यह आदमी की गुजरगाह!का शेष भाग 1 (4)
मैं किससे पूछू यह क्या क़िस्सा है कहाँ हू मैं
न संग-ए-मील ही बोलें न ये दरख्त बताएँ
हर एक पल मुझे गूंगों की तरह तकता है
यह झूलती हुई लाशें न कुछ सुनें न सुनाएँ
वहाँ पे है तो धुआँ सा, उधर चलो शायद
किसी मकान का दरवाजा ही खुला मिल जाए
यह क्या! यहाँ भी किसी का पता नहीं चलता
सिसक रहा है यह छप्पर कराहता है वह घर
हर एक किवाड़ की उर से झपक रही है फलक
हर एक रौजन-ए-दीवार (दरवाजे) में कई अजहर (अंधेरा)
न खेलते हुए बच्चे न डाँटती हुई माँ
बस इक गलीज धुआँ है हर एक आँगन में
यह टूटे-फूटे से बर्तन नुचे-खुचे कपड़े
किसे किसे मैं समेटूं अब अपने दामन में
ये गागरें हैं ये लोटे ये जर्दरू थाली
यह आरती के दिये और यह कन्हैया है
यह अधजली हुई लाशें यह अधजले हुए घर
जमीन तू ही बता कौन इधर से गुजरा है
1 comment:
एक बहुत बढ़िया रचना पढ़वाने के लिए आभार।
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