Saturday, December 20, 2008

हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती

राही मासूम रज़ा कृत 1857 पर कविता दी जा रही है .इससे पहले कई टुकड़ो में दी गई थी. अब एक साथ प्रेषित है .


यह आदमी की गुजरगाह!


राही मासूम रज़ा

हर तरफ़ अंधेरा है रोशनी नहीं मिलती
दूर-दूर ढूँढे से जिन्दगी नहीं मिलती

जाने वाले लम्हे भी
सहमे-सहमे जाते हैं
मेरी अपनी आहट में
साँप कुलबुलाते हैं


कौन-सी लगह है यह
कुछ पता नहीं चलता
इस सड़क पे क्या कोई
क़ाफ़िला नहीं चलता

रास्ता भी और दिल भी
साँय-साँय करता है
एक सहमा-सहमा है
इक धड़कते डरता है

क्या करूँ कहाँ जाऊँ
कौन राह बतलाये
कितना थक गया हूं मैं
कोई गाँव मिल जाये

कुनकुनाते पानी से
अपने पाँव धो लेता
सुबह होने से पहले
थोड़ी देर सो लेता

हाँ जला लूँ इक मशाल
कुछ तो रोशनी होगी
रास्ते की वहशत में
कुछ न कुछ कमी होगी


कोई हवा से यह कह दे वह यह चिराग बुझाये
कि इस सड़क पे अंधेरा ही था तो अच्छा था
हर इक दरख्त में फन्दा, हर इक शाख पे लाश
मैं इस सड़क पे अकेला ही था तो अच्छा था

ये रास्ते पे हैं मसलूब कौन लोग आख़िर
यह रास्ता है कि वीरानियों का जंगल है
सड़क के दोनो तरफ़ यह दरख्त लाशों के
यह जिन्दगी की गुजरगाह है कि मक्तूल है

गुजर चुका हूं मैं इस रास्ते से पहले भी
दो रूया आम के पेड़ों के वह घने साये
फ़िजा में अमियों की वह नर्म खुशगवार महक
कि जिनके जिक्र से फ़स्ले-बहार आ जाये

हवा दरख्तों के आग़ोश में जगह पाकर
शरीर बच्चों के मानिन्द शोर करती हुई
हजार क़दमों की आहट, तमाम नग़मा व रंग
हर एक ग़ुबार से इक़ जिन्दगी उभरती हुई




शिकस्ता पैरों से लिपटा हुआ व रंग-ए-हिना
वह रंग-रंग के आँचल हवा में उड़ते हुए
वह पिछले दिन की गूंथी चोटियों से निकले बाल
हर एक मोड़ पे कुछ क़ाफ़िले से मुड़ते हुए

वह चरमराते हुए जूतों की सदाओं से
जुगाली करती हुई बकरियों की बेख़बरी
अँधेरी रात में जलते हुए दीयों की तरह
वह गाय भैंसों की आँखें सितारा-ए-सहरी

हर एक लम्हा वह सरगोशियाँ सी करता हुआ
वह साँस लेती हुई जुल्मतों की खामोशी
हर एक साया कोई गीत याद करता हुआ
वह गुनगुनाती हुई चाँदनी की बेहोशी

कहीं हवा ने सदा दी कहीं बढ़े साये
थकन को देख के हर शाखेतर का हाथ बढ़ा
क़दम क़दम पे मुसाफिर नवाज मिलते थे
हजारहा शजर-ए-सायादार राह में था।

वह जिन्दगी के मजाहिर कहाँ गए आखिर
न कोई गीत न बच्चों की भाग दौड़ का शोर
न सहर-ए-चंग न खड़ताल की सदा का फसूं
कहाँ छिपे हैं मसर्रत के नाचते हुए मोर

हैं किस गुबार में बिरहे की वह जवाँ तानें
कि जिनके सुनने से अँगड़ाइयाँ सी आने लगें
खमोश क्यों हैं वह कजरी की मदभरी तानें
कि जिनकी गूँज से काली घटाएँ छाने लगें

न बकरियों के रेवड़ न कोई चरवाहा
न भागते हुए बछड़े न सोचती हुई गाएँ
फ़क़त दोरूया दरख्तों पे झूलती लाशें फ़क़त
यह दिल कि हर एक गाम पर धड़क जाए




मैं किससे पूछू यह क्या क़िस्सा है कहाँ हूं मैं
न संग-ए-मील ही बोलें न ये दरख्त बताएँ
हर एक पल मुझे गूंगों की तरह तकता है
यह झूलती हुई लाशें न कुछ सुनें न सुनाएँ

वहाँ पे है तो धुआँ सा, उधर चलो शायद
किसी मकान का दरवाजा ही खुला मिल जाए

यह क्या! यहाँ भी किसी का पता नहीं चलता
सिसक रहा है यह छप्पर कराहता है वह घर
हर एक किवाड़ की उर से झपक रही है फलक
हर एक रौजन-ए-दीवार (दरवाजे) में कई अजहर (अंधेरा)

न खेलते हुए बच्चे न डाँटती हुई माँ
बस इक गलीज धुआँ है हर एक आँगन में
यह टूटे-फूटे से बर्तन नुचे-खुचे कपड़े
किसे किसे मैं समेटूं अब अपने दामन में

ये गागरें हैं ये लोटे ये जर्दरू थाली
यह आरती के दिये और यह कन्हैया है
यह अधजली हुई लाशें यह अधजले हुए घर
जमीन तू ही बता कौन इधर से गुजरा है




यह नन्ही-मुन्नी सी गुड़ियाँ ग्वालनें ग्वाले
यहाँ पे छोड़कर इनको कहाँ गया बचपन
यह बिन्दियाँ हैं यह सिंदूर है यह आईना
सुहाग बिखरा पड़ा है कहाँ छिपी है दुलहन

हर एक राह है वीरान, हर मकान उदास
न खांसते हुए बूढ़े, न गुनगुनाते जवां
न मंदिरों में पुजारी, न दीप और न राम
न मस्जिदों में नमाजी हैं न शोरे-अजां

उदास उदास है पीपल, खामोश है बरगद
कि जेरे-साया कोई शिव विराजमान नहीं
किसी गली में खनकती नहीं कोई पायल
नदी के तट पे किसी बंसरी की तान नहीं




बने हुए तो हैं पनघट पे गागरों के निशाँ
मगर घरों की वह बातें नजर नहीं आतीं
वह छोटी-छोटी सी खुशियाँ तो वह पहाड़ से ग़म
घरों से औरतें क्या अब इधर नहीं आतीं

न त्योरियों की कमंदे, न आबरूओं की कटार
न क़हक़हों के वह नश्तर, न वह निगाहों के बान
न कोहनियों के इशारे, न झेंपी-झेंपी हँसी
न क़त्लगाह में मक्तूल ही कोई मेहमाँ




गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना
घरवा तक ना चीन्हूं पै पितबउ चोरवन का हौ जोर
गुण्डा छेंक के बैठल बाडन तोहरे घर का मोड़
चुल्लू भर हम हूं पी लें का बिगड़ी हो तोहार
बरनवा झलकत बाले ना
गोरी सुन ले अरजिया हमार गगरिया छलकत वाले ना

छलक रही है न गागर, भड़क रही है न प्यास
न चोर ही हैं न गुण्डे ही छुपके बैठे हैं
बस इक महीब खमोशी जमीं से ता बा फ़लक़
मगर निशाने - क़दम यह कुछ अजनबी से हैं

बता सुलगते हुए गाँव, तू ही बतला
झिझक-झिझक के गुजरती हवा तू ही कुछ बोल
किसी कराह, किसी चीख का सुराग़ मिले
सुलगती लाशों से महकी फ़िजा, तू ही कुछ बोल


..................

दरख्तो तुम ही बताओ, कोई इशारा कर दो
तुम्हारी शाखों को लाशों के फल दिये किसने
यह लूटी किसने तहारत (पवित्रता) तुम्हारे साये की
यह रंग शामो-सहर (सबह-शाम) के बदल दिये किसने

मैं चीखता रहूँ कब तक कोई तो कुछ बोले
बस एक चुप कि कहीं अजनबी न लौट आयें
यह अंजारों (दृष्टियों) की तरह कुछ धुनें-सी उठती हुई
कि जिनकी चोट से जहनों के तार थर्रायें

वह सीधे सादे घरेलू मसर्रतों के गीत
लतर की तरह वह चढ़ती जवानियों के गीत
वह आँगनों के, वह गलियों के, पनघटों के गीत
वह बीबियों की धुनें, वह चमायनों के गीत





दमड़ी का सेनुर महँग भयल बाबा
चुनरी भयल अनमोल
ए ही रे सेनुरवा के कारन बाबा
छोड़ लौं मैं देस तुहार
डोलिया का बाँस पकड़े रोयें बीरन भैया
बहना मोरी दूर देसी भई
परदेसी भई
कौन लगइहै बजरिया में आखिर
वीरन के अँसुअन का मोल रे बाबुल चुनरी भयल अनमोल

मगर न कोई सहेली न ढोल और न गीत
कहार ही हैं न डोली न कोई बीरन है
न समधिनें हैं न मासूम गालियाँ ही हैं
यह गाँव आज से बेवा है या सुहागन है

चलूँ यहाँ से कि ऐ मेरे डूबते हुए
दिल यहाँ पे सुबह न मालूम कितनी दे में हो
मगर कुरेद लू शायद कोई शरार (अंगारा) अभी
यह जिन्दगी की चिता है कि ढेर में हो




अँधेरे में छिपी हुई हवा की साँय-साँय में
दबी-दबी सी गुफ्तगू घुटी-घुटी शिकायतें
हर एक लफ्ज एक कराह, एक ठंडी साँस है
न जाने कौन लोग हों न जानें किस तरह मिलें
मेरे खयाल को जो साँप डस रहा है देर से
न जाने उस सवाल पर ये रो पड़ें कि हेस पड़ें

आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मेरे सुला क्यों न जा
आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे सुलाती हू
आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा

मेरे भैया कहाँ हैं बुलाओ साथ मेरे इन्हें भी सुलाओ
हम अकेले भला कैसे सोयों हम न सोयेंगे लोरी न गाओ

आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आजा री निंदिया पलकियन में
आ मोरे चन्दा की अँखियन में







आती हू बीबी मैं आती हू
राजा को तोरे तोरे सुलाती हू
आई मैं बीवी पलकियन में
आई मैं चन्दा की अँखियन में

आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा

कह दिया लोरियाँ अब न गाओ मेरी बाजी कहाँ हैं बताओ
वह कहानी सुनायें तो सोऊँ बड़की अम्मा कहाँ हैं बुलाओ

आजा री निंदिया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा

लाड़ला सो गया अब न गाओ गाके लोरी इसे मत जगाओ
रात ढलने लगी तुम भी सो लो जख्म दुखते हैं मत गुनगुनाओ

हम भी चुपचाप अब लेट जाएँ
दिल के जख्मों पे मरहम लगाएँ
जो दरख्तों पे लटके हुए हैं
कह दो उनसे कि मत याद आएँ
याद करने से अब फायदा क्या
जाने वाले पलटते नहीं हैं
जिनको रहना था वह जा चुके हैं
हमको जाना था और हम यहीं हैं

चुप होके लेट जाने से क्या नींद आएगी
मेरी भी कोई माँ है जो लोरी सुनाएगी
सुन लो, यह माँ हूँ, कोई फिरंगी नहीं हू मैं
बस मौत मेरे जख्म पे मरहम लगाएगी
यह उजड़ी गोद लेके जियूँ भी तो क्या जियूँ
खुद अपनी गोद देखके अब शर्म आएगी

बच्चों जैसी न बातें करो तुम
सब्र कर लो कि चारा नहीं है
गाँव में उन दरख्तों के ऊपर
सिर्फ बेटा तुम्हारा नहीं है

है फिरंगी का शायद खुदा भी
अब खुदा भी हमारा नहीं है
बोझ तो है जईफी (बुढ़ापा) का
सर पर और कोई सहारा नहीं है

दूर तक आसमाँ पर सियाही
दूर तक कोई तारा नहीं है
आँसुओं का नमक जिसको भर दे
जख्म ऐसा हमारा नहीं है

अरे बाबा जरा आहिस्ता बोले
मैं कुछ कदमों की आहट सुन रही हू
फिरंगी तो नहीं फिर आ रहे हैं
मैं अपने लाल को कैसे छुपाऊँ

माँ डरो मत मैं कोई फिरंगी नहीं
आँसुओं के लिए एक दामन हँू मैं
ढूँढ़ते-ढँूढ़ते थक चुका था तुम्हें
जख्म खाए हुए दिल की धड़कन हूँ मैं

गोद में अपने बच्चे को ले लो अगर
एक बिस्तर लगा दूँ, मैं अशआर (कविता) का
और तब यह बताओ कि उस गाँव में
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ

वह एक बार मेरी सिम्त देखने के बाद
नजर झुका के थपकती है अपने बच्चे को
अँधेरा है मगर इतना नहीं कि मुँह की तरफ
मैं देख पाऊँ न जाते हुए दुपट्टे को

माँ मैं यह पूछता हँू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ

वह फिर खामोश है फिर भी कुछ नहीं कहती
बस उसके हाथ में आँचल उठा ही रहता है

वह सर कि जिसमें है ममता की अजमतों (कविता) का गुरूर
वह आसमाने मुहब्बत झुका ही रहता है

माँ मैं यह पूछता हू बताओ मुझे
कौन लोग आए थे और फिर क्या हुआ

वह एक झटके से पीछे कि सिम्त मुड़ती है
मैं जानता हू कि क्या दिखा रही है मुझे

वह धुआँ है, वहाँ लाशें हैं, तबाही है
मैं जानता हू कि वह क्या बता रही है मुझे

मैं चला आ रहा हू इसी गाँव से
है वहाँ क्या, मैं यह तो नहीं पूछता
अपने आँसू मेरी आँख को सौंपकर
सिर्फ इतना बता दो कि कौन आया था

वह जो है एक खण्डहर वह मेरा गाँव था
काँपते हाथ ने जाने क्या कह दिया
मैं नहीं सुन सका ऐ हवा रुक जरा

जुज फिरंगी (फिरंगी के अलावा) भला और कौन आएगा
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या हुआ
भाइयों बहनों को यह मेरा लाडला
ढूँढते ढूँढते थक के सो भी गया
यह न बतलाऊँगी और फिर क्या

अम्माँ क्या भैया आए हैं मेरे लिए रोटी लाए हैं

आजा री निंदया तू आ क्यों न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा
आती हूं बीबी मैं आती हूं
राजा को तोरे सुलाती हूं

मैं नहीं सोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा
मैं बस रोऊँगा मैं नहीं सोऊँगा

तुम भैया को ढूँढ रहे हो हाँ हाँ भैया भी आएगा
लेकिन जब तुम सो जाओगे लेकिन जब कहना मानोगे

अच्छा लो मैं सो जाता हूं
अम्मा मैं चन्दा बेटा हूं
आजा री निंदया तू आ क्यां न जा
राजा को मोरे सुला क्यों न जा

डरते-डरते दूर उफुक (क्षितिज) में
सुरज ने पर्दा सरकाया
चिड़ियों के मीठे गाने को
कोई फिरंगी रोक न पाया

क्या मैं रस्ता भूल गया हूं

उठता सूरज सोच रह है
क्या मैं रोज यहीं आता था
क्या वह वही प्यारी दुनिया है
मुर्दों के बाजार सजे हैं
लाशों का खलियान लगा है
खेतों के लब सूख रहे हैं
दरिया का चेहरा उतरा है

मैं इक टूटे से मंदिर में
बरगद की इक जड़ पर बैठा
जाने कब से सोच रहा हूं

वह बच्चा अब जागा होगा
माँ कैसे बहलाती होगी
माँ कैसे समझाती होगी

घुटनों पर हाथों को रखकर
मैं उठता हूं, दिल को यह डर
फौजें आहिस्ता चलती हैं
कुछ ही दूर पे तोपें होंगी
गाँव से शोले उठते होंगे
और पेड़ों पर लाशें होंगी

बिरहे होंगे दार (सूली) के ऊपर
कजरी का दम घुटता होगा
दिल कहता है मेरी सुन लो
आगे जाकर मरना होगा

वह बच्चा अब जाग के शायद
जिद करता या रोता होगा
माँ की आँखों बाप के दिल में
एक गहरा सन्नाटा होगा

मरना भी हो तो करना
आगे तो चलना ही होगा
जुल्मत (अंधेरा) से जब ठन ही गई है
लौ की तरह जलना ही होगा

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