और उनकी वैचारिक असमानता।

नैय्यर रजा के साथ राही की लव मैरिज थी या अरेन्ज? और कितने बच्चे हुए?

उनकी लव मैरिज थी भाभी पढ़ी-लिखी थीं उनके पहले हसबैन्ड आर्मी से थे और हमें भी बहुत प्यार करती हैं। तीन पुत्र उनके साथ थे। एक बच्ची मासूम भाई से हुई मरियम जो अमेरिका में हैं। तीनों बेटे नदीम खान-मुम्बई, इरफान खान, मुम्बई, आफताब खान, हाँग-काँग में हैं।

नीरज, क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार की यादों के राही मासूम रजा

-प्रेमकुमार



राही मासूम रजा का अलीगढ़ से एक अलग और बहुत खास तरह का रिश्ता रहा है। उनकी रचनाओं में, उनकी स्मृतियों में अलीगढ़ अनेक रूपों में उपस्थित रहा है। अलीगढ़ में उनके आने, रहने और यहाँ से जाने को लेकर कितनी ही तरह की बातें की जाती रही हैं। अपने मित्रों, परिचितों और निकट सम्बन्धियों के बीच इतने लम्बे समय के बाद आज भी वे किसी न किसी रूप में जीवित हैं, चर्चाओं में अक्सर आ उपस्थित होते हैं। वाङ्मय' के राही मासूम रजा पर केंद्रित विशेषांक के निकलने की बात हुई तो मन हुआ कि उनके समय के उन कुछ साहित्यकारों की यादों को टटोला जाए जिन्होंने राही के अलीगढ़ में रहने के दौर को करीब से देखा-जाना है। इस इच्छा के साथ ही सबसे पहला नाम प्रो० के०पी०सिंह का याद आया। पर चूंकि उन्होंने राही के व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन के बारे में अनेक तरह, बहुत कुछ किया- कहा है, इसलिए सोचा कि उनकी जगह उन शख्सियतों से कुछ पूछा-सुना जाए, जिन्होंने राही पर सार्वजनिक रूप से अधिक नहीं लिखा-कहा है। उन लोगों का कुछ भी कहना-बताना राही के व्यक्ति और साहित्य को जानने की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण और सहायक होगा ही, अलीगढ़ से उनके जाने को लेकर की जाने वाली विभिन्न आग्रही चर्चाओं-अफवाहों से बचकर सही तथ्यों-सत्यों तक पहुचने में भी मददगार साबित होगा। यही सोचकर सबसे पहले नीरज जी से राही साहब के साथ के उनके समय को याद करने का निवेदन किया गया। उन्होंने तुरन्त ऐसे बताना शुरू कर दिया जैसे उस दौर को याद करने के लिए उन्हें जरा-सा भी प्रयास नहीं करना पड़ा। जितना जो महत्त्वपूर्ण था, उन्हें आज भी अच्छी तरह याद था- राही मासूम रजा मेरे अच्छे मित्रों में थे। जब मैंने लय' का संपादन आरंभ किया तो के०पी० सिंह जी और राही मासूम रजा को उसमें सहयोग के लिये आमंत्रित किया था। उन दोनों ने बड़े प्रेम से सहायक संपादक ÷लय' के रूप में कार्य करना स्वीकार किया था। मैंने गीत को स्थापित करने के लिए ÷लय' शुरू की थी। परन्तु विशेषतः के०पी० सिंह उसे किसी विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा से प्रतिब( करना चाहते थे। वह मुझे स्वीकार नहीं था। इसलिये के०पी० सिंह और उनके कहने पर राही साहब ÷लय' से बिछुड़ गए।

राही मासूम रजा से मैं बहुत प्रभावित था, क्योंकि उनका सोच हमेशा से ही लोकमंगलकारी और भिन्न-भिन्न प्रकार की मज+हबी रूढ़िवादिता से पूर्णतया मुक्त था। वे हिन्दी और उर्दू-दोनों भाषाओं में बड़ी कुशलता और सरलता के साथ रचनाकर्म में निरत थे। तभी उन्होंने मुझसे ÷अठारह सौ सत्तावन' नाम की अपनी कृति को हिन्दी में प्रकाशित कराने की पेशकश की। मैंने आत्माराम एंड संस- जो मेरे प्रकाशक थे और मुझसे बहुत प्रभावित थे-से पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में बातचीत की। उन्होंने कहा कि यदि किताब की भूमिका मैं लिखँू तो वे छाप देंगे। राही मासूम रजा से मैंने यह चर्चा की तो वो तुरन्त राजी हो गए और पुस्तक छप गई। राही मासूम रजा के मरणोपरांत हुआ यह कि के०पी० सिंह जी ने उस पुस्तक के नए संस्करण में से मेरी लिखी उस भूमिका को निकाल दिया।

