Saturday, December 6, 2008

यह आदमी की गुजरगाह!

यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 1 (2)

कोई हवा से यह कह दे वह यह चिराग बुझाये
कि इस सड़क पे अंधेरा ही था तो अच्छा था
हर इक दरख्त में फन्दा, हर इक शाख पे लाश
मैं इस सड़क पे अकेला ही था तो अच्छा था

ये रास्ते पे हैं मसलूब कौन लोग आख़िर
यह रास्ता है कि वीरानियों का जंगल है
सड़क के दोनो तरफ़ यह दरख्त लाशों के
यह जिन्दगी की गुजरगाह है कि मक्तूल है

गुजर चुका हॅू मैं इस रास्ते से पहले भी
दो रूया आम के पेड़ों के वह घने साये
फ़िजा में अमियों की वह नर्म खुशगवार महक
कि जिनके जिक्र से फ़स्ले-बहार आ जाये

हवा दरख्तों के आग़ोश में जगह पाकर
शरीर बच्चों के मानिन्द शोर करती हुई
हजार क़दमों की आहट, तमाम नग़मा व रंग
हर एक ग़ुबार से इक़ जिन्दगी उभरती हुई

1 comment:

Vineeta Yashsavi said...

aaj pahli baar apka blog dekha aur bahut hi achha laga apke blog mai aaker.