Saturday, January 31, 2009

GAZAL

रो देते हैं जब हाथ बनाते हैं निवाले
हर सिम्त (दिशा) हैं सरगोशियाँ ताने हुए भाले
ख्वाबों में भी चलते हैं फिरंगी के रिसाले
केंचुल से निकलने को तड़प उठते हैं काले
बिखरे हैं इधर और उधर ढँूढ रहे हैं
हम शाम-ए-गुलामी की सहर ढँूढ रहे हैं

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया गज़ल प्रेषित की है।