राही मासूम रज़ा कृत 1857 पर कविता दी जा रही है .इससे पहले कई टुकड़ो में क्रान्ति कथा दी गई थी. अब एक साथ प्रेषित है .
क्रान्ति कथा
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
कान खोलकर सुनो कथा है क्रान्ति के पहले सावन की
अंग्रेजों की धूप कड़ी थी धरती पर थी आफत
सत्तावन की गर्मी पाकर खिल उट्ठी थी बगावत
जीना दूभर मरना मुश्किल ख्वाबों पर थी मुसीबत
राम रहीम भी दो बन्दी थे आई थी वह कयामत
मुल्ला जी का हाल बुरा था पगड़ी ढीली बाह्मन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
नफरत का एक दीप जलाये राह पे राही आये
देख के अपनी कसी भुजायें मन ही मन मुस्काये
अंग्रेजों की घूस से लड़ने क्रान्ति के बादल छाये
सत्तावन ने बीन बजाई और काले लहराये
सर धड़ का बाजार गर्म था किसको फिक्र थी दामन की
सुनो भाइयो सुना भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
बन्दीघर में लोटा थाली पर बन्दी टकराये
अंग्रेजों ने लाठी के बादल उन पर बरसाये
इत्ती इत्ती बात पे फौजी जब देखो गरमाये
हालत यह थी जो बोले वह तोपों में उड़ जाये
फिर भी त्योरो चढ़ी हुई थी हर रस्ते हर आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
सत्तावन के आते-आते देश की हालत यह थी
खेतों और खलिहानों के दिल धड़के और आँख उट्ठी
गुस्से में बल खाती थी हर राह हर इक पगडंडी
अंग्रेजों के पाप की गगरी अब छलकी तब छलकी
इक इक तीली टूट चुकी थी अंग्रेजों की चिलमन की
सुनो भाइयों सुनो भाइयो, कथा सुना सत्तावन की
हलके कंधों पर रखा था टैक्स का बोझा भारी
फौजों तक इक दौड़ लगी थी, थी ऐसी बेकारी
चूनर का चेहरा उतरा था, कुम्हलाई थी सारी
पूर पूर थी पूराबख की फिर भी प्यासी नारी
घोर अँधेरा है जीवन में ज्योत बुझी उन नैनन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
माखन नहीं किसी मटके में, माखन कौन चुराये
कृष्ण गया परदेस तो कोई क्या पायल खनकाये
नीलमनी की आस में राधा बैठी दीप जलाये
कौन कन्हैया तट पर बंसी आज बजाये
किसका रस्ता देख रही हैं आखिर आँखें मधुबन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जिन नैनन को देख के हिरनी अपनी आँख झुकाये
उन नैनन में घोर निराशा के बादल मँडराये
जन लम्बे बालों को देख के काला भी लहराये
उन लम्बे बालों की उलझन देख के जी में आये
इब श्मशान को ले चलते अर्थी इस गोरे शासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
छुटपुट टकराये भी खेतों की गोदी के पाले
डाकू बनकर जंगल-जंगल फिरे कहीं दिलवाले
जान पे अपनी खेल रहे थे यहाँ वहाँ मतवाले
अंग्रेजी ताकत के पैरों में भी पड़ गए छाले
उलटी-सीधी साँस चली वह हालत थी बेईमानन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
इस कस्बे में भाले उट्ठे और उसमें शमशीरें
यहाँ उठे श्लोक वीर के वहाँ उठी तकबीरें
अलग-अलग सब ढूँढ रहे थे ख्वाबों की ताबीर (स्वप्नफल)
लेकिन छुटपुट लड़ने से कब टूटी हैं जंजीरे
रोयाँ-रोयाँ जकड़ा पाया, साँस उखड़ी थी दामन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
राजा हो या प्रजा हो, शहरी हो या देहाती
वह जबरदस्त हो,ढाके की मलमल हो, या हो लंगोटी
मंदिर हो या मस्जिद, वह बधना हो या हो थाली
अपनी-अपनी दुनिया में सबने यह जी में ठानी
आखिर कोई चीज है यारो गैरत अपने आँगन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
काशी के पंडित हों या हों वह पटना के मुल्ला
दिल्ली का हव्शी हलवा हो या मथुरे का पेड़ा
कैसरबाग की नबाबी हो या हो चौक का शहदा (गुंडा)
जाटों की तलवार हो या हो मिर्जापुर का डंडा
सब ही आस लगाए थे आजादी के एक दर्शन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
भोजपुरी भी देख रही थी दूर-दूर तक रस्ता
अवधी के हर चारों तरफ भी था गहरा सन्नाटा
एक ऊँची तलवार बनी बैठी थी मीठी भाषा
और तारीख भी देख रही थी रंग खड़ी बोली का
देख वह काले बादल उट्ठे हवा चली वह दामन की
सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
जौनपुर भी ऐंठ रहा था, घूर रहा था बलिया
इस बस्ती की कजरी जागी, उस नगरी का बिरहा
गाजीपुर की खुशबू चौंकी, आजमगढ़ का चरखा
बकसर के मैदान में आया लोर (पूर्वी, उत्तर प्रदेश की बहुत लम्बी लाठी) सम्हाले आरा
छपरा ने भी बातें समझीं अपने दिल की धड़कन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
मेरठ में चाकू की दुकानो से आंखें खोलीं
और अलीगढ़ के तालों ने सोती आँखें धालीं
कायमगंज के पठानों ने भी तलवारें टटोलीं
और प्रयाग में धीरे-धीरे कुछ त्रिवेनी बोलीं
डोल रही थी इक-इक चूल इस अंग्रेजी सिंहासन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो,कथा सुनो सत्तावन की
जिस जानिब देखो उस जानिब एक गहरी बेचैनी
झाँको जिसकी दुनिया में उस न्याम की दुनिया खाली
अपनी भुजायें देख रहा था हर शहरी देहाती
यूरोप से पश्चिम तक हर दिल लोहे का व्यापारी
क्या बतलाऊँ क्या हालत थी पिछले सन् सत्तावन की
सुनो भाइयो सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की
1 comment:
बहुत ही बढ़िया परिकल्पना से परिपूर्ण रचना . आभार
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