Tuesday, December 28, 2010

यादों के दायरे

राही मासूम रजा





यादों के इस सफ़र में शामिल होने के लिए जब बात राही साहब से हुई तो उन्होंने कहा, मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू, क्योंकि उन लोगों को जानने से जि+न्दगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।'' आधा गांव', टोपी शुक्ला', हिम्मत जौनपुरी' ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज' और सीनः ७५' के कविमन रचनाकार डॉ० राही मासूम रजा की कलम से उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के उन्हीं भरे-भरे अरसों की खूबसूरत यादें।

हर आदमी के पास लिखने के लिए एक जीवनी होती है, पर हर आदमी वह जीवनी लिख नहीं पाता... हर आदमी लिखना चाहता भी नहीं क्योंकि कुछ यादें इतनी निजी होती हैं कि उनमें किसी को शरीक करने को जी नहीं चाहता। मेरे पास ऐसी यादें ज्यादा हैं। इसलिए मैं कभी अपनी जीवनी नहीं लिखूंगा परंतु मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू क्योंकि उन लोगों को जानने से जिंदगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।

मैं तो बंबई महानगर में जब अपने आप से ऊबने लगता हँू, उन लोगों में से किसी एक या दो को समय की गर्द झाड़ कर पास बिठा लेता हू और थोड़ी देर के बाद अपने जीवन-संघर्ष के लिए ताजा दम हो जाता हू।

दस साल से बंबई में अपनी यादों के सहारे जी रहा हू। बंबई ने आज तक मुझे कोई ऐसा क्षण नहीं दिया, एक क्षण के सिवा, जिसे यादों की दुनिया में जगह मिले। यह क्षण है मेरी बेटी, मरियम की पैदाइश का क्षण।

यहाँ कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। ड्ष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गये होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिये और उस काम की मज+दूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हू।

मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फ़ैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहां से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपये थे। तब कमलेश्वर ने सारिका', भारती ने धर्मयुग' से मुझे पैसे ऐडवांस दिलवाये और ड्डष्ण जी ने अपनी एक फ़िल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गयी। आज सोचता हू कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ०पी० तांतिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेंहदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की। क़ज उतर जाता है। एहसान नहीं उतरता और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आती पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।



जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा। छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में। उसने मेरा स्वागत यूं किया कि मैं यह भूल गया कि फ़िलहाल मैं बेरोज+गार हूं। हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे पर लगता था कि वह अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं। घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी। वह घर बहुत सस्ता था। जिस फ्लैट में अब हू उससे बड़ा था। इसका किराया ६०० दे रहा हू। उसका किराया केवल १५० रुपये माहवार था। तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए। रिज+र्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया। जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जायें क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं। जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ। उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डांट पिलायी मैंने।

चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गये और घर नंगा रह गया। मेरे पास दो कुर्सियाँ भी नहीं थीं। हमने कमरे में दो गद्दे डाल दिये और वहीं दो गद्दों वाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्राइंगरूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था। मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार। मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है। हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे। उन दिनों ड्डष्णचंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था। हम मजरूह साहब के घर उनसे मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते। फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न मांग बैठूं। यह शेर उन्हीं दिनों की यादगार है-

बे-चेहरा लोगों में रह कर भूल गये आवाज+

अपनी अक्सर ख्वाहिश होती है, कुछ बात करें हम साये से

उन्हीं दिनों मुझे पहली बार डर का अनुभव हुआ और उसी डर ने मेरी आवाज में एक अजीब कड़वाहट भर दी। बस नैयर थीं और नैयर के पेट में मरियम थी और मेरी परेशानियां थीं। नैयर कभी-कभी थक जाती। उन दिनों की एक कविता सुनाता हू -

