Wednesday, December 31, 2008
तुम उठो तुम भी उठो
तुम उठो तुम भी उठो, पास उठो दूर उठो
फिर समन्दर को मथो, जहर का प्याला पीलो
पाठशाले हैं परेशान सदा देते हैं
मदरसे चाके-गिरेबाँ (हृदय-विदारक) सदा देते हैं
एक कयामत है बपा(उपस्थित) धर्म के ईवानों(धार्मिक स्थान) में
एक हंगामा है इस्लाम के बुतखानों में
यू तो हर काम में हर लख्ते-जुदा हैं दोनों
लेकिन इस अहदे फिरंगी से खफा हैं दोनों
अपनी तकदीर बना लेने के तदबीर तो है
फिक्र मजहब की नहीं है, गमे जागीर तो है
फिर समन्दर को मथो, जहर का प्याला पीलो
पाठशाले हैं परेशान सदा देते हैं
मदरसे चाके-गिरेबाँ (हृदय-विदारक) सदा देते हैं
एक कयामत है बपा(उपस्थित) धर्म के ईवानों(धार्मिक स्थान) में
एक हंगामा है इस्लाम के बुतखानों में
यू तो हर काम में हर लख्ते-जुदा हैं दोनों
लेकिन इस अहदे फिरंगी से खफा हैं दोनों
अपनी तकदीर बना लेने के तदबीर तो है
फिक्र मजहब की नहीं है, गमे जागीर तो है
Tuesday, December 30, 2008
आधा गाँव' एवं टोपी शुक्ला में साम्प्रदायिकता
- सन्दीप कुमार
धर्म की मासूमियत को खपत करने वाली साम्प्रदायिकता की राहों को उजागर करते रहे। राही मासूम रजा ने अपने उपन्यासों द्वारा व्यक्ति की कहानी न कहकर समय की कहानी कहते हैं। आधा गाँव एवं टोपी शुक्ला उपन्यास में राही मासूम रजा साम्प्रदायिकता की सच्ची और ब्यौरों से भरी हुई मार्मिक तस्वीर खींचते हैं। राही जी उन लेखकों में से हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को अपने दिल से महसूस किया था। उन्होंने भी समता, विकास, एकता आदि के स्वप्न देखे थे, परन्तु साम्प्रदायिकता ने उनके स्वप्नों को धूमिल कर दिया।
आजादी से पहले हिन्दुस्तान का मुसलमान धार्मिक दृष्टि से अल्पसंख्यक होने पर भी वतन की दृष्टि से बराबरी का हकदार था। गाँवों में मुसलमान जमींदार और किसान, हिन्दू जमींदारों और किसानों की तरह ही, औपनिवेशिक शासन के अभिशापों के शिकार थे। जमींदार चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, समान रूप से किसानों का द्यशोषण करते थे। सामन्ती ठसक, मूँछ की लड़ाई, मुकदमेबाजी और शादी-ब्याह में या अन्यत्र द्यशानौष्शौकत के प्रदर्शन में हिन्दू-मुसलमान का कोई फ़र्क नहीं था। एक मुसलमान किसान के करीब मुसलमान जमींदार नहीं था अपितु हिन्दू किसान था क्योंकि जमींदार दोनों के लिये द्यशोषक था उनका हितैषी नहीं। उनके सुख-दुःख में काम आने वाला उनका मित्र किसान ही था जमींदार में धर्म का कोई बेजा दखल न था। हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के सामाजिक और धार्मिक समारोहों में प्रेम के साथ शामिल होते थे। आजादी की लड़ाई भी उन्होंने मिलकर ही लड़ी थी। पर आजादी मिलने की पूर्व संध्या में धूर्त राजनीतिज्ञों और धार्मिक नेताओं ने मजहब को कौम का आधार बनाकर हिन्दुओं और मुसलमानों को दो कौमों में बाँट दिया और देश का विभाजन हो गया। यह विभाजन भारतीय सन्दर्भ में बीसवीं सदी की सबसे बड़ी दर्दनाक घटना है। इस विभाजन में केवल देश का विभाजन नहीं हुआ। विभाजन की दर्दनाक घटना के जिम्मेदार कारक व विभाजन का जनता पर पड़ने वाला प्रभाव राही मासूम रजा के उपन्यासों में स्पष्ट झलकता है जिन्हें पढ़कर हमारा हृदय कांप उठता है। इनमें विभाजन से लेकर बंटवारे की कीमत तक का मर्मस्पर्शी चित्रण है।
साम्प्रदायिकता की वैसाखियों का सहारा लेकर देश विभाजन की जो कड़ी रची गई, वह वास्तव में सिहरन पैदा कर देने वाली है। साम्प्रदायिक विचारधारा पर आधारित विभाजन केवल भौगोलिक विभाजन नहीं था, बल्कि यह तो मानवीय भावना का विभाजन था, सांस्कृतिक व धार्मिक विभाजन था।
इस साम्प्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से ही जुड़ा हुआ है। इससे पहले की राजनीति में उच्च वर्ग का वर्चस्व था और जनसाधारण उपेक्षित था। जनता विद्रोह भी करती थी तो राजनीतिक व्यवस्था से बाहर और उसका विद्रोह सफल होने पर उसके नेताओं को पुराने शासक वर्गों में शामिल कर लिया जाता था। उदाहरण के लिये जवाहरलाल नेहरू ने १९३६ में लिखा, यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि भारत में साम्प्रदायिकता एक परवर्ती घटना है, जिसका जन्म हमारी आँखों के सामने ही हुआ है।''१ अंग्रेजों की राजशक्ति ने साम्प्रदायिकता का ही साथ दिया।
साम्प्रदायिकता तो एक उन्माद है, जो संकीर्ण विचारों से उत्पन्न होती है, जो समाज के स्वार्थी लोगों की राय से, उनकी साजिशों का रूप धारण कर अफवाह के रूप में समाज में फलती-फूलती रहती है। सी०जी० शाह का कहना है, साम्प्रदायिक प्रचार के प्रभाव में आकर लोग अपने द्यशोषण, अत्याचार और पीड़ा के वास्तविक स्रोत को पहचानने में असमर्थ हो जाते हैं और उसके एक दम में साम्प्रदायिक कारण की कल्पना कर लेते हैं।''२
राही मासूम रजा ने समकालीन परिवेश और परिस्थितियों को देखकर अनुभूति व सच्चाई के सहारे श्रेष्ठ साहित्य का सृजन किया। साम्प्रदायिकता के कारुणिक मंजर को उठाया व अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज को सच को प्रदर्शित करने का प्रयास किया। विभाजन के दौरान मानव की पीड़ा, चीख व दर्द को महसूस किया और बड़ी ही वेदना के साथ इसे पाठकों के साथ बांटा। मानव मूल्यों व नैतिक मूल्यों में आई गिरावट को महसूस किया और अपने उपन्यासों में उसे पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया।
उनका आधा गाँव उपन्यास साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक ऐसा सृजनात्मक प्रहार है जो दुनिया में कहीं भी राष्ट्रीयता के हक में जाता है। यह शिया मुसलमानों की जिन्दगी पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें विभाजन से पहले और बाद की जिन्दगी को उभारा गया है। तन्हाई और टूटन का इसमें एक विशेष ऐतिहासिक सन्दर्भ मिलता है। विभाजन के समय गंगौली के मुसलमानों की मानसिकता को स्पष्ट किया है जो अपने गाँव को हिन्दुस्तान में ही रखना चाह रहे थे। उनके अनुसार, नफ़रत और खौफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज मुबारक नहीं हो सकती।२ विभाजन की राजनीति स्वार्थी तत्त्वों की चाल थी। सामान्य जनता विभाजन नहीं चाहती थी क्योंकि वह जानती थी कि पाकिस्तान आकिस्तान पेट भरने का खेल है।४ इसी तरह टोपी शुक्ला उपन्यास में भी साम्प्रदायिक जहर के फैलने से व्यक्ति के अकेले पड़ जाने की बड़ी भयावह तस्वीर अंकित मिलती है। टोपी शुक्ला में राही मासूम रजा ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को पूरी सच्चाई के साथ पेश करते हुए बुद्जिीवियों के सामने एक प्रश्नचिह्न खड़ा किया है कि टोपी शुक्ला जैसे मूल्यवान चरित्र इस आजाद भारत में एक कारुणिक अन्त के लिए ही आख़िर क्यों अभिशप्त हैं और वही क्यों रोज-रोज अकेले पड़ते जा रहे हैं - मौलाना बलभद्र नारायण टोपी शुक्ला की शख्सियत बिखर गई। तीन टुकड़े जम्मू चले गये और चौथा टुकड़ा अलीगढ़ में रह गया और उस चौथे टुकड़े को खुद उसकी आधी, पूरी परछाइयों ने घेर लिया।''५
राही मासूम रजा ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का मार्मिक रूप में चित्रण किया है। इन सम्बन्धों की समस्या को उसके सही सन्दर्भ में देखने और चित्रित करने का एक साहसपूर्ण प्रयास किया है। साम्प्रदायिकता के लिए यह जरूरी भी है। मुझे हिन्दुओं से नफरत है लेकिन द्यशंकर से मैं प्यार करता हूँ, क्योंकि यह बिलकुल आदमी के नाप के हैं। बेवकूफ।६ इफ्फन और टोपी की दोस्ती के बीच धर्म आड़े नहीं आता।
इस तरह राही ने हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध को केवल चिन्तन की खिड़की से ही नहीं देखा अपितु अनुभव और संवेदना की नली से भी देखा है। राही की भाषा का भी अपना एक खास अन्दाज, रंग और अदा है। ÷आधा गाँव' में भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित गालियों के प्रयोग ने उस जीवन को उसकी पूरी जीवन्तता में प्रस्तुत कर दिया है। वे स्वयं टोपी शुक्ला की भूमिका में कहते हैं- उसका गाँव में बेशुमार गालियां थी। मौलाना टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है - परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गन्दी गाली है और मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूँ। यह उपन्यास अश्लील है - जीवन की तरह।७
अतः हम कह सकते हैं कि साम्प्रदायिकता की खाई से निपटने का रास्ता कठिन हो सकता है लेकिन असंभव नहीं। भारत में साम्प्रदायिकता सौ सालों से भी अधिक समय से चली आ रही है लेकिन अब हमें वह समाधान ढूँढ़ना ही होगा, जिससे मानवीय भावना का विभाजन होने से बच सके। इस समाधान में राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव व टोपी शुक्ला अंधेरे में किरण नजर आते हैं। उनमें चित्रित हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की मार्मिकता समाज में आपसी भाईचारे, नैतिक मूल्यों व मानवीय मूल्यों का आदर करते हुए सद्भाव स्थापित करती है। वे यही सन्देश देते हैं कि- अगर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में लड़ाई हुई तो यह दो मुल्कों की लड़ाई होगी, दो मजहबों की नहीं।८ राही जी एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहाँ साम्प्रदायिकता का नाम भी न हो। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले और मानवता को घृणित समझने वाले निर्मम व निर्दयी मनुष्य न हों, जहाँ सुख व शांति हो, प्रेम हो, समता हो, समानाधिकार हो, एकता हो, भाईचारा हो।
सन्दर्भ-
१. विपिन्न चन्द्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, सुचेता महाजन, क.न.पनिकर, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, पृ० ३२२।
२. वही, पृ० ३२५
३. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० ७९
४. वही, पृ० ९३
५. राही मासूम रजा, टोपी शुक्ला, पृ० ९६
६. वही, पृ० ४९
७. वही, पृ० ५
८. वही, पृ० ७६
तूफान से पहले
कहीं अब्रू पे हैं महराबे इबादत के शिकन
कहीं मिम्बर (इमाम) की जुबाँ पर है बगावत के सुखन (क्रांति की बातें)
कहीं आवाजें अजाँ में हैं वह पैगामे दुहुल (संवाद देने वाले ढोल)
सुनके जिनको सफेदा (नमाजी) में पड़ी है हलचल
कहीं मीनारों पे दुश्मन के लिए दारे हैं
कहीं तकबीर में तलवार की झंकारें हैं
गैज (क्रोध) में कौसरो-तस्नीम (स्वर्ग-मुख) के अफ़साने कहीं
घेरा डाले हुए तस्बीह के सौ दाने कहीं
उबले पड़ते हैं वह सिजदे के निशानों को है जोश
खानकाहों (आश्रम) की खमोशी भी है तूफांबदोश (तूफानी रात)
कहीं फारां (एक पहाड़) से फरहरे की हवा आती है
कहीं कैलाश से डमरू की सदा आती है
कहीं मिम्बर (इमाम) की जुबाँ पर है बगावत के सुखन (क्रांति की बातें)
कहीं आवाजें अजाँ में हैं वह पैगामे दुहुल (संवाद देने वाले ढोल)
सुनके जिनको सफेदा (नमाजी) में पड़ी है हलचल
कहीं मीनारों पे दुश्मन के लिए दारे हैं
कहीं तकबीर में तलवार की झंकारें हैं
गैज (क्रोध) में कौसरो-तस्नीम (स्वर्ग-मुख) के अफ़साने कहीं
घेरा डाले हुए तस्बीह के सौ दाने कहीं
उबले पड़ते हैं वह सिजदे के निशानों को है जोश
खानकाहों (आश्रम) की खमोशी भी है तूफांबदोश (तूफानी रात)
कहीं फारां (एक पहाड़) से फरहरे की हवा आती है
कहीं कैलाश से डमरू की सदा आती है
Monday, December 29, 2008
क्रान्ति कथा 1857
राही मासूम रज़ा कृत 1857 पर कविता दी जा रही है .इससे पहले कई टुकड़ो में क्रान्ति कथा दी गई थी. अब एक साथ प्रेषित है .
क्रान्ति कथा
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
कान खोलकर सुनो कथा है क्रान्ति के पहले सावन की
अंग्रेजों की धूप कड़ी थी धरती पर थी आफत
सत्तावन की गर्मी पाकर खिल उट्ठी थी बगावत
जीना दूभर मरना मुश्किल ख्वाबों पर थी मुसीबत
राम रहीम भी दो बन्दी थे आई थी वह कयामत
मुल्ला जी का हाल बुरा था पगड़ी ढीली बाह्मन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
नफरत का एक दीप जलाये राह पे राही आये
देख के अपनी कसी भुजायें मन ही मन मुस्काये
अंग्रेजों की घूस से लड़ने क्रान्ति के बादल छाये
सत्तावन ने बीन बजाई और काले लहराये
सर धड़ का बाजार गर्म था किसको फिक्र थी दामन की
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
बन्दीघर में लोटा थाली पर बन्दी टकराये
अंग्रेजों ने लाठी के बादल उन पर बरसाये
इत्ती इत्ती बात पे फौजी जब देखो गरमाये
हालत यह थी जो बोले वह तोपों में उड़ जाये
फिर भी त्योरो चढ़ी हुई थी हर रस्ते हर आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
सत्तावन के आते-आते देश की हालत यह थी
खेतों और खलिहानों के दिल धड़के और आँख उट्ठी
गुस्से में बल खाती थी हर राह हर इक पगडंडी
अंग्रेजों के पाप की गगरी अब छलकी तब छलकी
इक इक तीली टूट चुकी थी अंग्रेजों की चिलमन की
सुनो भाइयों सुनो भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
हलके कंधों पर रखा था टैक्स का बोझा भारी
फौजों तक इक दौड़ लगी थी, थी ऐसी बेकारी
चूनर का चेहरा उतरा था, कुम्हलाई थी सारी
पूर पूर थी पूराबख की फिर भी प्यासी नारी
घोर अँधेरा है जीवन में ज्योत बुझी उन नैनन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
माखन नहीं किसी मटके में, माखन कौन चुराये
कृष्ण गया परदेस तो कोई क्या पायल खनकाये
नीलमनी की आस में राधा बैठी दीप जलाये
कौन कन्हैया तट पर बंसी आज बजाये
किसका रस्ता देख रही हैं आखिर आँखें मधुबन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जिन नैनन को देख के हिरनी अपनी आँख झुकाये
उन नैनन में घोर निराशा के बादल मँडराये
जन लम्बे बालों को देख के काला भी लहराये
उन लम्बे बालों की उलझन देख के जी में आये
इब श्मशान को ले चलते अर्थी इस गोरे शासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
छुटपुट टकराये भी खेतों की गोदी के पाले
डाकू बनकर जंगल-जंगल फिरे कहीं दिलवाले
जान पे अपनी खेल रहे थे यहाँ वहाँ मतवाले
अंग्रेजी ताकत के पैरों में भी पड़ गए छाले
उलटी-सीधी साँस चली वह हालत थी बेईमानन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
इस कस्बे में भाले उट्ठे और उसमें शमशीरें
यहाँ उठे श्लोक वीर के वहाँ उठी तकबीरें
अलग-अलग सब ढूँढ रहे थे ख्वाबों की ताबीर (स्वप्नफल)
लेकिन छुटपुट लड़ने से कब टूटी हैं जंजीरे
रोयाँ-रोयाँ जकड़ा पाया, साँस उखड़ी थी दामन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
राजा हो या प्रजा हो, शहरी हो या देहाती
वह जबरदस्त हो,ढाके की मलमल हो, या हो लंगोटी
मंदिर हो या मस्जिद, वह बधना हो या हो थाली
अपनी-अपनी दुनिया में सबने यह जी में ठानी
आखिर कोई चीज है यारो गैरत अपने आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
काशी के पंडित हों या हों वह पटना के मुल्ला
दिल्ली का हव्शी हलवा हो या मथुरे का पेड़ा
कैसरबाग की नबाबी हो या हो चौक का शहदा (गुंडा)
जाटों की तलवार हो या हो मिर्जापुर का डंडा
सब ही आस लगाए थे आजादी के एक दर्शन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
भोजपुरी भी देख रही थी दूर-दूर तक रस्ता
अवधी के हर चारों तरफ भी था गहरा सन्नाटा
एक ऊँची तलवार बनी बैठी थी मीठी भाषा
और तारीख भी देख रही थी रंग खड़ी बोली का
देख वह काले बादल उट्ठे हवा चली वह दामन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जौनपुर भी ऐंठ रहा था, घूर रहा था बलिया
इस बस्ती की कजरी जागी, उस नगरी का बिरहा
गाजीपुर की खुशबू चौंकी, आजमगढ़ का चरखा
बकसर के मैदान में आया लोर (पूर्वी, उत्तर प्रदेश की बहुत लम्बी लाठी) सम्हाले आरा
छपरा ने भी बातें समझीं अपने दिल की धड़कन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
मेरठ में चाकू की दुकानो से आंखें खोलीं
और अलीगढ़ के तालों ने सोती आँखें धालीं
कायमगंज के पठानों ने भी तलवारें टटोलीं
और प्रयाग में धीरे-धीरे कुछ त्रिवेनी बोलीं
डोल रही थी इक-इक चूल इस अंग्रेजी सिंहासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो,कथा सुनो सत्तावन की
जिस जानिब देखो उस जानिब एक गहरी बेचैनी
झाँको जिसकी दुनिया में उस न्याम की दुनिया खाली
अपनी भुजायें देख रहा था हर शहरी देहाती
यूरोप से पश्चिम तक हर दिल लोहे का व्यापारी
क्या बतलाऊँ क्या हालत थी पिछले सन् सत्तावन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
क्रान्ति कथा
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
कान खोलकर सुनो कथा है क्रान्ति के पहले सावन की
अंग्रेजों की धूप कड़ी थी धरती पर थी आफत
सत्तावन की गर्मी पाकर खिल उट्ठी थी बगावत
जीना दूभर मरना मुश्किल ख्वाबों पर थी मुसीबत
राम रहीम भी दो बन्दी थे आई थी वह कयामत
मुल्ला जी का हाल बुरा था पगड़ी ढीली बाह्मन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
नफरत का एक दीप जलाये राह पे राही आये
देख के अपनी कसी भुजायें मन ही मन मुस्काये
अंग्रेजों की घूस से लड़ने क्रान्ति के बादल छाये
सत्तावन ने बीन बजाई और काले लहराये
सर धड़ का बाजार गर्म था किसको फिक्र थी दामन की
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
बन्दीघर में लोटा थाली पर बन्दी टकराये
अंग्रेजों ने लाठी के बादल उन पर बरसाये
इत्ती इत्ती बात पे फौजी जब देखो गरमाये
हालत यह थी जो बोले वह तोपों में उड़ जाये
फिर भी त्योरो चढ़ी हुई थी हर रस्ते हर आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
सत्तावन के आते-आते देश की हालत यह थी
खेतों और खलिहानों के दिल धड़के और आँख उट्ठी
गुस्से में बल खाती थी हर राह हर इक पगडंडी
अंग्रेजों के पाप की गगरी अब छलकी तब छलकी
इक इक तीली टूट चुकी थी अंग्रेजों की चिलमन की
सुनो भाइयों सुनो भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
हलके कंधों पर रखा था टैक्स का बोझा भारी
फौजों तक इक दौड़ लगी थी, थी ऐसी बेकारी
चूनर का चेहरा उतरा था, कुम्हलाई थी सारी
पूर पूर थी पूराबख की फिर भी प्यासी नारी
घोर अँधेरा है जीवन में ज्योत बुझी उन नैनन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
माखन नहीं किसी मटके में, माखन कौन चुराये
कृष्ण गया परदेस तो कोई क्या पायल खनकाये
नीलमनी की आस में राधा बैठी दीप जलाये
कौन कन्हैया तट पर बंसी आज बजाये
किसका रस्ता देख रही हैं आखिर आँखें मधुबन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जिन नैनन को देख के हिरनी अपनी आँख झुकाये
उन नैनन में घोर निराशा के बादल मँडराये
जन लम्बे बालों को देख के काला भी लहराये
उन लम्बे बालों की उलझन देख के जी में आये
इब श्मशान को ले चलते अर्थी इस गोरे शासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
छुटपुट टकराये भी खेतों की गोदी के पाले
डाकू बनकर जंगल-जंगल फिरे कहीं दिलवाले
जान पे अपनी खेल रहे थे यहाँ वहाँ मतवाले
अंग्रेजी ताकत के पैरों में भी पड़ गए छाले
उलटी-सीधी साँस चली वह हालत थी बेईमानन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
इस कस्बे में भाले उट्ठे और उसमें शमशीरें
यहाँ उठे श्लोक वीर के वहाँ उठी तकबीरें
अलग-अलग सब ढूँढ रहे थे ख्वाबों की ताबीर (स्वप्नफल)
लेकिन छुटपुट लड़ने से कब टूटी हैं जंजीरे
रोयाँ-रोयाँ जकड़ा पाया, साँस उखड़ी थी दामन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
राजा हो या प्रजा हो, शहरी हो या देहाती
वह जबरदस्त हो,ढाके की मलमल हो, या हो लंगोटी
मंदिर हो या मस्जिद, वह बधना हो या हो थाली
अपनी-अपनी दुनिया में सबने यह जी में ठानी
आखिर कोई चीज है यारो गैरत अपने आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
काशी के पंडित हों या हों वह पटना के मुल्ला
दिल्ली का हव्शी हलवा हो या मथुरे का पेड़ा
कैसरबाग की नबाबी हो या हो चौक का शहदा (गुंडा)
जाटों की तलवार हो या हो मिर्जापुर का डंडा
सब ही आस लगाए थे आजादी के एक दर्शन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
भोजपुरी भी देख रही थी दूर-दूर तक रस्ता
अवधी के हर चारों तरफ भी था गहरा सन्नाटा
एक ऊँची तलवार बनी बैठी थी मीठी भाषा
और तारीख भी देख रही थी रंग खड़ी बोली का
देख वह काले बादल उट्ठे हवा चली वह दामन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जौनपुर भी ऐंठ रहा था, घूर रहा था बलिया
इस बस्ती की कजरी जागी, उस नगरी का बिरहा
गाजीपुर की खुशबू चौंकी, आजमगढ़ का चरखा
बकसर के मैदान में आया लोर (पूर्वी, उत्तर प्रदेश की बहुत लम्बी लाठी) सम्हाले आरा
छपरा ने भी बातें समझीं अपने दिल की धड़कन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
मेरठ में चाकू की दुकानो से आंखें खोलीं
और अलीगढ़ के तालों ने सोती आँखें धालीं
कायमगंज के पठानों ने भी तलवारें टटोलीं
