Saturday, December 13, 2008

१८५७ और राही

- डॉ० अली बाक़र जैदी


डॉ० राही मासूम रजा का महाकाव्य १८५७ दो सौ अड़सठ पृष्ठों और लगभग तेरह सौ पदों पर आधारित है। इससे पहले जो भी महाकाव्य लिखे गये हैं जैसे मिलटन पैराडाइज लास्ट paradises last तुलसीदास की रामचरित मानस व मीर अनीस के शोक काव्य या फिरदौसी का शाहनामा इत्यादि, इन के पात्र धार्मिक देवमालाई ….. या फिर देव शक्तियों के द्योतक थे। फिरदौसी ने तो शाहनामा के अन्त में स्वयं लिख दिया कि -
मनम करदम रुस्तमे पहलवां
वगर न यके बूद दर सेसतां
मैंने रुस्तम को रुस्तम बना दिया वरना वह तो सेसताँ का एक पहलवान था।
इसके विपरीत राही का महाकाव्य अट्ठारह सौ सत्तावन के समस्त पात्र वास्तविक और जमीन से जुड़े हुए हैं। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में पहला योदा जो वीर गति को प्राप्त हुआ वह मंगल पाण्डे था जिसने अंग्रेज अधिकारी पर गोली चलाकर विद्रोह का आरम्भ किया था। मंगल पाण्डे गाँव का रहने वाला एक किसान था जो मेरठ छावनी में अंग्रेजी सेना में सेवक था। उसकी बहादुरी की कथा काव्य में इस तरह मिलती है - भारत वाले देख रहे थे महायुद के सपने/जो नहीं समझे वह भी समझे जो समझे वह समझे/ऐसी हवा थी युद का खेल ही खेल रहे थे बच्चे/उन्तीस मार्च को बैरकपूर में लड़ गये मंगल पांडे/अब तक याद है फाँसी के फन्दे में ऐंठन गर्दन की/सुनो भाइयो, सुनो भाइयो, कथा सुनो सत्तावन की...... लफ्जों में टूटती जंजीर की झंकार लिये/लहजे में एक चमकती हुई तलवार लिये... वक्त गोरों को न दो अब किसी तैयारी का/साथियो उठो यही वक्त है जीदारी का। राही मासूम रजाकृत १८५७...... इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.

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