तेज+ चलने लगी गुरबत ;मुसाफ़िरतद्ध में हवा

गर्द पड़ने लगी आईने पर

जागते रहने का हासिल क्या है

आओ, सो जाओ, मेरे सीने पर

ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि बिगड़ जायेंगे

ख्वाब तो दोस्त नहीं है कि हमें धूप में देखेंगे तो कतरायेंगे

ख्वाब तो दोस्त नहीं हैं कि जो बिछड़ेंगे तो याद आयेंगे

जागते रहने का हासिल क्या है

अव्वलेशब ;रात के पहले हिस्से मेंद्ध उसे देखा था यहां

चांद ठहरा है उसी ज+ीने पर

आओ सो जाओ, मेरे सीने पर।

यही कड़वाहट तो मेरी वह पूंजी है जो ÷ओस की बूंद', दिल एक सादा कागज', सीनः७५' और कटरा बी आर्जू' लिखने में खर्च हुई।



उन दिनों मैं हिल रोड पर रहा करता था। लगता कि दिन भर यह सड़क मेरे फ्लैट के बीच से होकर गुजरती है। गयी रात को ज+रा शोर कम हुआ करता था और तब मैं नैयर के साथ अकेला होता था और उन्हीं के अकेले क्षणों में नैयर का प्यार मेरी आत्मा के घाव धोता और मुझे दूसरे दिन की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार करता... नैयर को मेरी शायरी पसंद नहीं। पर मुझमें जीते हुए शायर ने नैयर के लिए एक लोरी लिखीः

आओ, हम तुम चलें नींद के गांव में

कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं

इस पसीने के गहरे समुंदर के साहिल पे टूटी हुई सारी अंगड़ाइयां सो गयीं

शोर कम हो गया

कहकहे सो गये

सिसकियां सो गयीं

सारी सरगोशियां सो गयीं

रास्ते, चलते-चलते घरों में समाते गये

शहर अकेला खड़ा रह गया

क्यों न हम इस अकेले, भटकते हुए शहर को साथ लेते चलें

नींद के गांव तक

रात ढलने लगी

आंख जलने लगी

लफ्ज खुद अपनी आवाज के बोझ से दब गये

तुमने सरगोशियों को रिदा चादरद् ओढ़ ली

आओ, सरगोशियों को ही रख्ते-सफ़र सफ़र का सामान की तरह बांध लें

आओ, हम तुम चलें

नींद के गांव में

कुहर के शहर में सारी परछाइयां सो गयीं



आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अंधेरा रहा होगा उन दिनों। नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था... कि एक दिन सलमा आपा आ गयीं। इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं। उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे। सलमा आपा बैठीं। इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर वह चली गयीं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाये हुए आया। हमने उस तुहफ़े को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और ड्डष्णजी को तकलीफ़ होती और हम उन्हें तकलीफ़ देना नहीं चाहते थे।

रहीम ने ग़लत कहा था कि : रहिमन बिगड़े दूध को मथे न माखन होय।

जीवन का दूध जब बिगड़ता है तभी माखन बनता है। क्योंकि तभी मनुष्य अपने आप से उलटे-सीधे सवाल करता है। मैंने भी अपने आप से उन दिनों कई सवाल किये। पूछा कि :

क्या वह दिन भी दिन हैं जिनमें दिनभर जी घबराये

क्या वह रातें भी रातें हैं जिनमें नींद न आये?



कभी-कभी वह लमहे भी आये जब हार मान लेने को जी चाहने लगा। ऐसे में घर की याद आती-

हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं राही

आये और हमको समझा के कोई घर ले जाये।

ऐसा इसलिए था कि उन दिनों में अपनी आत्मा को लहू-लुहान पा रहा था परंतु अपने खून से कहानियां और शेर लिखने का हौसला था मुझमें। फिर भी मुझे अपना मरसिया लिखना पड़ाः

एक चुटकी नींद की मिलती नहीं

अपने जख्मों पर छिड़कने के लिए

हाय हम किस शहर में मारे गये...

घंटियां बजती हैं,

जीने पर क़दम की चाप है

फिर कोई बे-चेहरा होगा,

मुंह में होगी जिसके मक्खन की जबां,

सीने में होगा जिसके एक पत्थर का दिल

मुस्करा कर मेरे दिल का एक वरक ले जायेगा।

सच कहता हू, मेरी आवाज के पांव किसी दलदल में धंसे जा रहे थे और मैं बेबसी से अपने गुम होने का तमाशा देख रहा था क्योंकि कुछ कर ही नहीं सकता था।

लेकिन मैंने फिर भी हार नहीं मानी। बंबई में मैंने चार उपन्यास लिखे। आठ-दस कहानियाँ लिखीं। चालीस-पचास नज्+में लिखीं। दो-चार सौ फुटकर शेर लिखे। सौ-पचास लेख भी लिखे होंगे। पलट के देखता हूं तो लगता है कि सौदा ख़िसारे का नहीं रहा। मैं यह दस साल फिर से जीने को तैयार हू।



और कमलेश्वर कहते हैं कि वह राही मासूम रजा नहीं हैं कि जो चाहे वह उनसे अपनी अंट-शंट फ़िल्में लिखवा ले। यह बात किसी और ने कही होती तो इतनी तकलीफ़ न होती। पर कमलेश्वर...यह मानने को जी नहीं चाहता। जो कमलेश्वर मेरा दोस्त था वह कहीं गुम हो गया है। यह तो आर०के० नारायण की लिखी हुई किसी फ़िल्म का कोई पात्र है जो तलवार भांजता फिर रहा है कि कोई तो घायल होगा... मेरे दिल के जख्मों की खतौनी में एक-आध घाव कमलेश्वर के लगाये हुए भी हैं और यही मेरी गर्दिश के दिनों की सबसे ज्यादा भयानक देन है।

मैं आज कमलेश्वर की बात करना नहीं चाहता था। पर बंबई की एक याद वह भी है, तो उसका जिक्र कैसे न करता।



आजकल घर बहुत याद आ रहा है। बारह साल हो गये घर नहीं गया हूं। लोग भी याद आते हैं। पर ज्+यादा याद आती है वहां की धूल भरी गलियां, गचकी वाली सड़कें, बेतकल्लुफ़ भीड़भाड़, मेरी मातृभाषा बोलती हुई आवाजें। अभी कुछ दिन पहले एक ग़जल लिखी है। उसी के दो शेरों पर आज की बात ख्त्म करता हू।

कच्चा आंगन बिस्तर खोले, दरवाजा विश्राम करे

राही जी कुछ दिन को अपने घर हो आयें, राम करे

मेरी घायल आंखों ने तो जोड़ लिये हैं हाथ अपने

बनजारे सपनों की टोली किन आंखों में शाम करे।



3 comments:

KESHVENDRA IAS said...
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KESHVENDRA IAS said...

वाकई हिंदी ब्लॉग की दुनिया दिन-पर-दिन समृद्ध होती जा रही है. ब्लॉग जगत पर नए लोग तो अनवरत लिख ही रहे हैं पर पुरानी पीढ़ी के महानतम साहित्यकारों मे एक रही मासूम रजा साहेब के साहित्य को यहाँ इस ब्लॉग पर देख कर मन धन्य हो गया. अभी भी याद है महाभारत मे उनके लिखे संवाद, उनके सुप्रसिद्ध उपन्यास नीम का पेड़ ओर उसपर बने सीरियल की यादें. इस ब्लॉग के माध्यम से अपने इस बेहत अज़ीज़ साहित्यकार की जिंदगी के सफर ओर हमसफरों को जानना काफी मार्मिक अनुभव लगा. और भी बहुत कुछ पढ़ने का इंतज़ार रहेगा. इस शानदार ब्लॉग के लिए फिरोज अहमद जी को भी ढेर सारी शुभकामनाएँ.

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लगा यह संस्मरण पढ़कर! शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिये।