Thursday, October 30, 2008

सवालों के जंगल में अकेलेपन का अवसाद

नंद भारद्वाज
चर्चित उपन्यास : असन्तोष के दिन: राही मासूम रजा
'असन्तोष के दिन' हिन्दी के विख्यात कथाकार राही मासूम रजा की बहुआयामी रचनाशीलता के आखिरी दौर का ऐसा उपन्यास है, जो इस देश के राजनीतिक- सामाजिक-आर्थिक ढांचे में व्याप्त विकृतियों पर करारी चोट करता है। यह उपन्यास मई 1984 के दौरान थाणे, कल्याण और मुंबई महानगर में घटित हुए साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा मार्मिक दस्तावेज है, जिसे उपन्यास के रूप में पढ़ना एक पीड़ादायक अनुभव के बीच से गुजरने का-सा अहसास कराता है। इसके चरित्र किसी कथा-कृति के लिए गढ़े हुए चरित्र नहीं, बल्कि स्वयं रचनाकार की अपनी जिन्दगी, उनके घर-परिवार, परिवेश और कार्य-क्षेत्र में काम करनेवाले ऐसे जीवंत चरित्र हैं, जिन्होंने साम्प्रदायिकता के उस जहरीले दौर में अपने प्राण गंवाकर भी इनसानियत, मानवीय सद्भाव और भाईचारे को बचाए रखने के अनथक प्रयत्न किये।

यह राही मासूम रजा का ही कमाल है कि 80 पृष्ठों की इस छोटी-सी औपन्यासिक कथा में उन्होंने 1984 के देशव्यापी दंगों के दौरान मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों और देश के बाकी नगरों में मारे गये हजारों निर्दोष लोगों - जिनमें हिन्दू थे, मुसलमान थे और सिक्ख-ईसाई भी, ऐसे तमाम लोगों की त्रासदी का न केवल प्रामाणिक ब्यौरा पेश किया है, बल्कि उन दंगों के पीछे की सियासी सांठ-गांठ और निहित स्वार्थों की संकीर्ण मानसिकता को बेनकाब करने का जो बीड़ा उठाया है, वह पाठक के रूप में आपकी चेतना को झकझोर कर रख देता है। आप उस सच्चाई से आंख बचाकर भाग नहीं सकते, जो कभी आपके आस-पास या खुद आपके साथ कहीं घटित भी हो सकती है।

सन् 1984 की घटनाओं पर आधारित इस उपन्यास का पहला संस्करण यों तो 1986 में ही प्रकाशित हो गया था और लेखक की अन्य कृतियों की तरह उस समय भी इसने पाठकों के बीच अपनी अच्छी-खासी जगह बनाई, लेकिन उस प्रकाशन के अट्ठारह बरस बाद सन् 2004 में जब इसका दूसरा संस्करण छपकर आया है, तो इसकी मांग और प्रासंगिकता और बढ़ गई लगती है।

इस उपन्यास के चरित-नायक अब्बास मूसवी को जिन्दगी भर इस बात का गहरा मलाल रहा कि जिस साम्प्रदायिक सद्भाव और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए वे सारे जहां से लड़ते रहे, अपने घर-परिवार और समाज से लड़ते रहे, परिवार के अजीज लोगों को उसमें झौंके रखा, खुद कभी हिन्दू या मुसलमान होने का फर्क नहीं महसूस किया - उनका परिवार, जो एक खुले दिमागवाला परिवार माना जाता था, जो मजहब और मुल्क के बंधनों को गैर-वाजिब मानता था - मसलन्, अब्बास की बहन सलमा ने जब एक हिन्दू युवक रेवती से प्यार किया और उससे शादी करनी चाही तो परिवार-समाज के बड़े-बूढ़ों और मजहबी लोगों के विरोध के बावजूद अब्बास और उनकी बीबी सैयदा ने उस वक्त अपनी बहन का पूरा साथ दिया। सन् '66 में सलमा और रेवती की शादी हो गई और वे लंदन जाकर बस गये, लेकिन अट्ठारह बरस बाद उसी सलमा की बेटी तसनीम जब एक नीग्रो लड़के से प्यार करने लगी, तो सलमा को वह केवल इसलिए पसंद नहीं आया कि वह 'काला' है! यह जानकर अब्बास को बेहद अफसोस हुआ कि उसकी बहन उन्हीं दकियानूसी खयालों के बीच पहुंच गई है, जिन्हें वे बरसों पहले पीछे छोड़ आये थे। इसी विडंबना की ओर इषारा करते हुए अब्बास कहते हैं - ''सन् '66 की क्रान्तिकारी सलमा '84 तक आते जब 17 बरस की तसनीम की मां बनी तो अतीत के दलदल में जा गिरी और बड़ी बाजी बन गई। हैदरी फूफी बन गई।'' (पृष्ठ 13) खुद उनके बेटे माजिद ने जब एक हिन्दू लड़की संगीता को अपनाने का मन बना लिया तो उसे तहेदिल से कुबूल किया, लेकिन वही अब्बास मूसवी जब अपनी बेटी फातमा द्वारा एक हिन्दू लड़के रवि से प्यार करने के मसले पर अपनी बीबी सैयदा बेगम को रजामंद नहीं कर पाये और नौबत यहां तक आ पहुंची कि सैयदा बीबी अपने शौहर और बच्चों से रूठकर अपने मायके जा बैठी तो वे अपने परिवार से ही नहीं, खुद अपने-आप से जैसे हार गये - अपने उसूलों और आदर्शों को अपनी आंखों के सामने इस तरह बिखरते हुए देखना ऐसा हिला देनेवाला अनुभव था, जिसने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया। माजिद और फातमा ने अपने अब्बू और अम्मी को जब इस तरह मायूस और बेबस देखा तो यही फैसला किया कि वे उनके लिए अपने प्यार को कुरबान कर देंगे और उन्होंने (माजिद और रवि ने) खुद को ही कुरबान कर दिया, लेकिन अब्बास मूसवी की तकलीफ और गहरी थी और इसका हल यह तो कतई नहीं था, जो उनकी औलाद सुझाया और दिया। अब्बास की यह पीड़ा बेटी फातमा के साथ हुए इस संवाद में बखूबी महसूस की जा सकती है - ''यह इतनी सादा बात नहीं है बेटी ! ... तुम्हारी अम्मा और मुझमें लड़ाई नहीं हुई है। तुम्हारे शादी करने या न करने से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। मुझमें और तुम्हारी अम्मा में डिफरेंस ऑफ उपीनियन हो गया है।'' (पृष्ठ 86) और यह 'डिफरेंस ऑफ उपीनियन' अब्बास और सैयदा जैसे सेक्यूलर और जागरूक इनसानों के मन में पैदा हो जाना कोई मामूली बात नहीं थी।

इन अट्ठारह बरसों में अब्बास जैसे इल्मकारों की सोच बेषक आगे बढ़ी हो, उनकी बहन सलमा और बीबी सैयदा की सोच में ज्यादा इजाफा नहीं हुआ। अब्बास की तकलीफ यही है कि यह सोच आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है। मुसलमान अपनी गरीबी, पिछड़ेपन और उस रूढ़िवादी जहनियत से तो लड़ ही रहे होते हैं, ऐसे हालात में साम्प्रदायिकता का उन्माद उन्हें भीतर से खोखला कर देता है, उन्हें इस तकलीफ से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। लेखक की इस पीड़ा को अब्बास और सैयदा के इस संवाद में बखूबी महसूस किया जा सकता है -''मेरे पास किसी सवाल का जवाब नहीं है सैयदा ! हम तमाम लोग सवालों के जंगल में अकेले हो गये हैं और रास्ता भूल गये हैं....!'' (पृष्ठ 65)

कथानायक अब्बास एक साहित्यिक पत्रिका 'अदब' के संपादक हैं, जो एक दैनिक अखबार 'नई आवाज' का ही प्रकाशन है। वे अखबार और पत्रिका दोनों के संपादक हैं और इसी नाते हर तरह के लोगों के बीच उठते-बैठते हैं, सभी तरह के लोगों से उनके अच्छे ताल्लुकात हैं। उनकी दोस्ती, परिचय और संवाद के दायरे में सभी मजहब और सभी सियासी सोच वाले लोग आते हैं। वे किसी से परहेज नहीं करते। अपने से भिन्न राय रखने वाले को भी वे पूरा मान-सम्मान देते हैं, लेकिन निजी या सार्वजनिक जीवन में उसके खराब आचरण की कतई अनदेखी नहीं करते, बल्कि उसका खुलकर विरोध करते हैं, लेकिन साम्प्रदायिक उन्माद के आगे वे भी बेबस हो जाते हैं। देश में जहां कहीं भी दंगे होते हैं, तो उनकी रूह कांप उठती है - उनके अपने साथी-सहकर्मी, जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी, ऐसे सैकड़ों निर्दोष लोग इन दंगों में मारे जाते हैं, यहां तक कि पुलिस और प्रशासन भी इन दंगों में इधर या उधर में बंट जाता है और इस लड़ाई में वे लगातार अकेले होते जाते हैं। उन्हें अपने अखबार का संपादकीय लिखना तक निरर्थक लगने लगता है। ऐसे ही माहौल में जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद का दुखद घटनाक्रम सामने आता है, तो सवालों के उस घने जंगल में उनके अकेलेपन का यह अवसाद और भी गहरा हो जाता है।

उल्लेखनीय बात यह है कि डॉ. राही मासूम रजा की इस कृति में उनकी साम्प्रदायिकता-विरोधी सोच का एक नया आयाम भी उद्धाटित होता है। वे 'नेशनल इंटीग्रेशन का अर्थ हिन्दू-मुस्लिम एकता' में सीमित करके नहीं देखते, बल्कि उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य और समग्रता में समझने पर बल देते हैं। वे इस बात पर गंभीर सवाल उठाते हैं कि 'नेशनल डिसइंटीग्रेशन की जड़ें कोई देश की आर्थिक बदहाली में क्यों नहीं ढूंढ़ता ? या इस राजनीतिक स्थिति में क्यों नहीं ढूंढ़ता कि हमारे लोकतंत्र में आज तक ऐसी सरकार नहीं बनी है, जिसे मतदाताओं के बहुमत का सहयोग प्राप्त हो और जो धर्म, जातिवाद और क्षेत्रवाद के नाम पर न बनी हो।' दरअसल यही वे सवाल हैं, जिनमें इस समस्या का वह सही हल भी अन्तर्निहित है और वे चुनौतियां भी, जिनसे हमें आनेवाले सालों में मिलकर जूझना है।

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