Saturday, February 28, 2009

एक जंग हुई थी कर्बला में

- राही मासूम रजा


जैनब की आँखों में रास्ते की धूल थी, उसने अंगुलियों से आँखें मलीं ... हां, सामने मदीना ही था। नाना मुहम्मद का मदीना। जैनब की आँखें भर आयीं, लेकिन रोना किसलिए ?
बग़ल वाले महमिल का पर्दा उठाये कुलसूम का मर्सिया झांक रहा था :
ऐ नाना के मदीने,
हमें स्वीकार न कर
हमें स्वीकार न कर क्योंकि हम गये थे तो गोदें भरी थीं
और लौटे हैं तो गोदें वीरान हैं ......
एक तरफ़ से मदीना आ रहा था। दूसरी तरफ़ से जैनब का कारवां बढ़ रहा था ... और यादों का दर्द बढ़ता जा रहा था। वह कुछ कैसे बता पायेगी ? उसकी आँखों में आँसुओं की न जाने कितनी नदियां सूख चुकी थीं, उसे ऐसा लगा, जैसे सामने मदीना नहीं है, बल्कि माँ खड़ी है - बाहें, फैलाये। आँसू जैनब के गले में उतर आये- माँ, हम हुसैन को खो आये!
हुसैन। इस नाम में न जाने क्या था कि ज+बान पर आते ही घुल गया और अमृत बन कर रंगों में दौड़ने लगा और बाहों पर पड़े रस्सियों के निशान मिट गये और जैनब को ऐसा लगा, जैसे सब साथ है जैसे अब्बास और अली अकबर अब सवारियों के उतारने का बंदोबस्त करने आने ही वाले हैं। जैसे वह हुसैन की आवाज सुनने ही वाली है-बहन, उतरो, मदीना आ गया।
जैनब को वह रात अच्छी तरह याद थी जब मदीना के गवर्नर वलीद इब्ने-अकबा ने हुसैन को अपने घर बुलाया था, हुसैन तैयार हुए तो फातमी जवान भी तलवारें ले कर उठ खड़े हुए क्योंकि सब जानते थे कि वलीद ने हुसैन को क्यों बुलवाया है। वलीद के पास दमिश्क से यह फरमान आया हुआ था कि हुसैन से कहो कि सिर छुका दें और अगर वह सिर न झुकायें तो सिर काट लिया जाये। वलीद को मालूम था कि जिसे फ़ातिमा ने चक्की पीस-पीस कर पाला है और यहूदियों के बाग़ में पानी चलाकर जिसे अली ने सिर बुलंद करने का सबक़ दिया है, वह सिर नहीं झुकायेगा। यही हुआ। हुसैन उससे यह कह कर चले आये कि हुसैन कोई काम रात के अंधेरे में चुपचाप नहीं करता। सुबह को जवाब दिया जायेगा। परन्तु सुबह होने से पहले हुसैन ने मदीना छोड़ दिया।
जैनब अपने दो बेटों को लेकर भाई के साथ चली, बड़ा बेटा औन ११ साल का था और छोटा बेटा मुहम्मद १० साल का। अब्दुल्ला ने दोनों बेटों को जैनब के हवाले करके कहा था- जैनब, मैं बीमार न होता तो खुद चलता। कोई बुरा समय आ जाये तो मेरी ओर से इन लड़कों को हुसैन पर न्यौछावर कर देना।
यात्रा शुरू हुई। नीचे रेत थी, ऊपर आसमान और वहीं चमचमाता हुआ सूरज बच्चे पानी मांग रहे थे। हुसैन का घोड़ा पानी माँग रहा था और अरब के मशहूर सूरमा हुर की सेना कूफे के गवर्नर इब्ने ज्याद के हुक्म से हुसैन को घेरने के लिए आ पहुंची थी वह सेना परछाई की तरह कर्बला तक हुसैन के साथ आयी।
फुरात का पानी देख कर हुसैन ने घोड़े की लगाम खींच ली, जवानों ने अंगों के बाँध खोल दिये, बच्चे किलकारियां भर कर उछल पडे.... नहर चल रही थी। कारवां रुक गया था।
फिर ताबड़तोड़ फ़ौजें आने लगीं : सेनाध्यक्ष अमर इब्ने साद ने हुक्म दिया कि नहर के किनारे शाही सेना का पड़ाव पड़ेगा। हुसैन ने सौतेले भाई अब्बास से कहा- मैं चाहता हूं कि शाही इतिहासकार को हमारी मौत से जोड़ने के लिए कोई बात न मिले। मैं यह चाहता हूं कि वह केवल यह लिख पाये कि शाही फ़ौजों ने मुहम्मद की औलाद को क़त्ल कर दिया। अब्बास चुप हो गया। ख़ेमें उखाड़े गये और उन्हें ठंडे पानी से बहुत दूर दहकती हुई रेत में गाड़ दिया गया। हुसैन ने यही कहा था- मैं पानी के लिए लड़ना नहीं चाहता। मैंने सर झुकाने से इनकार किया। सिर न झुकाना मनुष्य का अधिकार है। मैं केवल इस अधिकार के लिए लड़ना चाहता हूँ।
हर तरफ एक ही आवाज थी- पानी! पानी! और हुसैन के कंधे जिम्मेदारी के बोझ से दुखने लगे थे।
रात को फैसला कर लिया गया कि सुबह ही लड़ाई होगी।
सबेरा हुआ। जैनब ने औन और मुहम्मद की कमर से तलवारें बांध दीं और कहा-मामू के साथ सुबह की नमाज पढ़ो। हुसैन ने नमाज+ पढ़वायी।
सामने यजीद की सेना थी। पीछे खेमों में औरतें और बच्चे थे। डेढ़ सौ सिपाही दस हजार सिपाहियों के सामने सीना ताने खड़े थे। डेढ़ सौ सिपाहियों में सबसे छोटा सिपाही १० वर्ष का मुहम्मद था और सबसे बड़ा अड़सठ वर्ष का हुसैन।
यकायक शाही फ़ौज में एक शोर हुआ। जैनब जो द्वार पर खड़ी भाई की तरफ़ देख रही थी, चौंक उठी सामने से चार सवार चले आ रहे थे। जैनब ने हुर को पहचान लिया।
और फिर जो कुछ हुआ उसे जैनब भूल जाना चाहती थी। उसने औन और मुहम्मद को घायल हो कर गिरते देखा, उसने अली अकबर को बरछी खाते देखा। उसने अब्बास की बांहे कटते देखीं। उसने १० वर्ष के क़ासिम की लाश को घोड़ों के सुमों में आते देखा। उसने देखा कि हबीब अपनी भवों को ऊपर उठाकर रूमाल से बांध रहे हैं। उसने मुस्लिम इब्ने औसजा को तीरों से छलनी होते देखा। उसने आसमान की तरफ देखा। आसमान में सूरज अकेला था और कर्बला में हुसैन।
हुसैन कभी दिखायी देते, कभी डूब जाते। जैनब चाहती थी कि सब कुछ अपनी आँखों से देखें। सामने एक टीला था। वह टीले पर जा चढ़ी ... तीसरे पहर की नमाज का समय आ गया था, हुसैन घोड़े से उतर पड़े। जैनब ने उनका सिर सिजदे में झुकते देखा। फिर भीड़ इतनी बढ़ गयी कि टीला नीचा हो गया। जैनब कुछ न देख सकी और फिर भीड़ में एक नेजा उठा। उस पर हुसैन का सिर ... कितना ऊंचा!
... कुलसूम अपना मरसिया गुनगुना रही थी :
- नाना के मदीने
- हमे स्वीकार न कर ....