राही मासूम रजा ने ÷महाभारत' के जो संवाद लिखे थे, वे इतने अच्छे थे कि वे उनके कारण केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी बहुत लोकप्रिय हो गए। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे अपने संवादों, अपनी कविताओं, अपने उपन्यासों के माध्यम से हमेशा ही विश्व में याद किए जाते रहेंगे। उनके साथ जितना समय मेरा गुजरा है, उसकी याद आज तक मेरे मन-प्राण में बसी है। वे केवल एक अच्छे लेखक ही नहीं, एक सुलझे हुए बहुत ही सजग, बहुत ही सुरुचि संपन्न एक सच्चे और ईमानदार इंसान भी थे। ऐसे इंसान अब देखने को बहुत कम मिलते हैं। बम्बई पहुँचने पर फ़िल्म के माध्यम से उन्होंने विश्वव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की।

प्रो० क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार साहब ए०एम०यू० के उर्दू विभाग और उस समय की तमाम तरह की हलचलों-गतिविधियों से सीधे जुड़े व उस सबके प्रत्यक्ष दृष्टा रहे हैं, जब राही साहब ने यहाँ अध्ययन किया और अध्यापक होना चाहा। दोनों की राही साहब से नज+दीकी भी रही है और उनकी नियुक्ति से जुड़े कुछ हिस्सों के साथ उनका नाम भी लिया जाता रहा है। इसीलिए इन दोनों रचनाकारों से बातचीत की शुरुआत उस दौर की ऐसी ही कुछ चर्चाओं के साथ शुरू हुई थी। दोनों ने बहुत आदर और आत्मीयता के साथ राही साहब को याद किया था। उन दिनों की कई घटनाओं पर बड़ी बेबाकी से दोनों ने खुद को व्यक्त किया था। क़ाजी साहब ने उनके विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए अपनी बात शुरू की थी-राही मासूम रजा जब अलीगढ़ आए तो वे अपने समकालीनों में जाने-बूझे शायर थे। यहाँ उन्होंने एम०ए० में दाखिला लिया- बहुत देर के बाद। बी०ए०-वे शायद बहुत पहले कर चुके थे। मेरे भी शागिर्द हुए। क्लास रूम में बहुत अदब से बैठते थे। पूरा लेक्चर सुनते थे, नोट्स लेते थे। फिर यहाँ की जो डिपार्टमेंटल पॉलिटिक्स थी, उस पर ख़लीलुर्रहमान वगैरह उनके खिलाफ़ थे। ख़लील साहब किसी शायर को अलीगढ़ में जमने नहीं देते थे- क्योंकि उनका गिरोह- बाहर का बहुत बड़ा था और राही का तरक्कीपसंदों का गिरोह भी बड़ा था। मूनिस रजा के भाई थे वे। एम०ए० फर्स्ट क्लास पास कर लिया था उन्होंने। वे लेक्चरर होना चाहते थे। उन्होंने आफ़ताब मंजिल में शादी कर ली थी। ये बात प्रो० नूरुल हसन को नागवार गुज+री। आले अहमद ÷सुरूर' साहब को तो पहले से ही उनसे नाखु+श कर दिया गया था। राही बहुत वायटल आदमी थे और अच्छे शायर थे-और महफिलों में छा जाया करते थे। फिर उन्हें अपनी शौहरत पर भी नाज था। इसलिए वो आम तालिब-ए-इल्मों की तरह बहुत दबके और अदब से नहीं रहते थे। मुझको तो वे भाई साहब कहते थे, बाकी लोगों को ख़ातिर में नहीं लाते थे। बहरहाल इंटरव्यू हुआ। उसमें ऐसे सवालात किए गए जो पहले से तय थे। मालूम था कि नहीं लेना। नहीं लिए गए। इसलिए कि प्रो० नूरुल हसन और सुरूर साहब के मामले में कोई जीत नहीं पाता। जब वो नहीं हुए तो मिठाई बाँटी गई। अंग्रेजी में एक रीडर थे रिज+वान हुसेन। वो मिठाई का डिब्बा लेकर अंग्रेजी के मशहूर रीडर सलामतुल्ला खाँ के कमरे में पहुंचे। इत्तेफ़ाक से मैं भी पहुंच गया। मैं उन दिनों उनके पास जाता था। डिब्बा रखा था। किसी ने मुझसे कहा लीजिए। मैंने कहा-क्या है ? जवाब मिला- ये राही नहीं हुए हैं, उसकी खुशी में मिठाई आई है। कुछ लोग खा चुके थे। मैंने खाने से इंकार कर दिया कि मैं ऐसी मिठाई नहीं खाता। सलामत साहब ने भी मिठाई नहीं खाई। ये बात राही को बहुत बाद में मालूम हुई। इसलिए कि मैं चुगलखोरी करने का आदी नहीं हूँ।

