Saturday, December 6, 2008

फूलों की महक पर लाशों की गंध

- राही मासूम रजा
यह सागर मंथन की घड़ी हैं अमृत निकलेगा और विष भी। यह पता नहीं कि विष पीनेवाले कितने निकलेंगे,क्योंकि अमृत पीने वालो की तो भीड़ है और मैं यह सोच रहा हूं कि क्या शंकर भगवान के उत्तराधिकारी की संतान बिल्कुल ही खत्म ही चुकी है? यदि नहीं तो हमारे महान भारतवर्ष के बुद्धिजीवी कहां हैं? क्या मैं यह समझ लूं कि यह सन्नाटा बांझ है और इसकी कोख में कोई तूफ़ान नहीं! सामाजिक कार्यकताओं, अध्यापकों, कवियों और लेखकों ने चुप क्यों साध रखी है? बस वही क्यों बोल रहे हैं जिनका पेशा राजनीति है?
जहांगीर ने कहा था कि जो जमीन पर कहीं जन्नत है तो वह यहीं है। मैं उसी जन्नत को तलाश कर रहा हूं वह मुझे दिखाई नहीं दे रही हैं मेरे चारों तरफ तो बेरोजगारी, भू, जन-हरिजन, हिन्दू-मुसलमान, सिख-हिन्दू लाशों का एक चटियल मैदान पड़ा है। न आदम न आमदजाद। फूलों की महज पर लाशों की महक की तहें जमी हुई। स्कूलों में नफरतों की किताबें खुली हुई। कानून की बंदूकों में सांप्रदायिकता की गोलियां वास्तव में मुझ जैसे लाखों-लाख भारतीय नागरिकों का सीना छेद गई है। परन्तु क्या पी०ए०सी० को बुरा-भला कह कर कलेजा ठंडा कर लेना काफ़ी है? मैं सवाल चाहता हूं कि यदि पी०ए०सी० में मुसलमानों का बहुमत होता तो क्या होता? क्या मलियाना में सर झुकाए खड़े हिन्दू लाशें गिन रहे होते। इसलिए खतरे की.........
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