Tuesday, December 28, 2010

नीरज, क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार की यादों के राही मासूम रजा

-प्रेमकुमार



राही मासूम रजा का अलीगढ़ से एक अलग और बहुत खास तरह का रिश्ता रहा है। उनकी रचनाओं में, उनकी स्मृतियों में अलीगढ़ अनेक रूपों में उपस्थित रहा है। अलीगढ़ में उनके आने, रहने और यहाँ से जाने को लेकर कितनी ही तरह की बातें की जाती रही हैं। अपने मित्रों, परिचितों और निकट सम्बन्धियों के बीच इतने लम्बे समय के बाद आज भी वे किसी न किसी रूप में जीवित हैं, चर्चाओं में अक्सर आ उपस्थित होते हैं। वाङ्मय' के राही मासूम रजा पर केंद्रित विशेषांक के निकलने की बात हुई तो मन हुआ कि उनके समय के उन कुछ साहित्यकारों की यादों को टटोला जाए जिन्होंने राही के अलीगढ़ में रहने के दौर को करीब से देखा-जाना है। इस इच्छा के साथ ही सबसे पहला नाम प्रो० के०पी०सिंह का याद आया। पर चूंकि उन्होंने राही के व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन के बारे में अनेक तरह, बहुत कुछ किया- कहा है, इसलिए सोचा कि उनकी जगह उन शख्सियतों से कुछ पूछा-सुना जाए, जिन्होंने राही पर सार्वजनिक रूप से अधिक नहीं लिखा-कहा है। उन लोगों का कुछ भी कहना-बताना राही के व्यक्ति और साहित्य को जानने की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण और सहायक होगा ही, अलीगढ़ से उनके जाने को लेकर की जाने वाली विभिन्न आग्रही चर्चाओं-अफवाहों से बचकर सही तथ्यों-सत्यों तक पहुचने में भी मददगार साबित होगा। यही सोचकर सबसे पहले नीरज जी से राही साहब के साथ के उनके समय को याद करने का निवेदन किया गया। उन्होंने तुरन्त ऐसे बताना शुरू कर दिया जैसे उस दौर को याद करने के लिए उन्हें जरा-सा भी प्रयास नहीं करना पड़ा। जितना जो महत्त्वपूर्ण था, उन्हें आज भी अच्छी तरह याद था- राही मासूम रजा मेरे अच्छे मित्रों में थे। जब मैंने लय' का संपादन आरंभ किया तो के०पी० सिंह जी और राही मासूम रजा को उसमें सहयोग के लिये आमंत्रित किया था। उन दोनों ने बड़े प्रेम से सहायक संपादक ÷लय' के रूप में कार्य करना स्वीकार किया था। मैंने गीत को स्थापित करने के लिए ÷लय' शुरू की थी। परन्तु विशेषतः के०पी० सिंह उसे किसी विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा से प्रतिब( करना चाहते थे। वह मुझे स्वीकार नहीं था। इसलिये के०पी० सिंह और उनके कहने पर राही साहब ÷लय' से बिछुड़ गए।

राही मासूम रजा से मैं बहुत प्रभावित था, क्योंकि उनका सोच हमेशा से ही लोकमंगलकारी और भिन्न-भिन्न प्रकार की मज+हबी रूढ़िवादिता से पूर्णतया मुक्त था। वे हिन्दी और उर्दू-दोनों भाषाओं में बड़ी कुशलता और सरलता के साथ रचनाकर्म में निरत थे। तभी उन्होंने मुझसे ÷अठारह सौ सत्तावन' नाम की अपनी कृति को हिन्दी में प्रकाशित कराने की पेशकश की। मैंने आत्माराम एंड संस- जो मेरे प्रकाशक थे और मुझसे बहुत प्रभावित थे-से पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में बातचीत की। उन्होंने कहा कि यदि किताब की भूमिका मैं लिखँू तो वे छाप देंगे। राही मासूम रजा से मैंने यह चर्चा की तो वो तुरन्त राजी हो गए और पुस्तक छप गई। राही मासूम रजा के मरणोपरांत हुआ यह कि के०पी० सिंह जी ने उस पुस्तक के नए संस्करण में से मेरी लिखी उस भूमिका को निकाल दिया।