और प्रयाग में धीरे-धीरे कुछ त्रिवेनी बोलीं
डोल रही थी इक-इक चूल इस अंग्रेजी सिंहासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो,कथा सुनो सत्तावन की
जिस जानिब देखो उस जानिब एक गहरी बेचैनी
झाँको जिसकी दुनिया में उस न्याम की दुनिया खाली
अपनी भुजायें देख रहा था हर शहरी देहाती
यूरोप से पश्चिम तक हर दिल लोहे का व्यापारी
क्या बतलाऊँ क्या हालत थी पिछले सन् सत्तावन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
Sunday, December 28, 2008
GAZAL
भोजपुरी भी देख रही थी दूर-दूर तक रस्ता
अवधी के हर चारों तरफ भी था गहरा सन्नाटा
एक ऊँची तलवार बनी बैठी थी मीठी भाषा
और तारीख भी देख रही थी रंग खड़ी बोली का
देख वह काले बादल उट्ठे हवा चली वह दामन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जौनपुर भी ऐंठ रहा था, घूर रहा था बलिया
इस बस्ती की कजरी जागी, उस नगरी का बिरहा
गाजीपुर की खुशबू चौंकी, आजमगढ़ का चरखा
बकसर के मैदान में आया लोर (पूर्वी, उत्तर प्रदेश की बहुत लम्बी लाठी) सम्हाले आरा
छपरा ने भी बातें समझीं अपने दिल की धड़कन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
अवधी के हर चारों तरफ भी था गहरा सन्नाटा
एक ऊँची तलवार बनी बैठी थी मीठी भाषा
और तारीख भी देख रही थी रंग खड़ी बोली का
देख वह काले बादल उट्ठे हवा चली वह दामन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जौनपुर भी ऐंठ रहा था, घूर रहा था बलिया
इस बस्ती की कजरी जागी, उस नगरी का बिरहा
गाजीपुर की खुशबू चौंकी, आजमगढ़ का चरखा
बकसर के मैदान में आया लोर (पूर्वी, उत्तर प्रदेश की बहुत लम्बी लाठी) सम्हाले आरा
छपरा ने भी बातें समझीं अपने दिल की धड़कन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
Saturday, December 27, 2008
मैं एक फेरीवाला के सन्दर्भ में
- डॉ० आदित्य प्रचण्डिया
कविता सम्पूर्ण चेतना की अखण्ड अभिव्यक्ति है, वह खण्डित व्यक्तित्व की बौ(कि शब्द लीला मात्र नहीं है। असम्बद्ध शब्द जाल और व्यक्ति वैचित्रयवाद की कारीगरी से पाठक को उलझाने और वास्तविक कवि कर्म में बृहद्न्तर हैं। कविधर्म कोरे फ़ैशन से भिन्न होता है। नया भावबोध या नई अभिव्यक्ति के चिल्लाने मात्र से काव्य का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। किसी काव्य की क्षमता उसमें चित्रित अनुभूति गहनता और शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता में निहित है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काव्य में हृदय के सहज उद्रेक और उसके साथ निश्छल अभिव्यक्ति का योग अनिवार्य है।१ राही का कवि-मन अपने को समझने के साथ भविष्य के प्रति आशापूर्ण है। उसकी कविता व्यापक सत्य की व्यंजना करने की चेष्टा करती है। वह सामाजिक यथार्थ के प्रति जागरूक है। उसमें बौ(किता अनुभूतियों के रूप में आत्मसात् होकर अभिव्यक्त हुई है और संवेदनशीलता एक अनिवार्य गुण के रूप में विद्यमान है। राही स्वयं कहते हैं- कविता नई या पुरानी नहीं होती। नई या पुरानी होती है कवि की चेतना। व्यक्ति और समाज तथा समाज और प्रकृति के सम्बन्धों की चेतना। इस चेतना के लिए यह ज+रूरी नहीं कि जि+न्दगी को उसके हर रूप में जीकर देखा जाये। क्योंकि यह तो हुआ अनुभव। अनुभव का एक अपना महत्त्व है, पर अनुभव चेतना का बदल नहीं है क्योंकि दूध का जला हमेशा छाछ को फूँक-फूँक कर पीना चाहता है। कभी-कभी फिर से मुँह जलाने को जी चाहने लगता है। यही अपने मुँह को बार-बार जलाने वाला कवि है। मुंह गया जहन्नुम में, पर जिन्दगी को गर्म-गर्म पीने की बात ही और है।''२
राही की कविता युग की विषण्णुता, छल-छद्म भरे वातावरण और स्वार्थपरता की समान प्रतिक्रिया है। जीवन के कठोर संघर्षों और गम्भीरतम रहस्यों का उद्घाटन करने में राही की लेखनी तत्पर रही है। उनकी कविता पौरुष और कोमल दोनों सीमान्तों को स्पष्ट करती है। बाह्यजगत् और मनोजगत्, ग्राम-जीवन और नगर-बोध, क्रान्तिदर्शी दृष्टि और मर्मभेदी दृष्टि, स्वप्न दर्शन और यथार्थ चित्रण,उत्पीड़न के प्रति आक्रोश और शोषितों के प्रति करुणा, व्यंग्य, कटाक्ष और विनोद सभी का संश्लेषण और समंजन देखने को मिलता है। राही जीवन रस के आस्थावान कवि हैं। वह वादों से अलग रहकर, स्वतंत्र डगर पर चलने वाले स्वतंत्र चेता प्राणवान कलाकार है। जीवन की अनुकूल-प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में वह आशा का सन्देश देते हैं। उनके काव्य में सर्वत्र ऊर्जा और मार्दव, आशा -निराशा, मृत्यु-भय और जिजीविषा के धूप-छाँही रंग देखने को मिलते हैं पर अन्ततःउनकी आस्था, आत्म-विश्वास, मानव चेतना की उज्ज्वल आभा में अडिग विश्वास उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान करते हैं जिससे वह दैन्य, अवसाद, पीड़ा और निराशा की छाती पर पाँव टेककर खड़े हो जाते हैं, आग उगलते ज्वालामुखी को अपने हाथों से मँदने की तत्परता दिखाते हैं और अंध का पूर्ण सागर के पार नव चेतना का आलोक देखते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता में राही की कविता की एक अपनी अलग स्थिति हैं। उनकी कविता आधुनिकता की प्रचलित अवधारणा अथवा उसके प्रतिमानों को चुनौती देने वाली कविता है।
मैं एक फेरीवाला' संग्रह में राही द्वारा सन् १९५५ से सन् १९७३ तक लिखित पचपन रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह की कविताओं में राही ने अपना काव्यादर्श प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की कविताओं के विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि राही ने अपनी काव्यभूमि पा ली है, अपनी कविता का प्रकृत मार्ग खोज लिया है। कवि समाज के सामान्य व्यक्तियों से निराला होता है। उसके जीवन-यापन के तौर-तरीके ही कुछ भिन्न होते हैं और इसी कारण उसके सोचने-समझने के रंग-ढंग साधारण व्यक्ति से भिन्न होते हैं। दरअसल युग के जीवन-दर्शन में उस युग की दृष्टि, उसका अपना मन्तव्य, बिम्ब और फिर उससे प्रभावित उसकी प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। कवि असाधारण संवेदनशील होने के कारण अपने युग की इन प्रभावित प्रक्रियाओं और आयामों से बहुत दूर तक प्रभावित होता है। और फिर अपना जीवन दर्शन बनाता हैं जीवन दर्शन के अन्तर्गत जीवन-दृष्टि, जीवन-बिम्ब, जीवन-प्रक्रिया और जीवन-मूल्य सिद्धान्त माने जाते है। वास्तव में जीवन-दर्शन से व्यक्ति का जीवन बिम्ब ;जीवन जीने का लक्ष्यद्ध बनता है और फिर उससे उसकी जीवनदृष्टि जीवन जीने की दृष्टि बनती है, तद्नुसार उसके जीवन की प्रक्रिया सम्पादित होती है और फिर उसके जीवन-मूल्य ;सिद्धान्त निर्मित होते हैं।
राही के जीवन-बिम्ब युग-सापेक्ष और कुछ विरले ही थे। इसी कारण उनकी जीवनदृष्टि और उसकी प्रक्रिया बड़ी दु्रतगामी बनी रही। उनके जीवन की कला अपूर्ण ही थी। वे तो हर वक्त मगन रहना चाहते थे, किन्तु प्रारम्भ से ही उन्होंने जीवन से संघर्ष किया, अतः वह मगन रहने की प्रवृत्ति' ग्राम्भीर्य और चिन्तनशील रूप धारण करती चली गई। वास्तव में राही जिन्दगी जीने का ढंग जानते थे, जिन्दगी से भागना उन्होंने नहीं सीखा था। राही के शब्द-शब्द में विश्वसनीयता और जीवन-संघर्ष के रूप में उनका जीवन-दर्शन स्पष्ट झलकता है। इस जीवन-दर्शन से प्रभावित कवि परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्षरत रहना अधिक आवश्यक समझता है। परिवर्तन समाज-मानव का विकास है और इस परिवर्तन के लिए मरना कोई मरना नहीं होता। अपितु कवि राही तो मृत्यु'में एक नई राह देखता है -
मेरा जिस्म तो मर जाएगा/लेकिन सब्जा शबनम के पैमाने लेकर/आब्ला-पा लोगों की राहों में बैठेगा/लेकिन चाँद हर एक घर में लोरी गाएगा/ लेकिन सूरज हर-एक दरवाज+े पर जाकर दस्तक देगा/वादे-सहर खुशबू को कन्धों पर बिठलाकर दुनिया दिखलाने निकलेगी/फिर मैं कैसे मर सकता हूँ ?३
कवि की प्रबल जिजीविषा उसे पराजय स्वीकार नहीं करने देती, मृत्यु-भय उसे आतंकित नहीं करता, अपितु मुरझाए जीवन को पल्लवित करना चाहता है। वह मौत के जबड़े पकड़ जिन्दगी का अर्क पीने का अभिलाषी है।
कवि मनुष्य की सम्पूर्ण आत्मा को सक्रिय और गतिमान बनाता है और वह तभी ऐसा कर सकता है जब कविता केवल भावों का सहज उच्छलन न हो, वह चिन्तन, मनन और दर्शन की भूमि पर अधिष्ठित हो। ÷मैं एक फेरीवाला'संग्रह की कविताओं को देख-पढ़ कर स्पष्ट हो जाता है कि राही भावनाओं में बिहार करने के साथ-साथ मानस-मंथन कर विचार-मणियों को उद्भासित करने वाले मनीषी भी है। उन्होंने जगत् की विषमताओं, मानव -हृदय और आत्मा को व्याकुल बना देने वाली गूढ़ समस्याओं पर विचार किया है और यथाशक्ति उनका उपचार करने के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। धर्मवीर भारती कहते हैं अन्दर के गहरे सैद्धान्तिक विश्वास ;स्थाई जीवन दर्शनद्ध जब केवल वैचारिक न रहकर जिन्दगी जीने की पूरी शैली बन जाते हैं और अपने को उन तमाम संस्कारों से सम्बद्ध कर लेते हैं जो बचपन से कैशोर्य तक खानपान और आसपास के परिवेश से मिले हों-तो एक खास किस्म का तेवर व्यक्तित्व में आ जाता है, वह तेवर ओढ़ा हुआ नहीं होता। वह समूचे व्यक्ति की स्थाई अभिव्यक्ति बन जाता है-आचरण में भी लेखन में भी। उनकी कविता का पाठक अगर इस तेवर को पकड़ ले तो उनकी कविता एक अजीब कशिश पैदा कर देगी उनके मन में। उनका डिक्शन, उनके छन्द, उनकी उपमाएँ, उनके बिम्ब सब में यह तेवर जान की तरह बसा हुआ है।''४ राही का वह तेवर बहुत मुलायम, बहुत नाजुक संवेदन वाला है। यथा-
पोर पोर में मेंहदी की मीठी खुशबू के छल्ले पहने/बाल सँवारे/चंचल आँखों के पैरों में काजल की जंजीरें डाल/ जब वह दरवाजे तक आई/दरवाजे पर कोई नहीं था/धूल किसी के नक्शे-कदम से खेल रही थी।५
लगता है कोई पद्माकर या मतिराम आधुनिक मुहावरे में वाल्टर डिला मेयर के उस काव्य-स्तर को छू रहा है। जहाँ समय थम जाता है और एक क्षण की घटना समय से परे की फन्तासी बन जाती है।६
आधुनिक युग यांत्रिकता, औद्योगीकरण, भौतिक समृ, द्धि हृदय की संकीर्णता और मूल्यों के विघटन का युग है। बाह्य सम्पन्नता के पीछे आत्मा की दरिद्रता झांक रही है ऊपरी तड़क-भड़क के नीचे मानवता कराह रही है। विज्ञान ने जिस स्वर्णिम आभा का विश्वास दिलाया था, वह मुलम्मा सिद्ध हो रही है। लोगों के नेत्रों पर से भ्रान्ति का पर्दा उठ रहा है, इस मोहभंग की स्थिति में निराशा, कुंठा, संत्रास का वातावरण बनना स्वभाविक हैं। आधुनिक जीवन की विकृतियों, विसंगतियों और विद्रुपताओं से कवि राही का तेवर चोट खाकर, पलटकर, तनकर खड़ा हो जाता है, धधकता हुआ जब उनके मूलभूत विश्वासों पर कोई चोट करता है या उन पर वह संज्ञा लादने की कोशिश करता है जो उनके सन्दर्भ में बुनियादी तौर पर अधूरी या असंगत है। ÷गंगा और महादेव' कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बजायें जाग रही हैं।
और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूँ-
मेरा भी एक सन्देस है/मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुँह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दोः/महादेव/अब इस गंगा को वापस ले लो/यह ज+लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बन-बनकर दौड़ रही है। ७
इस रचना में एक वर्तमान सामाजिक या सियासी वैषम्य पर भरपूर चोट है वरन् इसलिए कि एक अनन्त संघर्ष जो कविता के व्यापक मानवीय सत्य और बाहर के वैषम्यपूर्ण पूर्वाग्रह युक्त समाज में व्याप्त मीडियाकर यथार्थ में चलता आया है उसे जब भी किसी तेवर वाले कवि-कलाकार या चिन्तक ने पूरे आन्तरिक बल से चुनौती दी है, बेलाग बेहिचक चोट की है तब अक्सर उसको उसका अजीब मूल्य चुकाना पड़ा है। हाथी के नीचे कुचला गंग, सूली पर चढ़ा मन्सूर, देश से निर्वासित बायरन और शैली, अमरीका से बहिष्कृत चार्ली चैपलिन, रूस में कुचला हुआ पास्तरनाक। ये सिर्फ़ चन्द उदाहरण हैं। धर्मवीर भारती के शब्दों में राही कम्बख्त जब तन कर अपने आन्तरिक कवि सत्य को अपने चुल्लूभर गंगाजल-लहू को अपने आख़िरी हथियार की तरह लेकर उठ खड़ा होता है तो मुझे अपने इस प्यारे दोस्त पर जितना फ़ख्र होता है उतनी फ़िक्र भी होने लगती है।''८
कवि राही की बादल कविता मानवीकरण का मनोरम रूप है। यहाँ कवि का अन्तर्मन अपने वैयक्तिक रूप में खुलकर स्पष्ट हो पड़ता है। पानी के कुछ प्यासे कतरे बस्ती-बस्ती, सहरा-सहरा होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं। यथा-
बादल क्या हैं/पानी के कुछ प्यासे कतरे/घर से निकले/ बाल उलझे/तलवों में छाले/बस्ती-बस्ती/सहरा-सहरा/होठों के रेगिस्तानों को ढूंढ रहे हैं।९
ऐसे निरूपण से स्पष्ट है कि यहाँ भावक की नितान्त वैयक्तिक प्रतीति को वाणी प्रदान करते हुए प्रकृति-सन्दर्भ को संजीवित किया गया है।
हृदय की व्याप्ति सीमित नहीं है परन्तु परिधि सौन्दर्य के सम्मुख वह असीमता भी सीमित हो जाती है, तब सौन्दर्य कितना असीम, कितना अनन्त और कितना विराट है। हृदय के प्रसार के साथ ही सौन्दर्य भी विस्तृत होता जाता है वह पानी की एक ऐसी बूँद है जिसकी तृष्णा नहीं मरती जो नहीं पीता वह तो प्यासा रहता ही है, पर जो पीता है उसकी प्यास का तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऐसा ही प्यासा है यह कवि राही मासूम रजा। प्यास और पानी'कविता में राही कहते हैं -
मैंने जब भी जन्म लिया है/अपने को तनहा पाया है/अपने को प्यासा पाया है/पानी/पानी/इस नन्हे से लफ्+ज+ में कितनी मौसीकी है/पानी, पानी/मैंने जब भी जन्म लिया है/इन लफ्+जों पर गौर किया है।''१०
हृदय की अतृप्त पिपासा ही इस कविता की मूल विशेषता है। हृदय क्या है ? विविध भावनाओं का रसभरा कोष ही न। इसीलिए केन्द्रीय ध्वनि ऐक्य होने पर भी आशा, आकांक्षा, असूया, उत्साह, उत्कंठा, उन्माद, त्रास, क्षोभ, दैन्य, निर्वेद, भ्रम, विश्वास, विषाद आदि भावोर्मियाँ यत्र-तत्र उभरी दिखाई देती है। हाँ, कवि के आशावादी आग्रह के कारण निराशा, भय, वितृष्णा आदि को कहीं भी स्थान नहीं मिल सका है। आत्मविश्वास की एक गम्भीर छाया समस्त कविता पर छायी है।
भय, आतंक, ऊब और अकेलापन के बोध की प्रवृत्ति राही की कविता में विशेष रूप से उभरकर सामने आई है। देश के औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि और आबादी का व्यापक पैमाने पर स्थानान्तरण हुआ है। आज के प्रबुद्ध कवि और कलाकार नगरों की इस अपार भीड़ में जो अधिकतर उखड़े लोगों की भीड़ है, अपने को खोया और डूबा हुआ पाते हैं। राही को ऐसा लगता है कि वे बिल्कुल अकेले हो गए हैं उनकी परछाईयां खो गई हैं - रात के जगमगाते हुए शहर की भीड़ में/मेरी परछाइयाँ खो गई है कहीं/गैर है आस्माँ/अजनबी है जमीं/मैं पुकारूँ किसे/चल के जाऊँ कहाँ/मेरी परछाइयाँ खो गई रात के जगमगाते हुए शहर में।''११
धर्म निरपेक्षता, देशभक्ति, भावात्मक एकता वगैरह के नाम पर खड़ी बोली की उर्दू और हिन्दी दोनों शैलियों में ढेरों ग़जलें, नज्में, कविताएं लिखी गई है। इनाम अकराम भी मिले है। मगर बहुत कम ऐसी पंक्तियाँ मिली है। उनमें जहाँ कवि या शायर ने उन्हें सतही जेहन से दुनियाबी समझ बूझ के साथ न लिखकर उबलकर अपनी समूची आत्मा के साथ लिखा हो और ना समझों के मुँह पर मार दिया हो। लोग खतरा बचाकर चलते हैं, चारों ओर की फिजां देखकर बात करते है, राही बेसाख्ता सट पड़ता है। बिना किसी चीज की परवाह किए। अपनी कविता अपने सीने पर लिखकर सीना संगीनों से अड़ा देता है।१२ राही की ग़जले पढ़ने पर एक ऐसे शख्+स की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसने अपनी जिन्दगी में बहुत गम उठाये हैं मगर जो इनके कारण पूरी तरह टूट नहीं गया है। अतिशय परहित चिन्तन, संघर्षशील व्यक्ति का आत्मलोचन और ऐसे व्यक्ति की अमरता व्यंजित हुई है जो सुनसान जंगल में मुस्कराते हुए लौ की मानिंद डगमगाते-लड़खड़ाते कदम आगे बढ़ाते हुए चल रहा है -
इस अंधेरे के सुनसान जंगल में हम डगमगाते रहे, मुसकुराते रहे/लौ की मानिन्द हम लड़खड़ाते रहे, पर कदम अपने आगे बढ़ाते रहे''१३
राही की मायूसी में फ़ानी की मुकम्मल शिकस्त का एहसास नहीं मिलता। उनकी मायूसी की तुलना मीर की मायूसी से की जा सकती है जो एक लिविंग वायर' की तरह है -जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे, रोज मरते रहे, रोज जीते रहे/जिन्दगी भी हमें अजमाती रही, और हम भी उसे अजमाते रहे।''१४
राही के दिलो-जिगर में इतनी ताकत है कि उसे किसी सहारे की जरुरत नहीं है, वह अकेला होते हुए भी जिन्दा है-आज अपने कमरे में किस कदर अकेला हूँ/सिर्फ दिल धड़कता है, हाँ मैं फिर भी जिन्दा हूँ।''१५
राही के जख्मों की आवाज है कि वह मौत के वीरानों से लौट आया है फिर अपने नए अफसानों को बनाने के लिए कोई शेर और कोई नज्म उसे पुकारती है - ऐ मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन/लौट आया हूँ मैं फिर मौत के वीरानो से/फिर कोई शेर, कोई नज्म+ पुकारे मुझको/फिर मैं अफ्साने बनाऊँ तेरे अफ्सानों से।''१६
राही की शायरी की बुनियादी लय उदासी की है। यह उदासी हमारे युग की सबसे बड़ी और जीवित वास्तविकता है। राही कहते हैं कि इन नज्मों को उदासी का दिया जलाकर पढ़िये।''१७
राही के अश्आर बहर और मुहावरे के ऐतबार से तसल्ली बख्श है। बहर के कम ही झोल उनके यहां मिलेंगे। राही अपनी शायरी के विषय में कहते है - मेरी शायरी हिज्र' और प्यास' और तनहाई' की शायरी है और शायद यही कारण है कि मेरी इमेजेज' उर्दू के दूसरे प्रगतिशील कवियों की इमेजेज' से अलग है।''१८
राही ने लिपि के मामले में जो रुख अपनाया कि उर्दू और हिन्दी दो अलग साहित्य नहीं हैं और देवनागरी के माध्यम से दोनों की ऐतिहासिक एकता अब स्थापित हो जानी चाहिए।१९ राही को उर्दू के तरक्की पसंद और गैर तरक्की पसंद महानुभावों के विरोध का सामना करना पड़ा। राही की ग़जलों में नए इंसानी रिश्तों का बहुत सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी चित्रण हुआ हैं। इन रिश्तों में मीर और गालिब से आगे के सामाजिक परिवेश का क्रिस्टेलाइजेशन है- कमरे की कब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए/खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा/मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी/भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था।''२०
हिन्दी खड़ी बोली काव्य बहुत धीमे-धीमे विकसित हुआ था, लेकिन द्विवेदी युग से निकलकर माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन' के रहस्योन्मुख राष्ट्रीय काव्य के द्वार से होते हुए छायावाद को पार कर नई कविता के दौर में आकर अनेक दिशाओं में अनेक आयामों में विकास करता गया। उर्दू ने फ़ारसी का आधार स्वीकार कर लिया था। दरबार के मंजे हुए डिक्शन को उसने अपना लिया था। उसे किसी ब्रज या अवधी से वैसा विरोध नहीं सहना पड़ रहा था। अतः भाषा शैली और अभिव्यंजना का मँजाव उसमें हिन्दी के खड़ी बोली काव्य से बहुत पहले आ गया। लेकिन दरबार और अभिजात्य वर्ग की जेहनियत और डिक्शन से बहुत अधिक बँधे होने के कारण खास मोड़ पर आकर लगने लगा कि विषयवस्तु और शैली-रूप दोनों में एक खास ढाँचे में उर्दू कविता बँध गई है। राही की कविता की एक खास स्थिति है इन दोनों के बीच, और वह स्थिति ऐसी है कि उसे समझ लेने पर ही हिन्दी कविता से उनके इस काव्य संकलन को उचित स्थान पर सही ढंग से जोड़ा जा सकेगा। जहाँ उर्दू की कविता का बँधाव बाँझपन के बिन्दु पर पहुंच गया था, वहाँ से राही ने एक नया रास्ता तलाश करने की कोशिश की।२१
राही स्वतंत्रता के पहले प्रगतिशील लेखक संघ के आंदोलन से जुड़कर साहित्य में आए। बाद में वामपंथी आन्दोलन निष्फल हुए। भास्वर स्वर में दहाड़ने वाले कविगण चुप हो गए। जिस प्रकार कमरे में बहुत से लोग खूब जोर से वक्तव्यबाजी कर रहे हों और अकस्मात् मौन हो जाएँ तब जो सन्नाटा कमरे में छा जाता है, वह अजीब भयावना-सा सन्नाटा होता है और उसके बाद जो व्यक्ति पहली बार घबरा कर वह सन्नाटा तोड़ता है वह बहुत आहिस्ते से दबे स्वर में आसपास वालों से बोलता है। उस दहशत भरे सन्नाटे में जिन लोगों ने धीमे स्वर में आहिस्ते से बोलना शुरू किया उनमें से एक थे राही मासूम रजा। राही को यह धीमे बोलना सीखना पड़ा। क्योंकि कविता अब तकरीर से बातचीत बन गई थी। पहले उनपर मीर अनीस का डिक्शन सवार था ;उसी पर उन्होंने शोध की थीद्ध पर बाद में उन्होंने अपने लिए नया डिक्शन खोजा। काव्य के नए उपकरण खोजे और उसमें एक नए संकट के समक्ष उन्होंने अपने को पाया। राही की एक गहरी स्थापना है कि मजहब और संस्कृति दो अलग चीजें हैं। दोनों एक दूसरे को प्रभावित कर सकती है, पर संस्कृति का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है और मजहब के दायरे में उसे बांधना नहीं चाहिए। राही की मान्यता है कि भारत में रहने वाला हर आदमी, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, उसकी जड़े भारतीय ही है। ऐसे वातावरण में राही एक ओर उर्दू की सारी कट्टर धर्मान्धता को खुलेआम चुनौती देने का साहस जुटाते हैं तो दूसरी ओर जब संकीर्ण धर्मान्ध हिन्दू उन्हें मुसलमान कहकर निर्वासित करना चाहते हैं, विच्छिन्न करना चाहते है तो वह डरते नहीं, दबते नहीं, ललकार कर कहते हैं कि तुम उस गंगाजल का क्या करोगे जो मेरी नसों में लहू बनकर बह रहा है, जो गंगा के रूप में महादेव की जटाओं से ही निकला है।२२
