Saturday, November 8, 2008

असन्तोष के दिन -राही मासूम रजा



हिन्दी-उपन्यास-जगत में राही मासूम राजा का प्रवेश एक सास्कृतिक घटना जैसा ही था। ‘आधा-गाँव’ अपने-आप में मात्र एक उपन्यास ही नहीं, सौन्दर्य का पूरा प्रतिमान था। राही ने इस प्रतिमान को उस मेहनतकश अवाम की इच्छाओं और आकांक्षाओं को मथकर निकाला था, जिसे इस महादेश की जन-विरोधी व्यवस्था ने कितने ही आधारों पर विभाजित कर रखा है।
राही का कवि-ह्रदय व्यवस्था द्वारा लादे गये झूठे जनतन्त्र की विभीषिकाओं को उजागर करने में अत्यन्त तत्पर, विकल, संवेदनशील और आक्रोश से भरा हुआ रहा है। यही ह्रदय और अधिक व्यंजनाक्षम होकर ‘असन्तोष के दिन’ व्याप रहा है। आक्रोश और संवेदना की यह तरलता यहाँ मधुर गम्भीर राजनीतिक सवालों को पेश करती है, जिनकी आंच में सारा हिन्दुस्तान पिघल रहा है। राष्ट्र की अखण्डता और एकता, जातिवाद की भयानक दमघोंटू परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता का हलाहल, एक-से-एक भीषण सत्य, चुस्त शैली और धारदार भाषा में लिपटा चला आता है और हमें घेर लेता है। इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय, इनके उत्तर तलाश किये जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारन्टी नहीं रहेगी।
सारांश
शीला सन्धू के नाम जो वह लगातार डाँट न पिलाती रहतीं तो शायद मैं यह उपन्यास न लिख पाता
-राही मासूम रज़ा
इस कहानी में जो लोग चल-फिर रहे हैं, हँस-बोल रहे हैं, मर-जी रहे हैं, उन्हें अल्लाह मियाँ ने नहीं बनाया है; मैंने बनाया है। इसलिए यदि अल्लाह के बनाए हुए किसी व्यक्ति से मेरे बनाए हुए किसी व्यक्ति का नाम-पता मिल जाए तो क्षमा चाहता हूँ।
-राही मासूम रज़ा
भूमिका
यह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही
दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो ! आप, चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।

आकाशवाणी से अंग्रेजी में समाचार आ रहे थे कि सरकारी आँकड़ों के अनुसार भिवण्डी, थाणे, कल्याण और बम्बई महानगरी में कुल मिलाकर अब तक 151 आदमी मारे जा चुके हैं। फ़ात्मा ने लुक़्मा दिया ! एक सिफ़र और बढ़ा लो, कम-से-कम। किसी ने फ़ात्मा की बात का जवाब नहीं दिया। सबने उसकी तरफ़ देखा ज़रूर। शायद सब फ़ात्मा से सहमत थे। 37 वर्षों का यह अनुभव था कि इन मामलों में सरकारी आँकड़े हमेशा गलत होते हैं। यूँ भी आकाशवाणी पर से जनता का भरोसा कब का उठ चुका था। समाचारों के शौकीन तो बी।बी।सी। सुनते हैं। साहब आप कुछ कहें; अंग्रेज झूठ नहीं बोलता ! और लन्दन से कल साढ़े-बारह बजे रात को रेवती का फ़ोन आया था। ‘‘अब्बास भाई, मैं रेवती बोल रहा हूँ।’’ ‘‘अरे कब आए ?’’ ‘‘आया कहाँ। लन्दन से बोल रहा हूँ।’’ अब अब्बास घबराया कि इतनी गई रात को रेवती ने लन्दन से क्यों फ़ोन किया ?‘‘सलमा कैसी है ?’’ अब्बास ने पूछा। सलमा उसकी छोटी बहन का नाम था। और जब सलमा-रेवती इश्क़ की ख़बर का बम फूटा और उसके ख़ानदान की नौ सौ बरस पुरानी दीवारें हिल रही थीं और घर में कुहराम मचा हुआ था और अब्बास ने चुप साध ली थी और अड़ोस-पड़ोस तक की बड़ी बूढ़ियाँ सलमा के मरने की दुआएँ माँग रही थीं, तब उसने चुपचाप रेवती से सलमा की शादी करवा दी थी कि मज़हब का इश्क़ों से क्या लेना-देना। कहते हैं, इश्क़ नाम के गुज़रे हैं एक बुजुर्ग हम लोग भी मुरीद उसी सिलसिले के हैं उसके लिए इश्क़ सबसे बड़ा था और जहाँ तक इश्क़ का सवाल है, अब्बास जानता था कि इश्क़ पोस्टल ऐडरेस नहीं पूछता पर वह हमेशा ठीक पते पर पहुँच जाता है। अगर ख़ानदान में उसकी माली हालत सबसे अच्छी न रही होती तो शायद वह कुज़ात कर दिया गया होता। पर सभी को उसके पैसों की ज़रूरत थी। इसलिए अब्बा के सिवा सभी खून के घूँट पीकर चुप हो गए। बड़ी बाजी ने गुस्से में उसके लिए एक नया स्वेटर बुनना शुरू कर दिया। बाजी ने गुस्से में उसके साथ जाने के लिए चने का हलवा पकाना शुरू कर दिया और हैदरी फूफी गुस्से में उसके लिए इमाम ज़ामिन तैयार करने लगीं... बाद में सब मिले। बस सलमा नहीं मिली। क्योंकि वह शादी के बाद ही लन्दन चली गई। वह हर साल आने का प्रोग्राम बनाती और वह प्रोग्राम गड़बड़ हो जाता और अब तो उसकी बड़ी बेटी तसनीम सत्रह साल की हो चुकी है और उर्दू नहीं जानती। बोल लेती है पर लिख-पढ़ नहीं सकती। सलमा को इसका दुःख भी था। उसने एक ख़त में लिखा था :‘‘मँझले भाई, कमबख्त किसी तरह उर्दू सीखने पर तैयार नहीं होती। तहसीन माशा अल्लाह से कलामे-पाक भी पढ़ी रही है और उर्दू भी...’’ तहसीन उसकी दूसरी बेटी का नाम था जो अब शायद पन्द्रह साल की होगी... ‘‘अरे चुपचाप रिसीवर लिये दीवार को क्या देख रहे हो ?’’ सैयदा की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। लन्दन से सलमा की रुआँसी आवाज़ आ रही थी... ‘‘मैं तो बी।बी।सी। पर बलवों की तस्वीरें देखते ही रोने लगी कि अल्लाह मँझले भाई भी तो बान्द्रे में हैं...’’ ‘‘बलवा बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’ ‘‘आपकी बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’ ‘‘आपकी तरफ़ सब ख़ैरियकत है ना...’’ टी।वी। पर महदी हसन के प्रोग्राम का कैसेट शुरू हो गया। देख तो, दिल कि जाँ से उठता है, यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है। ‘‘अरे भई ज़रा आवाज़ दबाव।’’ अब्बास ने झल्लाकर कहा। ‘‘जी !’’ उधर से सलमा ने पूछा। ‘‘तुमने नहीं !’’ अब्बास ने कहा। ‘‘तसनीम और तहसीन कैसी हैं ?’’ ‘‘तसनीम तो अपने एक नीगरो फ्रेण्ड की बर्थ-डे पार्टी में गई है। ख़ाक़पड़ी को वह कलूटा ही पसन्द आया। मैंने तो साफ कह दिया कि होशों में रहो...।’’ दीवारों में दीवारें। साढ़े सत्तर बरस पहले मुहल्ला सैयदवाड़े की बड़ी-बूढ़ियाँ खुद सलमा के बारे में ऐसी बातें कह चुकी थीं...ख़ाक़पड़ी को वह मुआ हिन्दू ही पसन्द आया। ’66 और ’84-18 में सिर्फ़ एक शब्द बदला, ‘‘हिन्दू’ की जगह ‘कलूटा’ आ गया। सन् ’66 की क्रान्तिकारी सलमा ’84 तक आते जब 17 वर्ष की तसनीम की माँ बनी तो अतीत के दलदल में गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई। पड़ोस की अब्दुर्रहीम बो बन गई। अल्लाह ! उलटे पैरों की यह यात्रा कब ख़त्म होगी ! उधर से सलमा लगातार बोले जा रही थी-‘‘पर आपके चहेते रेवती के कानों पर तो जाने क्या अल्लाह की मार है कि बेटी की जबानी तक नहीं रेंगती। बैठे मुस्कुरा-मुस्कुरा के पाइप पिए जा रहे हैं। अर्ना भैंसे जैसा रंग, तवे में अल्ला ने आँख-नाक लगा दिया है। अच्छाई क्या कि मुआ क्रिकेट अच्छा खेलता है। मैंने तो गुस्से में आकर मुजतबा के बैट-वैट भी तोड़ डाले। यह सब परेशानियाँ क्या कम भीं थीं कि वहाँ बम्बई में बलवे भी शुरू हो गए। और बी।बी।सी। ने ऐसी खौफनाक तस्वीरें दिखलाईं, मँझले भाई कि मेरा तो दिल हिल गया। वह तो अल्ला भला करे रेवती का फोन लगा के थमा दिया...’’ टी।वी। पर अब ‘मक़सद’ चलने लगी थी। माज़िद वी।सी।आर। की कलें ऐंठ रहा था। सैयदा ने अपनी जगह से बैठे-बैठे डाँटा- ‘‘अरे मज्जू, अल्ला के वास्ते वी।सी.आर. पर रहम कर !’’ और राजेश खन्ना ने श्रीदेवी से पहली बुझाई: ‘‘पहले तो अरोड़ा-मरोड़ा, फिर थूक लगा के घुसेड़ा।’’ श्रीदेवी की समझ में यह पहेली नहीं आई तो उसने वह पहेली दुहारई। समझ में नहीं आई। अब राजेश खन्ना ने समझाया कि चूड़ी और चुढौरा। पहले कलाई मरोड़ता है। फिर थूक लगा के... अब्बास ने लाहौल पढ़कर हाथ बढ़ाया और टी.वी.बन्द कर दिया। ‘‘क्या हुआ ?’’ सलमा ने लन्दन से पूछा। ‘‘यहाँ बलवों से ज़्यादा ख़तरनाक एक फ़िल्म चल रही थी-‘मक़सद’। उसे बन्द कर दिया।’’ ‘क़ादिर ख़ाँ को क्या हो गया। मँझले भाई ! छी छी ! इतने गन्दे और बेहूदा डॉयलाग। सेंसरवालों ने यह फ़िल्म अफ़्यून के नशे में देखी थी क्या !’’ ‘‘पता नहीं पर राजेश खन्ना की पहेली में ज़बान की ग़लतियाँ हैं, सुई में धागा, थूक लगा के घुसेड़ा नहीं जाता, पिरोया जाता है। डाला जाता है। और यह...’’ ‘‘ऐ खाक डालिए मुए पर,’’ सलमा ने कहा, ‘‘तहसीन ने कहा, ‘‘तहसीन को हिन्दी फ़िल्में देखने का बड़ा शौक है। मैंने कहा यह अक़सद-मक़सद-जैसी फ़िल्में नहीं चलेंगी घर में। ‘आक्रोश’ देखो। ‘अर्धसत्य’ देखो। ‘खण्डहर’ देखो। ‘सारांश’ देखो...’’‘‘क्या ‘सारांश’ का कैसेट आ गया ?’’ ‘‘मुद्दत हुई। मुझे तो वह घाटन हतंगड़ी अच्छी नहीं लगी। कस्तूरबा बनने का नशा उतरा नहीं। इतराती ज्यादा है। ऐक्टिंग कम करती है और उर्दू बहुत ऐंठ-ऐंठ के बोलती है।’’ ‘‘उर्दू नहीं, हिन्दी।’’ अब्बास ने कहा।’’ ‘‘भाभी कैसी है ?’’ ‘‘उन्हीं से पूछा लो।’’ रिसीवर उसने सैयदा को दे दिया। माज़िद ‘मिली’ चला रहा था। मगर प्रिण्ट ख़राब था। जया भादुड़ी फुदक-फुदककर टैरेस पर बच्चियों के साथ कोई गाना गा रही थी। यकायक सलमा की किसी बात पर सैयदा खिलखिला के हँस पड़ी और अब्बास को लगा कि बम्बई में होनेवाले बलवों की ख़बर ग़लत है और यह खबर झूठी है कि ‘मक़सद’ हिट हो गई है। क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के हिट होने का मतलब यह है कि ऐडल्टरेटिड सिनेमा ने तो सिनेमा को पीछे धकेल दिया है। यह ज़हरीली शराब पीकर कितने लोग मरेंगे यह कौन सोचता है। मासिक ‘अदब’ के सम्पादक होने के नाते इस सिनेमा का विरोध करना क्या उसका कर्त्तव्य नहीं है ? कर्त्तव्य ! केवल एक शब्द ! अर्थ और शब्द के बीच...सो व्हाट ऐवरीबड़ी कम्प्रोमार ज़ेज।... फ़ात्मा की आवाज़ आई। झल्लाई हुई। अब्बास ने मुड़कर देखा। हमेशा की तरह फ़ात्मा और माज़िद में किसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी। ‘‘दैन यू आर ए फूल।’’ माज़िद बोला। ‘‘एण्ड यू आर ए डैम-फूल।’’ फ़ात्मा ने कहा। दोनों की निगाह उस पर पड़ी और दोनों हँसने लगे। माज़िद को बहस करने का बड़ा शौक था। लोग अगर अमरीका के तरफ़दार होते तो वह रूस का तरफ़दार हो जाता। लोग अगर यहूदियों की तारीफ़ करते तो वह हिटलर का भक्त तो जाता। अब्बास, माज़िद की तरफ़ देखकर दिल-ही-दिल में मुसकरा दिया वह खुद अब्बास का बचपन था। फ़र्क सिर्फ़ यह था कि माज़िद को इस उम्र में जितनी बातें मालूम थीं उतनी बातें अब्बास को उस उम्र में मालूम नहीं थीं। या तब शायद इतनी बातें ही न रही हों। ‘‘तुम लोग आख़िर हर वक़्त झगड़ते क्यों रहते हो ?’’ अब्बास ने कहा। ‘‘यही हर वक़्त लड़ती रहती हैं अब्बू।’’ माज़िद ने ख़बर दी. ‘‘लाइयर,’’ फ़ात्मा ने बयान दिया, ‘‘संगीता से लव नहीं चल रहा है तेरा...’’ ‘‘संगीता !’’ अब्बास, चकरा गया, ‘‘यह तो बिलकुल ही नया नाम है सैयद साहब !’’ ‘‘गोदरेजवाले मिस्टर शर्मा की बेटी है।’’ सैयदा ने ख़बर दी। ‘‘मगर तुम दोनों हमेशा अंग्रेजी में क्यों झगड़ते हो। उर्दू-हिन्दी में नहीं झगड़ सकते तो मराठी में झगड़ो।’’ ‘‘मराठी !’’ माज़िद गनगना गया, ‘‘आई हेट मराठी।’’ ‘‘वह क्यों भई !’’ ‘‘बिक़ाज ऑफ यह कि मराठी ने तो हाई स्कूल में मेरी पुज़िशन खराब की।’’ ‘‘औनली मराठीज़ ऐपियर ऑन द मेरिट लिस्ट।’’ फ़ात्मा ने फैसला सुना दिया। ‘‘ट्रांसलेट,’’ अब्बास ने कहा। ‘‘सिर्फ़ मराठियों के नेम्स...ओह हैल...नाम, मुझे नहीं मालूम कि मेरिट लिस्ट को हिन्दी-उर्दू में क्या कहते हैं।’’ ‘‘मुझे भी नहीं मालूम !’’ अब्बास ने कहा। फ़ात्मा खिलखिलाकर हँस पड़ी और गले में बाँहें डालकर प्यार करने के बाद बोली, ‘‘मैं सोने जा रही हूँ।’’ ‘‘ए मज्जू !’’ सैयदा ने फ़रियाद की, ‘‘खुदा के वास्ते यह ‘मिली-रिली’ बन्द करो, गोलमाल’ लगा दो।’’ माज़िद ने सुना ही नहीं। वह ‘वाकमैन’ पर उस्ताद अमीर अली खाँ का अहीर भैरव सुनने में लग चुका था। कानों पर ईअर फोन चढ़ा हुआ था। ख़ुद सैयदा भी कालीन पर लेटकर ‘सुषमा’ में छपी हुए तस्वीरें देखने लगी क्योंकि देवनागरी लिपि वह जानती नहीं थी। ‘‘यार एक हो जाए !’’ एकदम से अब्बास को प्यास लग गई। ‘‘कोई ज़रूरत नहीं,’’ सैयदा ने डाँटा, ‘‘कर्फ्यू यूँ ही लगी हुआ है।’’ वह हँस पड़ा, ‘‘कर्फ्यू को चाय से क्या लेना-देना भई !’’ दरवाज़े से पीठ लगाए जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर बाक़ायदा रोता हुआ राम मोहन उठ खड़ा हुआ।अब्बास देख सकता था कि राम मोहन दिल मारके चाय बनाने उठ रहा है कि वह अभी जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर और रोना चाहता है। ‘‘यौर अभिताभ इज ए हैम,’’ फ़ात्मा की आवाज़ आई। अब्बास ने देखा कि फ़ात्मा और माज़िद में ‘वॉकमैन’ के लिए खींचातानी हो रही है। ‘‘नो’’, मज्जू दहाड़ा, ‘‘तुम्हारे दिलीप कुमार को फटका लगा दिया उसने ‘शक्ति’ में।’’ और फिर वह अब्बास की तरफ़ मुड़ा, ‘‘अब्बू आप बताइए। ‘मजदूर’ और ‘मशाल’ में दिलीप कुमार ने क्या किया है ?’’ ‘‘हगा है।’’ अब्बास ने कहा। ‘‘छी अब्बू !’’ फ़ात्मा हँसते हुए उसे मारने लगी, ‘‘और अमिताभ ने ‘महान’ और ‘इंक़लाब’ और ‘कुली’ में क्या किया है ?’’‘‘सुद्दे गिराए हैं, काँख-काँख के।’’ अब्बास ने कहा। ‘‘भई मुझे ‘शुश्मा’ पढ़ने दो।’’ सैयदा ने कहा। ‘‘माँ,’’ मज्जू ने आवाज़ा फेंका, ‘‘तुम तो हिन्दी को सिर्फ़ देख सकती हो।’’ सैयदा ने करवट ली तो पण्डित नेहरू की आटोग्राफ की हुई तस्वीर मेज़ से नीचे गिर पड़ी। इस तस्वीर में सैयदा की जान थी। तब वह चार साल की थी। उसके पिता सैयदा अली अमीर अली यू.पी. में मिनिस्टर लगे लगे हुए थे। पण्डितजी के चहेते थे। पण्डितजी लखनऊ आए हुए थे तो उसकी सालगिरह की पार्टी में दस मिनट को आ गए थे।यह तस्वीर तभी की थी। पण्डित जी उसे केक खिला रहे थे। ज़ाहिर है कि कोई उस तस्वीर की सैयदा को नहीं पहचानता था। जो उस तस्वीर को देखता यही पूछता कि यह कौन बच्ची है जो पण्डितजी के हाथ से केक खा रही है और सैयदा बड़े अन्दाज़ से कहती कि यह वह है ! यह कहते वक़्त उसका चेहरा खुशी से तमतमा जाता जैसे इस तस्वीर की वजह से वह हिन्दुस्तान के इतिहास का एक हिस्सा बन गई हो। और इसी तस्वीर के कारण सैयदा श्रीमती गांधी पर भी दिल-ही-दिल में एक अधिकार जमाए हुए थी। वह उनकी हर उलटी-सीधी बात का समर्थन करती। हद तो यह है कि वह इमरजेंसी का भी बचाव करती थी और श्रीमती गांधी पर उसका अटल भरोसा तब भी नहीं डिगा जब इमरजेंसी के दिनों में एक रात पुलिस आकर उसके पति को भी पकड़ ले गई। इल्ज़ाम यह था कि वह सरकार का तख़्ता उलटने-पलटने की कोशिश कर रहा है। इश्क़िया शायरी करनेवाला और मासिक ‘अदब’ निकालनेवाला अब्बास संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र का तख्ता उलटने की कोशिश कर रहा है। जबकि अब्बास ने सिर्फ़ इतना गुनाह किया था कि उर्दू पत्रकारों