Monday, December 1, 2008

सपनों की रोटी

- राही मासूम रजा


वह इधर कई दिनों से, लगातार, अपने-आप को खोज रहा था। पर खोने वाला कुछ ऐसा खोया था कि खोजते-खोजते उसकी आंखें दुख गयी, पर उसे अपना पता न चला।
आखिर मैं कहां जा सकता हूं? वह दिन-रात अपने आप से कई सवाल करता। शायद मुझे कोई सरकारी नौकरी मिल गयी हो! और क्या, इस दुनिया में कुछ भी हो सकता है। अगर जनता पार्टी की सरकार बन सकती है और फिर वह पार्टी अंग्रेजी के तमाम अक्षरों में तक़सीम हो सकती है और श्रीमती इंदिरा गांधी फिर वापस आ सकती है और चीनी १५ रुपये किलो मिल सकती है और अगर भद्दी फ़िल्मों पर सरकार एंटरटेनमेंट टैक्स ले सकती है और अगर मुसलमान अपना घर जलवाने, और अपने आपको क़त्ल करवाने के लिए दंगे शुरू कर सकते हैं, तो वह सरकारी नौकरी क्यों नहीं कर सकता। तो उसने अपने आपको सरकारी ऑफ़िसरों में ढूंढने का फ़ैसला किया।
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