Saturday, January 31, 2009

GAZAL

रो देते हैं जब हाथ बनाते हैं निवाले
हर सिम्त (दिशा) हैं सरगोशियाँ ताने हुए भाले
ख्वाबों में भी चलते हैं फिरंगी के रिसाले
केंचुल से निकलने को तड़प उठते हैं काले
बिखरे हैं इधर और उधर ढँूढ रहे हैं
हम शाम-ए-गुलामी की सहर ढँूढ रहे हैं

Thursday, January 29, 2009

GAZAL

बर्दाश्त की हद से बहुत आगे है मुसीबत
हर लम्हा कोई बात है हर रोज इक आफत
फाकों के करीब आ गये गोरों की बदौलत
लानी ही पड़ेगी हमें अब कोई कयामत
मैदान में जाँ बेच के आना ही पड़ेगा
अँग्रेज को इस मुल्क से जाना ही पड़ेगा

Friday, January 23, 2009

GAZAL

गीतों की लय तेज हुई और कदमों की रफ्तार बढ़ी
आँखों की दुनिया भी बदली, होठों की तलवार बढ़ी
हाथ बढ़े काछों की जानिब टोक दिया चौपालों ने
खेतों से जब आँख मिलाई खेतों के रखवालों ने


पिछले राजा जैसे भी थे अच्छे थे अंग्रेजों से
आँख निकल आई खेतों की सख्त लगान के फन्दों से
घर की दुनिया उजड़ी-उजड़ी उन नैनों का जादू बन्द
एक लगान अदा करने में खुल-खुल जाये बाजूबन्द

अंग्रेजों की जेब में जा पहुँची अपनी बदहाली तक
गेहँू की वाली से लेकर कानों की हर वाली तक
साहब लोगों से तो अच्छे निकले चोर उचक्के भी
खेतों की चुगली खाते हैं इन तारों के खम्बे भी

Thursday, January 22, 2009

GAZAL

बाजू की मछली को देखा चौड़ी छाती वालों ने
घरवालों की बातें सुनकर आँखें खोल दी भालों ने
उँगली को इक बात बताई तलवारों की धारों ने
बुझते दीप को सूरज जाना तारीकी के मारों ने

Tuesday, January 20, 2009

GAZAL 1857

दुनिया में नहीं बढ़के फिरंगी से सितमगर
घरवाले भी बेघर हैं जो बेघर थे वह दर-दर
कल तक जो न थे कुछ भी वह बन बैठे है अफसर
खेतों के खजानों पे जमींदारों के अजगर
है सर पे अभी दस्त-ए-शहंशाह-ए-जमन (ईश्वर का वरदहस्त) भी
खतरे में है मजहब भी मुसीबत में वतन भी

Monday, January 19, 2009

उद्देश्यपूर्ण पत्रिका


-[वाड्मय]- यूं तो राही मासूम रजा पर अनेक पत्रिकाओं ने विशेष अंक प्रकाशित किए हैं परन्तु राही की बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के अनेक रंगों को उजागर करती हुई दुर्लभ सामग्री से भरपूर है त्रैमासिक पत्रिका वाड्मय का राही मासूम रजा अंक। प्रथम खंड में प्रताप दीक्षित के परिचयात्मक लेख के साथ राही की चुनी हुई 7 कहानियां हैं। दूसरे खंड में उनके लेखन की बहुकोणीय पडताल और मीमांसा है। साक्षात्कार खंड में प्रेम कुमार की उनकी संगिनी नैयर रजा से बेहद दिलचस्प और बेबाक बातचीत है जो इस आयोजन की उपलब्धि है। हिंदी सिनेमा को राही के योगदान पर प्रकाश डालते हुए चौथा खंड अपने में विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। -[वाड्मय/ सं. डा.एम.फीरोज अहमद]http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/?page=slideshow&articleid=1969&category=11#0

Sunday, January 18, 2009

GAZAL 1857

ऐ जुल्फ-ए-परेशान-ए-हयात अब तो सँवर जा
गैरों की बनी जाती है बात अब तो सँवर जा
आइने से अब आँख मिलाई नहीं जाती
कट जाये पर गर्दन तो झुकाई नहीं जाती

जिस दर ने तुम्हें इज्जत-ओ-तौकीर (प्रतिष्ठा) अता की (प्रदान की)
जिए दर ने तुम्हें खिअत-ओ-जागीर अता की
जिस दर ने तुम्हें इक नई तकदीर अता की
जिस दर ने तुम्हें अजमत-ए-तामीर (स्थापत्य) अता की
क्या तुम यह दोरंगी-ए-जहाँ देख सकोगे
उस दर पे फिरंगी का निशाँ देख सकोगे

Saturday, January 17, 2009

GAZAL

अभी तक किले की दुनिया वही है
वही जश्न-ए-शब-ए-महताब (जश्न की रात का चन्द्रमा) भी है
वही मसनद वही अन्दाज-ए-मसनद
तो महफिल में दिल-ए-बेताब भी है

यह दिल्ली यूं तो है हर दिल की बस्ती
यह दिल्ली हर जगह से दूर भी है
यह दिल्ली आज भी दिलली है लेकिन
यह दिल्ली अब बहुत मजबूर भी है

Thursday, January 15, 2009

GAZAL

यह किसका दरबार लगा है
सब ही जिन्दा सब ही मुर्दा
राही शहर आशोब (शहर की मरसिया) सुनाओ
कैसी गजल और कैसा कसीदा

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इन्तखाब'' (
दुनिया में अकेला)
दिल्ली जरूर है पे वह दिल्ली नहीं है यह
हँसती तो है जरूर मगर अपने हाल पर
अब वैसे बात पर हँसती नहीं है यह
अगर फिरदौस बररूऐ
जमीन अस्त
हमीं अस्त-ओ-हमीं-अस्त-ओ हमीं अस्त

Wednesday, January 14, 2009

GAZAL

गम गम गम तबला यह बोला
सा रे गा मा पा धा नी सा
घुँघरू ने ये ठोकर खाई
या छन छन छन शीशा टूटा

रोयें रोयें कितना रोयें
सारंगी घबराकर बोली
मौसी की (संगीतज्ञ) ने लाख पुकारा
तानपुरे ने आँख न खोली

रक्कासाएं (नर्तकी) नाच रही हैं
टूटे जैसे जिस्म किसी का
सोच रहा है कुलकुले मीना (सुराही से शराब निकालने का स्वर)
किसको दे इस बज्म में पुरसा (महफिल में किसका हाल पूछे)

Tuesday, January 13, 2009

GAZAL

निगाहें उठती हैं मसनद-नशीं (मसनद पर बैठा हुआ) हैं तो कोई यह मकतए गजले इश्रते (आनन्द) शबाना है
यह ताजो तख्त यह जरी कबा (जरी का अंगरखा) यह शाने नुजल (आतिथ्य सत्कार)
यह अपने वक्त का सबसे बड़ा दिवाना है

यह उस पे खुश है कि कल ही की तरह आज भी लोग
मेरे हुजूर कसीदों की नजर लायेंगे
बताये कौन यह उसको कि साहवाने सुखन (काव्यमर्मज्ञ लोग)
दरोगे मसलहत (गलत सलाह) आमेज (मिलने वाले) लेकर आयेंगे

Monday, January 12, 2009

GAZAL

जुनूं है कौन-सी मंजिल में यह तो उस पर है
जमीन घर भी है जिन्दां (जेल) भी है जहन्नम भी
अगर शिगूफे (कलियाँ) हों तैयार मुस्कराने पर
तो काम आए चमन में खुलूसे (निर्मलता) शबनम भी

रबिश-रबिश (बाग के भीतर के पतले रास्ते) पे हैं गोरों के पांव के धब्बे
यह बाग वह है जहां चांदनी उतरती थी
शिगूफे मलते थे आँखें सहर की आहट पर
यहाँ पे रात की जुल्फें सियाह सँवरती थीं

झुकी निगाहें कि आलम पनाह आते हैं
नुजूले रहमते परवरदिगार (परमात्मा की कृपा होती है) होता है
हुजूर इब्ने शहंशाह (शहंशाह का पुत्र) जिल्ले सुब्हानी (अच्छा शासक)
यह एक तीर है सीने के पार होता है

Sunday, January 11, 2009

GAZAL

बस इक चिराग जो बाकी व सद (शत-प्रतिशत) खराबी है
वह एक चिराग है मर्हूने बज्मे जुल्मते (भयानक अंधेरी रात के हाथों गिरवीं) शव
निगाहें आईना हैरान, दस्ते शाना (प्रतापी हाथ) है शल (अपाहिज)
उलझ चुकी है वह जुल्फे-दाजराहे तलब (सँवारे हुए काले बाल)

तुलूए मेहृ तो पाबन्दे इन्तजार नहीं
जुनूं ही चाहे तो तै हो यह वादिए वहशत (डरावनी घाटी)
नहीं तो हद्दे नजर तक कहीं बहार नहीं

हयात सुर्खिये याकूत (एक प्रसिद्ध रत्न) की नहीं कायल
हयात बहते हुए खून को सुर्ख मानती है
ख्याल आये तो सीने में दिल धड़क उठे
हयात सिर्फ यही इक जबान जानती है

Saturday, January 10, 2009

GAZAL

हर इक हवेली का दर खटखटा रही है हवा
उठो कि खत्म वह लुत्फे हजा में शाम (प्रसन्नता भरी शाम) हो
छिड़ा था जो कभी काबेरी के किनारे पर
यह किस्सा आज लबे गोमती तमाम हो

सुनो कि नूर की अब एक भी लकीर नहीं
अवध का एक सितारा था वह भी डूब गया
सुनो कि आज से अख्तर है बरजे खाकी में (मिट्टी में मिल गया)
कटा-कटा जो किनारा था वह भी डूब गया

Friday, January 9, 2009

एक दिल

हर एक दिल धड़क रहा है इस तरह
कि जैसे तब्लेजंग (रणभेरी) की पुकार हो
कि रास्ते में जंग की खबर लिए
यह जैसे कोई तेज रौ सवार हो

कि शामे लखनऊ की वह द्रौपदी
बिरहना (व्यथित) है हर एक रहगुजार पर
यह केश ढूढ़ती है भीम की गदा
चलो तलाश में फरायजदार (कर्त्तव्य) पर

Wednesday, January 7, 2009

GAZAL

कटारें एतिकाद (आस्था) की निकल पडीं
ख्याले-आखरत (परलोक का ध्यान) ने फैसला किया
घरों में गूँजने लगीं कहानियाँ
बहन ने भाइयों से तजकिरा (जिक्र) किया

पतीलियों में भाप गूंजने लगी
बस अब अनाज डालने की देर है
बहार और जुनूं (उन्माद) की दास्तान पर
लहू का रंग उछालने की देर है

Tuesday, January 6, 2009

अंधेरा है कि तुम रोशनी

इस घर में अंधेरा है कि तुम रोशनी बेचो
चोरी भी करो घूम के पहरा भी तुम्हीं दो
दो जहर भी तिर्याक (विपनाशक) की दुकान भी खोलो
जिस राह से आए हो उसी राह से जाओ
नफरत कही करोगे न मुहब्बत ही करोगे
ताजिर (व्यापारी) हो बहरहाल तिजारत (व्यापार) ही करोगे

हवा के दोश पर यह बात चल पड़ी
हर एक जर्रा चौंक उठा यह क्या हुआ
हर इक किवाड़ कोई खटखटा गया
हर एक दिल यह बोल उठा बुरा हुआ

Monday, January 5, 2009

वतन के लिए उट्ठो

बंगाल के हारे हुए जादू की कसम है
पंजाब के टूटे हुए बाजू की कसम है
मैसूर के उलझे हुए गेसू (केश) की कसम है
दिल्ली की सिसकती हुई खुशबू की कसम है
हर गोशे से तज+ईन (श्रृंगार) चमन के लिए उट्ठो
मजहब के लिए उठो, वतन के लिए उट्ठो

