यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 1 (6)
बने हुए तो हैं पनघट पे गागरों के निशाँ
मगर घरों की वह बातें नजर नहीं आतीं
वह छोटी-छोटी सी खुशियाँ तो वह पहाड़ से ग़म
घरों से औरतें क्या अब इधर नहीं आतीं
न त्योरियों की कमंदे, न आबरूओं की कटार
न क़हक़हों के वह नश्तर, न वह निगाहों के बान
न कोहनियों के इशारे, न झेंपी-झेंपी हँसी
न क़त्लगाह में मक्तूल ही कोई मेहमाँ
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