राही ने अपने रिजेक्शन की लाइन ये ली कि चँूकि मैं शिया हूँ इसलिए सुरूर साहब ने मुझे नहीं लिया। राही बहुत चलत-फिरत और मिलने-जुलने वालों में थे। वी०सी० तब तय्यब जी थे। वे टेनिस खेलने आते थे। राही ने वहाँ पाबंदी से जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे जब वो वी०सी० के करीब आ गए तो उन्होंने उन्हें बताया कि हमें इसलिए नहीं लिया गया वी०सी० को नागवार गुजरा। सुरूर साहब कर्नल बशीर हसन जैदी के जमाने में वी०सी० की नाक के बाल थे। और वे उसी तरह बिहेव करते थे। लेकिन तय्यब जी के यहाँ उनकी गुजर नहीं थी। जब सुरूर साहब को मालूम हुआ कि उन पर शिया-सुन्नी का चार्ज लगाया गया है तो उन्होंने यूनीवर्सिटी स्कूल के एक टीचर मंजर अब्बास नक़वी और डॉ० कौकब कदर को भर्ती कर लिया ताकि शिया-सुन्नी के झगड़े से उनको निजात मिल जाए। राही ने सुरूर साहब पर मुकदमा कायम कर दिया। वो अदालत के चपरासी को रुपए देकर सुरूर के नाम की आवाज लगवाते थे-हाजिर हो ...। और बहुत एंज्वाय करते थे। खैर मुकदमा तो वे हार गए राही- हारना ही था। अब वो बम्बई गए। बम्बई में एक मुशायरा हुआ। उसमें मीना कुमारी ने एक ग़जल पढ़ी। राही ने खड़े होकर कहा कि मीना कुमारी की ग़जल अच्छी है और हमारे उस्ताद-ए-मौहतरम प्रो० आले अहमद सुरूर की ग़जलों की टक्कर की है। उस पर बड़ा हंगामा मचा। बहुत कहकहे लगे और राही को ये तसल्ली मिली कि उन्होंने इंतकाम ले लिया।

उनको ग़लत तौर पर यह पढ़ा दिया गया कि काजी अब्दुस्सत्तार भी नहीं चाहते थे कि आप लेक्चरर हों। वो हमसे भी ख़फा हो गए और ÷धर्मयुग' में कई महीने हमारे खिलाफ़ लिखते रहे और हमारी तरफ से लोग जवाब देते रहे। राही समझते थे कि मैं लिखवा रहा हूँ और मेरे फ़रिश्तों को भी इल्म नहीं कि कौन लिख रहा है। खैर- वो एक बार बम्बई से आए तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि भाई साहब आप दूसरों से क्यों लिखवा रहे हैं। आप खुद क्यों नहीं लिखते ? मैंने कहा कि मैं किसी से लिखवाना अपनी शान के खिलाफ़ समझता हूँ और खुद इसलिए नहीं लिखता कि आप हर महीने मेरी पब्लिसिटी मुफ्+त में करते हैं। तो मैं फिर उसे लिखकर बंद क्यों करूँ ? बहुत ख़फ़ा हुए। बोले-आप बिल्कुल नहीं लिखवाते किसी पर ... ? मैंने कहा- हलफ़ उठा सकता हू। जानता तक नहीं कि कौन साहब हैं। कॉफी पीते रहे और फिर चले गए।

फिर बम्बई से एक पोस्टकार्ड आया मेरे नाम राही मासूम रजा का कि हरमेश मल्होत्रा शब गजीदा' पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं। तो आप अपने किसी दोस्त का नाम लिख दीजिए ताकि ये मामला तय हो जाय। मैंने फौरन पोस्टकार्ड मँगवाया- जो मैं कभी नहीं लिखता। लेकिन उनको पोस्टकार्ड पर ही जवाब दिया। और लिखा कि बम्बई में मेरे एक दोस्त रहते हैं, उनका नाम है राही मासूम रजा। मैंने शब गजीदा' के सारे राइट्स उन्हें दे दिए हैं। जिस तरह उनका जी चाहे इस्तेमाल करें। अब राही का बहुत लम्बा ख़त आया माफ़ी-तलाफ़ी का। और ये भी कि आप फलां तारीख को बम्बई आ जाएँ। पाँच हजार रुपया भी आया। मैं गया। स्टेशन पर हरमेश मल्होत्रा-दो चार आदमियों के साथ मौजूद थे-और राही भी थे। हरमेश ने मुझे ताजमहल होटल में ठहराने का इंतजाम किया था। जब मैं उनकी गाड़ी में बैठने लगा तो राही मेरे पास आए और कहा- भाई साहब मेरे घर में आपको वो आराम तो नहीं मिलेगा जो ताजमहल होटल में मिलेगा। लेकिन मेरी आरजू है कि आप मेरे साथ ठहरें। मैं हरमेश की गाड़ी से उतरा और राही के साथ उनके घर चला गया और हम फिर एक दूसरे के दोस्त हो गए। शराब की महफ़िल में वो मुझसे आँखें नहीं मिला रहे थे तो मैंने कहा- राही, मुझे मालूम था कि एक दिन ये झूठी अफ़वाहें, जिनकी बिना पर तुम मुझसे खफ़ा हो, हवा हो जाएंगी और तुमको सारी सच्चाई मालूम हो जाएगी। इसीलिए मैंने तुम्हारे किसी ऐतराज का जवाब नहीं दिया। आज तुम मुझसे शर्मिंदा हो, आँखें नहीं मिला रहे हो और मैं तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर बातें कर रहा हूँ। राही लिपट गए-वो रोए। इसके बाद कभी हमारा इख्तलाफ़-लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ।

राही बहुत अहम्‌ शायर थे और उनमें बहुत सलाहियतें थीं। इसका इज+हार उस समय हुआ जब उन्होंने ÷महाभारत' के लिए लिखा। उसका एक-एक एपीसोड मैंने बहुत गौर से देखा है और उसकी तारीफ़ की है ये अच्छा हुआ कि राही अलीगढ़ से चले गए, वरना उनको महाभारत में लिखने का ऐजाज हासिल नहीं होता। आज भी वो मुझको बहुत याद आते हैं। जब वो अपनी बेटी की शादी करने के लिए अलीगढ़ आए तो उनके भाई प्रो. मेंहदी हसन ने मुझे बताया कि राही भाई से मिलने बड़े-बड़े लोग आते थे, लेकिन वो किसी के लिए खड़े नहीं होते थे। मगर आपका रिक्शा देखकर ही खड़े हो जाते थे। और जितनी पजी राई आपकी करते थे, मैंने किसी की नहीं देखी।'

शहरयार साहब से जब राही साहब से जुड़ी उनकी यादों को याद करने के लिए कहा गया तो उन्होंने पहले उनसे हुई अपनी पहली मुलाकात को याद किया- और फिर धीरे-धीरे कई घटनाएँ उन्हें याद आती गइर्ं- उनसे मेरी पहली मुलाकात सन्‌ पचपन में हुई। मैं खलील साहब के साथ रहता था और वे उन्हें बहुत मानते थे। वे खलील साहब को मौलाना कहते थे। राही जब भी अलीगढ़ आते, उनके यहाँ जरूर आते। राही कुछ ही छोटे थे उनसे- लगभग बराबर। १९५६ में वे केवल इंग्लिश में इंटरमीडिए करने यहाँ आए। जामिया से जो अदीब माहिर, अदीब कामिल करके आता था, उसे केवल इंग्लिश में इंटर करना होता था। हाईस्कूल के बाद उन्हें टी०बी० हो गई थी। वे कश्मीर सेनीटोरियम में रहे थे वहाँ। फिर उनको शिक्षा कम्पलीट करने का ख़याल आया। उन्होंने १९५८ में बी०ए० का इम्तहान मेरे साथ दिया। ५८ में हम कश्मीर गए। वे भी कश्मीर में थे। मुलाकातें होतीं। वे खुशमिजाज आदमी-और खुशशक्ल भी थे। देखने में भी अच्छे लगते थे। पहले वे सिर्फ+ कुर्ता, पायजामा और बास्कट पहना करते थे। बी०ए० करने के बाद उन्होंने ५८ में एम०ए० उर्दू में दाखिला लिया। मैंने एम०ए० साइकोलॉजी में दाखिला लिया। उर्दू का मेरा ख़याल भी नहीं था। कुछ इस वजह से भी उन्हें ख़याल हुआ कि मेरा इसका कोई मुकाबला नहीं है। इसलिये मुझसे बहुत मोहब्बत से मिलते थे। मुझे दिसम्बर में यकीन हो गया था कि मैंने साइकोलॉजी में दाख़िला लेने का फ़ैसला ग़लत लिया है। वहाँ से नाम कटवा लिया और सिर्फ़ शायरी करता रहा। एम०ए० में राही साहब डिपार्टमेंट की सोसायटी के सेक्रेटरी हो गए। यह सोसायटी-अंजुमन उर्दू-ए-मुअल्ला, हसरत मोहानी साहब ने कायम की थी। उनके रिसाले का नाम ÷उर्दू-ए-मुअल्ला' था। राही साहब काफ़ी मशहूर आदमी थे। यहाँ उनके बड़े भाई मूनिस रजा थे। यहाँ के तरक्की पसंद ग्रुप में नूरुल हसन साहब, अलीम साहब, मूनिस रजा साहब खास आदमी थे। मूनिस साहब की वजह से प्रोगे्रेसिव हल्के में राही को काफ़ी अहमियत दी जाने लगी। प्रोगेसिव लोग जाकिर साहब के जमाने में यूनीवर्सिटी के काफ़ी अहम्‌ ओहदों पर रहे। राही ने सोसायटी की तरफ से एक उर्दू हफ्ता मनाया - जिसमें सेमिनार, क्विज, कल्चरल प्रोग्राम हुए- तो उसमें काफ़ी लोग मौजूद हुआ करते थे। एक साल बाद जब मैंने एम०ए० उर्दू में दाख़िला लिया तो उस अंजुमन का सेक्रेटरी मुझे बनाया गया। डिपार्टमेंट के कुछ लोगों ने कहा कि ये राही की तरह नहीं कर पाएंगे। लेकिन सुरूर साहब ने कहा कि नहीं, ये कर लेंगे। मेरे जमाने में बहुत अहम्‌ जलसे हुए। उनमें फ़िराक साहब आए, अख्+तरुल ईमान आए, कुर्रतुल ऐन हैदर आईं। अंदर-अंदर राही साहब को एक यह ख्+याल पैदा होने लगा कि शहरयार से उनका मुकाबला होगा। जबकि मैं बिल्कुल ये नहीं सोचता था। राही साहब मैग्जीन के एडीटर नहीं बनाए गए। क्यों- इसके बारे में मैं कोई राय नहीं देना चाहता। लेकिन मैं एम०ए० फाइनल में मैग्जीन का एडीटर बनाया गया।

एम०ए० करते ही- बल्कि एम०ए० के रिजल्ट आने से पहले, अंजुमन तरक्की में मुझे लिट्रेरी असिस्टेंट की जगह मिल गई। फैकल्टी की फैलोशिप मिलने के बाद मैंने वो नौकरी छोड़ दी। राही साहब उस जमाने में काफ़ी मक़बूल थे। और शायद उनकी मक़बूलियत की वजह से कुछ लोग उनसे खौफ़जदा थे। एक आम ख़याल ये हो गया था कि मैं सुरूर साहब के ज्यादा करीब हूँ। इत्तेफ़ाक से डिपार्टमेंट में एक उस्ताद ने तीन महीने की छुट्टी ली। उस पर सुरूर साहब ने लखनऊ के अपने शार्गिद-काजी साहब के दोस्त-मसूद आलम का अप्वाइंटमेंट कर दिया। वो लखनऊ यूनीवर्सिटी से सेकिंड क्लास एम.ए. थे। शाहजहाँपुर में लेक्चरर थे और छुट्टी लेकर रिसर्च करने अलीगढ़ आए थे। लेकिन उनको कोई वजीफ़ा नहीं मिला था। राही साहब एक दिन मुझे मिले, कहने लगे कि ये बहुत ग़लत हुआ है। मेरे या तुम्हारे में से किसी एक का होना चाहिए था। मैंने कहा कि मुझे कोई शिकायत नहीं है। उसी जमाने में मेरे बड़े भाई को हार्ट-अटैक हो गया और मैं तकरीबन दो महीने डिपार्टमेंट नहीं गया। उनकी देखभाल में लगा रहा। यह जमाना तय्यब जी की वाइस चांसलरशिप का था। चीन का हमला हो चुका था। राही साहब ने एक प्ले लिखा-पर्वत वो सबसे ऊँचा। जब वह स्टेज हुआ तो उसको तय्यब जी ने भी देखा। तय्यब जी टेनिस खेलते थे। राही साहब पाबंदी के साथ टेनिस लाउंज पर जाते थे और किसी न किसी बहाने से उनकी तारीफ़ करते थे। तय्यब जी से इस अप्वाइंटमेंट के बारे में खुद या किसी के जरिये उन्होंने इजहारे नाराजगी किया कि यह ग़लत एप्वाइंटमेंट हुआ है। और तय्यब जी ने चेयरमैन के टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट करने के अधिकार छीन लिए और ये कानून पास कर दिया कि हर टेम्परेरी सलेक्शन के लिए लोकल सलेक्शन कमेटी होगी। उस कमेटी में वी.सी., प्रो. वी.सी., डीन और चेयरमैन बैठेंगे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में लोकल सलेक्शन कमेटी से पहला अप्वाइंटमेंट राही मासूम रजा का हुआ। ये तब हुआ था जब दूसरी बार मौहम्मद हसन छुट्टी लेकर गए थे। राही साहब का यह टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट हो गया और मुझको बड़ी खुशी हुई। अगरचे मैं भी उम्मीदवार था। मैंने उसी जमाने में एक ग़ज+ल लिखी- जिसमें एक शेर था- ÷वो नहीं उदू सही, खुशी ये है कि दहर में। कोई तो सुर्खरू हुआ, कोई तो सर बलंद है।' और ये शेर मैंने उन्हें सुनाया भी। और उन्होंने बहुत पसंद किया।

हम रोज+ शाम लाइब्रेरी कैंटीन में मिलते। वे बड़ी मोहब्बत से पेश आते थे। वहाँ काफ़ी देर हम बैठते । नए शेर उन्हें सुनाते थे वो भी सुनाते अपनी चीजें। लय नाम से एक रिसाला निकलता था। उसमें उन्होंने मुझ पर एक मज+मून भी लिखा। काफ़ी तारीफ़ भी की थी उसमें। लेकिन मैं कभी उनके इनर सर्किल का हिस्सा नहीं बन सका। मेरे और उनके बीच मिजाज में जमीन-आसमान का फ़र्क था। वो मुकामी शौहरत और हर दिल अजीजी के लिए बहुत से ऐसे काम करते जिनकों मैंने कभी पसंद नहीं किया। बहरहाल जितना वो अपने को मज+बूत करने की कोशिश करते रहे, कुछ लोग अंदर ही अंदर ऐसे काम करते रहे कि वे यहाँ न टिक सकें। उनके इश्क ने इसके लिए सारे मौके फ़रहाम करा दिए। और जब वह जगह परमानेंट हुई तो अली यावर जंग के इशारे पर उन्हें नहीं लिया गया। मैं इस जगह के लिए पहले उम्मीदवार था, लेकिन बाद में ऐलान कर दिया कि मैं इस सलेक्शन कमेटी में नहीं आऊंगा। मैं ईवनिंग क्लासेज में टैम्परेरी लेक्चरर हो चुका था। शाम को पढ़ाता था और दिन में ऑनरेरी तौर पर हमारी जुबान' का संपादन करता था।

सलेक्शन कमेटी के दिन दो बजे डिपार्टमेंट के क्लर्क ने मुझे फ़ोन पर इत्तला दी कि आपको सलेक्शन कमेटी में आना है। ये इत्तला उसने फैकल्टी के रूम नम्बर वन से दी, जो उस वक्त ओरियंटल कांफ्रेंस का इंक्वायरी ऑफिस था। इसके इंचार्ज थे कुँवरपाल सिंह। कुँवरपाल सिंह ने क्लर्क की वो बात सुनी और राही साहब को पहुँचा दी। सुरूर साहब के सलेक्शन कमेटी में मेरे उस बुलाने को राही साहब ने ये समझा कि उस जगह मेरा अप्वाइंटमेंट होगा। मैं जब सलेक्शन कमेटी में पहुँचा तो राही साहब ने मुझसे कहा भी कि तुम तो नहीं आने वाले थे। तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। राही साहब ने यह सोचकर कि उन्हें नहीं लिया जाने वाला है, सलेक्शन कमेटी के लोगों से कॉफी झगड़ते हुए से जवाब दिए। और ये न होता तो भी शायद उनका अप्वाइंटमेंट नहीं होता। नवाब अली यावर जंग उनके काफ़ी खिलाफ़ थे। नूरुल हसन साहब, जो उस वकत डीन थे, उन्होंने बाकायदा छुट्टी ले ली और शब्बीर खाँ साहब डीन की हैसियत से बैठे। मैंने सलेक्शन कमेटी के बाद सुरूर साहब से पूछा कि मैंने तो कहा था कि मैं उम्मीदवार नहीं हूँ, फिर आपने क्यों बुलाया। तो उन्होंने बताया कि प्रो० नूरूल हसन ने मुझसे कहा था कि इसी सलेक्शन कमेटी से शहरयार के अप्वाइंटमेंट को रेगुलराइज करा लीजिए। उससे उस वक्त पी.वी.सी. ने इत्तेफ़ाक नहीं किया। उन्होंने कहा कि बिना एडवरटिज+मेंट के कोई अप्वाइंटमेंट नहीं होगा। दिल्ली के एक साहब का अप्वाइंटमेंट उसमें हो गया। राही साहब ने सुरूर साहब पर कई मुकदमे- वुकदमे कायम करा दिए। और फिर उनके लिए यहाँ के हालात बिल्कुल उनके हक़ में नहीं रहे।

मैं बम्बई और अलीगढ़ में बराबर उनसे मिलता रहा। जब भी मैं बम्बई गया, उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। हर तरह की दावत दी। बड़ी मोहब्बत से मुझसे मिलते थे। उर्दू से जो राही साहब दूर हुए उसके कारण ये थे कि - उनमें एक तो ये था कि वो जमाना-तब मॉडर्न शायरी का जमाना शुरू हो गया था और खुली-डली डायरेक्ट शायरी का रिवाज साहित्य से ख़त्म हो गया था। बल्कि उसके खिलाफ़ लहर चल रही थी। वैसे राही साहब अदबी शौहरत के सिलसिले में कुछ सीरियस भी नहीं थे। वो अवामी पॉपुलरिटी को ज्यादा अहमियत देते थे। मुख्तलिफ़ नामों से रूमानी नॉविल लिखते थे। अब्दुल हमीद पर किताब लिखी- छोटे आदमी की बड़ी कहानी। अठारह सौ सत्तावन पर नज्म लिखी। उसके पीछे यही था। उसमें संपूर्णानंद से उन्होंने लिखवाया था। लेकिन उसका कोई खास असर नहीं हुआ। आधा गाँव उन्होंने उर्दू में ही लिखा था। कुँवरपाल सिंह ने देवनागरी में करा दिया था और फिर वो हिन्दी का अहम्‌ उपन्यास बन गया। बम्बई में वो सारिका और धर्मयुग में अपनी माली जरूरतों की वजह से टिपीकल चीजों पर लिखा करते थे। ऐसी चीजें-जो जल्दी लोगों को पसंद आएँ-और खासतौर से हिन्दी के पढ़ने वालों को।