कह दो कि बस और न समझाइये हमको
यह आपकी तहजीब नहीं चाहिए हमको
हम खूब समझते हैं तिजारत की नजर को
गाजा (धर्म स्थान) की जरूरत नहीं काशी की सहर को

Sunday, January 4, 2009

धर्म के रखवालो

चन्दन की लकीरों के लिए तरसेंगे माथे
बाजारों मे जल जायेंगे इन वेदों के नुसखे
ऐ धर्म के रखवालो, ये गोरे हैं ये गोरे
सोना ये चुरा लायेंगे मंदिर के कलस से
उट्ठो कि यह मौका नहीं आराम का लोगो
तलवार चले, नाम लो अब राम का लोगो

Saturday, January 3, 2009

राही मासूम रजा का आधा गाँव



-कनुप्रिया प्रचण्डिया


व्यक्ति तथा सामाजिक जीवन में हर युग में परिवर्तन होते रहते हैं और इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर जीवन मूल्य विकसित होते हैं। ये जीवन मूल्य ही व्यक्ति के चरित्र और उसकी सभ्यता एवं संस्कृति के मेरूदण्ड बनते हैं। स्वतंत्रता के बाद व्यक्ति के जीवन में जितनी तेजी से और जितने बहुमुखी परिवर्तन हो रहे हैं उतने सम्भवतः देश के इतिहास में पहले कभी नहीं हुए।१ परिणामतः स्वातन्त्रयोत्तर काल जन-जागरण के साथ नवीनतम परम्पराओं, आदर्शों तथा मान्यताओं के द्वार खोलने में सहायक सिद्ध हुआ। २ उपन्यास मानव-जीवन का रसात्मक इतिवृत्त होता है।३ उसमें एक ओर जीवन-सत्य की अनुभूति घनीभूत होती है तो दूसरी ओर मानव-मूल्यों और मानवता के नए आदर्शों की प्रस्थापना होती है। स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी उपन्यासकारों में प्रेमचन्दीय परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में राही मासूम रजा का महनीय स्थान है। प्रेमचन्द ने जहाँ यथार्थ को उद्घाटित करके आदर्श की प्रस्थापना की है,४ वहीं राही मासूम रजा ने साम्यवादी चेतना से प्रभावित होकर यथार्थ का विशद् वर्णन प्रस्तुत किया है। आधा गाँव नाम सुनते ही मन में एक बात उठती है कि क्या कोई गाँव भी आधा हो सकता है? परन्तु जैसे-जैसे उपन्यास को बाँचती गई वैसे-वैसे वास्तविक स्थिति का मान होता गया कि हर क्षेत्र में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से इसका आधा भाग ही उपन्यास में वर्णित है, इसलिए इसका आधा गाँव नाम पड़ा। उपन्यास स्वतंत्रता पूर्व मुसलमानी जीवन तथा पाकिस्तान बन जाने के बाद उसमें आए परिवर्तन को दृष्टिकेन्द्र में रखकर चलता है।५ आधा गाँव में मुस्लिम जन-जीवन की भीतरी-बाहरी सच्चाइयाँ, धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक विसंगतियाँ, अनैतिक यौनाचार आदि अपने विविध रंगों में अच्छी-बुरी परछाइयों के साथ प्रस्तुत हुई है।
आधा गाँव आज एक विशिष्ट औपन्यासिक उपलब्धि के रूप में मान्य है। उपन्यास के शुरू में ही राही मासूम रजा ने स्पष्ट कर दिया है कि यह कहानी न
