Saturday, November 8, 2008

ओस की बूँद-राही मासूम रज़ा


राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ लिखकर हिन्दी उपन्यास में अपना स्थान बनाया था। ‘टोपी शुक्ला’ उनका दूसरा सफल उपन्यास था और यह उनका तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं को लेकर शुरू होता है लेकिन आखिर तक आते-आते पाठकों को पता चलता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या वास्तव में कुछ नहीं है, यह सिर्फ राजनीति का एक मोहरा है, और जो असली चीज है वह है इंसान के पहलू में धड़कने वाला दिल और उस दिल में रहने वाले ज़ज्बात, और इन दोनों का मजहब और जात से कोई ताल्लुक नहीं। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत की तलाश करने वाला यह उपन्यास एक शहर और एक मजहब का होते हुए भी हर शहर और हर मजहब का है ! एक छोटी-सी जिन्दगी की दर्द भरी दास्तान जो ओस की बूँद की तरह चमकीली और कम उम्र है।

भूमिका

बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो ‘आधा गाँव’ में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता, परंतु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसीलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले ? पुरस्कार मिलने में कोई नुक़सान नहीं, फ़ायदा ही है। परंतु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वह गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूँगा। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहाँ मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूँ। डॉट-डॉट-डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे ! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है।गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है। परंतु लोग सड़कों पर गालियाँ बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं ? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जबान नहीं काट सकता। इस उपन्यास के पात्र भी कहीं-कहीं गालियाँ बकते हैं। यदि आपने कभी गाली सुनी ही न हो तो आप यह उपन्यास न पढ़िए। मैं आपको ब्लश करवाना नहीं चाहता।

-राही मासूम रज़ा

डायरी का एक पन्ना

डायरी लिखना बड़ी बेवक़ूफी की बात है; क्योंकि डायरी में सत्य लिखना पड़ता है, और कभी-कभी सत्य लिखना नहीं होता। कभी-कभी तो यह जानना भी असंभव हो जाता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। परंतु सत्य परछाईं की तरह साथ लगा रहता है। कोई लाख चाहे कि परछाईं से पिंड छूट जाए, परंतु यह संभव नहीं। जब तक आत्मा का सूर्य अस्त नहीं हो जाता, ये परछाइयाँ साथ लगी रहती हैं; इसलिए इन परछाइयों से जान छुड़ाने की सिर्फ़ एक शक्ल है कि मनुष्य इनकी आँखों में आँखें डाल दे और कहे : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है...सच पूछिए तो मैं यह डायरी इसीलिए लिख रहा हूँ कि समय की आँखों में आँखें डालकर यह कह दूँ : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है कि कल पाकिस्तान बन गया; मुझे यह भी मालूम है कि आज भारत स्वतंत्र हो गया है; और मुझे यह भी मालूम है कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है...परंतु क्या सच केवल इतना ही है कि कल पाकिस्तान बना और आज भारत स्वतंत्र हुआ और यह कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है ? क्या वे पिछली शताब्दियाँ सत्य नहीं हैं जो गुज़र गईं ? और क्या वह क्षण सत्य नहीं है, जो अभी-अभी गुज़रा है ? और आनेवाली शताब्दियाँ भी क्या सत्य नहीं हैं ?मेरे घर पर तिरंगा लहरा रहा है, और घर में सबको यह फिक्र है कि बड़े भाई ‘दिल्ली में हैं’ कहा जाए या ‘दिल्ली में थे’ कहा जाए ? क्या यह प्रश्न भी उतना ही बड़ा सत्य नहीं है, जितना बड़ा सत्य यह है कि कल पाकिस्तान बन गया और आज भारत स्वतंत्र हो गया है ?....और आज का सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि मैं आज बहुत खुश हूँ और बहुत परीशान भी।

(वहशत अंसारी की डायरी का एक पन्ना)

अ पर ओ की मात्रा

मुस्लिम ऐंग्लो वर्नाक्युलर हाई स्कूल’ का नाम बदलकर ‘मुस्लिम ऐंग्लो हिंदुस्तानी हायर सेकेंड्री स्कूल’ रख दिया गया। पुराना टिनवाला बोर्ड उतर गया और दीवार पर सीमेंट के शब्दों से यह नया नाम लिख दिया गया, ताकि शहरवालों को मालूम हो जाए कि यही नाम अब मुस्तक़िल हो गया है।यह फ़ैसला बहुत सोच-विचार के बाद किया गया था। स्कूल की वर्किंग कमेटी के प्रेसिडेंट श्री हयातुल्लाह अंसारी ने कमेटी के दूसरे लोगों को बहुत देर तक समझाया कि देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद ‘वर्नाक्युलर’ बहुत बुरा लगेगा, और सरकार को खुश करने के लिए ‘वर्नाक्युलर’ की जगह ‘हिदुस्तानी’ कर देना आवश्यक है। कमेटी के एक मेंबर श्री वजीर हसन ने प्रश्न उठाया कि ‘हिंदुस्तानी’ तो ठीक, लेकिन जब स्कूल में हायर सेकेंड्री तक पढ़ाई नहीं होगी, तो ‘हायर सेकेंड्री’ का दुमछल्ला क्यों लगाया जाए ? परंतु हयातुल्लाह अंसारी के पास हर सवाल की तरह इस सवाल का जवाब भी तैयार था। बोले :‘‘आप लोग भी कमाल करते हैं। कांग्रेस सरकार को चूतिया बनाने का यही मौका है। बलवों में इतने मुसलमान मारे जा रहे हैं कि बलवों के बाद सरकार मुसलमानों को फुसलाना शुरू करेगी। ओही लपेट में ई इस्कूलों हायर सेकेंड्री हो जइहै।’’परंतु वज़ीर हसन भी चूकनेवाले नहीं थे। बोले :तो ऐसा क्यों न किया जाए कि इस्कूल का नाम मुस्लिम ऐंग्लो हिंदुस्तानी युनिवर्सिटी रख दिया जाए ! शहर में कोई युनिवर्सिटी है भी नहीं। सरकार सोचेगी, चलो नाम पहले से मौजूद है, तो युनिवर्सिटी खोल ही दिया जाए।’’श्री हयातुल्लाह अंसारी ने अपनी गाँधी टोपी को सिर पर ठीक से जमाते हुए वज़ीर हसन की तरफ़ देखा। वह अपनी टोपी और वज़ीर हसन दोनों ही से खुश नहीं थे।बात यह है कि वह और वज़ीर हसन दोनों ही साथ-साथ मुस्लिम लीग में शामिल हुए थे। वजीर हसन बड़ी ही जोशीली तकरीरें किया करते थे। श्री अंसारी को भाषण के ख़याल ही से कँपकँपी लग जाया करती थी। नतीज़ा यह हुआ कि वज़ीर हसन मुस्लिम लीग की ज़िला कमेटी के सेक्रेट्री हो गए और अंसारी साहब सिर्फ नायब सदर बन सके ! नायब सदर कहने में तो सेक्रेट्री से भला लगता है, परंतु नायब सदर की हैसियत ही क्या ! सदर न हो तो नायब सदर को मौका मिले। और ऐसा कभी होता ही नहीं था कि सदर न हो।जिला कमेटी के सदर श्री गुलाम मुहम्मद उमर थे। यह ज़िला कमेटी के सदर और गुलाम मुहम्मद उमर होने के साथ-साथ हाजी भी थे-और दौलतमंद भी तंबाकू और गुलाब-जल का कारोबार करते थे; जबकि श्री हयातुल्लाह अंसारी एम-ए., एल.एल.बी. (अलीगढ़) केवल एक वकील थे, जिनकी वकालत किसी तरह चलती ही नहीं थी। अड़ियल टट्टू की तरह थान ही पर हिनहिनाया करती थी। और ईमान की बात तो यही है कि अंसारी मुसलमान जमींदारों को फाँसने के लिए ही मुस्लिम लीग में आए थे। और हुआ भी यही। मुस्लिम लीग में आते ही उनकी वकालत चल निकली। बाबू चंद्रिका प्रसाद और बशीर हसन आबदी-जैसे वकील धरे रहे गए। जमींदारों को यह तो बहुत बाद में मालूम हुआ कि मुक़दमा इस लीगी इस्लाम से बड़ा होता है। परंतु इस बीच में वह ज़िला बार अशोसिएशन के नायब सदर भी हो गए। और उन्होंने काज़ीटोले में एक पक्का मकान भी बनवा लिया। और इसी झटके में उनकी बड़ी लड़की की शादी भी एक बड़े अच्छे घर में हो गई। बड़ा बेटा अपना मज़े में अलीगढ़ में पढ़ रहा था और शायरी कर रहा था। मुस्लिम लीग के जलसों में नज़्में सुना-सुनाकर वह ख़ासा मशहूर भी हो गया था और मुशायरों में बुलाया जाने लगा था और उसने बड़े-बड़े शायरों की ऐसी-तैसी कर रखी थी ! हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर अपनी बड़ी लड़की से उसका ब्याह करना चाहते थे...बहशत अंसारी का बाप होना कोई मामूली बात नहीं है साहब...ग़रज़ कि श्री अंसारी के जीवन में हर तरफ़ खैरियत-ही-खैरियत थी..फिर भी एक दुख था कि लीडरी वज़ीर हसन ही कर रहा था। और लीडरी वज़ीर हसन इसलिए कर रहा था कि उसे भाषण देना आता था। और इसीलिए वह ज़िला कमेटी का जनरल सेक्रेट्री हो गया और वह नायब सदर के नायब सदर रह गए। जब भी कोई ‘आल इंडिया लीडर’ आता तो वह वज़ीर हसन ही से बातें करता; क्योंकि ज़िला कमेटी के सदर हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर तो एक अँगूठा-टेक व्यापारी थे। वह सुर्ती और चोट के भाव पर बातें कर सकते थे। पाकिस्तान के बारे में तो उन्हें केवल यह मालूम था कि क़ायदे-आज़म कर रहे हैं तो कोई अच्छी ही चीज़ होगी।वज़ीर हसन ने हाजी साहब को एक और पते की बात भी समझा रखी थी। वह बात यह है कि पंजाब के लोग बहुत हुक्का पीते हैं। इसलिए जब लाहौर में उनकी दुकान पर यह बोर्ड बनेगा कि ‘हाजी गुलाम’ मुहम्मद उमर ताजिर तंबाकू कशीदनी व खुर्दनी व अर्क-ए-गुलाब (ग़ाजीपुरवाला) साबिक सदर जिला कमेटी आल इंडिया मुस्लिम लीग, ग़ाजीपुर’ तो कारोबार चमक जाएगा। यह बात हाजी साहब की समझ में आ गई थी। और इसलिए पाकिस्तान एक तरह से उनका कारोबार भी हो गया था। वह जी-जान से पाकिस्तान बनवाने में लग गए थे। परंतु इसका मतलब यह तो नहीं था कि वह चौधुरी ख़लीक़ुज्जमाँ या महम्मदाबाद के राजा, या साहबज़ादा लियाक़त अली खाँ से बातें भी कर सकें। तो सदर जिला कमेटी यों गए और नायब और एम.ए.,एल.एल.बी. (अलीगढ़) होने के बावजूद बोलने में ज़रा कमजोर पड़ते थे। खड़ी बोली में बात शुरू करते और दो-चार जुमलों के बाद भोजपुरी उर्दू पर उतर आते। इसलिए जब मुस्लिम लीग के आल इंडिया लीडर आते (चाहे वह लार के ज़हीरूद्दीन ही क्यों न हों !) तो उनसे बातें करने के लिए एंट्रेंस पास वज़ीर हसन ही आगे बढ़ाए जाते और श्री अंसारी दिल मसोसकर रह जाते। फिर भी श्री अंसारी के दिल में एक अरमान कुलबुलाया करता था कि वह किसी कमेटी या संस्था के सदर हो जाएँ। तो साहब खुदा का करना ऐसा हुआ कि सन बयालीस में यह अवसर भी आ गया। मुस्लिम लीग ने ‘मुस्लिम ऐंग्लो वर्नाक्युलर हाईस्कूल’ पर क़ब्ज़ा कर लिया। खानबहादुर शेख सुबहानुल्लाह बर्क़ जौनपुरी’1 निकाल दिए गए। सदर की जगह खाली हो गई। वज़ीर हसन अपनी गोटियाँ फैला चुके थे। उन्हें एक सदर की ज़रूरत थी। श्री हयातुल्लाह अंसारी से अच्छा सदर भला उन्हें और कौन मिलता...और श्री हयातुल्लाह अंसारी का अरमान पूरा हो गया।------------------------------- 1.श्री हिम्मत जैनपुरी के दादा।श्री हयातुल्लाह अंसारी बेचारों ने कभी सोचा भी नहीं था कि पाकिस्तान वाक़ई बन जाएगा। उनका तो यह ख़याल था कि अंग्रेज जानेवाला ही नहीं है। सर सैयद अहमद खाँ से लेकर श्री हयातुल्लाह अंसारी तक बहुत-से मुसलमान बुद्धिजीवियों का यही ख़याल था कि ब्रिटिश सरकार का सूर्य अस्त होने के लिए नहीं निकला है। और इसीलिए उनके तमाम सपनों का आधार यही झूठा सच था। जो श्री हयातुल्लाह अंसारी को ज़रा भी यकीन होता कि पाकिस्तान बन जाएगा, तो वह उन बयानों पर कभी दस्तख़त न करते, जो उनके नाम से लीग की अंग्रेज़ी और उर्दू की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे !श्री अंसारी के पास एक स्क्रैप-बुक थी। उस स्क्रैप-बुक में उनकी तमाम तसवीरों और बयानों के तराशे चिपके हुए थे। वह अकसर उन बयानों को पढ़कर खुश हुआ करते थे...जबकि उनके तमाम बयान वज़ीर हसन के लिखे हुए हुआ करते थे। वह गर्दन झिटकते-वज़ीर के सिवा और कौन जानता है ? नाम तो मेरा ही छपता है। यह तसवीर किसकी है ? वज़ीर हसन की या उसके बाप की...‘‘आगे चलकर आलीजनाब मौलवी हयातुल्लाह साहब अंसारी, एम.ए., एल.एल.बी (अलीगढ़), नायब सदर मुस्लिम लीग जिला ग़ाज़ीपुर ने हमारे मख़सूम नामा-निगार को बताया कि गांधी एक बगला भक्त है। ऊपर से कुरान पढ़ता है मगर कट्टर मुसलमान-दुश्मन है। और जवारलाल एक बहरूपिया है; और हमें सियासत का नाटक दिखला रहा है...’’इस प्रकार के अनगिनत बयान थे। इन्हें पढ़कर श्री अंसारी आराम से सो जाया करते थे।...सन् पैंतालीस के चुनाव में मुस्लिम लीग की जीत के बाद भी उन्हें यह खयाल नहीं आया कि पाकिस्तान बनने ही वाला है।परन्तु जब पाकिस्तान बन गया तो यह ख़याल उन्हें भिड़ की तरह चिमट गया कि पाकिस्तान बहुत दूर बना है और उन्हें गांधी और नेहरू के हिंदुस्तान में ही रहना है। उनकी स्क्रैप-बुक उन्हें डरावने सपने दिखाने लगी।...अब मैं किसी को कैसे समझाऊँगा कि ये बयान वास्तव में वज़ीर हसन के हैं...बहनचोद क्या यह तस्वीर भी व़जीर बसन की है !...और इसीलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद उन्हें वज़ीर हसन से नफ़रत हो गई। और एक दिन उन्होंने अपनी क़राक़ुली जिन्ना टोपी अपने नौकर को दे दी। यह टोपी उन्होंने बड़े चाव से खरीदी थी। परंतु उन्हें नंगे सिर रहने की आदत नहीं थी। तो एक दिन वह श्री गांधी आश्रम से एक गांधी टोपी खरीद लाए और दो-चार दिन के बाद बनारस के एक समाचार-पत्र में उनका एक बयान छपा था कि भारत के मुसलमानों को कांग्रेस में चला जाना चाहिए। पाकिस्तान एक गलती है...