Tuesday, December 28, 2010

एक ऐक्ट हजारों मंजर

मूल लेखक - डॉ. राही मासूम रजा

लिपियान्तरण - डॉ. शगुफ्ता नियाज

राही मासूम रजा ने उर्दू में १८-२० उपन्यास लिखा था लेकिन वह उपन्यास दूसरों के नामों - ÷शाहिद अख्तर और आफ़ाक हैदर' से छपा था। जैसाकि उन्होंने अपने साक्षात्कार में स्वयं कहा था। शाहिद अख्तर के नाम से ÷कारोबारे तमन्ना' उपन्यास लिखा था उसी का एक अंश -÷एक ऐक्ट हजारों मंजर' है।



केमिकल्स एक्जामिनर के यहाँ से रिपोर्ट आ गयी कि जो चीज+ कल्लू की दुकान से बरामद हुई थी वह कोकीन थी। इस रिपोर्ट के आते ही पूरी सरकारी मशीन हरकत में आ गयी। मुकदमा शुरू हुआ और मुकदमों के साथ ही मेहनतानों नज+रानों और रिश्वतों का एक सिलसिला शुरू हो गया। पान की दुकान बोझ नहीं उठा सकती, उसे दुकान पर बैठने की फु+र्सत नहीं मिलती थी। कभी वकील के यहाँ हैं, तो कभी कोतवाली और फिर कचहरी की दौड़।

लल्लन ने इस मौके का फ़ायदा उठाया। वह पान का खोंमचा लगा कर कल्लू की दुकान के पास ही बैठने लगा। कल्लू की दुकान बन्द होती तो बन्द दुकान के कपड़े पर बैठ जाता।

ग्राहकों की कल्लू पान वाले से कोई दिलचस्पी नहीं थी, उन्हें तो आरजू की दुकान के सामने पान की एक दुकान की ज+रूरत थी। वह कल्लू हो या अवतार या लल्लन।

नुसरतुल्ला ने कल्लू और कोकीन में कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह जानता था कि कोकीन बरामद हुई नहीं, कोकीन बरामद करवा ली गई है। उसे यह भी मालूम था कि उसी कोकीन के बरामद किये जाने में गजाधर का हाथ है। उसे यह मालूम था कि यह हमला कल्लू पर नहीं उस पर है। फिर भी उसने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली.... वह भी लल्लन की दुकान से पान खाने लगा।

मजिस्ट्रेट ने डेढ़ बरस की सजा कर दी। पाँच सौ जुर्माना ऊपर से हुआ। अदायगी न करने की सूरत में छः महीने की कैद-ए-बामशक्क़त और कल्लू ने अपील की। फिर पेशियों और मेहनतानों, नज+रानों और रिश्वतों का सिलसिला शुरू हुआ। आख़िर में सज+ा बहाल रही। कोर्ट में अपील हुई तो कल्लू को नुसरतुल्ला के यहां जाना पड़ा।

÷÷सलामअलैकुम भैय्या।''

वह बैठ गया। नुसरतुल्ला दुकान के कामों में लग गया। कल्लू चुप बैठा रहा। कोई नौ बजे जब दुकान बन्द होने लगी तब वह कल्लू से मुख़ातिब हुआ।

÷÷कैसे आये थे?''

÷÷अपील किया है न।''

÷÷अच्छा।''

÷÷अब पैसा न है।''

÷÷भई आजकल बाज+ार बहुत मन्दी है।''

÷÷थोड़ा-सा कर्ज+ दे देते।''

÷÷वह तो सब ठीक है, मैं तो कहता हँू कि चुपचाप सजा काट आये होत्ये। छः महीने की सजा ही रही न। छः महीने में का रखा है। बिला वजह हज+ार दो हजार खर्च होई। हज+ार पाँच सौ और ख्+ार्च होहियै। का फ़ायदा ई रुपया रहता तो जब छूट के अइत्यो तो काम आता।''

÷÷हम ई कहते रहे भइया कि मकनवा रहिन ले लियो।''

÷÷हम रहिन न लेंगे। बेच देयो खरीद लेंगे।''

÷÷तो रहेंगे कहाँ भैय्या।''

÷÷सोच ल्यो, हम कोई ज+बरदस्ती तो करते नहीं।''

ठीक ही था। वह कोई ज+बरदस्ती तो कर नहीं रहा था। कल्लू चुपचाप घर चला आया। शेख कलूट आंगन में हुक्का पी रहे थे। नफ़ीसन उनका बदन दबा रही थी। शरीफ़न एक खटोले पर लेटी सितारों में फूल पत्तियाँ काट रही थी। वह चुपचाप लेट गया। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसे अपना मकान किसी अजनबी का मकान मालूम हो रहा था।

थोड़ी ही देर में शेख कलूट के ख्+ार्राटों की आवाज+ आने लगी। नफ़ीसन ने बदन दबाना छोड़ दिया। वह एक कटोरा पानी पी कर लेट गयी। शरीफन भी सितारों में फूल पत्तियाँ तराशते-तराशते थक गयी तो आँखें बन्द करके न मालूम क्या-क्या सोचने लगी। मगर कल्लू जागता रहा। उसे पैसों की ज+रुरत थी। नुसरतुल्ला मकान रहिन रखने पर तैयार नहीं था। तो क्या मकान बेचना ही पड़ेगा। एक-एक ईंट ने फरियाद की। हर ईंट से ख्+वाबों की सब्ज व सुर्ख परियाँ निकलीं। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें बेच दोगे। कल्लू क्या तुम हमें....

सुबह सवेरे ही नुसरतुल्ला के यहाँ गया। नुसरतुल्ला अभी दुकान पर नहीं गया था। सलाम करके वह एक तरफ बैठ गया।

÷÷ख्+ारीद लीजिये भैय्या।''

÷÷आठ सौ से ज्+यादा नहीं दूंगा।''

÷÷आठ सौ....?''

÷÷और का लाटों, दो-चार लाख?''

÷÷नाही भैय्या, दो-चार लाख का लेंगे।'' वह यही कहकर रह गया असल में वह यह कहना चाहता था कि दो हज+ार रुपया लगाकर तो उसने एक खण्डर को ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बनाया था।

÷÷चलो रजिस्ट्री का रुपया मैं दे दूंगा।''

÷÷अच्छा भैय्या।''

÷÷खाली कब करोगे।''

÷÷जब कहोगे भैय्या।''

उसी दिन ÷÷कल्लू मंजि+ल'' बिक गई। शाम को कल्लू आठ सौ रुपये में अपनी तमाम तमन्नायें, अपने अनगिनत ख्+वाब नुसरतुल्ला के हाथ बेचकर घर लौटा तो घर वालों से आँखें मिलाने की हिम्मत नहीं थी।

÷÷ई घरवा हम बेच दिया बाबा।'' यह कहकर वह लेट गया। शरीफ़न ने कुछ नहीं कहा। नफ़ीसन भी ख़ामोश रही। मगर कलूट ख़ामोश न रह सका। वह बहुत बिगड़ा। बाप दादा की चौखट बेचते शर्म नहीं आती।

कल्लू सुनता रहा आख़िर बिलबिला उठा, ÷÷तो जेल चले जायें।'' कलूट उस सवाल का जवाब हाँ मैं नहीं दे सकता था। चुप रह गयो। वह जब सिर्फ़ कलूट था। उसके पास एक बेनाम मकान था। जब वह कलूट से शेख कलूट हुआ तो कल्लू मंजि+ल में रहने लगा। और अब कल्लू मंजि+ल बिक चुकी थी।

कल्लू ने दो-चार दिन में पाँच रुपये महीने पर एक खण्डर ले लिया। उसी दिन मगरू, नफ़ीसन को ले गया। और शाम को शेख मदारन ने कलूट को मंगरू का यह संदेश दिया कि अब नफ़ीसन वहाँ नहीं जायेगी। नफ़ीसन की शादी कहीं और हो जायेगी। कलूट ने कुछ नहीं कहा। वह तो यह देख रहा था कि अब सुबह को कोई नहीं आता। हुक्का ख़मीरा से आठ सीरे पर आ गया है। ऐसे में भला वह नफ़ीसन को लाने की हिम्मत क्या करता। उसने सोचा चलो एक पेट कम हुआ।

तीन-चार दिन के बाद एक दिन तन्हाई से उकता कर कलूट शेख मदारन के यहाँ चला गया। तब दबते-दबते कलूट ने कल्लू और महताब की शादी की बात निकाली। शेख मदारन ने साफ इंकार कर दिया। वह एक कोकीन फरोश से अपनी बेटी नहीं ब्याह सकते और अब कलूट के पास है क्या कि किसी की बेटी ब्याहने का हौसला करे। महताब की शादी तो बनारस में एक जगह तय हो रही है लड़का अदालत में पेशकार है दस-बीस रुपये रोज की तो ऊपर की आमदनी है....।

कलूट लौट आया।

रहा कल्लू, तो उसे तो यह भी नहीं याद था कि उसने कब से शरीफ़न की शादी और अपनी महताब की शादी का ख्+वाब भी देखा है। वह तो मुकदमा लड़ रहा था। एक अदालत से दूसरी अदालत में तीसरी अदालत में और रास्ते में न जाने कितने ख्वाब शीशे के बर्तनों की तरह गिर-गिर कर टूट चुके थे। सिर्फ़ एक आरजू रह गई थी कि हाईकोर्ट मवाफ़िक फैसला दे दे उसके वकील ने तो पक्क़ा वादा किया था कि वह उसे छुड़ा लेगा। पाँच सौ में मुआमलात तय हुये थे।

मगर वकील कल्लू को न छुड़ा सका। सुप्रीम कोर्ट न जा सका तो जेल चला गया। वह सिर्फ़ इस पर हैरान था कि उसने तो कभी कोकीन नहीं बेची। लेकिन अदालत ने उसे कोकीन फ़रोश ठहरा दिया। उसे क्या मालूम था अदालतें अपने कमरों से नहीं निकलतीं और ज+राएम उनके कमरों में नहीं होते। वह काग़ज+ों की बात मानते हैं। कागज+ झूठ नहीं बोलते। वह कल्लू की आँखों में झाँककर उनकी हैरानी नहीं देख और नहीं सोच सकती कि मुजरिम आख़िर इतना हैरान क्यों है। वह सिर्फ़ यह देख सकती कि दफ़ा ६० एक्साइज+ ऐक्ट में मुलजि+म का चालान हुआ। उसके यहाँ से गवाहों की मौजूदगी में जो सफ़ेद सफूफ बरामद हुआ था उसे केमिकल एक्ज+ामिनर ने कोकीन ठहरा दिया है। उनके लिये इतना जान लेना काफ़ी है। उन्हें इससे क्या मतलब कि मुलजिम तो कोकीन का नाम भी नहीं जानता था। उन्हें इससे क्या कि मुलजिम ने कल्लू मंजि+ल बेच डाली है। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम शरीफ़न की शादी के ख्+वाब देखा करता था। उन्हें उससे क्या कि मुलजिम महताब से शादी करना चाहता था। और अब महताब का बाप उसकी निस्बत कहीं और लगा रहा है। उन्हें उससे क्या कि जेल चले जाने के बाद जवान होती हुई शरीफ़न और बूढ़े कलूट का क्या होगा। काग़ज+ों ने कहा कि कल्लू मुजरिम है। नीचे से ऊपर तक अदालतों ने मान लिया कि वह मुजरिम है.....काश इंसाफ़ इतना बेबस न होता।

कल्लू जेल चला गया। लल्लन खाँ ने इत्मीनान की सांस ली। वह दुकान के मालिक के पास गये कि उस दुकान को हासिल करें। मगर मालिक दुकान पर ले दरजे का अहमक (बहुत बड़ा बेवकूफ़) निकला।

÷÷नहीं लल्लन खाँ मैं कल्लू की मजबूरी का फ़ायदा नहीं उठाऊंगा। यह दुकान कल्लू का इन्तज+ार करेगी।''

