Thursday, November 13, 2008

यह आदमी की गुज़रगाह

राही मासूम रज़ा


हर तरफ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूंढ़े से ज़िंदगी नहीं मिलती
जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
सांप कुलबुलाते हैं
कौन-सी जगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
काफ़िला नहीं चलता
रास्ता भी और दिल भी
सांय-सांय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है
क्या करूं कहां जाऊं
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हूं मैं
कोई गांव मिल जाये
कुनकुनाते पानी से
अपने पांव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता
हां जला लूं इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी

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