Thursday, November 13, 2008

यह आदमी की गुज़रगाह 1

राही मासूम रज़ा






डरते डरते दूर क्षितिज में

सूरज ने परदा सरकाया

कोई फिरंगी रोक न पाया

क्या मैं रस्ता भूल गया हूं

उठता सूरज सोच रहा है

क्या मैं रोज यहीं अता था

क्या या वही प्यारी दुनिया है

मुर्दों के बाज़ार सजे हैं



लाशों का खलियान लगा है

खेतों से लब सूख रहे है

दरिया का चेहरा उतरा है

मैं इक टूटे से मंदिर में



बरगद की इक जड़ पर बैठा

जाने कब से सोच रहा हूं

वह बच्चा अब जागा होगा

मां कैसे बहलाती होगी



मां कैसे समझाती होगी

घुटनों पर हाथों को रखकर

मैं उठता हूं दिल को यह डर

फौजें आहिस्ता चलती हैं



कुछ ही दूर पर तोपें होगी

गांव से शोले उठते होगे

और पेड़ों पर लाशें होंगी

विरहे होंगे दार के ऊपर



कजरी का दम घुटता होगा

दिल कहता है मेरी सुन लो

आगे चलकर मरना होगा

वह बच्चा अब जाग के शायद



जिद करता यह रोता होगा

मां की आंखों बाप के दिल में

एक गहरा सन्नाटा होगा

मरना भी हो तो क्या करना



आगे तो चलना होगा

जुल्मत से जब ठन ही गयी है

लौ की तरह जलना ही होगा

1 comment:

..मस्तो... said...

खूबसूरत - खूबसूरत !!