Wednesday, December 17, 2008

gazal

यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग

अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ

माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं

गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ

वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को

माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ

2 comments:

Prakash Badal said...

वाह बढ़िया ख्याल है भाई

बवाल said...

वाह वाह भाईजान, रज़ा सहब से जुड़ी हर बात दिल में एक अजीब कसक पैदा कर देती हैं.