राही मासूम रज़ाजिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्बू के मकां कैसे हैं ।।
ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।
4 comments:
सुन्दर प्रस्तुति!
बेहद प्रसंशनीय. बहुत खूब. राजा जी का जितना सम्भव हो सके साहित्य यहाँ रखने की कोशिश करें. ताकि नेट के पाठक राजा जी को इक ही जगह पढ़ सकें. वधाई. धन्यवाद.
आपका स्वागत है निरंतरता की चाहत है . समय निकालें हमारे ब्लॉग पर भी
Rahi masoom raja sahab ka prashanshak raha hoon. Shukriya unko blog par uplabdha karane ka. Swagat mere blog par bhi.
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