Sunday, November 30, 2008

खुश्की का टुकड़ा

- राही मासूम रजा


आदमी अपने घर में अकेला हो और पड़ोस की रोशनियां और आवाजें घर में झांक रही हों तो यह साबित करने के लिए कि वह बिल्कुल अकेले नहीं है, वह इसके सिवा और क्या कर सकता है कि उन बेदर्द रोशनियों और आवाजों को उल्लू बनाने के लिए अपनी बहुत पुरानी यादों से बातें करने लगे।
वह कई रातों से लगातार यही कर रहा था।
अकेला होना उसके लिए कोई नयी बात न थी। उसे मालूम था कि बदन और आत्मा की तनहाई आज के लोगों की तक़दीर है। हर आदमी अपनी तनहाई के समुद्र में खुश्की के एक टुकड़े की तरह है। सागर के अंदर भी है और बाहर भी । और वह इस अकेलेपन का ऐसा आदी हो गया है कि अपनी तनहाई को बचाने के लिए अपने से भी भागता रहता है।
इस कहानी का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .

1 comment:

"अर्श" said...

bahot khub likha sahab.... dhero badhai bandhuwar....