Friday, December 12, 2008

राही कभी मेरी राह में न थे

- हसन जमाल

राही मासूम रजा से मैं कभी नहीं मिला, फिर भी हम एक-दूसरे को जानते थे और थोड़े वक्त के लिये हमारे दरमियान ख़तो-किताबत भी रही। राही मासूम के लेखन को मैं पसंद करता था और उनकी चीजें ढूंढ-ढूंढ कर पड़ता था। जब मैं राजकमल प्रकाशन की लाइब्रेरी का मेम्बर था तब एक सेट में उनका मशहूर नॉवेल सीन-७५ भी आया था जिसकी शैली पर मैं लहालोट हो गया था। लहालोट तो मैं पहले से था - आधा गांव पढ़कर।
ये वे दिन थे जब मैं पढ़ता तो अल्लम-ग़ल्लम बहुत कुछ, मगर लिखता सिर्फ बच्चों के लिये था। इसलिये जब जोधपुर में जयनारायण विश्वविद्यालय के हिंदी पाठ्यक्रम से आधा गांव को निकाल फेंकने की मुहिम चली थी और खूब हंगामा हुआ था, तो मैं उस हंगामें की गर्माहट से अछूता रह गया था, क्योंकि तब तक मेरा स्थानीय लेखकों से ऐसा संपर्क न था। प्रगतिशील नामवर सिंह ने आधा गांव पाठ्यक्रम में लगवाया था, लेकिन सांप्रदायिक खेमे ने अश्लीलता की आड़ में आखिरकार आधा गांव को खदेड़ कर ही दम लिया। आधा गांव में विभाजन के बाद ही देहाती मुस्लिम साइकी का यथार्थ चित्रण था। जाहिर है, उसमें रोजमर्रा की गालियां तो होतीं ही। यों भी राही साहब के क़लम से कड़वा सच ही निकलता था।
प्रो० कुंवरपाल सिंह राही के संगी-साथी रहे हैं। उन्होंने राह इस लेख का शेष भाग राही विशेषांक में पढ़े.... http://rahimasoomraza.blogspot.com/2008/10/blog-post_7125.html इस पर क्लिक करें .और जानकारी प्राप्त करें.

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