राही मासूम रजा ने ÷महाभारत' के जो संवाद लिखे थे, वे इतने अच्छे थे कि वे उनके कारण केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी बहुत लोकप्रिय हो गए। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे अपने संवादों, अपनी कविताओं, अपने उपन्यासों के माध्यम से हमेशा ही विश्व में याद किए जाते रहेंगे। उनके साथ जितना समय मेरा गुजरा है, उसकी याद आज तक मेरे मन-प्राण में बसी है। वे केवल एक अच्छे लेखक ही नहीं, एक सुलझे हुए बहुत ही सजग, बहुत ही सुरुचि संपन्न एक सच्चे और ईमानदार इंसान भी थे। ऐसे इंसान अब देखने को बहुत कम मिलते हैं। बम्बई पहुँचने पर फ़िल्म के माध्यम से उन्होंने विश्वव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की।

प्रो० क़ाजी अब्दुस्सत्तार और शहरयार साहब ए०एम०यू० के उर्दू विभाग और उस समय की तमाम तरह की हलचलों-गतिविधियों से सीधे जुड़े व उस सबके प्रत्यक्ष दृष्टा रहे हैं, जब राही साहब ने यहाँ अध्ययन किया और अध्यापक होना चाहा। दोनों की राही साहब से नज+दीकी भी रही है और उनकी नियुक्ति से जुड़े कुछ हिस्सों के साथ उनका नाम भी लिया जाता रहा है। इसीलिए इन दोनों रचनाकारों से बातचीत की शुरुआत उस दौर की ऐसी ही कुछ चर्चाओं के साथ शुरू हुई थी। दोनों ने बहुत आदर और आत्मीयता के साथ राही साहब को याद किया था। उन दिनों की कई घटनाओं पर बड़ी बेबाकी से दोनों ने खुद को व्यक्त किया था। क़ाजी साहब ने उनके विद्यार्थी जीवन को याद करते हुए अपनी बात शुरू की थी-राही मासूम रजा जब अलीगढ़ आए तो वे अपने समकालीनों में जाने-बूझे शायर थे। यहाँ उन्होंने एम०ए० में दाखिला लिया- बहुत देर के बाद। बी०ए०-वे शायद बहुत पहले कर चुके थे। मेरे भी शागिर्द हुए। क्लास रूम में बहुत अदब से बैठते थे। पूरा लेक्चर सुनते थे, नोट्स लेते थे। फिर यहाँ की जो डिपार्टमेंटल पॉलिटिक्स थी, उस पर ख़लीलुर्रहमान वगैरह उनके खिलाफ़ थे। ख़लील साहब किसी शायर को अलीगढ़ में जमने नहीं देते थे- क्योंकि उनका गिरोह- बाहर का बहुत बड़ा था और राही का तरक्कीपसंदों का गिरोह भी बड़ा था। मूनिस रजा के भाई थे वे। एम०ए० फर्स्ट क्लास पास कर लिया था उन्होंने। वे लेक्चरर होना चाहते थे। उन्होंने आफ़ताब मंजिल में शादी कर ली थी। ये बात प्रो० नूरुल हसन को नागवार गुज+री। आले अहमद ÷सुरूर' साहब को तो पहले से ही उनसे नाखु+श कर दिया गया था। राही बहुत वायटल आदमी थे और अच्छे शायर थे-और महफिलों में छा जाया करते थे। फिर उन्हें अपनी शौहरत पर भी नाज था। इसलिए वो आम तालिब-ए-इल्मों की तरह बहुत दबके और अदब से नहीं रहते थे। मुझको तो वे भाई साहब कहते थे, बाकी लोगों को ख़ातिर में नहीं लाते थे। बहरहाल इंटरव्यू हुआ। उसमें ऐसे सवालात किए गए जो पहले से तय थे। मालूम था कि नहीं लेना। नहीं लिए गए। इसलिए कि प्रो० नूरुल हसन और सुरूर साहब के मामले में कोई जीत नहीं पाता। जब वो नहीं हुए तो मिठाई बाँटी गई। अंग्रेजी में एक रीडर थे रिज+वान हुसेन। वो मिठाई का डिब्बा लेकर अंग्रेजी के मशहूर रीडर सलामतुल्ला खाँ के कमरे में पहुंचे। इत्तेफ़ाक से मैं भी पहुंच गया। मैं उन दिनों उनके पास जाता था। डिब्बा रखा था। किसी ने मुझसे कहा लीजिए। मैंने कहा-क्या है ? जवाब मिला- ये राही नहीं हुए हैं, उसकी खुशी में मिठाई आई है। कुछ लोग खा चुके थे। मैंने खाने से इंकार कर दिया कि मैं ऐसी मिठाई नहीं खाता। सलामत साहब ने भी मिठाई नहीं खाई। ये बात राही को बहुत बाद में मालूम हुई। इसलिए कि मैं चुगलखोरी करने का आदी नहीं हूँ।