राही ने उर्दू को अस्वाभाविक बनाने वाले इस्लामिक प्रतीकों का मोह छोड़ा। उन्होंने महापुरुष हुसैन को न लेकर हिमालय की ऊँचाइयों में अकेले भटकने वाले योगीशंकर को अपने आदर्श नायक का प्रतीक-पुरुष चुना। उनकी प्रेम-कविताओं की आलम्बन बनी राधा- शाम भी राधा के ख्+वाबों की तरह खामोश है बेजबां है। और उनके अकेलेपन में उन्हें याद आता है राम का वनवास, हम भी है वनवास में लेकिन राम नहीं। हर राही आये। अब हम को समझाकर कोई घर ले जाये।'' और वह अपना देश और अपने संस्कृति का अपना बेटा होने का यह अहसास उनमें कितना तीखा है, वसीयत'कविता की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- मुझे लें जाके गाजीपुर में गंगा की गोदी में सुला देना/वो मेरी माँ है/वह मेरे बदन का जहर लेगी/मगर शायद वतन से दूर मौत आये/तो मेरी यह वसीयत है/अगर उस शहर में छोटी-सी एक नदी भी बहती हो/तो मुझको उसकी गोदी में सुलाकर उससे यह कह दो कि यह गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है/वो नदी भी मेरी माँ, मेरी गंगा की तरह मेरे बदन का जहर पी लेगी।''२३
इस प्रकार राही वाद' से नहीं बँधे हैं वे अपने अनुभव और आवेग के प्रति प्रतिबद्ध कवि हैं उनकी सम्पूर्ण दृष्टि समाज केन्द्रित है। वह जब जिस धारा को या जिस रेखा को लोकमंगल के लिए श्रेयस्कर मानते हैं, स्वीकारते हैं। उनका मानवतावाद किसी वाद का पूरी तरह अनुसरण स्वीकार नहीं करता वह ÷चयन' करता है, समन्वय करता हैं भावुकता और बौद्धकिता दोनों में समन्वय करते हुए जीवन और स्थिति को भोगकर अनुभवगम्य होकर राही ने रचनाएँ रची है। वे अतीत के प्रति आसक्त तो है पर वर्तमान के अनुभव जगत् को कहीं नहीं भूलें हैं। फलतःएक तनाव-बिन्दु बराबर बना रहा है जो राही को नया अथवा समसामयिक बनाए रख सका है। राही की कविता प्रयत्न-साध्य नहीं, भाव-प्रेरित है, उसमें प्रतिभा है, कला की परख है, कल्पना का वैभव है और सबसे बड़ी बात उसमें मानव के प्रति एक व्यापक सहानुभूति और कर्मण्यता की अदम्य लालसा है। जीवन और जगत् से गृहीत-विधि चित्रों को राही ने भावों की अनूठी लेखनी से मनभावन रंगों में रंग डाला है, और ये ही रंग उनके जीवन दर्शन को भी अभिव्यक्त करते है। इसकी केवल राही के काव्य से गुज+रकर अनुभूति ही की जा सकती है।
सन्दर्भ-सूची
१. डॉ० शिवकुमार शर्मा, हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ ५८१-५८२
२. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, कवि की ओर से, पृष्ठ १७
३. वही, मैं एक फेरीवाला,कविता संग्रह में संकलित कविता-जिन्दगी पृ. २९
४. वही, मैं एक फेरीवाला, भूमिका, पृष्ठ ७-८
५. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-एक पल, एक सदी, पृष्ठ ५७
६. वही, भूमिका, पृष्ठ ८
७. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-गंगा और महादेव, पृष्ठ ६०
८. वही, भूमिका, पृष्ठ ९
९. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-बादल,पृष्ठ ३०
१०. प्यास और पानी, मैं एक फेरीवाला, पृष्ठ ४२
११. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-दीपावली, पृष्ठ ८२
१२. वही, पृष्ठ ९
१३. वही,कविता संग्रह में संकलित-ग़ज+ल पृष्ठ २५
१४. वही, पृष्ठ २५
१५. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-तनहाई, पृष्ठ २२
१६. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज, पृष्ठ २३
१७. वही, पृष्ठ १९
१८. वही, कवि की ओर से, पृष्ठ १७
१९. वही, भूमिका, पृष्ठ १०
२०. वही, कविता-संग्रह में संकलित कविता-जख्मों की आवाज,पृष्ठ २३
२१. वही, भूमिका, पृष्ठ ११-१२
२२. वही, पृष्ठ १३-१५
२३. मैं एक फेरीवाला, कविता-संग्रह में संकलित कविता-वसीयत, पृष्ठ ४७
Friday, December 26, 2008
GAZAL
इस कस्बे में भाले उट्ठे और उसमें शमशीरें
यहाँ उठे श्लोक वीर के वहाँ उठी तकबीरें
अलग-अलग सब ढूँढ रहे थे ख्वाबों की ताबीर (स्वप्नफल)
लेकिन छुटपुट लड़ने से कब टूटी हैं जंजीरे
रोयाँ-रोयाँ जकड़ा पाया, साँस उखड़ी थी दामन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
यहाँ उठे श्लोक वीर के वहाँ उठी तकबीरें
अलग-अलग सब ढूँढ रहे थे ख्वाबों की ताबीर (स्वप्नफल)
लेकिन छुटपुट लड़ने से कब टूटी हैं जंजीरे
रोयाँ-रोयाँ जकड़ा पाया, साँस उखड़ी थी दामन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
Thursday, December 25, 2008
राही मासूम रजा और आधा गाँव
- प्रो० जोहरा अफ़जल
राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है।
राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत् में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने निश्चित रूप से भारतीय जीवन का एक और पहलू उजागर किया है।
राही अपने गाँव गंगौली से, वहाँ के लोगों से वहाँ के कण-कण से प्यार करते हैं। उपन्यास को पढ़ने पर पता चलता है कि राही गंगौली की मिट्टी की गन्ध में, कीचड़ और गोबर में, गाय और बैलों में, प्राकृतिक शोभा में उतने ही रमते हैं जितने गंगौली के लोगों में। राही भारत की परम्परागत साझा संस्कृति और विरासत के प्रबल समर्थक थे। वे धर्म की राजनीति करने वालों के सदैव विरोधी रहे। उन्होंने आधा गाँव में यह साफ़ कर दिया कि धर्म किसी राष्ट्र की स्थापना का आधार नहीं हो सकता। धर्म और राजनीति का रिश्ता तेल और पानी जैसा है। यदि भारत में धर्म को राजनीति से जोड़कर सत्ता प्राप्त करने की चेष्टा की गई तो इसके भयानक परिणाम होंगे। राही ने धर्म और जाति की राजनीति करने वालों की कड़ी आलोचना की है। वह हर तरह की संकीर्णता और कट्टरता के सख्त विरोधी रहे, जीवन भर एक सही भारतीयता हिन्दुस्तानियत की खोज करते रहे।
आधा गाँव की कथा गंगौली गाँव के शिया मुसलमानों के परिवारों की है जहाँ अन्य जाति और धर्म के लोग भी रहते हैं। राही ने इसे आंधे गांव की कहानी कहा है पर यदि इसकी गहराई में जाकर देखें तो यह आधे की नहीं, सारे गांव की कहानी है बल्कि यदि पूरे भारत की कहानी कहा जाय तो अनुचित न होगा।
राही ने अपने लगभग सभी उपन्यासों में आने वाले नये समाज की प्रवृत्तियों को पहचाना और अपने लेखन का विषय बनाया तथा उन तमाम समस्याओं का भी चित्रण किया हैं। लेखक आधा गाँव में सपरिवार स्वयं मौजूद रहता है और कहानी का आरंभ भी उसने अपने बचपन से ही किया है। बाल्यावस्था में न समझ आने वाली बातें जिन्हें आज वह खूब समझाता है उनका चित्रण करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आधा गाँव में मध्यवर्गीय जीवन और उस समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों एवं समस्याओं को उकेरा गया है।
आधा गाँव एक आँचलिक उपन्यास है पर इसमें कोई एक कथा नहीं है। राही विभिन्न पात्रों के साथ उनकी अलग-अलग कथा लेकर चलते हैं किन्तु विभिन्न पात्रों तथा इन पात्रों की कहानियों में विभिन्नता होते हुए भी ये एक सुर में बँधे हुए हैं तथा कथानक में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। जिस समय में इस उपन्यास की रचना हुई और जिस समय की यह कथा है, उस समय शिक्षा की दृष्टि से देश पिछड़ा हुआ था। नवयुवकों को रोज+ी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़ना पड़ता था। राही ने ÷आधा गाँव' के माध्यम से अनेक प्रश्न पाठक के सम्मुख रखे हैं, ऐसा करने के लिए उन्होंने काल्पनिक पात्रों एवं कथाओं का आश्रय लिया है।
पाकिस्तान के निर्माण के प्रश्न को गंगौली गाँव के हर व्यक्ति की मानसिकता से जोड़ कर सोचने और उस पर विचार करने पर राही ने विवश किया है। गाँव में किसी को भी पाकिस्तान से सहानुभूति नहीं है। गंगौली के मुसलमानों के स्वतन्त्रता से पूर्व खुशहाल जीवन और स्वतन्त्रता के पश्चात् की दयनीय स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, राही ने। उन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को नहीं स्वीकारा, भारत-पाक के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया, पर इसका जो सामाजिक प्रभाव पड़ा उसका अत्यन्त सजीव चित्र प्रस्तुत किया। ÷मुस्लिम लीग' की राजनीति पर जितना सशक्त प्रहार राही ने किया उतना अन्य किसी लेखक की रचना में दिखाई नहीं देता।
भारत और पाकिस्तान का बटवारा राजनीतिक ही नहीं सामाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी भी है। गंगौली जैसे गाँव के मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देने के बाद भी पाकिस्तान नहीं गये। मिगदाद तो पाकिस्तान जाने से साफ़ इन्कार कर देती है-हम ना जाए वाले हैं कहीं ! जायें ऊ लोग जिन्हें हल-बैल से शरम आती है। हम त किसान है, तन्नू भाई। जहाँ हमरा खेत, हमरी जमीन -वहाँ हम...... 1 तन्नू पाकिस्तान का विरोध करते हुए कहता है - नफ़रत और खैफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज+ मुबारक नहीं हो सकती ...२
आधा गाँव में समाज के दो रूपों के यथार्थ को राही ने बड़ी बेबाकी से दर्शाया है -एक भारत विभाजन से पूर्व का समाज और फ़िर विभाजन के बाद का। पाकिस्तान बनने की मांग से पूर्व गंगौली गाँव के हिन्दू तथा मुसलमान आपस में सौहार्द पूर्वक रहते थे, भले ही वे दूसरे के यहां खाने-पीने से परहेज करते थे पर मन में कोई नफ़रत या मन मुटाव न था। मुसलमान दशहरा के लिए चन्दा देने में पीछे न रहते। जहीर मियाँ ने मठ के बाबा को पाँच बीघे जमीन माफ़ कर दी, फुन्नन मियाँ ने भी मन्दिर बनवाने के लिए ज+मीन दी थी। ऐसे मुसलमान परेशान थे, सोचने में असमर्थ कि अचानक मुसलमानों के लिए अलग देश की आवश्यकता क्यों पड़ गई। उनके सम्मुख एक बहुत बड़ा प्रश्न देश के बटवारे को लेकर उठ खड़ा हुआ। राही धर्म के नाम पर देश को या देशवासियों को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में मैंने दंगों पर रोना बन्द कर दिये है क्योंकि मुझे लाशों को धर्मों के आधार पर बाँटने की कला नहीं आती। मैं केवल यह देखता हूँ कि नागरिक मरा पड़ा है। एक बाप, एक भाई, एक पति, एक माँ, एक बहन, एक बेटी, एक परिवार भरा पड़ा है। घर, हिन्दू या मुसलमान या सिख, हरिजन, या ब्राह्मण नहीं होते। घर तो घर होते हैं।''३
उनकी यहीं भावना आधा गाँव में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। राही साम्प्रदायिकता के विरु( एक आदर्शवादी उपन्यासकार की भाँति अपनी भूमिका निभाना नहीं भूले। उन्हें विश्वास है कि भारत में हिन्दूओं का राज हो जाने पर मुसलमानों पर कोई आपत्ति नहीं आयेगी। यही बात वह आधा गाँव' के पात्र फुन्नन मियाँ के मुख से कहलाते हैं- हां-हां, त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दु कहि रहियों जैसे हिन्दु सब भुकाऊ है कि काटलीयन। अरे ठाकुर कुंवरपाल सिंह त हिन्दू रहे। झगुरियों हिन्दु है। ऐ भाई, ओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे, काहे को कि ऊ शिया लोग और तबर्रा पढ़त हएं, त परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उट्ठी और ऊं ताबूत उट्ठा। तेरे जिन्ना साहब हमरो ताबूत उठाये न आये।'यह बात राही ने एक साधारण व्यक्ति के मुख से कहलाकर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिक दंगे-फ़साद तो पढ़े-लिखे, शिक्षित राजनेताओं का काम है साधारण जन को इसमें कोई रुचि नहीं।
जिस प्रकार मेरी गंज आंचल के उपेक्षित जीवन को उसकी समस्त कुरूपता को मानवीय स्तर पर फणीश्र्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में चित्रित किया है उसी प्रकार राही मासूम रजा ने पहली बार अपने ही गाँव गंगैली के शिया मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का बड़ा ही मार्मिक चित्र आधा गाँव' में प्रस्तुत किया हैं जितना यथार्थ चित्र राही ने मुसलमानों का किया है उतना इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में कहीं देखने को नहीं मिलता।
आधा गाँव में स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद के गंगौली गाँव का चित्रण है जो उस समय का जीता जागता प्रमाण है - जहाँ स्वार्थी अैर पद्लोलुप नेताओं का अत्यन्त घिनौना रूप दिखाया गया है। उस समय सम्पूर्ण भारत ऐसी ही विसंगतियों का शिकार था। राही ने बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास किया है। जातिवाद का आधार लेकर जो राजनीति की जाती है उससे समाज का हित कभी नहीं हो सकता। वह एक प्रगतिशील यथार्थवादी साहित्यकार थे, इसीलिए उनके उपन्यास आधा गाँव में सामाजिक यथार्थ का रंग चटख है।
आधा गाँव में जो कुछ भी घटित होता दिखाया गया है वे घटनाएं केवल गंगौली गाँव की नहीं थी बल्कि पूरे भारत में ऐसी ही स्थिति थी। राही का आधा गाँव उपन्यास बहु आयामी उपन्यास है। कोई भी विषय ऐसा नहीं जो इनकी दृष्टि से अछूता रह गया हो। पाकिस्तान का निर्माण देश का विभाजन इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु नहीं है फिर भी वह केन्द्रीय वस्तु से इतनी जुड़ी हुई है कि उससे अलगाने में कठिनाई होती है। इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु है समय की गति। समय ही आधा गाँव का नायक है। राही के अनुसार - यह कहानी न कुछ लोगों की है, न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के भले बुरे पात्र अपने को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे है। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय की ही। यह गंगौली में गुजरने वाले समय की कहानी है। कई बूढ़े मर गये, कई जवान कई बच्चे जवान हो गये .... यह कहानी है उन खण्डहरों की जहाँ कभी मकान थे और यह कहानी उन मकानों की जो खण्डहरो पर बनाये गये हैं।४
यह उपन्यास जहाँ एक ओर अभिजात्य मुस्लिम समाज का चित्र प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर आजादी के बाद भारत में तेजी से होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित करता है। राही मासूम रजा एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बड़ी निर्भीकता से राजनीति पर कड़ा प्रहार किया है। इन्होंने बिना किसी झिझक और भय के यथार्थ को अपने साहित्य में दर्शाया है। उनकी इसी निर्भीकता, निडरता और सच्चाई को देखकर धर्मवीर भारती यह कहने पर विवश हुए- अगर मैं ईश्वर पर विश्वास करता होता तो ऐसे क्षण में यही प्रार्थना करता कि प्रभु इस दुस्साहसी की सेवा करना। क्योंकि इसकी सच्ची आवाज में तुम ही बसते हो। मगर किससे प्रार्थना करूँ, अगर ईश्र्वर है तो ये समाज में व्याप्त मिथ्या के खतरनाक व्यूह भी तो उसी की वजह से होगें।५
राही ने अपने सभी उपन्यासों - आधा गाँव, टोपी शुक्ला', ओस की बूँद', हिम्मत जौनपुरी', असन्तोष के दिन, कटरा बी आरजू एवं दिल एक सादा कागज में समाज में व्याप्त समस्त जटिल समस्याओं का चित्रण किया है। जिनमें सबसे बड़ी समस्या है व्यक्ति और समाज की असमानता। वे मानते हैं कि सारी समस्याओं के पीछे व्यक्ति का अपना स्वार्थ होता है। उनके अनुसार जब तक मनुष्य के भीतर ये स्वार्थ रहेंगे तब तक इन समस्याओं से पीछा नहीं छूट सकता। ÷आधा गाँव' में व्यक्ति की इसी समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है राही ने।
हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में भी कई प्रकार के सामाजिक भेद हैं। हड्डी की शुद्धता, रक्त की शुद्धता पर भी बहुत जोर दिया जाता है। आर्थिक रूप से चाहे व्यक्ति कितना भी सम्पन्न हो पर यदि उसकी हड्डी में दाग़ है तो उसे समाज में वह स्थान कभी नहीं मिल सकता जो शुद्ध हड्डी वाले निर्धन व्यक्ति को मिलता है। अशरफुल्ला खाँ को अपने पठान होने पर गर्व है -हम ठहरे पठान लोग। हमारे यहाँ तो दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई और पैमाना ही नहीं होता। दोगली हरकतें करना शेखों और नीच जात वालों का काम है।''६ सैफुनिया से विवाह करने के पश्चात् मिगदाद अपने पिता की खरी हड्डी का चैलेंज करते हुए कहता है बाकी हम्में त इहो मालूम है कि हमहूं सैय्यद ना है। बाकी जना रहा कि अब्बा ई बतिया बिल्कुल ही भूल गये हैं। ऊ त इकद्म्मे से सैय्यद हो गये हैं। और अब त जब से लड़के अब्बा की शेरवानी पा गये हैं तब से अउरो मारे इतराए लगे हैं।७ युवा पीढ़ी में अपने बड़ों के प्रति आदर की भावना कम होती दिखाई दे रही है। गंगौली गाँव में आये दिन पिता-पुत्र, सास-बहू के झगड़े होते रहते हैं। हर परिवार की यही कहानी है।
गंगौली में शिया मुसलमानों के अतिरिक्त राकी मुसलमानों और जुलाहों के घर भी हैं पर उनके साथ शिया लोगों का मेलजोल नहीं है। इस उपन्यास में ऐसे भी चित्र है जिनमें शिया पुरुष हिन्दुओं-भंगी या चमार जाति की स्थितियों से सम्बन्ध रखते है, परन्तु शुद्धता का ऐसा आड्म्बर है कि हिन्दू मरीज की नब्ज देखने के बाद हकीम साहब स्नान करते दिखते हैं। राही ने अपने आधा गाँव में सामाजिक जीवन के जिस पक्ष को अधिक उभारा है वह यही, पुरुषों का नीच जाति की स्थितियों के साथ अनैतिक यौन सम्बन्ध है। मोहर्रम के चाँद के दिखते ही शिया लोगों की शोक सभाएं शुरू हो जाती हैं। इसी प्रकार की एक सभा में सितारा और अब्बास एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं। अब्बास अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय का छात्र है अल्हड़ सितारा के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर उसे भूल जाता है। प्रेम का परिणाम केवल सितारा को ही भुगतना पड़ता है। नारी की स्थिति का अत्यंत सजीव चित्र राही ने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। स्त्री-पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों को भी आधा गाँव में खुलकर दिखाया गया है। सभी पात्र शरीर के भूखे हैं। उन्हें बस शरीर मिलना चाहिए चाहे वह शरीर रिश्ते की बहन का हो, नौकरानी का हो या फिर किसी भी नीच जात का। राही ने परिवारों की, समाज की इन्हीं छोटी-छोटी समस्याओं को एक बड़ी समस्या बनाकर प्रस्तुत किया है। इन्होंने साम्प्रदायिक विभीषिका का चित्रण जितने साहस पूर्ण ढंग से किया है, शायद ही कोई अन्य इतने साहस का प्रदर्शन कर सकें।
इसमें सन्देह नहीं कि साठोत्तरी उपन्यासकारों में राही एक निराला व्यक्तित्व रखते है, जिनमें विद्रोह कूट-कूट कर भरा है। उनके उपन्यासों में नए पुराने द्वन्द्व की नई भंगिमाएं दृष्टिगोचर होती है। आजादी के बाद एक नया नेतृत्व वर्ग विकसित हुआ। इस नये वर्ग के उदय के पीछे कोई परम्परा नहीं, शिक्षा नहीं, सम्पन्नता नहीं। यदि कुछ है तो वह है वोटों का जोड़-तोड़। वोटों का यह जोड़-तोड़ समाज के एक साधारण व्यक्ति को समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्य बना देता है। वह व्यक्ति खुद ही सरकार होता है और सरकार और जनता के बीच सेठ भी। आधा गाँव में एक स्वर जो लगातार सुनाई देता हैं, वह है मुसलमानों का देश प्रेम। वे भी इसी देश का, राष्ट्र का एक हिसा हैं। वे भी अपने घर, अपने गाँव और देश की मिट्टी से उतना ही प्रेम करते हैं जितना अन्य जाति के लोग या देशभक्त को हो सकता है। राही ने भारतीय मुसलमानों की व्यथा और कथा को बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
राही मासूम रजा ने अपने उपन्यास आधा गाँव में व्यक्त समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया है। वह चाहते थे कि पाठक स्वयं उचित और अनुचित का निर्णय करे। उन्होंने तो केवल अपने उपन्यास द्वारा मानव मन की कोमल एवं पवित्र भावनाओं को उजागर करके सत्य एवं सद्वृत्तियों को जाग्रत करने का प्रयास किया है। वे एक साहित्यकार थे जिन्होंने कथा साहित्य के क्षेत्र में एक नये क्षितिज की खोज की और हमें एक ऐसे संसार में परिचित कराया जिसे हम गहराई से नहीं जानते थे। उनके तेवरों को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता।
सन्दर्भ-सूची
१. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० २२६
२. वही, पृ० २६३
३. राही मासूम रजा, लगता है बेकार गये हम, पृ० २२६
४. आधा गाँव, पृ० ११-१२
५. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, भूमिका से, पृ० ९
६. आधा गांव, पृ० १०३
७. वही, पृ० २२६
यह आलेख राही मासूम रज़ा विशेषांक में भी पढ़ सकते है.
राही मासूम रजा एक ऐसे आधुनिक रचनाकार थे जिनकी रचनाओं का मुख्य विषय राजनीति है। चाहे वह उनका उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो अथवा निबन्ध। उनकी सभी रचनाओं में समय की अनुगूँज सुनाई देती है। राही के उपन्यासों में आधा गाँव टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूँद,सीन ७५, दिल एक सादा कागज,कटरा बी आरजू, असन्तोष के दिन और नीम का पेड़ में से सबसे अधिक चर्चित उपन्यास आधा गाँव है। राही ने इस उपन्यास में गंगौली गाँव की वास्तविक कथा के माध्यम से १९३७ से १९५२ तक के समय के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक यथार्थ और उसकी परिवर्तनशील स्थितियों का वितान रचा है।
राही का यह उपन्यास हिन्दी के महत्त्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। आधा गाँव आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है। लेखक ने उत्तर प्रदेश के एक गाँव गंगौली के आधे टुकड़े को ही अपना कथा क्षेत्र बनाया है, जिसका वह स्वयं भोगता एवं जानकार है। हिन्दी उपन्यास जगत् में शायद पहली बार मुस्लिम जनजीवन का यथार्थ अपने विविध रंगों में उसकी अच्छी और बुरी परछाइयों को लेकर प्रस्तुत हुआ है, जिसने निश्चित रूप से भारतीय जीवन का एक और पहलू उजागर किया है।
राही अपने गाँव गंगौली से, वहाँ के लोगों से वहाँ के कण-कण से प्यार करते हैं। उपन्यास को पढ़ने पर पता चलता है कि राही गंगौली की मिट्टी की गन्ध में, कीचड़ और गोबर में, गाय और बैलों में, प्राकृतिक शोभा में उतने ही रमते हैं जितने गंगौली के लोगों में। राही भारत की परम्परागत साझा संस्कृति और विरासत के प्रबल समर्थक थे। वे धर्म की राजनीति करने वालों के सदैव विरोधी रहे। उन्होंने आधा गाँव में यह साफ़ कर दिया कि धर्म किसी राष्ट्र की स्थापना का आधार नहीं हो सकता। धर्म और राजनीति का रिश्ता तेल और पानी जैसा है। यदि भारत में धर्म को राजनीति से जोड़कर सत्ता प्राप्त करने की चेष्टा की गई तो इसके भयानक परिणाम होंगे। राही ने धर्म और जाति की राजनीति करने वालों की कड़ी आलोचना की है। वह हर तरह की संकीर्णता और कट्टरता के सख्त विरोधी रहे, जीवन भर एक सही भारतीयता हिन्दुस्तानियत की खोज करते रहे।
आधा गाँव की कथा गंगौली गाँव के शिया मुसलमानों के परिवारों की है जहाँ अन्य जाति और धर्म के लोग भी रहते हैं। राही ने इसे आंधे गांव की कहानी कहा है पर यदि इसकी गहराई में जाकर देखें तो यह आधे की नहीं, सारे गांव की कहानी है बल्कि यदि पूरे भारत की कहानी कहा जाय तो अनुचित न होगा।
राही ने अपने लगभग सभी उपन्यासों में आने वाले नये समाज की प्रवृत्तियों को पहचाना और अपने लेखन का विषय बनाया तथा उन तमाम समस्याओं का भी चित्रण किया हैं। लेखक आधा गाँव में सपरिवार स्वयं मौजूद रहता है और कहानी का आरंभ भी उसने अपने बचपन से ही किया है। बाल्यावस्था में न समझ आने वाली बातें जिन्हें आज वह खूब समझाता है उनका चित्रण करने में उसे कोई संकोच नहीं होता। आधा गाँव में मध्यवर्गीय जीवन और उस समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों एवं समस्याओं को उकेरा गया है।
आधा गाँव एक आँचलिक उपन्यास है पर इसमें कोई एक कथा नहीं है। राही विभिन्न पात्रों के साथ उनकी अलग-अलग कथा लेकर चलते हैं किन्तु विभिन्न पात्रों तथा इन पात्रों की कहानियों में विभिन्नता होते हुए भी ये एक सुर में बँधे हुए हैं तथा कथानक में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। जिस समय में इस उपन्यास की रचना हुई और जिस समय की यह कथा है, उस समय शिक्षा की दृष्टि से देश पिछड़ा हुआ था। नवयुवकों को रोज+ी-रोटी की तलाश में अपना घर छोड़ना पड़ता था। राही ने ÷आधा गाँव' के माध्यम से अनेक प्रश्न पाठक के सम्मुख रखे हैं, ऐसा करने के लिए उन्होंने काल्पनिक पात्रों एवं कथाओं का आश्रय लिया है।
पाकिस्तान के निर्माण के प्रश्न को गंगौली गाँव के हर व्यक्ति की मानसिकता से जोड़ कर सोचने और उस पर विचार करने पर राही ने विवश किया है। गाँव में किसी को भी पाकिस्तान से सहानुभूति नहीं है। गंगौली के मुसलमानों के स्वतन्त्रता से पूर्व खुशहाल जीवन और स्वतन्त्रता के पश्चात् की दयनीय स्थिति का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, राही ने। उन्होंने मुस्लिम लीग की राजनीति को नहीं स्वीकारा, भारत-पाक के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया, पर इसका जो सामाजिक प्रभाव पड़ा उसका अत्यन्त सजीव चित्र प्रस्तुत किया। ÷मुस्लिम लीग' की राजनीति पर जितना सशक्त प्रहार राही ने किया उतना अन्य किसी लेखक की रचना में दिखाई नहीं देता।
भारत और पाकिस्तान का बटवारा राजनीतिक ही नहीं सामाजिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी भी है। गंगौली जैसे गाँव के मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देने के बाद भी पाकिस्तान नहीं गये। मिगदाद तो पाकिस्तान जाने से साफ़ इन्कार कर देती है-हम ना जाए वाले हैं कहीं ! जायें ऊ लोग जिन्हें हल-बैल से शरम आती है। हम त किसान है, तन्नू भाई। जहाँ हमरा खेत, हमरी जमीन -वहाँ हम...... 1 तन्नू पाकिस्तान का विरोध करते हुए कहता है - नफ़रत और खैफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज+ मुबारक नहीं हो सकती ...२
आधा गाँव में समाज के दो रूपों के यथार्थ को राही ने बड़ी बेबाकी से दर्शाया है -एक भारत विभाजन से पूर्व का समाज और फ़िर विभाजन के बाद का। पाकिस्तान बनने की मांग से पूर्व गंगौली गाँव के हिन्दू तथा मुसलमान आपस में सौहार्द पूर्वक रहते थे, भले ही वे दूसरे के यहां खाने-पीने से परहेज करते थे पर मन में कोई नफ़रत या मन मुटाव न था। मुसलमान दशहरा के लिए चन्दा देने में पीछे न रहते। जहीर मियाँ ने मठ के बाबा को पाँच बीघे जमीन माफ़ कर दी, फुन्नन मियाँ ने भी मन्दिर बनवाने के लिए ज+मीन दी थी। ऐसे मुसलमान परेशान थे, सोचने में असमर्थ कि अचानक मुसलमानों के लिए अलग देश की आवश्यकता क्यों पड़ गई। उनके सम्मुख एक बहुत बड़ा प्रश्न देश के बटवारे को लेकर उठ खड़ा हुआ। राही धर्म के नाम पर देश को या देशवासियों को बांटने के पक्ष में नहीं थे। उन्हीं के शब्दों में मैंने दंगों पर रोना बन्द कर दिये है क्योंकि मुझे लाशों को धर्मों के आधार पर बाँटने की कला नहीं आती। मैं केवल यह देखता हूँ कि नागरिक मरा पड़ा है। एक बाप, एक भाई, एक पति, एक माँ, एक बहन, एक बेटी, एक परिवार भरा पड़ा है। घर, हिन्दू या मुसलमान या सिख, हरिजन, या ब्राह्मण नहीं होते। घर तो घर होते हैं।''३
उनकी यहीं भावना आधा गाँव में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। राही साम्प्रदायिकता के विरु( एक आदर्शवादी उपन्यासकार की भाँति अपनी भूमिका निभाना नहीं भूले। उन्हें विश्वास है कि भारत में हिन्दूओं का राज हो जाने पर मुसलमानों पर कोई आपत्ति नहीं आयेगी। यही बात वह आधा गाँव' के पात्र फुन्नन मियाँ के मुख से कहलाते हैं- हां-हां, त हुए बा। तू त ऐसा हिन्दु कहि रहियों जैसे हिन्दु सब भुकाऊ है कि काटलीयन। अरे ठाकुर कुंवरपाल सिंह त हिन्दू रहे। झगुरियों हिन्दु है। ऐ भाई, ओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे, काहे को कि ऊ शिया लोग और तबर्रा पढ़त हएं, त परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उट्ठी और ऊं ताबूत उट्ठा। तेरे जिन्ना साहब हमरो ताबूत उठाये न आये।'यह बात राही ने एक साधारण व्यक्ति के मुख से कहलाकर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि साम्प्रदायिक दंगे-फ़साद तो पढ़े-लिखे, शिक्षित राजनेताओं का काम है साधारण जन को इसमें कोई रुचि नहीं।
जिस प्रकार मेरी गंज आंचल के उपेक्षित जीवन को उसकी समस्त कुरूपता को मानवीय स्तर पर फणीश्र्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल में चित्रित किया है उसी प्रकार राही मासूम रजा ने पहली बार अपने ही गाँव गंगैली के शिया मुसलमानों की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का बड़ा ही मार्मिक चित्र आधा गाँव' में प्रस्तुत किया हैं जितना यथार्थ चित्र राही ने मुसलमानों का किया है उतना इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में कहीं देखने को नहीं मिलता।
आधा गाँव में स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद के गंगौली गाँव का चित्रण है जो उस समय का जीता जागता प्रमाण है - जहाँ स्वार्थी अैर पद्लोलुप नेताओं का अत्यन्त घिनौना रूप दिखाया गया है। उस समय सम्पूर्ण भारत ऐसी ही विसंगतियों का शिकार था। राही ने बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास किया है। जातिवाद का आधार लेकर जो राजनीति की जाती है उससे समाज का हित कभी नहीं हो सकता। वह एक प्रगतिशील यथार्थवादी साहित्यकार थे, इसीलिए उनके उपन्यास आधा गाँव में सामाजिक यथार्थ का रंग चटख है।
आधा गाँव में जो कुछ भी घटित होता दिखाया गया है वे घटनाएं केवल गंगौली गाँव की नहीं थी बल्कि पूरे भारत में ऐसी ही स्थिति थी। राही का आधा गाँव उपन्यास बहु आयामी उपन्यास है। कोई भी विषय ऐसा नहीं जो इनकी दृष्टि से अछूता रह गया हो। पाकिस्तान का निर्माण देश का विभाजन इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु नहीं है फिर भी वह केन्द्रीय वस्तु से इतनी जुड़ी हुई है कि उससे अलगाने में कठिनाई होती है। इस उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु है समय की गति। समय ही आधा गाँव का नायक है। राही के अनुसार - यह कहानी न कुछ लोगों की है, न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के भले बुरे पात्र अपने को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे है। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक और यह कहानी है समय की ही। यह गंगौली में गुजरने वाले समय की कहानी है। कई बूढ़े मर गये, कई जवान कई बच्चे जवान हो गये .... यह कहानी है उन खण्डहरों की जहाँ कभी मकान थे और यह कहानी उन मकानों की जो खण्डहरो पर बनाये गये हैं।४
यह उपन्यास जहाँ एक ओर अभिजात्य मुस्लिम समाज का चित्र प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर आजादी के बाद भारत में तेजी से होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित करता है। राही मासूम रजा एक ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बड़ी निर्भीकता से राजनीति पर कड़ा प्रहार किया है। इन्होंने बिना किसी झिझक और भय के यथार्थ को अपने साहित्य में दर्शाया है। उनकी इसी निर्भीकता, निडरता और सच्चाई को देखकर धर्मवीर भारती यह कहने पर विवश हुए- अगर मैं ईश्वर पर विश्वास करता होता तो ऐसे क्षण में यही प्रार्थना करता कि प्रभु इस दुस्साहसी की सेवा करना। क्योंकि इसकी सच्ची आवाज में तुम ही बसते हो। मगर किससे प्रार्थना करूँ, अगर ईश्र्वर है तो ये समाज में व्याप्त मिथ्या के खतरनाक व्यूह भी तो उसी की वजह से होगें।५
राही ने अपने सभी उपन्यासों - आधा गाँव, टोपी शुक्ला', ओस की बूँद', हिम्मत जौनपुरी', असन्तोष के दिन, कटरा बी आरजू एवं दिल एक सादा कागज में समाज में व्याप्त समस्त जटिल समस्याओं का चित्रण किया है। जिनमें सबसे बड़ी समस्या है व्यक्ति और समाज की असमानता। वे मानते हैं कि सारी समस्याओं के पीछे व्यक्ति का अपना स्वार्थ होता है। उनके अनुसार जब तक मनुष्य के भीतर ये स्वार्थ रहेंगे तब तक इन समस्याओं से पीछा नहीं छूट सकता। ÷आधा गाँव' में व्यक्ति की इसी समस्या को बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है राही ने।
हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में भी कई प्रकार के सामाजिक भेद हैं। हड्डी की शुद्धता, रक्त की शुद्धता पर भी बहुत जोर दिया जाता है। आर्थिक रूप से चाहे व्यक्ति कितना भी सम्पन्न हो पर यदि उसकी हड्डी में दाग़ है तो उसे समाज में वह स्थान कभी नहीं मिल सकता जो शुद्ध हड्डी वाले निर्धन व्यक्ति को मिलता है। अशरफुल्ला खाँ को अपने पठान होने पर गर्व है -हम ठहरे पठान लोग। हमारे यहाँ तो दोस्ती और दुश्मनी के अलावा कोई और पैमाना ही नहीं होता। दोगली हरकतें करना शेखों और नीच जात वालों का काम है।''६ सैफुनिया से विवाह करने के पश्चात् मिगदाद अपने पिता की खरी हड्डी का चैलेंज करते हुए कहता है बाकी हम्में त इहो मालूम है कि हमहूं सैय्यद ना है। बाकी जना रहा कि अब्बा ई बतिया बिल्कुल ही भूल गये हैं। ऊ त इकद्म्मे से सैय्यद हो गये हैं। और अब त जब से लड़के अब्बा की शेरवानी पा गये हैं तब से अउरो मारे इतराए लगे हैं।७ युवा पीढ़ी में अपने बड़ों के प्रति आदर की भावना कम होती दिखाई दे रही है। गंगौली गाँव में आये दिन पिता-पुत्र, सास-बहू के झगड़े होते रहते हैं। हर परिवार की यही कहानी है।
गंगौली में शिया मुसलमानों के अतिरिक्त राकी मुसलमानों और जुलाहों के घर भी हैं पर उनके साथ शिया लोगों का मेलजोल नहीं है। इस उपन्यास में ऐसे भी चित्र है जिनमें शिया पुरुष हिन्दुओं-भंगी या चमार जाति की स्थितियों से सम्बन्ध रखते है, परन्तु शुद्धता का ऐसा आड्म्बर है कि हिन्दू मरीज की नब्ज देखने के बाद हकीम साहब स्नान करते दिखते हैं। राही ने अपने आधा गाँव में सामाजिक जीवन के जिस पक्ष को अधिक उभारा है वह यही, पुरुषों का नीच जाति की स्थितियों के साथ अनैतिक यौन सम्बन्ध है। मोहर्रम के चाँद के दिखते ही शिया लोगों की शोक सभाएं शुरू हो जाती हैं। इसी प्रकार की एक सभा में सितारा और अब्बास एक दूसरे पर मोहित हो जाते हैं। अब्बास अलीगढ़ मुस्लिम विश्र्वविद्यालय का छात्र है अल्हड़ सितारा के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर उसे भूल जाता है। प्रेम का परिणाम केवल सितारा को ही भुगतना पड़ता है। नारी की स्थिति का अत्यंत सजीव चित्र राही ने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। स्त्री-पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों को भी आधा गाँव में खुलकर दिखाया गया है। सभी पात्र शरीर के भूखे हैं। उन्हें बस शरीर मिलना चाहिए चाहे वह शरीर रिश्ते की बहन का हो, नौकरानी का हो या फिर किसी भी नीच जात का। राही ने परिवारों की, समाज की इन्हीं छोटी-छोटी समस्याओं को एक बड़ी समस्या बनाकर प्रस्तुत किया है। इन्होंने साम्प्रदायिक विभीषिका का चित्रण जितने साहस पूर्ण ढंग से किया है, शायद ही कोई अन्य इतने साहस का प्रदर्शन कर सकें।
इसमें सन्देह नहीं कि साठोत्तरी उपन्यासकारों में राही एक निराला व्यक्तित्व रखते है, जिनमें विद्रोह कूट-कूट कर भरा है। उनके उपन्यासों में नए पुराने द्वन्द्व की नई भंगिमाएं दृष्टिगोचर होती है। आजादी के बाद एक नया नेतृत्व वर्ग विकसित हुआ। इस नये वर्ग के उदय के पीछे कोई परम्परा नहीं, शिक्षा नहीं, सम्पन्नता नहीं। यदि कुछ है तो वह है वोटों का जोड़-तोड़। वोटों का यह जोड़-तोड़ समाज के एक साधारण व्यक्ति को समाज का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्य बना देता है। वह व्यक्ति खुद ही सरकार होता है और सरकार और जनता के बीच सेठ भी। आधा गाँव में एक स्वर जो लगातार सुनाई देता हैं, वह है मुसलमानों का देश प्रेम। वे भी इसी देश का, राष्ट्र का एक हिसा हैं। वे भी अपने घर, अपने गाँव और देश की मिट्टी से उतना ही प्रेम करते हैं जितना अन्य जाति के लोग या देशभक्त को हो सकता है। राही ने भारतीय मुसलमानों की व्यथा और कथा को बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
राही मासूम रजा ने अपने उपन्यास आधा गाँव में व्यक्त समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया है। वह चाहते थे कि पाठक स्वयं उचित और अनुचित का निर्णय करे। उन्होंने तो केवल अपने उपन्यास द्वारा मानव मन की कोमल एवं पवित्र भावनाओं को उजागर करके सत्य एवं सद्वृत्तियों को जाग्रत करने का प्रयास किया है। वे एक साहित्यकार थे जिन्होंने कथा साहित्य के क्षेत्र में एक नये क्षितिज की खोज की और हमें एक ऐसे संसार में परिचित कराया जिसे हम गहराई से नहीं जानते थे। उनके तेवरों को शब्दों में नहीं ढाला जा सकता।
सन्दर्भ-सूची
१. राही मासूम रजा, आधा गाँव, पृ० २२६
२. वही, पृ० २६३
३. राही मासूम रजा, लगता है बेकार गये हम, पृ० २२६
४. आधा गाँव, पृ० ११-१२
५. राही मासूम रजा, मैं एक फेरीवाला, भूमिका से, पृ० ९
६. आधा गांव, पृ० १०३
७. वही, पृ० २२६
यह आलेख राही मासूम रज़ा विशेषांक में भी पढ़ सकते है.
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जिन नैनन को देख के हिरनी अपनी आँख झुकाये
उन नैनन में घोर निराशा के बादल मँडराये
जन लम्बे बालों को देख के काला भी लहराये
उन लम्बे बालों की उलझन देख के जी में आये
इब श्मशान को ले चलते अर्थी इस गोरे शासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
छुटपुट टकराये भी खेतों की गोदी के पाले
डाकू बनकर जंगल-जंगल फिरे कहीं दिलवाले
उन नैनन में घोर निराशा के बादल मँडराये
जन लम्बे बालों को देख के काला भी लहराये
उन लम्बे बालों की उलझन देख के जी में आये
इब श्मशान को ले चलते अर्थी इस गोरे शासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
छुटपुट टकराये भी खेतों की गोदी के पाले
डाकू बनकर जंगल-जंगल फिरे कहीं दिलवाले
Tuesday, December 23, 2008
आधा गाँव में विभाजन की त्रासदी और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ
- डॉ० मेराज अहमद
हिन्दी के चन्द चर्चित उपन्यासों में राही मासूम रजाकृत आधा गाँव का उल्लेख किया जाता है। साम्प्रदायिकता के प्रश्न की जैसी सांगोपाँग छान-बीन मुस्लिम समुदाय के विशेष सन्दर्भ में आधा गाँव के माध्यम से हुई दिखायी पड़ती है, कदाचित् दूसरे उपन्यास में नहीं दिखती है। यद्यपि साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित कथा-साहित्य की परम्परा हिन्दी साहित्य में बन चुकी है। इधर हाल के वर्षों में यह परम्परा घनीभूत भी हुई है। मुस्लिम-समाज से आने वाले रचनाकारों ने मुस्लिम समाज के परिप्रेक्ष्य में इसे विशेष रूप से देखने का प्रयास भी किया है। इन प्रयासों के तहत मुस्लिम मानसिकता का पक्ष बड़े तल्ख तेवर के साथ उभरा है। तल्ख यूँ है कि उसमें भीरूता नहीं स्पष्टवादिता है। संतुलन का प्रयास नहीं, ईमानदारी है, जो भारतीय समाज की सबसे भयावह त्रासदी की तहों तक हमें ले जाती है। कहना अनुचित न होगा कि जिस गहराई से मुस्लिम मानसिकता और साम्प्रदायिकता की जाँच-पड़ताल आधा गाँव में हुई हैं वही गहराई लेखन के इतने समयान्तराल के बाद भी उपन्यास की प्रासंगिकता के न केवल बनाए हुए है अपितु उसे बढ़ा भी रही है।
महत्त्वपूर्ण साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति नहीं, महत्त्व है उससे मुक्ति का, जो किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हित में नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के हित में है। राष्ट्रीय एकता के नियामक तत्त्व जीवन और समाज की बहुत सारी गतिविधियों से ही उभरकर आते हैं, परन्तु साम्प्रदायिक सद्भाव कदाचित् इस दिशा में सर्वाधिक अहमियत रखता है। दरअसल साम्प्रदायिकता से छुटकारा और राष्ट्रीय एकता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं इस वास्तविकता से कदाचित् डॉ० राही मासूम रजा भली-भाँति परिचित थे इसीलिए संभवतः आधा गाँव' की कथा के केन्द्र को विभाजन की त्रासदी का आधार दिया।
विभाजन की त्रासदी का विषय त्रासदी के अंकन एवं आकलन की दृष्टि से उतना अहम् नहीं जितना की उस मानसिकता के अध्ययन से है जो साम्प्रदायिकता के मूल में कार्यरत था। साम्प्रदायिकता के ऐतिहासिक पक्ष की जानकारी के बिना इसे समझना संभव नहीं, क्योंकि साम्प्रदायिकता को जन्म देने में सहयोगी जिस वर्ग के लोग रहे हैं वैसे ही लोग समाज में आज भी मौजूद ही नहीं अपितु ... सक्रियता के उत्कर्ष पर हैं। इसे गहराई से समझने के लिए विभाजन के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन भारत में विकसित साम्प्रदायिकता के उत्कर्ष का परिणाम था।आधा गाँव, विभाजन की त्रासदी के अंकन के बजाय उस मानसिकता को उकेरने के प्रयत्न के रूप में सामने आता है जो साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में कार्यरत थी। उल्लेखनीय यह भी है कि प्रस्तुत उपन्यास में विभाजन को ग्रामीण मनोभावों के स्तर पर रूढ़िगत एवं अशिक्षित जनता की दृष्टि से देखा गया है। भारत के ग्रामीण समाज में नगरों की भाँति साम्प्रदायिकता की अग्नि बाद में पहुँची। निश्चित रूप से इसका कारण यह है कि धार्मिक वैभिन्य के बावजूद ग्रामीण-समाज नगरीय-समाज की अपेक्षा सांस्कृतिक धरातल पर अधिक मजबूती से बंधा होता है।
उपन्यास की केन्द्रीय पृष्ठभूमि में एक गाँव और वहाँ आने वाला साल-दर-साल मोहर्रम का महीना, ताजियादारी, जुलूस, नौहें, शोजखानी, मजलिसें और चालीसवां है। गाँव पूरा नहीं आधा है, जितना कि लेखक जीता है। यह गाँव उत्तर-प्रदेश के जिला गाजीपुर में स्थित गाँव गंगौली है। आधा गाँव का यह पूरा गाँव गंगौली शिया और सुन्नी मुसलमानों का गाँव है तथा यह सैयदों, जुलाहों, राकियों, उत्तर पट्टी और दक्खिन पट्टी एवं आस-पास के पुरवों-मुहल्लों को सम्मिलित कर लेने पर हिन्दुओं और मुसलमानों, छूतों और अछूतों तथा जमींदारों एवं आसामियों में बंटा है। बावजूद बंटवारे के एक ऐसी रेखा है जो सबको एकता के सूत्र में पिरोये थी। परन्तु देश के सीने पर विभाजन की रेखा खिंचती है तो फिर गंगौली उसकी लपेट में आ ही जाता है। उपन्यास की कहानी का खुलासा करते हुए स्वयं उपन्यासकार का मत कुछ यूँ है कि यह कहानी न कुछ लोगों की कहानी है न कुछ परिवारों की, यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है, जिसमें इस कहानी के भले-बुरे पात्र अपने आप को पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीति की, यह गंगौली से गुजरने वाले समय की कहानी है।१ आधा गाँव का समय यानी कि इसका फलक द्वितीय विश्व-युद्ध की पृष्ठभूमि में आरम्भ होने वाले स्वतन्त्रता-संघर्ष के अन्तिम दौर से शुरू होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद तक के एक लम्बे समयान्तराल को अपने अन्दर समेटे हैं।
जहाँ तक विभाजन की प्रत्यक्ष प्रक्रिया का प्रश्न है, इस दृष्टि से उपन्यास का तीन चौथाई के बाद का भाग महत्त्वपूर्ण है। यही वह भाग है जिसमें विभाजन की ऐतिहासिक प्रक्रिया के फलस्वरूप निर्मित चेतना की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। वस्तुतः यह कहानी का वही भाग है जहाँ से यह स्पष्ट हो जाता है कि गंगौली का मुसलमान कितना अपने गाँव का है कितना अपने धर्म का, कितना भारतीय है और कितना मुसलमान। विभाजन के संदर्भ में गंगौली के मुसलमानों की मानसिकता का, उपन्यास के इसी बिन्दु से उद्घाटन होता है। इसे मुसलमानों के एक बड़े वर्ग की मानसिकता के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल थोड़े-बहुत अन्तर के साथ देश के उत्तरी भाग के मुस्लिम समाज की जीवन-शैली में कोई उल्लेखनीय अन्तर दिखायी नहीं देता है।मुहर्रम का भारतीय मुस्लिम समाज के धार्मिक सामाजिक जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्रभाव की इसी व्यापकता के माध्यम से गंगौली के जीवन और समाज में होने वाले परिवर्तन तथा उससे निर्मित मानसिकता पर्त-दर-पर्त खुलती हुई मुस्लिम मानसिकता के विस्तृत परिप्रेक्ष्य से परिचित कराती है। गंगौली में एक तरफ मियाँ लोगों की जमींदारी का गुरूर और ठाट-बाट है तो दूसरी तरफ जीवन की विदू्रपताएँ हैं, खोखलापन है, जो मोहर्रम के महत्त्वपूर्ण अवसर से जुड़े क्रिया-कलापों के माध्यम से बखूबी सामने आता है। मियाँ लोगों से जुड़े अहीरों, जुलाहों, ठाकुरों इत्यादि के जीवन के भी कुछ बन्द खुलते हैं। मोहर्रम के जुलूस में मियाँ लोग आपस में खून-खराबा भी कर देते हैं, लेकिन इमामबाड़े का फर्श और वहाँ के अंधेरे में हकीम अली कबीर की गूँजती हुई आवाज, शब्बू पढ़ो भाई, सबको एक सूत्र में बांधे रहती है।दरअसल मोहर्रम का गंगौली के जीवन में इतना गहरा प्रभाव था कि उनकी खुशियाँ उनके दुःख, उनके जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं जिसे उससे अलग करके देखा जाय। मोहर्रम की व्यस्तता में वे अपने इतिहास से इतने बेखबर थे कि उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती थी कि बरगद की छाँव में लेट कर अपने इतिहास के विषय में सोचें जो कि रामायण से आगे तक फैला हुआ है,२ फिर उन्हें विभाजन को लेकर उठा प्रश्न भला कैसे प्रभावित कर सकता था जो कि अपना लम्बा ... इतिहास भी नहीं रखता था न ही उनके लिए उसकी खास अहमियत ही थी। ''ख्याल में भी गंगौली वालों को गंगौली छोड़ने की बात न आती थी।''३ वह किससे अलग होते, उस भारत से जहाँ आने की तमन्ना इमाम हुसैन के दिल में भी रही हो।४
गंगौली के जीवन में हिन्दू-मुस्लिम एकता की जड़ों की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि, ''शिया मुसलमानों में ख्याल आम है कि एक कश्मीरी ब्राह्मण कर्बला में शहीद हुआ था।''५ मोहर्रम का ताजिया उठाने वाले हिन्दू होते थे आगे चलने वाले भी हिन्दू। ग्रामीण जीवन में पीर-फकीरों की मजार पर जहाँ एक तरफ हिन्दू पूरी श्रद्धा और आस्था से चादरें चढ़ाते थे वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम जमींदार मन्दिरों के लिए जगह-जमीन की व्यवस्था करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।६आपसी लड़ाई के कारण गंगौली के मियाँ लोग फुन्नन मियाँ की लड़की रजिया की मौत के बाद उसकी अर्थी को कन्धा देने से इन्कार कर देते हैं। फिर कंधा देने के लिए झिंगुरिया और ठाकुर पृथ्वीपाल के साथ उनका सारा परिवार सामने आ जाता है। जनाजे की नमाज के बाद जब फुन्नन मियाँ अपनी बेटी को कब्र में उतारना चाहते हैं, तो पृथ्वीपाल कहता है, ''हम उतारब अपनी बहिन को'',७ सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की ऐसी मजबूत डोर से बंधे गंगौली वालों के मस्तिष्क में यह बैठना कि हिन्दू-मुसलमानों को इस देश से निकालना चाहता है, मुसलमान हिन्दुओं का दुश्मन है, आसान नहीं था।अलगाववादी तत्त्वों द्वारा विभाजन के पहले यह प्रचारित-प्रसारित किया गया कि ''पाकिस्तान न बना तो आठ करोड़ मुसलमान यहाँ (भारत में) अछूत बन जायेगा।''८
यह बात मुसलमानों की समझ से बाहर की थी। जो लोग अपने जीते जी उन लोगों की माँ-बहन की तरफ आँख उठाने वाले की आँख फोड़ने के लिए तैयार हैं,९ उनके साथ पीढ़ियों से रहते आये हैं वो उनके साथ ऐसा व्यवहार भला क्यों करेंगे?हिन्दू अलगाववादियों का यह प्रचार कि मलेच्छों ने भारतवर्ष को तहस-नहस कर दिया है। मन्दिरों को तोड़-तोड़ कर मस्जिदें बनवा ली है इन पापियों ने, आम हिन्दू की समझ में ही नहीं आता था, क्योंकि उसने तो मियाँ लोगों को दशहरे का चन्दा और बाबा के मठ के लिए जमीन देते देखा था।१० दरअसल ग्रामीण जीवन में अलगाववाद का ज+हर बहुत प्रभावी नहीं था क्योंकि वह वहाँ बाह्य शक्तियों द्वारा थोपा उनके निजी स्वार्थों पर आधारित था। इस तथ्य को आधा गाँव में व्यक्त फुन्नन मियाँ की इस मानसिकता कि ''पाकिस्तान पेट भरन का खेल है''११ के द्वारा रेखांकित करते हुए अलगाववाद के जहर को फैलाने के प्रयत्नों के पीछे के कारण को भी बड़ी बेबाकी के साथ स्पष्ट कर दिया गया है।कलकत्ते से प्रारम्भ प्रत्यक्ष-कार्यवाही-दिवस का साया जब उत्तर-पूर्वी भारत के बड़े-बड़े शहरों को अपने घेरे में ले चुका था तब भी उसी क्षेत्र के ग्रामीण जीवन पर उसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा था। दंगे-फसाद की अफवाहें गाँवों तक जब पहुँचने लगी तब भी गंगौली के आस-पास के हिन्दुओं की समझ में नहीं आ रहा था कि''अगर गुनाह कलकत्ता के मुसलमानों ने किया है तो बारिखपुर के वफाती, अलावपुर के घुरहू, हुंडरही के घसीटा को यानी अपने मुसलमानों को सजा क्यों दी जाये? जिन मुसलमान बच्चियों ने छुटपन में उनकी गोद में पेशाब किया है, उनके साथ जिना क्यों और कैसे की जाय? उनकी समझ में ये भी नहीं आ रहा था कि जिन मुसलमानों के साथ वह सदियों से रहते चले आ रहे हैं, उनके मकानों में आग क्यों और कैसे लगा दी जाय, उन मुल्ला जी को कोई कैसे मारे जो नमाज पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो हिन्दू-मुसलमान सभी बच्चों को फूँकते हैं'',१२ लेकिन धीरे-धीरे साम्प्रदायिक तत्त्व विद्वेष की अग्नि प्रज्जवलित करने में सफल हो गये। मास्टर जी और स्वामी जी जैसे लोगों की मानसिकता ग्रामीण जीवन की सहजता पर प्रभावी हो गयी। अन्ततः बारिखपुर के हिन्दुओं का समूह मुसलमानों को लूटने निकल पड़ा। यह ऐतिहासिक सच्चाई भी है कि कुछ समय के बाद ग्रामीण जन-जीवन में साम्प्रदायिकता का विष घुल गया। भारत वाले भाग में मुसलमानों के साथ पाकिस्तान वाले हिस्से में हिन्दुओं के साथ हिंसा के खेल ने गति पकड़ ली। लेकिन भारतीय भाग में एक बड़ा क्षेत्र इस सबके बावजूद हिंसा के ताण्डव से सुरक्षित रहा। ठाकुर पृथ्वीपाल जैसे अनेक लोग ऐसे थे जो यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सिर्फ इस जुर्म में लोगों के कत्ल कर दिये जाय कि वह मुसलमान हैं।अफवाहों बहकावों के प्रभाव से ग्रामीण जन-जीवन में साम्प्रदायिकता के लिए उर्वर भूमि तैयार हो गयी लेकिन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की हकीकत को लोग समझ नहीं पा रहे थे।
जो लोग थोड़ा-बहुत परिचित भी हुए वह जमींदार तबके के लोग थे और उन्हें इसे जमींदारी से जोड़ कर समझाते हुए कहा गया कि आजादी मिलने के बाद हिन्दुस्तान में काँग्रेस जमींदारी समाप्त करेगी क्योंकि जमींदार ज्यादा मुसलमान ही हैं।१३ इसके बावजूद गंगौली के लोगों ने न तो पाकिस्तान में कोई रुचि प्रदर्शित की, न ही पाकिस्तान बनने के बाद वहाँ जाने के लिए तैयार होते हुए दिखे। क्योंकि यहाँ की जमीन अपनी थी। लोग अपने थे। लोगों को चिन्ता थी कि चले जाने के बाद यहाँ के इमामबाड़े का क्या होगा? यहाँ की मस्जिदों का क्या होगा। उन्हें इस बात का खौफ था कि चले जाने के बाद इनमें घोड़ा, गाय कुछ भी बंध सकता है।१४पाकिस्तान निर्माण के सन्दर्भ में चुनावों के बाद लीग की बढ़ी हुई ताकत का योगदान बड़ा अहम् है। मुस्लिम मानसिकता के सन्दर्भ में एक बड़ा महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि जब आम मुसलमान पाकिस्तान की हकीकत से न तो परिचित ही थे न ही वहाँ जाना ही चाहते थे तो फिर चुनाव में लीग के पक्ष में मतदान करके उसकी ताकत को क्यों बढ़ाया। आधा गाँव में इस संदर्भ का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इसके पीछे मुख्य कारण था जमींदारी जाने का भय! मियाँ लोग काँग्रेस और गाँधी को गाली देते हुए कोसते हैं, कहते हैं, ''ई, कांग्रेस वाले त आसामियन का दिमाग इकदम्मे से खराब कर दिहिन हैं भाई, खुदा समझे ई गाँधी से!''१५ स्वतन्त्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन के कारण गंगौली के जमीदारों की दुर्दशा का जो व्यापक चित्रण उपन्यास में है वह मुसलमानों की लीग समर्थन के लिए बनी मानसिकता के औचित्य को एक प्रकार से सिद्ध ही करता है।अलगावादी मानसिकता के निर्माण के लिए साम्प्रदायिक शक्तियों ने मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे वर्ग को पाकिस्तान बन जाने के बाद सुन्दर भविष्य का लालच दिया। अलीगढ़ से पाकिस्तान के लिए जनसमर्थन बनाने आया अब्बास कहता है कि ''पाकिस्तान बन गया तो मुसलमान ऐश करेंगे ऐश''१६
ये लोग धार्मिक भावना का भी प्रयोग करते हैं। नमाज रोजे की दुहायी देते हैं। मगर नमाज के तहफ्फुज के लिए पाकिस्तान की जरूरत को सिद्ध करने वाले ऐसे लोगों को हाजी अंसारी जवाब देते हुए कहते हैं कि ''हम त अनपढ़ गँवार हैं। बाकी हमरे ख्याल से निमाज की खातिर पाकिस्तान-आकिस्तान की तनिकों जरूरत न है। निमाज के वास्ते खाली ईमान की जरूरत है। खुदाबन्दताला साफ फरमादिहिन है कि मेरे पैगम्बर कह दे ई लोग से कि हम ईमान वालन के साथ हैं। अउरी कानी कउन त् कहत रहा कि आप लोगन के जउन जिन्ना हैं ऊ नमाजों न पढ़ते।''१७ दरअसल यह तथ्य एक गंवार ग्रामीण की पाकिस्तान के प्रति उदासीनता को ही नहीं प्रकट करता अपितु पाकिस्तान और इस्लाम के आपसी सम्बन्धों की इस सच्चाई को भी स्पष्ट कर देता है कि पाकिस्तान निर्माण के पीछे इस्लाम की धार्मिक आवश्यकताओं का कोई दखल नहीं था।जमींदारी टूटने का भय, मजहबी उफान और हिन्दू अलगाववादी तत्त्वों की विध्वंसक कार्यवाहियों की खबरों के परिणामस्वरूप मुसलमानों का झुकाव लीग की तरफ होने भी लगा। फिर भी पाकिस्तान के रूप में एक नये मुल्क के वजूद में उन्हें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। इसका कारण भी था। तन्नू को वहाँ आठवीं की मजलिस भला कहाँ मिलती। बैठकर गन्ना खाने के लिए गंगौली वाला गोदाम भला कहाँ मिलता। गंगौली उसका गाँव था, अल्ला मियाँ का घर मक्का। जब अल्ला मियाँ को अपने घर से प्यार था तो उसे भला अपने गंगौली से प्यार क्यों न हो।१८ कम्मो की चाहत सईदा अलीगढ़ में रहती है। अलीगढ़ के पाकिस्तान जाने के साथ अगर वो भी चली गयी तो फिर उसके लिए क्या बचेगा।१९ मिगदाद की जमीन खेत गंगौली में है। हल बैल से उसे शरम नहीं आती इसलिए वह गंगौली क्यों छोड़े।२० तन्नू, कम्मो और मिगदाद के दर्द से यहाँ के मुस्लिम समाज का दर्द अलग नहीं था। इसकी जड़ें यहाँ उतनी ही गहराई तक पहुँच गयी थीं जितनी कि हिन्दुओं की। अब उन्हें दूसरी जगह लगाने का अर्थ था कि उसके अस्तित्व को समाप्त कर देना।मुस्लिम जनमानस की पाकिस्तान सम्बन्धी मानसिकता की अभिव्यक्ति के साथ इसी सन्दर्भ में हिन्दू अवाम की मानसिकता के भी कुछ छुट-पुट चित्र, आधा गाँव में मिलते हैं। वे भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के उलझावे से अपरिचित थे। कांग्रेस मतदान के लिए तैयार तो थे, लेकिन लीग, कांग्रेस, हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान की हकीकत से अनजान ही थे। उपन्यास का एक पात्र छिकुरिया कुलसुम बी के इन्हीं सवालों के उत्तर में कहता है कि ''हम त समझत बाड़ी की ई पाकिस्तान कउनों महजिद-ओहजिद होई''।२१धीरे-धीरे जुड़ाव और एकता की मानसिकता को तोड़ने और खण्डित करने वाली शक्तियों की सक्रियता बढ़ी तो इन तत्त्वों का प्रभाव शहरी मध्य वर्ग से होता हुआ ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ने लगा, परन्तु उनको विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। अलीगढ़, जोकि लीग की गतिविधियों का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, वहाँ से विश्वविद्यालयों के छात्रों का जत्था गाँव-गाँव आकर विभाजन के समर्थन में मुसलमानों को लीग के पक्ष में खड़ा करने में लग गया। गंगौली के हम्माद मियाँ का लड़का छुट्टियों में अलीगढ़ से आने पर पाकिस्तान और लीग के पक्ष में राजा महमूदाबाद, चौधरी खलीकुज्जमा, गजनफर अली, नवाब इस्माईल, नवाब यूसुफ, सर सुल्तान और जिन्ना आदि का नाम लेकर भावुकता भरे तर्क देता है।
