Friday, January 2, 2009

ग़ज़ल

अब फिरंगी की हर एक चाल से हैराँ हैं यह
अपनी बिगड़ी हुई बाजी से परेशाँ हैं यह
शाह मजबूर है, पेशानी पे हैं शातिर के बल
घर में फर्जी के चले आए हैं गोरे पैदल
इनका दिन खत्म है अब रात हुआ चाहती है
थोड़ी ही देर में अब मात हुआ चाहती है

उट्ठो कि नहीं वक्त आराम का लोगो
दम घुटता है नाकूस (शंख) का दामन की हवा दो
दीवारें हरम गिरती हैं सँभले तो सँभालो
इस सुबहे फिरंगी का यह अंधेर भी देखो
रहने भी जो पायेंगे तो सहरा में रहेंगे
या रामो रहीम अब से कलीसा (गिरजा) में रहेंगे

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