Sunday, November 30, 2008

खुश्की का टुकड़ा

- राही मासूम रजा


आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।
वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।
अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।
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सिकहर पर दही निकाह भया सही

- राही मासूम रजा


मीर जामिन अली बड़े ठाठ के जमींदार थे। जमींदारी बहुत बड़ी नहीं थी। परन्तु रोब बहुत था। क्योंकि दख्ल और बेदख्ली का जादू चलाने में उन का जवाब नहीं था।
मीर साहब ने उस्ताद लायक अली से गाने के सबक लिये थे और ईमान की बात यह है कि खूब गाते थे। संगीत उनके गले में उतरा हुआ था। बड़ी-बड़ी मशहूर गानेवालियां महफिल में उन्हें देख लेतीं तो कान छूकर । गाना शुरू करती। बड़ी चांदी जैसी गानेवाली का शिकार ही उन्होंने रसीली आवाज से किया था, वरना कहां खलिसपुर के ठाकुर साहब कहां मीर जामिन अली। बड़ी चांदी उनकी आवाज पर मर मिटी थी । परन्तु जब वह असमियों को गाली देते तो उनकी आवाज का रूप..........
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एक जंग हुई थी कर्बला में

- राही मासूम रजा


जैनब की आँखों में रास्ते की धूल थी, उसने अंगुलियों से आँखों मलीं ... हां, सामने मदीना ही था। नाना मुहम्मद का मदीना। जैनब की आँखों भर आयीं, लेकिन रोना किसलिए ?
बग़ल वाले महमिल का पर्दा उठाये कुलसूम का मर्सिया झांक रहा था :
ऐ नाना के मदीने,
हमें स्वीकार न कर
हमें स्वीकार न कर क्योंकि हम गये थे तो गोदें भरी थीं
और लौटे हैं तो गोदें वीरान हैं ......
एक तरफ़ से मदीना आ रहा था। दूसरी तरफ़ से जैनब का कारवां बढ़ रहा था ... और यादों का दर्द बढ़ता जा रहा था। वह कुछ कैसे बता पायेगी ?........

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कविता

राही मासूम रज़ा



आंसू की हर बूंद को अपने शीशा-ए-दिल में रखना होगा
वक्त आयेगा जब तो इनसे बर्क़-ओ- शरर(बिजली और अंगारे)तख्लीक़(जन्म देना)करेंगे
आंखों में गुस्से की सुरखी एक बड़ी नेमत है रफ़ीको
इससे अंधेरी रात में हम तुम एक सहर तख्लीक़ करेंगे
इज्ज़त के अमृत का प्याला पीने वाले बहुतेरे हैं
ज़िल्लत के इस ज़हर का ज़हर का प्याला पी लेना आसान नहीं है

Friday, November 28, 2008

1 दिसम्बर 2008 से

1857 क्रान्ति-कथा- राही मासूम रज़ा
राही मासूम रज़ा कृत 1857 की पुस्तक में से हर रोज कुछ न कुछ पढ़ने के लिए आप सभी को मिलेगा कविता शुरू से दी जायेगी.
इस बात को ताजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से बेहतर कोई मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 का इस नजम का मौजूं नहीं है। इसका मौंजूं का कोई सन नहीं है इसका मौंजूं इन्सान है। सुकरात जहर पी सकता है, इब्ने मरियम को समलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवस्ट की तलाश में कई कारवाँ गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रखता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है। मैंने यह नजम चंद किताबों की मदद से अपने कमरे में बैठकर नहीं लिखी है।
राही मासूम रज़ा कृत 1857 की पुस्तक में से हर रोज कुछ न कुछ पढ़ने के लिए आप सभी मिलेगा कविता शुरू से दी जा रही है .

पहली किरण

राही मासूम रज़ा

जब तक वक्त नहीं आ जाता इस ज़िल्लत को सहना होगा
जब तक वक्त नहीं आ जाता और भला सूरत ही क्या है
इस एहसास-ए-नदामत(पश्चाप की भावना) को महफ़ज रखो ख़ून-ए-दिल देकर
वरना हम मजबूरों की उलफ़त ही क्या नफ़रत ही क्या है

कविता

राही मासूम रजा

इतवार का दिन है
सुबह होने वाली है
छावनी के बगलों का
जहन खाली खाली है

गोरी मेम साहब को
आज काले हाथों ने
चाय भी नही दी है
बात यह नई सी है

इक अजब वैहशत है
चाय के प्यालों में
हर तरफ है बेचैनी
खौफ है ख्यालों में

Thursday, November 27, 2008

कहानी बनाम आलोचना

राही मासूम रजा

जान स्टीनबेक के एक उपन्यास ईस्ट ऑव एडेन में एक चीनी बावर्ची है लो - कहानियों के विषय में इस बावर्ची की राय हमारे बहुत-से कहानी लिखने वालों से ज्यादा जंची-तुली है, उसका कहना है - लोगों को केवल अपने-आप में दिलचस्पी होती है, इसलिए अगर कोई कहानी सुनने वाले के बारे में नहीं है तो वह उसे सुनेगा ही नहीं, इसलिए मैं यहां एक नियम बनाता हूँ कि हर महान और जीवित रहने वाली कहानी तमाम लोगों के बारे में होती है, नहीं तो वह जिंदा नहीं रह सकती, विचित्र और अजनबी चीजें कभी दिलचस्प नहीं हो सकतीं, दिलचस्प तो केवल गहरी, व्यक्तिगत और जानी-बूझी चीजें होती हैं।''
मुझे इस बावर्ची की बात बहुत सारे आलोचकों से अच्छी लगी क्योंकि इस बावर्ची ने हमारी कहानियों को उस दुखती रग पर हाथ रख दिया है जो आज तक हमारे आलोचकों को दिखायी नहीं दी, बात यह है कि हमारे आलोचक तो बड़े-बड़े शब्दों के प्रमाण की साधना में लगे रहते हैं और इस साधना में इतना खो जाते हैं कि एक छोटी-सी बात की ओर उनका ध्यान नहीं जाता कि कहानी के लिए कहानी होना पहली शर्त है। ली ने यह रहस्य पा लिया था। इसलिए उसने दो वाक्यों में कहानी की आलोचना कर दी जो साहित्य के पंडितों से किताबों में नहीं हो सकी।

Wednesday, November 26, 2008

कविता

राही मासूम रज़ा


हर तरफ एक हू का आलम है
हर तरफ बेकसी बरसती है
हमने गैरत लुटा के यह जाना
जिन्दगी तू भी कितनी मंहगी है

तूफ़ान से पहले

राही मासूम रज़ा

जो जख़्म है दिल में वह दिखाया नहीं जाता
आंखों से लहू खुल के बहाया नहीं जाता
क्या सोच रहे है यह बताया नहीं जाता
राखी के लिए हाथ बढ़ाया नहीं जाता
अब आंखों के पानी के सिवा कुछ भी नहीं है
एहसास-ए-गुलामी के सिवा कुछ भी नहीं है

Tuesday, November 25, 2008

पहली किरण 2

राही मासूम रज़ा


दिल की एक इक धड़कन
ढूढ़ती है फ़रदा को
बेड़ियों से क्या डरना
आरजू को समझा दो

जहनों दिल की राहों पर
कारवां से चलते हैं
रंग-ओ-नूर-ओ निकहत के
कुछ चिराग जलते हैं

बेड़ियों के सहरा में
फूल भी हैं कांटे भी
दोपहर के भाले भी
बादलों के गाले भी

कल की सारी तैयारी
आज की कयामत भी
आनेवाले फरदा की
वे मिसाल जन्नत भी

Monday, November 24, 2008

पहली किरण

राही मासूम रज़ा

अब परेड का मैदां
किस कदर अकेला है
सर पे आ गया सूरज
फिर भी क्या अंधेरा है

कुड़ रहा है हर ज़र्रा
और रास्ता क्या है
सोचते कक्श-ए-पा
जीस्त में मज़ा क्या है

हर किरन में सूरज की
जिल्लतों की बरछी है
ज़र्रे ज़र्रे के दिल में
बार बार उतरती है