कहता है, ''हिन्दुस्तान के दस करोड़ मुसलमान कायदे आजम के पसीने पर अपना खून बहा देंगे''।२२ हिन्दू महासभा और आर०एस०एस० के लोग भी इसी प्रकार की विध्वंसक गतिविधियों में लग गये थे। भारत की धरती से मुसलमानों को समाप्त करके पवित्र करने का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहते हैं, ''आज मुरली मनोहर भारत के हर हिन्दू को पुकार रहा है, कि उठो और गंगा यमुना के पवित्र तट से इन मलेच्छ मुसलमानों को हटा दो .... धर्म संकट में है। गंगाजली उठाकर प्रतिज्ञा करो कि भारत की पवित्र भूमि को मुसलमानों के खून से धोना है।''२३ परन्तु ये शक्तियाँ गंगौली में सक्रिय नहीं हो पाती हैं। अब्बास की बातों का कोई खास असर नहीं पड़ता है। लोग उसकी बात इसलिए नहीं सुनते हैं कि वह उन्हें प्रभावित करता है, बल्कि इसलिए सुनते हैं कि वह पढ़ा लिखा है। अलीगढ़ के लड़के हाजी गफूर के सामने चित्त हो जाते हैं। स्वामी जी के भाषण के दौरान भी कुछ लोग भड़क जाते हैं। एक जवान बफाती को गाली देता है तो दूसरा जवान उसका विरोध करता है, ''बूढ़ पुरनियाँ के गाली बक्कत बाड़ा लाज न आवत होई?''२४ उत्तेजित भीड़ मुसलमानों के घरों पर धावा बोल देती है तो ठाकुर जयपाल सिंह बचाते हैं। यह घटना भी अलगाववादियों की असफलता को रेखांकित करती है।
परन्तु यह धावा और गाँव के राकियों और जुलाहों का लीग के पक्ष में होता झुकाव भविष्य की त्रासदी का संकेत अवश्य कर देता है।कलकत्ते में मुस्लिम लीग द्वारा आरम्भ प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के परिणामस्वरूप पूरे पूर्वोत्तर भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का जो सिलसिला आरम्भ हुआ उपन्यास में उसके ग्रामीण जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के फलस्वरूप निर्मित मानसिकता का भी चित्रण है। आरम्भ में आने वाली अफवाहों और खबरों का गंगौली पर कोई खास प्रभाव पड़ता दिखायी नहीं देता है। स्थानीय लोगों के भड़कावे में आकर छुट-पुट घटने वाली घटनाओं के अतिरिक्त मुसलमान वहाँ से आने वाली खबरों की अफवाहों पर विश्वास ही नहीं करते हैं। मौलवी बेदार के द्वारा कलकत्ते में मुसलमानों के ऊपर हो रहे अत्याचार की चर्चा पर हकीम साहब जवाब देते हुए कहते हैं कि''बाकी मुसलमानों कउनों हलालजादे ना हैं ... बाकी ओठरा कउन खोजिस।''२५ कहना बहुत कुछ चाहकर भी फुन्नन मियां कलकत्ते और लाहौर में हो रहे अत्याचारों की कहानी सुनाकर भड़काने वाले पंडित मातादीन को केवल इसलिए कुछ नहीं कहते हैं कि पंडित जी को मंदिर बनवाने के लिए उन्होंने ही जमीन दिया था। उनकी नजर में मंदिर भी खान-ए-खुदा है।२६ कोई कारण भी नहीं था कि हिन्दुओं को लेकर फुन्नन मियाँ के मन में अविश्वास का भाव उत्पन्न होता। वह मिगदाद से इसी विश्वास के बल पर बेबाक ढंग से राय प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि ''हिन्दू कउनों चूतिया न हैं कि उनके (स्वामी जी) भड़कावे में आ जैय इै।''२७राही मासूम रजा का मानना है कि मुसलमानों की भाँति हिन्दू जनमानस में भी इन दंगों से जुड़ी अफवाहों का बहुत अधिक प्रभाव नहीं दिखा। इसे आधा गाँव में हमलावर आततायियों के ऊपर ठाकुर जयपाल सिंह के प्रकट क्षोभ के माध्यम से देखा जा सकता है वह उन लोगों पर क्रोधित होते हुए कहता है, ''खैरियत यही में बाय कि चलजा लोग। का नवाखली मा हई बफतियां अउरी हई दिलदरवा अउरी अलुआ हिन्दू इसत्रियन के खराब किहले बाये। बड़ बहादुर हउवा लोग अउर हिन्दू मरिजादा के ढेर ख्याल बाये तुहरे लोगन के त् कलकत्ते लाहौर जाये के चाही।''२८
परन्तु एक समय के बाद प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का प्रभाव ग्रामीण जन-जीवन पर पड़ना आरम्भ हो गया। अन्ततः ग्रामीण क्षेत्रों में भी साम्प्रदायिक विद्वेष की अग्नि भड़कने लगी। गंगौली भी कलकत्ते से आरम्भ हिंसा की आँच की तपिश से बच न सका। लोग धीरे-धीरे खौफजदा होने ही लगे। मौलवी बेदार की हिम्मत दिलेरी और साफगोई पश्त होती दिखी। कहने लगे, ''जेह दिन से ई जिनवा पाकिस्तान की बात निकालिस है तेही दिन से माथा ठनका। अब देख ल्यो, कलकत्ते में बलबा भया। छपरे में भया। दुइ-चार दिन में गाजीओपुर में हो जैयहै।''२9 हुआ भी वही। दिल्ली, बंबई, लाहौर, अमृतसर, कलकत्ता, ढ़ाका, चटगाँव, सैदपुर, रावलपिण्डी, लालकिला, जामा मस्जिद, गोल्डन टेम्पुल, जलियावाला बाग, हाल बाजार, उर्दू बाजार सब दंगे की आग में धूँ-धूँ करके जल उठे।३० इन्हीं के बीच में देश का विभाजन हो गया।विभाजन तो देश का हो ही गया। इसने भाई को भाई से, माँ को बेटे से, पत्नी को पति से अलग कर दिया। ''अब हम लोग अपने लड़कन के बाप न रह गये हैं। अब लड़के वे सब हमरे लोगन के बाप हो गये हैं। हम बहुत कहा कुद्दन से ए बेटा तुहैं पाकिस्तान जाये की कउन जरूरत है त्-बोले कि हियाँ मुसलमानन की तरक्की का रास्ता बन्द हो गया है। अब वो अपने बाल-बच्चन को भी ले जाये त् इतमिनान की साँस लें। ए बशीर ई पाकिस्तान त हिन्दू-मुसलमानन को अलग करे को बना रहा, बाकी हम त ई देख रहे हैं कि मियां-बीबी, बाप-बेटा अउर भाई को अलग कर रहा। कुद्दन चले गये त ऊ मुसलमान हैं अउर हम हियाँ रह गये त का हम खुदा न करे हिन्दू हो गये।''३१ हकीम साहब का यह दर्द रिश्तों के बिखरने की पीड़ा को उद्घाटित करते हुए पाकिस्तान निर्माण के पीछे मुस्लिम मानसिकता की आर्थिक अवधारणा को भी संकेतित करता है।पाकिस्तान निर्माण के बाद पारिवारिक बिखराव की जैसी पीड़ा मुसलमानों को सहन करनी पड़ी वैसी हिन्दुओं को नहीं। स्थानान्तरण के समय हिन्दुओं के पूरे परिवार साथ थे। वे या तो मारे गये या ठिकाने पर पहुँच गये। जो बिछुड़ गये वह भी मार डाले गये परन्तु मुसलमानों के बहुत से ऐसे परिवार थे जिसके कुछ सदस्य पाकिस्तान चले गये कुछ हिन्दुस्तान में ही रह गये। कुछ एक देश के नागरिक हो गये कुछ दूसरे देश के। जाने वाले छोड़ गये अपने साथ अनेक सवाल। रह गयी पत्नियों का क्या होगा? बाप के बिन बच्चों का भविष्य कैसा होगा?३२ मुस्लिम मानस इस पीड़ा से विभाजनोपरान्त एक लम्बे समयान्तराल के बाद भी मुक्ति नहीं पा सका।पारिवारिक बिखराव के साथ आने वाली अफवाहें काफी समय तक मुस्लिम मानस को प्रभावित करती रहीं। अमृतसर और जालंधर की मस्जिदों को तोड़कर मन्दिर बनवाने की खबरें आ रही थीं। दिल्ली के इमामबाड़े पर सिक्खों द्वारा कब्जे की बात सुनाई पड़ रही थी। बचे मुसलमानों को काट देने की अफवाहों का जोर था।३३मुसलमान बादशाहों ने अगर मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनवा लिया था। देवी-देवताओं के बुतों को खुड्डियों में इस्तेमाल किया तो इसमें आम जनता का क्या कसूर था? ''काहेन मारा सभन ने पकड़ के ऊ बहनचोद बादशाह को ! ल्यो मंदिर तोड़े बादशाह और गाँड़ मरायैं हम''३४ वाह! फुन्नन मियां के इस तर्क का जवाब किसी के पास नहीं था। भोली-भाली रब्बन बी कहती हैं, 'अच्छा, हम ई पूँछ रहे हैं कि जब तू ही लोग ओट देके पाकिस्तान बनाए हो तो उहे ओटवा देके बिगाड़ द्यो माटी मिले को।'३५ रब्बन बी का यह तर्क पाकिस्तान निर्माण में सक्रिय मानसिकता की निस्सारता को प्रकट करते हुए उस मानसिकता पर गहरी चोट भी करता है।''ई (पाकिस्तान) बहनचोदन (अंग्रेज) का तोहफा है।''३६ इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण उपन्यास में पाकिस्तान निर्माण के पीछे कार्यकारी शक्ति अंग्रेजों का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है। दरअसल उपन्यास का लक्ष्य विभाजन को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर जनसामान्य की मानसिकता का चित्रण रहा है, यही वह कारण हो सकता है जिसने अंग्रेजों की ऐतिहासिक भूमिका को चित्रित करने का कथाकार को अवसर ही नहीं दिया।कांग्रेस और विभाजन के आपसी सम्बन्धों को भी उपन्यास में संक्षेप में ही विवेचित विश्लेषित किया गया है। विभाजनोपरान्त कांग्रेस एवं कांग्रेसियों के चरित्र तथा कांग्रेसी राजनीति और उसके सामाजिक प्रभाव का चित्रण अवश्य है जबकि वास्तविकता यह है कि भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि में कांग्रेस और मुसलमानों के मध्य उपजी दूरी की भूमिका बड़ी अहम् थी।आजादी से पहले कांगे्रस से मुसलमानों का विरोध आर्थिक आधार पर विकसित था। मुस्लिम जमींदारों की कांग्रेस से दूरी और मुस्लिम लीग की तरफ हुआ झुकाव पाकिस्तान निर्माण को आकांक्षा इच्छा के कारण नहीं था। दरअसल उन्हें भय था कि कांग्रेस का राज आने पर जमींदारी चली जायेगी। इस तथ्य पर उपन्यासकार ने विशेष बल दिया है। आजादी के बाद इसीलिए बड़ी बूढ़ियो ने गिड़गिड़ा कर दुआएँ मांगी थी कि अंगे्रज लौट आयें। हर नमाज में कांग्रेस को बद्दुआएँ दी गयी। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं था कि मुसलमानों में कांगे्रस विरोध के मूल में केवल जमींदारी जाने का भय था। मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस में विकसित अवसरवादी, हिन्दूवादी, रूझान के कारण कांग्रेस का विरोधी हो गया। १९४६ के चुनाव में लीग को मिली भारी सफलता के पीछे कांग्रेस में विकसित अवसरवादी हिन्दू चरित्र और नेतृत्व का ही प्रभाव था। परन्तु कथाकार ने इस प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण के प्रकाश में कहा जा सकता है कि मोहर्रम की पृष्ठभूमि पर आधारित गंगौली के सामाजिक जीवन के चित्रण माध्यम से आधा गाँव के उपन्यासकार डॉ० राही मासूम रजा ने विभाजनकालीन मानसिकता के विविध पक्षों को यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्ति प्रदान की है। इस प्रक्रिया में उन्हें साम्प्रदायिकता के सन्दर्भ में अलगाववादी तत्त्वों की भूमिका, जमींदारी उन्मूलन का मुस्लिम समाज पर प्रभाव, कांग्रेस की राजनीति का मुस्लिम जनमानस से सम्बन्धित यथार्थ तथा विभाजनोपरान्त पारिवारिक विघटन से उपजी त्रासदी से जूझते मुस्लिम-समाज के इतिहास की कथा की प्रस्तुती में यथेष्ट सफलता भी प्राप्त हुई है। इसी क्रम में मुसलमानों से जुड़ी हिन्दू मानसिकता की पर्तें भी खुली हैं।आधा गाँव उपन्यास के माध्यम से साम्प्रदायिक मानसिकता की पर्त-दर-पर्त जाँच पड़ताल और परख न केवल तद्युगीन विध्वंसकारी परिस्थितियों में कार्यरत सकारात्मक शक्तियों की सक्रियता को रेखांकित करती है, बल्कि उन सन्दर्भों को भी संकेतित करती है जो वर्तमान परिदृश्य में साम्प्रदायिकता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान कर सकते हैं।
सन्दर्भ
१-२. राही मासूम रजा, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, नई दिल्ली, सं० १९८९, पृ० ३
३. वही, पृ० ६३
४-५. वही, पृ० ५२
६. वही, पृ० १७४
७. वही, पृ० ६८
८. वही, पृ० २४४
९. वही, पृ० २४५
१०. वही, पृ० १७४
११. वही, पृ० २६३
१२. वही, पृ० २८३
१३. वही, पृ० २५८
१४. वही, पृ० २४५
१५. वही, पृ० ९२
१६. वही, पृ० ५२
१७. वही, पृ० २४७
१८. वही, पृ० २५६
१९. वही, पृ० २४२
२०. वही, पृ० २१९
२१. वही, पृ० २४३२२. वही, पृ० ५२
२३-२४. वही, पृ० २८१
२५-२६. वही, पृ० २७०
२७. वही, पृ० २७९
२८. वही, पृ० २८३
२९. वही, पृ० २७४
३०-३१. वही, पृ० २९२
३२-३३. वही, पृ० ३०२
३४-३५. वही, पृ० ३३०
३६. वही, पृ० २४६
३७. वही, पृ० २४०
Monday, December 22, 2008
नफरत का एक दीप जलाये
नफरत का एक दीप जलाये राह पे राही आये
देख के अपनी कसी भुजायें मन ही मन मुस्काये
अंग्रेजों की घूस से लड़ने क्रान्ति के बादल छाये
सत्तावन ने बीन बजाई और काले लहराये
सर धड़ का बाजार गर्म था किसको फिक्र थी दामन की
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
बन्दीघर में लोटा थाली पर बन्दी टकराये
अंग्रेजों ने लाठी के बादल उन पर बरसाये
इत्ती इत्ती बात पे फौजी जब देखो गरमाये
हालत यह थी जो बोले वह तोपों में उड़ जाये
देख के अपनी कसी भुजायें मन ही मन मुस्काये
अंग्रेजों की घूस से लड़ने क्रान्ति के बादल छाये
सत्तावन ने बीन बजाई और काले लहराये
सर धड़ का बाजार गर्म था किसको फिक्र थी दामन की
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
बन्दीघर में लोटा थाली पर बन्दी टकराये
अंग्रेजों ने लाठी के बादल उन पर बरसाये
इत्ती इत्ती बात पे फौजी जब देखो गरमाये
हालत यह थी जो बोले वह तोपों में उड़ जाये
Saturday, December 20, 2008
हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
राही मासूम रज़ा कृत 1857 पर कविता दी जा रही है .इससे पहले कई टुकड़ो में दी गई थी. अब एक साथ प्रेषित है .
यह आदमी की गुजरगाह!
राही मासूम रज़ा
हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूँढे से जिन्दगी नहीं मिलती
जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
साँप कुलबुलाते हैं
कौन-सी लगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
क़ाफ़िला नहीं चलता
रास्ता भी और दिल भी
साँय-साँय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है
क्या करूँ कहाँ जाऊँ
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हूं मैं
कोई गाँव मिल जाये
कुनकुनाते पानी से
अपने पाँव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता
हाँ जला लूँ इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी
कोई हवा से यह कह दे वह यह चिराग बुझाये
कि इस सड़क पे अंधेरा ही था तो अच्छा था
हर इक दरख्त में फन्दा, हर इक शाख पे लाश
मैं इस सड़क पे अकेला ही था तो अच्छा था
ये रास्ते पे हैं मसलूब कौन लोग आख़िर
यह रास्ता है कि वीरानियों का जंगल है
सड़क के दोनो तरफ़ यह दरख्त लाशों के
यह जिन्दगी की गुजरगाह है कि मक्तूल है
गुजर चुका हूं मैं इस रास्ते से पहले भी
दो रूया आम के पेड़ों के वह घने साये
फ़िजा में अमियों की वह नर्म खुशगवार महक
कि जिनके जिक्र से फ़स्ले-बहार आ जाये
हवा दरख्तों के आग़ोश में जगह पाकर
शरीर बच्चों के मानिन्द शोर करती हुई
हजार क़दमों की आहट, तमाम नग़मा व रंग
हर एक ग़ुबार से इक़ जिन्दगी उभरती हुई
शिकस्ता पैरों से लिपटा हुआ व रंग-ए-हिना
वह रंग-रंग के आँचल हवा में उड़ते हुए
वह पिछले दिन की गूंथी चोटियों से निकले बाल
हर एक मोड़ पे कुछ क़ाफ़िले से मुड़ते हुए
वह चरमराते हुए जूतों की सदाओं से
जुगाली करती हुई बकरियों की बेख़बरी
अँधेरी रात में जलते हुए दीयों की तरह
वह गाय भैंसों की आँखें सितारा-ए-सहरी
हर एक लम्हा वह सरगोशियाँ सी करता हुआ
वह साँस लेती हुई जुल्मतों की खामोशी
हर एक साया कोई गीत याद करता हुआ
वह गुनगुनाती हुई चाँदनी की बेहोशी
कहीं हवा ने सदा दी कहीं बढ़े साये
थकन को देख के हर शाखेतर का हाथ बढ़ा
क़दम क़दम पे मुसाफिर नवाज मिलते थे
हजारहा शजर-ए-सायादार राह में था।
वह जिन्दगी के मजाहिर कहाँ गए आखिर
न कोई गीत न बच्चों की भाग दौड़ का शोर
न सहर-ए-चंग न खड़ताल की सदा का फसूं
कहाँ छिपे हैं मसर्रत के नाचते हुए मोर
हैं किस गुबार में बिरहे की वह जवाँ तानें
कि जिनके सुनने से अँगड़ाइयाँ सी आने लगें
खमोश क्यों हैं वह कजरी की मदभरी तानें
कि जिनकी गूँज से काली घटाएँ छाने लगें
न बकरियों के रेवड़ न कोई चरवाहा
न भागते हुए बछड़े न सोचती हुई गाएँ
फ़क़त दोरूया दरख्तों पे झूलती लाशें फ़क़त
यह दिल कि हर एक गाम पर धड़क जाए
मैं किससे पूछू यह क्या क़िस्सा है कहाँ हूं मैं
न संग-ए-मील ही बोलें न ये दरख्त बताएँ
हर एक पल मुझे गूंगों की तरह तकता है
यह झूलती हुई लाशें न कुछ सुनें न सुनाएँ
वहाँ पे है तो धुआँ सा, उधर चलो शायद
किसी मकान का दरवाजा ही खुला मिल जाए
यह क्या! यहाँ भी किसी का पता नहीं चलता
सिसक रहा है यह छप्पर कराहता है वह घर
हर एक किवाड़ की उर से झपक रही है फलक
हर एक रौजन-ए-दीवार (दरवाजे) में कई अजहर (अंधेरा)
न खेलते हुए बच्चे न डाँटती हुई माँ
बस इक गलीज धुआँ है हर एक आँगन में
यह टूटे-फूटे से बर्तन नुचे-खुचे कपड़े
किसे किसे मैं समेटूं अब अपने दामन में
ये गागरें हैं ये लोटे ये जर्दरू थाली
यह आरती के दिये और यह कन्हैया है
यह अधजली हुई लाशें यह अधजले हुए घर
जमीन तू ही बता कौन इधर से गुजरा है
यह नन्ही-मुन्नी सी गुड़ियाँ ग्वालनें ग्वाले
यहाँ पे छोड़कर इनको कहाँ गया बचपन
यह बिन्दियाँ हैं यह सिंदूर है यह आईना
सुहाग बिखरा पड़ा है कहाँ छिपी है दुलहन
हर एक राह है वीरान, हर मकान उदास
न खांसते हुए बूढ़े, न गुनगुनाते जवां
न मंदिरों में पुजारी, न दीप और न राम
न मस्जिदों में नमाजी हैं न शोरे-अजां
उदास उदास है पीपल, खामोश है बरगद
कि जेरे-साया कोई शिव विराजमान नहीं
किसी गली में खनकती नहीं कोई पायल
नदी के तट पे किसी बंसरी की तान नहीं
बने हुए तो हैं पनघट पे गागरों के निशाँ
मगर घरों की वह बातें नजर नहीं आतीं
वह छोटी-छोटी सी खुशियाँ तो वह पहाड़ से ग़म
घरों से औरतें क्या अब इधर नहीं आतीं
न त्योरियों की कमंदे, न आबरूओं की कटार
न क़हक़हों के वह नश्तर, न वह निगाहों के बान
न कोहनियों के इशारे, न झेंपी-झेंपी हँसी
न क़त्लगाह में मक्तूल ही कोई मेहमाँ
गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना
घरवा तक ना चीन्हूं पै पितबउ चोरवन का हौ जोर
गुण्डा छेंक के बैठल बाडन तोहरे घर का मोड़
चुल्लू भर हम हूं पी लें का बिगड़ी हो तोहार
बरनवा झलकत बाले ना
गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना
छलक रही है न गागर, भड़क रही है न प्यास
न चोर ही हैं न गुण्डे ही छुपके बैठे हैं
बस इक महीब खमोशी जमीं से ता बा फ़लक़
मगर निशाने - क़दम यह कुछ अजनबी से हैं
बता सुलगते हुए गाँव, तू ही बतला
झिझक-झिझक के गुजरती हवा तू ही कुछ बोल
किसी कराह, किसी चीख का सुराग़ मिले
सुलगती लाशों से महकी फ़िजा, तू ही कुछ बोल
..................
दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने
मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें
वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत
दमड़ी का सेनुर महँग भयल बाबा
चुनरी भयल अनमोल
ए ही रे सेनुरवा के कारन बाबा
छोड़ लौं मैं देस तुहार
डोलिया का बाँस पकड़े रोयें बीरन भैया
बहना मोरी दूर देसी भई
परदेसी भई
कौन लगइहै बजरिया में आखिर
वीरन के अँसुअन का मोल रे बाबुल चुनरी भयल अनमोल
मगर न कोई सहेली न ढोल और न गीत
कहार ही हैं न डोली न कोई बीरन है
न समधिनें हैं न मासूम गालियाँ ही हैं
यह गाँव आज से बेवा है या सुहागन है
चलूँ यहाँ से कि ऐ मेरे डूबते हुए
दिल यहाँ पे सुबह न मालूम कितनी दे में हो
मगर कुरेद लू शायद कोई शरार (अंगारा) अभी
यह जिन्दगी की चिता है कि ढेर में हो
अँधेरे में छिपी हुई हवा की साँय-साँय में
दबी-दबी सी गुफ्तगू घुटी-घुटी शिकायतें
हर एक लफ्ज एक कराह, एक ठंडी साँस है
न जाने कौन लोग हों न जानें किस तरह मिलें
मेरे खयाल को जो साँप डस रहा है देर से
न जाने उस सवाल पर ये रो पड़ें कि हेस पड़ें
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मेरे सुला क्यों न जा
आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे सुलाती हू
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
मेरे भैया कहाँ हैं बुलाओ साथ मेरे इन्हें भी सुलाओ
हम अकेले भला कैसे सोयों हम न सोयेंगे लोरी न गाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आजा री निंदिया पलकियन में
आ मोरे चन्दा की अँखियन में
आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे तोरे सुलाती हू
आई मैं बीवी पलकियन में
आई मैं चन्दा की अँखियन में
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
कह दिया लोरियाँ अब न गाओ मेरी बाजी कहाँ हैं बताओ
वह कहानी सुनायें तो सोऊँ बड़की अम्मा कहाँ हैं बुलाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
लाड़ला सो गया अब न गाओ गाके लोरी इसे मत जगाओ
रात ढलने लगी तुम भी सो लो जख्म दुखते हैं मत गुनगुनाओ
हम भी चुपचाप अब लेट जाएँ
दिल के जख्मों पे मरहम लगाएँ
जो दरख्तों पे लटके हुए हैं
कह दो उनसे कि मत याद आएँ
याद करने से अब फायदा क्या
जाने वाले पलटते नहीं हैं
जिनको रहना था वह जा चुके हैं
हमको जाना था और हम यहीं हैं
चुप होके लेट जाने से क्या नींद आएगी
मेरी भी कोई माँ है जो लोरी सुनाएगी
सुन लो, यह माँ हूँ, कोई फिरंगी नहीं हू मैं
बस मौत मेरे जख्म पे मरहम लगाएगी
यह उजड़ी गोद लेके जियूँ भी तो क्या जियूँ
खुद अपनी गोद देखके अब शर्म आएगी
बच्चों जैसी न बातें करो तुम
सब्र कर लो कि चारा नहीं है
गाँव में उन दरख्तों के ऊपर
सिर्फ बेटा तुम्हारा नहीं है
है फिरंगी का शायद खुदा भी
अब खुदा भी हमारा नहीं है
बोझ तो है जईफी (बुढ़ापा) का
सर पर और कोई सहारा नहीं है
दूर तक आसमाँ पर सियाही
दूर तक कोई तारा नहीं है
आँसुओं का नमक जिसको भर दे
जख्म ऐसा हमारा नहीं है
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह फिर खामोश है फिर भी कुछ नहीं कहती
बस उसके हाथ में आँचल उठा ही रहता है
वह सर कि जिसमें है ममता की अजमतों (कविता) का गुरूर
वह आसमाने मुहब्बत झुका ही रहता है
माँ मैं यह पूछता हू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक झटके से पीछे कि सिम्त मुड़ती है
मैं जानता हू कि क्या दिखा रही है मुझे
वह धुआँ है, वहाँ लाशें हैं, तबाही है
मैं जानता हू कि वह क्या बता रही है मुझे
मैं चला आ रहा हू इसी गाँव से
है वहाँ क्या, मैं यह तो नहीं पूछता
अपने आँसू मेरी आँख को सौंपकर
सिर्फ इतना बता दो कि कौन आया था
वह जो है एक खण्डहर वह मेरा गाँव था
काँपते हाथ ने जाने क्या कह दिया
मैं नहीं सुन सका ऐ हवा रुक जरा
जुज फिरंगी (फिरंगी के अलावा) भला और कौन आएगा
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
भाइयों बहनों को यह मेरा लाडला
ढूँढते ढूँढते थक के सो भी गया
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या
अम्माँ क्या भैया आए हैं मेरे लिए रोटी लाए हैं
आजा री निंदया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आती हूं बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे सुलाती हूं
मैं नहीं सोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा
मैं बस रोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा
तुम भैया को ढूँढ रहे हो हाँ हाँ भैया भी आएगा
लेकिन जब तुम सो जाओगे लेकिन जब कहना मानोगे
अच्छा लो मैं सो जाता हूं
अम्मा मैं चन्दा बेटा हूं
आजा री निंदया तू आ क्यां न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
डरते-डरते दूर उफुक (क्षितिज) में
सुरज ने पर्दा सरकाया
चिड़ियों के मीठे गाने को
कोई फिरंगी रोक न पाया
क्या मैं रस्ता भूल गया हूं
उठता सूरज सोच रह है
क्या मैं रोज यहीं आता था
क्या वह वही प्यारी दुनिया है
मुर्दों के बाजार सजे हैं
लाशों का खलियान लगा है
खेतों के लब सूख रहे हैं
दरिया का चेहरा उतरा है
मैं इक टूटे से मंदिर में
बरगद की इक जड़ पर बैठा
जाने कब से सोच रहा हूं
वह बच्चा अब जागा होगा
माँ कैसे बहलाती होगी
माँ कैसे समझाती होगी
घुटनों पर हाथों को रखकर
मैं उठता हूं, दिल को यह डर
फौजें आहिस्ता चलती हैं
कुछ ही दूर पे तोपें होंगी
गाँव से शोले उठते होंगे
और पेड़ों पर लाशें होंगी
बिरहे होंगे दार (सूली) के ऊपर
कजरी का दम घुटता होगा
दिल कहता है मेरी सुन लो
आगे जाकर मरना होगा
वह बच्चा अब जाग के शायद
जिद करता या रोता होगा
माँ की आँखों बाप के दिल में
एक गहरा सन्नाटा होगा
मरना भी हो तो करना
आगे तो चलना ही होगा
जुल्मत (अंधेरा) से जब ठन ही गई है
लौ की तरह जलना ही होगा
यह आदमी की गुजरगाह!
राही मासूम रज़ा
हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूँढे से जिन्दगी नहीं मिलती
जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
साँप कुलबुलाते हैं
कौन-सी लगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
क़ाफ़िला नहीं चलता
रास्ता भी और दिल भी
साँय-साँय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है
क्या करूँ कहाँ जाऊँ
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हूं मैं
कोई गाँव मिल जाये
कुनकुनाते पानी से
अपने पाँव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता
हाँ जला लूँ इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी
कोई हवा से यह कह दे वह यह चिराग बुझाये
कि इस सड़क पे अंधेरा ही था तो अच्छा था
हर इक दरख्त में फन्दा, हर इक शाख पे लाश
मैं इस सड़क पे अकेला ही था तो अच्छा था
ये रास्ते पे हैं मसलूब कौन लोग आख़िर
यह रास्ता है कि वीरानियों का जंगल है
सड़क के दोनो तरफ़ यह दरख्त लाशों के
यह जिन्दगी की गुजरगाह है कि मक्तूल है
गुजर चुका हूं मैं इस रास्ते से पहले भी
दो रूया आम के पेड़ों के वह घने साये
फ़िजा में अमियों की वह नर्म खुशगवार महक
कि जिनके जिक्र से फ़स्ले-बहार आ जाये
हवा दरख्तों के आग़ोश में जगह पाकर
शरीर बच्चों के मानिन्द शोर करती हुई
हजार क़दमों की आहट, तमाम नग़मा व रंग
हर एक ग़ुबार से इक़ जिन्दगी उभरती हुई
शिकस्ता पैरों से लिपटा हुआ व रंग-ए-हिना
वह रंग-रंग के आँचल हवा में उड़ते हुए
वह पिछले दिन की गूंथी चोटियों से निकले बाल
हर एक मोड़ पे कुछ क़ाफ़िले से मुड़ते हुए
वह चरमराते हुए जूतों की सदाओं से
जुगाली करती हुई बकरियों की बेख़बरी
अँधेरी रात में जलते हुए दीयों की तरह
वह गाय भैंसों की आँखें सितारा-ए-सहरी
हर एक लम्हा वह सरगोशियाँ सी करता हुआ
वह साँस लेती हुई जुल्मतों की खामोशी
हर एक साया कोई गीत याद करता हुआ
वह गुनगुनाती हुई चाँदनी की बेहोशी
कहीं हवा ने सदा दी कहीं बढ़े साये
थकन को देख के हर शाखेतर का हाथ बढ़ा
क़दम क़दम पे मुसाफिर नवाज मिलते थे
हजारहा शजर-ए-सायादार राह में था।
वह जिन्दगी के मजाहिर कहाँ गए आखिर
न कोई गीत न बच्चों की भाग दौड़ का शोर
न सहर-ए-चंग न खड़ताल की सदा का फसूं
कहाँ छिपे हैं मसर्रत के नाचते हुए मोर
हैं किस गुबार में बिरहे की वह जवाँ तानें
कि जिनके सुनने से अँगड़ाइयाँ सी आने लगें
खमोश क्यों हैं वह कजरी की मदभरी तानें
कि जिनकी गूँज से काली घटाएँ छाने लगें
न बकरियों के रेवड़ न कोई चरवाहा
न भागते हुए बछड़े न सोचती हुई गाएँ
फ़क़त दोरूया दरख्तों पे झूलती लाशें फ़क़त
यह दिल कि हर एक गाम पर धड़क जाए
मैं किससे पूछू यह क्या क़िस्सा है कहाँ हूं मैं
न संग-ए-मील ही बोलें न ये दरख्त बताएँ
हर एक पल मुझे गूंगों की तरह तकता है
यह झूलती हुई लाशें न कुछ सुनें न सुनाएँ
वहाँ पे है तो धुआँ सा, उधर चलो शायद
किसी मकान का दरवाजा ही खुला मिल जाए
यह क्या! यहाँ भी किसी का पता नहीं चलता
सिसक रहा है यह छप्पर कराहता है वह घर
हर एक किवाड़ की उर से झपक रही है फलक
हर एक रौजन-ए-दीवार (दरवाजे) में कई अजहर (अंधेरा)
न खेलते हुए बच्चे न डाँटती हुई माँ
बस इक गलीज धुआँ है हर एक आँगन में
यह टूटे-फूटे से बर्तन नुचे-खुचे कपड़े
किसे किसे मैं समेटूं अब अपने दामन में
ये गागरें हैं ये लोटे ये जर्दरू थाली
यह आरती के दिये और यह कन्हैया है
यह अधजली हुई लाशें यह अधजले हुए घर
जमीन तू ही बता कौन इधर से गुजरा है
यह नन्ही-मुन्नी सी गुड़ियाँ ग्वालनें ग्वाले
यहाँ पे छोड़कर इनको कहाँ गया बचपन
यह बिन्दियाँ हैं यह सिंदूर है यह आईना
सुहाग बिखरा पड़ा है कहाँ छिपी है दुलहन
हर एक राह है वीरान, हर मकान उदास
न खांसते हुए बूढ़े, न गुनगुनाते जवां
न मंदिरों में पुजारी, न दीप और न राम
न मस्जिदों में नमाजी हैं न शोरे-अजां
उदास उदास है पीपल, खामोश है बरगद
कि जेरे-साया कोई शिव विराजमान नहीं
किसी गली में खनकती नहीं कोई पायल
नदी के तट पे किसी बंसरी की तान नहीं
बने हुए तो हैं पनघट पे गागरों के निशाँ
मगर घरों की वह बातें नजर नहीं आतीं
वह छोटी-छोटी सी खुशियाँ तो वह पहाड़ से ग़म
घरों से औरतें क्या अब इधर नहीं आतीं
न त्योरियों की कमंदे, न आबरूओं की कटार
न क़हक़हों के वह नश्तर, न वह निगाहों के बान
न कोहनियों के इशारे, न झेंपी-झेंपी हँसी
न क़त्लगाह में मक्तूल ही कोई मेहमाँ
गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना
घरवा तक ना चीन्हूं पै पितबउ चोरवन का हौ जोर
गुण्डा छेंक के बैठल बाडन तोहरे घर का मोड़
चुल्लू भर हम हूं पी लें का बिगड़ी हो तोहार
बरनवा झलकत बाले ना
गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना
छलक रही है न गागर, भड़क रही है न प्यास
न चोर ही हैं न गुण्डे ही छुपके बैठे हैं
बस इक महीब खमोशी जमीं से ता बा फ़लक़
मगर निशाने - क़दम यह कुछ अजनबी से हैं
बता सुलगते हुए गाँव, तू ही बतला
झिझक-झिझक के गुजरती हवा तू ही कुछ बोल
किसी कराह, किसी चीख का सुराग़ मिले
सुलगती लाशों से महकी फ़िजा, तू ही कुछ बोल
..................
दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने
मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें
वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत
दमड़ी का सेनुर महँग भयल बाबा
चुनरी भयल अनमोल
ए ही रे सेनुरवा के कारन बाबा
छोड़ लौं मैं देस तुहार
डोलिया का बाँस पकड़े रोयें बीरन भैया
बहना मोरी दूर देसी भई
परदेसी भई
कौन लगइहै बजरिया में आखिर
वीरन के अँसुअन का मोल रे बाबुल चुनरी भयल अनमोल
मगर न कोई सहेली न ढोल और न गीत
कहार ही हैं न डोली न कोई बीरन है
न समधिनें हैं न मासूम गालियाँ ही हैं
यह गाँव आज से बेवा है या सुहागन है
चलूँ यहाँ से कि ऐ मेरे डूबते हुए
दिल यहाँ पे सुबह न मालूम कितनी दे में हो
मगर कुरेद लू शायद कोई शरार (अंगारा) अभी
यह जिन्दगी की चिता है कि ढेर में हो
अँधेरे में छिपी हुई हवा की साँय-साँय में
दबी-दबी सी गुफ्तगू घुटी-घुटी शिकायतें
हर एक लफ्ज एक कराह, एक ठंडी साँस है
न जाने कौन लोग हों न जानें किस तरह मिलें
मेरे खयाल को जो साँप डस रहा है देर से
न जाने उस सवाल पर ये रो पड़ें कि हेस पड़ें
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मेरे सुला क्यों न जा
आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे सुलाती हू
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
मेरे भैया कहाँ हैं बुलाओ साथ मेरे इन्हें भी सुलाओ
हम अकेले भला कैसे सोयों हम न सोयेंगे लोरी न गाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आजा री निंदिया पलकियन में
आ मोरे चन्दा की अँखियन में
आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे तोरे सुलाती हू
आई मैं बीवी पलकियन में
आई मैं चन्दा की अँखियन में
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
कह दिया लोरियाँ अब न गाओ मेरी बाजी कहाँ हैं बताओ
वह कहानी सुनायें तो सोऊँ बड़की अम्मा कहाँ हैं बुलाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
लाड़ला सो गया अब न गाओ गाके लोरी इसे मत जगाओ
रात ढलने लगी तुम भी सो लो जख्म दुखते हैं मत गुनगुनाओ
हम भी चुपचाप अब लेट जाएँ
दिल के जख्मों पे मरहम लगाएँ
जो दरख्तों पे लटके हुए हैं
कह दो उनसे कि मत याद आएँ
याद करने से अब फायदा क्या
जाने वाले पलटते नहीं हैं
जिनको रहना था वह जा चुके हैं
हमको जाना था और हम यहीं हैं
चुप होके लेट जाने से क्या नींद आएगी
मेरी भी कोई माँ है जो लोरी सुनाएगी
सुन लो, यह माँ हूँ, कोई फिरंगी नहीं हू मैं
बस मौत मेरे जख्म पे मरहम लगाएगी
यह उजड़ी गोद लेके जियूँ भी तो क्या जियूँ
खुद अपनी गोद देखके अब शर्म आएगी
बच्चों जैसी न बातें करो तुम
सब्र कर लो कि चारा नहीं है
गाँव में उन दरख्तों के ऊपर
सिर्फ बेटा तुम्हारा नहीं है
है फिरंगी का शायद खुदा भी
अब खुदा भी हमारा नहीं है
बोझ तो है जईफी (बुढ़ापा) का
सर पर और कोई सहारा नहीं है
दूर तक आसमाँ पर सियाही
दूर तक कोई तारा नहीं है
आँसुओं का नमक जिसको भर दे
जख्म ऐसा हमारा नहीं है
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह फिर खामोश है फिर भी कुछ नहीं कहती
बस उसके हाथ में आँचल उठा ही रहता है
वह सर कि जिसमें है ममता की अजमतों (कविता) का गुरूर
वह आसमाने मुहब्बत झुका ही रहता है
माँ मैं यह पूछता हू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक झटके से पीछे कि सिम्त मुड़ती है
मैं जानता हू कि क्या दिखा रही है मुझे
वह धुआँ है, वहाँ लाशें हैं, तबाही है
मैं जानता हू कि वह क्या बता रही है मुझे
मैं चला आ रहा हू इसी गाँव से
है वहाँ क्या, मैं यह तो नहीं पूछता
अपने आँसू मेरी आँख को सौंपकर
सिर्फ इतना बता दो कि कौन आया था
वह जो है एक खण्डहर वह मेरा गाँव था
काँपते हाथ ने जाने क्या कह दिया
मैं नहीं सुन सका ऐ हवा रुक जरा
जुज फिरंगी (फिरंगी के अलावा) भला और कौन आएगा
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
भाइयों बहनों को यह मेरा लाडला
ढूँढते ढूँढते थक के सो भी गया
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या
अम्माँ क्या भैया आए हैं मेरे लिए रोटी लाए हैं
आजा री निंदया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आती हूं बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे सुलाती हूं
मैं नहीं सोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा
मैं बस रोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा
तुम भैया को ढूँढ रहे हो हाँ हाँ भैया भी आएगा
लेकिन जब तुम सो जाओगे लेकिन जब कहना मानोगे
अच्छा लो मैं सो जाता हूं
अम्मा मैं चन्दा बेटा हूं
आजा री निंदया तू आ क्यां न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
डरते-डरते दूर उफुक (क्षितिज) में
सुरज ने पर्दा सरकाया
चिड़ियों के मीठे गाने को
कोई फिरंगी रोक न पाया
क्या मैं रस्ता भूल गया हूं
उठता सूरज सोच रह है
क्या मैं रोज यहीं आता था
क्या वह वही प्यारी दुनिया है
मुर्दों के बाजार सजे हैं
लाशों का खलियान लगा है
खेतों के लब सूख रहे हैं
दरिया का चेहरा उतरा है
मैं इक टूटे से मंदिर में
बरगद की इक जड़ पर बैठा
जाने कब से सोच रहा हूं
वह बच्चा अब जागा होगा
माँ कैसे बहलाती होगी
माँ कैसे समझाती होगी
घुटनों पर हाथों को रखकर
मैं उठता हूं, दिल को यह डर
फौजें आहिस्ता चलती हैं
कुछ ही दूर पे तोपें होंगी
गाँव से शोले उठते होंगे
और पेड़ों पर लाशें होंगी
बिरहे होंगे दार (सूली) के ऊपर
कजरी का दम घुटता होगा
दिल कहता है मेरी सुन लो
आगे जाकर मरना होगा
वह बच्चा अब जाग के शायद
जिद करता या रोता होगा
माँ की आँखों बाप के दिल में
एक गहरा सन्नाटा होगा
मरना भी हो तो करना
आगे तो चलना ही होगा
जुल्मत (अंधेरा) से जब ठन ही गई है
लौ की तरह जलना ही होगा
Friday, December 19, 2008
GAZAL
क्या मैं रस्ता भूल गया हूं
उठता सूरज सोच रह है
क्या मैं रोज यहीं आता था
क्या वह वही प्यारी दुनिया है
मुर्दों के बाजार सजे हैं
लाशों का खलियान लगा है
खेतों के लब सूख रहे हैं
दरिया का चेहरा उतरा है
मैं इक टूटे से मंदिर में
बरगद की इक जड़ पर बैठा
जाने कब से सोच रहा हूं
वह बच्चा अब जागा होगा
माँ कैसे बहलाती होगी
माँ कैसे समझाती होगी
उठता सूरज सोच रह है
क्या मैं रोज यहीं आता था
क्या वह वही प्यारी दुनिया है
मुर्दों के बाजार सजे हैं
लाशों का खलियान लगा है
खेतों के लब सूख रहे हैं
दरिया का चेहरा उतरा है
मैं इक टूटे से मंदिर में
बरगद की इक जड़ पर बैठा
जाने कब से सोच रहा हूं
वह बच्चा अब जागा होगा
माँ कैसे बहलाती होगी
माँ कैसे समझाती होगी
Thursday, December 18, 2008
GAZAL
मैं चला आ रहा हू इसी गाँव से
है वहाँ क्या, मैं यह तो नहीं पूछता
अपने आँसू मेरी आँख को सौंपकर
सिर्फ इतना बता दो कि कौन आया था
वह जो है एक खण्डहर वह मेरा गाँव था
काँपते हाथ ने जाने क्या कह दिया
मैं नहीं सुन सका ऐ हवा रुक जरा
जुज फिरंगी (फिरंगी के अलावा) भला और कौन आएगा
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
भाइयों बहनों को यह मेरा लाडला
ढूँढते ढूँढते थक के सो भी गया
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या
अम्माँ क्या भैया आए हैं मेरे लिए रोटी लाए हैं
है वहाँ क्या, मैं यह तो नहीं पूछता
अपने आँसू मेरी आँख को सौंपकर
सिर्फ इतना बता दो कि कौन आया था
वह जो है एक खण्डहर वह मेरा गाँव था
काँपते हाथ ने जाने क्या कह दिया
मैं नहीं सुन सका ऐ हवा रुक जरा
जुज फिरंगी (फिरंगी के अलावा) भला और कौन आएगा
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
भाइयों बहनों को यह मेरा लाडला
ढूँढते ढूँढते थक के सो भी गया
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या
अम्माँ क्या भैया आए हैं मेरे लिए रोटी लाए हैं
GAZAL
वह फिर खामोश है फिर भी कुछ नहीं कहती
बस उसके हाथ में आँचल उठा ही रहता है
वह सर कि जिसमें है ममता की अजमतों (कविता) का गुरूर
वह आसमाने मुहब्बत झुका ही रहता है
माँ मैं यह पूछता हू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक झटके से पीछे कि सिम्त मुड़ती है
मैं जानता हू कि क्या दिखा रही है मुझे
वह धुआँ है, वहाँ लाशें हैं, तबाही है
मैं जानता हू कि वह क्या बता रही है मुझे
बस उसके हाथ में आँचल उठा ही रहता है
वह सर कि जिसमें है ममता की अजमतों (कविता) का गुरूर
