Wednesday, April 8, 2009

खुश्की का टुकड़ा

- राही मासूम रजा


आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।
वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।
अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।
दस-ग्यारह बरस या दस-ग्यारह हजार वर्ष पहले उसने एक शेर लिखा थाः
छूटकर तुझसे अपने पास रहे,
कुछ दिनों हम बहुत उदास रहे।
यह उदासी आधुनिक है हमारे पुरखों की उदासी से बिल्कुल अलग है इसने हमारे साथ जन्म लिया है और शायद यह हमारे ही साथ मर भी जायेगी। क्योंकि हर पीढ़ी के साथ उसकी अपनी उदासी जन्म लेती है।
हमारे युग की उदासी को उदासी कहना, ठीक नहीं है, वास्तव में यह बोरियत है, यह बोर होने वालों की पीढ़ी है, किसी चीज का मजाक उड़ाना भी नहीं चाहता पहले के लोग कैसा मजे में जिया करते थे। पतंग उड़ाते थे- चीजें उड़ाते थे। बाते उड़ाते थे। मजाक उड़ाते थे। आज का आदमी अपने चेहरे के रंग के सिवा उड़ाता ही नहीं ...
और उसके बारे में एक बात मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि वह यदि आदमी था तो आज ही का आदमी था। और आज के आदमी को वह डंलपिलो जैसी गदीली तनहाई नसीब नहीं होती कि वह आराम से लेट कर अपनी यादों को छाँटें। सड़ी-गली यादों को अलग कर फटी-पुरानी यादों की मरम्मत करे और अच्छी यादों को धूप दिखला दे।
वह बहुत दिनों से फ़ुरसत के ऐसे मौक़े की तलाश में था परन्तु आज तो मरने की फ़ुरसत नहीं मिलती, जीने की तो बात अलग रही। पहले लोग आराम से बरसों बीमार पडे+ रहा करते थे। सेवा करवा-करवा के सेवा करने का अरमान निकलवाते थे। दूर पास के सारे रिश्तेदारों को इसका मौका देते थे कि वह उनकी पाटी के पास बैठ कर उसकी तारीफ़ करें ... और जब लगभग लोगों को यक़ीन हो जाये कि यह मरने वाले नहीं, तब कहीं जाकर लोग मरा करते है पर अब वक्+त की कमी के कारण हार्ट फेल होने लगे है आधुनिक जिंदगी की भागदौड़ में मरने का चार्म भी बिल्कुल ख़त्म हो गया हैं।
वह हार्ट फ़ेल होने के खिलाफ़ नहीं था। परन्तु हार्ट फेल होने में एक बड़ी खाराबी है। हार्ट फेल होने पर कोई शेर नहीं कहा जा सकता है। इतना समय ही नहीं मिलता कि कोई यह कहे।
उनके देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़ ,
वह समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है।
इसीलिए वह चाहता था कि अपनी यादों को क्लासिफाई कर ले। जो वह कवि होता, तो बहुत परेशानी की बात न होती पर शायरी से उसका पुराना बैर था। वह कहा करता था कि शायरी बड़ी असाइंटिफिक चीज होती है। शायरी में मुर्दे बोलते हैं ... कागा सब तन खाइया ... से लेकर कुरेदते हो जो अब आग जुस्तुजू क्या है .... तक मुर्दे टायें-टायें बोल रहे हैं। दिल जो ख़ून पंप करने की एक मशीन है, उसे शायरों ने इतना सर चढ़ाया है कि क्या कहा जाये। प्रेमिका को चंद्रमुखी कहने वाले यह भी नहीं जानते कि चांद पर कैसी-कैसी खाइयां है!
परन्तु जब वह अकेला हुआ तब उसे पता चला कि तनहाई खुद बहुत साइंटिफिक़ नहीं होती। भरीपुरी दुनिया में कोई अकेला कैसे हो सकता है। परन्तु वह अकेला था और वह इस हक़ीक़त को झूठला नहीं सकता था और इसीलिए लगातार अपनी यादों की राख कुरेद रहा था।
कई रातों तक लगातार यादों के जंगल में भटकने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा था कि आदमी अपनी यादों के बारे में डींगता ज्+यादा है, मेरे पास इतनी यादें हैं और ऐसी ऐसी यादें है। सब झूठ है। बस-दस-बीस यादें होती हैं। जिंदगी का बजट बहुत चौकस होता है। सारी जिंदगी जीने के बाद बचत के ख़ाने में दस-बीस बुरी भली यादों के सिवा कुछ नहीं होता।
पता नहीं लोग जीवनियां कैसे लिखते हैं। उसे तनहाई की चंद रातें गुजार लेने के बाद यकीन हो गया था कि जीवनियां झूठी होती है। लेखक अपने जीवन की कहानी नहीं लिखता। एक कहानी लिखता है। अपने वर्तमान के लिए अतीत का पुश्ता बांधता है। वह अपनी तसवीर को बहुत री-टच करता है। इससे भी काम नहीं चलता तो शायद अपनी गर्दन पर एक नया चेहरा जड़ देता है।
परन्तु वह तो बिलकुल अकेला था। आदमी चाहे दुनिया से झूठ बोल ले पर वह अपनी तनहाई से झूठ नहीं बोल सकता। वह अपने आपसे यह कैसे कहता कि जिन लैलाओं ने उसे धोखा दिया है वह वास्तव में बड़ी वफ़ादार थीं। वह तो अपने आपसे यह भी नहीं कह सकता था कि खुद वह बड़ा वफ़ादार है। उसे कभी अपने आप पर तरस नहीं आया।
उदास होना दूसरी बात है। उदासी तो इस युग के मनुष्य की तक़दीर है। उदासी और झल्लाहट। यही दो शब्द है जो बहरुपियों की तरह रूप बदल-बदल कर आते रहते है। यदि पहचान लिये जायें तो फिर बहरूप ही क्या हुआ!
उसे वह फैंसी ड्रैस शो याद था जिसमें वह अपने वेष में चला गया था। किसी ने नहीं पहचाना। बाद में उसे बताया गया कि एक आदमी ने ग़जब का बहरूप भरा था।
उसी दिन से जब कभी वह यह चाहता कि कोई उसे न पहचाने तो वह अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाये बिना निकल जाता... और फिर उसे आदत-सी पड़ गयीं। उसने अपने चेहरे पर कोई चेहरा चढ़ाना बिलकुल छोड़ दिया। नतीजा यह निकला कि अब उसे कोई पहचानता ही नहीं। एक दिन उसने वह नक़ली मुसकराहट बाक्स से निकाल कर देखी जिसे वह होंठों पर चिपका कर निकला करता था तो यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो एक बड़ी बेहूदा चीज थी। बेजान। बेमतलब। बेमजा। वह यह सोच कर हँस दिया कि इस मेक-अप में वह कैसा हवन्नाक दिखाई देता रहा होगा। उसने उस मुसकराहट को फिर बक्स में डाल दिया और यह सोचने लगा कि उसकी पत्नी ने इस चीज को संभाल क्यों रखा है! उसे तो सफा+ई का बड़ा शौक़ हैं।
उसकी पत्नी मसर्रत बड़ी सुघड़ और प्यारी लड़की थी। इश्क़ करते-करते थक-हार कर उसने मसर्रत से ब्याह कर लिया था। मसर्रत से उसे न ब्याह के पहले इश्क़ था और न ब्याह के बाद इश्क़ हुआ। और शायद इसीलिए वह उसे सही पर्सपेक्टिव में देख सकता था। इसीलिए वह बरसों इस फ़िक्र+ में रहा कि इस चांद का दाग़ कहां है। गहरी छानबीन के बाद उसे पता चला कि मसर्रत को पुरानी चीजें जमा करने का शौक़ है। उसका बस चले तो नयी साड़ियां बेच कर कबाड़ियें की दुकान से पुरानी साड़ियाँ ख़रीद लाये यह पता उसे खासा-पुराना पति हो जाने के बाद चला। फिर भी पलभर के लिये वह कांप गया कि किसी दिन बोर हो कर वह उसे औने-पौने निकाल कर किसी कबाड़ख़ाने से कोई ऐंटीक पति न ख़रीद लाये।
उसने जब यह बात मसर्रत को बतायी तो वह खिलखिला कर हंस पड़ी। उसने चोरों की तरह इधर-उधर देखा। बड़ा बेटा ख़ादिम हुसैन सामने ही रेडियोग्राम के पास क़ालीन पर लेटा गुन-गुना रहा था-:
रिमझिम बरसता सावन होगा,
झिलमिल सितारों का आंगन होगा।
छोटी बेटी ख़ातून जो अपनी छोटी गुड़िया के फ्लू से सख्त परेशान थी, बड़ी गुड़िया को डांट रही थी कि वह छोटी को लेकर इस ठंड में घर से निकली ही क्यों ...
ख़ादिम के गाने से बोर होकर वह बोली-भाई मियां, जब सावन रिमझिम बरस रहा है तो यह सितारे कहां से आ गये ?