Friday, February 27, 2009

राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर

राही मासूम रजा की कहानियां: मनुष्य के ख्वाबों की तावीर

- प्रताप दीक्षित


राही मासूम रजा के निधन के १६ वर्षों बाद उनकी याद और उनके साहित्य का पुनर्मूल्यांकन इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के ६० साल बाद भी वे दारूण स्थितियां, जिनके विरु( राही ने कलम उठाई थी ज्यों की त्यों मौजूद हैं। आजादी का वास्तविक स्वरूप और मूल्य स्थापित नहीं हो सके। मनुष्य के विरोध में उभरने वाली शक्तियां और प्रखर हुई हैं। सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार विघटित हुए हैं। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की स्थितियां बद से बदतर होती गई। प्रगति, आर्थिक विकास और धर्म के नाम पर किया जाने वाला शोषण और आम मनुष्य की उपेक्षा युग सत्य बन गए। ऐसी स्थिति में राही मासूम रजा का साहित्य इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से इन स्थितियों के खिलाफ संघर्ष ही नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी देश और समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा के आधार पर विभाजित करने वाले राजनीतिकों, तथाकथित समाजसेवियों और छद्म बुद्धि जीवियों का सतत्‌ विरोध करते रहे। अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण उन्हें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदाय के कट्टरपांथियों के विद्वेश का शिकार होना पड़ा। साहित्य के इतिहास में, संभवतः कबीर के बाद, राही पहले साहित्यकार है जिन्हें ऐसी हालातों से गुजरना पड़ा। उनके संघर्ष के अनेक प्रसंग हैं। अपने विचारों के चलते मुस्लिम विश्वविद्यालय की नौकरी उन्हें छोड़नी पड़ती है। मुफलिसी के दिनों में पत्नी प्रसव हेतु अस्पताल में थी। लेखक मित्रों कमलेश्वर, भारती, कृष्णचन्दर की मदद से अस्पताल का बिल भरा गया। बम्बई में किसी तरह काम मिलने का सिलसिला शुरू होता है लेकिन न तो राही की बेबाकी कम होती है न ही संघर्ष। यहाँ तक कि हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक द्वारा संचालित प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित उनके उपन्यास आधा गाँव की पूरी रायल्टी भी नहीं दी जाती। जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके उपन्यास ''आधा गाँव'' को तत्कालीन विभागाध्यक्ष नामवर सिंह के समर्थन के बाद भी बिना नामवर सिंह की सहमति के पाठ्यक्रम से हटा दिया जाता है। राही बदनीयती से कभी समझौता नहीं कर पाए। कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य होते हुए भी जब केरल में साम्यवादी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के लिए मुस्लिम लींग से गठबंधन किया गया तब पार्टी मेंबर होते हुए भी उन्होंने इस गठबंधन का कड़ा विरोध किया। जनसंघ और मुस्लिम लींग दोनों ही उनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक हैं। उनकी साफगोई दूसरों के लिए ही नहीं वरन्‌ स्वयं के संबन्ध में भी है। एक साक्षात्कार में वह अपने फ़िल्मी लेखन के संबन्ध में स्वीकार करते हैं...मैं जानता हूँ कि फ़िल्मों में घटिया लेखन कर रहा हूँ। सब-स्टैर्ण्ड काम करता हूँ ताकि जी सकूं। जियूंगा तभी तो कुछ लिख सकूंगा। मुझे इसकी कोई शर्म नहीं। परन्तु फ़िल्मों में जो लिखना चाहता हूँ वह तो अभी लिख ही नहीं सका।
राही मासूम रजा के साहित्य के विवेचन के परिप्रेक्ष्य में इन स्थितियों और संघर्षों का आकलन इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि किसी साहित्यकार का संपूर्ण लेखन उसके विचारों, जीवन-दर्शन और संघर्षों का ही आइना होता है।
राही मासमू रजा मूलतः उपन्यासकार के रूप में जाने जाते हैं। यह अल्पज्ञात तथ्य है कि वह एक संवेनशील कवि और सशक्त कहानीकार भी थे। उनकी कविताओं का प्रभाव उनके उपन्यासों, उनके पात्रों और कहानियों पर परिलक्षित होता है। अपने उपन्यासों के प्रकाशन के पूर्व वह कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।
राही का कोई कहानी संग्रह संभवतः प्रकाशित नहीं हुआ है। राही साहित्य के अध्येताओं और शोध करने वालों ने भी उनकी कहानियों के संबंध में कोई चर्चा नहीं की है। राही की कहानियां तत्कालीन पत्रिकाओं सारिका, धर्मयुग, रविवार आदि में बिखरी हुई हैं। राही की पहली कहानी तन्नू भाई शीर्षक से है जो उन्होंने १७ वर्ष की आयु में १९४४ में लिखी थी। पाठकों को ज्ञात होगा कि तन्नू भाई उनके उपन्यास आधा गाँव का एक पात्र है। साहित्य के अध्येता जानते हैं कि प्रत्येक कहानी में एक उपन्यास की संभावना और हर उपन्यास के प्रत्येक पात्र की अपनी कहानी होती है।
कहानी और उपन्यास के बीच अन्तर के सैद्धन्तिक प्रश्न को यदि विद्वजनों के लिए छोड़ दिया जाए और विषय को केवल लेखक की कहानियों तक सीमित करें तब भी यह तो तय है कि समय के संग्रहलय में किसी रचनाकार की एक रचना भी बची रह जाती है तो साहित्य के इतिहास में लेखक का नाम अक्षुण्ण हो जाता हैं।
समीक्षकों ने राही मासूम रजा के साहित्य को साम्प्रदायिकता के विरूद्ध एक जेहाद के रूप में परिभाषित किया है। इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता। परन्तु राही की कहानियों से लेखक की संवेदना के विविध आयाम उद्घाटित होते हैं। मनुष्य के स्वप्न, अभाव, शोषण, रिश्तों की संवेदनहीनता, मनुष्यता की अवमानना तज्जनित उसके अकेलेपन का चित्रण उनकी कहानियों में मिलता हैं। यहाँ तक कि आज की सर्वग्रासी विभीषिका बाजारवाद का भी उन्होंने पूर्वालोकन कर लिया था।
दरअसल किसी साहित्यकार के रचनात्मक संघटन में इतिहास, परिवेश और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव होता है। परन्तु सभी के लिए अपने समय के दौर की रचनात्मकता के साथ आसान नहीं होता। कारण इतर हैं। जरूरत होती है। संघर्षगामिता, प्रखर दृष्टि और ईमानदारी की। राही नई-नई मिली आजादी या कहा जाए सत्तापरिवर्तन के समय युवा हुए थे। वह देश के बटवारे को कभी स्वीकार नहीं कर सके। आजादी के बाद के हालातों साम्प्रदायिकता, विषमता, शोषण, भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी के लिए जलालत के अतिरिक्त कुछ बचा था तो उसकी आँखों में अधखिले सपने और एक विशाल जनसमूह उन सपनों की भी असामयिक मृत्यु के लिए अभिशप्त हो गया। राही की कहानियां इन सबके लिए जिम्मेदार शक्तियों को कटघरे में खड़े करने की कोशिश हैं।
राही मासूम रजा की कहानियों के परिपे्रक्ष्य में उनका साहित्य दो ध्रुवों पर स्थित दिखाई देता हैं। एक छोर पर उनकी कहानियाँ साम्प्रदायिकता, सामाजिक-राजनीतिक असमानताओं, पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों के खिलाफ एक अनवरत युद्ध है जो सपनों को सच करने के लिए लड़ा जा रहा है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था स्वतंत्रता, न्याय, समता आदि की व्याख्या अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने ढंग से करती है। लेखक की नियति उससे टकराना है।
दूसरी ओर उनकी कहानियों में जगह-जगह पर ख्वाबों, परछाइयों,धुंध और सन्नाटे हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से वह मिथक, इतिहास और संस्कृति में मानवीय अस्मिता की तलाश करते नजर आते हैं। चम्मचभर चीनी में पौराणिक प्रसंग को लेखक वर्तमान संदर्भों से जोड़ता है। देवताओं ने समंदर को मथा/जहर भी अमृत भी मिला/ मथे मेरी तरह/एक कतरे को जरा/किसने अपने को मथा/मेरे सिवा/मेरे ही जैसे दीवानों की तरह।
दिल एक सादा काग़ज-खोए हुए सपनों और परछाइयों की तलाश का प्रयास है। जैदी विला एक ऐसा प्रतीक है जिसके माध्यम से लेखक अपनी आत्मा, जमीन, इसांनियत खोज रहा है।
राही की कहानियों में आत्मा पर चढ़ी धूल है, खुशबू में बसा अंधेरा है, यादे हैं, चाँदनी आँखों की अफ्‌सुरदा है, बिछुड़ गई परछाइयाँ है, सहमी खामोशी है, सिकुड़ गए सपने हैं, चुटकी भर नींद है। परन्तु मंजिल दूर है। अब तो कृष्ण भी परदेश गया है। राही को ही अपने खूने दिल से राहों पर फूल खिलाने हैं।
प्रेमचन्दोत्तर कहानी ने कई पड़ाव पार किए। उस समय समाज जिस ध्रुवहीनता में धूम रहा था, कहानी उसी में रास्ता तलाश रही थी। कहानी की अन्तर्वस्तु और स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आए। तमाम कथा आन्दोलनों से परे कहानियों के संबंध में राही की अपनी मान्यताएं हैं उनका मानना है कि कथाकार के लिए जरूरी है कि वह उन लोगों को अच्छी तरह जानता हो जिनकी वह कहानी सुना रहा है। वह यह भी मानते हैं कि साहित्य में मूल प्रश्न वास्तविकता का नहीं बल्कि वास्तविकता की तरफ़ लेखक के दृष्टिकोण का होता है। राही के कथा साहित्य के विश्लेषण से मालूम होता है कि उन्हें इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ है। उनकी रचनाओं में मूल्यों की स्थापना का कथात्मक प्रयास है। उनकी कहानियों में जीवन की गहरी और व्यापक समझ पाई जाती है।
उनकी कहानियों की रचना प्रक्रिया के संबंध में राही की पहले प्लाट सोच कर कहानी लिखना नहीं पसंद करते। दृष्टव्य है कि फ्रांसिस विवियन ने भी दृढ़ता से प्लाट का विरोध किया था। उनकी कहानियों के केन्द्र में कोई व्यक्ति या चरित्र होता है। लेखक की श्रद्धा मानवीय संवेदना में है जिसका केन्द्र मनुष्य होता है। विचार भी इसी माध्यम से आते हैं। राही के अनुसार जीवन के विषय में एक दृष्टिकोण के बिना अच्छी कहानी नहीं लिखी जा सकती। वह कहते हैं कि यदि कहानी युग की सीमाओं को नहीं पार कर पाती तो समाप्त हो जाती है।
राही मासूम रजा की जो भी कहानियां उपलब्ध हो सकी हैं ये उनके कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व तो नहीं करती परन्तु इनके आधार पर उनके सपनों, संघर्ष और विचारों की बानगी अवश्य मिलती है।
चम्मचभर चीनी राही मासूम रजा की १९७६ में प्रकाशित कहानी है। फंतासीनुमा इस कहानी में जीवन की कड़वाहटें, टूटते सपने और अभाव हैं। एक ओर यह मनुष्य के मोहभंग की कहानी है तो दूसरी ओर अटूट जिजीविषा की।
कथ्य की दृष्टि से यह लेखक और उसके मित्र की कहानी है। मित्र जीवन की विसंगतियों और अभावों को स्वीकार नहीं कर पाता। कड़वाहट मिटाने के लिए चम्मचभर चीनी की ही दरकार है, जो है वह चाय के प्याले में मिठास भरने के लिए पर्याप्त नहीं है। लगता है कि यह मित्र लेखक का अपना ही अक्स है। अन्त में लेखक आजिज आकर आइने पर दावात फेंककर मारता है। आइना टूटने से वह राहत महसूस करता है। सन्नाटा चम्मचभर चीनी बन जाता है और चाय मीठी हो जाती है।
चम्मचभर चीनी जीवन के अभावों, कड़वाहटों और मनुष्य के टूटते सपनों को बचाने की कोशिशों का प्रतीक है। बंद आँखों से देखे गए ख्+वाबों की कहानी। क्योंकि खुली आँखों के सामने जो यथार्थ आता है उसमें जीना मुश्किल हो गया है। समय या तो स्थगित हो गया है या अतीत की ओर चलने लगा है। भविष्य की ओर जाने वाले सभी रास्ते बंद हो चुके हैं। आम आदमी विवश हो गया है ख्वाबों और कविता के अन्दर जीने के लिए। इनके बाहर जो यथार्थ है उसका सामना वह नहीं कर सकता। कविता के बाहर की जि+न्दगी उसके लिए नहीं है।
मंहगाई के बीच सस्ता सिर्फ़ मनुष्य हुआ है। एक चम्मच में बोरी की बोरियां चीनी समा जाती है लेकिन चम्मच नहीं भरती। इस बाजार में हाथ की कीमत एक चम्मच चीनी है। जो कभी भरती नहीं। यह एक चम्मच चीनी मनुष्य की अस्मिता, आत्मा और सपने हैं जिसकी कीमत किसी बाजार में नहीं लगाई जा सकती। जिसका खालीपन कोई बाजार व्यवस्था नहीं भर सकती। बाजारवाद के विरुद्ध, लिखी गई, संभवतः पहली कहानी है।
लेखक बायां हाथ खरीदना चाहता है। क्योंकि उसका बायां हाथ बरसों हुए सुन्न हो चुका है। दाहिना तो पहले ही सलाम करते करते थक चुका है। उससे तो उम्मीद की नहीं जा सकती। लेखक का यह व्यंग्य उन छद्म वामपंथियों पर प्रतीत होता है जो स्वयं जमाने से इस बाजार संस्कृति का हिस्सा बनते जा रहे हैं। लेखक पूंजीवादी पतनशीलता से जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों पर प्रश्न खड़े करता है।
अंत में मिठास आती है, हाथ में जान भी। परन्तु आइना टूटने के बाद। आइना ही तो आत्म साक्षांत्कार है। आइने में व्यक्ति अपनी ही शक्ल देखता है। आत्ममोह व्यक्तिवाद की ओर ले आता है। बाजार का दबाव भी यही करता है। मनुष्य को खण्डों में विभाजित करता है। आत्ममोह के आइने को तोड़ कर ही बूंद और अपने को मथा जा सकता है। जीवन में मिठास भरने के लिए अपने से बाहर आना ही होगा।
यह छोटी-सी कहानी गहरी विचार दृष्टि और महाकाव्यों की गइराई अपने में संजोए हुए है।



सपनों की रोटी व्यवस्था के शव विच्छेदन की कहानी हैं । समाज, राजनीति और व्यवस्था के अन्तविरोधों पर व्यंग्य कथा लगती यह कहानी राही की अन्य रचनाओं की भाँति मनुष्यता की तलाश कहानी है। अथवा कहा जाए कि एक प्रकार से मनुष्य के सपनों की अथवा स्वयं की खोज की कहानी है।
कहानी का कथानक छोटा लेकिन इसका फलक बड़ा है। कहानी का मुख्य पात्र एक लेखक है जिसकी एक जेब में पी-एच०डी० की डिग्री और दूसरी में उसके लिखे नए उपन्यास के कुछ पन्ने हैं। वह स्वयं कहीं गुम हो गया है। तलाश उसी को करनी है। लेखक इस खोज के माध्यम से राजनीति, मंहगाई, सरकारी तन्त्र, भ्रष्टाचार, सरकारी नौकरियों की स्थिति और यथार्थ, लोगों की सोच का यथार्थ विश्लेषण करता नजर आता है। अपने को कहीं न पाकर अन्त में वह सोचता है कि शायद वह मर चुका है जिसकी उसे ख़बर नहीं हुई हैं। वह निराश लौट कर पलंग पर अपने को सोए हुए पाता है। उसे इत्मीनान होता है कि यदि वह सो रहा है तो वह सपने भी देख रहा होगा। ग़नीमत है कि उसके सपने तो सुरक्षित हैं।
लेखक इस कहानी में व्यवस्था पर निरन्तर कटाक्ष करता है-अगर मुसलमान अपना घर जलवाने, अपने आपको कत्ल करवाने के लिए दंगा शुरू कर सकते हैं तो, सरकारी नौकरी क्यों नहीं कर सकते।''
ज्ञातव्य है कि मुसलमानों पर इस तरह के आरोप केवल साम्प्रदायिक पार्टियों द्वारा ही नहीं वरन्‌ प्रशासन द्वारा भी लगाए जाते रहे हैं। (संदर्भ-विभूति नारायण राय द्वारा इस विषय पर लिखा गया शोध प्रबंध )
इसी प्रकार जातिवाद पर व्यंग्य है-जातिवाद तो साहब हजारों बरस पुराना है। पुरानी शराब है, छूटती नहीं है मुंह से काफी लगी हुई। लेखक बीसवीं सदी में वैज्ञानिक सोच की जगह धर्म की विडम्बना पर व्यंग्य करता है, नौकरी तो उन्हें मिलेगी तो ब्लैड बोर्ड पर श्री, ऊँ० या बिस्मिल्लाह लिख कर फिजिक्स पढ़ाना शुरू करें।
त्रासदी तो यह है कि आम आदमी ने यह दंद फंद सीखे नहीं हैं। सपने देखने के सिवा। लेकिन अब तो सपनों का बाजार भी मंदा पड़ रहा है। जिंदगी बाजार का उतार चढ़ाव होकर रह गई है। यह विडम्बना ही तो है कि मनुष्य की पहचान के लिए जाति और धर्म ही सबसे बड़े गुण बन गए हैं। उसका सिर्फ़ मनुष्य रहना महत्त्वहीन है। जरूरी है कुछ और होना।
सपने, ख्वाबों की तासीर, आत्मा, चीनी मिठास के लिए आदि राही के प्रिय प्रतीक हैं। अपने अंदर गहरे अर्थ और संदर्भ संजोए हुए ऊपर से साधारण से दिखते शब्द मात्र। चीनी की मिठास आत्मीयता की तलाश है। वह रोटी से ज्+यादा सपनों को मनुष्य के लिए आवश्यक मानते हैं। रोटी के बिना मनुष्य कुछ दिन जिंदा रह सकता है। न मिलने पर वह, अधिक से अधिक मर जाएगा। परन्तु यह मृत्यु मनुष्य की होगी। परन्तु सपनों के बिना मनुष्यता ही मर जाएगी। तभी मनुष्य के लिए सपने ज्यादा जरूरी हैं। सपनों के जिन्दा रहने पर बदलाव की संभावना तो रहेगी।
राही की कहानियों में मानवीय जिजीविषा बरकरार रहती है। कहानी के अंत में कहीं चीनी मीठी हो जाती है, कहीं विषम से विषम स्थिति में वह सपनों में खो जाता है।
कथायात्रा के इस क्रम में लेखक की अगली कहानी जो इसी भावभूमि की है वह है-खुश्की का टुकड़ा। यह कहानी मनुष्य के अकेलेपन, उसकी खो गई हँसी, आत्मा की तनहाई के साथ-साथ पूरी उदास पीढ़ी की कहानी है।
कहानी का कथ्य कुछ यूं है-यह उस अकेले और उदास नायक की कहानी है जिसकी आत्मा की तनहाई उसकी पीढ़ी की तकदीर है। इस अकेलेपन से बचने का एक ही उपाय है-यादों में जो खो जाना। अकेलेपन से उदासी और झुंझलाहट रूप बदल-बदल कर आते हैं। रूप बदलना और चेहरे पर चेहरे लगा लेना तो मनुष्य की नियति हो गई है। वह इतना कृत्रिम हो गया है कि बिना मुखोटों के वास्तविक रूप में तो उसे कोई पहचानता भी नहीं। सबके चेहरे, मुस्कानें, हंसी सब नकली हैं। उस आम आदमी की आत्मा को शायद यह नकलीपन गवारा नहीं। वह अपनी नकली मुस्कान एक कबाड़ी को बेच देता है। फिर एक दिन बेइन्तिहा-सा हंसना शुरू कर देता है। शायद यही उसकी असली हंसी है। एक दिन उसकी पत्नी उसकी वही नकली हंसी कबाड़ी से वापस ले आती है। परन्तु कथानायक को वह नकली, एडेल्ट्रेड, इन्फीरियर हंसी नहीं पसंद है। पत्नी रूठ कर मायके चली जाती है। नायक रूठी पत्नी को मनाने के लिए पत्र लिखने के लिए काग़ज ढूढ़ रहा है तभी उसके हाथ पत्नी के कहकहों का सेट'' लग जाता हैं, जो वह भूल गई है। कहकहों का सेट उसके हाथ से फिसल जाता है और हंसी रोशनी की लकीर की तरह निर्बाध बहती रहती है। वह बचाने के लिए हाथ बढ़ाता है परन्तु हंसी का सेट हाथ नहीं आता परन्तु सड़क उससे टकरा कर टूट जाती है।
लेखक की इस कल्पना ,फैंटेसी में कई आयाम हैं। एक ओर यह आदमी के मौलिक अकेलेपन की गाथा है। परन्तु इसमें नई कहानी आन्दोलन के बाद की कहानियों की तरह अकेलेपन को ग्लोरीफाई नहीं किया गया है। यह परिस्थितियों के कारण उस पीढ़ी की नियति बन गई है। हर पीढ़ी के साथ उसकी उदासी जन्म लेती है। इससे निजात तो यादों में ही मिलेगी। लेखक आज की दुनिया में जिस विडम्बना की ओर इंगित करता है कि उसे उसके वास्वतिक स्वरूप में नहीं पहचाना जाता। लेखक बिटविन दी लाइन्स मानो कहना चाहता है कि जाति,धर्म पद, प्रतिष्ठा आदि उसकी पहचान बन गए हैं। लोग एक दूसरे को चेहरे पर चढ़ाए चेहरों से पहचानते हैं। चेहरे ही नहीं लोगों की हंसी, मुस्कान भी नकली हैं।
इस अकेले और अजनबी व्यक्ति के पास है अपना कहने को तो उसकी यादें और अपना एकांत सुख, अपनी हंसी। अगर वह भी खो जाए तो वह क्या करें। हर एक तो नकली चेहरे और नकली मुस्कान के साथ जिंदा नहीं रह सकता। परन्तु उसकी असली हंसी कहीं न कहीं सुरक्षित तो रहती है। यही लेखक का मंतव्य है। कहानी में रिश्तों की कोमलता बरकरार रखने और उसमें ताजगी के लिए कथानायक की पत्नी का कथन न केवल मौजू है बल्कि दिशा भी देता है-दिल में हाथ डाल कर नया पति तुमसे भी एक दिन पुराना पति निकाल लेती हूँ। शायद पे्रम में ही तासीर है कि जैसे-जैसे पुराना होता है वैसे गहरा होता है। यही कारण है कि हंसी न केवल पति पत्नी के बीच वरन्‌ इस दुनिया में भी रोशनी की लकीर की मानिन्द होती है। इसीलिए उसको तो इस दुनिया में बचाना ही होगा। कहकहों के सेट के लिए चाहे जिस हद तक झुकना पड़े। मनुष्य की हंसी से टकरा कर परिवेश-सड़क-इसमें बाधक ही टूटेगें। मनुष्य की हंसी नहीं। अपने समस्त अकेलेपन, कृत्रिमता, अभावों के बाद भी नायक, उपेक्षित-द्विविधाग्रस्त सही, अपनी मानवीय हंसी के कारण अपराजेय है। कबीर भी कब मरा है। हम न मरिब, मरिहै संसारा
एक जंग हुई थी कर्बला में- प्रकाशन सारिका-जून, १९७० इतिहास का वह कारुणिक प्रसंग जो काल के प्रवाह में पौराणिक आख्यान एवं मनुष्य की श्रद्धा और आस्था का संबल बन चुका है। उसको लेखक ने एक संवेदनशील कथा माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह छोटी-सी रचना संसार के तमाम महाकाव्यों की गइराई समेटे हुए है जिनमें शिखर पर आसीन ज्योतिपुंजों के जीवन को इतनी निकट से देखकर रचा गया है।
कहानी का मदीना संसार के कोटि-कोटि जनों की आस्था का केन्द्र जैनब के नाना मुहम्मद का मदीना है। यह मदीना नहीं जैसे बाहें फैलाए खड़ी माँ है। जैनब की आँखें भर आती हैं। पर रोना किस लिए? आँसुओं की नदियों तो सूख चुकी हैं। ऐसी माएँ ही बहादुर संतानो को जन्म देती है। सिर न झुकाने वाले हुसैन, जिनका नाम ही अमृत बन कर रगों में दौड़ने लगा है, वह कभी मर कैसे सकता है? ऐसे ही शहीदों की शहादत मृत्यु से अमृत की ओर गमन करती है। इसमें उस माँ फातिमा की यश गाथा है जिसने बेटे को चक्की पीस-पीस कर पाला है और सिर बुलंद करने का सबक सिखाया है। उस बहन जैनब का त्याग औेर हिम्मत की जिसने अपने पुत्रों का बलिदान कर दिया और चाहती थी यह सब अपनी आँखों से देखें।
इस छोटी-सी रचना में मनुष्यता, उसके संघर्ष, जिजीविषा और अपराजेयता का इतिहास संजोया गया है। रचना का आप्त वचन है-सिर न झुकाना मनुष्य का अधिकार है। मैं केवल इस अधिकार के लिए लड़ना चाहता हूँ।
यह एक ऐसा युग सत्य है जो सदा सदा सृष्टि के अस्तित्व तक मनुष्य को प्रेरणा देता रहेगा। मृत्यु पर विजय का घोषणापत्र बना रहेगा। इसके साथ ही एक करूण त्रासदी भी है कि न्यायपथ पर चलने वाले को अकेला रह जाना पड़ता है। खुद जल कर दूसरों को रोशनी देनी होती है। चाहे वह आसमान में सूरज हो या कर्बला में हुसैन। अन्याय के सामने सिर न झुकाने वाले हुसैन का सिजदे में झुका सिर कटने के बाद भी नीचा नहीं होता। सूरज के मानिंद आसमान पर बुलन्दियों पर दिखाई देता है।
सहज संवेदनशील कहानी न केवल इतिहास पर नए दृष्टिकोण से प्रकाश डालती है वरन्‌ अपराजेयता का संदेश भी देती है।
राही मासूम रजा ने कहा है कि उनकी कहानियों का आधार व्यक्ति होता है। व्यक्ति केन्द्रित कहानियों में लेखक कहानी के पात्र अथवा चरित्र की पहचान उसके परिवेश, जीवन दशाओं और उसके विचारों में आए परिवर्तनों का समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके करता है। इस प्रकार की कहानियों में कहानी और रेखाचित्र का अंतर बनाए रखना, रचनाकारों के लिए मुश्किल होता है। कहानी जब पात्र के माध्यम से व्यापक संदभोर्ं से जुड़ती है तब वह कहानी का अस्तित्व लेती है। राही मासूम रजा की खलीक़ अहमद बूआ और एम०एल०ए० साहब ऐसी ही कहानियाँ है।
खलीक़ अहमद बूआ-लीक से हट कर अनोखी -प्रेमकथा कही जा सकती है। लौकिक से इहलौकिक पे्रम तक की पे्रम गाथाओं से विश्व साहित्य भरा हुआ है। परन्तु यह अपने ढंग की अलग कहानी है। समाज के लिखित अलिखित विधानों के अनुसार एक अप्राकृतिक संबंधों की प्रेमकथा। समाज में निषिद्ध होने पर भी ऐसे संबंध कमोबेश हर समाज और युग में रहे हैं। कहानी में मूल प्रश्न नैतिकता का नहीं बल्कि निष्ठा, विश्वास, समर्पण और संबंधों की नैतिकता का है।
कहानी का मुख्य पात्र खलीक़ अहमद एक हिजड़ा है जो एक नवजवान रुस्तम को कहीं से भगा कर लाए हैं। पति-पत्नी संबंधों में खलीक़ एक समर्पित पतिव्रता की तरह संबंध निर्वाह कर रहे हैं। वह पाँचों वक्त की नमाज पढ़ने के साथ ही अपने सुहाग रुस्तम के लिए चौथ का व्रत भी रहते हैं। उनको दो ही भय हैं। एक मौत का, दूसरा रुस्तम की बेवफाई की आशंका। बच्चों द्वारा चिढ़ाए जाने, खलीक़ अहमद बूआ मर गई पर वह बच्चों को कोसते, गाली देते हैं। परन्तु उन्हीं बच्चों का चुप रहना, उनका न चिढ़ाना भी नहीं भाता। रुस्तम के संबंध एक वेश्या से हो जाते हैं। खलीक़ अहमद निराश हो शहर छोड़ने की तैयारी में है। तभी एक दिन वह रुस्तम को पीछे के दरवाजे से वेश्या पुखराज के कोठे पर जाते देखते हैं। वह कोठे पर जाते हैं, रुस्तम की हत्या कर देते हैं। वह पकड़े जाते हैं और उन्हे फाँसी हो जाती है। थोड़े दिन बाद लोग उन्हें भूल जाते हैं।
कहावत है कि प्रेम और जंग में सब कुछ जायज है। ऐसी स्थिति में पे्रम के चरम अथवा नफ़रत में मनोवैज्ञानिकों के अनुसार दोनों के पीछे एक ही भावना होती है। खलीक़ द्वारा रुस्तम को मार दिया जाना अनहोनी नहीं लगता क्योंकि प्रेम विकल्पों के द्वन्द्व में नहीं उलझता।
लेखक ने पात्र का भरपूर मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया है। चिढ़ाए जाने पर ख़लीक़ बच्चों को कोसते, बिगड़ते दिखाई देते हैं। परन्तु यह उनका ऊपरी दिखावा है। वीरान सड़क पर किसी की आवाज न सुनाई देने पर वही ख़लीक़ बड़बड़ाते नजर आते हैं,आज कौनों हरामजादे की आवाज नहीं आ रही। मर बिला गए सब। सन्नाटा उन्हें डराता है। क्योंकि वह मौत से जितना नहीं डरते, उतना सन्नाटे, तनहाई से डरते हैं। वास्तव में मौत का डर भी तो उसी तनहाई के कारण ही होता है। सच तो यह है कि बेपनाह मोहब्बत करने वाले खलीक़ के बच्चे अजीज हैं। उन पर उनका गुस्सा एक दिखावा है। रुस्तम की बेवफाई से दुःखी खलीक़ से पूरे शहर को हमदर्दी हैं। खलीक़ ने रुस्तम का पुखराज के कोठे पर जाना सुना है। रुस्तम ने उनके पास आना भी छोड़ दिया है। यह शहर छोड़ने की तैयारी भी कर रहे हैं। परन्तु वह उस वक्त रुस्तम को मारते हैं जब वह स्वयं उसे अपनी आँखों से पुखराज के कोठे पर जाते देखते हैं। पे्रम में शायद ऐसा ही होता है। बात बेपर्दा न होने तक मन के किसी कोने में संदेह बना रहता है। दिल बेवफाई का यक़ीन नहीं करता।
भाषा की खूबसूरती, रवानगी, अप्रतिम प्रयोग यथा सड़क जाग जाती है। धूप मुंह फेर हंसने लगती है। नीम और पीपल के पेड़ मुंह फेर मुस्कराने लगते, मुंडेर पर बैठी वुजू करती मस्जिद आँखें उठा देखने लगती। लेखक परिवेश का मानवीकरण कर देता है। बिंबों को जीवंत कर चित्र उपस्थित कर देता है।
कहानी के अंत में लेखक समय की इस कटु लेकिन अनिवार्य सच्चाई की ओर इंगित करना नहीं भूलता, फिर वह भी खलीक़ अहमद बूआ को भूल गए।
मार्मिक से मार्मिक चरित्र के लिए लोगों द्वारा भूला दिया जाना समय की नियति है। एक लेखक ही है कि पूरे अमृत या विष को पीकर विभिन्न रूपों में इन्हें सृजित करता है।
इसी क्रम की एक और महत्त्वपूर्ण कहानी है-एम०एल०ए० साहब। कहानी राजनीतिक विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य है। मतदाताओं को बेवकूफ़ बनाने का सिलसिला चुनावों का अहम्‌ हिस्सा है।
कहानी का मुख्य पात्र एम०एल०ए० साहब कहीं के विधायक नहीं बल्कि मौलाना लतीफ अहमद है, जिन्हें संक्षेप में एम०एल०ए० साहब कहा जाता है। परन्तु इस बात को कोई नहीं जानता। एम०एल०ए० साहब का काम चुनावों में अपने तरीके से प्रचार और तकरीरें करना है। उनके लिए पार्टी महत्त्वपूर्ण नहीं। उम्मीदवार चाहे किसी पार्टी से हो या आजाद, जो उन्हें पैसा/पारिश्रमिक देगा उसके लिए वह हाजिर हैं। भोले मतदाताओं को समझाने और उनके प्रचार करने के तरीके ऐसे अनोखे हैं कि माहिर राजनीतिक भी मात खा जाते हैं। राजनीति का इतिहास ऐसे चरित्रों से भरा हुआ है। यह लेखक की खूबी है कि इस चरित्र के परिपे्रक्ष्य में वह राजनीतिक विसंगतियों को ही नहीं उजागर करता बल्कि ऐसे चरित्र को उसकी विवशता, अभावों और करुणा के साथ प्रस्तुत करता है।
कहानी के अनुसार राजनीतिकों की ओर से आम आदमी का मोहभंग तभी हो गया था, आज एम०एल०ए० होने में क्या बड़ाई है। हर सातवां, आठवां आदमी या तो एम०एल०ए० है या होना चाहता है। इसमें कोई नयापन नहीं रह गया है। लेखक इस राजनीति का कोयले की दलाली मानता है। इसमें मुंह तो ज+रुर काला होता है, लेकिन मुट्ठी गरम रहती है।
विडम्बना तो यह है कि मुंह जो मनुष्य के सम्मान, नैतिकता और मूल्यों का प्रतीक है उसकी क्या सिफत! महत्त्वपूर्ण तो मुट्ठी है। अर्थात्‌ धन के आगे मनुष्य का सम्मान, इंसानियत, मूल्य सब व्यर्थ हैं। इस हम्माम में सभी नंगे हैं। काले लोगों के देश में मुंह की कालिख किसे दिखाई देगी। शायद लेखक का मंतव्य है कि जब लिप्सा और अनैतिकता को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है तब मानवीय मूल्य अपना अस्तित्व खो देते हैं।
जनसंघ और मुस्लिम लीग के प्रति लेखक की नापसंदगी एम०एल०ए०साहब की तकरीर में प्रकट होती है नफ़रत के इन ताजिरों से हमें या आपको क्या लेना देना।लेखक इन दोनों ही को साम्प्रदायिक मानता है। मतदाताओं को बरगलाने के सिलसिले में, पानी की बिजली निकाल लिए जाने'' जैसे विनोदात्मक प्रसंग इस बात का प्रतीक हैं। प्रसंग बदल जाते हैं। अभावों, वायदों से मुकरने के निदान के लिए नए-नए बहाने बनाए जाते हैं। एम०एल०ए० साहब की प्रधानमंत्री से वाकी टाकी पर बात, फ्लोर क्रास करने की बात, चुनाव के टिकट को अस्वीकार करने की गप्प आज के परिदृष्ट में सिफारिस के लिए झूठे फोन, पार्टी बदलने की गीदड़ भभकियां, हाईकमाण्ड पर रोब की कहानियां का पूर्वाभास है। लेखक भारतीय प्रजातंत्र की विडम्बनाओं को कहानी के माध्यम के प्रकट करता हैं। कैसी विडम्बना है जो चुनाव जीतते है धूस खाना शुरू कर देते है और हारने वाले प्रजातंत्र बचाओ आंदोलन चलाने में। जब तक वह खुद न जीत लें और घूस खाने में लग जाएं। भारत में प्रजातंत्र हारने वाले की कोशिशों से ही बचा हुआ है।
राजनीतिक विसंगतियों, भ्रष्टाचार, विद्रूपताओं को कथा प्रसंगों, मुहावरों और भाषा संदर्भों के प्रयोग से उद्घाटित किया गया है-धूल में रस्सी बटना, रंडियों के मुजरे की तरह चुनाव का बीड़ा लेना, एक ही चुनाव क्षेत्र में दो-दो उम्मीदवारों से पैसा ले लेना आदि।
कहानी का मुख्यपात्र एम०एल०ए० साहब आम आदमी की तरह इस भ्रष्ट राजनीतिक परिदृश्य का हिस्सा बनने के लिए अभिशप्त हैं। वह सभी की असलियत जानता है इसीलिए किसी उम्मीदवार को वोट देने लायक नहीं मानता। कहानी में एक जीवन दर्शन है। आदमी जिससे मिलना चाहता है उसी से नहीं मिल पाता और जिससे नहीं मिलना चाहता उससे बार-बार मिलना पड़ता है। अथवा जन्मदिन शायद इसीलिए महत्त्वपूर्ण होता है कि उसके सहारे मरने के लिए दिन गिनने में आसानी होती है।
लेखक कहानी के माध्यम से राजनीति की पुनःव्याख्या कर उसकी पर्त दर पर्त उधाड़ता है, जिसकी देश-काल-वातावरण के अनुसार आज जरूरत है। राजनीति के साथ-साथ उन चरित्रों के रेश-रेशे को उधाड़ती यह कहानी आम आदमी के मोहभंग की कथा है। आजादी के बाद में राजनीतिक का जिस तरह स्वरूप विकृत हुआ उसकी यह पुनःव्याख्या करती है।
राही मासूम रजा की एक लंबी कहानी, उनकी श्रेष्ठ कहानियों में एक, सिकहर पर दही निकाह भया सही है। यह सत्तर के दशक के प्रारंभ में धर्मयुग में धारावाहिक रूप ही प्रकाशित हुई और चर्चित रही है।
राही का साहित्य समाज का आइना है। इनके पात्र समाज के हर वर्ग से उठाए गए हैं। प्रत्येक पात्र अपनी आकांक्षाओं, सपनों, कुण्ठाओं, अभीप्साओं के साथ अपने समय का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता है। यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि यह पात्र अपने-अपने निजी इतिहास से जुड़े रहने को अभिशप्त हैं। भले ही प्रगति अवरुद्ध होती हो, परम्पराओं, सड़ी गली रूढ़ियों से चिपके रहना इनकी नियति है। अतीत से मुक्ति इन्हें असुरक्षा के गहरे अंधेरे में ढ़केल देती है। ऐसे लोगों, स्थितियों और एहसासों की कहानी है-सिकहर पर दही निकाह भया सही।
कहानी की कथावस्तु आजादी के तत्काल बाद की है। एक जमाने में मीर जामिन अली के निराले ठाठबाट थे। जमींदारी बड़ी न होने पर भी सभी सामंती विशेषताएं-संगीतकार, आसामियों की बेदखली, मुश्कें कसवाना, बेगार, गालियां आदि। उन्हें यकीन नहीं था लेकिन जमींदारी चली गई। वह अतीत की परछाईओं के डर से गाँव छोड़ कर शहर में एक छोटा मकान किराए पर लेकर रहने आ गए। साथ थी उनकी पत्नी अमीना, पुत्रियां रुकैय्या और रजिया। पुश्तैनी नौकरानी मत्तों और उसका पुत्र शौकत। उन दिनों के हिसाब से ग्यारह वर्ष की उम्र में ही जवान होती बड़ी बेटी रुकैय्या की शादी की चिंता से उन्हें नींद न आती। ऊंचे खानदान के लड़के बटवारे में पाकिस्तान चले गए हैं। छोटे खानदान में वह बेटी का विवाह करेंगे नहीं। अन्ततः अपने से केवल तीन-चार बरस बड़े शम्सू मियां से रुकैय्या का निकाह हो जाता है। समय काटने के लिए रजिया को स्कूल में पढ़ाया जा रहा है। शौकत को रजि+या बचपन से ही अच्छी लगती है। रजिया का बचपना, अकेलापन और चारों ओर होने वाले परिवर्तन उसे बेचैन करते गए। ऊपर कमरे की खिड़कियों से लाउडस्पीकर पर सिनेमा के एलान सुनती, रात में पानी पीने के बहाने उठकर बेखबर सोए शौकत को देखती। अनजाने ही रजिया और शौकत में प्यार हो जाता है। परन्तु बात खुलने और फैलने पर मत्तों की अपने मालिक के प्रति नमक हलाली और मीर जामिन अली की खानदानी हैसियत की वजह से शादी उनके बीच हो नहीं सकती थी। रजि+या की शादी बासठ साल के रंडुए लड़के से तय होती है। जो रजिया की फोटो देख कर शौकत और रजिया के संबंध में, चार-चार खतों के पहुंचने पर भी लट्टू है। खतों की लिखावट की तहरीर रजिया के हाथों की हैः परन्तु निकाह के पहले ही एक रात रजिया और शौकत परछाई बन कर कहीं चले जाते है। जिसमें पहल रजिया की तरफ से होती है।
कहानी समय के परिवर्तनों को आत्मसात्‌ करने की द्विविधा, बदलते मूल्यों और मान्यताओं एवं रूढ़िग्रस्त मानसिकता के अन्तर्द्वन्द्व को व्यक्त करती है। दरअस्ल परिवर्तन में ध्वंस व टूटने और निर्माण दोनों की प्रक्रियाएं साथ-साथ काम करती हैं। इसके साथ चलने से जो लोग छूट जाते हैं। वे निरन्तर पीछे पड़ते जाते हैं। इस अनिवार्य और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया में परम्पराओं और सड़ी गली रूढ़ियों में देश-काल-गत बहुत सूक्ष्म अन्तर होता है। जो व्यक्तिपरक आधार पर तय होतां हैं। पूर्वोग्रहो के कारण समायोजन न करने वाले लोग, पीढ़ियों, संस्थाएं कालातीत होने को विवश हो जाती हैं।
राही समय से सीधा साक्षात्कार करते हैं। आजादी के आस-पास का समाज आन्तरिक और वाह्‌य दोनों तरह से एक जटिल समाज था। इसमें बदलाव के दौर में अकेले छूट गए लोग निर्वासन भोगने को विवश थे।
परन्तु यह कहानी अकेले, निर्वासित, टूटे हुए लोगों की ही नहीं हैं। इसमें नई रोशनी के नायकों की कहानी भी है। वे क्रान्ति नायक जो मुखर और सक्रिय नहीं होते बल्कि परछाई बन कर अपनी असहमति और प्रतिरोध व्यक्त करते है। कहानी का शिल्प, भाषा और प्रस्तुतिकारण उसकी रवानगी, मार्मिकता और खूबसूरती का एहसास हर पल कराता रहता हैं। राही अपनी भाषा से कहानी का दृष्टिकरण उपस्थित करते हैं। राही नए मुहावरे गढ़ते हैं। घर में छह शताब्दियां रहती थी।...गलियां रहती थीं...किसानों की सिसकियां रहती थीं।
दीवारें गर्दन झुका-झुका कर उन्हें देख रही है। और आपस में इशारे कर के मुस्करा रही है।/ बेटी की उम्र बड़ी बेहया और बेदर्द होती है।
वह सुबह को शाम और रात को दिन कैसे बनाए सारे बदन में जैसे हजारों हजार दिल धड़कने लगते और इन हजार दिलों में लाखों लाख चिराग जल जाते और उनकी रग-रग में उजाला हो जाता/ छतनार बूढ़े पेड़ की तरह आंधी में टूट गए/ जैसे भाषिक संदर्भ कहानी की वेधकता कर्ई गुना बढ़ा देते हैं। राही की रचनाओं में प्रतीक आरोपित नहीं होते। बल्कि रचना के अंतर से निकलते हैं।
सदा की भांति राही कहानी में व्यंग्य के प्रसंग आने पर नहीं चूकते।-जामिन अली रख रखाव वाले आदमी थे। जिंदगी भर नमाज पढ़ते रहे, गालियां बकते रहे और गुनगुनाते रहे।/हिन्दू सोशल और मुस्लिम सोशल क्या होता है।/ हीरो यदि नवाब नहीं होता तो कवि अवश्य होता है।
कहानी अपने समय, स्थितियों, मानसिकता, और तत्कालीन विवरणों तक सीमित नहीं रहती बल्कि जीवन, उसकी जटिलताओं, मनुष्य की नियति और बदलती मान्यताओं को दस्तावेज बनने में सफल है।
इन कहानियों के विवेचन से विदित होता है कि राही की कहानियों में उनके अंदर का कवि मुखर होता हैं। न केवल कथ्य के अन्दर बहते भाव, पात्रों की मनः स्थिति के निरूपण में वरन्‌ भाषिक अभिव्यक्ति में भी। यद्यपि लेखक का स्वयं कहना है कि कविता की जबान नकली होती है। इसी में इसका हुस्न हैं। जीवन जटिल होता जा रहा है और कविता के माध्यम से इस जीवन को संपूर्णता से व्यक्त नहीं किया जा सकता। कथा भाषा यदि नकली हो जाए तो कहानी मारी जाती है।''
राही के साहित्य के गहन अध्ययन से मालूम होता है कि राही अपने संपूर्ण संघर्ष,असहमति, स्थितियों पर कटाक्ष, समस्त विरोध और युयुत्स भाव के बावजूद अंदर से स्वप्नदर्शी, कोमल सहज और तमाम प्रतिकूलताओं के बीच मानवीय मूल्यों के प्रति आस्थावान नज+र आते है।
कविता की एक विशिष्टता-मानवीय अस्मिता पर अगाध आस्था-ही उसे साहित्य की अन्य विधाओं से अलग पहचान देती है। यही कारण है कि राही के साहित्य पर, आने अनजाने ही, काव्यगत प्रभाव लक्षित होता है।
कथाकार का सरोकार भाषा से भी होता है। हर कथाकार अपनी कथा भाषा अथवा कहा जाय कि हर रचना अपनी भाषा प्रवृत्ति लेकर आती है। राही भाषा को अपनी जमीन की सोच से जोड़ने का काम करते हैं।
राही बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भाषा और धर्म का रिश्ता जोड़ना ही ग़लत है। क्योंकि कुछ लोगों में भाषाओं को धर्म से जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति है। वह उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखने के समर्थक थे। उर्दू साहित्य की भाषा अपने आलेख में वह स्पष्ट करते हैं-मैं भविष्य में इतनी दूर तो देख ही सकता हूँ कि यह कह सकूँ कि उर्दू लिपि थोड़े दिनों की मेहनत है।
वह अपने संबंध में कहते हैं-मैं भी उर्दू वातावरण में पला बढ़ा हूँ। मैं उर्दू में ही ख्+वाब देखता हूँ। परन्तु मैं इस लिपि को भाषा नहीं मानता। मेरी भाषा वही है जो कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, यशपाल, ड्डष्णचन्दर की है।
राही मासूम रजा की भाषा पाठको को न केवल बाधे रहती है बल्कि वह अपनी सादगीपूर्ण, सहज, गुदगुदाने वाली व्यंग्यात्मक और शब्दों के पारदर्शी स्वरूप जो जीवन के अनुभवों को कलात्मक ढंग से व्यक्त करते हैं, भाषा से पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ने में सफल होते हैं।
राही मासूम रजा की कहानियां जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य जीवन के प्रति आस्था को बनाए रखती हैं। यह कहानियां जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ऐसे कोण से प्रकाश डालती है कि वह एक बड़े परिदृश्य का हिस्सा लगती हैं। वह अपनी कहानियों से आज के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करते हैं। यह उन्हीं की हिम्मत थी कि साम्प्रदायिक शक्तियों, उनके नेताओं को नाम लेकर जिम्मेदारों ठहराते रहे। उनका मानना था इन सभी साम्प्रदायिक शक्तियों का मूल चरित्र और उद्देश्य एक है।
राही न केवल साहित्यकार बल्कि एक चिंतक के रूप में सामने आते हैं। राष्ट्रीय, सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक और मानव व्यवहार के विषय में उनका चिंतन वस्तुपरक, निरपेक्ष और संतुलित और निर्भीक दिखाई देता है। साम्प्रदायिकता पर उनके विचार क्रांतिकारी हैं।






क्रांति कथा

सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
कान खोलकर सुना कथा है क्रांति के पहले सावन की

सबने चलाया, धीरे-धीरे फौज पे अपना जादू
आजादी की नई कली चटकी तो फैली खुशबू
हिन्दी फौज में नफरत की एक आँधी आई हरसू (चारों ओर)
जिसको पानी समझ रहे थे वह तो निकला बालू
बाँध लो सबने एक कमल से डोरी अपने जीवन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की

Thursday, February 26, 2009

GAZAL

हर गाँव में हर शहर में एलान हुआ है
यह काम कुछ इस तरह भी आसान हुआ है
तनख्वाहों के बटने का भी सामान हुआ है
दरबार से दिल्ली के यह फरमान हुआ है
जीते तो बड़ा नाम भी, दौलत भी मिलेगी
काम आए, तो इस राह में जन्नत भी मिलेगी

GAZAL

हर गाँव में हर शहर में एलान हुआ है
यह काम कुछ इस तरह भी आसान हुआ है
तनख्वाहों के बटने का भी सामान हुआ है
दरबार से दिल्ली के यह फरमान हुआ है
जीते तो बड़ा नाम भी, दौलत भी मिलेगी
काम आए, तो इस राह में जन्नत भी मिलेगी

Wednesday, February 25, 2009

GAZAL

फ़ौजों की हर सफ़ में इसी बात का चरचा
जिस आँख में देखो, वहीं भड़का है यह शोला
खुद उनके मसाइल (समस्याएँ) की हवा का भी है झोंका
एहसासे बग़ावत इन्हें देता है दिलासा
हम लड़ने पै आयेंगे तो फिर डट के लड़ेंगे
तोपों से भी अड़ जायेंगे, पीछे न हटेंगे

भिखमंगा हो, धोबी हो, वह भंगी हो कि नाई
साधू हो कि जोगी हो, वह बाबा हो कि माई
वह गाँव का मुखिया हो, कि बीवी का हो भाई
जो आया सिपाही के लिए यह खबर आई
या राह में, या गाँव में उसने यह सुना है
हर गाँव,हर एक शहर बगावत पे तुला है

Tuesday, February 24, 2009

GAZAL

जब बात वतन की है तो क्या भाई भतीजा
अंग्रेजों के जो साथ हैं उनसे नहीं रिश्ता
मजहब को भी है बात नहीं कोई तमाशा
अंग्रेजों की फौजों से निकल आये तो अच्छा
रोके से न मानेगी जो एक बार चलेगी
हम रन की तरफ जाते हैं तलवार चलेगी

हम में का हरएक शख्स, हरएक दाग़ सहेगा
मैदान में कुछ कोई सुनेगा न कहेगा
दुश्मन है वह, जो भी सफ़े-दुश्मन (शत्रु की पंक्ति) में रहेगा
दुश्मन ही का खँू बन के लहू उसका बहेगा
जिस गाँव में हम हैं, कभी तुम भी तो यहीं थे
यह बाद में मत कहना कि आगाह नहीं थे

Friday, February 13, 2009

GAZAL

भिखमंगा हो, धोबी हो, वह भंगी हो कि नाई
साधू हो कि जोगी हो, वह बाबा हो कि माई
वह गाँव का मुखिया हो, कि बीवी का हो भाई
जो आया सिपाही के लिए यह खबर आई
या राह में, या गाँव में उसने यह सुना है
हर गाँव,हर एक शहर बगावत पे तुला है

Thursday, February 12, 2009

GAZAL

फ़ौजों की हर सफ़ में इसी बात का चरचा
जिस आँख में देखो, वहीं भड़का है यह शोला
खुद उनके मसाइल (समस्याएँ) की हवा का भी है झोंका
एहसासे बग़ावत इन्हें देता है दिलासा
हम लड़ने पै आयेंगे तो फिर डट के लड़ेंगे
तोपों से भी अड़ जायेंगे, पीछे न हटेंगे

Wednesday, February 11, 2009

GAZAL

हम में का हरएक शख्स, हरएक दाग़ सहेगा
मैदान में कुछ कोई सुनेगा न कहेगा
दुश्मन है वह, जो भी सफ़े-दुश्मन (शत्रु की पंक्ति) में रहेगा
दुश्मन ही का खँू बन के लहू उसका बहेगा
जिस गाँव में हम हैं, कभी तुम भी तो यहीं थे
यह बाद में मत कहना कि आगाह नहीं थे

Tuesday, February 10, 2009

GAZAL

जब बात वतन की है तो क्या भाई भतीजा
अंग्रेजों के जो साथ हैं उनसे नहीं रिश्ता
मजहब को भी है बात नहीं कोई तमाशा
अंग्रेजों की फौजों से निकल आये तो अच्छा
रोके से न मानेगी जो एक बार चलेगी
हम रन की तरफ जाते हैं तलवार चलेगी

Saturday, February 7, 2009

तूफान से पहले


कहीं अब्रू पे हैं महराबे इबादत के शिकन
कहीं मिम्बर (इमाम) की जुबाँ पर है बगावत के सुखन (क्रांति की बातें)
कहीं आवाजें अजाँ में हैं वह पैगामे दुहुल (संवाद देने वाले ढोल)
सुनके जिनको सफेदा (नमाजी) में पड़ी है हलचल
कहीं मीनारों पे दुश्मन के लिए दारे हैं
कहीं तकबीर में तलवार की झंकारें हैं
गैज (क्रोध) में कौसरो-तस्नीम (स्वर्ग-मुख) के अफ़साने कहीं
घेरा डाले हुए तस्बीह के सौ दाने कहीं
उबले पड़ते हैं वह सिजदे के निशानों को है जोश
खानकाहों (आश्रम) की खमोशी भी है तूफांबदोश (तूफानी रात)
कहीं फारां (एक पहाड़) से फरहरे की हवा आती है
कहीं कैलाश से डमरू की सदा आती है

तुम उठो तुम भी उठो, पास उठो दूर उठो
फिर समन्दर को मथो, जहर का प्याला पीलो
पाठशाले हैं परेशान सदा देते हैं
मदरसे चाके-गिरेबाँ (हृदय-विदारक) सदा देते हैं
एक कयामत है बपा (उपस्थित) धर्म के ईवानों (धार्मिक स्थान) में
एक हंगामा है इस्लाम के बुतखानों में
यू तो हर काम में हर लख्ते-जुदा हैं दोनों
लेकिन इस अहदे फिरंगी से खफा हैं दोनों

अपनी तकदीर बना लेने के तदबीर तो है
फिक्र मजहब की नहीं है, गमे जागीर तो है

निकली ही जाती है पैरों के जो नीचे से जमीं
उउर आये हैं जमीनों पे यह अफलाके-नशीं (आसमान पर रहने वाली)
फसले-गुल (फूलों की फसल) ही गरज है न चमन से मतलब
काम मजहब से है इनको, न वतन से मतलब
बात बिगड़ेगी तो हैरत के शरीक आप भी हैं
फस्ल काटेंगे तो मेहनत के शरीक आप भी हैं
जो मसर्रत (आनन्द) हो मसर्रत के शरीक आप भी हैं
इश्क कीजे तो मुहब्बत के शरीक आप भी हैं
जाहिलों से वह भला बोले भी तो क्या बोले
उनकी महफिल हो तो कुरआन जबाँ भी खोले
बिगड़े यह लोक, वह परलोक, अगर यह न रहें
गंग गीतमा का हर श्लोक,अगर यह न रहें

अब फिरंगी की हर एक चाल से हैराँ हैं यह
अपनी बिगड़ी हुई बाजी से परेशाँ हैं यह
शाह मजबूर है, पेशानी पे हैं शातिर के बल
घर में फर्जी के चले आए हैं गोरे पैदल
इनका दिन खत्म है अब रात हुआ चाहती है
थोड़ी ही देर में अब मात हुआ चाहती है

उट्ठो कि नहीं वक्त आराम का लोगो
दम घुटता है नाकूस (शंख) का दामन की हवा दो
दीवारें हरम गिरती हैं सँभले तो सँभालो
इस सुबहे फिरंगी का यह अंधेर भी देखो
रहने भी जो पायेंगे तो सहरा में रहेंगे
या रामो रहीम अब से कलीसा (गिरजा) में रहेंगे

चन्दन की लकीरों के लिए तरसेंगे माथे
बाजारों मे जल जायेंगे इन वेदों के नुसखे
ऐ धर्म के रखवालो, ये गोरे हैं ये गोरे
सोना ये चुरा लायेंगे मंदिर के कलस से
उट्ठो कि यह मौका नहीं आराम का लोगो
तलवार चले, नाम लो अब राम का लोगो

बंगाल के हारे हुए जादू की कसम है
पंजाब के टूटे हुए बाजू की कसम है
मैसूर के उलझे हुए गेसू (केश) की कसम है
दिल्ली की सिसकती हुई खुशबू की कसम है
हर गोशे से तज+ईन (श्रृंगार) चमन के लिए उट्ठो
मजहब के लिए उठो, वतन के लिए उट्ठो

कह दो कि बस और न समझाइये हमको
यह आपकी तहजीब नहीं चाहिए हमको
हम खूब समझते हैं तिजारत की नजर को
गाजा (धर्म स्थान) की जरूरत नहीं काशी की सहर को

इस घर में अंधेरा है कि तुम रोशनी बेचो
चोरी भी करो घूम के पहरा भी तुम्हीं दो
दो जहर भी तिर्याक (विपनाशक) की दुकान भी खोलो
जिस राह से आए हो उसी राह से जाओ
नफरत कही करोगे न मुहब्बत ही करोगे
ताजिर (व्यापारी) हो बहरहाल तिजारत (व्यापार) ही करोगे

हवा के दोश पर यह बात चल पड़ी
हर एक जर्रा चौंक उठा यह क्या हुआ
हर इक किवाड़ कोई खटखटा गया
हर एक दिल यह बोल उठा बुरा हुआ

कटारें एतिकाद (आस्था) की निकल पडीं
ख्याले-आखरत (परलोक का ध्यान) ने फैसला किया
घरों में गूँजने लगीं कहानियाँ
बहन ने भाइयों से तजकिरा (जिक्र) किया

पतीलियों में भाप गूंजने लगी
बस अब अनाज डालने की देर है
बहार और जुनूं (उन्माद) की दास्तान पर
लहू का रंग उछालने की देर है

हर एक दिल धड़क रहा है इस तरह
कि जैसे तब्लेजंग (रणभेरी) की पुकार हो
कि रास्ते में जंग की खबर लिए
यह जैसे कोई तेज रौ सवार हो

कि शामे लखनऊ की वह द्रौपदी
बिरहना (व्यथित) है हर एक रहगुजार पर
यह केश ढूढ़ती है भीम की गदा
चलो तलाश में फरायजदार (कर्त्तव्य) पर

हर इक हवेली का दर खटखटा रही है हवा
उठो कि खत्म वह लुत्फे हजा में शाम (प्रसन्नता भरी शाम) हो
छिड़ा था जो कभी काबेरी के किनारे पर
यह किस्सा आज लबे गोमती तमाम हो

सुनो कि नूर की अब एक भी लकीर नहीं
अवध का एक सितारा था वह भी डूब गया
सुनो कि आज से अख्तर है बरजे खाकी में (मिट्टी में मिल गया)
कटा-कटा जो किनारा था वह भी डूब गया

बस इक चिराग जो बाकी व सद (शत-प्रतिशत) खराबी है
वह एक चिराग है मर्हूने बज्मे जुल्मते (भयानक अंधेरी रात के हाथों गिरवीं) शव
निगाहें आईना हैरान, दस्ते शाना (प्रतापी हाथ) है शल (अपाहिज)
उलझ चुकी है वह जुल्फे-दाजराहे तलब (सँवारे हुए काले बाल)

तुलूए मेहृ तो पाबन्दे इन्तजार नहीं
जुनूं ही चाहे तो तै हो यह वादिए वहशत (डरावनी घाटी)
नहीं तो हद्दे नजर तक कहीं बहार नहीं

हयात सुर्खिये याकूत (एक प्रसिद्ध रत्न) की नहीं कायल
हयात बहते हुए खून को सुर्ख मानती है
ख्याल आये तो सीने में दिल धड़क उठे
हयात सिर्फ यही इक जबान जानती है

जुनूं है कौन-सी मंजिल में यह तो उस पर है
जमीन घर भी है जिन्दां (जेल) भी है जहन्नम भी
अगर शिगूफे (कलियाँ) हों तैयार मुस्कराने पर
तो काम आए चमन में खुलूसे (निर्मलता) शबनम भी

रबिश-रबिश (बाग के भीतर के पतले रास्ते) पे हैं गोरों के पांव के धब्बे
यह बाग वह है जहां चांदनी उतरती थी
शिगूफे मलते थे आँखें सहर की आहट पर
यहाँ पे रात की जुल्फें सियाह सँवरती थीं

झुकी निगाहें कि आलम पनाह आते हैं
नुजूले रहमते परवरदिगार (परमात्मा की कृपा होती है) होता है
हुजूर इब्ने शहंशाह (शहंशाह का पुत्र) जिल्ले सुब्हानी (अच्छा शासक)
यह एक तीर है सीने के पार होता है

निगाहें उठती हैं मसनद-नशीं (मसनद पर बैठा हुआ) हैं तो कोई यह मकतए गजले इश्रते (आनन्द) शबाना है
यह ताजो तख्त यह जरी कबा (जरी का अंगरखा) यह शाने नुजल (आतिथ्य सत्कार)
यह अपने वक्त का सबसे बड़ा दिवाना है

यह उस पे खुश है कि कल ही की तरह आज भी लोग
मेरे हुजूर कसीदों की नजर लायेंगे
बताये कौन यह उसको कि साहवाने सुखन (काव्यमर्मज्ञ लोग)
दरोगे मसलहत (गलत सलाह) आमेज (मिलने वाले) लेकर आयेंगे

गम गम गम तबला यह बोला
सा रे गा मा पा धा नी सा
घुँघरू ने ये ठोकर खाई
या छन छन छन शीशा टूटा

रोयें रोयें कितना रोयें
सारंगी घबराकर बोली
मौसी की (संगीतज्ञ) ने लाख पुकारा
तानपुरे ने आँख न खोली

रक्कासाएं (नर्तकी) नाच रही हैं
टूटे जैसे जिस्म किसी का
सोच रहा है कुलकुले मीना (सुराही से शराब निकालने का स्वर)
किसको दे इस बज्म में पुरसा (महफिल में किसका हाल पूछे)

यह किसका दरबार लगा है
सब ही जिन्दा सब ही मुर्दा
राही शहर आशोब (शहर की मरसिया) सुनाओ
कैसी गजल और कैसा कसीदा

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इन्तखाब'' (दुनिया में अकेला)
दिल्ली जरूर है पे वह दिल्ली नहीं है यह
हँसती तो है जरूर मगर अपने हाल पर
अब वैसे बात पर हँसती नहीं है यह
अगर फिरदौस बररूऐ जमीन अस्त
हमीं अस्त-ओ-हमीं-अस्त-ओ हमीं अस्त

कहीं मोमिन की सरगोशी का नगमा
कहीं गालिब की आवाज आ रही है
हवादार आज भी हैं रास्तों पर
सवारी आ रही है जा रही है

वही बज्म-ए-सुखन (काव्यगोष्ठी) है और वहीं जौक
निगाहें भी परखती हैं नगीने
मुअज्जिन मरहबा बर वक्त बोला
तेरी आवाज मक्के और मर्दाने''

अभी तक किले की दुनिया वही है
वही जश्न-ए-शब-ए-महताब (जश्न की रात का चन्द्रमा) भी है
वही मसनद वही अन्दाज-ए-मसनद
तो महफिल में दिल-ए-बेताब भी है

यह दिल्ली यूं तो है हर दिल की बस्ती
यह दिल्ली हर जगह से दूर भी है
यह दिल्ली आज भी दिलली है लेकिन
यह दिल्ली अब बहुत मजबूर भी है

यह दिल्ली यूं तो है इक फसाना (कथा)
मगर भूला हुआ किस्सा नहीं है

हजारों जलवे हैं बूताब अब भी
जिन्हें सैय्याह (पर्यटक) ने देखा नहीं है
बहादुरशाह अब कुछ भी नहीं है
मगर वह इक मुकद्दस याद (पवित्र स्मृति) तो है
सनम तो है वह जैसा भी सनम हो
वह बुतखाना (मन्दिर) अभी आबाद तो है

ऐ जुल्फ-ए-परेशान-ए-हयात अब तो सँवर जा
गैरों की बनी जाती है बात अब तो सँवर जा
आइने से अब आँख मिलाई नहीं जाती
कट जाये पर गर्दन तो झुकाई नहीं जाती

जिस दर ने तुम्हें इज्जत-ओ-तौकीर (प्रतिष्ठा) अता की (प्रदान की)
जिए दर ने तुम्हें खिअत-ओ-जागीर अता की
जिस दर ने तुम्हें इक नई तकदीर अता की
जिस दर ने तुम्हें अजमत-ए-तामीर (स्थापत्य) अता की
क्या तुम यह दोरंगी-ए-जहाँ देख सकोगे
उस दर पे फिरंगी का निशाँ देख सकोगे

यह रेल की पटरी है कि धामिन की है जोड़ी
छू लें जिसे यह साँप वह हो जाते हैं कोढ़ी

भगवान को डसने पे तुले बैठे हैं मूजी (अत्याचारी)
इनके लिए इन्सान है किस खेत की मूली
देहातों को आवाज दो आफत की घड़ी है
पटरी नहीं खेतों के यह जंजीर पड़ी है

दुनिया में नहीं बढ़के फिरंगी से सितमगर
घरवाले भी बेघर हैं जो बेघर थे वह दर-दर
कल तक जो न थे कुछ भी वह बन बैठे है अफसर
खेतों के खजानों पे जमींदारों के अजगर
है सर पे अभी दस्त-ए-शहंशाह-ए-जमन (ईश्वर का वरदहस्त) भी
खतरे में है मजहब भी मुसीबत में वतन भी

हुशियार कि इन सौदे में सौ तरह जियाँ है
मक्कार है डाकू है अमाँ इससे कहाँ है
इन सीनों में दिल ही नहीं लालच की दुकाँ है
इस कौम के सौ हाथ हैं सौ गज की जुबाँ है
तहजीब नहीं लाशों पे यह जीती है लोगो
यह नफा की है जोंक यह खूं पीती है लोगो

यह बातें महलों से निकलीं जा पहुँची बाजारों में
मुर्दों की महफिल से निकली जा पहुँची जीदारों में
दालानों दर दालानों में, सहनों में सेहराओं में
चौपालों में खलिहानों में खेतों में मैदानों में
जमुना के नीले पानी में गंगा जी के धारों में
दिल्ली की हर राह गुजर पर काशी के बाजारों में

बाजू की मछली को देखा चौड़ी छाती वालों ने
घरवालों की बातें सुनकर आँखें खोल दी भालों ने
उँगली को इक बात बताई तलवारों की धारों ने
बुझते दीप को सूरज जाना तारीकी के मारों ने

गीतों की लय तेज हुई और कदमों की रफ्तार बढ़ी
आँखों की दुनिया भी बदली, होठों की तलवार बढ़ी
हाथ बढ़े काछों की जानिब टोक दिया चौपालों ने
खेतों से जब आँख मिलाई खेतों के रखवालों ने
पिछले राजा जैसे भी थे अच्छे थे अंग्रेजों से
आँख निकल आई खेतों की सख्त लगान के फन्दों से
घर की दुनिया उजड़ी-उजड़ी उन नैनों का जादू बन्द
एक लगान अदा करने में खुल-खुल जाये बाजूबन्द
अंग्रेजों की जेब में जा पहुँची अपनी बदहाली तक
गेहँू की वाली से लेकर कानों की हर वाली तक
साहब लोगों से तो अच्छे निकले चोर उचक्के भी
खेतों की चुगली खाते हैं इन तारों के खम्बे भी

कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
गज भर का करि यज तिह पर चढ़ती जवनियाँ
भला नाहीं तन्नल बाड़िन हमनि का गरदनियाँ
दप-दप जैसे तेगा चमके चमकत बाड़न अपने गटनवा हो - हो किसनवा हो
कबले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
तब ले ले ली रँगाई गोरी अपनी चुनरिया
बैठल बैठल जोहा करि तोहरि ढहरिया
जूझ के लौटत-लौटत हुई तोहरा गवनवा हो - हो किसनवा हो
कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो

रख्खल रख्खल कछऊ ना काटी ई तलवरिया
तोहरी ओर देखत बाटे तोहरी कटरिया
कब ले आखिर ना चमकी ई सावन की बिजुरिया हो - हो किसनवा हो
कब ले आखिर रख्खल रही लोहे का गहनवा हो - हो किसनवा हो
चौपाल में यह जिक्र तो हर घर में यही बात
पनघट पे छलक्ते हुए गागर में यही बात
जर्राह के चलते हुए नश्तर में यही बात
जो बात हो उस बात के अस्तर में यही बात
हर सर में यह सौदा कि जो सहना हो सहेंगे
उठते हुए सूरज की तरह एठके रहेंगे

बर्दाश्त की हद से बहुत आगे है मुसीबत
हर लम्हा कोई बात है हर रोज इक आफत
फाकों के करीब आ गये गोरों की बदौलत
लानी ही पड़ेगी हमें अब कोई कयामत
मैदान में जाँ बेच के आना ही पड़ेगा
अँग्रेज को इस मुल्क से जाना ही पड़ेगा

रो देते हैं जब हाथ बनाते हैं निवाले
हर सिम्त (दिशा) हैं सरगोशियाँ ताने हुए भाले
ख्वाबों में भी चलते हैं फिरंगी के रिसाले
केंचुल से निकलने को तड़प उठते हैं काले
बिखरे हैं इधर और उधर ढँूढ रहे हैं
हम शाम-ए-गुलामी की सहर ढँूढ रहे हैं

इक टीस है जो साँस है इक दर्द बदन है
हर गाँव के सीने में जईफी की चुभन है
हर खोशा-ए-गन्दुम (गेहू की बाल) की निगाहों में थकन है
हर खेत की गर्दन में मुँडेरों की रसन (रस्सी) है
हर सागर-ए-गुल (फूलों का जाम) दीदा-ए-हैराँ (हैरान आँखें) की तरह है
हर सुबह-ए-वतन शाम-ए-गरीबी की तरह है

बदले हैं तो यूँ बदले हैं बिगड़े हुए हालात
शहरों में है वह भीड़ न वह शोर न वह बात
है सुबह का संगीत न गीतों से भरी रात
देखो कि यह है अहद-ए-फिरंगी की करामात
जलती हुई करघे का धुआँ आने लगा है
मलमल भी बिलायत से यहाँ आने लगा है

शादी हो कहीं गाना बजाना हो तो सोचें
त्योहार पे अब जश्न मनाना हो तो सोचें
होली में अगर रंग उड़ाना हो तो सोचें
दीवाली में इक दीप जलाना हो तो सोचें
अब ईद भी रूठी हुई कोने में खड़ी है
पाँवों में सिवईयों के भी जंजीर पड़ी है

जो जख्म है दिल में वह दिखाया नहीं जाता
आँखों से लहू खुल के बहाया नहीं जाता
क्या सोच रहे हैं यह बताया नहीं जाता
राखी के लिए हाथ बढ़ाया नहीं जाता
अब आँखों के पानी के सिवा कुछ भी नहीं है
एहसास-ए-गुलामी के सिवा कुछ भी नहीं है

गर जख्म लगाना है तो फिर जख्म हो कारी
कल उनकी थी बारी तो है आज हमारी
सुनते हैं कि जाने को है साहब की सवारी
है शोर कि अंग्रेज पे है साल यह भारी
आफत में यह काटेंगे मुसीबत से कटेगा
इनका यह सीवाँ साल कयामत से कटेगा


Wednesday, February 4, 2009

GAZAL

शादी हो कहीं गाना बजाना हो तो सोचें
त्योहार पे अब जश्न मनाना हो तो सोचें
होली में अगर रंग उड़ाना हो तो सोचें
दीवाली में इक दीप जलाना हो तो सोचें
अब ईद भी रूठी हुई कोने में खड़ी है
पाँवों में सिवईयों के भी जंजीर पड़ी है

Tuesday, February 3, 2009

GAZAL

बदले हैं तो यूँ बदले हैं बिगड़े हुए हालात
शहरों में है वह भीड़ न वह शोर न वह बात
है सुबह का संगीत न गीतों से भरी रात
देखो कि यह है अहद-ए-फिरंगी की करामात
जलती हुई करघे का धुआँ आने लगा है
मलमल भी बिलायत से यहाँ आने लगा है