Saturday, February 7, 2009

तूफान से पहले


कहीं अब्रू पे हैं महराबे इबादत के शिकन
कहीं मिम्बर (इमाम) की जुबाँ पर है बगावत के सुखन (क्रांति की बातें)
कहीं आवाजें अजाँ में हैं वह पैगामे दुहुल (संवाद देने वाले ढोल)
सुनके जिनको सफेदा (नमाजी) में पड़ी है हलचल
कहीं मीनारों पे दुश्मन के लिए दारे हैं
कहीं तकबीर में तलवार की झंकारें हैं
गैज (क्रोध) में कौसरो-तस्नीम (स्वर्ग-मुख) के अफ़साने कहीं
घेरा डाले हुए तस्बीह के सौ दाने कहीं
उबले पड़ते हैं वह सिजदे के निशानों को है जोश
खानकाहों (आश्रम) की खमोशी भी है तूफांबदोश (तूफानी रात)
कहीं फारां (एक पहाड़) से फरहरे की हवा आती है
कहीं कैलाश से डमरू की सदा आती है

तुम उठो तुम भी उठो, पास उठो दूर उठो
फिर समन्दर को मथो, जहर का प्याला पीलो
पाठशाले हैं परेशान सदा देते हैं
मदरसे चाके-गिरेबाँ (हृदय-विदारक) सदा देते हैं
एक कयामत है बपा (उपस्थित) धर्म के ईवानों (धार्मिक स्थान) में
एक हंगामा है इस्लाम के बुतखानों में
यू तो हर काम में हर लख्ते-जुदा हैं दोनों
लेकिन इस अहदे फिरंगी से खफा हैं दोनों

अपनी तकदीर बना लेने के तदबीर तो है
फिक्र मजहब की नहीं है, गमे जागीर तो है

निकली ही जाती है पैरों के जो नीचे से जमीं
उउर आये हैं जमीनों पे यह अफलाके-नशीं (आसमान पर रहने वाली)
फसले-गुल (फूलों की फसल) ही गरज है न चमन से मतलब
काम मजहब से है इनको, न वतन से मतलब
बात बिगड़ेगी तो हैरत के शरीक आप भी हैं
फस्ल काटेंगे तो मेहनत के शरीक आप भी हैं
जो मसर्रत (आनन्द) हो मसर्रत के शरीक आप भी हैं
इश्क कीजे तो मुहब्बत के शरीक आप भी हैं
जाहिलों से वह भला बोले भी तो क्या बोले
उनकी महफिल हो तो कुरआन जबाँ भी खोले
बिगड़े यह लोक, वह परलोक, अगर यह न रहें
गंग गीतमा का हर श्लोक,अगर यह न रहें

अब फिरंगी की हर एक चाल से हैराँ हैं यह
अपनी बिगड़ी हुई बाजी से परेशाँ हैं यह
शाह मजबूर है, पेशानी पे हैं शातिर के बल
घर में फर्जी के चले आए हैं गोरे पैदल
इनका दिन खत्म है अब रात हुआ चाहती है
थोड़ी ही देर में अब मात हुआ चाहती है

उट्ठो कि नहीं वक्त आराम का लोगो
दम घुटता है नाकूस (शंख) का दामन की हवा दो
दीवारें हरम गिरती हैं सँभले तो सँभालो
इस सुबहे फिरंगी का यह अंधेर भी देखो
रहने भी जो पायेंगे तो सहरा में रहेंगे
या रामो रहीम अब से कलीसा (गिरजा) में रहेंगे

चन्दन की लकीरों के लिए तरसेंगे माथे
बाजारों मे जल जायेंगे इन वेदों के नुसखे
ऐ धर्म के रखवालो, ये गोरे हैं ये गोरे
सोना ये चुरा लायेंगे मंदिर के कलस से
उट्ठो कि यह मौका नहीं आराम का लोगो
तलवार चले, नाम लो अब राम का लोगो

बंगाल के हारे हुए जादू की कसम है
पंजाब के टूटे हुए बाजू की कसम है
मैसूर के उलझे हुए गेसू (केश) की कसम है
दिल्ली की सिसकती हुई खुशबू की कसम है
हर गोशे से तज+ईन (श्रृंगार) चमन के लिए उट्ठो
मजहब के लिए उठो, वतन के लिए उट्ठो

कह दो कि बस और न समझाइये हमको
यह आपकी तहजीब नहीं चाहिए हमको
हम खूब समझते हैं तिजारत की नजर को
गाजा (धर्म स्थान) की जरूरत नहीं काशी की सहर को

इस घर में अंधेरा है कि तुम रोशनी बेचो
चोरी भी करो घूम के पहरा भी तुम्हीं दो
दो जहर भी तिर्याक (विपनाशक) की दुकान भी खोलो
जिस राह से आए हो उसी राह से जाओ
नफरत कही करोगे न मुहब्बत ही करोगे
ताजिर (व्यापारी) हो बहरहाल तिजारत (व्यापार) ही करोगे

हवा के दोश पर यह बात चल पड़ी
हर एक जर्रा चौंक उठा यह क्या हुआ
हर इक किवाड़ कोई खटखटा गया
हर एक दिल यह बोल उठा बुरा हुआ

कटारें एतिकाद (आस्था) की निकल पडीं
ख्याले-आखरत (परलोक का ध्यान) ने फैसला किया
घरों में गूँजने लगीं कहानियाँ
बहन ने भाइयों से तजकिरा (जिक्र) किया

पतीलियों में भाप गूंजने लगी
बस अब अनाज डालने की देर है
बहार और जुनूं (उन्माद) की दास्तान पर
लहू का रंग उछालने की देर है

हर एक दिल धड़क रहा है इस तरह
कि जैसे तब्लेजंग (रणभेरी) की पुकार हो
कि रास्ते में जंग की खबर लिए
यह जैसे कोई तेज रौ सवार हो

कि शामे लखनऊ की वह द्रौपदी
बिरहना (व्यथित) है हर एक रहगुजार पर
यह केश ढूढ़ती है भीम की गदा
चलो तलाश में फरायजदार (कर्त्तव्य) पर

हर इक हवेली का दर खटखटा रही है हवा
उठो कि खत्म वह लुत्फे हजा में शाम (प्रसन्नता भरी शाम) हो
छिड़ा था जो कभी काबेरी के किनारे पर
यह किस्सा आज लबे गोमती तमाम हो

सुनो कि नूर की अब एक भी लकीर नहीं
अवध का एक सितारा था वह भी डूब गया
सुनो कि आज से अख्तर है बरजे खाकी में (मिट्टी में मिल गया)
कटा-कटा जो किनारा था वह भी डूब गया

बस इक चिराग जो बाकी व सद (शत-प्रतिशत) खराबी है
वह एक चिराग है मर्हूने बज्मे जुल्मते (भयानक अंधेरी रात के हाथों गिरवीं) शव
निगाहें आईना हैरान, दस्ते शाना (प्रतापी हाथ) है शल (अपाहिज)
उलझ चुकी है वह जुल्फे-दाजराहे तलब (सँवारे हुए काले बाल)

तुलूए मेहृ तो पाबन्दे इन्तजार नहीं
जुनूं ही चाहे तो तै हो यह वादिए वहशत (डरावनी घाटी)
नहीं तो हद्दे नजर तक कहीं बहार नहीं

हयात सुर्खिये याकूत (एक प्रसिद्ध रत्न) की नहीं कायल
हयात बहते हुए खून को सुर्ख मानती है
ख्याल आये तो सीने में दिल धड़क उठे
हयात सिर्फ यही इक जबान जानती है

जुनूं है कौन-सी मंजिल में यह तो उस पर है
जमीन घर भी है जिन्दां (जेल) भी है जहन्नम भी
अगर शिगूफे (कलियाँ) हों तैयार मुस्कराने पर
तो काम आए चमन में खुलूसे (निर्मलता) शबनम भी

रबिश-रबिश (बाग के भीतर के पतले रास्ते) पे हैं गोरों के पांव के धब्बे
यह बाग वह है जहां चांदनी उतरती थी
शिगूफे मलते थे आँखें सहर की आहट पर
यहाँ पे रात की जुल्फें सियाह सँवरती थीं

झुकी निगाहें कि आलम पनाह आते हैं
नुजूले रहमते परवरदिगार (परमात्मा की कृपा होती है) होता है
हुजूर इब्ने शहंशाह (शहंशाह का पुत्र) जिल्ले सुब्हानी (अच्छा शासक)
यह एक तीर है सीने के पार होता है

निगाहें उठती हैं मसनद-नशीं (मसनद पर बैठा हुआ) हैं तो कोई यह मकतए गजले इश्रते (आनन्द) शबाना है
यह ताजो तख्त यह जरी कबा (जरी का अंगरखा) यह शाने नुजल (आतिथ्य सत्कार)
यह अपने वक्त का सबसे बड़ा दिवाना है

यह उस पे खुश है कि कल ही की तरह आज भी लोग
मेरे हुजूर कसीदों की नजर लायेंगे
बताये कौन यह उसको कि साहवाने सुखन (काव्यमर्मज्ञ लोग)
दरोगे मसलहत (गलत सलाह) आमेज (मिलने वाले) लेकर आयेंगे

गम गम गम तबला यह बोला
सा रे गा मा पा धा नी सा
घुँघरू ने ये ठोकर खाई
या छन छन छन शीशा टूटा

रोयें रोयें कितना रोयें
सारंगी घबराकर बोली
मौसी की (संगीतज्ञ) ने लाख पुकारा
तानपुरे ने आँख न खोली

रक्कासाएं (नर्तकी) नाच रही हैं
टूटे जैसे जिस्म किसी का
सोच रहा है कुलकुले मीना (सुराही से शराब निकालने का स्वर)
किसको दे इस बज्म में पुरसा (महफिल में किसका हाल पूछे)

यह किसका दरबार लगा है
सब ही जिन्दा सब ही मुर्दा
राही शहर आशोब (शहर की मरसिया) सुनाओ
कैसी गजल और कैसा कसीदा

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इन्तखाब'' (दुनिया में अकेला)
दिल्ली जरूर है पे वह दिल्ली नहीं है यह
हँसती तो है जरूर मगर अपने हाल पर
अब वैसे बात पर हँसती नहीं है यह
अगर फिरदौस बररूऐ जमीन अस्त
हमीं अस्त-ओ-हमीं-अस्त-ओ हमीं अस्त

कहीं मोमिन की सरगोशी का नगमा
कहीं गालिब की आवाज आ रही है
हवादार आज भी हैं रास्तों पर
सवारी आ रही है जा रही है

वही बज्म-ए-सुखन (काव्यगोष्ठी) है और वहीं जौक
निगाहें भी परखती हैं नगीने
मुअज्जिन मरहबा बर वक्त बोला
तेरी आवाज मक्के और मर्दाने''

अभी तक किले की दुनिया वही है
वही जश्न-ए-शब-ए-महताब (जश्न की रात का चन्द्रमा) भी है
वही मसनद वही अन्दाज-ए-मसनद
तो महफिल में दिल-ए-बेताब भी है

यह दिल्ली यूं तो है हर दिल की बस्ती
यह दिल्ली हर जगह से दूर भी है
यह दिल्ली आज भी दिलली है लेकिन
यह दिल्ली अब बहुत मजबूर भी है

यह दिल्ली यूं तो है इक फसाना (कथा)
मगर भूला हुआ किस्सा नहीं है

हजारों जलवे हैं बूताब अब भी
जिन्हें सैय्याह (पर्यटक) ने देखा नहीं है
बहादुरशाह अब कुछ भी नहीं है
मगर वह इक मुकद्दस याद (पवित्र स्मृति) तो है
सनम तो है वह जैसा भी सनम हो
वह बुतखाना (मन्दिर) अभी आबाद तो है

ऐ जुल्फ-ए-परेशान-ए-हयात अब तो सँवर जा
गैरों की बनी जाती है बात अब तो सँवर जा
आइने से अब आँख मिलाई नहीं जाती
कट जाये पर गर्दन तो झुकाई नहीं जाती

जिस दर ने तुम्हें इज्जत-ओ-तौकीर (प्रतिष्ठा) अता की (प्रदान की)
जिए दर ने तुम्हें खिअत-ओ-जागीर अता की
जिस दर ने तुम्हें इक नई तकदीर अता की
जिस दर ने तुम्हें अजमत-ए-तामीर (स्थापत्य) अता की
क्या तुम यह दोरंगी-ए-जहाँ देख सकोगे
उस दर पे फिरंगी का निशाँ देख सकोगे

यह रेल की पटरी है कि धामिन की है जोड़ी
छू लें जिसे यह साँप वह हो जाते हैं कोढ़ी

भगवान को डसने पे तुले बैठे हैं मूजी (अत्याचारी)
इनके लिए इन्सान है किस खेत की मूली
देहातों को आवाज दो आफत की घड़ी है
पटरी नहीं खेतों के यह जंजीर पड़ी है

दुनिया में नहीं बढ़के फिरंगी से सितमगर
घरवाले भी बेघर हैं जो बेघर थे वह दर-दर
कल तक जो न थे कुछ भी वह बन बैठे है अफसर
खेतों के खजानों पे जमींदारों के अजगर
है सर पे अभी दस्त-ए-शहंशाह-ए-जमन (ईश्वर का वरदहस्त) भी
खतरे में है मजहब भी मुसीबत में वतन भी

हुशियार कि इन सौदे में सौ तरह जियाँ है
मक्कार है डाकू है अमाँ इससे कहाँ है
इन सीनों में दिल ही नहीं लालच की दुकाँ है
इस कौम के सौ हाथ हैं सौ गज की जुबाँ है
तहजीब नहीं लाशों पे यह जीती है लोगो
यह नफा की है जोंक यह खूं पीती है लोगो

यह बातें महलों से निकलीं जा पहुँची बाजारों में
मुर्दों की महफिल से निकली जा पहुँची जीदारों में
दालानों दर दालानों में, सहनों में सेहराओं में
चौपालों में खलिहानों में खेतों में मैदानों में
जमुना के नीले पानी में गंगा जी के धारों में
दिल्ली की हर राह गुजर पर काशी के बाजारों में

बाजू की मछली को देखा चौड़ी छाती वालों ने
घरवालों की बातें सुनकर आँखें खोल दी भालों ने
उँगली को इक बात बताई तलवारों की धारों ने
बुझते दीप को सूरज जाना तारीकी के मारों ने

गीतों की लय तेज हुई और कदमों की रफ्तार बढ़ी
आँखों की दुनिया भी बदली, होठों की तलवार बढ़ी
हाथ बढ़े काछों की जानिब टोक दिया चौपालों ने
खेतों से जब आँख मिलाई खेतों के रखवालों ने
पिछले राजा जैसे भी थे अच्छे थे अंग्रेजों से
आँख निकल आई खेतों की सख्त लगान के फन्दों से
घर की दुनिया उजड़ी-उजड़ी उन नैनों का जादू बन्द
एक लगान अदा करने में खुल-खुल जाये बाजूबन्द
अंग्रेजों की जेब में जा पहुँची अपनी बदहाली तक
गेहँू की वाली से लेकर कानों की हर वाली तक
साहब लोगों से तो अच्छे निकले चोर उचक्के भी
खेतों की चुगली खाते हैं इन तारों के खम्बे भी

कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
गज भर का करि यज तिह पर चढ़ती जवनियाँ
भला नाहीं तन्नल बाड़िन हमनि का गरदनियाँ
दप-दप जैसे तेगा चमके चमकत बाड़न अपने गटनवा हो - हो किसनवा हो
कबले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
तब ले ले ली रँगाई गोरी अपनी चुनरिया
बैठल बैठल जोहा करि तोहरि ढहरिया
जूझ के लौटत-लौटत हुई तोहरा गवनवा हो - हो किसनवा हो
कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो

रख्खल रख्खल कछऊ ना काटी ई तलवरिया
तोहरी ओर देखत बाटे तोहरी कटरिया
कब ले आखिर ना चमकी ई सावन की बिजुरिया हो - हो किसनवा हो
कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
चौपाल में यह जिक्र तो हर घर में यही बात
पनघट पे छलक्ते हुए गागर में यही बात
जर्राह के चलते हुए नश्तर में यही बात
जो बात हो उस बात के अस्तर में यही बात
हर सर में यह सौदा कि जो सहना हो सहेंगे
उठते हुए सूरज की तरह एठके रहेंगे

बर्दाश्त की हद से बहुत आगे है मुसीबत
हर लम्हा कोई बात है हर रोज इक आफत
फाकों के करीब आ गये गोरों की बदौलत
लानी ही पड़ेगी हमें अब कोई कयामत
मैदान में जाँ बेच के आना ही पड़ेगा
अँग्रेज को इस मुल्क से जाना ही पड़ेगा

रो देते हैं जब हाथ बनाते हैं निवाले
हर सिम्त (दिशा) हैं सरगोशियाँ ताने हुए भाले
ख्वाबों में भी चलते हैं फिरंगी के रिसाले
केंचुल से निकलने को तड़प उठते हैं काले
बिखरे हैं इधर और उधर ढँूढ रहे हैं
हम शाम-ए-गुलामी की सहर ढँूढ रहे हैं

इक टीस है जो साँस है इक दर्द बदन है
हर गाँव के सीने में जईफी की चुभन है
हर खोशा-ए-गन्दुम (गेहू की बाल) की निगाहों में थकन है
हर खेत की गर्दन में मुँडेरों की रसन (रस्सी) है
हर सागर-ए-गुल (फूलों का जाम) दीदा-ए-हैराँ (हैरान आँखें) की तरह है
हर सुबह-ए-वतन शाम-ए-गरीबी की तरह है

बदले हैं तो यूँ बदले हैं बिगड़े हुए हालात
शहरों में है वह भीड़ न वह शोर न वह बात
है सुबह का संगीत न गीतों से भरी रात
देखो कि यह है अहद-ए-फिरंगी की करामात
जलती हुई करघे का धुआँ आने लगा है
मलमल भी बिलायत से यहाँ आने लगा है

शादी हो कहीं गाना बजाना हो तो सोचें
त्योहार पे अब जश्न मनाना हो तो सोचें
होली में अगर रंग उड़ाना हो तो सोचें
दीवाली में इक दीप जलाना हो तो सोचें
अब ईद भी रूठी हुई कोने में खड़ी है
पाँवों में सिवईयों के भी जंजीर पड़ी है

जो जख्म है दिल में वह दिखाया नहीं जाता
आँखों से लहू खुल के बहाया नहीं जाता
क्या सोच रहे हैं यह बताया नहीं जाता
राखी के लिए हाथ बढ़ाया नहीं जाता
अब आँखों के पानी के सिवा कुछ भी नहीं है
एहसास-ए-गुलामी के सिवा कुछ भी नहीं है

गर जख्म लगाना है तो फिर जख्म हो कारी
कल उनकी थी बारी तो है आज हमारी
सुनते हैं कि जाने को है साहब की सवारी
है शोर कि अंग्रेज पे है साल यह भारी
आफत में यह काटेंगे मुसीबत से कटेगा
इनका यह सीवाँ साल कयामत से कटेगा


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