लल्लन खाँ मायूस होकर लौट आये। अड़ोस-पड़ोस के दुकानदारों ने पूछा कि क्या हुआ तो लल्लन खां ने सारा वाकया सुना डाला।

÷÷साला शायर है न।'' एक दुकानदार ने कहा ÷÷उन सभों के पास अक्+ल नहीं होती।'' वह शायद कुछ और कहता मगर मालिके दुकान को आता देखकर चुप रह गया। ÷÷आइये शौक़ साहब पान खाइये।''

÷÷शुक्रिया'' शौक़ साहब आ गये। लल्लन खाँ पान लगाने लगे। ÷÷भई लल्लन खाँ मैंने सोचा कि जब तक कल्लू छूट के नहीं आ जाता तब तक चाहो तो दुकान को इस्तेमाल कर लो।

÷÷नहीं मियाँ, ओके बाद का करेंगे।''

÷÷तुम जानो।'' पान की इकन्नी फेंक कर शौक साहब चले गये।

शौक साहब वाकई शायर क़िस्म के आदमी थे। खाता-पीता घर था चार-पाँच दुकानों का किराया आता था। कुछ कहानियाँ-वहानियाँ लिखने से मिल जाता था। मुस्लिम स्कूल में इतिहास के टीचर थे। यार-दोस्तों में बैठकर शेर भी कह लिया करते थे।

लल्लन खाँ की दुकान से कुछ ही आगे गये थे कि ÷÷ख़ान टी हाउस'' से कुछ लोग आवाज+ें देने लगे। मास्टर साहब नाली में पीक गिरा कर चायख्+ााने में चले गये।

हम लोगों में यह बहस हो रही थी कि जो एन्टी प्रास्टीट्यूशन एक्ट बना है यह बड़ा मुबारक कदम है। एक साहब ने कहा ÷÷लेकिन इन साहब का कहना है इससे ज्+यादा ज+रूरी काम पड़े हैं।''

÷÷असल में सोचना इस पर चाहिये कि रन्डियां वजूद में कैसे और क्यों आती हैं। ऐक्ट इस बाज+ार को उजाड़ सकता है। रन्डियों को ख्+ात्म नहीं कर सकता। उस कारख़ाने को बन्द करने की कोशिश कर दिया और जहाँ रन्डियां ढलती हैं, कोकीन से मलेरिया अच्छा हो जाता है। बन्द नहीं होता।'' शौक साहब बोले।

÷÷तो आप का मतलब है, रंडियों को बाज+ार में रहने दिया जाये ताकि बाहरी मुमालिक के सैय्याह आयें और देखें कि यहाँ जिस्म की तिजारत होती है।''

शौक साहब हँस दिये। ÷÷जिस्म की तिजारत कहाँ नहीं होती?''

÷÷यह मुल्क गरीब है। यहां जिस्म नहीं बिकेंगे तो और क्या होगा?''

÷÷अमेरिका तो ग़रीब मुल्क नहीं है भाई! यह सवाल गरीब का नहीं है। समाजी ढाँचे का सवाल है जब यहाँ रिक्शा चलना शुरू हुआ तो मैं बरसों रिक्शे पर नहीं बैठा। अजीब लगता था। आदमी-आदमी को खींच रहा है। लेकिन अगर सारे लोग मेरी ही तरह सोचने लगे, तो रिक्शे वाले भूको मर जाते। और अब तो मैं भी बैठता हँू रिक्शे पर और एक बार भी यह ख्+याल नहीं आता कि आदमी-आदमी को खींच रहा है। और अब देखो बाज+ार में एक्का नज+र नहीं आता। कचहरी के वक्+त देहात से एक्के आ जाते हैं तो घोड़ों के घुंघरू की आवाज+ अजीब मालूम होती है।

÷÷यानी आप इसके हक़ में है कि रन्डियाँ बाज+ार में रहें।''

÷÷लाहौला वला कुव्वत, मैं कैसे कह सकता हँू। मैं ही क्यों कोई यह नहीं कह सकता। मैं सिर्फ़ यह सोचता हूँ कि यह यहाँ से उठेंगी तो कहाँ जायेंगी और फिर इन मकानों का क्या होगा। कौन रहेगा? इन मकानों में अपनी बहनों और बेटों को लेकर? इस बाज+ार का खोल टूटेगा तो यह जहर हमारी समाजी और घरेलू जि+न्दगी में सिरायत (समा) जायेगा। उनकी ओल्टी का पानी हमारे आँगने में गिरेगा। हमारी ओल्टियों का पानी उनके आँगनों में गिरेगा। और हाँफते हुये मुतवस्सित (अच्छे) तबके की लड़कियाँ उनकी ओल्टियों से गिरे हुये पानी में बह जायेगी। क्या तुम अपने पड़ोस में बसाओगे।'' शौक साहब ने तेज+ी से सवाल किया।

÷÷लाहौला वला कुव्वत।'' जवाब मिला।

शौक साहब हँस दिये ÷÷बस एक ऐक्ट के हक़ में बोलना बड़ी जिम्मेदारियों का मुतालबा करता है। मौजूदा समाज में इस ऐक्ट के हक़ में बोलने का हक़ सिर्फ़ उन्हें है जो उन्हें अपने पड़ोस में बसाने का हौसला रखता हो। और जिसमें यह भूल जाने की हिम्मत हो कि कल तक क्या थी जो उनसे और उनके रिश्ता कर सकता हो, मैं नहीं कर सकता। इसलिये मैं इस ऐक्ट के हक में नहीं हँू। क्या तुम इस ऐक्ट के हक़ में हो?'' इस सवाल के बानी ने जोश की आग ठण्डी कर दी। शौक साहब मुसकराने लगे। ÷÷और तुम और हम जैसे हज+ारों, लाखों लोग भी अगर इस ऐक्ट के हक़ में हो जायें तब भी सवाल हल नहीं होगा। कोई मुल्क लड़कियों के रन्डी बनने के तादाद और शुमार नहीं रखता। वरना तुम्हें खुद मालूम हो जाता कि ऐक्ट कितना बोदा और कितना नाकारा है। दुकाने बंद हो जायेंगी तो यह फेरी लगा लेंगे। लल्लन पान वाले की तरह जिसे मैंने दुकान नहीं दी है।''

चायख़ाने में सन्नाटा हो गया। शौक साहब चायख्+ााने से निकल आये।

मुनादी

÷÷प्यारे भाइयों, पहली अप्रैल से रन्डियों के यहां जाना कानूनन जुर्म करार दे दिया गया है। शौक साहब के होटों पर एक तल्ख़ मुस्कराहट आ गयी। उन्होंने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से आँखें उठाकर उन रन्डियों की तरफ़ देखा जो अपनी खिड़कियों से मुनादी की आवाज+ सुन रही थी।

शौक साहब एक तरफ़ चले गये। मुनादी करने वाला दूसरी तरफ़ चला गया। रन्डियां खिड़कियों पर बैठी चुप-चाप बैठी सड़क पर आने-जाने वालों को देखती रह गईं और सड़ मुनादी और एन्टी प्रास्टीट्यूशन ऐक्ट से बेख़बर अपने गड्ढ़ों के पेबन्द लगा पहने धूप खाती रही।

महीने की पहली तारीख्+ा को कलेक्टर साहब ने ÷÷इशरतगंज'' त्मक सपहीज ंतमं को करार दे दिया। उसी दिन रन्डियों की कई दुकानों पर एक बोर्ड लग गया ÷÷यहाँ सिर्फ़ गाने-बजाने का काम होता है।'' जैसे अक्सर हलवाइयों की दुकान पर बोर्ड होते हैं कि ÷÷यहाँ सिर्फ़ देसी घी की मिठाइयां बनती हैं।'' एक बजते-बजते पुलिस ने छापे मारने शुरू किये, चालीस आदमी गिरफ्+तार हुये। ÷÷शोर्फ़ाए शहर'' तो पान पत्ता खिलाकर छूट गये, ÷÷कमीने लोग हवालात में बन्द कर दिये गये।

दूसरी तारीख़ को शहर में दो सौ रन्डियों और सवा सौ साजि+न्दों ने एक जुलूस निकाला, जुलूस नारे लगा रहा था।

÷÷हम कहाँ जायें।''

÷÷हम क्या करें।''

शहर के लोग इन बातों की अहमियत से बेख़बर तमाशबीन (दर्शक) बने रहे। जुमले फेंकते रहे। स्कूल की खिड़कियों से लड़कियों ने इस जुलूस का तमाशा देखा। जुलूस घूमता रहा। फिर यह जुलूस कई टुकड़ों में अलग हो गया। एक टुकड़ी कलक्टर के दरवाजे+ पर धरना देकर बैठ गई। दूसरी कांग्रेस के दफ्+तर पर, तीसरी पी.ए.सी. के दफ्+तर पर और चौथी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्+तर पर। जनसंघ के दफ्+तर पर धरना नहीं दिया गया था। मगर दोपहर होते-होते चन्द रन्डियों ने जन संघ के दफ्+तर पर धरना दे दिया।

तीसरे पहर को कलेक्टर ने उन रडिन्यों को हाजिर होने का हुक्+म दिया। रन्डियों ने कहना नहीं माना तो चुन-चुन के जवान और खूबसूरत रन्डियों को तमाम रन्डियों का नुमाइन्दा करार देकर पुलिस ने गिरफ्+तार कर लिया। उन नुमाइन्दों की रातें हवालात में नहीं गुजरीं, पुलिस के क्वाटरों में गुज+रीं।

तीसरी तारीख़ को रन्डियों ने शहर से भागना शुरू किया। शहर में किसी ने यह नहीं समझा कि यह कहाँ जा रही हैं....। यह रन्डियाँ महलों में जा रही थीं और देहातों में जा रही थीं।

चन्द होशियार दलालों ने एक और तरीका निकाल लिया था। एक-एक ने दो तीन रन्डियों से शादी कर ली। अब वह ब्याहता औरते थीं। पुलिस छापा मार कर उनके यहाँ से किसी को गिरफ्+तार नहीं कर सकती थी।

आरजू ने भी एक दलाल से निकाह कर लिया। नुसरतुल्लाह ने उसे सौ रुपये माहवार पर नौकर रख लिया। वह बाज+ार से उठकर कल्लू मंजि+ल में आ गयी। ÷÷कल्लू मंजि+ल'' और उसके पड़ोसियों को यह नहीं मालूम था कि वह शहर की मशहूर तवायफ़ है। वह तो एक ठेकेदार की बीवी है।

कुछ दिनों तक तो आरजू को यह घरेलू जि+न्दगी अजीब मालूम हुई। फिर धीरे-धीरे रिश्ते के भाई, खालू, चचा और फुफ्फा वगैरह आने लगे। घरेलू जि+न्दगी की इंसानियत का तिलस्म टूट गया।

नुसरतुल्ला ग्यारह बजते-बजते आ जाता और अज+ान होते-होते चला जाता। मुँह हाथ धोता। दुकान खुलती और दुकानदारी होने लगती और दस- ग्यारह बजे तक के लिये वह आरजू और उसके आरामदेह जिस्म और शोख मुसकराहटों को भूल जाता.... वह कल्लू तो ख्+ौर उसे याद ही न आता जो खुद उसी की वजह से... कैद बामशक्क़त भुगत रहा था।

शेख कलूट ने....सीख कबाब की एक छोटी-सी दुकान खोल ली थी। मगर उससे कहीं घर चलता है। वह भी ऐसे ज+माने में जब कीमतें तेज+ दौड़ने का मश्क कर रही हों। एक दिन वह नुसरतुल्ला के यहाँ गया।

÷÷क्या है।'' नुसरतुल्ला की पेशानी पर बल पड़ गये।

÷÷आजकल बड़ी परेशानी में गुज+र हो रहा है भैय्या।''

÷÷हम का करें?''

÷÷लड़की जवान हो गई है, ओकी फ़िक्र, अलग है।''

नुसरतुल्ला ने चन्द लम्हों तक जवाब नहीं दिया। कुछ हिसाब वगैरह करने लगा कलूट मुँह लटकाये बैठा रहा।

÷÷ऐसा करो तोरे वाले मकान में हमरे एक दोस्त किरायेदार हैं। लड़कियाँ को उहाँ नौकर रखवा दो, बाल बच्चे वाले आदमी हैं।''

÷÷अच्छा भैय्या।''

÷÷ई खत लेते जाओ।''

आरजू के नाम एक पुजर्+ा लेकर कलूट उसके यहाँ से उठ आया। दस रुपये माहवार तनख्+वाह और दोनों वक्+त का खाना और त्योहार पर कपड़ा लत्ता.... ऐसा कुछ बुरा तो नहीं हुआ। कलूट एक हद तक मुतमईन था।

शरीफ़न उसी रोज+ आरजू के घर पहुँच गयी। आरजू ने पहले अपने मियाँ के नाम नुसरतुल्ला का खत पढ़ा। ख़त पढ़ने के बाद उसने शरीफ़न का ज+ायजा लिया। उमर यही कोई तेरह-चौदह साल, करना हुआ। खूबसूरत जिस्म, बड़ी-बड़ी गहरी स्याह आँखें, खड़ी नाक, भरे-भरे होंट.....वह मुसकरा दी। उसकी माँ भी मुसकरा दी।

÷÷खाना पका लेती हो।'' आरजू ने पूछा

÷÷पुलाव कोरमा पकाने आता है।''

आवाज+ अच्छी है। आरजू की माँ ने सोचा, काश यह लड़की चार-पाँच साल पहले मिल गई होती..... एक ठण्डी सांस लेकर वह माज+ी के बारे में सोचने लगी।

÷÷अच्छा बावर्चीख्+ााने में जाओ। अम्माँ तुम्हें ख़ाना पकाना सिखा देगी।''

अब शरीफन को यह बताने की ज+रूरत थी नहीं कि बावर्चीख़ाना कहां है।

रात को जब नुसरतुल्ला आया और आरजू उसके सर में तेल डालने लगी तो उसने छूटते ही शरीफ़न के बारे में सवाल किया।

÷÷कैसी है''

÷÷मैं मान गयी आपकी निगाहों को।''

÷÷वाकई?''

÷÷क़यामत है मगर बेहद मासूम लड़की है।''

उस रात से नुसरतुल्ला उस बेहद मासूम लड़की के बारे में सोचने लगा। जो कुछ होना है कल्लू के आने से पहले हो जाये। मगर दिक्क़त यह थी कि शरीफ़न उसके आने से पहले जा चुकी थी। आरजू ने उसे बारहा रोकने की कोशिश की, मगर वह नहीं मानी।

÷÷नाहीं बाजी, बाबा अकेले हैं ना।'' वह यह जवाब देती, ख़ाना बांधती और चली जाती और फिर घर जाकर अपने बाबा से अपनी बाजी की तारीफ़ करती कि बाजी ऐसी है और वैसी है और यह है वह है।

शरीफ़न से मिलने के लिये मुहल्ले की लड़कियाँ आ जातीं। महताब तो बीड़ी की पत्तियाँ और कैंची लेकर अक्सर आ जाती। बैठकर पत्ती काटती रहती और शरीफ़न से गप लड़ाती और कभी-कभी आरजू भी उन गप्पों में शामिल हो जाती। कभी आरजू का कोई देवर आया हुआ होता तो वह महताब और शरीफ़न से मज+ाक करता और यह दोनों भी ....मज+ाक करतीं। कभी-कभी देवर साहब ज्+यादा मज+ाक के मूड में आ जाते तो महताब दौड़ कर कमरे में छुप जाती। दरवाज+ा बन्द कर लेती, सीना धक-धक करने लगता। शरीफ़न घर के लोगों से परदा नहीं कर सकती थी इसलिये बैठी रहती। कोई देवर उसे गुदगुदा जाता। कोई उसकी चोटी खींच लेता, कोई नन्दोई उसे आँख मारकर मुसकरा देता....और वह कभी सोचने लगती कि बाजी के कितने सारे देवर और नन्दोई हैं? ऊंह होंगे। हमें का! वह फिर काम में लग जाती। महताब चली जाती। कभी-कभी बाजी के देवरों और नन्दोइयों की ली हुई चुटकियों का वारदात के सन्नाटे में और तेज+ हो जाता और वह एक सिसकी लेकर तकिया में मुँह छुपा लेती और ख्+वामख्+वाह मुसकराने लगी।

÷÷भई आज हमारे साथ सिनेमा चलो'' आरजू ने एक रोज महताब से कहा।

÷÷कोई हो।''

÷÷बाबा से पूछ ले।''

शेख मदारन को क्या ऐतराज+ हो सकता था। आरजू के एक देवर के साथ सेकेन्ड शो का प्रोग्राम बन गया। आरजू की माँ की तबियत इत्तेफाक़ से कुछ ख़राब हो गयी। अब सवाल यह था कि माँ को अकेला कैसे छोड़ा जाये।

÷÷अरे जाओ, मैं मर नहीं जाऊंगी।'' माँ ने कहा।

÷÷नहीं अम्माँ।''

÷÷शरीफ़न रह जायेगी'' अम्माँ बोलीं ÷÷क्यों बेटी?''

÷÷बाबा से न कहा है न''

÷÷कहलवा देती हँू।''

आरजू का ÷÷देवर'' शेख कलूट से कह आया कि अगर उन्हें कोई ऐतराज+ न हो तो शरीफ़न आज वहीं रह जाये क्योंकि अम्माँ की तबियत ज+रा ख़राब है। शेख कलूट को भला क्या ऐतराज+ हो सकता था।

शरीफन घर रह गई। महताब आरजू और आरजू के देवर, तीनों सिनेमा देखने चले गये। सिनेमा से वापसी पर देवर नहीं आया। सिर्फ़ रोती हुई महताब आरजू के साथ वापस आई। आरजू उसे समझा रही थी।

÷÷इत्ती ज+रा-सी बात पर रोया नहीं करते पगली, यह तो।'' आरजू ने महताब के हाथ में दो रुपये का एक नोट थमा दिया। ÷÷अब घर जाकर सो जाओ, घबराने की कोई बात नहीं, कल फिर आना।''

वह महताब को उसके घर पहूँचा कर ÷÷कल्लू मन्जि+ल'' में आई तो वहाँ सन्नाटा था। अम्माँ सो रही थीं। नुसरतुल्ला भी सो रहा था और थकी हुई शरीफ़न भी सो रही थी और उसके तकिये के नीचे एक अठन्नी जाग रही थी।

आरजू कपड़े बदल करके लेट गई। वह भी कुछ थकन महसूस कर रही थी। एक वीराने में तीन घंटे चुपचाप गुज+ारना आसान काम नहीं था। यह दूसरी बात है कि वीराने में चुप-चाप बैठने के उसे चालीस रुपये मिले थे। पाँच तो महताब ले गई। बच्चे बीस, अब सुबह को माँ हिसाब लेगी। पच्चीस कह दूंगी।

सुबह को वह उठी तो शरीफ़न गर्दन झुकाये चुप-चाप बावर्चीख्+ााने में काम कर रही थी। वह बहुत थकी हुई मालूम हो रही थी। इतवार का दिन था। इसलिये नुसरतुल्ला भी गया नहीं था। शरीफ़न चाय बना लाई। नुसरतुल्ला उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराया। वह गुनगुना उठी। आरजू यूं बैठी रही जैसे उसे ख़बर ही न हो कि कौन सा तूफ़ान किस रास्ते से गुज+र गया है और क्या क़यामतें ढा गया है।

दोपहर हो गई और महताब नहीं आई। शरीफ़न बहुत हैरान हुई। फिर उसने सोचा कि शायद उसे कोई काम हो। कोई काम नहीं था। वह बावर्चीख़ाने के बगल वाली कोठरी में एक खटोला डालकर लेट गई।

नुसरतुल्ला दबे पाँव कोठरी में दाख़िल हुआ। शरीफ़न की आँखें बन्द थीं वह उसके सिरहाने बैठ गया। शरीफ़न ने आंखें खोल दीं। सहमी हुई हिरनी की तरह ग़ज+ाली (हिरन) आँखें इधर- उधर देखने लगीं।

÷÷देख शरीफ़नी, मैं तोसे शादी कर लूंगा। फिर तुझे अपने घर ले चलूंगा....'' शरीफन रोने लगी। बस साल-सवा साल की तो बात तो है। कल्लू के आते ही मैं तुझसे शादी कर लूंगा, तेरे बगैर मैं जि+न्दा नहीं रह सकता, तू मुझे अपना मियाँ समझ।

यह मियाँ वाली बात शरीफ़न की समझ, उसकी बड़ी-बड़ी स्याह आँखें उठीं और नुसरतुल्ला के चेहरे पर एक लख्+त के लिये रुक कर फिर झुक गईं। उसे वह तमाम बातें याद आ गयीं जो नफ़ीसन ने उसे बताई थीं। वह शरमा गई....

नुसरतुल्ला आता रहा। शरीफ़न उसकी बीवी थी। शरीफ़न ने यह भी नहीं सोचा कि नुसरतुल्ला और आरजू में क्या तआल्लुक है। इतवार की रात में वह उसके साथ थोड़ी देर रहकर आरजू के पास क्यों चला जाता है.... कभी यह ख्+याल आया भी तो उसकी मासूमियत ने उसे धुड़क दिया अरे तोसे क्या, ऊ कहीं रहें, उनकी बीवी तो तू ही है।

मुहल्ला की कई लड़कियाँ आरजू के साथ सिनेमा देखने और फिर लौटकर आरजू के यहाँ नहीं आई। शरीफ़न ने इस सवाल पर भी कभी नहीं सोचा कि यह लड़कियाँ सिनेमा के बाद आख्+ािर यहाँ आना ही क्यों छोड़ देती है....।

कई अजनबी लड़कियां भी आरजू के यहां आईं। जिस दिन कोई अजनबी लड़की और उस देवर या नन्दोई में मज+ाक होता। वह भागकर कमरे में चली जाती। फिर वह देवर या नन्दोई भी चला जाता और शरीफ़न घर के काम में लग जाती।

पहले तो वह अजनबी लड़कियों के बारे में काम करते वक्+त सोचा भी करती थी। यह लड़कियाँ उसके मुहल्ले की लड़कियों की तरह नहीं होती थीं। उनके कपड़े अच्छे होते थे। यह खड़ी-खड़ी बोली में बातचीत करती थीं। उनके दुपट्टे सिरों पर नहीं होते थे, गले में पड़े होते थे। यह पान नहीं खाती थी, लिपिस्टिक लगाती थीं। बस घर में आये, नकाब उतार कर फेंक देतीं। आरजू के देवर या नन्दोई से मज+ाक करती, भागकर कमरा में जा छुपी और फिर नकाब पहन कर चली जाती।

उन अजनबी लड़कियों में से कोई न होता तो यह, देवर आरजू और शरीफ़न से गन्दे-गन्दे मज+ाक करते। अब तो शरीफन ने इन ग़न्दे मज+ाकों पर शर्माना छोड़ दिया था। पहले तो आरजू के तुर्की ब तुर्की जवाब पर शरीफ़न सन्नाटे में आ जाती थी। फिर उसने सन्नाटे में आ जाना तर्क कर दिया और फिर खुद भी तुर्की ब तुर्की जवाब देने लगी।

ये देवर अक्सर शरीफ़न को अठन्नी-चवन्नी देते रहते थे। फिर एक रोज+ जब आरजू अस्पताल गई हुई थी तो देवर ने उसे पाँच रुपये दिये और फिर उसे हैरान होने का मौका भी नहीं मिला....... और फिर यह सिलसिला चल पड़ा। उसे रुपये मिलते पहले तो वह घण्टों रोया करती थी। फिर उसने रोना छोड़ दिया। वह आरजू के देवरों को छेड़ने लगी।

तनख्+वाह के रुपये तो वह कलूट को दे देती। मगर यह ऊपरी आमदनी वह अपने बक्स में रखती जाती थी।

