Friday, December 12, 2008

हिंदोस्तानियत का सिपाही

- कुरबान अली

डॉक्टर राही मासूम रजा अगर जिंदा होते तो अब लगभग ८० बरस के होते, लेकिन करीब १५ बरस पहले वे इस दुनिया से कूच कर गए, यकीन नहीं होता कि राही अब हमारे बीच नहीं रहे, इतनी जल्दी तो राही को नहीं जाना था, अभी तो उन्हें बहुत सारा काम करना था, आधा गांव का दूसरा अंक लिखना था, गंगा की गोद में खेलना था।
गंगौली गाजीपुर और अलीगढ़ जाकर रहना था, सांप्रदायिकता के खिलाफ़ जंग लड़नी थी और सबसे बढ़ कर अपने धर्मावलंबियों की संख्या बढ़ाने के लिए धर्म प्रचार करना था, जिसे वह हिंदोस्तानियत के नाम से पुकारते थे, दरअसल मेरी नजर में राही कोई लेखक, साहित्यकार, फ़िल्मी डायलॉग स्क्रिप्ट लेखक नहीं, बल्कि सही मायनों में एक सच्चे हिंदुस्तानी की मौत है, जिसे वह देश की सबसे छोटी अकलियत अल्पसंख्यक कहते थे, राही को ज्यादातर लोग उर्दू शायर, आधा गांव के लेखक तथा दूरदर्शन के धारावाहिक महाभारत के डॉयलॉग लेखक के रूप में जानते हैं, लेकिन राही की शख्सियत इस सबसे बिल्कुल मुख्तलिफ थी, फ़िल्मी लेखन व बंबई जाने पर तो उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के कुछ संकीर्ण दिमाग वाले प्रोफ़ेसरों और पापी पेट ने मजबूर किया था वरना वह तो अपने गांव गंगौली में रहना चाहते थे और ऐसे हिंदुस्तान का सपना इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.

1 comment:

Gyanesh upadhyay said...

सम्मानीय
फिरोज अहमद जी
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