हर हवा के झोंके में
सिसकियों की आवाज़ें
घिर गई जल्मत में
रोशनी की उम्मीदें

इस जगह से थोड़ी दूर
एक कैदख़ाना है
जिसमें बेड़ियां पहने
इक नया जमाना है

लोहे की सलाखों के
उस तरफ़ हैं चंद
आंखें छू रही हैं लोहे
चंद आहनी बांहें

Sunday, November 23, 2008

कविता

राही मासूम रजा

इक धमाका सा हुआ
बैरकें चौंक पड़ीं
हम सभी दौड़ पड़े
बिजलयां कौंध गई

दिल ने कुछ दिल से कहा
आंखें आंखों से मिलीं
इक तरफ आई खिज़ां
इक तरफ कलियां खिलीं

इक हंगामा भी है
इक सन्नाटा भी है
शोर भी है जैसे हो चुप
सबने कुछ समझा भी है

Friday, November 21, 2008

आधा-गाँव


हिन्दी-उपन्यास-जगत में राही मासूम का प्रवेश एक सास्कृतिक घटना जैसा ही था। ‘आधा-गाँव’ अपने-आप में मात्र एक उपन्यास ही नहीं, सौन्दर्य का पूरा प्रतिमान था। राही ने इस प्रतिमान को उस मेहनतकश अवाम की इच्छाओं और आकांक्षाओं को मथकर निकाला था, जिसे इस महादेश की जन-विरोधी व्यवस्था ने कितने ही आधारों पर विभाजित कर रखा है।राही का कवि-ह्रदय व्यवस्था द्वारा लादे गये झूठे जनतन्त्र की विभीषिकाओं को उजागर करने में अत्यन्त तत्पर, विकल, संवेदनशील और आक्रोश से भरा हुआ रहा है। यही ह्रदय और अधिक व्यंजनाक्षम होकर ‘असन्तोष के दिन’ व्याप रहा है। आक्रोश और संवेदना की यह तरलता यहाँ मधुर गम्भीर राजनीतिक सवालों को पेश करती है, जिनकी आंच में सारा हिन्दुस्तान पिघल रहा है।राष्ट्र की अखण्डता और एकता, जातिवाद की भयानक दमघोंटू परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता का हलाहल, एक-से-एक भीषण सत्य, चुस्त शैली और धारदार भाषा में लिपटा चला आता है और हमें घेर लेता है। इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय, इनके उत्तर तलाश किये जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारन्टी नहीं रहेगी।
सारांश
शीला सन्धू के नाम जो वह लगातार डाँट न पिलाती रहतीं तो शायद मैं यह उपन्यास न लिख पाता
-राही मासूम रज़ा
इस कहानी में जो लोग चल-फिर रहे हैं, हँस-बोल रहे हैं, मर-जी रहे हैं, उन्हें अल्लाह मियाँ ने नहीं बनाया है; मैंने बनाया है। इसलिए यदि अल्लाह के बनाए हुए किसी व्यक्ति से मेरे बनाए हुए किसी व्यक्ति का नाम-पता मिल जाए तो क्षमा चाहता हूँ।
-राही मासूम रज़ा
भूमिका
यह तो मौसम है वहीदर्द का आलम है वहीबादलों का है वही रंग,हवाओं का है अन्दाज़ वहीजख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरहज़ख़्मों का हाल वहीलफ़्जों का मरहम है वहीदर्द का आलम है वहीहम दिवानों के लिएनग्मए-मातम है वहीदामने-गुल पे लहू के धब्बेचोट खाई हुए शबनम है वही…यह तो मौसम है वहीदोस्तो !आप,चलोखून की बारिश हैनहा लें हम भीऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।
पुराना ऐडीशन
आकाशवाणी से अंग्रेजी में समाचार आ रहे थे कि सरकारी आँकड़ों के अनुसार भिवण्डी, थाणे, कल्याण और बम्बई महानगरी में कुल मिलाकर अब तक 151 आदमी मारे जा चुके हैं।फ़ात्मा ने लुक़्मा दिया ! एक सिफ़र और बढ़ा लो, कम-से-कम।किसी ने फ़ात्मा की बात का जवाब नहीं दिया। सबने उसकी तरफ़ देखा ज़रूर। शायद सब फ़ात्मा से सहमत थे। 37 वर्षों का यह अनुभव था कि इन मामलों में सरकारी आँकड़े हमेशा गलत होते हैं।यूँ भी आकाशवाणी पर से जनता का भरोसा कब का उठ चुका था। समाचारों के शौकीन तो बी.बी.सी. सुनते हैं। साहब आप कुछ कहें; अंग्रेज झूठ नहीं बोलता !और लन्दन से कल साढ़े-बारह बजे रात को रेवती का फ़ोन आया था।‘‘अब्बास भाई, मैं रेवती बोल रहा हूँ।’’‘‘अरे कब आए ?’’‘‘आया कहाँ। लन्दन से बोल रहा हूँ।’’ अब अब्बास घबराया कि इतनी गई रात को रेवती ने लन्दन से क्यों फ़ोन किया ?‘‘सलमा कैसी है ?’’ अब्बास ने पूछा।सलमा उसकी छोटी बहन का नाम था। और जब सलमा-रेवती इश्क़ की ख़बर का बम फूटा और उसके ख़ानदान की नौ सौ बरस पुरानी दीवारें हिल रही थीं और घर में कुहराम मचा हुआ था और अब्बास ने चुप साध ली थी और अड़ोस-पड़ोस तक की बड़ी बूढ़ियाँ सलमा के मरने की दुआएँ माँग रही थीं, तब उसने चुपचाप रेवती से सलमा की शादी करवा दी थी कि मज़हब का इश्क़ों से क्या लेना-देना।कहते हैं, इश्क़ नाम के गुज़रे हैं एक बुजुर्ग हम लोग भी मुरीद उसी सिलसिले के हैंउसके लिए इश्क़ सबसे बड़ा था और जहाँ तक इश्क़ का सवाल है, अब्बास जानता था कि इश्क़ पोस्टल ऐडरेस नहीं पूछता पर वह हमेशा ठीक पते पर पहुँच जाता है।अगर ख़ानदान में उसकी माली हालत सबसे अच्छी न रही होती तो शायद वह कुज़ात कर दिया गया होता। पर सभी को उसके पैसों की ज़रूरत थी। इसलिए अब्बा के सिवा सभी खून के घूँट पीकर चुप हो गए। बड़ी बाजी ने गुस्से में उसके लिए एक नया स्वेटर बुनना शुरू कर दिया। बाजी ने गुस्से में उसके साथ जाने के लिए चने का हलवा पकाना शुरू कर दिया और हैदरी फूफी गुस्से में उसके लिए इमाम ज़ामिन तैयार करने लगीं...बाद में सब मिले। बस सलमा नहीं मिली। क्योंकि वह शादी के बाद ही लन्दन चली गई। वह हर साल आने का प्रोग्राम बनाती और वह प्रोग्राम गड़बड़ हो जाता और अब तो उसकी बड़ी बेटी तसनीम सत्रह साल की हो चुकी है और उर्दू नहीं जानती। बोल लेती है पर लिख-पढ़ नहीं सकती। सलमा को इसका दुःख भी था। उसने एक ख़त में लिखा था :‘‘मँझले भाई, कमबख्त किसी तरह उर्दू सीखने पर तैयार नहीं होती। तहसीन माशा अल्लाह से कलामे-पाक भी पढ़ी रही है और उर्दू भी...’’तहसीन उसकी दूसरी बेटी का नाम था जो अब शायद पन्द्रह साल की होगी...‘‘अरे चुपचाप रिसीवर लिये दीवार को क्या देख रहे हो ?’’ सैयदा की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। लन्दन से सलमा की रुआँसी आवाज़ आ रही थी...‘‘मैं तो बी.बी.सी. पर बलवों की तस्वीरें देखते ही रोने लगी कि अल्लाह मँझले भाई भी तो बान्द्रे में हैं...’’‘‘बलवा बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’‘‘आपकी बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’‘‘आपकी तरफ़ सब ख़ैरियकत है ना...’’ टी.वी. पर महदी हसन के प्रोग्राम का कैसेट शुरू हो गया।देख तो, दिल कि जाँ से उठता है,यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है।‘‘अरे भई ज़रा आवाज़ दबाव।’’ अब्बास ने झल्लाकर कहा।‘‘जी !’’ उधर से सलमा ने पूछा।‘‘तुमने नहीं !’’ अब्बास ने कहा। ‘‘तसनीम और तहसीन कैसी हैं ?’’‘‘तसनीम तो अपने एक नीगरो फ्रेण्ड की बर्थ-डे पार्टी में गई है। ख़ाक़पड़ी को वह कलूटा ही पसन्द आया। मैंने तो साफ कह दिया कि होशों में रहो...।’’दीवारों में दीवारें। साढ़े सत्तर बरस पहले मुहल्ला सैयदवाड़े की बड़ी-बूढ़ियाँ खुद सलमा के बारे में ऐसी बातें कह चुकी थीं...ख़ाक़पड़ी को वह मुआ हिन्दू ही पसन्द आया। ’66 और ’84-18 में सिर्फ़ एक शब्द बदला, ‘‘हिन्दू’ की जगह ‘कलूटा’ आ गया। सन् ’66 की क्रान्तिकारी सलमा ’84 तक आते जब 17 वर्ष की तसनीम की माँ बनी तो अतीत के दलदल में गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई। पड़ोस की अब्दुर्रहीम बो बन गई। अल्लाह ! उलटे पैरों की यह यात्रा कब ख़त्म होगी ! उधर से सलमा लगातार बोले जा रही थी-‘‘पर आपके चहेते रेवती के कानों पर तो जाने क्या अल्लाह की मार है कि बेटी की जबानी तक नहीं रेंगती। बैठे मुस्कुरा-मुस्कुरा के पाइप पिए जा रहे हैं। अर्ना भैंसे जैसा रंग, तवे में अल्ला ने आँख-नाक लगा दिया है। अच्छाई क्या कि मुआ क्रिकेट अच्छा खेलता है। मैंने तो गुस्से में आकर मुजतबा के बैट-वैट भी तोड़ डाले। यह सब परेशानियाँ क्या कम भीं थीं कि वहाँ बम्बई में बलवे भी शुरू हो गए। और बी.बी.सी. ने ऐसी खौफनाक तस्वीरें दिखलाईं, मँझले भाई कि मेरा तो दिल हिल गया। वह तो अल्ला भला करे रेवती का फोन लगा के थमा दिया...’’ टी.वी. पर अब ‘मक़सद’ चलने लगी थी। माज़िद वी.सी.आर. की कलें ऐंठ रहा था। सैयदा ने अपनी जगह से बैठे-बैठे डाँटा-‘‘अरे मज्जू, अल्ला के वास्ते वी.सी.आर. पर रहम कर !’’और राजेश खन्ना ने श्रीदेवी से पहली बुझाई:‘‘पहले तो अरोड़ा-मरोड़ा, फिर थूक लगा के घुसेड़ा।’’श्रीदेवी की समझ में यह पहेली नहीं आई तो उसने वह पहेली दुहारई। समझ में नहीं आई। अब राजेश खन्ना ने समझाया कि चूड़ी और चुढौरा। पहले कलाई मरोड़ता है। फिर थूक लगा के...अब्बास ने लाहौल पढ़कर हाथ बढ़ाया और टी.वी.बन्द कर दिया।‘‘क्या हुआ ?’’ सलमा ने लन्दन से पूछा।‘‘यहाँ बलवों से ज़्यादा ख़तरनाक एक फ़िल्म चल रही थी-‘मक़सद’। उसे बन्द कर दिया।’’‘क़ादिर ख़ाँ को क्या हो गया। मँझले भाई ! छी छी ! इतने गन्दे और बेहूदा डॉयलाग। सेंसरवालों ने यह फ़िल्म अफ़्यून के नशे में देखी थी क्या !’’‘‘पता नहीं पर राजेश खन्ना की पहेली में ज़बान की ग़लतियाँ हैं, सुई में धागा, थूक लगा के घुसेड़ा नहीं जाता, पिरोया जाता है। डाला जाता है। और यह...’’‘‘ऐ खाक डालिए मुए पर,’’ सलमा ने कहा, ‘‘तहसीन ने कहा, ‘‘तहसीन को हिन्दी फ़िल्में देखने का बड़ा शौक है। मैंने कहा यह अक़सद-मक़सद-जैसी फ़िल्में नहीं चलेंगी घर में। ‘आक्रोश’ देखो। ‘अर्धसत्य’ देखो। ‘खण्डहर’ देखो। ‘सारांश’ देखो...’’‘‘क्या ‘सारांश’ का कैसेट आ गया ?’’‘‘मुद्दत हुई। मुझे तो वह घाटन हतंगड़ी अच्छी नहीं लगी। कस्तूरबा बनने का नशा उतरा नहीं। इतराती ज्यादा है। ऐक्टिंग कम करती है और उर्दू बहुत ऐंठ-ऐंठ के बोलती है।’’‘‘उर्दू नहीं, हिन्दी।’’ अब्बास ने कहा।’’‘‘भाभी कैसी है ?’’‘‘उन्हीं से पूछा लो।’’रिसीवर उसने सैयदा को दे दिया।माज़िद ‘मिली’ चला रहा था। मगर प्रिण्ट ख़राब था। जया भादुड़ी फुदक-फुदककर टैरेस पर बच्चियों के साथ कोई गाना गा रही थी।यकायक सलमा की किसी बात पर सैयदा खिलखिला के हँस पड़ी और अब्बास को लगा कि बम्बई में होनेवाले बलवों की ख़बर ग़लत है और यह खबर झूठी है कि ‘मक़सद’ हिट हो गई है। क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के हिट होने का मतलब यह है कि ऐडल्टरेटिड सिनेमा ने तो सिनेमा को पीछे धकेल दिया है। यह ज़हरीली शराब पीकर कितने लोग मरेंगे यह कौन सोचता है।मासिक ‘अदब’ के सम्पादक होने के नाते इस सिनेमा का विरोध करना क्या उसका कर्त्तव्य नहीं है ?कर्त्तव्य ! केवल एक शब्द ! अर्थ और शब्द के बीच...सो व्हाट ऐवरीबड़ी कम्प्रोमार ज़ेज।...फ़ात्मा की आवाज़ आई। झल्लाई हुई। अब्बास ने मुड़कर देखा। हमेशा की तरह फ़ात्मा और माज़िद में किसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी।‘‘दैन यू आर ए फूल।’’ माज़िद बोला।‘‘एण्ड यू आर ए डैम-फूल।’’ फ़ात्मा ने कहा।दोनों की निगाह उस पर पड़ी और दोनों हँसने लगे।माज़िद को बहस करने का बड़ा शौक था। लोग अगर अमरीका के तरफ़दार होते तो वह रूस का तरफ़दार हो जाता। लोग अगर यहूदियों की तारीफ़ करते तो वह हिटलर का भक्त तो जाता।अब्बास, माज़िद की तरफ़ देखकर दिल-ही-दिल में मुसकरा दिया वह खुद अब्बास का बचपन था। फ़र्क सिर्फ़ यह था कि माज़िद को इस उम्र में जितनी बातें मालूम थीं उतनी बातें अब्बास को उस उम्र में मालूम नहीं थीं। या तब शायद इतनी बातें ही न रही हों।‘‘तुम लोग आख़िर हर वक़्त झगड़ते क्यों रहते हो ?’’ अब्बास ने कहा।‘‘यही हर वक़्त लड़ती रहती हैं अब्बू।’’ माज़िद ने ख़बर दी.‘‘लाइयर,’’ फ़ात्मा ने बयान दिया, ‘‘संगीता से लव नहीं चल रहा है तेरा...’’‘‘संगीता !’’ अब्बास, चकरा गया, ‘‘यह तो बिलकुल ही नया नाम है सैयद साहब !’’‘‘गोदरेजवाले मिस्टर शर्मा की बेटी है।’’ सैयदा ने ख़बर दी।‘‘मगर तुम दोनों हमेशा अंग्रेजी में क्यों झगड़ते हो। उर्दू-हिन्दी में नहीं झगड़ सकते तो मराठी में झगड़ो।’’‘‘मराठी !’’ माज़िद गनगना गया, ‘‘आई हेट मराठी।’’‘‘वह क्यों भई !’’‘‘बिक़ाज ऑफ यह कि मराठी ने तो हाई स्कूल में मेरी पुज़िशन खराब की।’’‘‘औनली मराठीज़ ऐपियर ऑन द मेरिट लिस्ट।’’ फ़ात्मा ने फैसला सुना दिया।‘‘ट्रांसलेट,’’ अब्बास ने कहा।‘‘सिर्फ़ मराठियों के नेम्स...ओह हैल...नाम, मुझे नहीं मालूम कि मेरिट लिस्ट को हिन्दी-उर्दू में क्या कहते हैं।’’‘‘मुझे भी नहीं मालूम !’’ अब्बास ने कहा।फ़ात्मा खिलखिलाकर हँस पड़ी और गले में बाँहें डालकर प्यार करने के बाद बोली, ‘‘मैं सोने जा रही हूँ।’’‘‘ए मज्जू !’’ सैयदा ने फ़रियाद की, ‘‘खुदा के वास्ते यह ‘मिली-रिली’ बन्द करो, गोलमाल’ लगा दो।’’माज़िद ने सुना ही नहीं। वह ‘वाकमैन’ पर उस्ताद अमीर अली खाँ का अहीर भैरव सुनने में लग चुका था। कानों पर ईअर फोन चढ़ा हुआ था। ख़ुद सैयदा भी कालीन पर लेटकर ‘सुषमा’ में छपी हुए तस्वीरें देखने लगी क्योंकि देवनागरी लिपि वह जानती नहीं थी।‘‘यार एक हो जाए !’’ एकदम से अब्बास को प्यास लग गई।‘‘कोई ज़रूरत नहीं,’’ सैयदा ने डाँटा, ‘‘कर्फ्यू यूँ ही लगी हुआ है।’’वह हँस पड़ा, ‘‘कर्फ्यू को चाय से क्या लेना-देना भई !’’दरवाज़े से पीठ लगाए जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर बाक़ायदा रोता हुआ राम मोहन उठ खड़ा हुआ।अब्बास देख सकता था कि राम मोहन दिल मारके चाय बनाने उठ रहा है कि वह अभी जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर और रोना चाहता है।‘‘यौर अभिताभ इज ए हैम,’’ फ़ात्मा की आवाज़ आई। अब्बास ने देखा कि फ़ात्मा और माज़िद में ‘वॉकमैन’ के लिए खींचातानी हो रही है।‘‘नो’’, मज्जू दहाड़ा, ‘‘तुम्हारे दिलीप कुमार को फटका लगा दिया उसने ‘शक्ति’ में।’’ और फिर वह अब्बास की तरफ़ मुड़ा, ‘‘अब्बू आप बताइए। ‘मजदूर’ और ‘मशाल’ में दिलीप कुमार ने क्या किया है ?’’‘‘हगा है।’’ अब्बास ने कहा।‘‘छी अब्बू !’’ फ़ात्मा हँसते हुए उसे मारने लगी, ‘‘और अमिताभ ने ‘महान’ और ‘इंक़लाब’ और ‘कुली’ में क्या किया है ?’’‘‘सुद्दे गिराए हैं, काँख-काँख के।’’ अब्बास ने कहा।‘‘भई मुझे ‘शुश्मा’ पढ़ने दो।’’ सैयदा ने कहा।‘‘माँ,’’ मज्जू ने आवाज़ा फेंका, ‘‘तुम तो हिन्दी को सिर्फ़ देख सकती हो।’’सैयदा ने करवट ली तो पण्डित नेहरू की आटोग्राफ की हुई तस्वीर मेज़ से नीचे गिर पड़ी।इस तस्वीर में सैयदा की जान थी। तब वह चार साल की थी। उसके पिता सैयदा अली अमीर अली यू.पी. में मिनिस्टर लगे लगे हुए थे। पण्डितजी के चहेते थे। पण्डितजी लखनऊ आए हुए थे तो उसकी सालगिरह की पार्टी में दस मिनट को आ गए थे।यह तस्वीर तभी की थी। पण्डित जी उसे केक खिला रहे थे।ज़ाहिर है कि कोई उस तस्वीर की सैयदा को नहीं पहचानता था। जो उस तस्वीर को देखता यही पूछता कि यह कौन बच्ची है जो पण्डितजी के हाथ से केक खा रही है और सैयदा बड़े अन्दाज़ से कहती कि यह वह है ! यह कहते वक़्त उसका चेहरा खुशी से तमतमा जाता जैसे इस तस्वीर की वजह से वह हिन्दुस्तान के इतिहास का एक हिस्सा बन गई हो। और इसी तस्वीर के कारण सैयदा श्रीमती गांधी पर भी दिल-ही-दिल में एक अधिकार जमाए हुए थी। वह उनकी हर उलटी-सीधी बात का समर्थन करती। हद तो यह है कि वह इमरजेंसी का भी बचाव करती थी और श्रीमती गांधी पर उसका अटल भरोसा तब भी नहीं डिगा जब इमरजेंसी के दिनों में एक रात पुलिस आकर उसके पति को भी पकड़ ले गई। इल्ज़ाम यह था कि वह सरकार का तख़्ता उलटने-पलटने की कोशिश कर रहा है। इश्क़िया शायरी करनेवाला और मासिक ‘अदब’ निकालनेवाला अब्बास संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र का तख्ता उलटने की कोशिश कर रहा है। जबकि अब्बास ने सिर्फ़ इतना गुनाह किया था कि उर्दू पत्रकारों की सभा में उसने इमरजेंसी के पक्ष में वोट नहीं दिया था।जनता सरकार बन जाने के बाद अब्बास छूटा। घर आया तो उसने देखा कि सैयदा कमरे की झाड़-पोंछ में लगी हुई है। आहट पर वह मुड़ी। अब्बास को देखकर वह खिल उठी। उसने लपककर उसके गाल चूमे। इधर-उधर की बातें करने लगी। वह जेल की बात करना नहीं चाहती थी। उसके दिल के एक कोने में पानी भर रहा था कि श्रीमती गांधी ने उसके अब्बास को जेल भेज दिया था।पर अब्बास ने देखा कि वह तस्वीर अपनी जगह पर है और कट ग्लास के एक पतले-से गुलदान में गुलाब का एक फूल लम्बी-सी डण्ठल से झुककर पण्डितजी का मुँह चूम रहा है।इसीलिए जब उसने देखा कि उस तस्वीर के गिरने का सैयदा पर कोई असर नहीं हुआ तो उसे बड़ी हैरत हुई।‘‘मदर !’’ मज्जू ने ईयरफोन कान से हटाते हुए कहा-‘‘योर पण्डितजीज़ी फोटोग्राफ !’’मगर इससे पहले कि सैयदा कोई जवाब देती, एक ज़बरदस्त धमाका हुआ-उसके फ़्लैट की खिड़कियों के शीशे काँप उठे। फिर लोगों के चीखने-चिलाने की आवाज़ आने लगी और फिर गोलियाँ चलने लगीं।रात के ढाई बज रहे थे। बाहर हंगामा था और सैयद अली अब्बास, सम्पादक मासिक ‘अदब’ के फ़्लैट में सब चुप थे। टी.वी. पर ‘मिली’ ख़त्म हो रही थी। हवाई जहाज़ उन्हीं सितारों में गुम रहा था, जिन सितारों में ‘मिली’ को बड़ी दिलचस्पी थी।राम मोहन चाय लेकर आ गया।‘‘तुम पी जाव !’’ अब्बास ने कहा है।‘‘यह बम तो मदीना मंजिल में फटा है,’’ सैयदा ने कहा, ‘‘खुदा ग़ारत करे इन हिन्दुओं को।’’ वह उठकर बैठ गई। ‘‘एक प्याली चाय मेरे लिए बना लाव,’’ उसने राम मोहन से कहा, ‘‘और सुन ! कल अपनी बीबी और बच्ची को कर्फ्यू उठते ही उस झोपड़पट्टी से यहाँ उठा ला ! क्या पता वहां, कब क्या हो जाए।’’‘‘जी बीबीजी !’’ राम मोहन उसके लिए चाय बनाने चला गया। मज्जू ने उठकर टी.वी. और वी.सी.आर. को बन्द कर दिया।बाहर गोलियों की आवाज़ बन्द हो चुकी थी। डरे हुए लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं और कहीं दूर से आते हुए फ़ायर ब्रिगेड़ की घण्टियाँ बज-सी रही थीं।और खुली खिड़की से नारियल के पेड़ में अटका हुआ चाँद दिखाई दे रहा था।वक़्त ने ऐसा पेच लगाया, टूटी हाथ से डोर, आँगनवाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद।हम सभी कटी हुई पतंग की तरह आँगनवाला नीम का पेड़ ढूँढ़ रहे हैं क्योंकि हम क्षेत्रवादी दंगों में घिरे हुए हैं और कुछ लोग हमसे यह कह रहे हैं कि बम्बई हिन्दुस्तान में नहीं महाराष्ट्र में है।अब्बास ने बेख़याली में पास पड़ी हुई किताब उठा ली। वह वाहिद की भूगोल की किताब निकली। पहले ही पन्ने पर भारतवर्ष का एक रंगीन नक्शा था।‘‘यार सैयदा यह किताब ग़लत है,’’ उसने कहा, ‘‘महाराष्ट्र को हिन्दुस्तान में दिखा रही है।’’‘‘पुराना ऐडीशन होगा।’’ सैयदा ने कहा। और कमरे में सन्नाटा हो गया।

अकेला तूफान 3

राही मासूम रज़ा


सनाओं क्या रंग है उधर के
यह यक-व-यक कैसे आ गये तुम
न खत न पत्तर न आना जाना
कोई न हो नौकरी में यूं गुम

तुम्हारी आंखें बता रही हैं
कि रात भर जागते रहे हो
मगर यह इतने थके से क्यों हो
बताओं कब से हंसे नहीं हो

कई दिनों से नहीं हंसा हूं
बहुत दिनों तक नहीं हंसूंगा
सुनाओ यारों कि रंग क्या है
यह अपना किस् मैं फिर कहूगां

Thursday, November 20, 2008

अकेला तूफान 2

राही मासूम रज़ा

मुझे तुम इन बातों में न टालो
मैं पूछती हूं उदास क्यों हो
मज़े में तो सो रहा है मुन्ना
मैं पूछती हूं निराश क्यों हो

वह गीत जो गाया करती थी मैं
वह गीत हैं अब भी याद मुझको
अलाव के गिर्द ऊंघते से
फसाने हैं अब भी याद मुझको

जिसे समझती थी सिर्फ राधा
वह गुनगुनाहट है याद मुझको
तुम्हारे बाजू है याद मुझको
हवा की आहट है याद मुझको

कहीं यह बातें भी भूलती है
इन्हीं से तो ज़िन्दगी में रस है
हर एक पत्ती ठहर गयी है
हवा नहीं किस कदर उमस है

मगर तुम आखिर उस क्यों हो
यह बात मैं पूछकर रहूंगी
अब अपनी राधा से क्या छुपाना
किसी से मैं कुछ नहीं कहूंगी

Tuesday, November 18, 2008

अकेला तूफान 1

राही मासूम रज़ा

मुझे तुम इन बातों में न टालो
मैं पूछती हूं उदास क्यों हो
मज़े में तो सो रहा है मुन्ना
मैं पूछती हूं निराश क्यों हो
वह गीत जो गाया करती थी मैं
वह गीत हैं अब भी याद मुझको
अलाव के गिर्द ऊंघते से
फसाने हैं अब भी याद मुझको
जिसे समझती थी सिर्फ राधा
वह गुनगुनाहट है याद मुझको
तुम्हारे बाजू है याद मुझको
हवा की आहट है याद मुझको
कहीं यह बातें भी भूलती है
इन्हीं से तो ज़िन्दगी में रस है
हर एक पत्ती ठहर गयी है
हवा नहीं किस कदर उमस है
मगर तुम आखिर उस क्यों हो
यह बात मैं पूछकर रहूंगी
अब अपनी राधा से क्या छुपाना
किसी से मैं कुछ नहीं कहूंगी

Monday, November 17, 2008

अकेला तूफान

राही मासूम रज़ा

उदास क्यों हो निराश क्यों हो
किसी ने पूछा वह कुछ न बोला
मचल गयीं चूड़ियां किसी की
बिखर गया गेसुओं का साया

उदास तो हूं मगर मैं इसको
बताऊं क्या और बताऊं कैसे
जो देखकर भी न देख पाया
इसे वह मंजर दिखाऊं कैसे

जो फांस दिल में खटक रही है
वह सीने के पार हो न जाये
बगल में सा हुआ है मुन्ना
कहीं यह बेदार हो न जाये

उदास क्यों हूं यह बात छोड़ो
तुम्हारा मुन्ना बहुत हसीं है
यह सोचा था एक कश लगा लूं
चिलम में पर आग ही नहीं है

यह गाने जो गाया करती थीं तुम
वह गाने तो अब भी याद होगें
अलाव के गिर्द ऊंघते से
फसाने तो अब भी याद होंगे

Thursday, November 13, 2008

यह आदमी की गुज़रगाह 1

राही मासूम रज़ा






डरते डरते दूर क्षितिज में

सूरज ने परदा सरकाया

कोई फिरंगी रोक न पाया

क्या मैं रस्ता भूल गया हूं

उठता सूरज सोच रहा है

क्या मैं रोज यहीं अता था

क्या या वही प्यारी दुनिया है

मुर्दों के बाज़ार सजे हैं



लाशों का खलियान लगा है

खेतों से लब सूख रहे है

दरिया का चेहरा उतरा है

मैं इक टूटे से मंदिर में



बरगद की इक जड़ पर बैठा

जाने कब से सोच रहा हूं

वह बच्चा अब जागा होगा

मां कैसे बहलाती होगी



मां कैसे समझाती होगी

घुटनों पर हाथों को रखकर

मैं उठता हूं दिल को यह डर

फौजें आहिस्ता चलती हैं



कुछ ही दूर पर तोपें होगी

गांव से शोले उठते होगे

और पेड़ों पर लाशें होंगी

विरहे होंगे दार के ऊपर



कजरी का दम घुटता होगा

दिल कहता है मेरी सुन लो

आगे चलकर मरना होगा

वह बच्चा अब जाग के शायद



जिद करता यह रोता होगा

मां की आंखों बाप के दिल में

एक गहरा सन्नाटा होगा

मरना भी हो तो क्या करना



आगे तो चलना होगा

जुल्मत से जब ठन ही गयी है

लौ की तरह जलना ही होगा

यह आदमी की गुज़रगाह

राही मासूम रज़ा


हर तरफ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूंढ़े से ज़िंदगी नहीं मिलती
जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
सांप कुलबुलाते हैं
कौन-सी जगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
काफ़िला नहीं चलता
रास्ता भी और दिल भी
सांय-सांय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है
क्या करूं कहां जाऊं
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हूं मैं
कोई गांव मिल जाये
कुनकुनाते पानी से
अपने पांव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता
हां जला लूं इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी

गंगा के उजले पानी पर

राही मासूम रज़ा

इक दिन गर्म हवा का झोका
गुस्से में जाने क्या कहता
बढ़ कर सरकाता है परदा
छावनी के ऊंचे बंगले का

हैरा(चकित) है दाला(दालाना) की खुनकी(शीतलता)
लरजा(कम्पित) है कमरे का परदा
खौफ़ज़दा हैं मेज के काग़ज
घबराया है शहर का नक्शा

कमरे में कुछ लोग हैं लेकिन
कमरे में सन्नाटा-सा है
हर लब पर कुछ खुश्की-सी है
हर चेहरा कुछ उतरा-सा है

Wednesday, November 12, 2008

दिल एक सादा कागज़ -राही मासूम रजा


दिल एक सादा कागज़ एक तरह आधा गाँव से बिल्कुल अलग है। यह आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी और ओस की बूँद के सिलसिले की कड़ी है भी और नहीं भी है।दिल एक सादा कागज़ ‘ज़ैदी विला’ के उस भूत की कहानी है जिसके कई नाम थे-रफ़्फ़न, सय्यद अली, रअफ़त ज़ैदी, बाग़ी आज़मी। और यह ज़ैदी विला, ढाका और बम्बई के त्रिकोण की कहानी है।यह कहानी शुरू हुई तो ढाका हिन्दुस्तान में था। फिर वह पूरबी पाकिस्तान में होने लगा। और कहानी के खत्म होते-होते बांग्ला देश में हो गया। एक तरह से यह ढाका की इस यात्रा की कहानी भी है, हालाँकि ढाका इस कहानी में कहीं नहीं है। पहले वहाँ से खत आना शुरू होते हैं और फिर रिफ्यूजी, बस !दिल एक सादा कागज़ बंबई के उस फिल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूलभुलैया आदमी को भटका देती है। और वह कहीं का नहीं रह जाता। नये अंदाज और नए तेवर के साथ लिखा गया एक बिल्कुल अलग उपन्यास।
भूमिका
..लेकिन मैं भी ख्वाब नहीं हूँ।ख्वाब तो वह है, जिसको कोई देख रहा हो। मैं एक वेद हूँ, एक गीता हूँ, एक इंजील हूँ, एक क़ुर’ आँ हूँ, किसे भला इतनी फ़ुर्सत है, मुझे उठाकर जो यह देखे, मुझमें, आखिर क्या लिक्खा है।
राही मासूम रजा
शीलाजी, आपने मुझे अपने एक ख़त में लिखा है :‘‘फ़िल्मों में ज़्यादा मत फँसिएगा। ये भूलभुलैया हैं। इनमें लोग खो जाते हैं।...आशा है आप ख़ैरियत से होंगे।’’मैं ख़ैरियत से नहीं हूँ। ‘दिल एक सादा कागज़’ मेरी जीवनी भी हो सकता था। पर यह मेरी जीवनी नहीं है। इसके पन्नों में उदासी-सी जो कोई चीज़ है, उसे स्वीकार कीजिए, इसलिए स्वीकार कीजिए कि मेरी नयी ज़िन्दगी की दस्तावेज़ पर पहला दस्तखत आप ही का है। सात साल के बाद आपको वह दोपहर याद दिलवा रहा हूँ जिसमें मेरा साथ देनेवाला कोई नहीं था। मैं नय्यर के साथ बिलकुल अकेला था और तब आपने कहा था :‘‘ फ़िक्र क्यों करते हो। मैं तुम लोगों के साथ हूँ।’’ उसी बेदर्द और बेमुरव्वत दोपहर की याद में यह उपन्यास आपकी नज्र है।
राही मासूम रजा 15.9.73
ज़ैदी विला का भूत
क़ाज़ी टोला मुहल्ले में गंगा के किनारे अपना घर बनवाकर रफ़्फ़न के पिता ने ख़ान्दान में बड़ा नाम पैदा किया, क्योंकि ख़ान्दान में यह पहला दो मंज़िला मकान था। इस घर का सारा ठाठ-बाठ अंग्रेज़ी था। नाम था ज़ैदी विला। लम्बे-चौड़े इस मकान में कोई रसोईघर नहीं था। किचन था। अब्दुस्समद ख़ाँ, जो कई अंग्रेज़ कलक्टरों के यहाँ खाना पका चुके थे बड़ी मुश्किल से ज़ैदी विला के किचन में खाना पकाने पर तैयार हुए और इसीलिए अब्दुस्ममद ख़ाँ के बड़े ठाठ थे। वह ब्रेकफ़ास्ट टिफ़िन और डिनर से नीचे बात नहीं करते थे। जिस दिन कोई चीज़ ख़राब पक जाती वह खाने की मेज़ के चारों तरफ़ मँडलाया करते और खाना खानेवालों को इतना ज़लील करते कि कोई डर के मारे खाने की बुराई ही न करता। और अब्दुस्समद ख़ाँ अपनी मैली मूँछों के एक कोने को दाँतों-तले कुचलते हुए किचन में वापस चले जाते। और वहाँ नौकरों को ट्रेनिंग देने लगते कि मेज़ किस तरह लगायी जाती है। यह अब्दुस्समद ख़ाँ एक तरह से ज़ैदी विला का झण्डा थे। और ज़ैदी विलावाले यह झण्डा हर वक़्त फहराते रहते थे। अब्दुस्समद ख़ाँ के बाद ज़ैदी विला की सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण चीज़ गोल कमरा था। वैसे यह कमरा किसी तरफ़ से गोल नहीं था। यह एक-तिहाई गोल था और दो-तिहाई चौकोर। परन्तु अब्दुस्समद ख़ाँ इसे गोल कमरा ही कहा करते थे। तो भला किसकी मजाल थी कि वह इस कमरे को किसी और नाम से पुकारता। यह गोल कमरा भी किचन ही की तरह बिलकुल अंग्रेज़ी में था। बड़े नक़शीन सोफ़े लगे हुए थे। कुछ ही कम नक़शीन तिपाइयाँ थीं। फ़र्श पर भारी क़ालीन था। खिड़कियों और दरवाज़ों पर दोहरे पर्दे। एक पर्दा भारी रेशम का और दूसरा विलायती मलमल का। किनारों पर विलायती बेलें भी थीं। गोल कमरे के एक सिरे पर आतिशदान था। जाड़े की शामों में इसमें बड़ी सुहानी आग जला करती थी। आतिशदान के ऊपर तीन-चार तस्वीरें सजी हुई थीं। गोल कमरे के सामनेवाले दालान में बेंत के मोढ़े धरे रहा करते थे। एक कोने में हैट ट्री था और इस हैट-ट्री के नीचे एक लम्बी-सी आरामकुर्सी हुआ करती थी, जिसमें दो हत्थों के साथ-साथ दो ‘टँगें’ भी थे। रफ़्फ़न के दादा, कर्नल ज़ैदी इस कुर्सी पर लेटकर समाचारपत्र पढ़ा करते थे। सिगार पिया करते थे और सारे घर पर हुकूमत किया करते थे।...सिगार पीने के कारण वह शहर में कर्नल सिगार हुसैन या सिगार मियाँ कहे जाते थे। सारा शहर उनका रोब खाता था पर रफ़्फ़न उनसे हिला हुआ था। रफ़्फ़न अल्लाह मियाँ के बाद कर्नल साहब की मूँछों से डरा करता था। उनकी मूँछें थीं भी बड़ी अजीब। ऐसा लगता था जैसे उनके गालों पर उकड़ूँ बैठी हुई हैं। कर्नल साहब को अपने अलावा कोई और बात याद नहीं थी। वह अपने आपको एक मजेदार कहानी की तरह चटख़ारे ले-लेकर सुनाया करते थे। उनकी तमाम बातों का लुब्बे-लुबाब यह हुआ करता था कि जो वह न रहे होते। तो ब्रिटिश सरकार लाख जन्म लेकर भी जर्मनी को हरा नहीं सकती थी। ज़ाहिर है कि रफ़्फ़न को ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश आर्मी या जर्मनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। परन्तु कर्नल साहब भी छोटे-मोटे से अल्लाह मियाँ थे और जैसे अल्लाह मियाँ दुनिया में हर जगह मौजूद हैं वैसे ही कर्नल साहब भी ‘ज़ैदी विला’ में हर जगह मौजूद थे। और इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि वह दिखायी देते हैं या नहीं। कर्नल साहब उन लोगों में थे जो घर को रणभूमि समझते हैं। रफ़्फ़न तो ख़ैर रफ़्फ़न था, वह तो उसके बाप अली हैदर ज़ैदी को भी ख़ातिर में नहीं लाते थे। अली हैदर यूँ भी बड़े सलीकें के आदमी थे। वह अदालत फ़ौजदारी की नाक थे। ज़िले भर में मशहूर था कि अली हैदर वकील के जीते जी जो चाहे क़त्ल कर ले। अल्लाह मियाँ के बचाने की बात तो मशहूर है, बचाते तो हैं सैयद अली हैदर वकील। एक-से-एक बड़ा डकैत और क़ातिल उनके सामने आकर भीगी बिल्ली बन जाया करता था। शायद इसीलिए लोग उनसे डरते भी थे। अब ऐसे आदमी से कौन अकड़े जिसके क़ब्ज़े में सारे शहर के नम्बरी लोग हों। क़ानून कभी उनकी बात नहीं टालता था। एक दिन तो हद हो गयी। क्लब में बाबू उमाशंकर राय डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज ने अजीब बात कह डाली। बोले, ‘‘सैयद साहब, मैं ज़िले की क्राइम हिस्ट्री देख रहा था तो पता चला कि जब से आपने वकालत शुरू की है, शहर में जराएम की तादाद दूनी हो गयी है।’’इर्द-गिर्द बैठे हुए लोग हँस पड़े चूँकि डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज की जुमलेबाज़ी पर हँसना हर आदमी का फ़र्ज़ होता है। पर सैयद साहब भला कहाँ दबनेवाले थे। बोले, ‘‘चे दिलावर अस्त दुज़दे कि ब कफ़ चिराग़ दारद।* -बरी करें सरकार और इलज़ाम इस ख़ादिम पर !’’राय साहब ने ऐसा ज़बरदस्त क़हक़हा लगाया कि बाकी तमाम लोगों को भी मजबूरन हँसना पड़ा। कहने का मतलब यह है कि ऐसा ज़बरदस्त बोलनेवाला भी कर्नल साहब के सामने आता था तो चुपशाह का रोज़ा रख लेता था। कर्नल साहब यदि किसी से डरते थे तो वह जन्नत थी। अल्लाह मियाँ की जन्नत तो जाने कैसी होगी, पर ‘ज़ैदी विला’ की जन्नत बड़ी ख़ूबसूरत थी। उसकी आँखें इतनी बड़ी थीं कि जो रफ़्फ़न छिपकर बैठ जाता उनमें तब भी जगह बच रहती। उसका रंग साँवला था, पर नमक इस ग़ज़ब का था कि वह जिस हाँडी में हाथ लगा देती उसमें जान पड़ जाती। परन्तु ज़रा रुकिए। अभी जन्नत की बात करने का समय नहीं आया है। अभी तो मैं बता रहा था कि रफ़्फ़न उर्फ सैयद अली रफ़अत अल्लाह मियाँ से ज़्यादा कर्नल ज़ैदी की मूँछों से डरा करता था। अल्लाह मियाँ से उसका डर अजीब था। ‘ज़ैदी विला’ में साल-के-साल एक सैदानी बी आया करती थीं। उनकी गठरी में चाँदी का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत ‘बीबी का रौज़ा’ हुआ करता था। यह बात रफ़्फ़न को कभी न मालूम हुई कि यह किस बीबी का रौज़ा है। यह जानने की कोई ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि असल चीज़ तो वह रौज़ा था, चाहे वह किसी बीबी का हो। वह रौज़ा कुछ ताजमहल के नक़्शे पर बना हुआ था। सैदानी बी आतीं और एक पलंग पर आराम से बैठ जातीं। घर का तमाम औरतें यानी जुम्मन बुवा, अली हुसैन बो मीरासिन, मरियम मन्हारिन वग़ैरा-वग़ैरा सब उस पलंग को घेर लेतीं। सैदानी बी पहले रौज़े का ऊपरी गिलाफ़ उतारतीं, फिर मख़मलावाला सब्ज़ गिलाफ़ उतरता और चमचमाता हुआ रौज़ा निकल आता। सैदानी बी फ़ौरन उसे छूकर अपनी उँगलियाँ चूमतीं और फिर वह एक पुरानी किताब निकालतीं और उसके एक-एक वरक़ का हाल गा-गाकर सुनातीं। उस किताब के पन्नों पर अजीब-अजीब चित्र हुआ करते थे। वह शुरू हो जातीं :‘‘इस बीबी ने जीते-जी अपने ख़ाविन्द की ख़िदमत न की और इसीलिए मरने के बाद जहन्नम की आग में जल रही है। और इस बीबी ने अपने मियाँ के*कैसा बाँका चोर है कि हथेली पर चिराग़ लिये निकला है। ऐबों पर पर्दा डाला तो जन्नत में सात हूरें इसकी ख़िदमत पर मुक़र्रर कर दी गयी हैं।’’यह बात तो रफ़्फ़न को बहुत बाद में मालूम हुई कि सैदानी बी ने अपने मियाँ को इतना सताया था कि उस ग़रीब ने आजिज़ आकर एक रंडी से निकाह कर लिया था। फिर मियाँ के मरने के बाद यह उस रंडी से कैसा-कैसा लड़ीं, कि उसके बच्चे हरामी हैं।...पर अदालत इनके चकमे में आयी और इन्हें अपना पेट पालने के लिए बीबी का रौज़ा सँभालना पड़ा।रफ़्फ़न को ये बातें मालूम रही होतीं तो शायद वह अल्लाह मियाँ से इतना न डरता। परन्तु सैदानी बी की कहानियाँ सुनकर वह यह ज़रूर सोचता कि यह कब जन्नत या जहन्नम गयी थीं जो वहाँ की बातें इस यक़ीन से सुना रही हैं और वहाँ के इतने फ़ोटो उतार लायी हैं।...यह सवाल पूछने की हिम्मत वह कभी न कर सका।सैदानी बी की किताब में उन बच्चों की तस्वीरें भी थीं जो बड़ों का कहना नहीं मानते। उन पर भी जहन्नम में कोड़े पड़ते हैं। यह बात रफ़्फ़न को कुछ ज़्यादा पसन्द न आयी, क्योंकि बुजुर्ग लोग कभी-कभार ऐसी बातें भी करते हैं जिन्हें मानने को जी नहीं चाहता। मिसाल के तौर पर उसे क़ुरआन पढ़ाने के लिए जो मोलवी तक़ी हैदर रखे गये थे वह गर्मियों के दिनों में अपना कमरा बन्द करके उसका पाजामा उतारने की कोशिश किया करते थे। पहले दिन तो वह हक्का-बक्का देखता रह गया कि मोलवी साहब कर क्या रहे हैं..शायद, क़ुरआन पढ़ाने का यही तरीक़ा हो। पर जब मोहवी साहब अपना पाजामा खोलकर उसे अपनी गोद में घसीटने लगे तो वह डर गया। कोई सख़्त सी चीज़ उसकी रीढ़ की हड्डी और कूल्हे में बार बार गड़ रही थी, जैसे कोई जगह लताश कर रही हो। मोलवी साहब की दाढ़ी उसकी गरदन में चुभ रही थी। वह रोने लगा। परन्तु मौलवी से वह बहुत डरता था और वह कह रहे थे, ‘‘घबराओ मत। हम बहुत धीरे-से करेंगे।’’ और उसने देखा कि मोलवी साहब अपने हाथ पर थूक रहे हैं। वह भाग खड़ा हुआ। सैदानी बी कह रही थीं, ‘‘यह बच्चा अपने उस्ताद का कहा नहीं मानता था तो जहन्नम उसके बदन को साँप-बिच्छुओं से चटवा रही है।’’वह साफ़ देख रहा था कि एक बच्चे के बदन पर साँप रेंग रहे हैं। उसकी सूरत उस साँपवाले बच्चे से बिलकुल नहीं मिल रही थी। फिर भी यह बात तो तय थी कि उसने अपने उस्ताद मोलवी तक़ी हैदर की बात नहीं मानी थी। उसका मतलब यह हुआ कि अब वह जहन्नम में फेंक दिया जायेगा और उसके बदन पर भी साँप रेंगेगे। वह रात को ख़्वाब देखता कि तख़्त पर अल्लाह मियाँ बैठे हैं। उनकी दाढ़ी मोलवी तक़ी हैदरकी दाढ़ी से भी कहीं ज़्यादा बड़ी है। वह उसे घूर रहे हैं। मोलवी साहब कहते हैं, ‘‘अल्लाह मियाँ, इस लड़के ने मेरा कहा नहीं माना...’’ अल्लाह मियाँ धाड़ते हैं, ‘‘इसे जहन्नम में डाल दो।’’ अल्लाह मियाँ उसे सफ़ाई का मौक़ा भी नहीं देते। उनकी धाड़ सुनकर उसकी आँख खुल जाती। और वह देखता कि वह अपने बिस्तर पर अकेला है। ऐसी रातों में डर से उसका हाल पतला हो जाया करता था। और वह चुपचाप बगलवाले पलंग पर सरक जाया करता था। वह पलंग आम तौर से जन्नत का हुआ करता था। जन्नत की आँख खुल जाती और अपनी अधजगी आँखों से उसे देखकर वह उसे अपनी अधजगी बाँहों में छिपा लेती।जन्नत की बाँहों में पनाह पाते ही उसके दिलसे मोलवी तक़ी हैदर और अल्लाह मियाँ दोनों का डर निकल जाया करता था। उसने यह बात किसी को नहीं बतायी थी कि उसके ख़याल में अल्लाह मियाँ उम्र में तो मोलवी तक़ी हैदर से ज़रूर बड़े होंगे, पर उनकी सूरत लगभग यही होगी। अफ़सोस की बात है कि सैदानी बी की किताब में अल्लाह मियाँ की कोई तस्वीर नहीं थी। फिर उसे एकदम से याद आता कि मिसेज़ नार्थ के गले में अल्लाह मियाँ के बेटे की एक मूर्ति लटकी रहती है। ‘‘जन्नत बाजी, अल्लाह मियाँ का ब्याह तो बड़ी धूम-धाम से हुआ होगा ?’’ वह पूछ बैठा। सैदानी बी चुप हो गयीं। तमाम लोग उसे घूरने लगे। ‘‘माटी मिले। जहन्नुमी...’’ अम्माँ ने मारने के लिए हाथ उठाया। जन्नत उसे अपनी गोद में छिपाकर बोली, ‘‘जाने दीजिए मुमानी।’’परन्तु मुमानी भला कैसे जाने दे सकती थीं। वह उसे जन्नत की गोद से उखाड़ने की कोशिश करने लगीं। पर वह जोंक की तरह जन्नत से चिपका रहा। उसे जन्नत से यूँ चिपक जाने में बड़ा मज़ा आया करता था और इसलिए कोई चार बरस पहले ही उसने यह फ़ैसला कर लिया था कि शादी तो वह जन्नत से ही करेगा। यह फ़ैसला करते समय वह कोई साढ़े चार बरस का था। जन्नत पन्द्रह बरस की थी। आठवें में पढ़ती थी और बड़ी क़ाबलियत झाड़ा करती थी। कहती थी, ज़मीन गोल है। सूरज के चारों ओर चक्कर काटती रहती है। ये बातें सुनते-सुनते जब वह साढ़े छः बरस का हो गया और जन्नत साढ़े सत्तरह की होकर दसवें में पहुँच गयी तो एक दिन वह खिलखिलाकर हँस पड़ा, ‘‘कोई और को गधा बनाइएगा। आपके कहे से ज़मीन गोल है और सूरज के चारों तरफ़ घूम रही। अरे घूम रही तो ई सब घर गिर काहे ना जाते ?’’यह सवाल सुनकर जन्नत हमेशा हँस दिया करती थी।उसे यूँ हँसनेवाली जन्नत न हँसने वाली जन्नत से भी ज्यादा अच्छी लगा करती थी। जन्नत के दाँत बड़े खूबसूरत थे। अब्दुल के मलाई बर्फ़ की तरह सफ़ेद और इतने चमकीले कि अँगूठी में जड़वाने को जी चाहने लगे। परन्तु अल्लाह मियाँ के ब्याहवाली बात पर जन्नत नहीं हँसी, क्योंकि वह अब इण्टरमीडिएट फ़ाइनल में थी। और साढ़े आठ बरस के एक बच्चे की बातों पर हँसना उसकी शान के ख़िलाफ़ था। जन्नत अपनी मुमानी का ग़ुस्सा जानती थी, इसलिए वह रफ़्फ़न को लेकर टल गयी। अपने कमरे में जाकर उसने रफ़्फ़न को अपनी कुर्सी पर बिठलाने के बाद कहा, ‘‘तुम बड़े गधे हो रफ़्फ़न !’’साढ़े आठ बरस के बच्चे को दो बातें अवश्य मामूल होती हैं। पहली यह कि जमीन गोल नहीं है और दूसरी यह कि वह गधा किसी तरफ़ से नहीं है। यह भी कि गधा होना कोई ख़ुशी की बात नहीं है। और बड़ा गधा होना तो यक़ीनन बड़ी बुरी बात है। ईमान की बात तो यह है कि वह ज़मीन को गोल मानने पर तैयार ही नहीं था। साफ़ चपटी दिखायी देती है। परन्तु जमीन के गोल होने के सबूत उसे ज़बानी याद थे। यदि सामने से कोई जहाज़ आ रहा हो तो पहले सामने का हिस्सा दिखायी देता है और धीरे-धीरे सारा जहाज़ सामने आता है। और यदि कोई एक जगह से यात्रा शुरू करे तो वह घूम-फिरकर वहीं वापस आ जायेगा। पर गधा होने की बात तो वह मान ही नहीं सकता था। क्योंकि यदि आदमी घूम-फिरकर वहीं वापस आ जाये तब भी यह साबित नहीं होता कि रफ़्फ़न गधा है। और इसीलिए उसने उस जन्नत की तरफ़ बड़ी शिकायत-भरी नज़रों से देखा जो उसे सैदानी बी की जन्नत से कहीं ज़्यादा अच्छी लगा करती थी। बोला, ‘‘हम बड़े गधे कहाँ से हो गये ?’’जन्नत बोली, ‘तुमसे यह किसने कह दिया कि अल्लाह मियाँ की शादी हो गयी है ?’’वह बोला, ‘‘एमें काई के कहे की का जरूरत है ? अरे जब मुल्ला-हज्जाम तक का ब्याह धूमधाम से हो गया तो अल्लाहमियाँ बेचारे का कसूर किहिन हैं ?’’जन्नत मुसकुरा दी। बोली, ‘‘अल्लाह मियाँ की शादी नहीं हुई है।’’‘‘इनकी सुने कोई। उनकी शादी नहीं हुई है तो बेटा कहाँ से आ गया।’’जन्नत की भी कोई रग फड़क गयी। बोली, ‘‘और तुमसे यह किसने कह दिया कि बच्चा शादी के बाद पैदा होता है ?’’‘‘बड़की फुफ्फू रोज़ हम्में दुआ देती हैं कि ना। जीते रहो। शादी-विआह हो। बाल-बच्चे हों। जब आपसे हमरी शादी हो जायेगी तो आपके भी बाल-बच्चा हो जायेगा।’’जन्नत झेंप गयी। परन्तु रफ़्फ़न ने उसका झेंपना नहीं देखा। उसके दिमाग़ में एक और सवाल कुलबुला रहा था, ‘‘बच्चा तो समझे बाकी ई बाल का होता है और कहाँ पैदा होता है ? शादी के बाद का कोई नया बाल निकल आता है, बाजी ?’’वह जब बहकता था तो यूँ ही बहकता था, और जन्नत की जान जोखम में पड़ जाया करती थी। वह ताबड़तोड़ सवाल करता चला गया, ‘‘शादी के बिना बच्चा तो बहुत बुरी बात है न बाजी ? हमीदुन कलल्हे अम्माँ को बताती रही कि काने केकी बेटी को शादी से पहले ही बच्चा हो गया तो ऊ संखिया खाके मर गयी। हम्में तो ई भी मालूम है जनाब कि बच्चा होता कैसे है....’’जन्नत की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर देखे किधर। ‘‘अब मैं चाँटा मार दूँगी, रफ़्फ़न’’‘‘अल्ला क़सम बाजी, हम मजाक ना कर रहें। एफे में पहुँच गयीं और ई भी न जानती कि बच्चा कैसे होता है ?’’जन्नत के सारे बदन का ख़ून खिंचकर उसके चेहरे में सिमट आया। दीवार की तरफ़ देखती हुई बोली, ‘‘तुम बड़े बेहूदा होते जा रहे हो !’’‘‘का बात करती हैं आप ! हम ख़ुद अपने कान से सुना, भाई जानू गुलबहरी से बावरचीखाने में खड़े कहते रहे-अरे गुलबहरी, दुआ-तावीज़ से नहीं होनेवाला है तेरे यहाँ बच्चा। अनाज की कोठरी में चल। अभी डाल देता हूँ तेरे पेट में बच्चा। ई सुनके गुलबहरी अजब तरह से हँसी और भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये। तो हम दूसरे ही दिन पूछा-का रे गुलबाहरी, बच्चा पड़ा कि ना ? ऊ लगी हँस्से। तो हम कहा, चल अनाज की कोठरी में एक ठो बच्चा हम भी डाल दें तोरे पेट में। तो ऊ बोली-मियाँ ज़रा और बड़े हो जाव, तब चलेंगे आपो के साथ। अच्छा बाज़ी अगर हम गुलबहरी के पेट में एकठो बच्चा डाल दें तो अल्ला मियाँ हमसे ख़ुश हो जायेंगे ना ?’’उसे कोई जवाब नहीं मिला क्योंकि जन्नत के दिमाग़ में तो एक ही बात घिसे हुए रिकार्ड की तरह बजती चली जा रही थी।....भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये...भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये...ले गये...घसीट ले गये...बात यह है कि जन्नत चुपके-चुपके अली सामिन यानी रफ़्फ़न के भाई जानू से प्यार किया करती थी। जन्नत का यही प्यार अली सामिन और रफ़्फ़न के झगड़े की जड़ था। रफ़्फ़न ताड़ गया कि जन्नत उदास हो गयी है। उसका छोटा-सा दिल तड़प गया। बोला, ‘‘अरे एमें मुँह लटकाये की का बात है ! हम गुलबहरी के पेट में बच्चा न डालेंगे। आपके पेट में डालेंगे। हम्में आपका पेट बड़ा अच्छा लगता है। बिलकुल संगमरमर जैयसा चिकना और गोरा। बाकी कोठरिया में अँधेरा होये की वजह से हमई ना देख पाये कि पेट में बच्चा डाला कैयसे जाता है। आपको मालूम होय तो हम अभईं डाल दें...’’

Saturday, November 8, 2008

ओस की बूँद-राही मासूम रज़ा


राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ लिखकर हिन्दी उपन्यास में अपना स्थान बनाया था। ‘टोपी शुक्ला’ उनका दूसरा सफल उपन्यास था और यह उनका तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं को लेकर शुरू होता है लेकिन आखिर तक आते-आते पाठकों को पता चलता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या वास्तव में कुछ नहीं है, यह सिर्फ राजनीति का एक मोहरा है, और जो असली चीज है वह है इंसान के पहलू में धड़कने वाला दिल और उस दिल में रहने वाले ज़ज्बात, और इन दोनों का मजहब और जात से कोई ताल्लुक नहीं। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत की तलाश करने वाला यह उपन्यास एक शहर और एक मजहब का होते हुए भी हर शहर और हर मजहब का है ! एक छोटी-सी जिन्दगी की दर्द भरी दास्तान जो ओस की बूँद की तरह चमकीली और कम उम्र है।

भूमिका

बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो ‘आधा गाँव’ में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता, परंतु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसीलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले ? पुरस्कार मिलने में कोई नुक़सान नहीं, फ़ायदा ही है। परंतु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वह गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूँगा। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहाँ मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूँ। डॉट-डॉट-डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे ! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है।गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है। परंतु लोग सड़कों पर गालियाँ बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं ? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जबान नहीं काट सकता। इस उपन्यास के पात्र भी कहीं-कहीं गालियाँ बकते हैं। यदि आपने कभी गाली सुनी ही न हो तो आप यह उपन्यास न पढ़िए। मैं आपको ब्लश करवाना नहीं चाहता।

-राही मासूम रज़ा

डायरी का एक पन्ना

डायरी लिखना बड़ी बेवक़ूफी की बात है; क्योंकि डायरी में सत्य लिखना पड़ता है, और कभी-कभी सत्य लिखना नहीं होता। कभी-कभी तो यह जानना भी असंभव हो जाता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। परंतु सत्य परछाईं की तरह साथ लगा रहता है। कोई लाख चाहे कि परछाईं से पिंड छूट जाए, परंतु यह संभव नहीं। जब तक आत्मा का सूर्य अस्त नहीं हो जाता, ये परछाइयाँ साथ लगी रहती हैं; इसलिए इन परछाइयों से जान छुड़ाने की सिर्फ़ एक शक्ल है कि मनुष्य इनकी आँखों में आँखें डाल दे और कहे : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है...सच पूछिए तो मैं यह डायरी इसीलिए लिख रहा हूँ कि समय की आँखों में आँखें डालकर यह कह दूँ : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है कि कल पाकिस्तान बन गया; मुझे यह भी मालूम है कि आज भारत स्वतंत्र हो गया है; और मुझे यह भी मालूम है कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है...परंतु क्या सच केवल इतना ही है कि कल पाकिस्तान बना और आज भारत स्वतंत्र हुआ और यह कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है ? क्या वे पिछली शताब्दियाँ सत्य नहीं हैं जो गुज़र गईं ? और क्या वह क्षण सत्य नहीं है, जो अभी-अभी गुज़रा है ? और आनेवाली शताब्दियाँ भी क्या सत्य नहीं हैं ?मेरे घर पर तिरंगा लहरा रहा है, और घर में सबको यह फिक्र है कि बड़े भाई ‘दिल्ली में हैं’ कहा जाए या ‘दिल्ली में थे’ कहा जाए ? क्या यह प्रश्न भी उतना ही बड़ा सत्य नहीं है, जितना बड़ा सत्य यह है कि कल पाकिस्तान बन गया और आज भारत स्वतंत्र हो गया है ?....और आज का सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि मैं आज बहुत खुश हूँ और बहुत परीशान भी।

(वहशत अंसारी की डायरी का एक पन्ना)

अ पर ओ की मात्रा

मुस्लिम ऐंग्लो वर्नाक्युलर हाई स्कूल’ का नाम बदलकर ‘मुस्लिम ऐंग्लो हिंदुस्तानी हायर सेकेंड्री स्कूल’ रख दिया गया। पुराना टिनवाला बोर्ड उतर गया और दीवार पर सीमेंट के शब्दों से यह नया नाम लिख दिया गया, ताकि शहरवालों को मालूम हो जाए कि यही नाम अब मुस्तक़िल हो गया है।यह फ़ैसला बहुत सोच-विचार के बाद किया गया था। स्कूल की वर्किंग कमेटी के प्रेसिडेंट श्री हयातुल्लाह अंसारी ने कमेटी के दूसरे लोगों को बहुत देर तक समझाया कि देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद ‘वर्नाक्युलर’ बहुत बुरा लगेगा, और सरकार को खुश करने के लिए ‘वर्नाक्युलर’ की जगह ‘हिदुस्तानी’ कर देना आवश्यक है। कमेटी के एक मेंबर श्री वजीर हसन ने प्रश्न उठाया कि ‘हिंदुस्तानी’ तो ठीक, लेकिन जब स्कूल में हायर सेकेंड्री तक पढ़ाई नहीं होगी, तो ‘हायर सेकेंड्री’ का दुमछल्ला क्यों लगाया जाए ? परंतु हयातुल्लाह अंसारी के पास हर सवाल की तरह इस सवाल का जवाब भी तैयार था। बोले :‘‘आप लोग भी कमाल करते हैं। कांग्रेस सरकार को चूतिया बनाने का यही मौका है। बलवों में इतने मुसलमान मारे जा रहे हैं कि बलवों के बाद सरकार मुसलमानों को फुसलाना शुरू करेगी। ओही लपेट में ई इस्कूलों हायर सेकेंड्री हो जइहै।’’परंतु वज़ीर हसन भी चूकनेवाले नहीं थे। बोले :तो ऐसा क्यों न किया जाए कि इस्कूल का नाम मुस्लिम ऐंग्लो हिंदुस्तानी युनिवर्सिटी रख दिया जाए ! शहर में कोई युनिवर्सिटी है भी नहीं। सरकार सोचेगी, चलो नाम पहले से मौजूद है, तो युनिवर्सिटी खोल ही दिया जाए।’’श्री हयातुल्लाह अंसारी ने अपनी गाँधी टोपी को सिर पर ठीक से जमाते हुए वज़ीर हसन की तरफ़ देखा। वह अपनी टोपी और वज़ीर हसन दोनों ही से खुश नहीं थे।बात यह है कि वह और वज़ीर हसन दोनों ही साथ-साथ मुस्लिम लीग में शामिल हुए थे। वजीर हसन बड़ी ही जोशीली तकरीरें किया करते थे। श्री अंसारी को भाषण के ख़याल ही से कँपकँपी लग जाया करती थी। नतीज़ा यह हुआ कि वज़ीर हसन मुस्लिम लीग की ज़िला कमेटी के सेक्रेट्री हो गए और अंसारी साहब सिर्फ नायब सदर बन सके ! नायब सदर कहने में तो सेक्रेट्री से भला लगता है, परंतु नायब सदर की हैसियत ही क्या ! सदर न हो तो नायब सदर को मौका मिले। और ऐसा कभी होता ही नहीं था कि सदर न हो।जिला कमेटी के सदर श्री गुलाम मुहम्मद उमर थे। यह ज़िला कमेटी के सदर और गुलाम मुहम्मद उमर होने के साथ-साथ हाजी भी थे-और दौलतमंद भी तंबाकू और गुलाब-जल का कारोबार करते थे; जबकि श्री हयातुल्लाह अंसारी एम-ए., एल.एल.बी. (अलीगढ़) केवल एक वकील थे, जिनकी वकालत किसी तरह चलती ही नहीं थी। अड़ियल टट्टू की तरह थान ही पर हिनहिनाया करती थी। और ईमान की बात तो यही है कि अंसारी मुसलमान जमींदारों को फाँसने के लिए ही मुस्लिम लीग में आए थे। और हुआ भी यही। मुस्लिम लीग में आते ही उनकी वकालत चल निकली। बाबू चंद्रिका प्रसाद और बशीर हसन आबदी-जैसे वकील धरे रहे गए। जमींदारों को यह तो बहुत बाद में मालूम हुआ कि मुक़दमा इस लीगी इस्लाम से बड़ा होता है। परंतु इस बीच में वह ज़िला बार अशोसिएशन के नायब सदर भी हो गए। और उन्होंने काज़ीटोले में एक पक्का मकान भी बनवा लिया। और इसी झटके में उनकी बड़ी लड़की की शादी भी एक बड़े अच्छे घर में हो गई। बड़ा बेटा अपना मज़े में अलीगढ़ में पढ़ रहा था और शायरी कर रहा था। मुस्लिम लीग के जलसों में नज़्में सुना-सुनाकर वह ख़ासा मशहूर भी हो गया था और मुशायरों में बुलाया जाने लगा था और उसने बड़े-बड़े शायरों की ऐसी-तैसी कर रखी थी ! हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर अपनी बड़ी लड़की से उसका ब्याह करना चाहते थे...बहशत अंसारी का बाप होना कोई मामूली बात नहीं है साहब...ग़रज़ कि श्री अंसारी के जीवन में हर तरफ़ खैरियत-ही-खैरियत थी..फिर भी एक दुख था कि लीडरी वज़ीर हसन ही कर रहा था। और लीडरी वज़ीर हसन इसलिए कर रहा था कि उसे भाषण देना आता था। और इसीलिए वह ज़िला कमेटी का जनरल सेक्रेट्री हो गया और वह नायब सदर के नायब सदर रह गए। जब भी कोई ‘आल इंडिया लीडर’ आता तो वह वज़ीर हसन ही से बातें करता; क्योंकि ज़िला कमेटी के सदर हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर तो एक अँगूठा-टेक व्यापारी थे। वह सुर्ती और चोट के भाव पर बातें कर सकते थे। पाकिस्तान के बारे में तो उन्हें केवल यह मालूम था कि क़ायदे-आज़म कर रहे हैं तो कोई अच्छी ही चीज़ होगी।वज़ीर हसन ने हाजी साहब को एक और पते की बात भी समझा रखी थी। वह बात यह है कि पंजाब के लोग बहुत हुक्का पीते हैं। इसलिए जब लाहौर में उनकी दुकान पर यह बोर्ड बनेगा कि ‘हाजी गुलाम’ मुहम्मद उमर ताजिर तंबाकू कशीदनी व खुर्दनी व अर्क-ए-गुलाब (ग़ाजीपुरवाला) साबिक सदर जिला कमेटी आल इंडिया मुस्लिम लीग, ग़ाजीपुर’ तो कारोबार चमक जाएगा। यह बात हाजी साहब की समझ में आ गई थी। और इसलिए पाकिस्तान एक तरह से उनका कारोबार भी हो गया था। वह जी-जान से पाकिस्तान बनवाने में लग गए थे। परंतु इसका मतलब यह तो नहीं था कि वह चौधुरी ख़लीक़ुज्जमाँ या महम्मदाबाद के राजा, या साहबज़ादा लियाक़त अली खाँ से बातें भी कर सकें। तो सदर जिला कमेटी यों गए और नायब और एम.ए.,एल.एल.बी. (अलीगढ़) होने के बावजूद बोलने में ज़रा कमजोर पड़ते थे। खड़ी बोली में बात शुरू करते और दो-चार जुमलों के बाद भोजपुरी उर्दू पर उतर आते। इसलिए जब मुस्लिम लीग के आल इंडिया लीडर आते (चाहे वह लार के ज़हीरूद्दीन ही क्यों न हों !) तो उनसे बातें करने के लिए एंट्रेंस पास वज़ीर हसन ही आगे बढ़ाए जाते और श्री अंसारी दिल मसोसकर रह जाते। फिर भी श्री अंसारी के दिल में एक अरमान कुलबुलाया करता था कि वह किसी कमेटी या संस्था के सदर हो जाएँ। तो साहब खुदा का करना ऐसा हुआ कि सन बयालीस में यह अवसर भी आ गया। मुस्लिम लीग ने ‘मुस्लिम ऐंग्लो वर्नाक्युलर हाईस्कूल’ पर क़ब्ज़ा कर लिया। खानबहादुर शेख सुबहानुल्लाह बर्क़ जौनपुरी’1 निकाल दिए गए। सदर की जगह खाली हो गई। वज़ीर हसन अपनी गोटियाँ फैला चुके थे। उन्हें एक सदर की ज़रूरत थी। श्री हयातुल्लाह अंसारी से अच्छा सदर भला उन्हें और कौन मिलता...और श्री हयातुल्लाह अंसारी का अरमान पूरा हो गया।------------------------------- 1.श्री हिम्मत जैनपुरी के दादा।श्री हयातुल्लाह अंसारी बेचारों ने कभी सोचा भी नहीं था कि पाकिस्तान वाक़ई बन जाएगा। उनका तो यह ख़याल था कि अंग्रेज जानेवाला ही नहीं है। सर सैयद अहमद खाँ से लेकर श्री हयातुल्लाह अंसारी तक बहुत-से मुसलमान बुद्धिजीवियों का यही ख़याल था कि ब्रिटिश सरकार का सूर्य अस्त होने के लिए नहीं निकला है। और इसीलिए उनके तमाम सपनों का आधार यही झूठा सच था। जो श्री हयातुल्लाह अंसारी को ज़रा भी यकीन होता कि पाकिस्तान बन जाएगा, तो वह उन बयानों पर कभी दस्तख़त न करते, जो उनके नाम से लीग की अंग्रेज़ी और उर्दू की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे !श्री अंसारी के पास एक स्क्रैप-बुक थी। उस स्क्रैप-बुक में उनकी तमाम तसवीरों और बयानों के तराशे चिपके हुए थे। वह अकसर उन बयानों को पढ़कर खुश हुआ करते थे...जबकि उनके तमाम बयान वज़ीर हसन के लिखे हुए हुआ करते थे। वह गर्दन झिटकते-वज़ीर के सिवा और कौन जानता है ? नाम तो मेरा ही छपता है। यह तसवीर किसकी है ? वज़ीर हसन की या उसके बाप की...‘‘आगे चलकर आलीजनाब मौलवी हयातुल्लाह साहब अंसारी, एम.ए., एल.एल.बी (अलीगढ़), नायब सदर मुस्लिम लीग जिला ग़ाज़ीपुर ने हमारे मख़सूम नामा-निगार को बताया कि गांधी एक बगला भक्त है। ऊपर से कुरान पढ़ता है मगर कट्टर मुसलमान-दुश्मन है। और जवारलाल एक बहरूपिया है; और हमें सियासत का नाटक दिखला रहा है...’’इस प्रकार के अनगिनत बयान थे। इन्हें पढ़कर श्री अंसारी आराम से सो जाया करते थे।...सन् पैंतालीस के चुनाव में मुस्लिम लीग की जीत के बाद भी उन्हें यह खयाल नहीं आया कि पाकिस्तान बनने ही वाला है।परन्तु जब पाकिस्तान बन गया तो यह ख़याल उन्हें भिड़ की तरह चिमट गया कि पाकिस्तान बहुत दूर बना है और उन्हें गांधी और नेहरू के हिंदुस्तान में ही रहना है। उनकी स्क्रैप-बुक उन्हें डरावने सपने दिखाने लगी।...अब मैं किसी को कैसे समझाऊँगा कि ये बयान वास्तव में वज़ीर हसन के हैं...बहनचोद क्या यह तस्वीर भी व़जीर बसन की है !...और इसीलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद उन्हें वज़ीर हसन से नफ़रत हो गई। और एक दिन उन्होंने अपनी क़राक़ुली जिन्ना टोपी अपने नौकर को दे दी। यह टोपी उन्होंने बड़े चाव से खरीदी थी। परंतु उन्हें नंगे सिर रहने की आदत नहीं थी। तो एक दिन वह श्री गांधी आश्रम से एक गांधी टोपी खरीद लाए और दो-चार दिन के बाद बनारस के एक समाचार-पत्र में उनका एक बयान छपा था कि भारत के मुसलमानों को कांग्रेस में चला जाना चाहिए। पाकिस्तान एक गलती है...खादी के कपड़े पहनने में उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी। परंन्तु चारा ही क्या था ? वज़ीर हसन के लिखे हुए बयानों पर दस्तख़त करने की सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी ना !उन दिनों कांग्रेस वाले भी कुछ जल्दी में थे। उन्हें पता था कि चुनाव में उन्हें मुसलमान वोटों की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए उन्होंने धड़ाधड़ पुराने मुस्लिम लीगियों को शहर कमेटी, ज़िला कमेटी, अल्लम कमेटी और ग़ल्लम कमेटी में भरना शुरू कर दिया। और इसी झटके में श्री हयातुल्लाह अंसारी के घर का बोर्ड उतर गया और एक नया बोर्ड बनाया गया, जिस पर ‘मौलवी’ की जगह ‘श्री’ लिखा गया। ‘नायब सदर ज़िला मुस्लिम लीग’ की जगह ‘नायब सदर ज़िला कांग्रेस कमेटी’ लिखा गया। ‘लीग’ मिटाया तो नहीं गया, परंतु अक्षर बहुत छोटे कर दिए गए।वज़ीर हसन ने यह बोर्ड देखकर कहा :‘‘अरे भई ! साबिक़ मौलवी और साबिक नायब सदर साबिक आल इंडिया मुस्लिम लीग भी लिखा लेते तो ज़्यादा रोब पड़ता।’’यह सुनकर बेचारे श्री हयातुल्लाह खिसियाने के सिवा और कर ही क्या सकते थे। चुनाँचे वह खिसिया लिए। उनकी खिसियाहट देखकर वज़ीर हसन ने कहा :‘‘मैं कांग्रेसी नहीं बनूँगा। बाकी तुम फिक्र न करो। तुम्हारे बयान लिख दिया करूँगा। ‘आज’ में जो तुम्हारा बयान निकला है, वह बहुत चूतियापे का है।’’वज़ीर हसन ने बहुत कड़वी बात कही थी। परंतु श्री अंसारी उसे अपने क़हक़हे के वरक़ में लपेटकर जल्दी से निगल गए।... कांग्रेस में चले जाने के कारण वज़ीर हसन से उनकी जान बच गई थी। और जभी उन्हें ख़याल आया कि स्कूल का नाम बदलकर वज़ीर हसन को जलील करना चाहिए। उनके दिमाग में कई नाम आए...‘‘सुभाश मिमोरियल हायर सेकेंड्री’ पर उनका जी जम गया। यदि ‘ओल्ढम लायब्रेरी’ का नाम बदलकर ‘सुभाश पुस्तकालय’ रखा जा सकता है तो ‘ऐंग्लो वर्नाक्युलर’ की जगह ‘दी मुस्लिम शुभाश मेमोरियल हायर सेकेंड्री स्कूल’ क्यों नहीं रखा जा सकता ! तो वज़ीर हसन ने उन्हें वह लतीफ़ा सुनाया कि जब ओल्ढम लायब्रेरी का नाम बदला जा रहा था, तो म्युनिसिपल बोर्ड के एक मेंबर ने जलकर यह प्रस्ताव रखा कि ‘कर्नवालिस टोंब’ का नाम बदलकर ‘सुभाश समाधी’ रख दिया जाए।यह सुनने के बाद श्री अंसारी यह प्रस्ताव नहीं लाए। और तब वह ‘हिंदुस्तानी की कौड़ी लाए। और वज़ीर हसन ने इसे झेल लेने का फैसला कर लिया।...तो नाम बदल दिया गया। ‘ऐंग्लो वर्नाक्युलर’ की जगह ‘ऐंग्लो हिंदुस्तानी’ रख दिया गया। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि ‘ऐंग्लो हिंदुस्तानी क्या होता है...परंतु जब श्री अंसारी ने दूसरा प्रस्ताव रखा तो क़यामत आ गई। प्रस्ताव यह था कि हिंदी के पंडित श्री गोबरधन ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की तनख़्वाह वढ़ा दी जाए। यानी उन्हें उतनी ही तनख़्वाह दी जाने लगे, जितनी उनके नाम चढ़ती है।...वज़ीर हसन ने इस प्रस्ताव का बहुत डटकर विरोध किया। सच पूछिए तो वज़ीर ने इतना डटकर विरोध किया कि कमेटी के दूसरे मेंबरों को डर लगने लगा कि कहीं रामधनी चपरासी न सुन ले ये बातें। हालाँकि वह बेचारा दफ़्तर से दूर दालान के एक कोने में बैठा सुर्ती मल रहा था।भला रामधनी को स्कूल के नाम और श्री गोबरधन ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की तनख़्वाह में क्या दिलचस्पी हो सकती थी। वह तो एक खानदानी चपरासी था। उसका ताया ज़िलाधीश का पंखा-कुली था। जाड़ों में गाँव जाकर ज़मींदार की चिलमें भर-भरकर दिन काट आया करता था। उसका बड़ा भाई सैदपुर तहसील के नायब तहसीलदार का चपरासी और तहसीलदारनी की नाक का बाल था। कभी आता तो अपनी तहसीलदारनी के बड़े किस्से सुनाता।..नायब साहब तो गाँडू हैं।...बाकी मेहरारू ग़ज़ब की बाय...यह कहानियाँ सुनते समय रामधनी को यह ख़याल सताता रहता था कि ‘ग़ज़ब की कोई मेहरारू’ आखिर उसके हिस्से में क्यों नहीं आती।....उसे श्री अंसारी की बड़ी लड़की शम्सुन (असली नाम शम्सुन्निसा) बड़े ग़ज़ब की लगती थी। शम्सुन उससे चार-पाँच साल बड़ी थी। रामधनी जब बड़ा नहीं हुआ था, तो चपरासी के लड़के की हैसियत से अंसारी साहब के घर आया-जाया करता था। उसे नहीं मालूम कि वह ‘शम्सुन’ और इंगलिश टीचर बुख़ारी का डाकिया कैसे बन गया।...मगर सब टाएँ-टाएँ फिस हो गया। शम्सुन की शादी हो गई और बुख़ारी साहब की तरह वह भी टापता रह गया। अब वह अंसारी साहब के घर भी नहीं जाता; क्योंकि वह बड़ा हो गया है। बुख़ारी को डाकिए की जरूरत भी नहीं है; क्योंकि उन्हें मँझली बेटी बुतुल का ट्यूशन मिला और फिर श्री अंसारी ने बुख़ारी ही से बुतुल की शादी कर दी।...और उनकी छोटी बेटी शहरनाज़ उससे बहुत छोटी थी। स्कूल में बड़ी कानाफूसी चल रही थी कि श्री अंसारी बुख़ारी को प्रिंसिपल बनाना चाहते हैं !..कहने का मतलब यह है कि रामधनी को स्कूल के रगड़े में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शायद यह मालूम था कि देश गुलाम रहे या स्वतंत्र हो जाए वह चपरासी ही रहेगा।...वह तो केवल यह चाहता कि किसी लड़की को ख़त लिखे। चूँकि उसके ख़याल में प्रेम-पत्र उर्दू में लिखे जाते हैं (बुख़ारी-शम्सुन ख़तो-किताबत उर्दू ही में हुआ करती थी), इसलिए वह मोली साहब से, कि जिनका पूरा नाम मौलवी मुहम्मद बद्रुल हसन ‘वफ़ा’ फैज़ाबादी था, उर्दू सीख रहा था।...रामधनी का सारा समय तो उर्दू सीखने में बीत रहा था। तो उसे भला कहाँ फुरसत थी कि वह कमेटी में होनेवाली तक़रीरें सुनता।...परंतु कमेटी के लोगों को तो यह नहीं मालूम था न !‘‘अरे भई वज़ीर...’’ श्री अंसारी ने घबराकर कहा।वज़ीर हसन बोलते-बोलते पल-भर के लिए रुके। उन्होंने श्री अंसारी की तरफ़ बड़ी नफ़रत से देखा। बेचारे श्री अंसारी अपनी कुर्सी में सिकुड़ गए। वज़ीर हसन ने मेज़ पर इतने जोर से हाथ मारा कि गर्द की चादर में लिपटा हुआ कलमदान उछल पड़ा। यदि दवातों में रोशनाई रही होती तो अवश्य फैल गई होती। परंतु, वह तो खुदा भला करे अंग्रेजों का जिन्होंने फ़ाउंटेन-पेन बना डाला। कलमदान तो बाप-दादा की उन तसवीरों की तरह रह गए हैं, जिनमें वह तलवार लगाए अकड़कर बैठे दिखाई देते हैं !... ‘‘मैं पूछता हूँ कि बद्रुल हसन, और मास्टर अल्ताफ़, और शेख मोहीउद्दीन, और मास्टर जब्बार और मास्टर अतहर...’’वज़ीर हसन ने स्कूल के तमाम मास्टरों के नाम ले डाले और सवाल किया:‘‘....और यह जो प्रिंसिपल अलीमंजर वग़ैर हैं, इन्होंने क्या कसूर किया है कि इनकी तनख़्वाह न बढ़ाई जाएँ और गोबरधन ने कौन-सा ऐसा तीर मारा है कि उनकी तनख़्वाह बढ़ा दी जाए ? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह गोबरधन हैं तो एकदम से बड़े काबिल हो गए हैं, और दूसरे मास्टर चूँकि मुसलमान हैं, इसलिए चूतिए के पट्ठे हैं कि गाँड मराएँ और पढ़ाएँ ?’’ श्री हयातुल्लाह अंसारी ने सबकी तरफ बड़ी बेबसी से देखा और तब वह ख़ाली कलमदान को देखते हुए बोले:‘‘इसका तो ख़्याल करो वज़ीर, कि हम लोग एक स्कूल की वर्किंग कमेटी हैं। गाली तो न बको।’’‘‘गाली न बकूं तो कुरान पढ़ूँ ! तुम लोगों का दोगलापन देखकर मेरी झाँट सुलग जाती है।’’वज़ीर ने कमेटी के मेंबरों की तरफ बड़ी हिकारत से देखा। फिर उसने अपनी जिन्ना टोपी ओढ़ी और खड़ा हो गया:‘‘हाई स्कूल की बत्ती बनाकर अपनी गाँड़ में रख ल्यो हयातुल्ला ! अब ई स्कूल नहीं रह गया है। ई कोठा है जेपर हमलोगन की गैरत रंडियन की तरह बैठके पेशा कर रही है। सलामआलेकुम।’’वज़ीर हसन कमेटी के कमरे से बाहर निकल गया। कमेटी के तमाम मेंबर सन्नाटे में आ गए।श्री अंसारी ने थोड़ी देर बाद गला साफ करके कहना शुरू किया:‘‘तो यह तय किया जाता है कि बाबू गोबरधन प्रसाद ‘बेकल’ चिरैय्याकोठी की खिदमात को पेशे-नजर रखते हुए उनकी तनख़्वाह में इज़ाफा कर दिया जाए।...