खादिम सटपटा गया। पर वह छोटी बहन से हार भी नहीं मान सकता था। बड़े गंभीर लहजे में बोला-यह फिल्मी आंगन है।
बेटा-बेटी दोनों मशगूल थे। मसर्रत ने जल्दी से उसकी उस नाक का प्यार ले लिया। जिसका वह बहुत मजाक उड़ाया करती थी और बोली-ईडियट, तुम्हें यही ख़बर नहीं कि हर सुबह को मैं तुम्हें कबाड़ के कमरे में फेंककर दिल में हाथ डालकर एक नया यानी तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ!
उसे ठीक-ठीक पता नहीं था कि मसर्रत की बात पर हंसना चाहिए या नहीं, पर वह हंस पड़ा।
ख़ातून का हाथ हंसी की आवाज+ से हिल गया। गुड़िया की दवा ख़ादिम के उजले कुरते पर गिर गयी। ख़ादिम ने उसे एक चांटा मार दिया। उसने ख़ादिम को किचकिचा कर दांत काट लिया। खून छलक आया...
मसर्रत बीच-बचाव करने लपकी। पर भाई-बहन लड़ने के मूड़ में थे दोनों उछल-कूद रहे थे। इस पर मसर्रत को हंसी आ गयी ...
इस मसर्रत के साथ जिंदगी कभी पुरानी नहीं हो सकती। जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी। बस उस नक़ली मुसकान का ख्याल उसे परेशान किया करता था। एक दिन चुपके से वह उसे एक कबाड़िये के हाथ बेच आया। बात आयी-गयी हो गयी। वह उस मुसकराहट को भूल भी गया। उसके दिल से यह डर जा चुका था कि उसके मरने के बाद यदि उस पर रिसर्च करने वाले को यह मुसकराहट मिल जायेगी तो क्या होगा। यह डर मिट जाने के कारण वह ज्यादा खुल कर हंसने लगा था। दो-एक दिन के बाद मसर्रत ने कहा-बिल्डिंग के लोगों को यह ख्बर करने की क्या जरूरत है कि तुम हंस रहे हो।
वह बोला-अरे तो क्या बिल्डिंग वालों के डर से मैं हंसना बंद कर दूं!
बात बढ़ गयी सोलह बरस के बाद पहली बार बात बढ़ी थी ...
तीन-चार दिन तक दोनों में बातचीत बंद रही। ख़ादिम और ख़ातून ने भी भांप लिया था कि दाल में कुछ काला जरूर है। मसर्रत इस बीच में कई बार उन दोनों से इतनी दबी आवाज में, कि दूसरे कमरे में बैठा हुआ वह यह सुन सके, पूछ चुकी थी कि यदि वह दरभंगा चली जाय तो वह क्या करेंगे ... दरभंगा के नाम सुनकर वह कांप जाया करता था। बात यह थी कि अपनी मां से वह बहुत डरा करता था। वह सौतेली माँ रही होती तो वह सोच कर दिल को समझा लेता कि सौतेली मां से और क्या उम्मीद हो सकती है। परन्तु वह तो उसकी सगी मां थी और वह इकलौते बेटे से ज्यादा इकलौती बहू को चाहती थी।
कई दिन इस उधेड़बुन में गुज+र गये। एक दिन वह घर में सहमा-सहमा आया तो उसने देखा कि मर्सरत की आंखों में एक अजीब-सी चमक है। उसकी तरफ़ मसर्रत ने कनखियों से देखा। खादिम निहायत नया, चुनी हुई आसतीनों वाला कुरता पहने दरवाजे में खड़ा मुसकरा रहा था। ख़ातून गरारा पहने एक हाथ से पायचे और दूसरे से दुपट्टा संभालने में लगी हुई थी।
वह चकरा गया। चकराने का आसान इलाज यह था कि वह सीधा अपने कमरे में चला जाये वह अपने कमरे में चला गया।
पीछे-पीछे मसर्रत भी आयी। उसने कमरे के दरवाजे को अंदर से बंद किया। उसका दिल उछलकर हलक में आ गया। उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि मसर्रत चाहती क्या है।
-सुनते हो ? मसर्रत ने कहा। क्या बेहूदा सवाल है, इन हिन्दुस्तानी बीवियों को आखिर कब बात करना आयेगा ?
-क्या सुनूं ? उसने बड़ी भलमनसाहट से पूछा।
-नहीं सुनते तो मत सुनो, मसर्रत चमक गयी। मेरी जूती को क्या गरज पड़ी है। मैं ही पागल हूं कि दो दिन से मारी-मारी फिर रही थी।
-क्यों
-तुम्हारी सालगिरह के लिए और क्यों।
-मगर मेरी सालगिरह के लिए मारे-मारे फिरने की क्या जरूरत है। सालगिरह तो राशंड है, साल में एक ही बार मिलती है। चोर बाजार से एक आध सालगिरहें ख़रीद लायीं क्या !