खादी के कपड़े पहनने में उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी। परंन्तु चारा ही क्या था ? वज़ीर हसन के लिखे हुए बयानों पर दस्तख़त करने की सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी ना !उन दिनों कांग्रेस वाले भी कुछ जल्दी में थे। उन्हें पता था कि चुनाव में उन्हें मुसलमान वोटों की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए उन्होंने धड़ाधड़ पुराने मुस्लिम लीगियों को शहर कमेटी, ज़िला कमेटी, अल्लम कमेटी और ग़ल्लम कमेटी में भरना शुरू कर दिया। और इसी झटके में श्री हयातुल्लाह अंसारी के घर का बोर्ड उतर गया और एक नया बोर्ड बनाया गया, जिस पर ‘मौलवी’ की जगह ‘श्री’ लिखा गया। ‘नायब सदर ज़िला मुस्लिम लीग’ की जगह ‘नायब सदर ज़िला कांग्रेस कमेटी’ लिखा गया। ‘लीग’ मिटाया तो नहीं गया, परंतु अक्षर बहुत छोटे कर दिए गए।वज़ीर हसन ने यह बोर्ड देखकर कहा :‘‘अरे भई ! साबिक़ मौलवी और साबिक नायब सदर साबिक आल इंडिया मुस्लिम लीग भी लिखा लेते तो ज़्यादा रोब पड़ता।’’यह सुनकर बेचारे श्री हयातुल्लाह खिसियाने के सिवा और कर ही क्या सकते थे। चुनाँचे वह खिसिया लिए। उनकी खिसियाहट देखकर वज़ीर हसन ने कहा :‘‘मैं कांग्रेसी नहीं बनूँगा। बाकी तुम फिक्र न करो। तुम्हारे बयान लिख दिया करूँगा। ‘आज’ में जो तुम्हारा बयान निकला है, वह बहुत चूतियापे का है।’’वज़ीर हसन ने बहुत कड़वी बात कही थी। परंतु श्री अंसारी उसे अपने क़हक़हे के वरक़ में लपेटकर जल्दी से निगल गए।... कांग्रेस में चले जाने के कारण वज़ीर हसन से उनकी जान बच गई थी। और जभी उन्हें ख़याल आया कि स्कूल का नाम बदलकर वज़ीर हसन को जलील करना चाहिए। उनके दिमाग में कई नाम आए...‘‘सुभाश मिमोरियल हायर सेकेंड्री’ पर उनका जी जम गया। यदि ‘ओल्ढम लायब्रेरी’ का नाम बदलकर ‘सुभाश पुस्तकालय’ रखा जा सकता है तो ‘ऐंग्लो वर्नाक्युलर’ की जगह ‘दी मुस्लिम शुभाश मेमोरियल हायर सेकेंड्री स्कूल’ क्यों नहीं रखा जा सकता ! तो वज़ीर हसन ने उन्हें वह लतीफ़ा सुनाया कि जब ओल्ढम लायब्रेरी का नाम बदला जा रहा था, तो म्युनिसिपल बोर्ड के एक मेंबर ने जलकर यह प्रस्ताव रखा कि ‘कर्नवालिस टोंब’ का नाम बदलकर ‘सुभाश समाधी’ रख दिया जाए।यह सुनने के बाद श्री अंसारी यह प्रस्ताव नहीं लाए। और तब वह ‘हिंदुस्तानी की कौड़ी लाए। और वज़ीर हसन ने इसे झेल लेने का फैसला कर लिया।...तो नाम बदल दिया गया। ‘ऐंग्लो वर्नाक्युलर’ की जगह ‘ऐंग्लो हिंदुस्तानी’ रख दिया गया। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि ‘ऐंग्लो हिंदुस्तानी क्या होता है...परंतु जब श्री अंसारी ने दूसरा प्रस्ताव रखा तो क़यामत आ गई। प्रस्ताव यह था कि हिंदी के पंडित श्री गोबरधन ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की तनख़्वाह वढ़ा दी जाए। यानी उन्हें उतनी ही तनख़्वाह दी जाने लगे, जितनी उनके नाम चढ़ती है।...वज़ीर हसन ने इस प्रस्ताव का बहुत डटकर विरोध किया। सच पूछिए तो वज़ीर ने इतना डटकर विरोध किया कि कमेटी के दूसरे मेंबरों को डर लगने लगा कि कहीं रामधनी चपरासी न सुन ले ये बातें। हालाँकि वह बेचारा दफ़्तर से दूर दालान के एक कोने में बैठा सुर्ती मल रहा था।भला रामधनी को स्कूल के नाम और श्री गोबरधन ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की तनख़्वाह में क्या दिलचस्पी हो सकती थी। वह तो एक खानदानी चपरासी था। उसका ताया ज़िलाधीश का पंखा-कुली था। जाड़ों में गाँव जाकर ज़मींदार की चिलमें भर-भरकर दिन काट आया करता था। उसका बड़ा भाई सैदपुर तहसील के नायब तहसीलदार का चपरासी और तहसीलदारनी की नाक का बाल था। कभी आता तो अपनी तहसीलदारनी के बड़े किस्से सुनाता।..नायब साहब तो गाँडू हैं।...बाकी मेहरारू ग़ज़ब की बाय...यह कहानियाँ सुनते समय रामधनी को यह ख़याल सताता रहता था कि ‘ग़ज़ब की कोई मेहरारू’ आखिर उसके हिस्से में क्यों नहीं आती।....उसे श्री अंसारी की बड़ी लड़की शम्सुन (असली नाम शम्सुन्निसा) बड़े ग़ज़ब की लगती थी। शम्सुन उससे चार-पाँच साल बड़ी थी। रामधनी जब बड़ा नहीं हुआ था, तो चपरासी के लड़के की हैसियत से अंसारी साहब के घर आया-जाया करता था। उसे नहीं मालूम कि वह ‘शम्सुन’ और इंगलिश टीचर बुख़ारी का डाकिया कैसे बन गया।...मगर सब टाएँ-टाएँ फिस हो गया। शम्सुन की शादी हो गई और बुख़ारी साहब की तरह वह भी टापता रह गया। अब वह अंसारी साहब के घर भी नहीं जाता; क्योंकि वह बड़ा हो गया है। बुख़ारी को डाकिए की जरूरत भी नहीं है; क्योंकि उन्हें मँझली बेटी बुतुल का ट्यूशन मिला और फिर श्री अंसारी ने बुख़ारी ही से बुतुल की शादी कर दी।...और उनकी छोटी बेटी शहरनाज़ उससे बहुत छोटी थी। स्कूल में बड़ी कानाफूसी चल रही थी कि श्री अंसारी बुख़ारी को प्रिंसिपल बनाना चाहते हैं !..कहने का मतलब यह है कि रामधनी को स्कूल के रगड़े में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शायद यह मालूम था कि देश गुलाम रहे या स्वतंत्र हो जाए वह चपरासी ही रहेगा।...वह तो केवल यह चाहता कि किसी लड़की को ख़त लिखे। चूँकि उसके ख़याल में प्रेम-पत्र उर्दू में लिखे जाते हैं (बुख़ारी-शम्सुन ख़तो-किताबत उर्दू ही में हुआ करती थी), इसलिए वह मोली साहब से, कि जिनका पूरा नाम मौलवी मुहम्मद बद्रुल हसन ‘वफ़ा’ फैज़ाबादी था, उर्दू सीख रहा था।...रामधनी का सारा समय तो उर्दू सीखने में बीत रहा था। तो उसे भला कहाँ फुरसत थी कि वह कमेटी में होनेवाली तक़रीरें सुनता।...परंतु कमेटी के लोगों को तो यह नहीं मालूम था न !‘‘अरे भई वज़ीर...’’ श्री अंसारी ने घबराकर कहा।वज़ीर हसन बोलते-बोलते पल-भर के लिए रुके। उन्होंने श्री अंसारी की तरफ़ बड़ी नफ़रत से देखा। बेचारे श्री अंसारी अपनी कुर्सी में सिकुड़ गए। वज़ीर हसन ने मेज़ पर इतने जोर से हाथ मारा कि गर्द की चादर में लिपटा हुआ कलमदान उछल पड़ा। यदि दवातों में रोशनाई रही होती तो अवश्य फैल गई होती। परंतु, वह तो खुदा भला करे अंग्रेजों का जिन्होंने फ़ाउंटेन-पेन बना डाला। कलमदान तो बाप-दादा की उन तसवीरों की तरह रह गए हैं, जिनमें वह तलवार लगाए अकड़कर बैठे दिखाई देते हैं !... ‘‘मैं पूछता हूँ कि बद्रुल हसन, और मास्टर अल्ताफ़, और शेख मोहीउद्दीन, और मास्टर जब्बार और मास्टर अतहर...’’वज़ीर हसन ने स्कूल के तमाम मास्टरों के नाम ले डाले और सवाल किया:‘‘....और यह जो प्रिंसिपल अलीमंजर वग़ैर हैं, इन्होंने क्या कसूर किया है कि इनकी तनख़्वाह न बढ़ाई जाएँ और गोबरधन ने कौन-सा ऐसा तीर मारा है कि उनकी तनख़्वाह बढ़ा दी जाए ? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह गोबरधन हैं तो एकदम से बड़े काबिल हो गए हैं, और दूसरे मास्टर चूँकि मुसलमान हैं, इसलिए चूतिए के पट्ठे हैं कि गाँड मराएँ और पढ़ाएँ ?’’ श्री हयातुल्लाह अंसारी ने सबकी तरफ बड़ी बेबसी से देखा और तब वह ख़ाली कलमदान को देखते हुए बोले:‘‘इसका तो ख़्याल करो वज़ीर, कि हम लोग एक स्कूल की वर्किंग कमेटी हैं। गाली तो न बको।’’‘‘गाली न बकूं तो कुरान पढ़ूँ ! तुम लोगों का दोगलापन देखकर मेरी झाँट सुलग जाती है।’’वज़ीर ने कमेटी के मेंबरों की तरफ बड़ी हिकारत से देखा। फिर उसने अपनी जिन्ना टोपी ओढ़ी और खड़ा हो गया:‘‘हाई स्कूल की बत्ती बनाकर अपनी गाँड़ में रख ल्यो हयातुल्ला ! अब ई स्कूल नहीं रह गया है। ई कोठा है जेपर हमलोगन की गैरत रंडियन की तरह बैठके पेशा कर रही है। सलामआलेकुम।’’वज़ीर हसन कमेटी के कमरे से बाहर निकल गया। कमेटी के तमाम मेंबर सन्नाटे में आ गए।श्री अंसारी ने थोड़ी देर बाद गला साफ करके कहना शुरू किया:‘‘तो यह तय किया जाता है कि बाबू गोबरधन प्रसाद ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की खिदमात को पेशे-नजर रखते हुए उनकी तनख़्वाह में इज़ाफा कर दिया जाए।...



मैं पाँच बरस से लगातार अपने-आपसे पूछ रहा हूँ...मैं कौन हूँ ? मेरी पहचान क्या है ? मेरी जड़े कहाँ हैं ? मुस्लिम लीगी होने का अर्थ क्या है आखिर... (वहशत अंसारी की डायरी)वज़ीर हसन और श्री हयातुल्लाह अंसारी में बड़ा फ़र्क था। श्री अंसारी पाकिस्तान बनवाकर पछता रहे थे और यह पछतावा उनकी आत्मा की सड़ी हुई दीवार में लोने की तरह लगता ही जा रहा था।वज़ीर हसन पाकिस्तान बनवाकर झल्ला रहे थे। इसलिए नहीं कि बलवों में बहुत मुसलमान मारे गए। क्योंकि बलवों में हिंदू भी बहुत-से, कुछ कम नहीं मारे गए थे। पाकिस्तान उनके लिए कोई सियासी चाल नहीं था बल्कि उनका विश्वास था। उन्होंने पाकिस्तान जाने के बारे में कभी नहीं सोचा। इसलिए नहीं कि वह अंसारी की तरह नेशनलिस्ट हो गए थे। इसलिए भी नहीं कि उन्हें इसका डर नहीं था कि बलवे में वह भी मारे जा सकते हैं। उनकी टेक यह थी कि वह अपना घर छोड़कर क्यों जाएँ।‘‘मैं पैगंबर नहीं हूँ कि हिजरत को फ़लसफ़ा बना लूँ।’’ बड़े बेटे ने जब पाकिस्तान जाने की जिद की तो उन्होंने उसकी आँखों में आँखे डालकर यह कह दिया, ‘‘मैं एक गुनहगार आदमी हूँ और उसी सरज़मीन पर मरना चाहता हूँ, जिस पर मैंने गुनाह किए हैं।’’ज़ाहिर है कि बेचारा अली बाकर इसका क्या जवाब देता। बाप का मुँह देखता रह गया। वज़ीर हसन मुस्कुरा दिए और बोले, ‘‘मियाँ, तुम नहीं समझोगे ये बातें। वह दीनदयाल जो अब बाबू दीनदयाल हो गया है ना, और जो मुसलमानों को हर वक़्त गालियाँ दिया करता है ना, मेरा लंगोटिया यार है। हम दोनों साथ अमरूद चुराने जाया करते थे। हम दोनों ने एक साथ कुँजड़ों की ‘‘मैं पूछता हूँ कि बद्रुल हसन, और मास्टर अलताफ, और शेख मोहीउद्दीन और मास्टर जब्बार और मास्टर अतहर...’’

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