धार्मिक है, न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय ही की। यह गंगौली में गुजरने वाली समय की कहानी है।६ आंचलिक प्रड्डति के उपन्यास आधा गाँव में फुस्सू मियाँ, तन्नू मियाँ, सुलैमान, फुन्नन मियाँ, मिगदाद आदि से सम्बन्धित कथाएँ आधिकारिक हैं परन्तु आंचलिकता के कारण इसमें बिखराव अधिक है। यदि प्रासंगिक कथाओं की चर्चा की जाए तो वह भी इसमें प्रचुर हैं जो कथा को गति देने में सहायक हैं। तत्युगीन समाज में नारी को भोग विलास की वस्तु ही माना जाता था, जिसका जब भी जी चाहा किसी भी औरत को घर में लाकर बैठा लिया यही रूप है नईमा दादी का जिसे स्वयं रचनाकार के अब्बा मंझले ले आये थे - मुझे मालूम नहीं कि मंझले दादा के अब्बा को इन नईमा दादी में ऐसी कौन-सी बात नजर आई कि उन्होंने एक अच्छी खासी गोरी चिट्टी दादी को छोड़कर कर इल मिट्टी की इस पुतली से निकाह कर लिया।७ उपन्यास में अपने समय की मशहूर वेश्या टॉमीबाई रिटायर होने के बाद शिव भक्त हो गई और शहर के बाग में रहने लगी। टॉमीबाई के माध्यम से राही ने वेश्याओं की स्थिति को दर्शाते हुए स्पष्ट किया है कि वेश्याएँ भी समाज में रहने व जीने का
अधिकार रखती हैं - यथा - एक दिन मैं उनके पास जा बैठा। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा जीते रहिए।' मैंने घबराकर उन्हें सलाम किया वह हँस पड़ी उस समय वह मुह में रखने के लिए गिलौरी निकाल चुकी थीं। उन्होंने पूछा - खायेगा।८
मुस्लिम संस्ड्डति में बो शब्द उन बेबस औरतों के लिए प्रयुक्त हुआ है जिन्हें पुरुष वर्ग घर में अपनी मजरी से रखते हैं। सुलैमान मियां ने झंगटिया-बो को अपने घर में ऐसे ही रख लिया था क्योंकि उसका पति मर चुका था। यह तात्कालिक समाज में नारी की वास्तविक दयनीय दशा को अभिव्यंजित करता है - न तो मुसलमान हुई और न ही सुलैमान ने उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। झंगटिया से जब उनका विवाह हुआ तब वह अठारह साल की थी... झंगटिया को चेचक निकल आयीं और वह बेवा हो गई तथा तब से सुलैमान चा ने उन्हें अपने घर में डाल लिया।''९ मौलवी कुरबान अली ऐसे व्यक्तित्व के परिचायक हैं जो लोग धर्म की बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं, समाज सुधारक बनते हैं, परन्तु वास्तव में अन्दर से स्वयं ही खोखले होते हैं तथा सम्पूर्ण समाज को पतन की ओर ले जाते हैं। आधुनिक समाज में ऐसे पण्डितों की बहुलता है - मौलवी सय्यद बेदार हुसैन जै+दी के बदन में भी गुदगुदी होने लगती थी... बुढ़ौती आ गई भाई कबीर इतना बड़ा घर खाने को दौड़ता है।१० हकीम साहब समाज में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों के प्रतीक हैं जो झूठे रीति रिवाजों को बचाने के लिए कई मानदण्ड बना सकते हैं तथा कई मानदण्ड तोड़ सकते हैं जिनकी नजर में इंसान नहीं वरन्‌ धार्मिक रूढ़ियाँ प्रमुख थीं - हकीम साहब इस दरवाजे को बंद भी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यह उनके दादा मीर नफज अली जै+दी ने खुलवाया था।११
साम्प्रदायिकता की भावना तो शीर्ष पर थी जो सम्पूर्ण उपन्यास में जगह-जगह विद्यमान है तथा तात्कालिक समाज के यथार्थ रूप को व्यक्त करने में सहायक है। हिन्दू-मुस्लिम समाज दो वर्ग-भेदों में बंटकर रह गया था। मुसलमानों में भी शिया-सुन्नी, दक्खिन पट्टी-उत्तर पट्टी आदि में व्यक्ति बँटा हुआ था - यथा - दक्खिन पट्टी वालों ने फैसला सुनकर इत्मीनान की सांस ली... कोमिला की सजा ने बड़े ताजिये की धाक और अधिक जमा दी।''१२ रब्बन-बी के माध्यम से भी समाज की खोखली रिवाजों को और अधिक बढ़ावा देने वाली स्त्री का चित्र प्रस्तुत किया गया है जो पुरुष वर्ग से घबराहट के कारण न तो गलत बातों का स्वयं विरोध करती है और न ही दूसरी स्त्रियों को अपने हक की माँगने की इजाजत देती है - रब्बन-बी को लिखना-पढ़ना नहीं आता था.... आख़िर तो बीबियाँ कहेंगी कि रब्बन-बी देखती रह गई और चमाइन ने अपनी जूती से आसिया की नाक काट ली।''१३
आधा गाँव में सईदा पहली पढ़ी-लिखी लड़की के रूप में सामने आयी है जो तात्कालिक समाज व पीढ़ी की सोच बदलने की क्षमता रखती है। प्राचीन रूढ़ियों के प्रति विद्रोह व्यक्त कर नवीन विचारधाराओं को पोषित व पल्लवित करती है। वह अलीगढ़ हॉस्टल में रहकर अपनी पढ़ाई करती है जबकि शिक्षा उस काल में स्त्रियों को उपलब्ध नहीं थी - क्या दादा ने तुमको पढ़ाना मंजूर कर लिया? तन्नू ने हैरत से पूछा। जी हाँ! सईदा हँसी, मैंने फर्स्ट डिवीज+न में हाई स्कूल किया है जनाब, और मैं अलीगढ़ में पढ़ती हू।१४ आधा गाँव में सजीवता के साथ-साथ स्वाभाविकता भी है। वे मूल बिन्दु हैं - तन्नू भाई के संवाद, सईदा के मजाक, रब्बन-बी का वार्तालाप तथा मुहर्रम के रिहर्सल के समय की स्थितियाँ यह समस्त तथ्य रचना में मनोरंजकता व स्वाभाविकता का समावेश करते हैं - मेरे और भाई साहब के सिवा तन्नू भाई, गिग्गे, फट्टू, फुन्नन-दा का लड़का मुंताज, हामिद-दा का लड़का छम्मू सभी लड़के रिहर्सल में लगे रहते थे मगर हर साल होता यही कि मश्शू भाई बेहोश हो जाते और हम लोग मुँह देखते रह जाते।''१५
मर्म साहित्य का प्राण है। इसके अभाव में साहित्य एकपक्षीय हो जाता है। इसी के माध्यम से रचनाकार समाज की समस्याओं को समाज के सम्मुख रखने का प्रयत्न करता है, आधा गाँव में भी यह व्यक्त हुआ है। मातम के समय, विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों के समय, सुलैमान मियाँ की पत्नी झंगटिया-बो की मृत्यु के समय, बच्छन के भागने के समय आदि स्थानों के अलावा कई ऐसी घटनाएँ हैं जो मार्मिकता की अभिव्यंजक है जिसें प्रमुख हैं मातम की अवस्था - दस मरसिये पर लोग बहुत रोये फिर मातम शुरू हुआ। मौलवी कुरबान अली साहब पर दौरा-सा पड़ गया।''१६ वैचारिकता में तथ्यों, तर्कों, विचारों, नियमों, सिद्धान्त की प्रधानता होती है। जिस उपन्यास में जितनी वैचारिकता, नवीनता होगी वह उपन्यास उतना ही प्रभावी तथा आकर्षक होगा। ÷आधा गाँव' उपन्यास के प्रथम खण्ड उँघता शहर में यह प्रवृत्ति प्रमुखता से अभिव्यक्त हुई है। इसके अलावा ÷प्यास', नमक', ताना-बाना, खण्डों में यह प्रवृत्ति अभिदर्शित है। उँघता शहर' में तो यह मुख्यता के साथ द्रष्टव्य है - गँदले पानी की इस महान धारा को न जाने कितनी कहानियाँ याद होंगी... गंगा के किनारे न जाने कब से मेल्हते हुए, इस शहर को इसका ख्+याल भी नहीं आता कि गंगा के पाठशाला में बैठकर अपने पुरखों की कहानियाँ सुनें।''१७ आधा गाँव में मुस्लिम संस्ड्डति का स्पष्ट स्वरूप प्रतिबिम्बित है, रीति-रिवाज, आचार-विचार, खान-पान तथा तीज-त्यौहार में प्रारम्भ से अंत तक मुस्लिम संस्ड्डति की झलक है - चूँकि औरतें सब खानदान की ही थीं इसलिए परदे का तो सवाल ही नहीं था।''