राही ने अपने रिजेक्शन की लाइन ये ली कि चँूकि मैं शिया हूँ इसलिए सुरूर साहब ने मुझे नहीं लिया। राही बहुत चलत-फिरत और मिलने-जुलने वालों में थे। वी०सी० तब तय्यब जी थे। वे टेनिस खेलने आते थे। राही ने वहाँ पाबंदी से जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे जब वो वी०सी० के करीब आ गए तो उन्होंने उन्हें बताया कि हमें इसलिए नहीं लिया गया वी०सी० को नागवार गुजरा। सुरूर साहब कर्नल बशीर हसन जैदी के जमाने में वी०सी० की नाक के बाल थे। और वे उसी तरह बिहेव करते थे। लेकिन तय्यब जी के यहाँ उनकी गुजर नहीं थी। जब सुरूर साहब को मालूम हुआ कि उन पर शिया-सुन्नी का चार्ज लगाया गया है तो उन्होंने यूनीवर्सिटी स्कूल के एक टीचर मंजर अब्बास नक़वी और डॉ० कौकब कदर को भर्ती कर लिया ताकि शिया-सुन्नी के झगड़े से उनको निजात मिल जाए। राही ने सुरूर साहब पर मुकदमा कायम कर दिया। वो अदालत के चपरासी को रुपए देकर सुरूर के नाम की आवाज लगवाते थे-हाजिर हो ...। और बहुत एंज्वाय करते थे। खैर मुकदमा तो वे हार गए राही- हारना ही था। अब वो बम्बई गए। बम्बई में एक मुशायरा हुआ। उसमें मीना कुमारी ने एक ग़जल पढ़ी। राही ने खड़े होकर कहा कि मीना कुमारी की ग़जल अच्छी है और हमारे उस्ताद-ए-मौहतरम प्रो० आले अहमद सुरूर की ग़जलों की टक्कर की है। उस पर बड़ा हंगामा मचा। बहुत कहकहे लगे और राही को ये तसल्ली मिली कि उन्होंने इंतकाम ले लिया।

उनको ग़लत तौर पर यह पढ़ा दिया गया कि काजी अब्दुस्सत्तार भी नहीं चाहते थे कि आप लेक्चरर हों। वो हमसे भी ख़फा हो गए और ÷धर्मयुग' में कई महीने हमारे खिलाफ़ लिखते रहे और हमारी तरफ से लोग जवाब देते रहे। राही समझते थे कि मैं लिखवा रहा हूँ और मेरे फ़रिश्तों को भी इल्म नहीं कि कौन लिख रहा है। खैर- वो एक बार बम्बई से आए तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि भाई साहब आप दूसरों से क्यों लिखवा रहे हैं। आप खुद क्यों नहीं लिखते ? मैंने कहा कि मैं किसी से लिखवाना अपनी शान के खिलाफ़ समझता हूँ और खुद इसलिए नहीं लिखता कि आप हर महीने मेरी पब्लिसिटी मुफ्+त में करते हैं। तो मैं फिर उसे लिखकर बंद क्यों करूँ ? बहुत ख़फ़ा हुए। बोले-आप बिल्कुल नहीं लिखवाते किसी पर ... ? मैंने कहा- हलफ़ उठा सकता हू। जानता तक नहीं कि कौन साहब हैं। कॉफी पीते रहे और फिर चले गए।

