राही मासूम रज़ा
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।
क्या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
2 comments:
डाक्टर फिरोज़ सहिब ने "राही" साहिब की याद में
जो शम्मा जलाई है उसकी रौशनी में बहुत कुछ
देखा और सीखा जा सकता है आपने बहुत बड़ा काम सरअंजाम
दिया है मेरे पास इल्फाज़ नही हैं लेकिन फिर भी मैं कह सकता हूँ
के मुझे और मेरे दोस्तों को फिरोज़ साहिब के इस कारनामे से बहुत खुशी हुई है
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
vah vah.............
Post a Comment