की सभा में उसने इमरजेंसी के पक्ष में वोट नहीं दिया था। जनता सरकार बन जाने के बाद अब्बास छूटा। घर आया तो उसने देखा कि सैयदा कमरे की झाड़-पोंछ में लगी हुई है। आहट पर वह मुड़ी। अब्बास को देखकर वह खिल उठी। उसने लपककर उसके गाल चूमे। इधर-उधर की बातें करने लगी। वह जेल की बात करना नहीं चाहती थी। उसके दिल के एक कोने में पानी भर रहा था कि श्रीमती गांधी ने उसके अब्बास को जेल भेज दिया था। पर अब्बास ने देखा कि वह तस्वीर अपनी जगह पर है और कट ग्लास के एक पतले-से गुलदान में गुलाब का एक फूल लम्बी-सी डण्ठल से झुककर पण्डितजी का मुँह चूम रहा है। इसीलिए जब उसने देखा कि उस तस्वीर के गिरने का सैयदा पर कोई असर नहीं हुआ तो उसे बड़ी हैरत हुई।‘‘मदर !’’ मज्जू ने ईयरफोन कान से हटाते हुए कहा-‘‘योर पण्डितजीज़ी फोटोग्राफ !’’ मगर इससे पहले कि सैयदा कोई जवाब देती, एक ज़बरदस्त धमाका हुआ-उसके फ़्लैट की खिड़कियों के शीशे काँप उठे। फिर लोगों के चीखने-चिलाने की आवाज़ आने लगी और फिर गोलियाँ चलने लगीं। रात के ढाई बज रहे थे। बाहर हंगामा था और सैयद अली अब्बास, सम्पादक मासिक ‘अदब’ के फ़्लैट में सब चुप थे। टी.वी. पर ‘मिली’ ख़त्म हो रही थी। हवाई जहाज़ उन्हीं सितारों में गुम रहा था, जिन सितारों में ‘मिली’ को बड़ी दिलचस्पी थी। राम मोहन चाय लेकर आ गया।
‘‘तुम पी जाव !’’ अब्बास ने कहा है। ‘‘यह बम तो मदीना मंजिल में फटा है,’’ सैयदा ने कहा, ‘‘खुदा ग़ारत करे इन हिन्दुओं को।’’ वह उठकर बैठ गई। ‘‘एक प्याली चाय मेरे लिए बना लाव,’’ उसने राम मोहन से कहा, ‘‘और सुन ! कल अपनी बीबी और बच्ची को कर्फ्यू उठते ही उस झोपड़पट्टी से यहाँ उठा ला ! क्या पता वहां, कब क्या हो जाए।’’ ‘‘जी बीबीजी !’’ राम मोहन उसके लिए चाय बनाने चला गया। मज्जू ने उठकर टी.वी. और वी.सी.आर. को बन्द कर दिया। बाहर गोलियों की आवाज़ बन्द हो चुकी थी। डरे हुए लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं और कहीं दूर से आते हुए फ़ायर ब्रिगेड़ की घण्टियाँ बज-सी रही थीं। और खुली खिड़की से नारियल के पेड़ में अटका हुआ चाँद दिखाई दे रहा था।
वक़्त ने ऐसा पेच लगाया, टूटी हाथ से डोर, आँगनवाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद। हम सभी कटी हुई पतंग की तरह आँगनवाला नीम का पेड़ ढूँढ़ रहे हैं क्योंकि हम क्षेत्रवादी दंगों में घिरे हुए हैं और कुछ लोग हमसे यह कह रहे हैं कि बम्बई हिन्दुस्तान में नहीं महाराष्ट्र में है। अब्बास ने बेख़याली में पास पड़ी हुई किताब उठा ली। वह वाहिद की भूगोल की किताब निकली। पहले ही पन्ने पर भारतवर्ष का एक रंगीन नक्शा था। ‘‘यार सैयदा यह किताब ग़लत है,’’
उसने कहा, ‘‘महाराष्ट्र को हिन्दुस्तान में दिखा रही है।’’ ‘‘पुराना ऐडीशन होगा।’’ सैयदा ने कहा। और कमरे में सन्नाटा हो गया।

























No comments: