राही मासूम रजा की १७वीं पुण्यतिथि के अवसर पर वाङ्मय पत्रिका, लिबर्टी होम्स में संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता डॉ० प्रेमकुमार ने की। इस संगोष्ठी में राही मासूम रजा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला गया। मुख्य वक्ता डॉ० प्रेमकुमार ने कहा कि इस पुण्यतिथि पर राही मासूम पर चर्चा ही बता रहा है कि उनका काम कितना महत्त्वपूर्ण है। प्रेमकुमार ने उनके साहित्य में व्यक्त इंसानियत को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि आज का युग बौनों का युग है जब लोगों को साम्प्रदायिकता व विद्वेष से लड़ने का समय है। उस समय उनसे ही समझौता कर लिया जबकि राही का व्यक्तित्व उन समझौतावादी बौने लोगों का विरोध करता है। राही के एक संस्मरण की चर्चा करते हुए बताया कि अपने बेटे की शादी हिन्दू लड़की से इस शर्त पर की, कि वह अपना धर्म परिवर्तन नहीं करेगी। इस प्रकार के विचार आज के बड़े-बड़े हिन्दू व मुस्लिम सेकुलर कहे जाने वाले लोगों के यहाँ नहीं मिलेगी। उन्होंने बताया कि राही का जुड़ाव जमीन की गहराई से रहा है। राही ने साहित्य में किसी सम्प्रदाय विशेष की, क्षेत्र विशेष की या भाषा विशेष को मुख्य आधार नहीं बनाया है, बल्कि उन्होंने साहित्य में पूरी तरह से भारतीयता की बात की। जहाँ एक भारत व उसके सेकुलर गंगा-जमुना तहजीब मुख्य है। डॉ० प्रेमकुमार ने उनके साहित्य लेखन के अतिरिक्त फ़िल्मों एवं सीरियल में किये गये कामों का भी उल्लेख किया। एक उल्लेखनीय तथ्य की ओर संकेत करते हुए बताया कि जो काम तुलसीदास ने रामकथा को स्थापित व पुनर्जीवित करने में किया है, ठीक वही काम राही ने महाभारत की पटकथा को लिखकर किया है।
इस संगोष्ठी में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के कई छात्र उपस्थित थे। जिनमें जावेद आलम ने राही पर बोलते हुए कहा कि - राही का जुड़ाव अपने जमीन से बहुत गहरा रहा है। उन्होंने अपने को गंगा का बेटा कहा है। आधा गाँव' एवं ओस की बूद' की भी चर्चा की। भारतीय विभाजन की त्रासदी का भी उन्होंने उल्लेख किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सन्दर्भ में १८५७ नामक कविता का जि+क्र किया। साम्प्रदायिकता का विरोध एवं मानवता की बात राही में विशेष रूप से मिलती है।
शोध-छात्र शहबाज अली खान ने राही के साहित्य में समय को महत्त्वपूर्ण आधार बताया। उन्होंने बताया कि साहित्यकार मूल रूप से इंसानियत, प्रेम, सौहार्द की बात करता है। साहित्यकार वही होगा जिसके यहाँ इंसानियत होगी। उन्होंने बताया कि विभाजन का दर्द प्रत्येक भारतीय मुसलमान को है। इसके बावजूद मुसलमानों को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र देना पड़ता है, परन्तु राही के साहित्य में हमें पूरे हिन्दुस्तानी होने का भाव अकुण्ठ रूप से मिलता है। खान ने बताया कि राही ने अपने समय के बुद्जीवियों के उपनिवेशवादी नजरिये को पहचान लिया था। उनका पूरा साहित्य उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों के विरोध का साहित्य है। उन्होंने राही के भाषाई विशेषता की ओर भी संकेत किया।
संगोष्ठी में बोलते हुए सरताज आलम ने बताया कि राही के साहित्य में भारत की एकता और अखण्डता को बचाने का काम किया है। उन्होंने बताया कि उनकी कविताओं में उनका दर्द देखा जा सकता है।
डॉ० हस्सान ने अपने वक्तव्य में बताया कि - यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि एक उर्दू का आदमी महाभारत के संवाद को लिखता है। यह उसकी सेकुलर छवि को ज्ञापित करती है। राही ने हिन्दी-उर्दू की बात न करके इंसानियत पर अधिक बल दिया है और अवाम को पुकारा है। हिन्दू-मुसलमान को नहीं।
डॉ० खुर्शीद ने उर्दू साहित्य में उनके बिखरे हुए रचनाओं व उन पर चर्चा करने की बात कही और इस बात की ओर संकेत किया कि उनकी रचनाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कार्य जल्द से जल्द होना चाहिए।
डॉ० जुल्फ़िकार ने इस संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि राही मासूम रजा की सर्व धर्म समभाव की आवश्यकता पर बल देते हैं। उन्होंने बताया कि हम उनकी कोई भी रचना पढ़ते हैं तो हमें भारत की तस्वीर दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय सरोकार हमें दिखाई देता है। उनके सामाजिक धरातल से जुड़ाव को रेखांकित किया और इस प्रकार की संगोष्ठी करने के प्रयासों को उत्साहवर्धक बताया।
शोध-छात्र विनीत कुमार ने बताया कि राही से उनका परिचय उनकी रचनाओं से हुआ। राही अपने लिए तीन माँओं का जि+क्र करते हैं। एक वह माँ जो जननी है। दूसरी माँ ग़ाजीपुर जिसने उन्हें पाला-पोसा। तीसरी माँ अलीगढ़ को बताया। इस प्रकार राही की उनके ज+मीनी जुड़ाव की चर्चा उन्होंने की।
कु० भानु ने राही के धर्मनिर्पेक्षता को आधार बनाकर बोलते हुए कहा कि धर्मनिर्पेक्षता का रूप उनके लिए एकपक्षीय नहीं है, बल्कि समन्वित रूप में आता है। शोध-छात्र वाजिद, अफ़जाल, अशरफ अली खाँ व मु० आसिफ़ ख़ान ने भी अपने विचार संगोष्ठी में रखे।
कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मेराज अहमद ने किया। उन्होंने राही के साहित्य पर विशेष चर्चा संचालन के बीच में ही की। राही पर प्रस्तुत गोष्ठी वाङ्मय परिवार की ओर से आहूत की गई थी। वाङ्मय पत्रिका के सम्पादक डॉ० एम० फीरोज अहमद ने उनकी कहानियों की विशेष चर्चा करने की बात कही और उसके साथ ही साथ उनके फ़िल्मी योगदान के विषय में भी उन्होंने चर्चा की। इस कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन वीमेंस कालेज की प्रवक्ता डॉ० शगुफ्ता नियाज ने किया। और गोष्ठी की सफलता के लिए वक्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।
इस संगोष्ठी में अहमद अली, मुशीरा ख़ातून आदि लोग भी उपस्थित थे।
इस संगोष्ठी में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के कई छात्र उपस्थित थे। जिनमें जावेद आलम ने राही पर बोलते हुए कहा कि - राही का जुड़ाव अपने जमीन से बहुत गहरा रहा है। उन्होंने अपने को गंगा का बेटा कहा है। आधा गाँव' एवं ओस की बूद' की भी चर्चा की। भारतीय विभाजन की त्रासदी का भी उन्होंने उल्लेख किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सन्दर्भ में १८५७ नामक कविता का जि+क्र किया। साम्प्रदायिकता का विरोध एवं मानवता की बात राही में विशेष रूप से मिलती है।
शोध-छात्र शहबाज अली खान ने राही के साहित्य में समय को महत्त्वपूर्ण आधार बताया। उन्होंने बताया कि साहित्यकार मूल रूप से इंसानियत, प्रेम, सौहार्द की बात करता है। साहित्यकार वही होगा जिसके यहाँ इंसानियत होगी। उन्होंने बताया कि विभाजन का दर्द प्रत्येक भारतीय मुसलमान को है। इसके बावजूद मुसलमानों को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र देना पड़ता है, परन्तु राही के साहित्य में हमें पूरे हिन्दुस्तानी होने का भाव अकुण्ठ रूप से मिलता है। खान ने बताया कि राही ने अपने समय के बुद्जीवियों के उपनिवेशवादी नजरिये को पहचान लिया था। उनका पूरा साहित्य उपनिवेशवादी प्रवृत्तियों के विरोध का साहित्य है। उन्होंने राही के भाषाई विशेषता की ओर भी संकेत किया।
संगोष्ठी में बोलते हुए सरताज आलम ने बताया कि राही के साहित्य में भारत की एकता और अखण्डता को बचाने का काम किया है। उन्होंने बताया कि उनकी कविताओं में उनका दर्द देखा जा सकता है।
डॉ० हस्सान ने अपने वक्तव्य में बताया कि - यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि एक उर्दू का आदमी महाभारत के संवाद को लिखता है। यह उसकी सेकुलर छवि को ज्ञापित करती है। राही ने हिन्दी-उर्दू की बात न करके इंसानियत पर अधिक बल दिया है और अवाम को पुकारा है। हिन्दू-मुसलमान को नहीं।
डॉ० खुर्शीद ने उर्दू साहित्य में उनके बिखरे हुए रचनाओं व उन पर चर्चा करने की बात कही और इस बात की ओर संकेत किया कि उनकी रचनाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कार्य जल्द से जल्द होना चाहिए।
डॉ० जुल्फ़िकार ने इस संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि राही मासूम रजा की सर्व धर्म समभाव की आवश्यकता पर बल देते हैं। उन्होंने बताया कि हम उनकी कोई भी रचना पढ़ते हैं तो हमें भारत की तस्वीर दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय सरोकार हमें दिखाई देता है। उनके सामाजिक धरातल से जुड़ाव को रेखांकित किया और इस प्रकार की संगोष्ठी करने के प्रयासों को उत्साहवर्धक बताया।
शोध-छात्र विनीत कुमार ने बताया कि राही से उनका परिचय उनकी रचनाओं से हुआ। राही अपने लिए तीन माँओं का जि+क्र करते हैं। एक वह माँ जो जननी है। दूसरी माँ ग़ाजीपुर जिसने उन्हें पाला-पोसा। तीसरी माँ अलीगढ़ को बताया। इस प्रकार राही की उनके ज+मीनी जुड़ाव की चर्चा उन्होंने की।
कु० भानु ने राही के धर्मनिर्पेक्षता को आधार बनाकर बोलते हुए कहा कि धर्मनिर्पेक्षता का रूप उनके लिए एकपक्षीय नहीं है, बल्कि समन्वित रूप में आता है। शोध-छात्र वाजिद, अफ़जाल, अशरफ अली खाँ व मु० आसिफ़ ख़ान ने भी अपने विचार संगोष्ठी में रखे।
कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्राध्यापक मेराज अहमद ने किया। उन्होंने राही के साहित्य पर विशेष चर्चा संचालन के बीच में ही की। राही पर प्रस्तुत गोष्ठी वाङ्मय परिवार की ओर से आहूत की गई थी। वाङ्मय पत्रिका के सम्पादक डॉ० एम० फीरोज अहमद ने उनकी कहानियों की विशेष चर्चा करने की बात कही और उसके साथ ही साथ उनके फ़िल्मी योगदान के विषय में भी उन्होंने चर्चा की। इस कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन वीमेंस कालेज की प्रवक्ता डॉ० शगुफ्ता नियाज ने किया। और गोष्ठी की सफलता के लिए वक्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।
इस संगोष्ठी में अहमद अली, मुशीरा ख़ातून आदि लोग भी उपस्थित थे।