Saturday, October 18, 2008

जुदा राह का राही डा. राही मासूम रजा

जाहिद खान
अपनी नज्म-शायरी और उपन्यास लेखन से साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्तों पर तंज वार करने वाले गाजीपुर के गंगोली गांव में जन्मे राही मासूम रजा को मुकद्दस दरिया गंगा और हिंदुस्तानी तहजीब से बेपनाह मोहब्बत करने का सबक उस आबो-हवा में मिला जिसमें वे पले बढे। फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुलन्दियों को छू लेने के बावजूद गंगा और गंगोली गांव से उनका यह जज्बाती लगाव आखिर तक कायम रहा। गंगोली से उन्हें बेहद प्यार था। हालांकि 1967 में जो वे एक बार मुंबई पहुंचे तो दोबारा गंगोली नहीं लौटे इसकी वजह बचपन में बीते हुए गंगोली का पहले वाला अक्स था जो उनकी आंखों में बसा था और वे उस अक्स को मिटाना नहीं चाहते थे।
राही के अदबी सफर का आगाज शायरी से हुआ और 1966 तक आते-आते उनके साथ गजल नज्म संग्रह शाया हो चुके थे। नया साल, मौजे गुल मौजे सबा, रक्से मय, अजनबी शहर अजनबी रास्ते आदि उनके खास संग्रहों में शुमार किए जाते हैं। 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर 1957 में लिखा गया उनका महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन उर्दू और हिंदी दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित हो बहुत चर्चित हुआ। उनकी आवाज में जादू था और तिस पर तरन्नुम भी लाजवाब। जब मुशायरे में नज्म पढते तो एक समां सा बंध जाता।
बचपन में तिलस्में-होशरूबा के किस्सों से प्रभावित राही के लेखन का सिलसिला अलीगढ से जो प्रारंभ हुआ तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया इसका सबूत उनका आखिरी काव्य संग्रह गरीबे शहर था जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद 1993 में प्रकाशित हुआ। पढाई के दौरान अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल वे गद्य लेखन में करने लगे। उस समय इलाहाबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में निकहत, जासूसी दुनिया, रूमानी दुनिया जैसी पत्रिकाएं निकालते थे जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थीं। राही, शाहिद अख्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन पत्रिकाओं में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबंदी से लिखने की आदत पडी। पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय में फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक अखबारों में नियमित कॉलम और नज्म, गजल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे।
हिन्दी साहित्य जगत में उनका प्रवेश 1966 में उपन्यास आधा गांव के जरिए हुआ। आधा गांव की ख्याति और चर्चा हिंदी-उर्दू दोनों में ही एक साथ हुई। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनके उपन्यास आधा गांव और टोपी शुक्ला दोनों ही फारसी लिपि में लिखे गए थे जिसका कि बाद में हिंदी लिप्यांतरण किया गया।
1972 में डॉ. नामवर सिंह की अनुशंसा पर जोधपुर विश्वविद्यालय में आधा गांव को लगाने के फैसले की नैतिकतावादियों, ने एक सुर में डा. राही मासूम रजा और आधा गांव की आलोचना की। उपन्यास पर अश्लीलता का आरोप लगा। मगर इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नहीं डिगे। अखबारों में लिखे गये उनके कॉलम तीखे और सख्त होते थे जिसमें न ही वे किसी की परवाह करते थे और न ही किसी को बख्शते थे। मुल्क की आजादी की जद्दोजहद और बटवारे की आग में हिंदुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिजरत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे। उनके रंजा-गम में वे खुद शामिल रहे थे इसलिए सांप्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ थे।
राही का कहना था धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा। उन्होंने उपन्यास आधा गांव में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। बहरहाल भाषाई आधार पर 1971 में पाकिस्तान टूटा और बंगलादेश बना। उनकी बात जस की तस साबित हुई।
टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद, दिल एक सादा कागज, सीन 75, कटरा बी आर्जू, असंतोष के दिन राही मासूम रजा के अन्य उपन्यास हैं। जिनमें टोपी शुक्ला और कटरा बी आर्जू अपने विषय, कथावस्तु, भाषाशैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं। 1969 में लिखे टोपी शुक्ला में जहां राही यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली राजनीति की पडताल करते हैं तो वहीं आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास कटरा बी आर्जू आपातकाल की भयावहता पर आधारित है।
राही 1967 तक अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे। मगर पारिवारिक व्यक्तिगत कारणों से तंग आकर उन्हें अलीगढ छोडना पडा। अलीगढ छोडकर वे मुंबई पहुंचे जहां आर.चन्द्रा और भारत भूषण ने उनकी मदद की। उनके दोस्त कृष्णचन्दर, साहिर लुधियानवी, राजेन्द्र सिंह बेदी और कैफी आजमी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी। बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रुख किया तो फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। आने वाले साल उनकी सफलता की दास्तान थे। फिल्में उनकी रोजी-रोटी का जरिया थीं तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली खुशी मिलती थी। यह देखना दिलचस्प है कि आधा गांव के अलावा उनके सारे उपन्यास मुम्बई में ही लिखे गए। संघर्षकाल में उनकी मदद करने वालों में धर्मवीर भारती भी थे। धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका धर्मयुग के लिए राही ने निरंतर स्तंभ लेखन का कार्य किया।
राही ने तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा संवाद लिखे। दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत में लिखे गये उनके संवादों ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया। महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था। इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने अनगिनत स्त्रोतों को खंगाला था।
हिंदी-उर्दू दोनों ही जबानों में अधिकार के साथ लिखने वाले राही उर्दू जबान के शायर थे तो हिन्दी के उपन्यासकार। उर्दू जबान को लोकप्रिय करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की मगर उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड दिया जाए वे इसके खिलाफ थे। आधा गांव को देखें तो उसमें अवधी मिश्रित हिंदी-उर्दू का जमकर प्रयोग हुआ है। इस बात से यह एहसास होता है कि वे किसी भाषा की बिना पर क्षेत्रीय बोली, भाषा की कुर्बानी के हामी नहीं थे।
उपन्यासों में राही का नेरेशन अद्भुत है। जिसमें नेरेशन की तथा चरित्रों की भाषा अलग-अलग होती थी। जहां तक भाषाई-शुद्धता का सवाल है राही भाषाई-शुद्धता पर एक जगह लिखते हैं जमीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते।
समाजवादी विचारधारा के समर्थक राही मासूम रजा का सपना हिंदुस्तान को एक समाजवादी मुल्क में साकार होता देखना था। लेकिन समाजवाद का मॉडल कैसा हो, उसमें कितने कारक काम करेंगे और किस तरह से अपने कामों को सरअंजाम देंगे। उनके मुताबिक यह सारी की सारी प्रक्रिया पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए नहीं तो भटकाव-टूटन होना स्वाभाविक है। उपन्यास कटरा बी आर्जू में अपने किरदार के मार्फत कहलवाया गया उनका यह संवाद हिंदुस्तान की मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पडता है-सोश्ल-इज्म के आये में बहुत देरी हो रही है। सोशल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती। कपडे की तरह बदन की नाप की काटे को पडती है।

1 comment:

Zubair Shadab said...

Rahi par ap ka vishesh ank Shod ki drishti se bahut mahtwapurna hae.ap mubarak baad qubool kijiye.