फिर बम्बई से एक पोस्टकार्ड आया मेरे नाम राही मासूम रजा का कि हरमेश मल्होत्रा शब गजीदा' पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं। तो आप अपने किसी दोस्त का नाम लिख दीजिए ताकि ये मामला तय हो जाय। मैंने फौरन पोस्टकार्ड मँगवाया- जो मैं कभी नहीं लिखता। लेकिन उनको पोस्टकार्ड पर ही जवाब दिया। और लिखा कि बम्बई में मेरे एक दोस्त रहते हैं, उनका नाम है राही मासूम रजा। मैंने शब गजीदा' के सारे राइट्स उन्हें दे दिए हैं। जिस तरह उनका जी चाहे इस्तेमाल करें। अब राही का बहुत लम्बा ख़त आया माफ़ी-तलाफ़ी का। और ये भी कि आप फलां तारीख को बम्बई आ जाएँ। पाँच हजार रुपया भी आया। मैं गया। स्टेशन पर हरमेश मल्होत्रा-दो चार आदमियों के साथ मौजूद थे-और राही भी थे। हरमेश ने मुझे ताजमहल होटल में ठहराने का इंतजाम किया था। जब मैं उनकी गाड़ी में बैठने लगा तो राही मेरे पास आए और कहा- भाई साहब मेरे घर में आपको वो आराम तो नहीं मिलेगा जो ताजमहल होटल में मिलेगा। लेकिन मेरी आरजू है कि आप मेरे साथ ठहरें। मैं हरमेश की गाड़ी से उतरा और राही के साथ उनके घर चला गया और हम फिर एक दूसरे के दोस्त हो गए। शराब की महफ़िल में वो मुझसे आँखें नहीं मिला रहे थे तो मैंने कहा- राही, मुझे मालूम था कि एक दिन ये झूठी अफ़वाहें, जिनकी बिना पर तुम मुझसे खफ़ा हो, हवा हो जाएंगी और तुमको सारी सच्चाई मालूम हो जाएगी। इसीलिए मैंने तुम्हारे किसी ऐतराज का जवाब नहीं दिया। आज तुम मुझसे शर्मिंदा हो, आँखें नहीं मिला रहे हो और मैं तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर बातें कर रहा हूँ। राही लिपट गए-वो रोए। इसके बाद कभी हमारा इख्तलाफ़-लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ।

राही बहुत अहम्‌ शायर थे और उनमें बहुत सलाहियतें थीं। इसका इज+हार उस समय हुआ जब उन्होंने ÷महाभारत' के लिए लिखा। उसका एक-एक एपीसोड मैंने बहुत गौर से देखा है और उसकी तारीफ़ की है ये अच्छा हुआ कि राही अलीगढ़ से चले गए, वरना उनको महाभारत में लिखने का ऐजाज हासिल नहीं होता। आज भी वो मुझको बहुत याद आते हैं। जब वो अपनी बेटी की शादी करने के लिए अलीगढ़ आए तो उनके भाई प्रो. मेंहदी हसन ने मुझे बताया कि राही भाई से मिलने बड़े-बड़े लोग आते थे, लेकिन वो किसी के लिए खड़े नहीं होते थे। मगर आपका रिक्शा देखकर ही खड़े हो जाते थे। और जितनी पजी राई आपकी करते थे, मैंने किसी की नहीं देखी।'