उसका ख्याल था कि यह सुन कर मसर्रत जमीन-आसमान एक कर देगी। पर वह तो हंसने लगी। हंसते-हंसते बेहाल हो गयी।
हाल में आयी तो बोली- भई मुझे ख्फ़ा रहना नहीं आता।
-तो मान जाओ।
-मान गयी। मगर तुम तो बड़े वह।
-वह क्या!
-मेरा सिर। आज तुम्हारी सालगिरह है।
- सार्टिफिके+ट वाली कि असली वाली।
-मैं तुम्हारे लिए बड़े ग़जब की चीज लायी हूँ।
-तुम हमेशा ग़जब की चीज लाती हो।
-देखोगे तो फड़क जाओगे।
-अच्छा!
-हां।
वह मुसकरा दिया।
-तुम्हारी मुसकराहट बड़ी फटीचर है।
-आदत पड़ गयी है।
-छोड़ दो। जैसे सिगरेट छोड़ दी।
-ग़लत। मैंने सिगरेट को नहीं छोड़ा है। सिगरेट ने मुझे छोड़ दिया है। तंबाकू पर टैक्स इतना बढ़ गया है कि सिगरेट का ख़र्च और मकान का किराया बराबर हो गया है। पर अभी तक हंसना फ्री हैं। तो मैं अडल्ट्रेटेड या इंफ़ीरियर मुसकराहट क्यों इस्तेमाल करूं ? आगे न कह सका क्योंकि मसर्रत की हथेली पर उसकी वह पुरानी मुसकराहट चमक रही थी जो एक दिन चुपचाप कबाड़िये की दुकान पर बेच आया था।
उसकी आंखें हैरत से फैल गयीं।
-चकरा गये ना, वह लहक कर बोली। मैं खुद इसे देख कर फेंक गयी थी। बिलकुल तुम्हारे होंठ के नाप की है। उस गंवार कबाड़िये ने इस पर वार्निश जरा ज्यादा कर दी है। मगर चलेगी तुम्हारे रंग से भी मैच खाती हैं। मैं उससे कह आयी थी कि कलर होंठ में फिट नहीं होगा तो लौटा दूंगी ...
जहिर है कि अपनी वर्षगांठ के दिन वह उस मुसकराहट को स्वीकार नहीं कर सकता था।
वह मुसकराहट अब भी ड्रेसिंग टेबिल पर पड़ी हुई थी। उसी के पास मसर्रत की एक तस्वीर थी। वह ख़ातून को गोद में लिये हंस रही थी। वह ड्रेसिंग टेबिल की तरफ़ बढ़ा देर तक वह वार्निश की हुई उस मुसकराहट की तरफ़ देखता रहा। मसर्रत के बग़ैर अकेला रहना नामुमकिन था। उसने वह मुसकराहट अपने होंठो पर चिपका ली। सोचा कि फ़ौरन मसर्रत को एक ख़त लिखना चाहिए क़ाग़ज मिल गया। कलम नहीं मिल रही थी। कलम के केस में ख़ातून की गुड़िया का जहेज+ रखा था ... वह ढूंढते वह थक गया। आख़िर उसने मसर्रत के डे्रसिंग टेबिल की दराजें खखोड़ी। आखिरी दराज में उसे एक अजीब चीज मिली- मसर्रत जल्दी में अपने कहकहों का पूरा सेट भूल गयी थी। वह खिलखिला कर हंस पड़ा।
थोड़ी देर के बाद पड़ौस के लोग जाग गये। उन्होंने दरवाजा पीटना शुरू किया। परन्तु वह हंसता रहा। वह चाहता था कि अपनी हंसी रोक ले। पर जैसे टेढ़ी सुराही से पानी गिरना बंद नहीं होता उसी तरह उसके मुंह से क़हक़हा बह रहा था।
मसर्रत के क़हक़हों का सेट उसके हाथ में था। हंसते-हंसते वह खिड़की तक आ गया। बहुत नीचे सड़क रोशनी की एक लकीर की तरह पड़ी हुई थी। मसर्रत के क़हक़हों का सेट हाथों से फिसल कर खिड़की के बाहर जा पड़ा। उन्हें बचाने के लिये उसने हाथ बढ़ाया। वह हाथ नहीं आये, वह उन्हें बचाने के लिए झुकता ही चला गया।
सड़क एक दम से उछली और उससे टकरा कर टूट गयी।



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