मैं पाँच बरस से लगातार अपने-आपसे पूछ रहा हूँ...मैं कौन हूँ ? मेरी पहचान क्या है ? मेरी जड़े कहाँ हैं ? मुस्लिम लीगी होने का अर्थ क्या है आखिर... (वहशत अंसारी की डायरी)वज़ीर हसन और श्री हयातुल्लाह अंसारी में बड़ा फ़र्क था। श्री अंसारी पाकिस्तान बनवाकर पछता रहे थे और यह पछतावा उनकी आत्मा की सड़ी हुई दीवार में लोने की तरह लगता ही जा रहा था।वज़ीर हसन पाकिस्तान बनवाकर झल्ला रहे थे। इसलिए नहीं कि बलवों में बहुत मुसलमान मारे गए। क्योंकि बलवों में हिंदू भी बहुत-से, कुछ कम नहीं मारे गए थे। पाकिस्तान उनके लिए कोई सियासी चाल नहीं था बल्कि उनका विश्वास था। उन्होंने पाकिस्तान जाने के बारे में कभी नहीं सोचा। इसलिए नहीं कि वह अंसारी की तरह नेशनलिस्ट हो गए थे। इसलिए भी नहीं कि उन्हें इसका डर नहीं था कि बलवे में वह भी मारे जा सकते हैं। उनकी टेक यह थी कि वह अपना घर छोड़कर क्यों जाएँ।‘‘मैं पैगंबर नहीं हूँ कि हिजरत को फ़लसफ़ा बना लूँ।’’ बड़े बेटे ने जब पाकिस्तान जाने की जिद की तो उन्होंने उसकी आँखों में आँखे डालकर यह कह दिया, ‘‘मैं एक गुनहगार आदमी हूँ और उसी सरज़मीन पर मरना चाहता हूँ, जिस पर मैंने गुनाह किए हैं।’’ज़ाहिर है कि बेचारा अली बाकर इसका क्या जवाब देता। बाप का मुँह देखता रह गया। वज़ीर हसन मुस्कुरा दिए और बोले, ‘‘मियाँ, तुम नहीं समझोगे ये बातें। वह दीनदयाल जो अब बाबू दीनदयाल हो गया है ना, और जो मुसलमानों को हर वक़्त गालियाँ दिया करता है ना, मेरा लंगोटिया यार है। हम दोनों साथ अमरूद चुराने जाया करते थे। हम दोनों ने एक साथ कुँजड़ों की ‘‘मैं पूछता हूँ कि बद्रुल हसन, और मास्टर अलताफ, और शेख मोहीउद्दीन और मास्टर जब्बार और मास्टर अतहर...’’

असन्तोष के दिन -राही मासूम रजा



हिन्दी-उपन्यास-जगत में राही मासूम राजा का प्रवेश एक सास्कृतिक घटना जैसा ही था। ‘आधा-गाँव’ अपने-आप में मात्र एक उपन्यास ही नहीं, सौन्दर्य का पूरा प्रतिमान था। राही ने इस प्रतिमान को उस मेहनतकश अवाम की इच्छाओं और आकांक्षाओं को मथकर निकाला था, जिसे इस महादेश की जन-विरोधी व्यवस्था ने कितने ही आधारों पर विभाजित कर रखा है।
राही का कवि-ह्रदय व्यवस्था द्वारा लादे गये झूठे जनतन्त्र की विभीषिकाओं को उजागर करने में अत्यन्त तत्पर, विकल, संवेदनशील और आक्रोश से भरा हुआ रहा है। यही ह्रदय और अधिक व्यंजनाक्षम होकर ‘असन्तोष के दिन’ व्याप रहा है। आक्रोश और संवेदना की यह तरलता यहाँ मधुर गम्भीर राजनीतिक सवालों को पेश करती है, जिनकी आंच में सारा हिन्दुस्तान पिघल रहा है। राष्ट्र की अखण्डता और एकता, जातिवाद की भयानक दमघोंटू परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता का हलाहल, एक-से-एक भीषण सत्य, चुस्त शैली और धारदार भाषा में लिपटा चला आता है और हमें घेर लेता है। इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय, इनके उत्तर तलाश किये जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारन्टी नहीं रहेगी।
सारांश
शीला सन्धू के नाम जो वह लगातार डाँट न पिलाती रहतीं तो शायद मैं यह उपन्यास न लिख पाता
-राही मासूम रज़ा
इस कहानी में जो लोग चल-फिर रहे हैं, हँस-बोल रहे हैं, मर-जी रहे हैं, उन्हें अल्लाह मियाँ ने नहीं बनाया है; मैंने बनाया है। इसलिए यदि अल्लाह के बनाए हुए किसी व्यक्ति से मेरे बनाए हुए किसी व्यक्ति का नाम-पता मिल जाए तो क्षमा चाहता हूँ।
-राही मासूम रज़ा
भूमिका
यह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही
दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो ! आप, चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।

आकाशवाणी से अंग्रेजी में समाचार आ रहे थे कि सरकारी आँकड़ों के अनुसार भिवण्डी, थाणे, कल्याण और बम्बई महानगरी में कुल मिलाकर अब तक 151 आदमी मारे जा चुके हैं। फ़ात्मा ने लुक़्मा दिया ! एक सिफ़र और बढ़ा लो, कम-से-कम। किसी ने फ़ात्मा की बात का जवाब नहीं दिया। सबने उसकी तरफ़ देखा ज़रूर। शायद सब फ़ात्मा से सहमत थे। 37 वर्षों का यह अनुभव था कि इन मामलों में सरकारी आँकड़े हमेशा गलत होते हैं। यूँ भी आकाशवाणी पर से जनता का भरोसा कब का उठ चुका था। समाचारों के शौकीन तो बी।बी।सी। सुनते हैं। साहब आप कुछ कहें; अंग्रेज झूठ नहीं बोलता ! और लन्दन से कल साढ़े-बारह बजे रात को रेवती का फ़ोन आया था। ‘‘अब्बास भाई, मैं रेवती बोल रहा हूँ।’’ ‘‘अरे कब आए ?’’ ‘‘आया कहाँ। लन्दन से बोल रहा हूँ।’’ अब अब्बास घबराया कि इतनी गई रात को रेवती ने लन्दन से क्यों फ़ोन किया ?‘‘सलमा कैसी है ?’’ अब्बास ने पूछा। सलमा उसकी छोटी बहन का नाम था। और जब सलमा-रेवती इश्क़ की ख़बर का बम फूटा और उसके ख़ानदान की नौ सौ बरस पुरानी दीवारें हिल रही थीं और घर में कुहराम मचा हुआ था और अब्बास ने चुप साध ली थी और अड़ोस-पड़ोस तक की बड़ी बूढ़ियाँ सलमा के मरने की दुआएँ माँग रही थीं, तब उसने चुपचाप रेवती से सलमा की शादी करवा दी थी कि मज़हब का इश्क़ों से क्या लेना-देना। कहते हैं, इश्क़ नाम के गुज़रे हैं एक बुजुर्ग हम लोग भी मुरीद उसी सिलसिले के हैं उसके लिए इश्क़ सबसे बड़ा था और जहाँ तक इश्क़ का सवाल है, अब्बास जानता था कि इश्क़ पोस्टल ऐडरेस नहीं पूछता पर वह हमेशा ठीक पते पर पहुँच जाता है। अगर ख़ानदान में उसकी माली हालत सबसे अच्छी न रही होती तो शायद वह कुज़ात कर दिया गया होता। पर सभी को उसके पैसों की ज़रूरत थी। इसलिए अब्बा के सिवा सभी खून के घूँट पीकर चुप हो गए। बड़ी बाजी ने गुस्से में उसके लिए एक नया स्वेटर बुनना शुरू कर दिया। बाजी ने गुस्से में उसके साथ जाने के लिए चने का हलवा पकाना शुरू कर दिया और हैदरी फूफी गुस्से में उसके लिए इमाम ज़ामिन तैयार करने लगीं... बाद में सब मिले। बस सलमा नहीं मिली। क्योंकि वह शादी के बाद ही लन्दन चली गई। वह हर साल आने का प्रोग्राम बनाती और वह प्रोग्राम गड़बड़ हो जाता और अब तो उसकी बड़ी बेटी तसनीम सत्रह साल की हो चुकी है और उर्दू नहीं जानती। बोल लेती है पर लिख-पढ़ नहीं सकती। सलमा को इसका दुःख भी था। उसने एक ख़त में लिखा था :‘‘मँझले भाई, कमबख्त किसी तरह उर्दू सीखने पर तैयार नहीं होती। तहसीन माशा अल्लाह से कलामे-पाक भी पढ़ी रही है और उर्दू भी...’’ तहसीन उसकी दूसरी बेटी का नाम था जो अब शायद पन्द्रह साल की होगी... ‘‘अरे चुपचाप रिसीवर लिये दीवार को क्या देख रहे हो ?’’ सैयदा की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। लन्दन से सलमा की रुआँसी आवाज़ आ रही थी... ‘‘मैं तो बी।बी।सी। पर बलवों की तस्वीरें देखते ही रोने लगी कि अल्लाह मँझले भाई भी तो बान्द्रे में हैं...’’ ‘‘बलवा बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’ ‘‘आपकी बान्द्रा ईस्ट में हो रहा है।’’ ‘‘आपकी तरफ़ सब ख़ैरियकत है ना...’’ टी।वी। पर महदी हसन के प्रोग्राम का कैसेट शुरू हो गया। देख तो, दिल कि जाँ से उठता है, यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है। ‘‘अरे भई ज़रा आवाज़ दबाव।’’ अब्बास ने झल्लाकर कहा। ‘‘जी !’’ उधर से सलमा ने पूछा। ‘‘तुमने नहीं !’’ अब्बास ने कहा। ‘‘तसनीम और तहसीन कैसी हैं ?’’ ‘‘तसनीम तो अपने एक नीगरो फ्रेण्ड की बर्थ-डे पार्टी में गई है। ख़ाक़पड़ी को वह कलूटा ही पसन्द आया। मैंने तो साफ कह दिया कि होशों में रहो...।’’ दीवारों में दीवारें। साढ़े सत्तर बरस पहले मुहल्ला सैयदवाड़े की बड़ी-बूढ़ियाँ खुद सलमा के बारे में ऐसी बातें कह चुकी थीं...ख़ाक़पड़ी को वह मुआ हिन्दू ही पसन्द आया। ’66 और ’84-18 में सिर्फ़ एक शब्द बदला, ‘‘हिन्दू’ की जगह ‘कलूटा’ आ गया। सन् ’66 की क्रान्तिकारी सलमा ’84 तक आते जब 17 वर्ष की तसनीम की माँ बनी तो अतीत के दलदल में गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई। पड़ोस की अब्दुर्रहीम बो बन गई। अल्लाह ! उलटे पैरों की यह यात्रा कब ख़त्म होगी ! उधर से सलमा लगातार बोले जा रही थी-‘‘पर आपके चहेते रेवती के कानों पर तो जाने क्या अल्लाह की मार है कि बेटी की जबानी तक नहीं रेंगती। बैठे मुस्कुरा-मुस्कुरा के पाइप पिए जा रहे हैं। अर्ना भैंसे जैसा रंग, तवे में अल्ला ने आँख-नाक लगा दिया है। अच्छाई क्या कि मुआ क्रिकेट अच्छा खेलता है। मैंने तो गुस्से में आकर मुजतबा के बैट-वैट भी तोड़ डाले। यह सब परेशानियाँ क्या कम भीं थीं कि वहाँ बम्बई में बलवे भी शुरू हो गए। और बी।बी।सी। ने ऐसी खौफनाक तस्वीरें दिखलाईं, मँझले भाई कि मेरा तो दिल हिल गया। वह तो अल्ला भला करे रेवती का फोन लगा के थमा दिया...’’ टी।वी। पर अब ‘मक़सद’ चलने लगी थी। माज़िद वी।सी।आर। की कलें ऐंठ रहा था। सैयदा ने अपनी जगह से बैठे-बैठे डाँटा- ‘‘अरे मज्जू, अल्ला के वास्ते वी।सी.आर. पर रहम कर !’’ और राजेश खन्ना ने श्रीदेवी से पहली बुझाई: ‘‘पहले तो अरोड़ा-मरोड़ा, फिर थूक लगा के घुसेड़ा।’’ श्रीदेवी की समझ में यह पहेली नहीं आई तो उसने वह पहेली दुहारई। समझ में नहीं आई। अब राजेश खन्ना ने समझाया कि चूड़ी और चुढौरा। पहले कलाई मरोड़ता है। फिर थूक लगा के... अब्बास ने लाहौल पढ़कर हाथ बढ़ाया और टी.वी.बन्द कर दिया। ‘‘क्या हुआ ?’’ सलमा ने लन्दन से पूछा। ‘‘यहाँ बलवों से ज़्यादा ख़तरनाक एक फ़िल्म चल रही थी-‘मक़सद’। उसे बन्द कर दिया।’’ ‘क़ादिर ख़ाँ को क्या हो गया। मँझले भाई ! छी छी ! इतने गन्दे और बेहूदा डॉयलाग। सेंसरवालों ने यह फ़िल्म अफ़्यून के नशे में देखी थी क्या !’’ ‘‘पता नहीं पर राजेश खन्ना की पहेली में ज़बान की ग़लतियाँ हैं, सुई में धागा, थूक लगा के घुसेड़ा नहीं जाता, पिरोया जाता है। डाला जाता है। और यह...’’ ‘‘ऐ खाक डालिए मुए पर,’’ सलमा ने कहा, ‘‘तहसीन ने कहा, ‘‘तहसीन को हिन्दी फ़िल्में देखने का बड़ा शौक है। मैंने कहा यह अक़सद-मक़सद-जैसी फ़िल्में नहीं चलेंगी घर में। ‘आक्रोश’ देखो। ‘अर्धसत्य’ देखो। ‘खण्डहर’ देखो। ‘सारांश’ देखो...’’‘‘क्या ‘सारांश’ का कैसेट आ गया ?’’ ‘‘मुद्दत हुई। मुझे तो वह घाटन हतंगड़ी अच्छी नहीं लगी। कस्तूरबा बनने का नशा उतरा नहीं। इतराती ज्यादा है। ऐक्टिंग कम करती है और उर्दू बहुत ऐंठ-ऐंठ के बोलती है।’’ ‘‘उर्दू नहीं, हिन्दी।’’ अब्बास ने कहा।’’ ‘‘भाभी कैसी है ?’’ ‘‘उन्हीं से पूछा लो।’’ रिसीवर उसने सैयदा को दे दिया। माज़िद ‘मिली’ चला रहा था। मगर प्रिण्ट ख़राब था। जया भादुड़ी फुदक-फुदककर टैरेस पर बच्चियों के साथ कोई गाना गा रही थी। यकायक सलमा की किसी बात पर सैयदा खिलखिला के हँस पड़ी और अब्बास को लगा कि बम्बई में होनेवाले बलवों की ख़बर ग़लत है और यह खबर झूठी है कि ‘मक़सद’ हिट हो गई है। क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के हिट होने का मतलब यह है कि ऐडल्टरेटिड सिनेमा ने तो सिनेमा को पीछे धकेल दिया है। यह ज़हरीली शराब पीकर कितने लोग मरेंगे यह कौन सोचता है। मासिक ‘अदब’ के सम्पादक होने के नाते इस सिनेमा का विरोध करना क्या उसका कर्त्तव्य नहीं है ? कर्त्तव्य ! केवल एक शब्द ! अर्थ और शब्द के बीच...सो व्हाट ऐवरीबड़ी कम्प्रोमार ज़ेज।... फ़ात्मा की आवाज़ आई। झल्लाई हुई। अब्बास ने मुड़कर देखा। हमेशा की तरह फ़ात्मा और माज़िद में किसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी। ‘‘दैन यू आर ए फूल।’’ माज़िद बोला। ‘‘एण्ड यू आर ए डैम-फूल।’’ फ़ात्मा ने कहा। दोनों की निगाह उस पर पड़ी और दोनों हँसने लगे। माज़िद को बहस करने का बड़ा शौक था। लोग अगर अमरीका के तरफ़दार होते तो वह रूस का तरफ़दार हो जाता। लोग अगर यहूदियों की तारीफ़ करते तो वह हिटलर का भक्त तो जाता। अब्बास, माज़िद की तरफ़ देखकर दिल-ही-दिल में मुसकरा दिया वह खुद अब्बास का बचपन था। फ़र्क सिर्फ़ यह था कि माज़िद को इस उम्र में जितनी बातें मालूम थीं उतनी बातें अब्बास को उस उम्र में मालूम नहीं थीं। या तब शायद इतनी बातें ही न रही हों। ‘‘तुम लोग आख़िर हर वक़्त झगड़ते क्यों रहते हो ?’’ अब्बास ने कहा। ‘‘यही हर वक़्त लड़ती रहती हैं अब्बू।’’ माज़िद ने ख़बर दी. ‘‘लाइयर,’’ फ़ात्मा ने बयान दिया, ‘‘संगीता से लव नहीं चल रहा है तेरा...’’ ‘‘संगीता !’’ अब्बास, चकरा गया, ‘‘यह तो बिलकुल ही नया नाम है सैयद साहब !’’ ‘‘गोदरेजवाले मिस्टर शर्मा की बेटी है।’’ सैयदा ने ख़बर दी। ‘‘मगर तुम दोनों हमेशा अंग्रेजी में क्यों झगड़ते हो। उर्दू-हिन्दी में नहीं झगड़ सकते तो मराठी में झगड़ो।’’ ‘‘मराठी !’’ माज़िद गनगना गया, ‘‘आई हेट मराठी।’’ ‘‘वह क्यों भई !’’ ‘‘बिक़ाज ऑफ यह कि मराठी ने तो हाई स्कूल में मेरी पुज़िशन खराब की।’’ ‘‘औनली मराठीज़ ऐपियर ऑन द मेरिट लिस्ट।’’ फ़ात्मा ने फैसला सुना दिया। ‘‘ट्रांसलेट,’’ अब्बास ने कहा। ‘‘सिर्फ़ मराठियों के नेम्स...ओह हैल...नाम, मुझे नहीं मालूम कि मेरिट लिस्ट को हिन्दी-उर्दू में क्या कहते हैं।’’ ‘‘मुझे भी नहीं मालूम !’’ अब्बास ने कहा। फ़ात्मा खिलखिलाकर हँस पड़ी और गले में बाँहें डालकर प्यार करने के बाद बोली, ‘‘मैं सोने जा रही हूँ।’’ ‘‘ए मज्जू !’’ सैयदा ने फ़रियाद की, ‘‘खुदा के वास्ते यह ‘मिली-रिली’ बन्द करो, गोलमाल’ लगा दो।’’ माज़िद ने सुना ही नहीं। वह ‘वाकमैन’ पर उस्ताद अमीर अली खाँ का अहीर भैरव सुनने में लग चुका था। कानों पर ईअर फोन चढ़ा हुआ था। ख़ुद सैयदा भी कालीन पर लेटकर ‘सुषमा’ में छपी हुए तस्वीरें देखने लगी क्योंकि देवनागरी लिपि वह जानती नहीं थी। ‘‘यार एक हो जाए !’’ एकदम से अब्बास को प्यास लग गई। ‘‘कोई ज़रूरत नहीं,’’ सैयदा ने डाँटा, ‘‘कर्फ्यू यूँ ही लगी हुआ है।’’ वह हँस पड़ा, ‘‘कर्फ्यू को चाय से क्या लेना-देना भई !’’ दरवाज़े से पीठ लगाए जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर बाक़ायदा रोता हुआ राम मोहन उठ खड़ा हुआ।अब्बास देख सकता था कि राम मोहन दिल मारके चाय बनाने उठ रहा है कि वह अभी जया भादुड़ी और अशोक कुमार के सीन पर और रोना चाहता है। ‘‘यौर अभिताभ इज ए हैम,’’ फ़ात्मा की आवाज़ आई। अब्बास ने देखा कि फ़ात्मा और माज़िद में ‘वॉकमैन’ के लिए खींचातानी हो रही है। ‘‘नो’’, मज्जू दहाड़ा, ‘‘तुम्हारे दिलीप कुमार को फटका लगा दिया उसने ‘शक्ति’ में।’’ और फिर वह अब्बास की तरफ़ मुड़ा, ‘‘अब्बू आप बताइए। ‘मजदूर’ और ‘मशाल’ में दिलीप कुमार ने क्या किया है ?’’ ‘‘हगा है।’’ अब्बास ने कहा। ‘‘छी अब्बू !’’ फ़ात्मा हँसते हुए उसे मारने लगी, ‘‘और अमिताभ ने ‘महान’ और ‘इंक़लाब’ और ‘कुली’ में क्या किया है ?’’‘‘सुद्दे गिराए हैं, काँख-काँख के।’’ अब्बास ने कहा। ‘‘भई मुझे ‘शुश्मा’ पढ़ने दो।’’ सैयदा ने कहा। ‘‘माँ,’’ मज्जू ने आवाज़ा फेंका, ‘‘तुम तो हिन्दी को सिर्फ़ देख सकती हो।’’ सैयदा ने करवट ली तो पण्डित नेहरू की आटोग्राफ की हुई तस्वीर मेज़ से नीचे गिर पड़ी। इस तस्वीर में सैयदा की जान थी। तब वह चार साल की थी। उसके पिता सैयदा अली अमीर अली यू.पी. में मिनिस्टर लगे लगे हुए थे। पण्डितजी के चहेते थे। पण्डितजी लखनऊ आए हुए थे तो उसकी सालगिरह की पार्टी में दस मिनट को आ गए थे।यह तस्वीर तभी की थी। पण्डित जी उसे केक खिला रहे थे। ज़ाहिर है कि कोई उस तस्वीर की सैयदा को नहीं पहचानता था। जो उस तस्वीर को देखता यही पूछता कि यह कौन बच्ची है जो पण्डितजी के हाथ से केक खा रही है और सैयदा बड़े अन्दाज़ से कहती कि यह वह है ! यह कहते वक़्त उसका चेहरा खुशी से तमतमा जाता जैसे इस तस्वीर की वजह से वह हिन्दुस्तान के इतिहास का एक हिस्सा बन गई हो। और इसी तस्वीर के कारण सैयदा श्रीमती गांधी पर भी दिल-ही-दिल में एक अधिकार जमाए हुए थी। वह उनकी हर उलटी-सीधी बात का समर्थन करती। हद तो यह है कि वह इमरजेंसी का भी बचाव करती थी और श्रीमती गांधी पर उसका अटल भरोसा तब भी नहीं डिगा जब इमरजेंसी के दिनों में एक रात पुलिस आकर उसके पति को भी पकड़ ले गई। इल्ज़ाम यह था कि वह सरकार का तख़्ता उलटने-पलटने की कोशिश कर रहा है। इश्क़िया शायरी करनेवाला और मासिक ‘अदब’ निकालनेवाला अब्बास संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र का तख्ता उलटने की कोशिश कर रहा है। जबकि अब्बास ने सिर्फ़ इतना गुनाह किया था कि उर्दू पत्रकारों की सभा में उसने इमरजेंसी के पक्ष में वोट नहीं दिया था। जनता सरकार बन जाने के बाद अब्बास छूटा। घर आया तो उसने देखा कि सैयदा कमरे की झाड़-पोंछ में लगी हुई है। आहट पर वह मुड़ी। अब्बास को देखकर वह खिल उठी। उसने लपककर उसके गाल चूमे। इधर-उधर की बातें करने लगी। वह जेल की बात करना नहीं चाहती थी। उसके दिल के एक कोने में पानी भर रहा था कि श्रीमती गांधी ने उसके अब्बास को जेल भेज दिया था। पर अब्बास ने देखा कि वह तस्वीर अपनी जगह पर है और कट ग्लास के एक पतले-से गुलदान में गुलाब का एक फूल लम्बी-सी डण्ठल से झुककर पण्डितजी का मुँह चूम रहा है। इसीलिए जब उसने देखा कि उस तस्वीर के गिरने का सैयदा पर कोई असर नहीं हुआ तो उसे बड़ी हैरत हुई।‘‘मदर !’’ मज्जू ने ईयरफोन कान से हटाते हुए कहा-‘‘योर पण्डितजीज़ी फोटोग्राफ !’’ मगर इससे पहले कि सैयदा कोई जवाब देती, एक ज़बरदस्त धमाका हुआ-उसके फ़्लैट की खिड़कियों के शीशे काँप उठे। फिर लोगों के चीखने-चिलाने की आवाज़ आने लगी और फिर गोलियाँ चलने लगीं। रात के ढाई बज रहे थे। बाहर हंगामा था और सैयद अली अब्बास, सम्पादक मासिक ‘अदब’ के फ़्लैट में सब चुप थे। टी.वी. पर ‘मिली’ ख़त्म हो रही थी। हवाई जहाज़ उन्हीं सितारों में गुम रहा था, जिन सितारों में ‘मिली’ को बड़ी दिलचस्पी थी। राम मोहन चाय लेकर आ गया।
‘‘तुम पी जाव !’’ अब्बास ने कहा है। ‘‘यह बम तो मदीना मंजिल में फटा है,’’ सैयदा ने कहा, ‘‘खुदा ग़ारत करे इन हिन्दुओं को।’’ वह उठकर बैठ गई। ‘‘एक प्याली चाय मेरे लिए बना लाव,’’ उसने राम मोहन से कहा, ‘‘और सुन ! कल अपनी बीबी और बच्ची को कर्फ्यू उठते ही उस झोपड़पट्टी से यहाँ उठा ला ! क्या पता वहां, कब क्या हो जाए।’’ ‘‘जी बीबीजी !’’ राम मोहन उसके लिए चाय बनाने चला गया। मज्जू ने उठकर टी.वी. और वी.सी.आर. को बन्द कर दिया। बाहर गोलियों की आवाज़ बन्द हो चुकी थी। डरे हुए लोगों के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं और कहीं दूर से आते हुए फ़ायर ब्रिगेड़ की घण्टियाँ बज-सी रही थीं। और खुली खिड़की से नारियल के पेड़ में अटका हुआ चाँद दिखाई दे रहा था।
वक़्त ने ऐसा पेच लगाया, टूटी हाथ से डोर, आँगनवाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद। हम सभी कटी हुई पतंग की तरह आँगनवाला नीम का पेड़ ढूँढ़ रहे हैं क्योंकि हम क्षेत्रवादी दंगों में घिरे हुए हैं और कुछ लोग हमसे यह कह रहे हैं कि बम्बई हिन्दुस्तान में नहीं महाराष्ट्र में है। अब्बास ने बेख़याली में पास पड़ी हुई किताब उठा ली। वह वाहिद की भूगोल की किताब निकली। पहले ही पन्ने पर भारतवर्ष का एक रंगीन नक्शा था। ‘‘यार सैयदा यह किताब ग़लत है,’’
उसने कहा, ‘‘महाराष्ट्र को हिन्दुस्तान में दिखा रही है।’’ ‘‘पुराना ऐडीशन होगा।’’ सैयदा ने कहा। और कमरे में सन्नाटा हो गया।

























नीम का पेड़

‘‘मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरतों की आग में मोहब्बत के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी।...और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार। हिन्दुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया। जिसने राज को कभी सु-राज नहीं होने दिया। जिसे हम रोज़ झंडे और पहिए के पीछे ढूँढते रहे कि आख़िर उसका निशान कहाँ है ? गाँव मदरसा खुर्द और लछमनपुर कलाँ महज दो गाँव-भर नहीं है और अली ज़ामिन खाँ और मुसलिम मियाँ की अदावत बस दो ख़ालाज़ाद भाइयों की अदावत नहीं है। ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती है, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है। बस, बाकी रह जाता है नफरत का एक सिलसिला...
‘‘सच-सच बताऊँ तो मैं न लछमनपुर कलाँ को जानता हूँ और न ही मदरसा खुर्द को और अली ज़ामिन खाँ, मुसलिम मियाँ नाम के उन दो ख़ालाज़ाद भाइयों को तो बिल्कुल ही नहीं। हो सकता है यह सब उस नीम के पेड़ की कोरी बकवास हो जो उसने मुझे सुनाई और मैं आपको सुनाने बैठ गया।
‘‘मैं तो शुक्रगुज़ार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा है और आज़ादी के सपनों को टूटते हुए भी देखा है। उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है।’’

लेखकीय

इससे पहले की आप कुछ समझें, मैं आपको बता दूँ इस कहानी से मेरा कोई तआल्लुक नहीं है। यकीन मानिए दूर-दूर तक नहीं है। मैं तो सिर्फ़ एक लेखक हूँ और लेखक होने का धर्म निभा रहा हूँ। बस एक माध्यम भर हूँ। असली कहानी तो नीम के पेड़ की है और उसकी भी क्या है ? बीसवीं शताब्दी के तो एक बहुत बड़े लेखक ने लिख दिया था कि दुनिया बनाते वक़्त उसे बनाने वाले ने एक कहानी लिख दी थी। बस हम सब अपने-अपने दौर में अपने-अपने ढंग से उसे लिखते रहते हैं।
सच-सच बताऊँ तो मैं न लछमनपुर कलाँ को जानता हूँ और न ही मदरसा ख़ुर्द को और अली ज़ामिन खाँ, मुसलिम मियाँ नाम के उन दो ख़ालाज़ाद भाइयों को तो बिल्कुल ही नहीं। हो सकता है यह सब उस नीम की पेड़ की कोरी बकवास हो जो उसने मुझे सुनाई और मैं आपको सुनाने बैठ गया। वर्ना नफरत और बेकली की ऐसी कहानियों में मेरी कोई दिलचस्पी क्यों होगी भला। मैं तो लेखकों की उस ज़मात का हूँ जो मानते हैं कि लेखक या अदीब का काम दुनिया में अमन फैलाना है। उसका काम मोहब्बत के ऐसे अफ़साने गढ़ना है, जिसे पढ़ते ही लोग आपसी दीवारों को भूल जाएँ। लेखकों का काम तो सरहदें मिटाना होता है।
लेकिन क्या करूँ, मैं मजबूर था। मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसीलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरत की आग में मोहब्बत के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी।...और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार। हिन्दुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया। जिसने राज को कभी भी सु-राज नहीं होने दिया। जिसे हम रोज़ झंडे और पहिए के पीछे ढूँढ़ते रहे कि आख़िर उसका निशान कहाँ है ? गाँव मदरसा खुर्द और लछमनपुर कलाँ महज़ दो गाँव-भर नहीं हैं और अली ज़ामिन खाँ और मुसलिम मियाँ की अदावत बस दो ख़ालाज़ाद भाइयों की अदावत नहीं है। ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती हैं, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है। बस बाकी रह जाती है नफरत का एक सिलसिला...
मैं तो शुक्रगुज़ार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा और आज़ादी के सपनों को टूटते हुए भी। ज़मींदारी को खत्म होते हुए देखा तो नए राजाओं को बनते हुए भी देखा। उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है। पतन के दौर में आदर्श की तलाश में भटक रहा है। क्या करे बेचारा सारा खेल उसकी छाँह को खरीदने-बेचने का जो चलता रहा खुद उसी की छाँह के नीचे, तो तकलीफ उसे नहीं होती तो किसे होती। अब बताइए भला, मैं तो एक लेखक ठहरा। मुझे तो हर तकलीफज़दा के साथ होना है। चाहे वह हाड़-मांस का बना इंसान हो या फिर एक अदना-सा नींम का पेड़। क्या मैं उसकी कहानी सिर्फ़ इसलिए नहीं सुनाऊँ कि हम इंसानों की बस्ती में उसकी कोई औकात नहीं है। या इसलिए कि जब इंसानी जुबान का ही कोई भरोसा नहीं रहा तो फिर एक नीम के पेड़ का क्या ठिकाना लेकिन मेरा तो यह फर्ज़ बनता ही था कि मैं उसकी कहानी आप तक पहुँचाऊँ। अब अगर इसमें आपको कोई झूठ लगे तो समझ लीजिएगा कि यह मेरा नहीं उसका झूठ है। और सच...तो साहब उसका दावा तो कोई भी नहीं कर सकता, न मैं न आप।
अब मैं आपके और नीम के पेड़ के बीच ज़्यादा दीवार नहीं बनना चाहता, नहीं तो आप कहेंगे कि मैंने उसकी कहानी को अपनी बताने की गरज़ से इतनी लम्बी तकरीर दे मारी। तो चलिए आपकी मुलाकात गाँव मदरसा खुर्द के अली ज़ामिन खाँ और गाँव लछमनपुर कलाँ के मुसलिम मियाँ से करवाते हैं जो वैसे तो ख़ालाज़ाद भाई हैं, लेकिन वैसी दुश्मनी तो दो दुश्मनों में भी न होती होगी। और हाँ, बुधई उर्फ बुधीराम का भी तो अफ़साना है ये। अब यह आपको तय करना है कि आख़िर यह अफ़साना इन तीनों में से किसका है। तो चलिए अब नीम के पेड़ की जुबानी ही सुनिए पूरी कहानी।

नीम का पेड़
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मैं ही इस कहानी का उनवान भी हूँ और कहानी भी...मैं नीम का बूढ़ा पेड़....गाँव के बच्चे मेरे नीचे बैठकर मेरी निमकौलियों के हार गूँथते हैं...खिलौने बनाते हैं मेरे तिनकों से...माँओं की रसीली डाँटें घरों से यहाँ तक दौड़-दौड़कर आती रहती हैं कि बच्चों को पकड़कर ले जाएँ मगर बच्चे अपनी हँसी की डोरियों से बाँधकर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं छटाएँ ओढ़कर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं घटाएँ ओढ़कर आनेवाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ...बादल मुझे देखकर ओढ़कर आने वाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ॥बादल मुझे देखकर ठट्ठा लगाते हैं कि लो भई नीम के पेड़ हम आ गए...इस मौसम की बात ही और होती है क्योंकि यह मौसम नौजवानों का भी होता है...मेरे गिर्द भीड़-सी लग जाती है...मेरी शाखों में झूले पड़ जाते हैं...लड़कियाँ सावन गाने लगती हैं...
मुझे ऐसी-ऐसी कितनी बातें याद हैं जो सुनाना शुरू करूँ तो रात खत्म हो जाए मगर बात रह जाए...आज जब मैं उस दिन को याद करता हूँ जिस दिन बुधई ने मुझे लगाया था तो लगता है कि वह दिन तो जैसे समय की नदी के उस पार है...मगर दरअसल ऐसा है नहीं। मेरी और बुधई के बेटे सुखई की उम्र एक ही है...।
क्या तारीख थी 8 जुलाई, 1946 जब बुधई ने मुझे यहाँ अपने हाथों से लगाया था। सुखई की पैदाइश का भी तो वही दिन है और...
मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ अपने दरवाजे़ पर बैठ हुक्का पी रहे हैं, साथ बैठे हैं लाला रूपनारायण। लालाजी ने कहा-
‘‘मियाँ पहले मेरी अरज सुन लीजिए, आगे जो हुकुम !...हम मियाँ सरकार के दिनों से नमक खाते चले आ रहे हैं। मंडा भर ज़मीन की कोई बात नहीं है। मगर...’’
लालाजी कुछ कहते कहते रुक गए।
‘‘अरे तो का हम अपने बहनोई भाई मुसलिम से फ़ौजदारी करके कुबरा का जीना अजीरन कर दें ? बाबा मरहूम ने का आपके सामने ही नहीं कहा रहा कि ऐ ज़ामिन कुबरा का ख्याल रखिए !’’ जामिन खाँ हुक्के के धुएँ के साथ धीरे-धीरे बोले।
‘‘ख़्याल और ज़मीन में बड़ा फरक होता है मियाँ। आपसे एक और बात कहनी रही मियाँ कि राम बहादुर यादव का भी कोई-न-कोई इलाज करने ही को पड़ेगा। मियाँ मुसलिम की शह तो उन्हें है ही, ऊपर से अब वह जब से गाँधीजी की पाटी में भर्ती हुए हैं, दिमाग एकदम्मे से चल गया है उनका। चमटोली में बाबूरमवा के घर जमे दिन-भर तकरीर करते रहते हैं कि देश के आज़ाद होते ही ज़मींदारी-ओमीदारी सब घुसर जाएगी।’’
लालाजी ने बयान किया।
‘‘भाई मुसलिम की बात है तो अभी बुधई को बुलाकर ख़त भेज देते हैं। और रही बात रमबहदुरा की तो साले को टाट बाहर करवा के किस्सा ख़त्म कीजिए। और बाबूरमवा से कह दीजिए कि जो आज के बाद रमबहदुरा चमटोली में दिखाइयो भर गया तो बटाई पर जो खेत ऊ जोत रहा है ओपर से ओको बेदखल करै में मिनट-भर भी नहीं लगेगा। तनी होश में रहे।’’
ज़ामिन मियाँ बुझ चुके हुक्के को गुड़गुड़ाने की कोशिश करते हुए बोले। गुस्से से उनका गोरा चेहरा लाल हो गया था।
तभी वहाँ बुधई आ खड़ा हुआ। एक तो वो अपने ज़मींदार को यह इत्तिला करने आया था कि उसने उनकी दी हुई ज़मीन पर अपने एक और संगी को बसा चुका है बित्ता भर के नीम के पेड़ को और दूसरे यह कि आज ही उसकी बीबी दुखिया ने उसका वारिस जना है, जिसका नाम उसने रखा है सुखई। बुधई का बेटा सुखई।
‘सुन ज़रा लछमनपुर कलाँ चला जा भाई मुसलिम के यहाँ। रहमतउल्लवा से पाँच सेर कटहल और दू सेर गूलर का खमीरा ले ले। मुसलिम मियाँ से कहना कि हम भेजा है उनके वास्ते। और हाँ रात-बिरात का ख़्याल न करना। जैसे ही भाई मुसलिम जवाब दें के आ जाना। और ये ख़त भी उनका दे दीहे।’’
ज़ामिन मियाँ एक साँस में बोल गए।
बुधई की बात मन में ही रह गई। ज़मींदार के हुक्म की तामील करना उसके लिए हमेशा से सबसे अहम रही है। वह ज़ामिन मियाँ को यह ख़ुशख़बरी देना ही भूल गया कि उसके घर लाल आया है...कि आज वो बहुत दिनों बाद बहुत खुश है...कि आज वह इस ख़ुशी के सिवा कुछ भी नहीं करना चाहता है...लेकिन वह चुपचाप पीठ पर बोझ उठाए दस कोस दूर मुसलिम मियाँ के गाँव लछमनपुर कलाँ चल पड़ा।
शाम लगभग डूब चुकी थी। भैंस, बकरियाँ सब अपने-अपने दरवाज़ों पर लौटकर बरसाती मच्छरों से जंग कर रहे थे। गाँव की इकलौती मस्ज़िद से शाम की नमाज़ उठी। ठीक उसी वक़्त बुधई ने लछमनपुर कलाँ में मुहम्मद मुसलिम खाँ यानी मुसलिम मियाँ के दरवाज़े पर अपने पीठ पर लदा बोरा पटका।
मुसलिम मियाँ ने नमाज़ पढ़कर आँखें खोलीं तो पाया कि सामने ज़ामिन मियाँ का हुक्मबरदार बुधई खड़ा है।
‘‘तैं कब आया बे। वहां तो सब खैरियत है न।’’
मुसलिम मियाँ ने जानमाज़ समेटते हुए पूछा।
‘‘मियाँ आपके और कुबरा बहिनी के वास्ते कटहल और गुल्लर का खमीरा भेजिन है।’’
बुधई ने सलाम करते हुए जवाब दिया।
‘‘खाली यही है कि औरो कुछ है।’’
मुसलिम मियाँ ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘जी एक ठो ख़त भेजिन है।’’
बुधई ने उसकी ओर ख़त बढ़ाया।
‘‘और मियाँ का हुकुम रहा कि जवाब आज ही लै आना’’ बुधई ने आगे जोड़ा।
मुसलिम मियाँ ख़त पढ़ते जाते और उनकी त्यौरियां चढ़ती जातीं। उनका चेहरा ऐसे लाल हो गया था कि खत का लिखा उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। खत को गोल करके मोड़ते हुए वे बोले- ‘‘जा अपने मियाँ से कह देना कि उसे खत का जवाब अदालत सबजजी से मिलेगा।’’
बुधई के कदम वापसी की ओर मुड़ चुके थे। अँधेरा बढ़ता जा रहा था। उल्लुओं और सियारों की आवाज़ें बढ़ती जाती थीं और बुधई के कदम तेज होते जाते थे। उसे अपने सुखई को देखने की जल्दी थी...
उसे रामबहादुर यादव की बात याद आ रही थी कि आजादी मिलते ही ज़मींदारी खतम हो जाएगी। ज़मीन उसी की होगी जो हल चलाएगा। इसीलिए तो उसने रखा है अपने बेटे का नाम सुखई-सुखीराम। वो उसकी तरह बेगारी नहीं करेगा...स्कूल जाएगा। उसे अपने गाँव की छिटपुट जलती ढिबरियाँ दिखाई दीं। बारिश को पुकारते मेंढकों की आवाज़ें तेज हो गई थीं।
बुधई जैसे सपने से जगा। वह मुस्कुराया। जब वह पैदा हुआ था तो उसके बाप की आँखों में तो वो सपना भी नहीं रहा होगा। कम-से-कम अपने बेटे के लिए उसकी आँखों में ये सपना तो है॥क्या पता सच ही हो जाए। लेकिन फिलहाल तो उसे जल्दी थी मियाँ ज़ामिन को यह बतलाने की कि मुसलिम मियाँ ने अदालत की धमकी दी है....


2

रामबहादुर यादव गाँधीजी के कांग्रेस में शामिल क्या हो गया था ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ का जीना हराम हो गया था। चमटोली में भाषण देता फिरता था। ज़मींदारी के ख़िलाफ़ उनको भड़काता रहता था। कहता था-
‘‘हम रामबहादुर यादव कौनो नेता ना हैं। मुदा गाँधीजी हम्में एक ठो गायत्री मन्तर दिए हैं। तूहूँ लोग ऊ मन्तर सीख ल्यो। सब ठीक हो जैयहे। और मन्तरो बहुत आसान है। खाली ज़ोर-ज़ोर से ‘भारत माता की जय’ बोले जाओ....ज़मींदार लोग बहुत जुलुम कर चुके हैं...इ मन्तर की ताकत तू लोग को ज़मींदार के जुलुम से बचावेगी॥तुम लोगन को ज़मीन का मालिक बनावेगी...’’ सोचता था ऐसा बोलकर भी ज़ामिन मियाँ के प्रकोप से बच जाएगा। मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ के प्रकोप से। ...और आख़िर वही हुआ जिसका डर था। एक रात जब रामबहादुर यादव हमेशा की तरह चमटोली में तकरीर कर रहा था उसी रात चमटोली की एक-एक झोपड़ी जल गई। ऐसी आग वहाँ कभी नहीं लगी थी उसी रात रामबहादुर यादव भी नहीं बच पाया। एक ही लाठी में उसका काम तमाम हो गया। इतनी बड़ी वारदात थी, लग रहा था कुछ होकर रहेगा।
वैसे होना क्या था ? अगली सुबह थानेदार बाबू जिलेदार सिंह दो-तीन कांस्टेबलों के साथ आए। आए तो बैठते भी कहाँ। बैठने के लिए तो बस एक ज़मींदार साहब का दरवाज़ा था और किसमें ताब थी कि उनका स्वागत-सत्कार करता, दारोगाजी की शान को समझता। सारा गाँव जानता था कि यह करतूत बजरंगी की है। ज़मींदार साहब के ख़ास कारिंदे बजरंगी की। पर किसी ने आज तक जुबान खोली थी जो खोलता। रामबहादुर यादव ने जुबान खोली थी और सब देख चुके थे कि उनका क्या हश्र हुआ ? चमटोली के कुछ लोग भी अपनी आँखों में सदियों का डर लिए बैठे थे ज़मींदार साहब के दरवाज़े पर। वो भी शुक्र ही मना रहे थे कि सिर्फ़ घर ही जला, जान तो बच गई। वैसे अब भी ये डर तो था ही कि न जाने क्या आफत आ जाए ? दारोगाजी जब-जब गाँव में आते हैं कुछ-न-कुछ आफत ही आती है... उस दिन ज़मींदार साहब के दरवाजे़ पर ऐसा लग रहा था जैसे कोई जलसा हो रहा हो। हलवाई बैठे जलेबियाँ छान रहे थे। थालियों में ताजी पूरियाँ और सब्जी लगा रहे थे। हलवाई जलेबी और हलवे के थाल लगा रहा था। और साहब खुशबू ऐसी थी कि आदमीं भरपेट खाने के बाद भी कुछ-न-कुछ खा ही जाए। जिलेदार सिंह भी उसी ख़ुशबू में खोए थे-कुछ देर को यह भूले हुए कि वे वहाँ दावत खाने नहीं आए थे बल्कि रात को एक कत्ल हुआ था जिसकी तफ्तीश करनी थी उन्हें।
‘‘मियाँ साहब यह कत्ल तो बड़ी संगीन बात है। कलट्टर साहब के लड़के से मुसलिम मियाँ की बड़ी गाढ़ी छनती है !
बहुत गड़-बड़ करेंगे वह। सुनिए एस।पी। साहब के यहाँ ज़रा वजनी डाली भिजवाइएगा...एस।पी। साहब इधर हो जाएँ तो फिर कलट्टर साहब भी कुछ नहीं कर सकते...लेडी डॉक्टरनी मिस मारिसन को तो आप जानते ही होंगे। एस।पी। साहब पर अगर उनसे जोर डलवाया जाए तो समझिए कि फिर काम बन जाएगा ! राज़ की बात है एस।पी। साहब उन पर ज़रा रीझे हुए हैं !’’
जिलेदार सिंह पर जैसे ज़ामिन मियाँ के ख़ुशबूदार खाने का नशा चढ़ गया था और वो अपनी नमकहलाली दिखा रहे थे।
‘‘और मुझे एक गवाह दे दीजिए जो तोते की तरह अपना बयान याद कर ले।’’
जिलेदार सिंह दाँत खोदते हुए आगे बोले।
ज़ामिन मियाँ जैसे हुक्म की तामील करने वहाँ से उठकर चल पड़े।
गवाह हाज़िर था। बुधीराम ज़मींदार साहब का बँधुआ। मियाँ का हुकुम जो था। बयान रटा-रटाया ही था-
‘‘भगवान के हाजिर नाजिर जान के कहत है न कि ऊ घर का लैके बाबूराम और कोमिला में बहुत दिन से झगड़ा चला आवत रहा। कल फिर उन्हें बात पर बात बढ़ गई और लाठी चल गई....रामबहादुर यादौ त रहिबो ना किए रेन उहाँ। हम ज सोर सुन के उधर दौड़े तो रामबहादुर हमको रास्ते में मिलेन। भाग जात रहेन। बोलें कि कोमिला और बबुरमवा मा लाठी चलत है।
....और जिलेदार सिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि बजरंगी को तो झूठ-मूठ में फँसाया जा रहा है। असली हत्यारा तो बाबूराम है। बाबूराम के पेड़ से उल्टा लटकाकर उसकी पिटाई शुरू हुई। आख़िर जिलेदार सिंह थानेदार को ज़मींदार साहब के ख़शबूदार खाने की कदर जो रखनी थी...’’उधर मुसलिम मियाँ ने एक दिन ज़नामख़ाने में चाय पीते हुए यह ऐलान कर दिया अपनी माँ कनीज़ फ़ातिमा के सामने कि वे तो कुबरा की दुखतरी आम का एक ठो बाग और बीस बीघा ज़मीन लेकर ही रहेंगे, नहीं तो उन्हें डर है कि उनकी जुबान से कहीं तलाक़ का लफ़्ज़ न निकल जाए।
कनीज़ बीबी लाख समझाती रही उन्हें कि न कुबरा उनकी ग़ैर है और न अली ज़ामिन, आख़िर सगी खाला के लड़के हैं। और अशराफ में न तो दुखतरी ली जाती है न दुखतरी दी जाती है। मगर मुसलिम मियाँ अपनी ज़िद पर अड़े थे। थक-हार कर बीबी कनीज़ खुद चल पड़ी ज़ामिन मियाँ के दरवाज़े पर, उन्हें समझाने आती बला को टालने, छह कहारों की पालकी पर सवार दो लठैतों की निगरानी में।
मगर ज़ामिन मियाँ कोई कच्चे खिलाड़ी थोड़े ही थे। इधर उन्होंने अपनी खाला की आमद सुनी और तुरत इक्का जुतवाकर शहर की ओर चल पड़े। घर में यह बता गए कि मियाँ को तो बड़ी बीबी के आने की ख़बर ही नहीं मिली। वे तो शहर चले गए हैं कलक्टर साहेब से मिलने। कुछ पता नहीं कब तक आएँगे। असली मकसद था ख़ाला के सामने पड़ने से बचना। असल में वे तो शहर में अतहर हुसैन वकील के यहाँ ठहरने चले गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि एकाध दिन में खाला चली जाएँगी और फिर वे वापस लौट आएँगे। ख़ामख़ा खाला दुखतरी की बात छेड़तीं और उनके लिए कुछ भी जवाब देना मुश्किल होता। खाला इन बातों को समझती ही कहाँ हैं ? कहेंगी दुखतरी समझकर मत दो, बस भाई का दिल रखने के लिए दे दो। कहाँ तक देता फिरूँगा...अतहर हुसैन वकील शहर के माने हुए वकील थे। मुकदमे के चक्कर में कई ज़मींदारों की ज़मीनें बिकवा चुके थे। उन्हें लोग इज़्ज़त से खान बहादुर साहब बुलाते थे। अली ज़ामिन खाँ उनके बड़े मुरीद थे। एक रात पीतल की चिमनी की रोशनी में हुक्का पीते हुए उन्होंने जामिन मियाँ को भरोसा दिलाया कि वे मुसलिम मियाँ को मुकदमा तो किसी हालत में नहीं जीतने देंगे, आगे मियाँ जानें और उनकी मर्ज़ी जाने। यह भी बताया कि मुसलिम मियाँ वैसे भी मुस्लिम लीगी हैं। पाकिस्तान तो बननेवाला है ही। मुसलिम मियाँ तो पाकिस्तान चले जाएँगे और मुकदमा अपने-आप ख़ारिज़ हो जाएगा।
अतहर हुसैन साहब ने ज़ामिन मियाँ को आगे समझाया कि रामबहादुर मर्डर केस में बुधई का बयान होने के बाद बेहतर हो कि वे अपने गाँव चले जाएँ और खाला से ये कह दें कि मियाँ मुसलिम बड़ा भाई मानकर जो भी माँगें वे देने को तैयार हैं और रही बात मियाँ मुसलिम के मानने की तो वो कभी नहीं मानेंगे, आख़िर पठान जो ठहरे। इससे उनकी बात भी रह जाएगी और खाला भी चली जाएँगी। वैसे तो वो जाने से रहीं।
उधर मुसलिम मियाँ भी शहर आ चुके थे अपने वकील चन्द्रिका प्रसाद से मशविरा करने कि केस तो उन्होंने कर दिया पर क्या हर्ज़ है कि सुलह की एक कोशिश हो जाए। लेकिन ज़ामिन मियाँ सुलहनाने को कब तैयार होनेवाले थे। वे तो ये मानते थे कि मियाँ मुसलिम में इसके सिवाय और कोई खूबी ही नहीं कि वे उनकी खाला के लड़के हैं। कुबरा के लिए तो उनसे अच्छा लड़का मिल सकता था। अब चूँकि उन्होंने तलाक की बात कर दी तो साहब शरीफ घरानों की लड़कियाँ या तो कुँवारी रह जाती हैं या बेवा हो जाती हैं...तलाक लेकर अपने घर नहीं आतीं।
वकील अतहर हुसैन साहब जो मुकदमेबाजी में कई खानदानों को तबाह होते देख चुके थे एक और खानदान की तबाही के सिलसिले के गवाह बनने वाले थे शायद....।
रामबहादुर यादव हत्याकांड के मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी थी। ज़ामिन मियाँ के ताबेदार बजरंगी की तरफ़ से अतहर हुसैन मुकदमा लड़ रहे थे तो दूसरी ओर से वकील रायबहादुर चन्द्रिका प्रसाद। गवाह था बुधीराम यानी बुधई। दो नामी-गिरामी वकीलों की टक्कर थी। यह टक्कर देखने को ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ने बुधई से जिरह शुरू की-
‘‘तुम्हारा नाम ?’’
चन्द्रिका प्रसाद ने पूछा।
‘‘हमार नाव बुधई है सरकार-बुधीराम।’’
बिना घबड़ाए बुधई ने जवाब दिया।
‘‘अच्छा तो बुधई उर्फ बुद्धिराम यह बताओ कि उस दिन क्या तुमने वाकई रामबहादुर यादव को भागते हुए देखा था...और सोच के बताओ क्योंकि तुमने गीता पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाई हुई है ?’’
वकील साहब का लहज़ा ऐसा था कि अच्छे-अच्छे गवाहों के पसीने छूट जाएँ।
‘‘ई तो दिन की बात न है मालिक। रात काफी होय चुकी रही, हम शोर सुनके उधर लपके जात रहेन कि का देखा कि रामबहादुर भागे-भागे चले आ रहेन ! हमें देख के बोलेन कि अरे ओहर कहाँ जा रहा रे बुधइया ! उधर तो लाठी चलत है !’’
बुधई एक साँस में बोल गया।
‘‘बस करो, बस करो...अब तो तुम्हारा बयान अदालत को भी याद हो गया होगा। अच्छा एक बात बताओ जब तुमने यह देखा कि रामबहादुर यादव भागे चले आ रहे हैं तो उस वक़्त नंगे सिर थे या उनके सिर पर गाँधी टोपी थी !’’
चन्द्रिका प्रसाद एक माहिर वकील थे। बुधई को फँसाने के लिए उन्होंने जाल डाला। ज़ामिन मियाँ और अतहर हुसैन साहब के तो होश ही उड़ गए, पता नहीं बुधई क्या बोल जाए।
‘‘यह सवाल गवाह को उलझाने के लिए किया गया है हुजूर, वह चाहे टोपी पहने रहा हो या नंगे सर। अगर बुधई ने उसे नंगे सर देखा तब भी यह साबित नहीं हो सकता कि खून से भरी जो गाँधी टोपी मौका-ए-वारदात पर मिली, वह रामबहादुर यादव की थी ?’’ वकील अतहर हुसैन ने बात को सँभालते हुए बुधई के लिए एक इशारा किया।
‘‘बुधई क्या उस वक़्त रामबहादुर यादव ने टोपी पहन रखी थी ?’’ सवाल पूछने की बारी अब जज साहेब की थी।
‘‘जी माई-बाप ! यादवजी का त हम कभई नंगे सिर देखा ही नहीं।’’ बुधई भाँप गया था। बुधई के इस जवाब के साथ ही जज साहेब ने केस ही ख़ारिज़ कर दिया।