शहरयार साहब से जब राही साहब से जुड़ी उनकी यादों को याद करने के लिए कहा गया तो उन्होंने पहले उनसे हुई अपनी पहली मुलाकात को याद किया- और फिर धीरे-धीरे कई घटनाएँ उन्हें याद आती गइर्ं- उनसे मेरी पहली मुलाकात सन्‌ पचपन में हुई। मैं खलील साहब के साथ रहता था और वे उन्हें बहुत मानते थे। वे खलील साहब को मौलाना कहते थे। राही जब भी अलीगढ़ आते, उनके यहाँ जरूर आते। राही कुछ ही छोटे थे उनसे- लगभग बराबर। १९५६ में वे केवल इंग्लिश में इंटरमीडिए करने यहाँ आए। जामिया से जो अदीब माहिर, अदीब कामिल करके आता था, उसे केवल इंग्लिश में इंटर करना होता था। हाईस्कूल के बाद उन्हें टी०बी० हो गई थी। वे कश्मीर सेनीटोरियम में रहे थे वहाँ। फिर उनको शिक्षा कम्पलीट करने का ख़याल आया। उन्होंने १९५८ में बी०ए० का इम्तहान मेरे साथ दिया। ५८ में हम कश्मीर गए। वे भी कश्मीर में थे। मुलाकातें होतीं। वे खुशमिजाज आदमी-और खुशशक्ल भी थे। देखने में भी अच्छे लगते थे। पहले वे सिर्फ+ कुर्ता, पायजामा और बास्कट पहना करते थे। बी०ए० करने के बाद उन्होंने ५८ में एम०ए० उर्दू में दाखिला लिया। मैंने एम०ए० साइकोलॉजी में दाखिला लिया। उर्दू का मेरा ख़याल भी नहीं था। कुछ इस वजह से भी उन्हें ख़याल हुआ कि मेरा इसका कोई मुकाबला नहीं है। इसलिये मुझसे बहुत मोहब्बत से मिलते थे। मुझे दिसम्बर में यकीन हो गया था कि मैंने साइकोलॉजी में दाख़िला लेने का फ़ैसला ग़लत लिया है। वहाँ से नाम कटवा लिया और सिर्फ़ शायरी करता रहा। एम०ए० में राही साहब डिपार्टमेंट की सोसायटी के सेक्रेटरी हो गए। यह सोसायटी-अंजुमन उर्दू-ए-मुअल्ला, हसरत मोहानी साहब ने कायम की थी। उनके रिसाले का नाम ÷उर्दू-ए-मुअल्ला' था। राही साहब काफ़ी मशहूर आदमी थे। यहाँ उनके बड़े भाई मूनिस रजा थे। यहाँ के तरक्की पसंद ग्रुप में नूरुल हसन साहब, अलीम साहब, मूनिस रजा साहब खास आदमी थे। मूनिस साहब की वजह से प्रोगे्रेसिव हल्के में राही को काफ़ी अहमियत दी जाने लगी। प्रोगेसिव लोग जाकिर साहब के जमाने में यूनीवर्सिटी के काफ़ी अहम्‌ ओहदों पर रहे। राही ने सोसायटी की तरफ से एक उर्दू हफ्ता मनाया - जिसमें सेमिनार, क्विज, कल्चरल प्रोग्राम हुए- तो उसमें काफ़ी लोग मौजूद हुआ करते थे। एक साल बाद जब मैंने एम०ए० उर्दू में दाख़िला लिया तो उस अंजुमन का सेक्रेटरी मुझे बनाया गया। डिपार्टमेंट के कुछ लोगों ने कहा कि ये राही की तरह नहीं कर पाएंगे। लेकिन सुरूर साहब ने कहा कि नहीं, ये कर लेंगे। मेरे जमाने में बहुत अहम्‌ जलसे हुए। उनमें फ़िराक साहब आए, अख्+तरुल ईमान आए, कुर्रतुल ऐन हैदर आईं। अंदर-अंदर राही साहब को एक यह ख्+याल पैदा होने लगा कि शहरयार से उनका मुकाबला होगा। जबकि मैं बिल्कुल ये नहीं सोचता था। राही साहब मैग्जीन के एडीटर नहीं बनाए गए। क्यों- इसके बारे में मैं कोई राय नहीं देना चाहता। लेकिन मैं एम०ए० फाइनल में मैग्जीन का एडीटर बनाया गया।

एम०ए० करते ही- बल्कि एम०ए० के रिजल्ट आने से पहले, अंजुमन तरक्की में मुझे लिट्रेरी असिस्टेंट की जगह मिल गई। फैकल्टी की फैलोशिप मिलने के बाद मैंने वो नौकरी छोड़ दी। राही साहब उस जमाने में काफ़ी मक़बूल थे। और शायद उनकी मक़बूलियत की वजह से कुछ लोग उनसे खौफ़जदा थे। एक आम ख़याल ये हो गया था कि मैं सुरूर साहब के ज्यादा करीब हूँ। इत्तेफ़ाक से डिपार्टमेंट में एक उस्ताद ने तीन महीने की छुट्टी ली। उस पर सुरूर साहब ने लखनऊ के अपने शार्गिद-काजी साहब के दोस्त-मसूद आलम का अप्वाइंटमेंट कर दिया। वो लखनऊ यूनीवर्सिटी से सेकिंड क्लास एम.ए. थे। शाहजहाँपुर में लेक्चरर थे और छुट्टी लेकर रिसर्च करने अलीगढ़ आए थे। लेकिन उनको कोई वजीफ़ा नहीं मिला था। राही साहब एक दिन मुझे मिले, कहने लगे कि ये बहुत ग़लत हुआ है। मेरे या तुम्हारे में से किसी एक का होना चाहिए था। मैंने कहा कि मुझे कोई शिकायत नहीं है। उसी जमाने में मेरे बड़े भाई को हार्ट-अटैक हो गया और मैं तकरीबन दो महीने डिपार्टमेंट नहीं गया। उनकी देखभाल में लगा रहा। यह जमाना तय्यब जी की वाइस चांसलरशिप का था। चीन का हमला हो चुका था। राही साहब ने एक प्ले लिखा-पर्वत वो सबसे ऊँचा। जब वह स्टेज हुआ तो उसको तय्यब जी ने भी देखा। तय्यब जी टेनिस खेलते थे। राही साहब पाबंदी के साथ टेनिस लाउंज पर जाते थे और किसी न किसी बहाने से उनकी तारीफ़ करते थे। तय्यब जी से इस अप्वाइंटमेंट के बारे में खुद या किसी के जरिये उन्होंने इजहारे नाराजगी किया कि यह ग़लत एप्वाइंटमेंट हुआ है। और तय्यब जी ने चेयरमैन के टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट करने के अधिकार छीन लिए और ये कानून पास कर दिया कि हर टेम्परेरी सलेक्शन के लिए लोकल सलेक्शन कमेटी होगी। उस कमेटी में वी.सी., प्रो. वी.सी., डीन और चेयरमैन बैठेंगे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में लोकल सलेक्शन कमेटी से पहला अप्वाइंटमेंट राही मासूम रजा का हुआ। ये तब हुआ था जब दूसरी बार मौहम्मद हसन छुट्टी लेकर गए थे। राही साहब का यह टेम्परेरी अप्वाइंटमेंट हो गया और मुझको बड़ी खुशी हुई। अगरचे मैं भी उम्मीदवार था। मैंने उसी जमाने में एक ग़ज+ल लिखी- जिसमें एक शेर था- ÷वो नहीं उदू सही, खुशी ये है कि दहर में। कोई तो सुर्खरू हुआ, कोई तो सर बलंद है।' और ये शेर मैंने उन्हें सुनाया भी। और उन्होंने बहुत पसंद किया।

हम रोज+ शाम लाइब्रेरी कैंटीन में मिलते। वे बड़ी मोहब्बत से पेश आते थे। वहाँ काफ़ी देर हम बैठते । नए शेर उन्हें सुनाते थे वो भी सुनाते अपनी चीजें। लय नाम से एक रिसाला निकलता था। उसमें उन्होंने मुझ पर एक मज+मून भी लिखा। काफ़ी तारीफ़ भी की थी उसमें। लेकिन मैं कभी उनके इनर सर्किल का हिस्सा नहीं बन सका। मेरे और उनके बीच मिजाज में जमीन-आसमान का फ़र्क था। वो मुकामी शौहरत और हर दिल अजीजी के लिए बहुत से ऐसे काम करते जिनकों मैंने कभी पसंद नहीं किया। बहरहाल जितना वो अपने को मज+बूत करने की कोशिश करते रहे, कुछ लोग अंदर ही अंदर ऐसे काम करते रहे कि वे यहाँ न टिक सकें। उनके इश्क ने इसके लिए सारे मौके फ़रहाम करा दिए। और जब वह जगह परमानेंट हुई तो अली यावर जंग के इशारे पर उन्हें नहीं लिया गया। मैं इस जगह के लिए पहले उम्मीदवार था, लेकिन बाद में ऐलान कर दिया कि मैं इस सलेक्शन कमेटी में नहीं आऊंगा। मैं ईवनिंग क्लासेज में टैम्परेरी लेक्चरर हो चुका था। शाम को पढ़ाता था और दिन में ऑनरेरी तौर पर हमारी जुबान' का संपादन करता था।

सलेक्शन कमेटी के दिन दो बजे डिपार्टमेंट के क्लर्क ने मुझे फ़ोन पर इत्तला दी कि आपको सलेक्शन कमेटी में आना है। ये इत्तला उसने फैकल्टी के रूम नम्बर वन से दी, जो उस वक्त ओरियंटल कांफ्रेंस का इंक्वायरी ऑफिस था। इसके इंचार्ज थे कुँवरपाल सिंह। कुँवरपाल सिंह ने क्लर्क की वो बात सुनी और राही साहब को पहुँचा दी। सुरूर साहब के सलेक्शन कमेटी में मेरे उस बुलाने को राही साहब ने ये समझा कि उस जगह मेरा अप्वाइंटमेंट होगा। मैं जब सलेक्शन कमेटी में पहुँचा तो राही साहब ने मुझसे कहा भी कि तुम तो नहीं आने वाले थे। तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। राही साहब ने यह सोचकर कि उन्हें नहीं लिया जाने वाला है, सलेक्शन कमेटी के लोगों से कॉफी झगड़ते हुए से जवाब दिए। और ये न होता तो भी शायद उनका अप्वाइंटमेंट नहीं होता। नवाब अली यावर जंग उनके काफ़ी खिलाफ़ थे। नूरुल हसन साहब, जो उस वकत डीन थे, उन्होंने बाकायदा छुट्टी ले ली और शब्बीर खाँ साहब डीन की हैसियत से बैठे। मैंने सलेक्शन कमेटी के बाद सुरूर साहब से पूछा कि मैंने तो कहा था कि मैं उम्मीदवार नहीं हूँ, फिर आपने क्यों बुलाया। तो उन्होंने बताया कि प्रो० नूरूल हसन ने मुझसे कहा था कि इसी सलेक्शन कमेटी से शहरयार के अप्वाइंटमेंट को रेगुलराइज करा लीजिए। उससे उस वक्त पी.वी.सी. ने इत्तेफ़ाक नहीं किया। उन्होंने कहा कि बिना एडवरटिज+मेंट के कोई अप्वाइंटमेंट नहीं होगा। दिल्ली के एक साहब का अप्वाइंटमेंट उसमें हो गया। राही साहब ने सुरूर साहब पर कई मुकदमे- वुकदमे कायम करा दिए। और फिर उनके लिए यहाँ के हालात बिल्कुल उनके हक़ में नहीं रहे।

मैं बम्बई और अलीगढ़ में बराबर उनसे मिलता रहा। जब भी मैं बम्बई गया, उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया। हर तरह की दावत दी। बड़ी मोहब्बत से मुझसे मिलते थे। उर्दू से जो राही साहब दूर हुए उसके कारण ये थे कि - उनमें एक तो ये था कि वो जमाना-तब मॉडर्न शायरी का जमाना शुरू हो गया था और खुली-डली डायरेक्ट शायरी का रिवाज साहित्य से ख़त्म हो गया था। बल्कि उसके खिलाफ़ लहर चल रही थी। वैसे राही साहब अदबी शौहरत के सिलसिले में कुछ सीरियस भी नहीं थे। वो अवामी पॉपुलरिटी को ज्यादा अहमियत देते थे। मुख्तलिफ़ नामों से रूमानी नॉविल लिखते थे। अब्दुल हमीद पर किताब लिखी- छोटे आदमी की बड़ी कहानी। अठारह सौ सत्तावन पर नज्म लिखी। उसके पीछे यही था। उसमें संपूर्णानंद से उन्होंने लिखवाया था। लेकिन उसका कोई खास असर नहीं हुआ। आधा गाँव उन्होंने उर्दू में ही लिखा था। कुँवरपाल सिंह ने देवनागरी में करा दिया था और फिर वो हिन्दी का अहम्‌ उपन्यास बन गया। बम्बई में वो सारिका और धर्मयुग में अपनी माली जरूरतों की वजह से टिपीकल चीजों पर लिखा करते थे। ऐसी चीजें-जो जल्दी लोगों को पसंद आएँ-और खासतौर से हिन्दी के पढ़ने वालों को।

बहरहाल बम्बई में उन्होंने बहुत स्ट्रगल किया। असली कामाबी नहीं कि वो खराब ही होगा। वैसे आम इंसान के लिए बहुत ज्यादा लिखना मुमकिन भी नहीं हैं वो बहुत ही कंट्राडिक्टरी बातें करते थे। मसलन वो कहते थे कि मैं उपन्यासकर तो हिन्दी का हूँ, मगर शायर उर्दू का हूँ। वैसे ख्यालात के ऐतबार सेक्युलर आदमी थे- लिबरल आदमी थे। उनकी सोच बड़ी हद तक सही थी। अलबत्ता उस सोच को वे हमेशा शौकीन अंदाज से पहुंचाते थे। मुझे वे बहैसियत आदमी के बहुत पसंद थे। फ़िल्म अंजुमन के डायलॉग राही साहब ने लिखे थे और उसके गाने मैंने लिखे थे। उन गानों में स्त्रीलिंग वर्ब्स का इस्तेमाल उनको पसंद नहीं आया था, जिसका इजहार उन्होंने एक पार्टी में किया। लेकिन मैं भी उस पर अड़ गया कि जब करेक्टर फीमेल है तो स्त्रीलिंग का इस्तेमाल करेगा। करता हूँ नहीं, करती हूँ ही तो कहेगा। पुराने जमाने में ये होता था कि औरतें भी जनरल इस्तेमाल करती थीं। लेकिन वो नए जमाने का करेक्टर था- वो लड़की है- वो मैस्कुलिन वर्ब्स क्यों इस्तेमाल करेगी ? उनका कहना था कि करती हूँ की जगह करता हूँ करे। वो जनरल हो। वो मालूम न हो कि औरत है या मर्द है। इस पर थोड़ी तल्खी भी हुई। पर वो जब भी आते थे, मुझसे जरूर मिलते थे और मैं जब भी बम्बई जाता, उनसे जरूर मुलाकात होती। सेंस ऑफ़ ह्‌यूमर उनमें था। उनसे बातें करने, उनकी बातें सुनने में मजा आता था। अब भी उनकी बेटी अैर दामाद से अमेरिका में जब भी मुलाकात होती है तो वो यद आते हैं। मैं अक्सर टेलीफ़ोन से उनकी बेटी अैर दामाद-जो उनका भतीजा है-की खैरियत मालूम करता रहता हू। बेटी को ऐसी बीमारी है कि जिसे बर्दाश्त करना बडा मुश्किल काम है। लेकिन वो बड़ी हिम्मत वाली लड़की है।

नहीं, वो जो रेगुलर करने की बात थी, वह ईवनिंग क्लास वाली टेम्परेरी पोस्ट की ही बात थी। हाँ वो जो दिल्ली वाले साहब का अप्वाइंटमेंट हुआ था, दूसरी एडवर्टाइज्ड पोस्ट पर ही हुआ था। नहीं- मैं उनसे मुकाबला करना नहीं चाहता था इसलिए सलेक्शन कमेटी में न आने की बात कही थी। मैं टेम्परेरी लेक्चरर हो गया था। मैंने एक तरह से खुद को उनसे कमतर मान लिया था। मैं सोचता था कि उन्हें पहले मौका मिलना चाहिए। वे सीनियर थे, जहीन थे। मैं कभी ऐसी चीज को पाने की कोशिश नहीं करता कि जिससे कुछ लोग नाराज-दुखी हों और मुझे लगे कि मैंने हक़ मारा है। इसलिए मैंने जहनी तौर पर तैयार कर लिया था खुद को। उनका फिजीकल ऐसा मामला था कि जो एक बार मिल लेता, भूलता नहीं। काफ़ी अच्छा तरन्नुम था। अच्छा पढ़ते थे। पर्फोमेंस उनकी बहुत बढ़िया होती थी। मजाज पर एक नज्+म लिखी थी उन्होंने। वो काफ़ी पॉपुलर हुई थी। जो उन्होंने चाहा फिर भी वो नहीं मिला। गाने लिखे फ़िेल्म को-वो नहीं चल पाया।

नहीं, मैंने उनके ज्यादा उपन्यास नहीं पढ़े। शायरी अच्छी करते थे। ग़जलें खासतौर से अच्छी होती थीं। वो अपने को बेसीकली नज्म का शायर कहते थे। मेरे एक दोस्त राही साहब और मुझमें कम्पेरीजन करते हैं कि तुमको एडीटिंग आती है, राही साहब एडिट नहीं करते। तुम बात कम तो करते हो, ज्यादा कभी नहीं कहते। राही साहब एक ही बात को कई-कई तरह से कहेंगे। वे फैलाने में रुचि लेते हैं- ओरेटरी की जो खूबियाँ होती हैं न ...!

नहीं, उर्दू में कोई खास अहमियत नहीं। कुछ तरक्कीपसंद नक्क़ाद पहले कभी-कभी जिक्र करते थे- अब वो भी नहीं। सही वक्त पर उनकी किताबें नहीं छपीं। छपीं तो लोगों के पास गईं नहीं। रिसालों में उन्होंने लिखा नहीं। वो बेसीकली आज पर ध्यान देते थे। आने वाले कल की बहुत फ़िक्र उनको नहीं थी।

1 comment:

Devi Nangrani said...

bahut hi Rochak vivaran, padhkar meri Mumbai ki pali hill ankhon ke saamne raks karti rahi.