राही मासूम रज़ा
हिम्मत जौनपुरी एक ऐसे निहत्थे की कहानी है जो जीवन भर जीने का हक माँगता रहा, सपने बुनता रहा परन्तु आत्मा की तलाश और सपनों के संघर्ष में उलझ कर रह गया। यह बंबई के उस फिल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूल-भुलैया और चमक-दमक आदमी को भटका देती है और वह कहीं का नहीं रह जाता।राही मासूम रज़ा की चिर-परिचित शैली का ही कमाल है कि इसमें केवल सपने या भूल-भूलैया का तिलिस्मी यथार्थ नहीं बल्कि उस समाज की भी कहानी है, जिसमें जमुना जैसी पात्र चाहकर भी अपनी असली जिंदगी बसर नहीं कर सकती। एक तरफ इसमें व्यंगात्मक शैली में सामाजिक खोखलेपन को उजागर करता यथार्थ है तो दूसरी तरफ भावनाओं की उत्ताल लहरें।राही मासूम रज़ा साहब ने हिम्मत जौनपुरी को माध्यम बनाकर सामान्य व्यक्ति के अरमान के टूटने और बिखरने को जिस नये अंदाज और तेवर के साथ लिखा है वह उनके अन्य उपन्यासों से बिल्कुल अलग है।
हिम्मत जौनपुरी
कहानी शुरू करने से पहले कथाकार यह बताना ज़रूरी समझता है कि श्री हिम्मत जौनपुरी वास्तव में ग़ाज़ीपुरी थे। कई सौ बरस पहले जौनपुर के शर्क़ी बादशाहों के ज़माने में इनके बुज़ुर्गों को जौनपुर छोड़ना पड़ा तो यह लोग गा़ज़ीपुर आ बसे। परन्तु जौनपुर से इनकी आत्मा का रिश्ता न टूटा। ग़ाज़ीपुर में नस्लों के बाद गुज़ार लेने के बाद भी यह लोग अपने-आपको जौनपुरी ही कहते रहे। ग़ाज़ीपुर ने कभी इनका बुरा नहीं माना क्योंकि उसे मालूम था कि यह लोग जब आए थे तब अवश्य जौनपुरी थे, फिर धीरे-धीरे उनकी रगों में दौड़नेवाला खून ग़ाज़ीपुरी होने लगा। और हिम्मत जौनपुरी के परदादा तक आते इस परिवार की रगों में जौनपुरी खून की एक बूँद भी नहीं रह गई। सारे का सारा खून गाज़ीपुरी हो चुका था क्योंकि इनके परदादा श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी की बीवी भी ग़ाज़ीपुर की थीं। अब तक यह लोग बेटियाँ भले ही ग़ाज़ीपुर में ब्याह देते थे परंतु जौनपुरी लटक को बचाने के लिए बेटों का ब्याह हमेशा जौनपुर में ही किया करते थे। परंतु यह श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी ग़ाज़ीपुर की एक लड़की पर आशिक हो गए। आप जानिए इश्क़ तो ग़ाज़ीपुर और ज़ौनपुर में भेदभाव मानता नहीं, परंतु शादी जौनपुर में ही होनी चाहिए। मगर श्री ’दिलगीर’ जौनपुरी ने एक न सुनी और एक दिन उन्होंने अपने इश्क़ की छुरी से उस मग़रूर ख़ानदान की नाक काट दी। और इस तरह जौनपुरी के परिवार के पेड़ में ग़ाज़ीपुर की पहली शाख़ निकली परंतु शाख़ भी अपने-आपको जौनपुरी ही कहती रही। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि श्री हिम्मत जौनपुरी की कहानी दरअस्ल वहीं से शुरू होती है।मैंने श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी को नहीं देखा। मैंने उनके ग़ाज़ीपुर को भी नहीं देखा। मगर सोच सकता हूँ। उनके दिनों में यह शहर अवश्य खुशहाल रहा होगा। और यह बात मैं सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नहीं कर रहा हूँ बल्कि श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी की ‘मसनवी दरबयाने इश्के-रामो-सीता’ के आधार पर कह रहा हूँ। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी ने मरने के बाद तीन चीजें छोड़ी। दो बेटे मर-खप गए। जहाँ मस्जिद हुआ करती थी वहाँ आज धोबियों का कब्रिस्तान है और किसी को पता भी नहीं कि यहाँ कभी कोई मस्जिद भी हुआ करती थी। लेकिन बड़े–बूढ़े अब भी उस मसनवी के शेर गुनगुनाते रहते हैं। शायद मैं भी बूढ़ा हो जाने के बाद उसके शेर गुनगुनाऊंगा। और मरने से पहले आबू और मरियम को इस मसनवी के शेर ज़रूर याद करवा दूँगा ताकि उन्हें यह मालूम हो कि इसी हिन्दुस्तान में यह भी होता था कि एक आदमी मस्जिद भी बनाता था और ‘मसनवी दरबयाने-इश्के़-रामो-सीता’ भी लिखता था। राम और मस्जिद का बैर बहुत पुराना नहीं है। यदि इनमें झगड़ा होता तो ‘रसखान’ ने मक्के के गड़रिये की जगह ब्रज के गड़रिये को अपने काव्य की आत्मा क्यों बनाया होता और सूफियों ने कृष्ण की काली कमली अपने मौंहम्मद को उढ़ाकर उन्हें काली कमलीवाला क्यों कहा होता। मौहम्मद की कमली तो स्याह और सफ़ेद धारियों वाली थी—जमइयतुल-ओलमाये-(हिंद) के झंडे की तरह। और इसीलिए तो मैं हैरान हूँ कि यहाँ के मुसलमान, कमलीवाले झँडे को छोड़कर हरे चाँद-तारे वाले ग़ैर-इस्लामी झंडे के नीचे क्यों इकट्ठा हो गए ? मैं इन सवालों के जवाब देना नहीं चाहता क्योंकि मैं कथाकार हूँ। परंतु आबू और मरियम को मैं ‘मसनवी दरबयाने-इश्क़े-रामो-साती’ के शेर अवश्य याद करवाऊँगा। सुना है कि यह मसनवी जब लिखी गई थी तो कोई पाँच-साढ़े पाँच हज़ार शेरों की थी, परंतु हर साल इसके कुछ न कुछ शेर गुम होते जाते हैं। इसके चार-साढ़े चार सौ शेर अब भी जी रहे हैं। हुआ यह कि श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी के सिवा किसी ने इसे लिखा नहीं। सुना है कि नवल किशोर (लखनऊ वाले) इसे एक ज़माने में छापना चाहते थे, किंतु उन्हें इसका कोई सही नुस्खा (पाण्डुलिपि) नहीं मिला। मैं यह सोच-सोचकर उदास होता रहता हूँ कि वह दिन कितना मनहूस होगा जिस दिन यह मसनवी मर जाएगी ! इसके मरने की रफ़्तार बहुत तेज़ है। आदमी को उदास होने के लिए बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। उदास होने के लिए इतना ही काफ़ी है कि आदमी लेट जाए और उन चीजों को याद करने लगे जिन्हें वह भुला चुका है। कुछ दिन पहले मुझे इस मसनवी के कोई सौ-सवा-सौ शेर याद थे। आज सोचता हूँ तो पचास-साठ से ज्यादा नहीं याद आते ! डरता हूँ कि कहीं आबू और मरियम के बड़े होने से पहले ही मैं यह पचास-साठ शेर भी न भूल जाऊँ। मुझे इस मसनवी के मरने का बड़ा अफसोस होगा, क्योंकि श्री हिम्मत जौनपुरी स्वर्गवासी हो चुके हैं और यदि ‘मसनवी दरबायने-इश्क़े-रामो-सीता’ भी स्वर्गवासी हो गई तो यह परिवार ख़त्म हो जाएगा जो सदियों पहले ग़ाज़ीपुर आया था, जो ग़ाज़ीपुर बन गया; परंतु अपने-आपको जौनपुरी कहता रहा। जौनपुर से इन लोगों को लगाव नहीं था। जौनपुर केवल जख़्म का एक निशान था, और इसलिए वह उसे भूलना नहीं चाहते थे।वैसे तो यह परिवार भी ग़ाज़ीपुर के साथ-साथ खुशहाल रहा। और जब इस शहर के बुरे दिन आए तो यह परिवार भी बूढ़ा हो गया। पुराने शहरों और परिवारों के शेर धीरे-धीरे गुम होते रहते हैं। फिर केवल नाम रह जाते हैं। काबुल, नैनवा, हड़प्पा, श्रीवस्ती,...और फिर नाम भी नहीं रह जाते। खोदाई में कुछ ईंटें, कुछ टूटे हुए बरतन निकल आते हैं तो हम उन शहरों के बारे में स्वप्न देखना शुरू कर देते हैं। इन बरतनों में क्या पकता रहा होगा; इन बरतनों में खानेवाले क्या पहनते रहे होंगे; कैसे मकानों में रहते रहे होंगे; कैसे इश्क़ करते रहे होंगे; कैसे जीते रहे होंगे और कैसे मरते रहे होंगे। हम उस शहर को ख़यालों, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों में फिर से बसाते हैं, परंतु हम उसे कोई नाम नहीं दे पाते क्योंकि वह शहर हिम्मत जौनपुरी की तरह मर चुका होता है। इसीलिए मैं कहानी सुना रहा हूँ कि हिम्मत जौनपुरी कभी एक बेनाम मुरदा शहर न बने ! और चूँकि उनकी कहानी वास्तव में स्वर्गवासी श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी से आरंभ होती है इसलिए मैं भी इस कहानी को वहीं से शुरू करना चाहता हूँ, लेकिन ज़ाहिर है कि सुनी-सुनाई बातों को विस्तार से नहीं सुना सकता। बस एक चीज़ के बारे में यक़ीन से कह सकता हूँ कि जिस मकान में श्री हिम्मत जौनपुरी मर न सके उसी मकान में श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी रहा करते थे। तब यह मकान अब से अच्छा रहा होगा। तब दीवारें जवान रही होंगी और खिड़कियाँ भी आज की तरह पोपली न रही होंगी। तब यह सदियों पुराना शहर भी इतना बूढ़ा न रहा होगा। और इसलिए ‘मसनवी दरबयाने-इश्के-रामो-सीता’ की बात निकली है। पुराने कथाकारों को अपने शहर की बात करने में बड़ा मज़ा आता था। कहानी होगी किसी शहज़ादे जाने-आलम की परंतु रजब अली बेग ‘सुरूर’ बयान करेंगे अपने लखनऊ की। ये पुराने लोग अपने शहर से बहुत प्यार किया करते थे। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी भी पुराने लोग थे। इसलिए ‘मसनवी दरबयाने-इश्क़े-रामो-गीता’ में पहले अल्लाह की तारीफ़ है। फिर रसूल की फिर चारों ख़लीफ़ाओं की और गा़ज़ीपुर का बयान है। इस चैप्टर का शीर्षक बड़ा प्यारा है। ‘दरबयाने-शहरे-आज़ादाँ-व-गुल-पैरहनाँ, नज़रे-बद-दूर कि मौसूम ब-ग़ाज़ीपुर है।’ देखा आपने। यह शीर्षक लगाने वाला अपने आपको जौनपुरी कहा करता था ! लिखते हैं :
कुछ इसका मेज़ाज जौगीया है।
हिम्मत जौनपुरी
कहानी शुरू करने से पहले कथाकार यह बताना ज़रूरी समझता है कि श्री हिम्मत जौनपुरी वास्तव में ग़ाज़ीपुरी थे। कई सौ बरस पहले जौनपुर के शर्क़ी बादशाहों के ज़माने में इनके बुज़ुर्गों को जौनपुर छोड़ना पड़ा तो यह लोग गा़ज़ीपुर आ बसे। परन्तु जौनपुर से इनकी आत्मा का रिश्ता न टूटा। ग़ाज़ीपुर में नस्लों के बाद गुज़ार लेने के बाद भी यह लोग अपने-आपको जौनपुरी ही कहते रहे। ग़ाज़ीपुर ने कभी इनका बुरा नहीं माना क्योंकि उसे मालूम था कि यह लोग जब आए थे तब अवश्य जौनपुरी थे, फिर धीरे-धीरे उनकी रगों में दौड़नेवाला खून ग़ाज़ीपुरी होने लगा। और हिम्मत जौनपुरी के परदादा तक आते इस परिवार की रगों में जौनपुरी खून की एक बूँद भी नहीं रह गई। सारे का सारा खून गाज़ीपुरी हो चुका था क्योंकि इनके परदादा श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी की बीवी भी ग़ाज़ीपुर की थीं। अब तक यह लोग बेटियाँ भले ही ग़ाज़ीपुर में ब्याह देते थे परंतु जौनपुरी लटक को बचाने के लिए बेटों का ब्याह हमेशा जौनपुर में ही किया करते थे। परंतु यह श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी ग़ाज़ीपुर की एक लड़की पर आशिक हो गए। आप जानिए इश्क़ तो ग़ाज़ीपुर और ज़ौनपुर में भेदभाव मानता नहीं, परंतु शादी जौनपुर में ही होनी चाहिए। मगर श्री ’दिलगीर’ जौनपुरी ने एक न सुनी और एक दिन उन्होंने अपने इश्क़ की छुरी से उस मग़रूर ख़ानदान की नाक काट दी। और इस तरह जौनपुरी के परिवार के पेड़ में ग़ाज़ीपुर की पहली शाख़ निकली परंतु शाख़ भी अपने-आपको जौनपुरी ही कहती रही। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि श्री हिम्मत जौनपुरी की कहानी दरअस्ल वहीं से शुरू होती है।मैंने श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी को नहीं देखा। मैंने उनके ग़ाज़ीपुर को भी नहीं देखा। मगर सोच सकता हूँ। उनके दिनों में यह शहर अवश्य खुशहाल रहा होगा। और यह बात मैं सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नहीं कर रहा हूँ बल्कि श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी की ‘मसनवी दरबयाने इश्के-रामो-सीता’ के आधार पर कह रहा हूँ। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी ने मरने के बाद तीन चीजें छोड़ी। दो बेटे मर-खप गए। जहाँ मस्जिद हुआ करती थी वहाँ आज धोबियों का कब्रिस्तान है और किसी को पता भी नहीं कि यहाँ कभी कोई मस्जिद भी हुआ करती थी। लेकिन बड़े–बूढ़े अब भी उस मसनवी के शेर गुनगुनाते रहते हैं। शायद मैं भी बूढ़ा हो जाने के बाद उसके शेर गुनगुनाऊंगा। और मरने से पहले आबू और मरियम को इस मसनवी के शेर ज़रूर याद करवा दूँगा ताकि उन्हें यह मालूम हो कि इसी हिन्दुस्तान में यह भी होता था कि एक आदमी मस्जिद भी बनाता था और ‘मसनवी दरबयाने-इश्के़-रामो-सीता’ भी लिखता था। राम और मस्जिद का बैर बहुत पुराना नहीं है। यदि इनमें झगड़ा होता तो ‘रसखान’ ने मक्के के गड़रिये की जगह ब्रज के गड़रिये को अपने काव्य की आत्मा क्यों बनाया होता और सूफियों ने कृष्ण की काली कमली अपने मौंहम्मद को उढ़ाकर उन्हें काली कमलीवाला क्यों कहा होता। मौहम्मद की कमली तो स्याह और सफ़ेद धारियों वाली थी—जमइयतुल-ओलमाये-(हिंद) के झंडे की तरह। और इसीलिए तो मैं हैरान हूँ कि यहाँ के मुसलमान, कमलीवाले झँडे को छोड़कर हरे चाँद-तारे वाले ग़ैर-इस्लामी झंडे के नीचे क्यों इकट्ठा हो गए ? मैं इन सवालों के जवाब देना नहीं चाहता क्योंकि मैं कथाकार हूँ। परंतु आबू और मरियम को मैं ‘मसनवी दरबयाने-इश्क़े-रामो-साती’ के शेर अवश्य याद करवाऊँगा। सुना है कि यह मसनवी जब लिखी गई थी तो कोई पाँच-साढ़े पाँच हज़ार शेरों की थी, परंतु हर साल इसके कुछ न कुछ शेर गुम होते जाते हैं। इसके चार-साढ़े चार सौ शेर अब भी जी रहे हैं। हुआ यह कि श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी के सिवा किसी ने इसे लिखा नहीं। सुना है कि नवल किशोर (लखनऊ वाले) इसे एक ज़माने में छापना चाहते थे, किंतु उन्हें इसका कोई सही नुस्खा (पाण्डुलिपि) नहीं मिला। मैं यह सोच-सोचकर उदास होता रहता हूँ कि वह दिन कितना मनहूस होगा जिस दिन यह मसनवी मर जाएगी ! इसके मरने की रफ़्तार बहुत तेज़ है। आदमी को उदास होने के लिए बहुत दूर नहीं जाना पड़ता। उदास होने के लिए इतना ही काफ़ी है कि आदमी लेट जाए और उन चीजों को याद करने लगे जिन्हें वह भुला चुका है। कुछ दिन पहले मुझे इस मसनवी के कोई सौ-सवा-सौ शेर याद थे। आज सोचता हूँ तो पचास-साठ से ज्यादा नहीं याद आते ! डरता हूँ कि कहीं आबू और मरियम के बड़े होने से पहले ही मैं यह पचास-साठ शेर भी न भूल जाऊँ। मुझे इस मसनवी के मरने का बड़ा अफसोस होगा, क्योंकि श्री हिम्मत जौनपुरी स्वर्गवासी हो चुके हैं और यदि ‘मसनवी दरबायने-इश्क़े-रामो-सीता’ भी स्वर्गवासी हो गई तो यह परिवार ख़त्म हो जाएगा जो सदियों पहले ग़ाज़ीपुर आया था, जो ग़ाज़ीपुर बन गया; परंतु अपने-आपको जौनपुरी कहता रहा। जौनपुर से इन लोगों को लगाव नहीं था। जौनपुर केवल जख़्म का एक निशान था, और इसलिए वह उसे भूलना नहीं चाहते थे।वैसे तो यह परिवार भी ग़ाज़ीपुर के साथ-साथ खुशहाल रहा। और जब इस शहर के बुरे दिन आए तो यह परिवार भी बूढ़ा हो गया। पुराने शहरों और परिवारों के शेर धीरे-धीरे गुम होते रहते हैं। फिर केवल नाम रह जाते हैं। काबुल, नैनवा, हड़प्पा, श्रीवस्ती,...और फिर नाम भी नहीं रह जाते। खोदाई में कुछ ईंटें, कुछ टूटे हुए बरतन निकल आते हैं तो हम उन शहरों के बारे में स्वप्न देखना शुरू कर देते हैं। इन बरतनों में क्या पकता रहा होगा; इन बरतनों में खानेवाले क्या पहनते रहे होंगे; कैसे मकानों में रहते रहे होंगे; कैसे इश्क़ करते रहे होंगे; कैसे जीते रहे होंगे और कैसे मरते रहे होंगे। हम उस शहर को ख़यालों, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों में फिर से बसाते हैं, परंतु हम उसे कोई नाम नहीं दे पाते क्योंकि वह शहर हिम्मत जौनपुरी की तरह मर चुका होता है। इसीलिए मैं कहानी सुना रहा हूँ कि हिम्मत जौनपुरी कभी एक बेनाम मुरदा शहर न बने ! और चूँकि उनकी कहानी वास्तव में स्वर्गवासी श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी से आरंभ होती है इसलिए मैं भी इस कहानी को वहीं से शुरू करना चाहता हूँ, लेकिन ज़ाहिर है कि सुनी-सुनाई बातों को विस्तार से नहीं सुना सकता। बस एक चीज़ के बारे में यक़ीन से कह सकता हूँ कि जिस मकान में श्री हिम्मत जौनपुरी मर न सके उसी मकान में श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी रहा करते थे। तब यह मकान अब से अच्छा रहा होगा। तब दीवारें जवान रही होंगी और खिड़कियाँ भी आज की तरह पोपली न रही होंगी। तब यह सदियों पुराना शहर भी इतना बूढ़ा न रहा होगा। और इसलिए ‘मसनवी दरबयाने-इश्के-रामो-सीता’ की बात निकली है। पुराने कथाकारों को अपने शहर की बात करने में बड़ा मज़ा आता था। कहानी होगी किसी शहज़ादे जाने-आलम की परंतु रजब अली बेग ‘सुरूर’ बयान करेंगे अपने लखनऊ की। ये पुराने लोग अपने शहर से बहुत प्यार किया करते थे। श्री ‘दिलगीर’ जौनपुरी भी पुराने लोग थे। इसलिए ‘मसनवी दरबयाने-इश्क़े-रामो-गीता’ में पहले अल्लाह की तारीफ़ है। फिर रसूल की फिर चारों ख़लीफ़ाओं की और गा़ज़ीपुर का बयान है। इस चैप्टर का शीर्षक बड़ा प्यारा है। ‘दरबयाने-शहरे-आज़ादाँ-व-गुल-पैरहनाँ, नज़रे-बद-दूर कि मौसूम ब-ग़ाज़ीपुर है।’ देखा आपने। यह शीर्षक लगाने वाला अपने आपको जौनपुरी कहा करता था ! लिखते हैं :
कुछ इसका मेज़ाज जौगीया है।
गंगा के किनारे बस गया है।
गंगा की तरह सिजिल सिजिल भी।
गंगा की तरह ये पाक दिल भी।।
हर दिल में चेराग जल रहा है।
हर दिल में यहाँ अयोध्या है।।
बेले में हवा अटक रही है।
जूही से सवा ठनक रही है।
महुए की महक ने क्या कहा है।
ताड़ों पे नशा चढ़ा हुआ है।।
क्योड़े के सजर महक रहे हैं।
मंदिर के कलस चमक रहे हैं।।
आमों पे वो बौर आ रही है ।।
बाग़ों की हवा बुला रही है।।
हर होंट है प्यार का समुंदर।
हर आँख वफ़ा की पयंबर।।
भरपूर है कितना क्या बताऊँ।
दिलगीर कहाँ क़लम लगाऊँ।।
यह उस मसनवी के कुछ फुटकर शेर हैं। इन्हीं से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि जब ताड़ों पर नशा चढ़ा हुआ है तो ज़िदगी कैसी लगती रही होगी।—या कम-से-कम कवि को ज़िंदगी कैसी लगती रही होगी। ग़ाज़ीपुर का बयान इसी रसीली और महकती हुई लचकीली शैली में किया गया है। अफ़सोस कि ग़ाज़ीपुर में ‘लाट’ कार्नवालिस की क़ब्र है लेकिन ‘दिलगीर’ जौनपुरी की कब्र का पता नहीं है। एक दिन हिम्मत जौनपुरी ने बड़े इमामबाड़े की पंचायती गड़ावर में एक जगह की तरफ़ देखते हुए कहा था ‘शायद परदादा शाहब की क़बर हिंअईं है।’कहते हैं जिस ज़माने में उन्होंने अपनी मसनवी शुरू की थी उन्हीं दिनों वह बेगम नामी एक नौकरानी पर आशिक़ हो गए। इस मसनवी में ग़ाज़ीपुर के बाद बेगम का ही ज़िक्र किया गया है :
दिलगीर को याद है ज़बानी।
यह उस मसनवी के कुछ फुटकर शेर हैं। इन्हीं से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि जब ताड़ों पर नशा चढ़ा हुआ है तो ज़िदगी कैसी लगती रही होगी।—या कम-से-कम कवि को ज़िंदगी कैसी लगती रही होगी। ग़ाज़ीपुर का बयान इसी रसीली और महकती हुई लचकीली शैली में किया गया है। अफ़सोस कि ग़ाज़ीपुर में ‘लाट’ कार्नवालिस की क़ब्र है लेकिन ‘दिलगीर’ जौनपुरी की कब्र का पता नहीं है। एक दिन हिम्मत जौनपुरी ने बड़े इमामबाड़े की पंचायती गड़ावर में एक जगह की तरफ़ देखते हुए कहा था ‘शायद परदादा शाहब की क़बर हिंअईं है।’कहते हैं जिस ज़माने में उन्होंने अपनी मसनवी शुरू की थी उन्हीं दिनों वह बेगम नामी एक नौकरानी पर आशिक़ हो गए। इस मसनवी में ग़ाज़ीपुर के बाद बेगम का ही ज़िक्र किया गया है :
दिलगीर को याद है ज़बानी।
अट्ठारा की वह हरी जवानी।।
आँखों में खड़ी हुई मुहब्बत।
होंटों में भरी हुई शिफ़ारत।।
कद घो कि बड़ा कहे न छोटा।
(दूसरा मिसरा याद नहीं रह गया है)
नाखून, कि नगीना जड़ दिया है।
कुदरत ने कमाल कर दिया है।।
सोचा कि जो हो सो होय आलम।
बेगम को बनाऊँगा मैं बेगम।।
2 comments:
"सोचा कि जो हो सो होय आलम।
बेगम को बनाऊँगा मैं बेगम।। "
सुंदर
रोचक पोस्ट। शब्द तो यहाँ खुद-ब-खुद जैसे अपने आप को व्यक्त करने मे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते लग रहे हैं। अच्छी पोस्ट।
Post a Comment