शरीफ़न को यह बात नहीं मालूम थी कि कल्लू दुकान से घर आते वक्+त किस चाव से उसकी शादी के बारे में सोचा करता था। किस एहतेमाम से जहेज+ खरीदा जाता किस एहतेमाम से शादी होती.... और अगर उसे यह बातें मालूम भी थीं तो वह उन बातों को भुला चुकी थी। कल्लू उसे ज+रुर याद आता था। उसे अपने भाई का इन्तेज+ार था।

शरीफ़न की परेशानी उस वक्+त बढ़ी जब उसे ख्+वामख्+वाह मतली होने लगी। हर चीज+ की महक ख्+ाराब मालूम होती। बस कोरे बरतनों को देखकर तबियत न मालूम कैसी-कैसी होने लगी और फिर जब तक वह उसे दाँतों से पीस न डालती तस्कीन न होती।

कलूट को तो इन बातों की ख़बर नहीं हुई। मगर आरजू की माँ ने भांप लिया। कलूट के यहां कहलवा दिया गया कि आरजू की माँ की तबियत बहुत खराब है। इसलिये शरीफन दो-चार रोज+ यहीं रहेगी। कलूट के लिये इस पैगाम में कोई ख़ास बात नहीं थी। ऐसे पैग़ाम तो अक्सर आते रहते थे।

एक दाई आई। उल्टी सीधी मालिश होने लगी। तरह-तरह की दवायें खिलाई जाने लगीं। फिर हर तरफ, फिर हर तरफ जैसे अन्धेरा छा गया.... मालूम मालिश से छुटकारा मिल गया। कोरे बर्तनों को देखकर तबियत ने ललचाना तर्क कर दिया। मगर वह जिस्म बिलकुल गल गया। जिसके कसाव पर चन्द महीने आरजू हैरान रह गई थी। और वह बड़ी-बड़ी स्याह आँखें हलकों में धँस गयीं और चेहरा का गेहूंँ जलकर स्याह पड़ गया।

फिर भी शरीफ़न झेल गई। महताब न झेल सकी। उसके घर में एक माँ थी। वह पहचान गई ÷÷ई का किये कलमँुही?'' माँ ने माथा ठोंका, शेख मदारन तो सन्नाटे में आ गये। ÷÷के का है ई?'' मां ने सवाल किया। महताब ने कोई जवाब नहीं दिया। वह रोती रही ÷÷डूब मर बेशर्म।''

महताब ने माँ को मश्विरा कबूल कर लिया। रात को चुपके से दरवाज+ा खोल कर वह बाहर आ गई। हर तरफ़ अंधेरा था। दूर व नज+दीक से कुत्तों की आवाज+ आ रही थी। सामने ही खारे पानी का कुंआ था। वह कुएँ की पक्की जगत पर बैठकर अंधेरे में अपने घर की तरफ देखने लगी। जिस का दरवाज+ा खुला हुआ था और जिसकी कोठरी में टीन के एक बक्स में चाँदी के दो तीन जेवर उसकी बारात के मुन्तजर थे।

वह चन्द लम्हों तक बैठी रही। मरना आसान काम नहीं होता। खुदकशी बुजदिली है। मगर एक ऐसी बुजदिली जो एक मखसूस क़िस्म की जुर्रात का मुतालबा करती है.... फिर कुएँ की जगत ख़ाली हो गयी?

सुबह को मुर्ग की बांग के साथ जब महताब की माँ की आँख खुली तो महताब की खाट ख़ाली पाकर उसका माथा ठनका। उसने जल्दी से शेख मदारन को जगा दिया।

महताब की तलाश शुरू हुई। मगर महताब कहाँ थी। मुहल्ले में बात फैल गयी कि शेख मदारन की लड़की बाप को गुल देकर किसी के साथ निकल गई! कई लोगों ने कहा कि उसके लक्षण ही ऐसे थे।

इत्तेफ़ाक से उसी रोज एक घबराई हुई बिल्ली कुएँ में गिर गयी मुहल्ले के लोगों ने कुएँ को साफ़ करना शुरू किया। मस्जिद का कुआँ था डोल पर डोल पानी निकलने लगा।





हीरोइन

राही मासूम रजा



÷÷मुझे पानी चाहिए।'' लड़के कहा।

÷÷मुझे पेड़ पर से उतारो।'' लड़की ने कहा।

÷÷जब तुम्हें उतरना नहीं आता तो तुम चढ़ी क्यों थीं।''

÷÷एक फ़िल्म में देखा था।'' लड़की ने जवाब दिया।

÷÷मगर मैं किसी फ़िल्म का हीरो नहीं हूँ।'' लड़के ने कहा।

÷÷तो तुम्हारी कार ठीक पेड़ के नीचे क्यों रुकी?'' लड़की ने सवाल किया। ÷÷वैसे मैं भी किसी फिल्म की हीरोइन नहीं हूँ।''

÷÷अच्छा?''

÷÷हाँ। लड़की बोली। ÷÷मैं बी.ए. में पढ़ती हूँ।'' ÷÷छुट्टियाँ गुज+ारने बाबा के घर आयी हूँ।''

÷÷अच्छा।'' लड़के ने यूं कहा जैसे उसकी समझ में यह बात आ गई हो कि लड़की पेड़ पर चढ़ी क्यों बैठी है।

÷÷तुम्हारे कालिज में पेड़ पर चढ़ना सिखाया जाता है क्या?''

÷÷तुम पागल हो।'' लड़की ने कहा। ÷÷कहा न कि कई फ़िल्मों में यह देखा है कि जब तक हीरोइन पेड़ पर नहीं चढ़ती हीरो नहीं आता।''

÷÷तो तुम हीरो की राह देख रही हो?''

÷÷तुम्हें गाना आता है?''

÷÷न''

÷÷तब तुम हीरो नहीं हो सकते।'' लड़की बोली। वह उदास हो गयी। उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखों में धूल उड़ने लगी। वह पेड़ के नीचे आ गयी। ÷÷तुम्हारी गाड़ी भी पुरानी है। तुमने मेरे पेड़ के नीचे गाड़ी क्यों रोकी? ऐसी फटीचर गाड़ी लेकर हीरो बनने का शौक चराया है?''

÷÷गाड़ी खुद से रुक गई है।'' लड़के ने इधर कुछ कहा।

÷÷तुमने सैकेण्ड हैंड खरीदी थी?''

÷÷फोर्थ हैड''

÷÷क्यों?''

÷÷क्योंकि मैं नयी गाड़ी नहीं खरीद सकता।''

÷÷क्यों नहीं खरीद सकते?''

÷÷मेरे अब्बू एक मिनिस्टर से साझे में बिजिनेस कर रहे थे। वह मिनिस्टर हार गया। वह तो अब गवरनरी कर रहा है। और मेरे अब्बू जेल में हैं।''

÷÷अच्छा'' लड़की फिर पेड़ की तरफ बढ़ी।

÷÷पानी।'' लड़के ने कहा।

÷÷तुम कोई हीरो हो कि मैं तुम्हारी कार के लिए पानी लाऊं?''

लड़की बिगड़ गयी। ÷÷गाड़ी यहाँ से हटा लो। हीरो आयेगा तो गाड़ी कहां रोकेगा?''

÷÷हीरो नहीं आयेगा।''

÷÷क्यों नहीं आयेगा!'' लड़की ने एक शाख पकड़ते हुए कहा।

÷÷वह आजकल बेरोजगार है।''

लड़की हँस पड़ी। ÷÷तुम बिल्कुल पागल हो। हीरो सदा बेरोजगार होता है।'' यह कहकर लड़की गाने लगी।

यहाँ बदला वफा का बेवफाई के सिवा क्या है।

लड़का जमीन पर उकडू बैठ गया...

÷÷ओ मेरे हीरो रे हीरो रे हीरो।'' लड़की ने मुँह के दाहिनी तरफ दाहिने हाथ की दीवार बनाकर आवाज+ लगायी।

÷÷ज्+यादा चीखोगी तो आवाज+ फंस जायेगी।'' लड़के ने कहा।

÷÷हीरो को पुकारने से आवाज+ नहीं फंसती।''

÷÷मगर तुमने ही तो कहा था कि तुम हीरोइन नहीं हो बल्कि छुट्टियां गुजारने नान के यहां आयी हो।''

÷÷हां''

÷÷इसलिए तुम्हारी आवाज फंस सकती है।''

÷÷मैंने यह नहीं सोचा था।''

÷÷वैसे तुम्हारे नाना क्या करते हैं?''

÷÷मेरे नाना को कुछ करने की क्या ज+रूरत है । ÷÷लड़की फिर बिगड़ी।'' ÷÷मेरे नाना बहुत बड़े जमींदार है।''

÷÷जमींदार?''

÷÷तुम तो ऐसा चौंके जैसे जमींदार होना नामुकिन हैं?''

÷÷दस-बारह बरस पहले सुना था कि जमींदारी खत्म हो गयी।''

÷÷हट झूठे।'' लड़की ने बड़े प्यार से कहा। जैसे वह कोई बच्चा हो। ÷÷खत्म तो बस कहानी होती है। आये भी वह गये भी वह खत्म फसाना हो गया.... लड़की ने फिर गाना शुरू कर दिया।

÷÷अजीब पागल लड़की है।'' लड़का बड़बड़ाया।

÷÷मेरा नाम उम्मे सलमा है।'' लड़की ने कहा।

÷÷बड़ा फटीचर नाम है। बिलकुल नहीं चलेगा।''

÷÷मेरे नाना ने रक्खा था।'' लड़की ने बुरा माने बगैर कहा। ÷÷मेरे नाना से मिलोगे?''

÷÷हाँ'' लड़का बोला।

लड़की फिर पेड़ से उतर आयी।

÷÷नाना ने पूछा कि तुम कौन हो तो क्या बताओगे?''

÷÷कह दूंगा कि मैं मैं हूँ।''

÷÷लड़की खिलखिला कर हँस पड़ी।'' मैं तुम्हारा नाम मैं है।

÷÷वह फिर हंसने लगी।'' उसकी आँखों से पानी बहने लगा यह तो इसके आगे पीछे क्या है?

आगे पीछे?

÷÷हाँ, तुम मैं हुसैन हो या मैं नाय!''

÷÷ओह!'' लड़का भी हँस पड़ा। मेरा नाम मैं नहीं है।

÷÷अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हारा नाम मैं है।'' लड़की बुरा मानकर फिर पेड़ पर चढ़ गयी।

÷÷मेरा नाम मनमोहन है। माँ-बाप पंजाब के थे। मैं यू.पी. का हूँ।

÷÷मुझे पंजाब से नफ़रत है।''

÷÷क्यों?''

÷÷लोग कहते हैं कि उन्होंने पंजाब में दूसरी शादी कर ली है।''

÷÷पगली'' एक लड़के ने दूर से आवाज+ लगायी।

÷÷खड़ा तो रह हरामजादे।'' लड़की पेड़ से कूद कर उस बच्चे के तरफ लपकी।'' अभी नाना से कहती हूँ कि वह तेरे बाप को भी पंजाब भेज दें।

÷÷यह लड़की कौन है।'' लड़के ने एक गाँव वाले से पूछा।

÷÷पगली है।'' गाँव वाले ने कहा। ÷÷इसके मियाँ ने पाकिस्तान में दूसरी शादी कर ली है।''

÷÷और यह बच्चा कौन था?''

÷÷इसी का बेटा था।''

÷÷मगर .......''

÷÷इसी गाँव का कोई आदमी इसका बाप है।''

लड़का उस आदमी का मुँह देखता रह गया। वह पानी मांगना भी भूल गया। उम्मे सलमा अब भी उस बच्चे के पीछे भाग रहीं थी। और वह उसे पगली कह-कह कर चिढ़ा रहा था। और हँस रहा था।

(साभार- सारिका पत्रिाका)

Thursday, December 2, 2010

Saturday, October 30, 2010

डा. राही मासूम रजा के कथा साहित्य में विवाह के प्रति बदलते दृष्टिकोण


सलीम आय. मुजावर



नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्राता है, वह सब कुछ है, जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होती है, नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धी है, रिद्धि है और वह सब कुछ है, जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, संकटों का निवारण करती है, यदि नारी को श्रद्धा की भावना अर्पित कि जाए तो वह विश्व के कण-कण को स्वर्गीय भावनाओं से ओत-प्रोत कर सकती है। नारी एक संतान शक्ति वह आदिकाल से सामाजिक दायित्व को अपने कंदे पर उठाये आ रही है। जिन्हें केवल पुरुषों के कंधे पर डाल दिया जाता, तो वह कब का लड़खड़ा गया होता, भौतिक जीवन की लालसाओं को उसकी पवित्राता ने रोका और सीमाबद्ध करके उसे प्यार की दिशा दी। नारी के विषय में पुराणों में यह श्लोक अंकित है-
विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रिायां समस्ता सकला जगत्सु।
त्वथैकया पूरितामन्वयेतत का तैं स्तुति स्तव्यपरा परोकिता।।
अर्थात्- हे देवी! संसार की समस्त विधाएं तुमसे निकली है और सब स्पृहाएं ही स्वरूप है, समस्त विश्व एक तुम्हीं से पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए? जहां तक नारी शब्द का प्रश्न है वह नर की ही तरह नृ धातु से बना है, इसका अर्थ क्रियाशील रहने वाला नर है और क्रियाशील रहने वाली नारी भी है ऋग्वेद के दशम मण्डल के 159 में सुक्त में शची का गौरव वर्णित है, शची का कथन है-
अहम् कुतूरहम मूर्धाऽमुग्रा विवाचिनी ममेदनु क्रंतु पतिः सोहानाया उपाचरेत।।
अर्थात् मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूँ, मैं स्त्रिायों में मूर्धन्य हूँ, मैं उच्चकोटि की वक्ता हूँ मुझ विपयणी की इच्छानुसार मेरा पति आचरण करता है।
शेष भाग पत्रिका में..............















Tuesday, April 20, 2010

मैं एक फेरीवाला के सन्दर्भ में

- डॉ० आदित्य प्रचण्डिया



कविता सम्पूर्ण चेतना की अखण्ड अभिव्यक्ति है, वह खण्डित व्यक्तित्व की बौ(कि शब्द लीला मात्र नहीं है। असम्बद्ध शब्द जाल और व्यक्ति वैचित्रयवाद की कारीगरी से पाठक को उलझाने और वास्तविक कवि कर्म में बृहद्न्तर हैं। कविधर्म कोरे फ़ैशन से भिन्न होता है। नया भावबोध या नई अभिव्यक्ति के चिल्लाने मात्र से काव्य का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। किसी काव्य की क्षमता उसमें चित्रित अनुभूति गहनता और शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता में निहित है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काव्य में हृदय के सहज उद्रेक और उसके साथ निश्छल अभिव्यक्ति का योग अनिवार्य है।१ राही का कवि-मन अपने को समझने के साथ भविष्य के प्रति आशापूर्ण है। उसकी कविता व्यापक सत्य की व्यंजना करने की चेष्टा करती है। वह सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक है। उसमें बौ(किता अनुभूतियों के रूप में आत्मसात्‌ होकर अभिव्यक्त हुई है और संवेदनशीलता एक अनिवार्य गुण के रूप में विद्यमान है। राही स्वयं कहते हैं- कविता नई या पुरानी नहीं होती। नई या पुरानी होती है कवि की चेतना। व्यक्ति और समाज तथा समाज और प्रकृति के सम्बन्धों की चेतना। इस चेतना के लिए यह ज+रूरी नहीं कि जि+न्दगी को उसके हर रूप में जीकर देखा जाये। क्योंकि यह तो हुआ अनुभव। अनुभव का एक अपना महत्त्व है, पर अनुभव चेतना का बदल नहीं है क्योंकि दूध का जला हमेशा छाछ को फूँक-फूँक कर पीना चाहता है। कभी-कभी फिर से मुँह जलाने को जी चाहने लगता है। यही अपने मुँह को बार-बार जलाने वाला कवि है। मुंह गया जहन्नुम में, पर जिन्दगी को गर्म-गर्म पीने की बात ही और है।''२

राही की कविता युग की विषण्णुता, छल-छद्म भरे वातावरण और स्वार्थपरता की समान प्रतिक्रिया है। जीवन के कठोर संघर्षों और गम्भीरतम रहस्यों का उद्घाटन करने में राही की लेखनी तत्पर रही है। उनकी कविता पौरुष और कोमल दोनों सीमान्तों को स्पष्ट करती है। बाह्यजगत्‌ और मनोजगत्‌, ग्राम-जीवन और नगर-बोध, क्रान्तिदर्शी दृष्टि और मर्मभेदी दृष्टि, स्वप्न दर्शन और यथार्थ चित्रण,उत्पीड़न के प्रति आक्रोश और शोषितों के प्रति करुणा, व्यंग्य, कटाक्ष और विनोद सभी का संश्लेषण और समंजन देखने को मिलता है। राही जीवन रस के आस्थावान कवि हैं। वह वादों से अलग रहकर, स्वतंत्र डगर पर चलने वाले स्वतंत्र चेता प्राणवान कलाकार है। जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में वह आशा का सन्देश देते हैं। उनके काव्य में सर्वत्र ऊर्जा और मार्दव, आशा -निराशा, मृत्यु-भय और जिजीविषा के धूप-छाँही रंग देखने को मिलते हैं पर अन्ततःउनकी आस्था, आत्म-विश्वास, मानव चेतना की उज्ज्वल आभा में अडिग विश्वास उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जिससे वह दैन्य, अवसाद, पीड़ा और निराशा की छाती पर पाँव टेककर खड़े हो जाते हैं, आग उगलते ज्वालामुखी को अपने हाथों से मँदने की तत्परता दिखाते हैं और अंध का पूर्ण सागर के पार नव चेतना का आलोक देखते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में राही की कविता की एक अपनी अलग स्थिति हैं। उनकी कविता आधुनिकता की प्रचलित अवधारणा अथवा उसके प्रतिमानों को चुनौती देने वाली कविता है।

मैं एक फेरीवाला' संग्रह में राही द्वारा सन्‌ १९५५ से सन्‌ १९७३ तक लिखित पचपन रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह की कविताओं में राही ने अपना काव्यादर्श प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की कविताओं के विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि राही ने अपनी काव्यभूमि पा ली है, अपनी कविता का प्रकृत मार्ग खोज लिया है। कवि समाज के सामान्य व्यक्तियों से निराला होता है। उसके जीवन-यापन के तौर-तरीके ही कुछ भिन्न होते हैं और इसी कारण उसके सोचने-समझने के रंग-ढंग साधारण व्यक्ति से भिन्न होते हैं। दरअसल युग के जीवन-दर्शन में उस युग की दृष्टि, उसका अपना मन्तव्य, बिम्ब और फिर उससे प्रभावित उसकी प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कवि असाधारण संवेदनशील होने के कारण अपने युग की इन प्रभावित प्रक्रियाओं और आयामों से बहुत दूर तक प्रभावित होता है। और फिर अपना जीवन दर्शन बनाता हैं जीवन दर्शन के अन्तर्गत जीवन-दृष्टि, जीवन-बिम्ब, जीवन-प्रक्रिया और जीवन-मूल्य सिद्धान्त माने जाते है। वास्तव में जीवन-दर्शन से व्यक्ति का जीवन बिम्ब ;जीवन जीने का लक्ष्यद्ध बनता है और फिर उससे उसकी जीवनदृष्टि जीवन जीने की दृष्टि बनती है, तद्नुसार उसके जीवन की प्रक्रिया सम्पादित होती है और फिर उसके जीवन-मूल्य ;सिद्धान्त निर्मित होते हैं।

राही के जीवन-बिम्ब युग-सापेक्ष और कुछ विरले ही थे। इसी कारण उनकी जीवनदृष्टि और उसकी प्रक्रिया बड़ी दु्रतगामी बनी रही। उनके जीवन की कला अपूर्ण ही थी। वे तो हर वक्त मगन रहना चाहते थे, किन्तु प्रारम्भ से ही उन्होंने जीवन से संघर्ष किया, अतः वह मगन रहने की प्रवृत्ति' ग्राम्भीर्य और चिन्तनशील रूप धारण करती चली गई। वास्तव में राही जिन्दगी जीने का ढंग जानते थे, जिन्दगी से भागना उन्होंने नहीं सीखा था। राही के शब्द-शब्द में विश्वसनीयता और जीवन-संघर्ष के रूप में उनका जीवन-दर्शन स्पष्ट झलकता है। इस जीवन-दर्शन से प्रभावित कवि परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्षरत रहना अधिक आवश्यक समझता है। परिवर्तन समाज-मानव का विकास है और इस परिवर्तन के लिए मरना कोई मरना नहीं होता। अपितु कवि राही तो मृत्यु'में एक नई राह देखता है -

मेरा जिस्म तो मर जाएगा/लेकिन सब्जा शबनम के पैमाने लेकर/आब्ला-पा लोगों की राहों में बैठेगा/लेकिन चाँद हर एक घर में लोरी गाएगा/ लेकिन सूरज हर-एक दरवाज+े पर जाकर दस्तक देगा/वादे-सहर खुशबू को कन्धों पर बिठलाकर दुनिया दिखलाने निकलेगी/फिर मैं कैसे मर सकता हूँ ?३

कवि की प्रबल जिजीविषा उसे पराजय स्वीकार नहीं करने देती, मृत्यु-भय उसे आतंकित नहीं करता, अपितु मुरझाए जीवन को पल्लवित करना चाहता है। वह मौत के जबड़े पकड़ जिन्दगी का अर्क पीने का अभिलाषी है।

कवि मनुष्य की सम्पूर्ण आत्मा को सक्रिय और गतिमान बनाता है और वह तभी ऐसा कर सकता है जब कविता केवल भावों का सहज उच्छलन न हो, वह चिन्तन, मनन और दर्शन की भूमि पर अधिष्ठित हो। ÷मैं एक फेरीवाला'संग्रह की कविताओं को देख-पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि राही भावनाओं में बिहार करने के साथ-साथ मानस-मंथन कर विचार-मणियों को उद्भासित करने वाले मनीषी भी है। उन्होंने जगत्‌ की विषमताओं, मानव -हृदय और आत्मा को व्याकुल बना देने वाली गूढ़ समस्याओं पर विचार किया है और यथाशक्ति उनका उपचार करने के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। धर्मवीर भारती कहते हैं अन्दर के गहरे सैद्धान्तिक विश्वास ;स्थाई जीवन दर्शनद्ध जब केवल वैचारिक न रहकर जिन्दगी जीने की पूरी शैली बन जाते हैं और अपने को उन तमाम संस्कारों से सम्बद्ध कर लेते हैं जो बचपन से कैशोर्य तक खानपान और आसपास के परिवेश से मिले हों-तो एक खास किस्म का तेवर व्यक्तित्व में आ जाता है, वह तेवर ओढ़ा हुआ नहीं होता। वह समूचे व्यक्ति की स्थाई अभिव्यक्ति बन जाता है-आचरण में भी लेखन में भी। उनकी कविता का पाठक अगर इस तेवर को पकड़ ले तो उनकी कविता एक अजीब कशिश पैदा कर देगी उनके मन में। उनका डिक्शन, उनके छन्द, उनकी उपमाएँ, उनके बिम्ब सब में यह तेवर जान की तरह बसा हुआ है।''४ राही का वह तेवर बहुत मुलायम, बहुत नाजुक संवेदन वाला है। यथा-

पोर पोर में मेंहदी की मीठी खुशबू के छल्ले पहने/बाल सँवारे/चंचल आँखों के पैरों में काजल की जंजीरें डाल/ जब वह दरवाजे तक आई/दरवाजे पर कोई नहीं था/धूल किसी के नक्शे-कदम से खेल रही थी।५

लगता है कोई पद्माकर या मतिराम आधुनिक मुहावरे में वाल्टर डिला मेयर के उस काव्य-स्तर को छू रहा है। जहाँ समय थम जाता है और एक क्षण की घटना समय से परे की फन्तासी बन जाती है।६

आधुनिक युग यांत्रिकता, औद्योगीकरण, भौतिक समृ, द्धि हृदय की संकीर्णता और मूल्यों के विघटन का युग है। बाह्‌य सम्पन्नता के पीछे आत्मा की दरिद्रता झांक रही है ऊपरी तड़क-भड़क के नीचे मानवता कराह रही है। विज्ञान ने जिस स्वर्णिम आभा का विश्वास दिलाया था, वह मुलम्मा सिद्ध हो रही है। लोगों के नेत्रों पर से भ्रान्ति का पर्दा उठ रहा है, इस मोहभंग की स्थिति में निराशा, कुंठा, संत्रास का वातावरण बनना स्वभाविक हैं। आधुनिक जीवन की विकृतियों, विसंगतियों और विद्रुपताओं से कवि राही का तेवर चोट खाकर, पलटकर, तनकर खड़ा हो जाता है, धधकता हुआ जब उनके मूलभूत विश्वासों पर कोई चोट करता है या उन पर वह संज्ञा लादने की कोशिश करता है जो उनके सन्दर्भ में बुनियादी तौर पर अधूरी या असंगत है। ÷गंगा और महादेव' कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बजायें जाग रही हैं।

और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूँ-

मेरा भी एक सन्देस है/मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुँह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दोः/महादेव/अब इस गंगा को वापस ले लो/यह ज+लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बन-बनकर दौड़ रही है। ७

इस रचना में एक वर्तमान सामाजिक या सियासी वैषम्य पर भरपूर चोट है वरन्‌ इसलिए कि एक अनन्त संघर्ष जो कविता के व्यापक मानवीय सत्य और बाहर के वैषम्यपूर्ण पूर्वाग्रह युक्त समाज में व्याप्त मीडियाकर यथार्थ में चलता आया है उसे जब भी किसी तेवर वाले कवि-कलाकार या चिन्तक ने पूरे आन्तरिक बल से चुनौती दी है, बेलाग बेहिचक चोट की है तब अक्सर उसको उसका अजीब मूल्य चुकाना पड़ा है। हाथी के नीचे कुचला गंग, सूली पर चढ़ा मन्सूर, देश से निर्वासित बायरन और शैली, अमरीका से बहिष्कृत चार्ली चैपलिन, रूस में कुचला हुआ पास्तरनाक। ये सिर्फ़ चन्द उदाहरण हैं। धर्मवीर भारती के शब्दों में राही कम्बख्त जब तन कर अपने आन्तरिक कवि सत्य को अपने चुल्लूभर गंगाजल-लहू को अपने आख़िरी हथियार की तरह लेकर उठ खड़ा होता है तो मुझे अपने इस प्यारे दोस्त पर जितना फ़ख्र होता है उतनी फ़िक्र भी होने लगती है।''८

कवि राही की बादल कविता मानवीकरण का मनोरम रूप है। यहाँ कवि का अन्तर्मन अपने वैयक्तिक रूप में खुलकर स्पष्ट हो पड़ता है। पानी के कुछ प्यासे कतरे बस्ती-बस्ती, सहरा-सहरा होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं। यथा-

बादल क्या हैं/पानी के कुछ प्यासे कतरे/घर से निकले/ बाल उलझे/तलवों में छाले/बस्ती-बस्ती/सहरा-सहरा/होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं।९

ऐसे निरूपण से स्पष्ट है कि यहाँ भावक की नितान्त वैयक्तिक प्रतीति को वाणी प्रदान करते हुए प्रकृति-सन्दर्भ को संजीवित किया गया है।

हृदय की व्याप्ति सीमित नहीं है परन्तु परिधि सौन्दर्य के सम्मुख वह असीमता भी सीमित हो जाती है, तब सौन्दर्य कितना असीम, कितना अनन्त और कितना विराट है। हृदय के प्रसार के साथ ही सौन्दर्य भी विस्तृत होता जाता है वह पानी की एक ऐसी बूँद है जिसकी तृष्णा नहीं मरती जो नहीं पीता वह तो प्यासा रहता ही है, पर जो पीता है उसकी प्यास का तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऐसा ही प्यासा है यह कवि राही मासूम रजा। प्यास और पानी'कविता में राही कहते हैं -

मैंने जब भी जन्म लिया है/अपने को तनहा पाया है/अपने को प्यासा पाया है/पानी/पानी/इस नन्हे से लफ्+ज+ में कितनी मौसीकी है/पानी, पानी/मैंने जब भी जन्म लिया है/इन लफ्+जों पर गौर किया है।''१०

हृदय की अतृप्त पिपासा ही इस कविता की मूल विशेषता है। हृदय क्या है ? विविध भावनाओं का रसभरा कोष ही न। इसीलिए केन्द्रीय ध्वनि ऐक्य होने पर भी आशा, आकांक्षा, असूया, उत्साह, उत्कंठा, उन्माद, त्रास, क्षोभ, दैन्य, निर्वेद, भ्रम, विश्वास, विषाद आदि भावोर्मियाँ यत्र-तत्र उभरी दिखाई देती है। हाँ, कवि के आशावादी आग्रह के कारण निराशा, भय, वितृष्णा आदि को कहीं भी स्थान नहीं मिल सका है। आत्मविश्वास की एक गम्भीर छाया समस्त कविता पर छायी है।

भय, आतंक, ऊब और अकेलापन के बोध की प्रवृत्ति राही की कविता में विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। देश के औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि और आबादी का व्यापक पैमाने पर स्थानान्तरण हुआ है। आज के प्रबुद्ध कवि और कलाकार नगरों की इस अपार भीड़ में जो अधिकतर उखड़े लोगों की भीड़ है, अपने को खोया और डूबा हुआ पाते हैं। राही को ऐसा लगता है कि वे बिल्कुल अकेले हो गए हैं उनकी परछाईयां खो गई हैं - रात के जगमगाते हुए शहर की भीड़ में/मेरी परछाइयाँ खो गई है कहीं/गैर है आस्माँ/अजनबी है जमीं/मैं पुकारूँ किसे/चल के जाऊँ कहाँ/मेरी परछाइयाँ खो गई रात के जगमगाते हुए शहर में।''११

धर्म निरपेक्षता, देशभक्ति, भावात्मक एकता वगैरह के नाम पर खड़ी बोली की उर्दू और हिन्दी दोनों शैलियों में ढेरों ग़जलें, नज्में, कविताएं लिखी गई है। इनाम अकराम भी मिले है। मगर बहुत कम ऐसी पंक्तियाँ मिली है। उनमें जहाँ कवि या शायर ने उन्हें सतही जेहन से दुनियाबी समझ बूझ के साथ न लिखकर उबलकर अपनी समूची आत्मा के साथ लिखा हो और ना समझों के मुँह पर मार दिया हो। लोग खतरा बचाकर चलते हैं, चारों ओर की फिजां देखकर बात करते है, राही बेसाख्ता सट पड़ता है। बिना किसी चीज की परवाह किए। अपनी कविता अपने सीने पर लिखकर सीना संगीनों से अड़ा देता है।१२ राही की ग़जले पढ़ने पर एक ऐसे शख्+स की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसने अपनी जिन्दगी में बहुत गम उठाये हैं मगर जो इनके कारण पूरी तरह टूट नहीं गया है। अतिशय परहित चिन्तन, संघर्षशील व्यक्ति का आत्मलोचन और ऐसे व्यक्ति की अमरता व्यंजित हुई है जो सुनसान जंगल में मुस्कराते हुए लौ की मानिंद डगमगाते-लड़खड़ाते कदम आगे बढ़ाते हुए चल रहा है -

इस अंधेरे के सुनसान जंगल में हम डगमगाते रहे, मुसकुराते रहे/लौ की मानिन्द हम लड़खड़ाते रहे, पर कदम अपने आगे बढ़ाते रहे''१३

राही की मायूसी में फ़ानी की मुकम्मल शिकस्त का एहसास नहीं मिलता। उनकी मायूसी की तुलना मीर की मायूसी से की जा सकती है जो एक लिविंग वायर' की तरह है -जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे, रोज मरते रहे, रोज जीते रहे/जिन्दगी भी हमें अजमाती रही, और हम भी उसे अजमाते रहे।''१४

राही के दिलो-जिगर में इतनी ताकत है कि उसे किसी सहारे की जरुरत नहीं है, वह अकेला होते हुए भी जिन्दा है-आज अपने कमरे में किस कदर अकेला हूँ/सिर्फ दिल धड़कता है, हाँ मैं फिर भी जिन्दा हूँ।''१५

राही के जख्मों की आवाज है कि वह मौत के वीरानों से लौट आया है फिर अपने नए अफसानों को बनाने के लिए कोई शेर और कोई नज्म उसे पुकारती है - ऐ मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन/लौट आया हूँ मैं फिर मौत के वीरानो से/फिर कोई शेर, कोई नज्म+ पुकारे मुझको/फिर मैं अफ्साने बनाऊँ तेरे अफ्सानों से।''१६

राही की शायरी की बुनियादी लय उदासी की है। यह उदासी हमारे युग की सबसे बड़ी और जीवित वास्तविकता है। राही कहते हैं कि इन नज्मों को उदासी का दिया जलाकर पढ़िये।''१७

राही के अश्‌आर बहर और मुहावरे के ऐतबार से तसल्ली बख्श है। बहर के कम ही झोल उनके यहां मिलेंगे। राही अपनी शायरी के विषय में कहते है - मेरी शायरी हिज्र' और प्यास' और तनहाई' की शायरी है और शायद यही कारण है कि मेरी इमेजेज' उर्दू के दूसरे प्रगतिशील कवियों की इमेजेज' से अलग है।''१८

राही ने लिपि के मामले में जो रुख अपनाया कि उर्दू और हिन्दी दो अलग साहित्य नहीं हैं और देवनागरी के माध्यम से दोनों की ऐतिहासिक एकता अब स्थापित हो जानी चाहिए।१९ राही को उर्दू के तरक्की पसंद और गैर तरक्की पसंद महानुभावों के विरोध का सामना करना पड़ा। राही की ग़जलों में नए इंसानी रिश्तों का बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी चित्रण हुआ हैं। इन रिश्तों में मीर और गालिब से आगे के सामाजिक परिवेश का क्रिस्टेलाइजेशन है- कमरे की कब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए/खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा/मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी/भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था।''२०

हिन्दी खड़ी बोली काव्य बहुत धीमे-धीमे विकसित हुआ था, लेकिन द्विवेदी युग से निकलकर माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन' के रहस्योन्मुख राष्ट्रीय काव्य के द्वार से होते हुए छायावाद को पार कर नई कविता के दौर में आकर अनेक दिशाओं में अनेक आयामों में विकास करता गया। उर्दू ने फ़ारसी का आधार स्वीकार कर लिया था। दरबार के मंजे हुए डिक्शन को उसने अपना लिया था। उसे किसी ब्रज या अवधी से वैसा विरोध नहीं सहना पड़ रहा था। अतः भाषा शैली और अभिव्यंजना का मँजाव उसमें हिन्दी के खड़ी बोली काव्य से बहुत पहले आ गया। लेकिन दरबार और अभिजात्य वर्ग की जेहनियत और डिक्शन से बहुत अधिक बँधे होने के कारण खास मोड़ पर आकर लगने लगा कि विषयवस्तु और शैली-रूप दोनों में एक खास ढाँचे में उर्दू कविता बँध गई है। राही की कविता की एक खास स्थिति है इन दोनों के बीच, और वह स्थिति ऐसी है कि उसे समझ लेने पर ही हिन्दी कविता से उनके इस काव्य संकलन को उचित स्थान पर सही ढंग से जोड़ा जा सकेगा। जहाँ उर्दू की कविता का बँधाव बाँझपन के बिन्दु पर पहुंच गया था, वहाँ से राही ने एक नया रास्ता तलाश करने की कोशिश की।२१

राही स्वतंत्रता के पहले प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन से जुड़कर साहित्य में आए। बाद में वामपंथी आन्दोलन निष्फल हुए। भास्वर स्वर में दहाड़ने वाले कविगण चुप हो गए। जिस प्रकार कमरे में बहुत से लोग खूब जोर से वक्तव्यबाजी कर रहे हों और अकस्मात्‌ मौन हो जाएँ तब जो सन्नाटा कमरे में छा जाता है, वह अजीब भयावना-सा सन्नाटा होता है और उसके बाद जो व्यक्ति पहली बार घबरा कर वह सन्नाटा तोड़ता है वह बहुत आहिस्ते से दबे स्वर में आसपास वालों से बोलता है। उस दहशत भरे सन्नाटे में जिन लोगों ने धीमे स्वर में आहिस्ते से बोलना शुरू किया उनमें से एक थे राही मासूम रजा। राही को यह धीमे बोलना सीखना पड़ा। क्योंकि कविता अब तकरीर से बातचीत बन गई थी। पहले उनपर मीर अनीस का डिक्शन सवार था ;उसी पर उन्होंने शोध की थीद्ध पर बाद में उन्होंने अपने लिए नया डिक्शन खोजा। काव्य के नए उपकरण खोजे और उसमें एक नए संकट के समक्ष उन्होंने अपने को पाया। राही की एक गहरी स्थापना है कि मजहब और संस्कृति दो अलग चीजें हैं। दोनों एक दूसरे को प्रभावित कर सकती है, पर संस्कृति का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है और मजहब के दायरे में उसे बांधना नहीं चाहिए। राही की मान्यता है कि भारत में रहने वाला हर आदमी, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, उसकी जड़े भारतीय ही है। ऐसे वातावरण में राही एक ओर उर्दू की सारी कट्टर धर्मान्धता को खुलेआम चुनौती देने का साहस जुटाते हैं तो दूसरी ओर जब संकीर्ण धर्मान्ध हिन्दू उन्हें मुसलमान कहकर निर्वासित करना चाहते हैं, विच्छिन्न करना चाहते है तो वह डरते नहीं, दबते नहीं, ललकार कर कहते हैं कि तुम उस गंगाजल का क्या करोगे जो मेरी नसों में लहू बनकर बह रहा है, जो गंगा के रूप में महादेव की जटाओं से ही निकला है।२२

राही ने उर्दू को अस्वाभाविक बनाने वाले इस्लामिक प्रतीकों का मोह छोड़ा। उन्होंने महापुरुष हुसैन को न लेकर हिमालय की ऊँचाइयों में अकेले भटकने वाले योगीशंकर को अपने आदर्श नायक का प्रतीक-पुरुष चुना। उनकी प्रेम-कविताओं की आलम्बन बनी राधा- शाम भी राधा के ख्+वाबों की तरह खामोश है बेजबां है। और उनके अकेलेपन में उन्हें याद आता है राम का वनवास, हम भी है वनवास में लेकिन राम नहीं। हर राही आये। अब हम को समझाकर कोई घर ले जाये।'' और वह अपना देश और अपने संस्कृति का अपना बेटा होने का यह अहसास उनमें कितना तीखा है, वसीयत'कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- मुझे लें जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना/वो मेरी माँ है/वह मेरे बदन का जहर लेगी/मगर शायद वतन से दूर मौत आये/तो मेरी यह वसीयत है/अगर उस शहर में छोटी-सी एक नदी भी बहती हो/तो मुझको उसकी गोदी में सुलाकर उससे यह कह दो कि यह गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है/वो नदी भी मेरी माँ, मेरी गंगा की तरह मेरे बदन का जहर पी लेगी।''२३

इस प्रकार राही वाद' से नहीं बँधे हैं वे अपने अनुभव और आवेग के प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं उनकी सम्पूर्ण दृष्टि समाज केन्द्रित है। वह जब जिस धारा को या जिस रेखा को लोकमंगल के लिए श्रेयस्कर मानते हैं, स्वीकारते हैं। उनका मानवतावाद किसी वाद का पूरी तरह अनुसरण स्वीकार नहीं करता वह ÷चयन' करता है, समन्वय करता हैं भावुकता और बौद्धकिता दोनों में समन्वय करते हुए जीवन और स्थिति को भोगकर अनुभवगम्य होकर राही ने रचनाएँ रची है। वे अतीत के प्रति आसक्त तो है पर वर्तमान के अनुभव जगत्‌ को कहीं नहीं भूलें हैं। फलतःएक तनाव-बिन्दु बराबर बना रहा है जो राही को नया अथवा समसामयिक बनाए रख सका है। राही की कविता प्रयत्न-साध्य नहीं, भाव-प्रेरित है, उसमें प्रतिभा है, कला की परख है, कल्पना का वैभव है और सबसे बड़ी बात उसमें मानव के प्रति एक व्यापक सहानुभूति और कर्मण्यता की अदम्य लालसा है। जीवन और जगत्‌ से गृहीत-विधि चित्रों को राही ने भावों की अनूठी लेखनी से मनभावन रंगों में रंग डाला है, और ये ही रंग उनके जीवन दर्शन को भी अभिव्यक्त करते है। इसकी केवल राही के काव्य से गुज+रकर अनुभूति ही की जा सकती है।



सन्दर्भ-सूची

१. डॉ० शिवकुमार शर्मा, हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ ५८१-५८२

२. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, कवि की ओर से, पृष्ठ १७

३. वही, मैं एक फेरीवाला,कविता संग्रह में संकलित कविता-जिन्दगी पृ. २९

४. वही, मैं एक फेरीवाला, भूमिका, पृष्ठ ७-८

५. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-एक पल, एक सदी, पृष्ठ ५७

६. वही, भूमिका, पृष्ठ ८

७. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-गंगा और महादेव, पृष्ठ ६०

८. वही, भूमिका, पृष्ठ ९

९. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-बादल,पृष्ठ ३०

१०. प्यास और पानी, मैं एक फेरीवाला, पृष्ठ ४२

११. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-दीपावली, पृष्ठ ८२

१२. वही, पृष्ठ ९

१३. वही,कविता संग्रह में संकलित-ग़ज+ल पृष्ठ २५

१४. वही, पृष्ठ २५

१५. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-तनहाई, पृष्ठ २२

१६. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज, पृष्ठ २३

१७. वही, पृष्ठ १९

१८. वही, कवि की ओर से, पृष्ठ १७

१९. वही, भूमिका, पृष्ठ १०

२०. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज,पृष्ठ २३

२१. वही, भूमिका, पृष्ठ ११-१२

२२. वही, पृष्ठ १३-१५

२३. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-वसीयत, पृष्ठ ४७





Sunday, November 22, 2009

राही मासूम रजा और आधा गाँव


- प्रो० जोहरा अफ़जल




राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे

अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है।

राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत्‌ में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने निश्चित रूप से भारतीय जीवन का एक और पहलू उजागर किया है।

राही अपने गाँव गंगौली से, वहाँ के लोगों से वहाँ के कण-कण से प्यार करते हैं। उपन्यास को पढ़ने पर पता चलता है कि राही गंगौली की मिट्टी की गन्ध में, कीचड़ और गोबर में, गाय और बैलों में, प्राकृतिक शोभा में उतने ही रमते हैं जितने गंगौली के लोगों में। राही भारत की परम्परागत साझा संस्कृति और विरासत के प्रबल समर्थक थे। वे धर्म की राजनीति करने वालों के सदैव विरोधी रहे। उन्होंने आधा गाँव में यह साफ़ कर दिया कि धर्म किसी राष्ट्र की स्थापना का आधार नहीं हो सकता। धर्म और राजनीति का रिश्ता तेल और पानी जैसा है। यदि भारत में

धर्म को राजनीति से जोड़कर सत्ता प्राप्त करने की चेष्टा की गई तो इसके भयानक परिणाम होंगे। राही ने धर्म और जाति की राजनीति करने वालों की कड़ी आलोचना की है। वह हर तरह की संकीर्णता और कट्टरता के सख्त विरोधी रहे, जीवन भर एक सही भारतीयता हिन्दुस्तानियत की खोज करते रहे।

आधा गाँव की कथा गंगौली गाँव के शिया मुसलमानों के परिवारों की है जहाँ अन्य जाति और धर्म के लोग भी रहते हैं। राही ने इसे आंधे गांव की कहानी कहा है पर यदि इसकी गहराई में जाकर देखें तो यह आधे की नहीं, सारे गांव की कहानी है बल्कि यदि पूरे भारत की कहानी कहा जाय तो अनुचित न होगा।

राही ने अपने लगभग सभी उपन्यासों में आने वाले नये समाज की प्रवृत्तियों को पहचाना और अपने लेखन का विषय बनाया तथा उन तमाम समस्याओं का भी चित्रण किया हैं। लेखक आधा गाँव में सपरिवार स्वयं मौजूद रहता है और कहानी का आरंभ भी उसने अपने बचपन से ही किया है। बाल्यावस्था में न समझ आने वाली बातें जिन्हें आज वह खूब समझाता है उनका चित्रण करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आधा गाँव में मध्यवर्गीय जीवन और उस समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों एवं समस्याओं को उकेरा गया है।

आधा गाँव एक आँचलिक उपन्यास है पर इसमें कोई एक कथा नहीं है। राही विभिन्न पात्रों के साथ उनकी अलग-अलग कथा लेकर चलते हैं किन्तु विभिन्न पात्रों तथा इन पात्रों की कहानियों में विभिन्नता होते हुए भी ये एक सुर में बँधे हुए हैं तथा कथानक में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। जिस समय में इस उपन्यास की रचना हुई और जिस समय की यह कथा है, उस समय शिक्षा की दृष्टि से देश पिछड़ा हुआ था। नवयुवकों को रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़ना पड़ता था। राही ने आधा गाँव के माध्यम से अनेक प्रश्न पाठक के सम्मुख रखे हैं, ऐसा करने के लिए उन्होंने काल्पनिक पात्रों एवं कथाओं का आश्रय लिया है।

पाकिस्तान के निर्माण के प्रश्न को गंगौली गाँव के हर व्यक्ति की मानसिकता से जोड़ कर सोचने और उस पर विचार करने पर राही ने विवश किया है। गाँव में किसी को भी पाकिस्तान से सहानुभूति नहीं है। गंगौली के मुसलमानों के स्वतन्त्रता से पूर्व खुशहाल जीवन और स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ की दयनीय स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, राही ने। उन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को नहीं स्वीकारा, भारत-पाक के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया, पर इसका जो सामाजिक प्रभाव पड़ा उसका अत्यन्त सजीव चित्र प्रस्तुत किया। ÷मुस्लिम लीग' की राजनीति पर जितना सशक्त प्रहार राही ने किया उतना अन्य किसी लेखक की रचना में दिखाई नहीं देता।

भारत और पाकिस्तान का बटवारा राजनीतिक ही नहीं सामाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी भी है। गंगौली जैसे गाँव के मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देने के बाद भी पाकिस्तान नहीं गये। मिगदाद तो पाकिस्तान जाने से साफ़ इन्कार कर देती है-हम ना जाए वाले हैं कहीं ! जायें ऊ लोग जिन्हें हल-बैल से शरम आती है। हम त किसान है, तन्नू भाई। जहाँ हमरा खेत, हमरी जमीन -वहाँ हम...... 1 तन्नू पाकिस्तान का विरोध करते हुए कहता है - नफ़रत और खैफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज+ मुबारक नहीं हो सकती ...२

आधा गाँव में समाज के दो रूपों के यथार्थ को राही ने बड़ी बेबाकी से दर्शाया है -एक भारत विभाजन से पूर्व का समाज और फ़िर विभाजन के बाद का। पाकिस्तान बनने की मांग से पूर्व गंगौली गाँव के हिन्दू तथा मुसलमान आपस में सौहार्द पूर्वक रहते थे, भले ही वे दूसरे के यहां खाने-पीने से परहेज करते थे पर मन में कोई नफ़रत या मन मुटाव न था। मुसलमान दशहरा के लिए चन्दा देने में पीछे न रहते। जहीर मियाँ ने मठ के बाबा को पाँच बीघे जमीन माफ़ कर दी, फुन्नन मियाँ ने भी मन्दिर बनवाने के लिए ज+मीन दी थी। ऐसे मुसलमान परेशान थे, सोचने में असमर्थ कि अचानक मुसलमानों के लिए अलग देश की आवश्यकता क्यों पड़ गई। उनके सम्मुख एक बहुत बड़ा प्रश्न देश के बटवारे को लेकर उठ खड़ा हुआ। राही धर्म के नाम पर देश को या देशवासियों को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में मैंने दंगों पर रोना बन्द कर दिये है क्योंकि मुझे लाशों को धर्मों के आधार पर बाँटने की कला नहीं आती। मैं केवल यह देखता हूँ कि नागरिक मरा पड़ा है। एक बाप, एक भाई, एक पति, एक माँ, एक बहन, एक बेटी, एक परिवार भरा पड़ा है। घर, हिन्दू या मुसलमान या सिख, हरिजन, या ब्राह्मण नहीं होते। घर तो घर होते हैं।''३

उनकी यहीं भावना आधा गाँव में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। राही साम्प्रदायिकता के विरु( एक आदर्शवादी उपन्यासकार की भाँति अपनी भूमिका निभाना नहीं भूले। उन्हें विश्वास है कि भारत में हिन्दूओं का राज हो जाने पर मुसलमानों पर कोई आपत्ति नहीं आयेगी। यही बात वह आधा गाँव' के पात्र फुन्नन मियाँ के मुख से कहलाते हैं- हां-हां, त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दु कहि रहियों जैसे हिन्दु सब भुकाऊ है कि काटलीयन। अरे ठाकुर कुंवरपाल सिंह त हिन्दू रहे। झगुरियों हिन्दु है। ऐ भाई, ओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे, काहे को कि ऊ शिया लोग और तबर्रा पढ़त हएं, त परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उट्ठी और ऊं ताबूत उट्ठा। तेरे जिन्ना साहब हमरो ताबूत उठाये न आये।'यह बात राही ने एक साधारण व्यक्ति के मुख से कहलाकर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिक दंगे-फ़साद तो पढ़े-लिखे, शिक्षित राजनेताओं का काम है साधारण जन को इसमें कोई रुचि नहीं।

जिस प्रकार मेरी गंज आंचल के उपेक्षित जीवन को उसकी समस्त कुरूपता को मानवीय स्तर पर फणीश्र्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में चित्रित किया है उसी प्रकार राही मासूम रजा ने पहली बार अपने ही गाँव गंगैली के शिया मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का बड़ा ही मार्मिक चित्र आधा गाँव' में प्रस्तुत किया हैं जितना यथार्थ चित्र राही ने मुसलमानों का किया है उतना इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में कहीं देखने को नहीं मिलता।

आधा गाँव में स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद के गंगौली गाँव का चित्रण है जो उस समय का जीता जागता प्रमाण है - जहाँ स्वार्थी अैर पद्लोलुप नेताओं का अत्यन्त घिनौना रूप दिखाया गया है। उस समय सम्पूर्ण भारत ऐसी ही विसंगतियों का शिकार था। राही ने बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास किया है। जातिवाद का आधार लेकर जो राजनीति की जाती है उससे समाज का हित कभी नहीं हो सकता। वह एक प्रगतिशील यथार्थवादी साहित्यकार थे, इसीलिए उनके उपन्यास आधा गाँव में सामाजिक यथार्थ का रंग चटख है।

आधा गाँव में जो कुछ भी घटित होता दिखाया गया है वे घटनाएं केवल गंगौली गाँव की नहीं थी बल्कि पूरे भारत में ऐसी ही स्थिति थी। राही का आधा गाँव उपन्यास बहु आयामी उपन्यास है। कोई भी विषय ऐसा नहीं जो इनकी दृष्टि से अछूता रह गया हो। पाकिस्तान का निर्माण देश का विभाजन इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु नहीं है फिर भी वह केन्द्रीय वस्तु से इतनी जुड़ी हुई है कि उससे अलगाने में कठिनाई होती है। इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु है समय की गति। समय ही आधा गाँव का नायक है। राही के अनुसार - यह कहानी न कुछ लोगों की है, न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के भले बुरे पात्र अपने को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे है। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय की ही। यह गंगौली में गुजरने वाले समय की कहानी है। कई बूढ़े मर गये, कई जवान कई बच्चे जवान हो गये .... यह कहानी है उन खण्डहरों की जहाँ कभी मकान थे और यह कहानी उन मकानों की जो खण्डहरो पर बनाये गये हैं।४

यह उपन्यास जहाँ एक ओर अभिजात्य मुस्लिम समाज का चित्र प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर आजादी के बाद भारत में तेजी से होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित करता है। राही मासूम रजा एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बड़ी निर्भीकता से राजनीति पर कड़ा प्रहार किया है। इन्होंने बिना किसी झिझक और भय के यथार्थ को अपने साहित्य में दर्शाया है। उनकी इसी निर्भीकता, निडरता और सच्चाई को देखकर धर्मवीर भारती यह कहने पर विवश हुए- अगर मैं ईश्वर पर विश्वास करता होता तो ऐसे क्षण में यही प्रार्थना करता कि प्रभु इस दुस्साहसी की सेवा करना। क्योंकि इसकी सच्ची आवाज में तुम ही बसते हो। मगर किससे प्रार्थना करूँ, अगर ईश्र्वर है तो ये समाज में व्याप्त मिथ्या के खतरनाक व्यूह भी तो उसी की वजह से होगें।५

राही ने अपने सभी उपन्यासों - आधा गाँव, टोपी शुक्ला', ओस की बूँद', हिम्मत जौनपुरी', असन्तोष के दिन, कटरा बी आरजू एवं दिल एक सादा कागज में समाज में व्याप्त समस्त जटिल समस्याओं का चित्रण किया है। जिनमें सबसे बड़ी समस्या है व्यक्ति और समाज की असमानता। वे मानते हैं कि सारी समस्याओं के पीछे व्यक्ति का अपना स्वार्थ होता है। उनके अनुसार जब तक मनुष्य के भीतर ये स्वार्थ रहेंगे तब तक इन समस्याओं से पीछा नहीं छूट सकता। ÷आधा गाँव' में व्यक्ति की इसी समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है राही ने।

हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में भी कई प्रकार के सामाजिक भेद हैं। हड्डी की शुद्धता, रक्त की शुद्धता पर भी बहुत जोर दिया जाता है। आर्थिक रूप से चाहे व्यक्ति कितना भी सम्पन्न हो पर यदि उसकी हड्डी में दाग़ है तो उसे समाज में वह स्थान कभी नहीं मिल सकता जो शुद्ध हड्डी वाले निर्धन व्यक्ति को मिलता है। अशरफुल्ला खाँ को अपने पठान होने पर गर्व है -हम ठहरे पठान लोग। हमारे यहाँ तो दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई और पैमाना ही नहीं होता। दोगली हरकतें करना शेखों और नीच जात वालों का काम है।''६ सैफुनिया से विवाह करने के पश्चात्‌ मिगदाद अपने पिता की खरी हड्डी का चैलेंज करते हुए कहता है बाकी हम्में त इहो मालूम है कि हमहूं सैय्यद ना है। बाकी जना रहा कि अब्बा ई बतिया बिल्कुल ही भूल गये हैं। ऊ त इकद्म्मे से सैय्यद हो गये हैं। और अब त जब से लड़के अब्बा की शेरवानी पा गये हैं तब से अउरो मारे इतराए लगे हैं।७ युवा पीढ़ी में अपने बड़ों के प्रति आदर की भावना कम होती दिखाई दे रही है। गंगौली गाँव में आये दिन पिता-पुत्र, सास-बहू के झगड़े होते रहते हैं। हर परिवार की यही कहानी है।

गंगौली में शिया मुसलमानों के अतिरिक्त राकी मुसलमानों और जुलाहों के घर भी हैं पर उनके साथ शिया लोगों का मेलजोल नहीं है। इस उपन्यास में ऐसे भी चित्र है जिनमें शिया पुरुष हिन्दुओं-भंगी या चमार जाति की स्थितियों से सम्बन्ध रखते है, परन्तु शुद्धता का ऐसा आड्म्बर है कि हिन्दू मरीज की नब्ज देखने के बाद हकीम साहब स्नान करते दिखते हैं। राही ने अपने आधा गाँव में सामाजिक जीवन के जिस पक्ष को अधिक उभारा है वह यही, पुरुषों का नीच जाति की स्थितियों के साथ अनैतिक यौन सम्बन्ध है। मोहर्रम के चाँद के दिखते ही शिया लोगों की शोक सभाएं शुरू हो जाती हैं। इसी प्रकार की एक सभा में सितारा और अब्बास एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं। अब्बास अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय का छात्र है अल्हड़ सितारा के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर उसे भूल जाता है। प्रेम का परिणाम केवल सितारा को ही भुगतना पड़ता है। नारी की स्थिति का अत्यंत सजीव चित्र राही ने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। स्त्री-पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों को भी आधा गाँव में खुलकर दिखाया गया है। सभी पात्र शरीर के भूखे हैं। उन्हें बस शरीर मिलना चाहिए चाहे वह शरीर रिश्ते की बहन का हो, नौकरानी का हो या फिर किसी भी नीच जात का। राही ने परिवारों की, समाज की इन्हीं छोटी-छोटी समस्याओं को एक बड़ी समस्या बनाकर प्रस्तुत किया है। इन्होंने साम्प्रदायिक विभीषिका का चित्रण जितने साहस पूर्ण ढंग से किया है, शायद ही कोई अन्य इतने साहस का प्रदर्शन कर सकें।

इसमें सन्देह नहीं कि साठोत्तरी उपन्यासकारों में राही एक निराला व्यक्तित्व रखते है, जिनमें विद्रोह कूट-कूट कर भरा है। उनके उपन्यासों में नए पुराने द्वन्द्व की नई भंगिमाएं दृष्टिगोचर होती है। आजादी के बाद एक नया नेतृत्व वर्ग विकसित हुआ। इस नये वर्ग के उदय के पीछे कोई परम्परा नहीं, शिक्षा नहीं, सम्पन्नता नहीं। यदि कुछ है तो वह है वोटों का जोड़-तोड़। वोटों का यह जोड़-तोड़ समाज के एक साधारण व्यक्ति को समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्य बना देता है। वह व्यक्ति खुद ही सरकार होता है और सरकार और जनता के बीच सेठ भी। आधा गाँव में एक स्वर जो लगातार सुनाई देता हैं, वह है मुसलमानों का देश प्रेम। वे भी इसी देश का, राष्ट्र का एक हिसा हैं। वे भी अपने घर, अपने गाँव और देश की मिट्टी से उतना ही प्रेम करते हैं जितना अन्य जाति के लोग या देशभक्त को हो सकता है। राही ने भारतीय मुसलमानों की व्यथा और कथा को बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

राही मासूम रजा ने अपने उपन्यास आधा गाँव में व्यक्त समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया है। वह चाहते थे कि पाठक स्वयं उचित और अनुचित का निर्णय करे। उन्होंने तो केवल अपने उपन्यास द्वारा मानव मन की कोमल एवं पवित्र भावनाओं को उजागर करके सत्य एवं सद्वृत्तियों को जाग्रत करने का प्रयास किया है। वे एक साहित्यकार थे जिन्होंने कथा साहित्य के क्षेत्र में एक नये क्षितिज की खोज की और हमें एक ऐसे संसार में परिचित कराया जिसे हम गहराई से नहीं जानते थे। उनके तेवरों को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता।





सन्दर्भ-सूची



१. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० २२६

२. वही, पृ० २६३

३. राही मासूम रजा, लगता है बेकार गये हम, पृ० २२६

४. आधा गाँव, पृ० ११-१२

५. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, भूमिका से, पृ० ९

६. आधा गांव, पृ० १०३