Friday, December 5, 2008

यह आदमी की गुजरगाह! 1

राही मासूम रज़ा
राही मासूम रज़ा कृत 1857 पर कविता दी जा रही है लेकिन इनकी कविता बहुत बड़ी- बड़ी है इसलिए इसको कई भागों में दिया जायेगा.हर रोज कविता दी जायेगी. अगर आप लोगों का सहयोग मिलता रहा तो उनका और भी साहित्य इसी ब्लाग पर उपलब्ध कराता रहूंगा.

यह आदमी की गुजरगाह! 1
राही मासूम रज़ा

हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूँढे से जिन्दगी नहीं मिलती

जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
साँप कुलबुलाते हैं


कौन-सी लगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
क़ाफ़िला नहीं चलता

रास्ता भी और दिल भी
साँय-साँय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है

क्या करूँ कहाँ जाऊँ
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हॅू मैं
कोई गाँव मिल जाये

कुनकुनाते पानी से
अपने पाँव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता

हाँ जला लूँ इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी

1 comment:

mala said...

बहुत सुंदर है ....आपको साधुवाद !
मैं भी आपके इस ब्लॉग जगत में अपनी नयी उपस्थिति दर्ज करा रही हूँ, आपकी उपस्थिति प्रार्थनीय है मेरे ब्लॉग पर ...!