१८ तात्कालिक समाज में मुसलमानों को जबरन ही पाकिस्तान भेजा जा रहा था तन्नू मियाँ का अपने देश में वापस आना, फुन्नन मियाँ और सुलैमान मियाँ का जेल जाना, तीन युवकों का मुसलमानों को सहायता देने के लिए ताना-बाना नामक खण्ड में गंगौली क्षेत्रवासियों को उद्बोधन देना आदि इस गुलामी की अवस्था को चित्रित करता है, जिसका विरोध स्वयं लेखक ने किया है - राही तुम गंगौली के नहीं हो इसलिए गंगौली छोड़कर मिसाल के तौर पर रायबरेली चले जाओ। क्यूँ चला जाऊँ मैं, मैं तो नहीं जाता।''१९ आधा गाँव में अंधविश्वास व रूढ़ियों का निरूपण हुआ है। स्त्रियों के साथ विभिन्न संदर्भों में तथा उम्मुल हबीबा सैफुनिया, बछनिया और न जाने कितने ही पात्रों के प्रसंगों में अंधविश्वास व रूढ़ियों के अभिदर्शन होते हैं - औरतें घबराकर दरवाजों तक आ गईं और परदों से झाँकने लगीं... घबराहट में वे अपनी परम्पराएँ भी भूल गईं।''२० आधा गाँव में मिगदाद, सैफुनिया, बच्छन, मगफिए, मौलवी बेदार के चरित्र में विड्डत मानसिकता विद्यमान है। औरत को पाँव की जूती समझना तथा कलमी औरतों को घर में डाल लेना तात्कालिक समाज की विड्डत मानसिकता को पूर्णरूपेण व्यक्त करता है मौलवी बेदार बेटी की उम्र की बछनिया से सम्बन्ध बनाते भी नहीं कतराते - मौलवी साहब - बुढ़ौती आ गई, भई कबीर इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है,... सुलैमान की लड़की बछनिया कैसी रहेगी।२१ इस प्रकार ÷आधा गाँव' की कथा तत्समाज की गदली मानसिकता, धुँधली समाज व्यवस्था, समाज की विभिन्न अवस्था, मुस्लिम संस्ड्डति के रीति-रिवाज, लोक संस्कृति तथा आंचलिकता के स्वरूप को पूर्णतया निरूपित करती है। आत्मचरितात्मक शैली में रचित आधा गाँव में लेखक स्वयं प्रमुख पात्र के रूप में प्रकट हुए हैं। लेखक मासूम को मुख्य पात्र के रूप में परोसते हैं जो शिया समाज को भीतर से अच्छी तरह जानता है तथा रचनाकार के मन्तव्य को पूर्णतया व्यक्त करने में सहायक सिद्ध होता है। आधा गाँव का उद्देश्य अत्यन्त व्यापक है जिसके अन्तर्गत लेखक ने धर्म, समाज, राजनीति, संस्ड्डति, सभ्यता आदि समस्त स्थितियों को आत्मसात्‌ करके निरूपित किया है। एक ओर तो उन्होंने तात्कालिक समाज पर तीव्र कटाक्ष किए हैं तो दूसरी ओर तत्समाज की घृणित मानसिकता का भी विरोध किया है। इस समाज का सच्चा स्वरूप राही ने प्रस्तुत किया है जो परिवर्तन चाहता है तथा प्राचीन तथाकथित गलित मान्यताओं पर विश्वास नहीं करता। ÷आधा गाँव' में प्राड्डतिक परिवेश, क्षेत्रीय स्थिति, तात्कालिक समाज की यथार्थ विद्रूप स्थिति तथा उस पर व्यंग्य आदि विशेषताओं का समावेश अनायास हो गया है जिससे रचनाकार राही उपन्यास की तीव्र, सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति प्रदान करके पाठकों को रचना के प्रति आकर्षण पैदा करता है।
वस्तुतः आधागाँव हिन्दी उपन्यास जगत्‌ में सम्भवतः पहला और अकेला उपन्यास है जिसमें मुस्लिम समाज की तमाम भीतरी-बाहरी परतें सारी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ, खूबियाँ और खामियाँ अपने यथार्थ रूप में विविध रंगों-रेखाओं में चित्रित हुई हैं।
संदर्भ -

१. इन्द्रनाथ मदान, स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी साहित्य, पृ० १३
२. डॉ० दंगल झाल्टे, उपन्यास समीक्षा के नए प्रतिमान, पृ० १९
३. डॉ० आदित्य प्रचण्डिया, अन्तर्भाव, जैनेन्द्र के उपन्यास, पृ० ९
४. शंभुनाथ, प्रेमचंद का पुनर्मूल्यांकन, पृ० १०-१२
५. डॉ० सुशीला शर्मा, हिन्दी उपन्यास में प्रतीकात्मक शिल्प, पृ० ३३५
६. डॉ० वेद प्रकाश अमिताभ, हिन्दी उपन्यास की दिशाएँ, पृ० १०१
७. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० १७
८. वही, पृ० २२
९.. वही, पृ० ४४
१०. वही, पृ० १११
११. वही, पृ० ७३
१२. वही, पृ० ७९
१३. वही, पृ० ११७
१४. वही, पृ० २११
१५. वही, पृ० १९
१६. वही, पृ० ५५
१७. वही, पृ० ०९
१८. वही, पृ० ३९
१९. वही, पृ० ३०५
२०. वही, पृ० १०२
२१. वही, पृ० १११

Friday, January 2, 2009

ग़ज़ल

अब फिरंगी की हर एक चाल से हैराँ हैं यह
अपनी बिगड़ी हुई बाजी से परेशाँ हैं यह
शाह मजबूर है, पेशानी पे हैं शातिर के बल
घर में फर्जी के चले आए हैं गोरे पैदल
इनका दिन खत्म है अब रात हुआ चाहती है
थोड़ी ही देर में अब मात हुआ चाहती है

उट्ठो कि नहीं वक्त आराम का लोगो
दम घुटता है नाकूस (शंख) का दामन की हवा दो
दीवारें हरम गिरती हैं सँभले तो सँभालो
इस सुबहे फिरंगी का यह अंधेर भी देखो
रहने भी जो पायेंगे तो सहरा में रहेंगे
या रामो रहीम अब से कलीसा (गिरजा) में रहेंगे

Thursday, January 1, 2009

GAZAL

निकली ही जाती है पैरों के जो नीचे से जमीं
उउर आये हैं जमीनों पे यह अफलाके-नशीं (आसमान पर रहने वाली)
फसले-गुल (फूलों की फसल) ही गरज है न चमन से मतलब
काम मजहब से है इनको, न वतन से मतलब
बात बिगड़ेगी तो हैरत के शरीक आप भी हैं
फस्ल काटेंगे तो मेहनत के शरीक आप भी हैं
जो मसर्रत (आनन्द) हो मसर्रत के शरीक आप भी हैं
इश्क कीजे तो मुहब्बत के शरीक आप भी हैं
जाहिलों से वह भला बोले भी तो क्या बोले
उनकी महफिल हो तो कुरआन जबाँ भी खोले
बिगड़े यह लोक, वह परलोक, अगर यह न रहें
गंग गीतमा का हर श्लोक,अगर यह न रहें