Monday, December 8, 2008

यह आदमी की गुजरगाह!

यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 1 (5)





यह नन्ही-मुन्नी सी गुड़ियाँ ग्वालनें ग्वाले
यहाँ पे छोड़कर इनको कहाँ गया बचपन
यह बिन्दियाँ हैं यह सिंदूर है यह आईना
सुहाग बिखरा पड़ा है कहाँ छिपी है दुलहन

हर एक राह है वीरान, हर मकान उदास
न खांसते हुए बूढ़े, न गुनगुनाते जवां
न मंदिरों में पुजारी, न दीप और न राम
न मस्जिदों में नमाजी हैं न शोरे-अजां

उदास उदास है पीपल, खामोश है बरगद
कि जेरे-साया कोई शिव विराजमान नहीं
किसी गली में खनकती नहीं कोई पायल
नदी के तट पे किसी बंसरी की तान नहीं

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