Monday, December 15, 2008

यह आदमी की गुजरगाह! 8

यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 8

..................

दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने

मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें

वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत

No comments: