Tuesday, January 20, 2009

GAZAL 1857

दुनिया में नहीं बढ़के फिरंगी से सितमगर
घरवाले भी बेघर हैं जो बेघर थे वह दर-दर
कल तक जो न थे कुछ भी वह बन बैठे है अफसर
खेतों के खजानों पे जमींदारों के अजगर
है सर पे अभी दस्त-ए-शहंशाह-ए-जमन (ईश्वर का वरदहस्त) भी
खतरे में है मजहब भी मुसीबत में वतन भी

1 comment:

बवाल said...

बेहतरीन पोस्ट कही रज़ा साहब से सम्बद्ध आपने, डा॓. साहब| इन पंक्तियों को पढ़वाने का आभार।