Sunday, December 7, 2008

यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 1 (3)

यह आदमी की गुजरगाह!


शिकस्ता पैरों से लिपटा हुआ व रंग-ए-हिना
वह रंग-रंग के आँचल हवा में उड़ते हुए
वह पिछले दिन की गूंथी चोटियों से निकले बाल
हर एक मोड़ पे कुछ क़ाफ़िले से मुड़ते हुए

वह चरमराते हुए जूतों की सदाओं से
जुगाली करती हुई बकरियों की बेख़बरी
अँधेरी रात में जलते हुए दीयों की तरह
वह गाय भैंसों की आँखें सितारा-ए-सहरी

हर एक लम्हा वह सरगोशियाँ सी करता हुआ
वह साँस लेती हुई जुल्मतों की खामोशी
हर एक साया कोई गीत याद करता हुआ
वह गुनगुनाती हुई चाँदनी की बेहोशी

कहीं हवा ने सदा दी कहीं बढ़े साये
थकन को देख के हर शाखेतर का हाथ बढ़ा
क़दम क़दम पे मुसाफिर नवाज मिलते थे
हजारहा शजर-ए-सायादार राह में था।

वह जिन्दगी के मजाहिर कहाँ गए आखिर
न कोई गीत न बच्चों की भाग दौड़ का शोर
न सहर-ए-चंग न खड़ताल की सदा का फसूं
कहाँ छिपे हैं मसर्रत के नाचते हुए मोर

हैं किस गुबार में बिरहे की वह जवाँ तानें
कि जिनके सुनने से अँगड़ाइयाँ सी आने लगें
खमोश क्यों हैं वह कजरी की मदभरी तानें
कि जिनकी गूँज से काली घटाएँ छाने लगें

न बकरियों के रेवड़ न कोई चरवाहा
न भागते हुए बछड़े न सोचती हुई गाएँ
फ़क़त दोरूया दरख्तों पे झूलती लाशें फ़क़त
यह दिल कि हर एक गाम पर धड़क जाए

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