Wednesday, November 12, 2008

दिल एक सादा कागज़ -राही मासूम रजा


दिल एक सादा कागज़ एक तरह आधा गाँव से बिल्कुल अलग है। यह आधा गाँव, टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी और ओस की बूँद के सिलसिले की कड़ी है भी और नहीं भी है।दिल एक सादा कागज़ ‘ज़ैदी विला’ के उस भूत की कहानी है जिसके कई नाम थे-रफ़्फ़न, सय्यद अली, रअफ़त ज़ैदी, बाग़ी आज़मी। और यह ज़ैदी विला, ढाका और बम्बई के त्रिकोण की कहानी है।यह कहानी शुरू हुई तो ढाका हिन्दुस्तान में था। फिर वह पूरबी पाकिस्तान में होने लगा। और कहानी के खत्म होते-होते बांग्ला देश में हो गया। एक तरह से यह ढाका की इस यात्रा की कहानी भी है, हालाँकि ढाका इस कहानी में कहीं नहीं है। पहले वहाँ से खत आना शुरू होते हैं और फिर रिफ्यूजी, बस !दिल एक सादा कागज़ बंबई के उस फिल्मी माहौल की कहानी भी है जिसकी भूलभुलैया आदमी को भटका देती है। और वह कहीं का नहीं रह जाता। नये अंदाज और नए तेवर के साथ लिखा गया एक बिल्कुल अलग उपन्यास।
भूमिका
..लेकिन मैं भी ख्वाब नहीं हूँ।ख्वाब तो वह है, जिसको कोई देख रहा हो। मैं एक वेद हूँ, एक गीता हूँ, एक इंजील हूँ, एक क़ुर’ आँ हूँ, किसे भला इतनी फ़ुर्सत है, मुझे उठाकर जो यह देखे, मुझमें, आखिर क्या लिक्खा है।
राही मासूम रजा
शीलाजी, आपने मुझे अपने एक ख़त में लिखा है :‘‘फ़िल्मों में ज़्यादा मत फँसिएगा। ये भूलभुलैया हैं। इनमें लोग खो जाते हैं।...आशा है आप ख़ैरियत से होंगे।’’मैं ख़ैरियत से नहीं हूँ। ‘दिल एक सादा कागज़’ मेरी जीवनी भी हो सकता था। पर यह मेरी जीवनी नहीं है। इसके पन्नों में उदासी-सी जो कोई चीज़ है, उसे स्वीकार कीजिए, इसलिए स्वीकार कीजिए कि मेरी नयी ज़िन्दगी की दस्तावेज़ पर पहला दस्तखत आप ही का है। सात साल के बाद आपको वह दोपहर याद दिलवा रहा हूँ जिसमें मेरा साथ देनेवाला कोई नहीं था। मैं नय्यर के साथ बिलकुल अकेला था और तब आपने कहा था :‘‘ फ़िक्र क्यों करते हो। मैं तुम लोगों के साथ हूँ।’’ उसी बेदर्द और बेमुरव्वत दोपहर की याद में यह उपन्यास आपकी नज्र है।
राही मासूम रजा 15.9.73
ज़ैदी विला का भूत
क़ाज़ी टोला मुहल्ले में गंगा के किनारे अपना घर बनवाकर रफ़्फ़न के पिता ने ख़ान्दान में बड़ा नाम पैदा किया, क्योंकि ख़ान्दान में यह पहला दो मंज़िला मकान था। इस घर का सारा ठाठ-बाठ अंग्रेज़ी था। नाम था ज़ैदी विला। लम्बे-चौड़े इस मकान में कोई रसोईघर नहीं था। किचन था। अब्दुस्समद ख़ाँ, जो कई अंग्रेज़ कलक्टरों के यहाँ खाना पका चुके थे बड़ी मुश्किल से ज़ैदी विला के किचन में खाना पकाने पर तैयार हुए और इसीलिए अब्दुस्ममद ख़ाँ के बड़े ठाठ थे। वह ब्रेकफ़ास्ट टिफ़िन और डिनर से नीचे बात नहीं करते थे। जिस दिन कोई चीज़ ख़राब पक जाती वह खाने की मेज़ के चारों तरफ़ मँडलाया करते और खाना खानेवालों को इतना ज़लील करते कि कोई डर के मारे खाने की बुराई ही न करता। और अब्दुस्समद ख़ाँ अपनी मैली मूँछों के एक कोने को दाँतों-तले कुचलते हुए किचन में वापस चले जाते। और वहाँ नौकरों को ट्रेनिंग देने लगते कि मेज़ किस तरह लगायी जाती है। यह अब्दुस्समद ख़ाँ एक तरह से ज़ैदी विला का झण्डा थे। और ज़ैदी विलावाले यह झण्डा हर वक़्त फहराते रहते थे। अब्दुस्समद ख़ाँ के बाद ज़ैदी विला की सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण चीज़ गोल कमरा था। वैसे यह कमरा किसी तरफ़ से गोल नहीं था। यह एक-तिहाई गोल था और दो-तिहाई चौकोर। परन्तु अब्दुस्समद ख़ाँ इसे गोल कमरा ही कहा करते थे। तो भला किसकी मजाल थी कि वह इस कमरे को किसी और नाम से पुकारता। यह गोल कमरा भी किचन ही की तरह बिलकुल अंग्रेज़ी में था। बड़े नक़शीन सोफ़े लगे हुए थे। कुछ ही कम नक़शीन तिपाइयाँ थीं। फ़र्श पर भारी क़ालीन था। खिड़कियों और दरवाज़ों पर दोहरे पर्दे। एक पर्दा भारी रेशम का और दूसरा विलायती मलमल का। किनारों पर विलायती बेलें भी थीं। गोल कमरे के एक सिरे पर आतिशदान था। जाड़े की शामों में इसमें बड़ी सुहानी आग जला करती थी। आतिशदान के ऊपर तीन-चार तस्वीरें सजी हुई थीं। गोल कमरे के सामनेवाले दालान में बेंत के मोढ़े धरे रहा करते थे। एक कोने में हैट ट्री था और इस हैट-ट्री के नीचे एक लम्बी-सी आरामकुर्सी हुआ करती थी, जिसमें दो हत्थों के साथ-साथ दो ‘टँगें’ भी थे। रफ़्फ़न के दादा, कर्नल ज़ैदी इस कुर्सी पर लेटकर समाचारपत्र पढ़ा करते थे। सिगार पिया करते थे और सारे घर पर हुकूमत किया करते थे।...सिगार पीने के कारण वह शहर में कर्नल सिगार हुसैन या सिगार मियाँ कहे जाते थे। सारा शहर उनका रोब खाता था पर रफ़्फ़न उनसे हिला हुआ था। रफ़्फ़न अल्लाह मियाँ के बाद कर्नल साहब की मूँछों से डरा करता था। उनकी मूँछें थीं भी बड़ी अजीब। ऐसा लगता था जैसे उनके गालों पर उकड़ूँ बैठी हुई हैं। कर्नल साहब को अपने अलावा कोई और बात याद नहीं थी। वह अपने आपको एक मजेदार कहानी की तरह चटख़ारे ले-लेकर सुनाया करते थे। उनकी तमाम बातों का लुब्बे-लुबाब यह हुआ करता था कि जो वह न रहे होते। तो ब्रिटिश सरकार लाख जन्म लेकर भी जर्मनी को हरा नहीं सकती थी। ज़ाहिर है कि रफ़्फ़न को ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश आर्मी या जर्मनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। परन्तु कर्नल साहब भी छोटे-मोटे से अल्लाह मियाँ थे और जैसे अल्लाह मियाँ दुनिया में हर जगह मौजूद हैं वैसे ही कर्नल साहब भी ‘ज़ैदी विला’ में हर जगह मौजूद थे। और इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि वह दिखायी देते हैं या नहीं। कर्नल साहब उन लोगों में थे जो घर को रणभूमि समझते हैं। रफ़्फ़न तो ख़ैर रफ़्फ़न था, वह तो उसके बाप अली हैदर ज़ैदी को भी ख़ातिर में नहीं लाते थे। अली हैदर यूँ भी बड़े सलीकें के आदमी थे। वह अदालत फ़ौजदारी की नाक थे। ज़िले भर में मशहूर था कि अली हैदर वकील के जीते जी जो चाहे क़त्ल कर ले। अल्लाह मियाँ के बचाने की बात तो मशहूर है, बचाते तो हैं सैयद अली हैदर वकील। एक-से-एक बड़ा डकैत और क़ातिल उनके सामने आकर भीगी बिल्ली बन जाया करता था। शायद इसीलिए लोग उनसे डरते भी थे। अब ऐसे आदमी से कौन अकड़े जिसके क़ब्ज़े में सारे शहर के नम्बरी लोग हों। क़ानून कभी उनकी बात नहीं टालता था। एक दिन तो हद हो गयी। क्लब में बाबू उमाशंकर राय डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज ने अजीब बात कह डाली। बोले, ‘‘सैयद साहब, मैं ज़िले की क्राइम हिस्ट्री देख रहा था तो पता चला कि जब से आपने वकालत शुरू की है, शहर में जराएम की तादाद दूनी हो गयी है।’’इर्द-गिर्द बैठे हुए लोग हँस पड़े चूँकि डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज की जुमलेबाज़ी पर हँसना हर आदमी का फ़र्ज़ होता है। पर सैयद साहब भला कहाँ दबनेवाले थे। बोले, ‘‘चे दिलावर अस्त दुज़दे कि ब कफ़ चिराग़ दारद।* -बरी करें सरकार और इलज़ाम इस ख़ादिम पर !’’राय साहब ने ऐसा ज़बरदस्त क़हक़हा लगाया कि बाकी तमाम लोगों को भी मजबूरन हँसना पड़ा। कहने का मतलब यह है कि ऐसा ज़बरदस्त बोलनेवाला भी कर्नल साहब के सामने आता था तो चुपशाह का रोज़ा रख लेता था। कर्नल साहब यदि किसी से डरते थे तो वह जन्नत थी। अल्लाह मियाँ की जन्नत तो जाने कैसी होगी, पर ‘ज़ैदी विला’ की जन्नत बड़ी ख़ूबसूरत थी। उसकी आँखें इतनी बड़ी थीं कि जो रफ़्फ़न छिपकर बैठ जाता उनमें तब भी जगह बच रहती। उसका रंग साँवला था, पर नमक इस ग़ज़ब का था कि वह जिस हाँडी में हाथ लगा देती उसमें जान पड़ जाती। परन्तु ज़रा रुकिए। अभी जन्नत की बात करने का समय नहीं आया है। अभी तो मैं बता रहा था कि रफ़्फ़न उर्फ सैयद अली रफ़अत अल्लाह मियाँ से ज़्यादा कर्नल ज़ैदी की मूँछों से डरा करता था। अल्लाह मियाँ से उसका डर अजीब था। ‘ज़ैदी विला’ में साल-के-साल एक सैदानी बी आया करती थीं। उनकी गठरी में चाँदी का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत ‘बीबी का रौज़ा’ हुआ करता था। यह बात रफ़्फ़न को कभी न मालूम हुई कि यह किस बीबी का रौज़ा है। यह जानने की कोई ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि असल चीज़ तो वह रौज़ा था, चाहे वह किसी बीबी का हो। वह रौज़ा कुछ ताजमहल के नक़्शे पर बना हुआ था। सैदानी बी आतीं और एक पलंग पर आराम से बैठ जातीं। घर का तमाम औरतें यानी जुम्मन बुवा, अली हुसैन बो मीरासिन, मरियम मन्हारिन वग़ैरा-वग़ैरा सब उस पलंग को घेर लेतीं। सैदानी बी पहले रौज़े का ऊपरी गिलाफ़ उतारतीं, फिर मख़मलावाला सब्ज़ गिलाफ़ उतरता और चमचमाता हुआ रौज़ा निकल आता। सैदानी बी फ़ौरन उसे छूकर अपनी उँगलियाँ चूमतीं और फिर वह एक पुरानी किताब निकालतीं और उसके एक-एक वरक़ का हाल गा-गाकर सुनातीं। उस किताब के पन्नों पर अजीब-अजीब चित्र हुआ करते थे। वह शुरू हो जातीं :‘‘इस बीबी ने जीते-जी अपने ख़ाविन्द की ख़िदमत न की और इसीलिए मरने के बाद जहन्नम की आग में जल रही है। और इस बीबी ने अपने मियाँ के*कैसा बाँका चोर है कि हथेली पर चिराग़ लिये निकला है। ऐबों पर पर्दा डाला तो जन्नत में सात हूरें इसकी ख़िदमत पर मुक़र्रर कर दी गयी हैं।’’यह बात तो रफ़्फ़न को बहुत बाद में मालूम हुई कि सैदानी बी ने अपने मियाँ को इतना सताया था कि उस ग़रीब ने आजिज़ आकर एक रंडी से निकाह कर लिया था। फिर मियाँ के मरने के बाद यह उस रंडी से कैसा-कैसा लड़ीं, कि उसके बच्चे हरामी हैं।...पर अदालत इनके चकमे में आयी और इन्हें अपना पेट पालने के लिए बीबी का रौज़ा सँभालना पड़ा।रफ़्फ़न को ये बातें मालूम रही होतीं तो शायद वह अल्लाह मियाँ से इतना न डरता। परन्तु सैदानी बी की कहानियाँ सुनकर वह यह ज़रूर सोचता कि यह कब जन्नत या जहन्नम गयी थीं जो वहाँ की बातें इस यक़ीन से सुना रही हैं और वहाँ के इतने फ़ोटो उतार लायी हैं।...यह सवाल पूछने की हिम्मत वह कभी न कर सका।सैदानी बी की किताब में उन बच्चों की तस्वीरें भी थीं जो बड़ों का कहना नहीं मानते। उन पर भी जहन्नम में कोड़े पड़ते हैं। यह बात रफ़्फ़न को कुछ ज़्यादा पसन्द न आयी, क्योंकि बुजुर्ग लोग कभी-कभार ऐसी बातें भी करते हैं जिन्हें मानने को जी नहीं चाहता। मिसाल के तौर पर उसे क़ुरआन पढ़ाने के लिए जो मोलवी तक़ी हैदर रखे गये थे वह गर्मियों के दिनों में अपना कमरा बन्द करके उसका पाजामा उतारने की कोशिश किया करते थे। पहले दिन तो वह हक्का-बक्का देखता रह गया कि मोलवी साहब कर क्या रहे हैं..शायद, क़ुरआन पढ़ाने का यही तरीक़ा हो। पर जब मोहवी साहब अपना पाजामा खोलकर उसे अपनी गोद में घसीटने लगे तो वह डर गया। कोई सख़्त सी चीज़ उसकी रीढ़ की हड्डी और कूल्हे में बार बार गड़ रही थी, जैसे कोई जगह लताश कर रही हो। मोलवी साहब की दाढ़ी उसकी गरदन में चुभ रही थी। वह रोने लगा। परन्तु मौलवी से वह बहुत डरता था और वह कह रहे थे, ‘‘घबराओ मत। हम बहुत धीरे-से करेंगे।’’ और उसने देखा कि मोलवी साहब अपने हाथ पर थूक रहे हैं। वह भाग खड़ा हुआ। सैदानी बी कह रही थीं, ‘‘यह बच्चा अपने उस्ताद का कहा नहीं मानता था तो जहन्नम उसके बदन को साँप-बिच्छुओं से चटवा रही है।’’वह साफ़ देख रहा था कि एक बच्चे के बदन पर साँप रेंग रहे हैं। उसकी सूरत उस साँपवाले बच्चे से बिलकुल नहीं मिल रही थी। फिर भी यह बात तो तय थी कि उसने अपने उस्ताद मोलवी तक़ी हैदर की बात नहीं मानी थी। उसका मतलब यह हुआ कि अब वह जहन्नम में फेंक दिया जायेगा और उसके बदन पर भी साँप रेंगेगे। वह रात को ख़्वाब देखता कि तख़्त पर अल्लाह मियाँ बैठे हैं। उनकी दाढ़ी मोलवी तक़ी हैदरकी दाढ़ी से भी कहीं ज़्यादा बड़ी है। वह उसे घूर रहे हैं। मोलवी साहब कहते हैं, ‘‘अल्लाह मियाँ, इस लड़के ने मेरा कहा नहीं माना...’’ अल्लाह मियाँ धाड़ते हैं, ‘‘इसे जहन्नम में डाल दो।’’ अल्लाह मियाँ उसे सफ़ाई का मौक़ा भी नहीं देते। उनकी धाड़ सुनकर उसकी आँख खुल जाती। और वह देखता कि वह अपने बिस्तर पर अकेला है। ऐसी रातों में डर से उसका हाल पतला हो जाया करता था। और वह चुपचाप बगलवाले पलंग पर सरक जाया करता था। वह पलंग आम तौर से जन्नत का हुआ करता था। जन्नत की आँख खुल जाती और अपनी अधजगी आँखों से उसे देखकर वह उसे अपनी अधजगी बाँहों में छिपा लेती।जन्नत की बाँहों में पनाह पाते ही उसके दिलसे मोलवी तक़ी हैदर और अल्लाह मियाँ दोनों का डर निकल जाया करता था। उसने यह बात किसी को नहीं बतायी थी कि उसके ख़याल में अल्लाह मियाँ उम्र में तो मोलवी तक़ी हैदर से ज़रूर बड़े होंगे, पर उनकी सूरत लगभग यही होगी। अफ़सोस की बात है कि सैदानी बी की किताब में अल्लाह मियाँ की कोई तस्वीर नहीं थी। फिर उसे एकदम से याद आता कि मिसेज़ नार्थ के गले में अल्लाह मियाँ के बेटे की एक मूर्ति लटकी रहती है। ‘‘जन्नत बाजी, अल्लाह मियाँ का ब्याह तो बड़ी धूम-धाम से हुआ होगा ?’’ वह पूछ बैठा। सैदानी बी चुप हो गयीं। तमाम लोग उसे घूरने लगे। ‘‘माटी मिले। जहन्नुमी...’’ अम्माँ ने मारने के लिए हाथ उठाया। जन्नत उसे अपनी गोद में छिपाकर बोली, ‘‘जाने दीजिए मुमानी।’’परन्तु मुमानी भला कैसे जाने दे सकती थीं। वह उसे जन्नत की गोद से उखाड़ने की कोशिश करने लगीं। पर वह जोंक की तरह जन्नत से चिपका रहा। उसे जन्नत से यूँ चिपक जाने में बड़ा मज़ा आया करता था और इसलिए कोई चार बरस पहले ही उसने यह फ़ैसला कर लिया था कि शादी तो वह जन्नत से ही करेगा। यह फ़ैसला करते समय वह कोई साढ़े चार बरस का था। जन्नत पन्द्रह बरस की थी। आठवें में पढ़ती थी और बड़ी क़ाबलियत झाड़ा करती थी। कहती थी, ज़मीन गोल है। सूरज के चारों ओर चक्कर काटती रहती है। ये बातें सुनते-सुनते जब वह साढ़े छः बरस का हो गया और जन्नत साढ़े सत्तरह की होकर दसवें में पहुँच गयी तो एक दिन वह खिलखिलाकर हँस पड़ा, ‘‘कोई और को गधा बनाइएगा। आपके कहे से ज़मीन गोल है और सूरज के चारों तरफ़ घूम रही। अरे घूम रही तो ई सब घर गिर काहे ना जाते ?’’यह सवाल सुनकर जन्नत हमेशा हँस दिया करती थी।उसे यूँ हँसनेवाली जन्नत न हँसने वाली जन्नत से भी ज्यादा अच्छी लगा करती थी। जन्नत के दाँत बड़े खूबसूरत थे। अब्दुल के मलाई बर्फ़ की तरह सफ़ेद और इतने चमकीले कि अँगूठी में जड़वाने को जी चाहने लगे। परन्तु अल्लाह मियाँ के ब्याहवाली बात पर जन्नत नहीं हँसी, क्योंकि वह अब इण्टरमीडिएट फ़ाइनल में थी। और साढ़े आठ बरस के एक बच्चे की बातों पर हँसना उसकी शान के ख़िलाफ़ था। जन्नत अपनी मुमानी का ग़ुस्सा जानती थी, इसलिए वह रफ़्फ़न को लेकर टल गयी। अपने कमरे में जाकर उसने रफ़्फ़न को अपनी कुर्सी पर बिठलाने के बाद कहा, ‘‘तुम बड़े गधे हो रफ़्फ़न !’’साढ़े आठ बरस के बच्चे को दो बातें अवश्य मामूल होती हैं। पहली यह कि जमीन गोल नहीं है और दूसरी यह कि वह गधा किसी तरफ़ से नहीं है। यह भी कि गधा होना कोई ख़ुशी की बात नहीं है। और बड़ा गधा होना तो यक़ीनन बड़ी बुरी बात है। ईमान की बात तो यह है कि वह ज़मीन को गोल मानने पर तैयार ही नहीं था। साफ़ चपटी दिखायी देती है। परन्तु जमीन के गोल होने के सबूत उसे ज़बानी याद थे। यदि सामने से कोई जहाज़ आ रहा हो तो पहले सामने का हिस्सा दिखायी देता है और धीरे-धीरे सारा जहाज़ सामने आता है। और यदि कोई एक जगह से यात्रा शुरू करे तो वह घूम-फिरकर वहीं वापस आ जायेगा। पर गधा होने की बात तो वह मान ही नहीं सकता था। क्योंकि यदि आदमी घूम-फिरकर वहीं वापस आ जाये तब भी यह साबित नहीं होता कि रफ़्फ़न गधा है। और इसीलिए उसने उस जन्नत की तरफ़ बड़ी शिकायत-भरी नज़रों से देखा जो उसे सैदानी बी की जन्नत से कहीं ज़्यादा अच्छी लगा करती थी। बोला, ‘‘हम बड़े गधे कहाँ से हो गये ?’’जन्नत बोली, ‘तुमसे यह किसने कह दिया कि अल्लाह मियाँ की शादी हो गयी है ?’’वह बोला, ‘‘एमें काई के कहे की का जरूरत है ? अरे जब मुल्ला-हज्जाम तक का ब्याह धूमधाम से हो गया तो अल्लाहमियाँ बेचारे का कसूर किहिन हैं ?’’जन्नत मुसकुरा दी। बोली, ‘‘अल्लाह मियाँ की शादी नहीं हुई है।’’‘‘इनकी सुने कोई। उनकी शादी नहीं हुई है तो बेटा कहाँ से आ गया।’’जन्नत की भी कोई रग फड़क गयी। बोली, ‘‘और तुमसे यह किसने कह दिया कि बच्चा शादी के बाद पैदा होता है ?’’‘‘बड़की फुफ्फू रोज़ हम्में दुआ देती हैं कि ना। जीते रहो। शादी-विआह हो। बाल-बच्चे हों। जब आपसे हमरी शादी हो जायेगी तो आपके भी बाल-बच्चा हो जायेगा।’’जन्नत झेंप गयी। परन्तु रफ़्फ़न ने उसका झेंपना नहीं देखा। उसके दिमाग़ में एक और सवाल कुलबुला रहा था, ‘‘बच्चा तो समझे बाकी ई बाल का होता है और कहाँ पैदा होता है ? शादी के बाद का कोई नया बाल निकल आता है, बाजी ?’’वह जब बहकता था तो यूँ ही बहकता था, और जन्नत की जान जोखम में पड़ जाया करती थी। वह ताबड़तोड़ सवाल करता चला गया, ‘‘शादी के बिना बच्चा तो बहुत बुरी बात है न बाजी ? हमीदुन कलल्हे अम्माँ को बताती रही कि काने केकी बेटी को शादी से पहले ही बच्चा हो गया तो ऊ संखिया खाके मर गयी। हम्में तो ई भी मालूम है जनाब कि बच्चा होता कैसे है....’’जन्नत की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर देखे किधर। ‘‘अब मैं चाँटा मार दूँगी, रफ़्फ़न’’‘‘अल्ला क़सम बाजी, हम मजाक ना कर रहें। एफे में पहुँच गयीं और ई भी न जानती कि बच्चा कैसे होता है ?’’जन्नत के सारे बदन का ख़ून खिंचकर उसके चेहरे में सिमट आया। दीवार की तरफ़ देखती हुई बोली, ‘‘तुम बड़े बेहूदा होते जा रहे हो !’’‘‘का बात करती हैं आप ! हम ख़ुद अपने कान से सुना, भाई जानू गुलबहरी से बावरचीखाने में खड़े कहते रहे-अरे गुलबहरी, दुआ-तावीज़ से नहीं होनेवाला है तेरे यहाँ बच्चा। अनाज की कोठरी में चल। अभी डाल देता हूँ तेरे पेट में बच्चा। ई सुनके गुलबहरी अजब तरह से हँसी और भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये। तो हम दूसरे ही दिन पूछा-का रे गुलबाहरी, बच्चा पड़ा कि ना ? ऊ लगी हँस्से। तो हम कहा, चल अनाज की कोठरी में एक ठो बच्चा हम भी डाल दें तोरे पेट में। तो ऊ बोली-मियाँ ज़रा और बड़े हो जाव, तब चलेंगे आपो के साथ। अच्छा बाज़ी अगर हम गुलबहरी के पेट में एकठो बच्चा डाल दें तो अल्ला मियाँ हमसे ख़ुश हो जायेंगे ना ?’’उसे कोई जवाब नहीं मिला क्योंकि जन्नत के दिमाग़ में तो एक ही बात घिसे हुए रिकार्ड की तरह बजती चली जा रही थी।....भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये...भाई जानू ओको अनाज की कोठरी में घसीट ले गये...ले गये...घसीट ले गये...बात यह है कि जन्नत चुपके-चुपके अली सामिन यानी रफ़्फ़न के भाई जानू से प्यार किया करती थी। जन्नत का यही प्यार अली सामिन और रफ़्फ़न के झगड़े की जड़ था। रफ़्फ़न ताड़ गया कि जन्नत उदास हो गयी है। उसका छोटा-सा दिल तड़प गया। बोला, ‘‘अरे एमें मुँह लटकाये की का बात है ! हम गुलबहरी के पेट में बच्चा न डालेंगे। आपके पेट में डालेंगे। हम्में आपका पेट बड़ा अच्छा लगता है। बिलकुल संगमरमर जैयसा चिकना और गोरा। बाकी कोठरिया में अँधेरा होये की वजह से हमई ना देख पाये कि पेट में बच्चा डाला कैयसे जाता है। आपको मालूम होय तो हम अभईं डाल दें...’’

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

दिल की उपमा कागज से करना बड़ा अटपटा लगता है। बच्चे के मस्तिष्क की उपमा तो सादे कागज से सुनी थी, लेकिन दिल की नही। अधिकतर लोग दिल की उपमा आसानी से टूटने वाली चीजों से करते हैं।