वह आसमाने मुहब्बत झुका ही रहता है
माँ मैं यह पूछता हू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक झटके से पीछे कि सिम्त मुड़ती है
मैं जानता हू कि क्या दिखा रही है मुझे
वह धुआँ है, वहाँ लाशें हैं, तबाही है
मैं जानता हू कि वह क्या बता रही है मुझे
Wednesday, December 17, 2008
Gazal
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
gazal
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ
माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं
गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को
माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ
Gazal
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग
चुप होके लेट जाने से क्या नींद आएगी
मेरी भी कोई माँ है जो लोरी सुनाएगी
सुन लो, यह माँ हूँ, कोई फिरंगी नहीं हू मैं
बस मौत मेरे जख्म पे मरहम लगाएगी
यह उजड़ी गोद लेके जियूँ भी तो क्या जियूँ
खुद अपनी गोद देखके अब शर्म आएगी
बच्चों जैसी न बातें करो तुम
सब्र कर लो कि चारा नहीं है
गाँव में उन दरख्तों के ऊपर
सिर्फ बेटा तुम्हारा नहीं है
है फिरंगी का शायद खुदा भी
अब खुदा भी हमारा नहीं है
बोझ तो है जईफी (बुढ़ापा) का
सर पर और कोई सहारा नहीं है
दूर तक आसमाँ पर सियाही
दूर तक कोई तारा नहीं है
आँसुओं का नमक जिसको भर दे
जख्म ऐसा हमारा नहीं है
चुप होके लेट जाने से क्या नींद आएगी
मेरी भी कोई माँ है जो लोरी सुनाएगी
सुन लो, यह माँ हूँ, कोई फिरंगी नहीं हू मैं
बस मौत मेरे जख्म पे मरहम लगाएगी
यह उजड़ी गोद लेके जियूँ भी तो क्या जियूँ
खुद अपनी गोद देखके अब शर्म आएगी
बच्चों जैसी न बातें करो तुम
सब्र कर लो कि चारा नहीं है
गाँव में उन दरख्तों के ऊपर
सिर्फ बेटा तुम्हारा नहीं है
है फिरंगी का शायद खुदा भी
अब खुदा भी हमारा नहीं है
बोझ तो है जईफी (बुढ़ापा) का
सर पर और कोई सहारा नहीं है
दूर तक आसमाँ पर सियाही
दूर तक कोई तारा नहीं है
आँसुओं का नमक जिसको भर दे
जख्म ऐसा हमारा नहीं है
Tuesday, December 16, 2008
बीबी मैं आती हूं
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग
आती हू बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे तोरे सुलाती हूं
आई मैं बीवी पलकियन में
आई मैं चन्दा की अँखियन में
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
कह दिया लोरियाँ अब न गाओ मेरी बाजी कहाँ हैं बताओ
वह कहानी सुनायें तो सोऊँ बड़की अम्मा कहाँ हैं बुलाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
लाड़ला सो गया अब न गाओ गाके लोरी इसे मत जगाओ
रात ढलने लगी तुम भी सो लो जख्म दुखते हैं मत गुनगुनाओ
हम भी चुपचाप अब लेट जाएँ
दिल के जख्मों पे मरहम लगाएँ
जो दरख्तों पे लटके हुए हैं
कह दो उनसे कि मत याद आएँ
याद करने से अब फायदा क्या
जाने वाले पलटते नहीं हैं
जिनको रहना था वह जा चुके हैं
हमको जाना था और हम यहीं हैं
आती हू बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे तोरे सुलाती हूं
आई मैं बीवी पलकियन में
आई मैं चन्दा की अँखियन में
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
कह दिया लोरियाँ अब न गाओ मेरी बाजी कहाँ हैं बताओ
वह कहानी सुनायें तो सोऊँ बड़की अम्मा कहाँ हैं बुलाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
लाड़ला सो गया अब न गाओ गाके लोरी इसे मत जगाओ
रात ढलने लगी तुम भी सो लो जख्म दुखते हैं मत गुनगुनाओ
हम भी चुपचाप अब लेट जाएँ
दिल के जख्मों पे मरहम लगाएँ
जो दरख्तों पे लटके हुए हैं
कह दो उनसे कि मत याद आएँ
याद करने से अब फायदा क्या
जाने वाले पलटते नहीं हैं
जिनको रहना था वह जा चुके हैं
हमको जाना था और हम यहीं हैं
अँधेरे में
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 10
अँधेरे में छिपी हुई हवा की साँय-साँय में
दबी-दबी सी गुफ्तगू घुटी-घुटी शिकायतें
हर एक लफ्ज एक कराह, एक ठंडी साँस है
न जाने कौन लोग हों न जानें किस तरह मिलें
मेरे खयाल को जो साँप डस रहा है देर से
न जाने उस सवाल पर ये रो पड़ें कि हेस पड़ें
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मेरे सुला क्यों न जा
आती हू बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे सुलाती हूं
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
मेरे भैया कहाँ हैं बुलाओ साथ मेरे इन्हें भी सुलाओ
हम अकेले भला कैसे सोयों हम न सोयेंगे लोरी न गाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आजा री निंदिया पलकियन में
आ मोरे चन्दा की अँखियन में
अँधेरे में छिपी हुई हवा की साँय-साँय में
दबी-दबी सी गुफ्तगू घुटी-घुटी शिकायतें
हर एक लफ्ज एक कराह, एक ठंडी साँस है
न जाने कौन लोग हों न जानें किस तरह मिलें
मेरे खयाल को जो साँप डस रहा है देर से
न जाने उस सवाल पर ये रो पड़ें कि हेस पड़ें
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मेरे सुला क्यों न जा
आती हू बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे सुलाती हूं
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
मेरे भैया कहाँ हैं बुलाओ साथ मेरे इन्हें भी सुलाओ
हम अकेले भला कैसे सोयों हम न सोयेंगे लोरी न गाओ
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आजा री निंदिया पलकियन में
आ मोरे चन्दा की अँखियन में
यह आदमी की गुजरगाह! 9
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 9
दमड़ी का सेनुर महँग भयल बाबा
चुनरी भयल अनमोल
ए ही रे सेनुरवा के कारन बाबा
छोड़ लौं मैं देस तुहार
डोलिया का बाँस पकड़े रोयें बीरन भैया
बहना मोरी दूर देसी भई
परदेसी भई
कौन लगइहै बजरिया में आखिर
वीरन के अँसुअन का मोल रे बाबुल चुनरी भयल अनमोल
मगर न कोई सहेली न ढोल और न गीत
कहार ही हैं न डोली न कोई बीरन है
न समधिनें हैं न मासूम गालियाँ ही हैं
यह गाँव आज से बेवा है या सुहागन है
चलूँ यहाँ से कि ऐ मेरे डूबते हुए
दिल यहाँ पे सुबह न मालूम कितनी दे में हो
मगर कुरेद लू शायद कोई शरार (अंगारा) अभी
यह जिन्दगी की चिता है कि ढेर में हो
दमड़ी का सेनुर महँग भयल बाबा
चुनरी भयल अनमोल
ए ही रे सेनुरवा के कारन बाबा
छोड़ लौं मैं देस तुहार
डोलिया का बाँस पकड़े रोयें बीरन भैया
बहना मोरी दूर देसी भई
परदेसी भई
कौन लगइहै बजरिया में आखिर
वीरन के अँसुअन का मोल रे बाबुल चुनरी भयल अनमोल
मगर न कोई सहेली न ढोल और न गीत
कहार ही हैं न डोली न कोई बीरन है
न समधिनें हैं न मासूम गालियाँ ही हैं
यह गाँव आज से बेवा है या सुहागन है
चलूँ यहाँ से कि ऐ मेरे डूबते हुए
दिल यहाँ पे सुबह न मालूम कितनी दे में हो
मगर कुरेद लू शायद कोई शरार (अंगारा) अभी
यह जिन्दगी की चिता है कि ढेर में हो
Monday, December 15, 2008
यह आदमी की गुजरगाह! 8
यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 8
..................
दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने
मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें
वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत
..................
दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने
मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें
वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत
Sunday, December 14, 2008
राही मासूम रजा की अश्लीलता?
- मूलचन्द सोनकर
डॉ० नामवर सिंह ने जोधपुर यूनिवर्सिटी के हिन्दी एम०ए० के पाठ्यक्रम के लिये डॉ० राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव को निर्धारित किया था। यह सन् १९७१ की बात है। इस बात का इतना तीव्र विरोध हुआ कि इस उपन्यास को अगले ही वर्ष पाठ्यक्रम से हटाना पड़ा। डॉ० सूरज पालीवाल ने अपने लेख आधा गाँव और जोधपुर१ में इस पर विस्तार से चर्चा किया है। आधा गाँव को पाठ्यक्रम में चुनने के औचित्य पर समर्थन के लिये डॉ० नामवर सिंह ने अनेक साहित्यकारों को पत्र लिखे थे। उन्हें समर्थन भी मिला, पर अपर्याप्त। इस लेख के अनुसार आधा गाँव पर दो आरोप थे - अश्लील है और साम्प्रदायिक है। रामविलास शर्मा जी की प्रतिक्रिया थी, साम्प्रदायिक तो नहीं है, पर अश्लील है। विश्वविद्यालय में पढ़ाये जाने लायक नहीं है।
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने लेख एक नया गवाक्ष खोलती राही की भाषा'२ में यह बताया है कि उनका उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया धारवाड़ में कर्नाटक यूनिवर्सिटी में एम०ए० के कोर्स में लगा हुआ है। इस उपन्यास में भी गालियों का प्रयोग हुआ है। चन्द्रदेव यादव के साथ बातचीत करते हुए उनके एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि अमृतलाल नागर ने झीनी झीनी बीनी चदरिया की समीक्षा हिन्दी की नई पीढ़ी अब बालिग हो गयी है' शीर्षक से की थी। उसमें नागर जी का कथन है कि राही मासूम रजा ने जो गालियाँ लिखी हैं वह लगता है कि जानबूझकर लिखी गयी हैं, लेकिन इसमें जानबूझकर ऐसा नहीं किया है।'३
यद्यपि अब्दुल बिस्मिल्लाह नागर जी से सहमत नहीं हैं और यह कहते हुए हो सकता है कि यह मेरी झूठी तारीफ हो, लेकिन मैं इसे तारीफ नहीं मानता। राही साहब ने जान बूझकर गालियों का प्रयोग नहीं किया है। उसमें प्रयुक्त गालियाँ बिलकुल स्वाभाविक हैं। नागर जी का यह कथन मुझे पसन्द नहीं आया था'' उन्हें खारिज भी करते हैं लेकिन यह दो बड़े साहित्यकारों का एक ही तरह के प्रकरण में सर्वथा विरोधी दृष्टिकोण है, इसलिये अब्दुल बिस्मिल्लाह की असहमति के बावजूद इसे खारिज नहीं किया जा सकता। इस आलेख में डॉ० राही मासूम रजा के कुछ उपन्यासों को केन्द्र में रख कर मुख्य रूप से दो सवालों पर चर्चा करने का प्रयास……इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
डॉ० नामवर सिंह ने जोधपुर यूनिवर्सिटी के हिन्दी एम०ए० के पाठ्यक्रम के लिये डॉ० राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव को निर्धारित किया था। यह सन् १९७१ की बात है। इस बात का इतना तीव्र विरोध हुआ कि इस उपन्यास को अगले ही वर्ष पाठ्यक्रम से हटाना पड़ा। डॉ० सूरज पालीवाल ने अपने लेख आधा गाँव और जोधपुर१ में इस पर विस्तार से चर्चा किया है। आधा गाँव को पाठ्यक्रम में चुनने के औचित्य पर समर्थन के लिये डॉ० नामवर सिंह ने अनेक साहित्यकारों को पत्र लिखे थे। उन्हें समर्थन भी मिला, पर अपर्याप्त। इस लेख के अनुसार आधा गाँव पर दो आरोप थे - अश्लील है और साम्प्रदायिक है। रामविलास शर्मा जी की प्रतिक्रिया थी, साम्प्रदायिक तो नहीं है, पर अश्लील है। विश्वविद्यालय में पढ़ाये जाने लायक नहीं है।
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने लेख एक नया गवाक्ष खोलती राही की भाषा'२ में यह बताया है कि उनका उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया धारवाड़ में कर्नाटक यूनिवर्सिटी में एम०ए० के कोर्स में लगा हुआ है। इस उपन्यास में भी गालियों का प्रयोग हुआ है। चन्द्रदेव यादव के साथ बातचीत करते हुए उनके एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि अमृतलाल नागर ने झीनी झीनी बीनी चदरिया की समीक्षा हिन्दी की नई पीढ़ी अब बालिग हो गयी है' शीर्षक से की थी। उसमें नागर जी का कथन है कि राही मासूम रजा ने जो गालियाँ लिखी हैं वह लगता है कि जानबूझकर लिखी गयी हैं, लेकिन इसमें जानबूझकर ऐसा नहीं किया है।'३
यद्यपि अब्दुल बिस्मिल्लाह नागर जी से सहमत नहीं हैं और यह कहते हुए हो सकता है कि यह मेरी झूठी तारीफ हो, लेकिन मैं इसे तारीफ नहीं मानता। राही साहब ने जान बूझकर गालियों का प्रयोग नहीं किया है। उसमें प्रयुक्त गालियाँ बिलकुल स्वाभाविक हैं। नागर जी का यह कथन मुझे पसन्द नहीं आया था'' उन्हें खारिज भी करते हैं लेकिन यह दो बड़े साहित्यकारों का एक ही तरह के प्रकरण में सर्वथा विरोधी दृष्टिकोण है, इसलिये अब्दुल बिस्मिल्लाह की असहमति के बावजूद इसे खारिज नहीं किया जा सकता। इस आलेख में डॉ० राही मासूम रजा के कुछ उपन्यासों को केन्द्र में रख कर मुख्य रूप से दो सवालों पर चर्चा करने का प्रयास……इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
जल्द ही छपेगा
राही मासूम रज़ा विशेषांक निकालने के बाद अब सामान्य अंक निकलने जा रहा है. आप साहित्य से सम्बंधित रचनाएं भेज(कहानी, लेख,कविता,गजल,समीक्षा आदि) सकते है. अंक जल्द ही प्रकाशित होगा. धन्यवाद
सम्पादक: वाङ्मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका)
बी-4,लिबटी होम्स ,
अलीगढ,
उत्तरप्रदेश(भारत),
202002,
मोब: +91 941 227 7331
vangmaya@gmail.com
vangmaya200@yahoo.co.in
सम्पादक: वाङ्मय (त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका)
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राही मासूम रजा का रचनात्मक व्यक्तित्व
- डॉ० मेराज अहमद
सन् १९२७ का वर्ष जब कि, एक तरफ राष्ट्रीय आन्दोलन अपनी तीव्रता पर था, दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता की अग्नि पूर्ण रूप से प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के बुधही नामक गाँव में सैयद मासूम रजा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रजा के मातृ पक्ष का गाँव था। ददिहाल के गाँव का नाम गंगौली है जो कि ग़ाजीपुर शहर से लगभग १२ किमी० की दूरी पर स्थित है, वास्तव में मासूम रजा के दादा आजमगढ़ स्थित ठेकमा बिजौली नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। अपने दुहाजू पति यानी कि मासूम के दादा के साथ गंगौली में बस गयी। तदोपरान्त धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रजा की निगाहें गंगौली में ही खुली ठेकमा बिजौली से कोई सम्बन्ध न रहा।
मासूम रजा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी ग़ाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिध्द वकील थे इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई, परन्तु मुहर्रम और ईद के द्वारा आब्दी परिवार मजबूरी के साथ गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख वैभव की कोई कमी नही इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
सन् १९२७ का वर्ष जब कि, एक तरफ राष्ट्रीय आन्दोलन अपनी तीव्रता पर था, दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता की अग्नि पूर्ण रूप से प्रज्ज्वलित हो चुकी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के बुधही नामक गाँव में सैयद मासूम रजा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रजा के मातृ पक्ष का गाँव था। ददिहाल के गाँव का नाम गंगौली है जो कि ग़ाजीपुर शहर से लगभग १२ किमी० की दूरी पर स्थित है, वास्तव में मासूम रजा के दादा आजमगढ़ स्थित ठेकमा बिजौली नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। अपने दुहाजू पति यानी कि मासूम के दादा के साथ गंगौली में बस गयी। तदोपरान्त धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रजा की निगाहें गंगौली में ही खुली ठेकमा बिजौली से कोई सम्बन्ध न रहा।
मासूम रजा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी ग़ाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिध्द वकील थे इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई, परन्तु मुहर्रम और ईद के द्वारा आब्दी परिवार मजबूरी के साथ गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त अधिवक्ता के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख वैभव की कोई कमी नही इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
Saturday, December 13, 2008
१८५७ और राही
- डॉ० अली बाक़र जैदी
डॉ० राही मासूम रजा का महाकाव्य १८५७ दो सौ अड़सठ पृष्ठों और लगभग तेरह सौ पदों पर आधारित है। इससे पहले जो भी महाकाव्य लिखे गये हैं जैसे मिलटन पैराडाइज लास्ट paradises last तुलसीदास की रामचरित मानस व मीर अनीस के शोक काव्य या फिरदौसी का शाहनामा इत्यादि, इन के पात्र धार्मिक देवमालाई ….. या फिर देव शक्तियों के द्योतक थे। फिरदौसी ने तो शाहनामा के अन्त में स्वयं लिख दिया कि -
मनम करदम रुस्तमे पहलवां
वगर न यके बूद दर सेसतां
मैंने रुस्तम को रुस्तम बना दिया वरना वह तो सेसताँ का एक पहलवान था।
इसके विपरीत राही का महाकाव्य अट्ठारह सौ सत्तावन के समस्त पात्र वास्तविक और जमीन से जुड़े हुए हैं। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में पहला योदा जो वीर गति को प्राप्त हुआ वह मंगल पाण्डे था जिसने अंग्रेज अधिकारी पर गोली चलाकर विद्रोह का आरम्भ किया था। मंगल पाण्डे गाँव का रहने वाला एक किसान था जो मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना में सेवक था। उसकी बहादुरी की कथा काव्य में इस तरह मिलती है - भारत वाले देख रहे थे महायुद के सपने/जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह समझे/ऐसी हवा थी युद का खेल ही खेल रहे थे बच्चे/उन्तीस मार्च को बैरकपूर में लड़ गये मंगल पांडे/अब तक याद है फाँसी के फन्दे में ऐंठन गर्दन की/सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की...... लफ्जों में टूटती जंजीर की झंकार लिये/लहजे में एक चमकती हुई तलवार लिये... वक्त गोरों को न दो अब किसी तैयारी का/साथियो उठो यही वक्त है जीदारी का। राही मासूम रजाकृत १८५७...... इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
डॉ० राही मासूम रजा का महाकाव्य १८५७ दो सौ अड़सठ पृष्ठों और लगभग तेरह सौ पदों पर आधारित है। इससे पहले जो भी महाकाव्य लिखे गये हैं जैसे मिलटन पैराडाइज लास्ट paradises last तुलसीदास की रामचरित मानस व मीर अनीस के शोक काव्य या फिरदौसी का शाहनामा इत्यादि, इन के पात्र धार्मिक देवमालाई ….. या फिर देव शक्तियों के द्योतक थे। फिरदौसी ने तो शाहनामा के अन्त में स्वयं लिख दिया कि -
मनम करदम रुस्तमे पहलवां
वगर न यके बूद दर सेसतां
मैंने रुस्तम को रुस्तम बना दिया वरना वह तो सेसताँ का एक पहलवान था।
इसके विपरीत राही का महाकाव्य अट्ठारह सौ सत्तावन के समस्त पात्र वास्तविक और जमीन से जुड़े हुए हैं। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में पहला योदा जो वीर गति को प्राप्त हुआ वह मंगल पाण्डे था जिसने अंग्रेज अधिकारी पर गोली चलाकर विद्रोह का आरम्भ किया था। मंगल पाण्डे गाँव का रहने वाला एक किसान था जो मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना में सेवक था। उसकी बहादुरी की कथा काव्य में इस तरह मिलती है - भारत वाले देख रहे थे महायुद के सपने/जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह समझे/ऐसी हवा थी युद का खेल ही खेल रहे थे बच्चे/उन्तीस मार्च को बैरकपूर में लड़ गये मंगल पांडे/अब तक याद है फाँसी के फन्दे में ऐंठन गर्दन की/सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की...... लफ्जों में टूटती जंजीर की झंकार लिये/लहजे में एक चमकती हुई तलवार लिये... वक्त गोरों को न दो अब किसी तैयारी का/साथियो उठो यही वक्त है जीदारी का। राही मासूम रजाकृत १८५७...... इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.
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