Saturday, November 8, 2008

नीम का पेड़

‘‘मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरतों की आग में मोहब्बत के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी।...और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार। हिन्दुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया। जिसने राज को कभी सु-राज नहीं होने दिया। जिसे हम रोज़ झंडे और पहिए के पीछे ढूँढते रहे कि आख़िर उसका निशान कहाँ है ? गाँव मदरसा खुर्द और लछमनपुर कलाँ महज दो गाँव-भर नहीं है और अली ज़ामिन खाँ और मुसलिम मियाँ की अदावत बस दो ख़ालाज़ाद भाइयों की अदावत नहीं है। ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती है, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है। बस, बाकी रह जाता है नफरत का एक सिलसिला...
‘‘सच-सच बताऊँ तो मैं न लछमनपुर कलाँ को जानता हूँ और न ही मदरसा खुर्द को और अली ज़ामिन खाँ, मुसलिम मियाँ नाम के उन दो ख़ालाज़ाद भाइयों को तो बिल्कुल ही नहीं। हो सकता है यह सब उस नीम के पेड़ की कोरी बकवास हो जो उसने मुझे सुनाई और मैं आपको सुनाने बैठ गया।
‘‘मैं तो शुक्रगुज़ार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा है और आज़ादी के सपनों को टूटते हुए भी देखा है। उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है।’’

लेखकीय

इससे पहले की आप कुछ समझें, मैं आपको बता दूँ इस कहानी से मेरा कोई तआल्लुक नहीं है। यकीन मानिए दूर-दूर तक नहीं है। मैं तो सिर्फ़ एक लेखक हूँ और लेखक होने का धर्म निभा रहा हूँ। बस एक माध्यम भर हूँ। असली कहानी तो नीम के पेड़ की है और उसकी भी क्या है ? बीसवीं शताब्दी के तो एक बहुत बड़े लेखक ने लिख दिया था कि दुनिया बनाते वक़्त उसे बनाने वाले ने एक कहानी लिख दी थी। बस हम सब अपने-अपने दौर में अपने-अपने ढंग से उसे लिखते रहते हैं।
सच-सच बताऊँ तो मैं न लछमनपुर कलाँ को जानता हूँ और न ही मदरसा ख़ुर्द को और अली ज़ामिन खाँ, मुसलिम मियाँ नाम के उन दो ख़ालाज़ाद भाइयों को तो बिल्कुल ही नहीं। हो सकता है यह सब उस नीम की पेड़ की कोरी बकवास हो जो उसने मुझे सुनाई और मैं आपको सुनाने बैठ गया। वर्ना नफरत और बेकली की ऐसी कहानियों में मेरी कोई दिलचस्पी क्यों होगी भला। मैं तो लेखकों की उस ज़मात का हूँ जो मानते हैं कि लेखक या अदीब का काम दुनिया में अमन फैलाना है। उसका काम मोहब्बत के ऐसे अफ़साने गढ़ना है, जिसे पढ़ते ही लोग आपसी दीवारों को भूल जाएँ। लेखकों का काम तो सरहदें मिटाना होता है।
लेकिन क्या करूँ, मैं मजबूर था। मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसीलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरत की आग में मोहब्बत के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी।...और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार। हिन्दुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया। जिसने राज को कभी भी सु-राज नहीं होने दिया। जिसे हम रोज़ झंडे और पहिए के पीछे ढूँढ़ते रहे कि आख़िर उसका निशान कहाँ है ? गाँव मदरसा खुर्द और लछमनपुर कलाँ महज़ दो गाँव-भर नहीं हैं और अली ज़ामिन खाँ और मुसलिम मियाँ की अदावत बस दो ख़ालाज़ाद भाइयों की अदावत नहीं है। ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती हैं, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है। बस बाकी रह जाती है नफरत का एक सिलसिला...
मैं तो शुक्रगुज़ार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा और आज़ादी के सपनों को टूटते हुए भी। ज़मींदारी को खत्म होते हुए देखा तो नए राजाओं को बनते हुए भी देखा। उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है। पतन के दौर में आदर्श की तलाश में भटक रहा है। क्या करे बेचारा सारा खेल उसकी छाँह को खरीदने-बेचने का जो चलता रहा खुद उसी की छाँह के नीचे, तो तकलीफ उसे नहीं होती तो किसे होती। अब बताइए भला, मैं तो एक लेखक ठहरा। मुझे तो हर तकलीफज़दा के साथ होना है। चाहे वह हाड़-मांस का बना इंसान हो या फिर एक अदना-सा नींम का पेड़। क्या मैं उसकी कहानी सिर्फ़ इसलिए नहीं सुनाऊँ कि हम इंसानों की बस्ती में उसकी कोई औकात नहीं है। या इसलिए कि जब इंसानी जुबान का ही कोई भरोसा नहीं रहा तो फिर एक नीम के पेड़ का क्या ठिकाना लेकिन मेरा तो यह फर्ज़ बनता ही था कि मैं उसकी कहानी आप तक पहुँचाऊँ। अब अगर इसमें आपको कोई झूठ लगे तो समझ लीजिएगा कि यह मेरा नहीं उसका झूठ है। और सच...तो साहब उसका दावा तो कोई भी नहीं कर सकता, न मैं न आप।
अब मैं आपके और नीम के पेड़ के बीच ज़्यादा दीवार नहीं बनना चाहता, नहीं तो आप कहेंगे कि मैंने उसकी कहानी को अपनी बताने की गरज़ से इतनी लम्बी तकरीर दे मारी। तो चलिए आपकी मुलाकात गाँव मदरसा खुर्द के अली ज़ामिन खाँ और गाँव लछमनपुर कलाँ के मुसलिम मियाँ से करवाते हैं जो वैसे तो ख़ालाज़ाद भाई हैं, लेकिन वैसी दुश्मनी तो दो दुश्मनों में भी न होती होगी। और हाँ, बुधई उर्फ बुधीराम का भी तो अफ़साना है ये। अब यह आपको तय करना है कि आख़िर यह अफ़साना इन तीनों में से किसका है। तो चलिए अब नीम के पेड़ की जुबानी ही सुनिए पूरी कहानी।

नीम का पेड़
1

मैं ही इस कहानी का उनवान भी हूँ और कहानी भी...मैं नीम का बूढ़ा पेड़....गाँव के बच्चे मेरे नीचे बैठकर मेरी निमकौलियों के हार गूँथते हैं...खिलौने बनाते हैं मेरे तिनकों से...माँओं की रसीली डाँटें घरों से यहाँ तक दौड़-दौड़कर आती रहती हैं कि बच्चों को पकड़कर ले जाएँ मगर बच्चे अपनी हँसी की डोरियों से बाँधकर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं छटाएँ ओढ़कर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं...मगर सच पूछिए तो मैं घटाएँ ओढ़कर आनेवाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ...बादल मुझे देखकर ओढ़कर आने वाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ॥बादल मुझे देखकर ठट्ठा लगाते हैं कि लो भई नीम के पेड़ हम आ गए...इस मौसम की बात ही और होती है क्योंकि यह मौसम नौजवानों का भी होता है...मेरे गिर्द भीड़-सी लग जाती है...मेरी शाखों में झूले पड़ जाते हैं...लड़कियाँ सावन गाने लगती हैं...
मुझे ऐसी-ऐसी कितनी बातें याद हैं जो सुनाना शुरू करूँ तो रात खत्म हो जाए मगर बात रह जाए...आज जब मैं उस दिन को याद करता हूँ जिस दिन बुधई ने मुझे लगाया था तो लगता है कि वह दिन तो जैसे समय की नदी के उस पार है...मगर दरअसल ऐसा है नहीं। मेरी और बुधई के बेटे सुखई की उम्र एक ही है...।
क्या तारीख थी 8 जुलाई, 1946 जब बुधई ने मुझे यहाँ अपने हाथों से लगाया था। सुखई की पैदाइश का भी तो वही दिन है और...
मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ अपने दरवाजे़ पर बैठ हुक्का पी रहे हैं, साथ बैठे हैं लाला रूपनारायण। लालाजी ने कहा-
‘‘मियाँ पहले मेरी अरज सुन लीजिए, आगे जो हुकुम !...हम मियाँ सरकार के दिनों से नमक खाते चले आ रहे हैं। मंडा भर ज़मीन की कोई बात नहीं है। मगर...’’
लालाजी कुछ कहते कहते रुक गए।
‘‘अरे तो का हम अपने बहनोई भाई मुसलिम से फ़ौजदारी करके कुबरा का जीना अजीरन कर दें ? बाबा मरहूम ने का आपके सामने ही नहीं कहा रहा कि ऐ ज़ामिन कुबरा का ख्याल रखिए !’’ जामिन खाँ हुक्के के धुएँ के साथ धीरे-धीरे बोले।
‘‘ख़्याल और ज़मीन में बड़ा फरक होता है मियाँ। आपसे एक और बात कहनी रही मियाँ कि राम बहादुर यादव का भी कोई-न-कोई इलाज करने ही को पड़ेगा। मियाँ मुसलिम की शह तो उन्हें है ही, ऊपर से अब वह जब से गाँधीजी की पाटी में भर्ती हुए हैं, दिमाग एकदम्मे से चल गया है उनका। चमटोली में बाबूरमवा के घर जमे दिन-भर तकरीर करते रहते हैं कि देश के आज़ाद होते ही ज़मींदारी-ओमीदारी सब घुसर जाएगी।’’
लालाजी ने बयान किया।
‘‘भाई मुसलिम की बात है तो अभी बुधई को बुलाकर ख़त भेज देते हैं। और रही बात रमबहदुरा की तो साले को टाट बाहर करवा के किस्सा ख़त्म कीजिए। और बाबूरमवा से कह दीजिए कि जो आज के बाद रमबहदुरा चमटोली में दिखाइयो भर गया तो बटाई पर जो खेत ऊ जोत रहा है ओपर से ओको बेदखल करै में मिनट-भर भी नहीं लगेगा। तनी होश में रहे।’’
ज़ामिन मियाँ बुझ चुके हुक्के को गुड़गुड़ाने की कोशिश करते हुए बोले। गुस्से से उनका गोरा चेहरा लाल हो गया था।
तभी वहाँ बुधई आ खड़ा हुआ। एक तो वो अपने ज़मींदार को यह इत्तिला करने आया था कि उसने उनकी दी हुई ज़मीन पर अपने एक और संगी को बसा चुका है बित्ता भर के नीम के पेड़ को और दूसरे यह कि आज ही उसकी बीबी दुखिया ने उसका वारिस जना है, जिसका नाम उसने रखा है सुखई। बुधई का बेटा सुखई।
‘सुन ज़रा लछमनपुर कलाँ चला जा भाई मुसलिम के यहाँ। रहमतउल्लवा से पाँच सेर कटहल और दू सेर गूलर का खमीरा ले ले। मुसलिम मियाँ से कहना कि हम भेजा है उनके वास्ते। और हाँ रात-बिरात का ख़्याल न करना। जैसे ही भाई मुसलिम जवाब दें के आ जाना। और ये ख़त भी उनका दे दीहे।’’
ज़ामिन मियाँ एक साँस में बोल गए।
बुधई की बात मन में ही रह गई। ज़मींदार के हुक्म की तामील करना उसके लिए हमेशा से सबसे अहम रही है। वह ज़ामिन मियाँ को यह ख़ुशख़बरी देना ही भूल गया कि उसके घर लाल आया है...कि आज वो बहुत दिनों बाद बहुत खुश है...कि आज वह इस ख़ुशी के सिवा कुछ भी नहीं करना चाहता है...लेकिन वह चुपचाप पीठ पर बोझ उठाए दस कोस दूर मुसलिम मियाँ के गाँव लछमनपुर कलाँ चल पड़ा।
शाम लगभग डूब चुकी थी। भैंस, बकरियाँ सब अपने-अपने दरवाज़ों पर लौटकर बरसाती मच्छरों से जंग कर रहे थे। गाँव की इकलौती मस्ज़िद से शाम की नमाज़ उठी। ठीक उसी वक़्त बुधई ने लछमनपुर कलाँ में मुहम्मद मुसलिम खाँ यानी मुसलिम मियाँ के दरवाज़े पर अपने पीठ पर लदा बोरा पटका।
मुसलिम मियाँ ने नमाज़ पढ़कर आँखें खोलीं तो पाया कि सामने ज़ामिन मियाँ का हुक्मबरदार बुधई खड़ा है।
‘‘तैं कब आया बे। वहां तो सब खैरियत है न।’’
मुसलिम मियाँ ने जानमाज़ समेटते हुए पूछा।
‘‘मियाँ आपके और कुबरा बहिनी के वास्ते कटहल और गुल्लर का खमीरा भेजिन है।’’
बुधई ने सलाम करते हुए जवाब दिया।
‘‘खाली यही है कि औरो कुछ है।’’
मुसलिम मियाँ ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘जी एक ठो ख़त भेजिन है।’’
बुधई ने उसकी ओर ख़त बढ़ाया।
‘‘और मियाँ का हुकुम रहा कि जवाब आज ही लै आना’’ बुधई ने आगे जोड़ा।
मुसलिम मियाँ ख़त पढ़ते जाते और उनकी त्यौरियां चढ़ती जातीं। उनका चेहरा ऐसे लाल हो गया था कि खत का लिखा उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। खत को गोल करके मोड़ते हुए वे बोले- ‘‘जा अपने मियाँ से कह देना कि उसे खत का जवाब अदालत सबजजी से मिलेगा।’’
बुधई के कदम वापसी की ओर मुड़ चुके थे। अँधेरा बढ़ता जा रहा था। उल्लुओं और सियारों की आवाज़ें बढ़ती जाती थीं और बुधई के कदम तेज होते जाते थे। उसे अपने सुखई को देखने की जल्दी थी...
उसे रामबहादुर यादव की बात याद आ रही थी कि आजादी मिलते ही ज़मींदारी खतम हो जाएगी। ज़मीन उसी की होगी जो हल चलाएगा। इसीलिए तो उसने रखा है अपने बेटे का नाम सुखई-सुखीराम। वो उसकी तरह बेगारी नहीं करेगा...स्कूल जाएगा। उसे अपने गाँव की छिटपुट जलती ढिबरियाँ दिखाई दीं। बारिश को पुकारते मेंढकों की आवाज़ें तेज हो गई थीं।
बुधई जैसे सपने से जगा। वह मुस्कुराया। जब वह पैदा हुआ था तो उसके बाप की आँखों में तो वो सपना भी नहीं रहा होगा। कम-से-कम अपने बेटे के लिए उसकी आँखों में ये सपना तो है॥क्या पता सच ही हो जाए। लेकिन फिलहाल तो उसे जल्दी थी मियाँ ज़ामिन को यह बतलाने की कि मुसलिम मियाँ ने अदालत की धमकी दी है....


2

रामबहादुर यादव गाँधीजी के कांग्रेस में शामिल क्या हो गया था ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ का जीना हराम हो गया था। चमटोली में भाषण देता फिरता था। ज़मींदारी के ख़िलाफ़ उनको भड़काता रहता था। कहता था-
‘‘हम रामबहादुर यादव कौनो नेता ना हैं। मुदा गाँधीजी हम्में एक ठो गायत्री मन्तर दिए हैं। तूहूँ लोग ऊ मन्तर सीख ल्यो। सब ठीक हो जैयहे। और मन्तरो बहुत आसान है। खाली ज़ोर-ज़ोर से ‘भारत माता की जय’ बोले जाओ....ज़मींदार लोग बहुत जुलुम कर चुके हैं...इ मन्तर की ताकत तू लोग को ज़मींदार के जुलुम से बचावेगी॥तुम लोगन को ज़मीन का मालिक बनावेगी...’’ सोचता था ऐसा बोलकर भी ज़ामिन मियाँ के प्रकोप से बच जाएगा। मदरसा खुर्द के ज़मींदार अली ज़ामिन खाँ के प्रकोप से। ...और आख़िर वही हुआ जिसका डर था। एक रात जब रामबहादुर यादव हमेशा की तरह चमटोली में तकरीर कर रहा था उसी रात चमटोली की एक-एक झोपड़ी जल गई। ऐसी आग वहाँ कभी नहीं लगी थी उसी रात रामबहादुर यादव भी नहीं बच पाया। एक ही लाठी में उसका काम तमाम हो गया। इतनी बड़ी वारदात थी, लग रहा था कुछ होकर रहेगा।
वैसे होना क्या था ? अगली सुबह थानेदार बाबू जिलेदार सिंह दो-तीन कांस्टेबलों के साथ आए। आए तो बैठते भी कहाँ। बैठने के लिए तो बस एक ज़मींदार साहब का दरवाज़ा था और किसमें ताब थी कि उनका स्वागत-सत्कार करता, दारोगाजी की शान को समझता। सारा गाँव जानता था कि यह करतूत बजरंगी की है। ज़मींदार साहब के ख़ास कारिंदे बजरंगी की। पर किसी ने आज तक जुबान खोली थी जो खोलता। रामबहादुर यादव ने जुबान खोली थी और सब देख चुके थे कि उनका क्या हश्र हुआ ? चमटोली के कुछ लोग भी अपनी आँखों में सदियों का डर लिए बैठे थे ज़मींदार साहब के दरवाज़े पर। वो भी शुक्र ही मना रहे थे कि सिर्फ़ घर ही जला, जान तो बच गई। वैसे अब भी ये डर तो था ही कि न जाने क्या आफत आ जाए ? दारोगाजी जब-जब गाँव में आते हैं कुछ-न-कुछ आफत ही आती है... उस दिन ज़मींदार साहब के दरवाजे़ पर ऐसा लग रहा था जैसे कोई जलसा हो रहा हो। हलवाई बैठे जलेबियाँ छान रहे थे। थालियों में ताजी पूरियाँ और सब्जी लगा रहे थे। हलवाई जलेबी और हलवे के थाल लगा रहा था। और साहब खुशबू ऐसी थी कि आदमीं भरपेट खाने के बाद भी कुछ-न-कुछ खा ही जाए। जिलेदार सिंह भी उसी ख़ुशबू में खोए थे-कुछ देर को यह भूले हुए कि वे वहाँ दावत खाने नहीं आए थे बल्कि रात को एक कत्ल हुआ था जिसकी तफ्तीश करनी थी उन्हें।
‘‘मियाँ साहब यह कत्ल तो बड़ी संगीन बात है। कलट्टर साहब के लड़के से मुसलिम मियाँ की बड़ी गाढ़ी छनती है !
बहुत गड़-बड़ करेंगे वह। सुनिए एस।पी। साहब के यहाँ ज़रा वजनी डाली भिजवाइएगा...एस।पी। साहब इधर हो जाएँ तो फिर कलट्टर साहब भी कुछ नहीं कर सकते...लेडी डॉक्टरनी मिस मारिसन को तो आप जानते ही होंगे। एस।पी। साहब पर अगर उनसे जोर डलवाया जाए तो समझिए कि फिर काम बन जाएगा ! राज़ की बात है एस।पी। साहब उन पर ज़रा रीझे हुए हैं !’’
जिलेदार सिंह पर जैसे ज़ामिन मियाँ के ख़ुशबूदार खाने का नशा चढ़ गया था और वो अपनी नमकहलाली दिखा रहे थे।
‘‘और मुझे एक गवाह दे दीजिए जो तोते की तरह अपना बयान याद कर ले।’’
जिलेदार सिंह दाँत खोदते हुए आगे बोले।
ज़ामिन मियाँ जैसे हुक्म की तामील करने वहाँ से उठकर चल पड़े।
गवाह हाज़िर था। बुधीराम ज़मींदार साहब का बँधुआ। मियाँ का हुकुम जो था। बयान रटा-रटाया ही था-
‘‘भगवान के हाजिर नाजिर जान के कहत है न कि ऊ घर का लैके बाबूराम और कोमिला में बहुत दिन से झगड़ा चला आवत रहा। कल फिर उन्हें बात पर बात बढ़ गई और लाठी चल गई....रामबहादुर यादौ त रहिबो ना किए रेन उहाँ। हम ज सोर सुन के उधर दौड़े तो रामबहादुर हमको रास्ते में मिलेन। भाग जात रहेन। बोलें कि कोमिला और बबुरमवा मा लाठी चलत है।
....और जिलेदार सिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच गए कि बजरंगी को तो झूठ-मूठ में फँसाया जा रहा है। असली हत्यारा तो बाबूराम है। बाबूराम के पेड़ से उल्टा लटकाकर उसकी पिटाई शुरू हुई। आख़िर जिलेदार सिंह थानेदार को ज़मींदार साहब के ख़शबूदार खाने की कदर जो रखनी थी...’’उधर मुसलिम मियाँ ने एक दिन ज़नामख़ाने में चाय पीते हुए यह ऐलान कर दिया अपनी माँ कनीज़ फ़ातिमा के सामने कि वे तो कुबरा की दुखतरी आम का एक ठो बाग और बीस बीघा ज़मीन लेकर ही रहेंगे, नहीं तो उन्हें डर है कि उनकी जुबान से कहीं तलाक़ का लफ़्ज़ न निकल जाए।
कनीज़ बीबी लाख समझाती रही उन्हें कि न कुबरा उनकी ग़ैर है और न अली ज़ामिन, आख़िर सगी खाला के लड़के हैं। और अशराफ में न तो दुखतरी ली जाती है न दुखतरी दी जाती है। मगर मुसलिम मियाँ अपनी ज़िद पर अड़े थे। थक-हार कर बीबी कनीज़ खुद चल पड़ी ज़ामिन मियाँ के दरवाज़े पर, उन्हें समझाने आती बला को टालने, छह कहारों की पालकी पर सवार दो लठैतों की निगरानी में।
मगर ज़ामिन मियाँ कोई कच्चे खिलाड़ी थोड़े ही थे। इधर उन्होंने अपनी खाला की आमद सुनी और तुरत इक्का जुतवाकर शहर की ओर चल पड़े। घर में यह बता गए कि मियाँ को तो बड़ी बीबी के आने की ख़बर ही नहीं मिली। वे तो शहर चले गए हैं कलक्टर साहेब से मिलने। कुछ पता नहीं कब तक आएँगे। असली मकसद था ख़ाला के सामने पड़ने से बचना। असल में वे तो शहर में अतहर हुसैन वकील के यहाँ ठहरने चले गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि एकाध दिन में खाला चली जाएँगी और फिर वे वापस लौट आएँगे। ख़ामख़ा खाला दुखतरी की बात छेड़तीं और उनके लिए कुछ भी जवाब देना मुश्किल होता। खाला इन बातों को समझती ही कहाँ हैं ? कहेंगी दुखतरी समझकर मत दो, बस भाई का दिल रखने के लिए दे दो। कहाँ तक देता फिरूँगा...अतहर हुसैन वकील शहर के माने हुए वकील थे। मुकदमे के चक्कर में कई ज़मींदारों की ज़मीनें बिकवा चुके थे। उन्हें लोग इज़्ज़त से खान बहादुर साहब बुलाते थे। अली ज़ामिन खाँ उनके बड़े मुरीद थे। एक रात पीतल की चिमनी की रोशनी में हुक्का पीते हुए उन्होंने जामिन मियाँ को भरोसा दिलाया कि वे मुसलिम मियाँ को मुकदमा तो किसी हालत में नहीं जीतने देंगे, आगे मियाँ जानें और उनकी मर्ज़ी जाने। यह भी बताया कि मुसलिम मियाँ वैसे भी मुस्लिम लीगी हैं। पाकिस्तान तो बननेवाला है ही। मुसलिम मियाँ तो पाकिस्तान चले जाएँगे और मुकदमा अपने-आप ख़ारिज़ हो जाएगा।
अतहर हुसैन साहब ने ज़ामिन मियाँ को आगे समझाया कि रामबहादुर मर्डर केस में बुधई का बयान होने के बाद बेहतर हो कि वे अपने गाँव चले जाएँ और खाला से ये कह दें कि मियाँ मुसलिम बड़ा भाई मानकर जो भी माँगें वे देने को तैयार हैं और रही बात मियाँ मुसलिम के मानने की तो वो कभी नहीं मानेंगे, आख़िर पठान जो ठहरे। इससे उनकी बात भी रह जाएगी और खाला भी चली जाएँगी। वैसे तो वो जाने से रहीं।
उधर मुसलिम मियाँ भी शहर आ चुके थे अपने वकील चन्द्रिका प्रसाद से मशविरा करने कि केस तो उन्होंने कर दिया पर क्या हर्ज़ है कि सुलह की एक कोशिश हो जाए। लेकिन ज़ामिन मियाँ सुलहनाने को कब तैयार होनेवाले थे। वे तो ये मानते थे कि मियाँ मुसलिम में इसके सिवाय और कोई खूबी ही नहीं कि वे उनकी खाला के लड़के हैं। कुबरा के लिए तो उनसे अच्छा लड़का मिल सकता था। अब चूँकि उन्होंने तलाक की बात कर दी तो साहब शरीफ घरानों की लड़कियाँ या तो कुँवारी रह जाती हैं या बेवा हो जाती हैं...तलाक लेकर अपने घर नहीं आतीं।
वकील अतहर हुसैन साहब जो मुकदमेबाजी में कई खानदानों को तबाह होते देख चुके थे एक और खानदान की तबाही के सिलसिले के गवाह बनने वाले थे शायद....।
रामबहादुर यादव हत्याकांड के मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी थी। ज़ामिन मियाँ के ताबेदार बजरंगी की तरफ़ से अतहर हुसैन मुकदमा लड़ रहे थे तो दूसरी ओर से वकील रायबहादुर चन्द्रिका प्रसाद। गवाह था बुधीराम यानी बुधई। दो नामी-गिरामी वकीलों की टक्कर थी। यह टक्कर देखने को ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ज़ामिन मियाँ तो आए ही थे, मुसलिम मियाँ भी मौजूद थे। चन्द्रिका प्रसादजी ने बुधई से जिरह शुरू की-
‘‘तुम्हारा नाम ?’’
चन्द्रिका प्रसाद ने पूछा।
‘‘हमार नाव बुधई है सरकार-बुधीराम।’’
बिना घबड़ाए बुधई ने जवाब दिया।
‘‘अच्छा तो बुधई उर्फ बुद्धिराम यह बताओ कि उस दिन क्या तुमने वाकई रामबहादुर यादव को भागते हुए देखा था...और सोच के बताओ क्योंकि तुमने गीता पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाई हुई है ?’’
वकील साहब का लहज़ा ऐसा था कि अच्छे-अच्छे गवाहों के पसीने छूट जाएँ।
‘‘ई तो दिन की बात न है मालिक। रात काफी होय चुकी रही, हम शोर सुनके उधर लपके जात रहेन कि का देखा कि रामबहादुर भागे-भागे चले आ रहेन ! हमें देख के बोलेन कि अरे ओहर कहाँ जा रहा रे बुधइया ! उधर तो लाठी चलत है !’’
बुधई एक साँस में बोल गया।
‘‘बस करो, बस करो...अब तो तुम्हारा बयान अदालत को भी याद हो गया होगा। अच्छा एक बात बताओ जब तुमने यह देखा कि रामबहादुर यादव भागे चले आ रहे हैं तो उस वक़्त नंगे सिर थे या उनके सिर पर गाँधी टोपी थी !’’
चन्द्रिका प्रसाद एक माहिर वकील थे। बुधई को फँसाने के लिए उन्होंने जाल डाला। ज़ामिन मियाँ और अतहर हुसैन साहब के तो होश ही उड़ गए, पता नहीं बुधई क्या बोल जाए।
‘‘यह सवाल गवाह को उलझाने के लिए किया गया है हुजूर, वह चाहे टोपी पहने रहा हो या नंगे सर। अगर बुधई ने उसे नंगे सर देखा तब भी यह साबित नहीं हो सकता कि खून से भरी जो गाँधी टोपी मौका-ए-वारदात पर मिली, वह रामबहादुर यादव की थी ?’’ वकील अतहर हुसैन ने बात को सँभालते हुए बुधई के लिए एक इशारा किया।
‘‘बुधई क्या उस वक़्त रामबहादुर यादव ने टोपी पहन रखी थी ?’’ सवाल पूछने की बारी अब जज साहेब की थी।
‘‘जी माई-बाप ! यादवजी का त हम कभई नंगे सिर देखा ही नहीं।’’ बुधई भाँप गया था। बुधई के इस जवाब के साथ ही जज साहेब ने केस ही ख़ारिज़ कर दिया।


2 comments:

सतीश पंचम said...

'नीम का पेड' यह नाम ऐसा है जो मैं कभी टीवी सिरियल के जरिये जानता था औऱ समझता था, आज सीधे साहित्य की धरा पर देख रहा हूँ।
अच्छा लगा।

Kaif Khan said...

main kya kahoo is upanyaad ke bare me jab main bahut chota tha tab meri ammi jaan is naam ke serial ko dekha karta tha aour aaj itne salo baad phir wahi lamhe likhawat ban kar samne aa gaye to laga ki bachpan samne aa gaya...its very nice...i like it