बहरहाल बम्बई में उन्होंने बहुत स्ट्रगल किया। असली कामाबी नहीं कि वो खराब ही होगा। वैसे आम इंसान के लिए बहुत ज्यादा लिखना मुमकिन भी नहीं हैं वो बहुत ही कंट्राडिक्टरी बातें करते थे। मसलन वो कहते थे कि मैं उपन्यासकर तो हिन्दी का हूँ, मगर शायर उर्दू का हूँ। वैसे ख्यालात के ऐतबार सेक्युलर आदमी थे- लिबरल आदमी थे। उनकी सोच बड़ी हद तक सही थी। अलबत्ता उस सोच को वे हमेशा शौकीन अंदाज से पहुंचाते थे। मुझे वे बहैसियत आदमी के बहुत पसंद थे। फ़िल्म अंजुमन के डायलॉग राही साहब ने लिखे थे और उसके गाने मैंने लिखे थे। उन गानों में स्त्रीलिंग वर्ब्स का इस्तेमाल उनको पसंद नहीं आया था, जिसका इजहार उन्होंने एक पार्टी में किया। लेकिन मैं भी उस पर अड़ गया कि जब करेक्टर फीमेल है तो स्त्रीलिंग का इस्तेमाल करेगा। करता हूँ नहीं, करती हूँ ही तो कहेगा। पुराने जमाने में ये होता था कि औरतें भी जनरल इस्तेमाल करती थीं। लेकिन वो नए जमाने का करेक्टर था- वो लड़की है- वो मैस्कुलिन वर्ब्स क्यों इस्तेमाल करेगी ? उनका कहना था कि करती हूँ की जगह करता हूँ करे। वो जनरल हो। वो मालूम न हो कि औरत है या मर्द है। इस पर थोड़ी तल्खी भी हुई। पर वो जब भी आते थे, मुझसे जरूर मिलते थे और मैं जब भी बम्बई जाता, उनसे जरूर मुलाकात होती। सेंस ऑफ़ ह्‌यूमर उनमें था। उनसे बातें करने, उनकी बातें सुनने में मजा आता था। अब भी उनकी बेटी अैर दामाद से अमेरिका में जब भी मुलाकात होती है तो वो यद आते हैं। मैं अक्सर टेलीफ़ोन से उनकी बेटी अैर दामाद-जो उनका भतीजा है-की खैरियत मालूम करता रहता हू। बेटी को ऐसी बीमारी है कि जिसे बर्दाश्त करना बडा मुश्किल काम है। लेकिन वो बड़ी हिम्मत वाली लड़की है।

नहीं, वो जो रेगुलर करने की बात थी, वह ईवनिंग क्लास वाली टेम्परेरी पोस्ट की ही बात थी। हाँ वो जो दिल्ली वाले साहब का अप्वाइंटमेंट हुआ था, दूसरी एडवर्टाइज्ड पोस्ट पर ही हुआ था। नहीं- मैं उनसे मुकाबला करना नहीं चाहता था इसलिए सलेक्शन कमेटी में न आने की बात कही थी। मैं टेम्परेरी लेक्चरर हो गया था। मैंने एक तरह से खुद को उनसे कमतर मान लिया था। मैं सोचता था कि उन्हें पहले मौका मिलना चाहिए। वे सीनियर थे, जहीन थे। मैं कभी ऐसी चीज को पाने की कोशिश नहीं करता कि जिससे कुछ लोग नाराज-दुखी हों और मुझे लगे कि मैंने हक़ मारा है। इसलिए मैंने जहनी तौर पर तैयार कर लिया था खुद को। उनका फिजीकल ऐसा मामला था कि जो एक बार मिल लेता, भूलता नहीं। काफ़ी अच्छा तरन्नुम था। अच्छा पढ़ते थे। पर्फोमेंस उनकी बहुत बढ़िया होती थी। मजाज पर एक नज्+म लिखी थी उन्होंने। वो काफ़ी पॉपुलर हुई थी। जो उन्होंने चाहा फिर भी वो नहीं मिला। गाने लिखे फ़िेल्म को-वो नहीं चल पाया।

नहीं, मैंने उनके ज्यादा उपन्यास नहीं पढ़े। शायरी अच्छी करते थे। ग़जलें खासतौर से अच्छी होती थीं। वो अपने को बेसीकली नज्म का शायर कहते थे। मेरे एक दोस्त राही साहब और मुझमें कम्पेरीजन करते हैं कि तुमको एडीटिंग आती है, राही साहब एडिट नहीं करते। तुम बात कम तो करते हो, ज्यादा कभी नहीं कहते। राही साहब एक ही बात को कई-कई तरह से कहेंगे। वे फैलाने में रुचि लेते हैं- ओरेटरी की जो खूबियाँ होती हैं न ...!

नहीं, उर्दू में कोई खास अहमियत नहीं। कुछ तरक्कीपसंद नक्क़ाद पहले कभी-कभी जिक्र करते थे- अब वो भी नहीं। सही वक्त पर उनकी किताबें नहीं छपीं। छपीं तो लोगों के पास गईं नहीं। रिसालों में उन्होंने लिखा नहीं। वो बेसीकली आज पर ध्यान देते थे। आने वाले कल की बहुत फ़िक्र उनको नहीं थी।